वेनिस |
पहला पल
पहली नज़र में प्यार और एक हज़ार चाँद !
मेरी पैदाइश सागर किनारे की है.
बचपन से समुद्र की गंध का आदी हूँ मैं. खारी हवा की छुअन त्वचा को सहलाती है. भली भली-सी लगती है. कानों में ज्वार-भाटे की लय गूँजती रहती है. लहर के आख़री बुलबुले के फूटने तक उसकी आवाज़ सुनाई देती रहती है. त्वचा को समुद्र की खारी हवा न मिले तो धीरे-धीरे जीने का मज़ा किरकिरा होता चला जाता है. पहाड़ों के पेड़ों से बहती चली आती मलयज शीतल हवा भी इस खारी हवा की जगह नहीं ले पाती. लहरों का संतत संगीत कई दिनों तक सुनाई न दे तो मैं बेचैन हो उठता हूँ और उस बेचैनी की वजह किसी तरह समझ में नहीं आती. एक अनाम, लाइलाज अनुपस्थिति बेचैन किए रहती है.
1984 में मैं पहली बार यूरोप गया. बाद में तीन महीनों तक मेरा सफ़र ज़मीन के रास्ते होता रहा. समुद्र की अनुपस्थिति मुझे बेचैन करने लगी. अहसास की सतह के नीचे, बे-अहसास के दयार में मेरा बदन समुद्र के लिए तरसने लगा. इसी हालत में मैं वेनिस स्टेशन के बाहर निकला.
सूरज अभी-अभी डूब चला था. इससे पहले कि कुछ भी समझ आए, नथुने पूरे के पूरे खुल गए. मैंने एक लंबी साँस भरी और सहसा अंग-अंग में चैतन्य की एक लहर-सी दौड़ गई. सफ़र से थके बदन में उत्साह भर गया. ज़रा-सा आगे क्या बढ़ा, मुझे समुद्र दिखाई दिया. पूनम के चाँद की रोशनी में अपनी सुंदरता के आत्मविश्वास से भरपूर युवती की तरह वह पौढ़ा हुआ था. लहरें ऐसे हुलस रही थीं, मानो उन्माद के चलते उनके शरीर पर रोंगटे खड़े हो रहे हों. चाँद हज़ारों प्रतिबिंबों में बिखरकर भी आकाश में पूरा-का पूरा विराजमान था.
जल्दी-जल्दी होटल में सामान रखकर मैं वापरेतो नामक बोट पर सवार हो गया. ग्रँड कॅनल की सर्पाकृति रेखा वेनिस को दो भागों में बाँट देती है. उसी नहर से होती हुई बोट चली जा रही थी. क्या ही अच्छा होता अगर भारतीय देवी-देवताओं की तरह मेरे भी चारों दिशाओं में सिर होते! इर्दगिर्द नज़ारा ही कुछ ऐसा था. जहाँ देखूँ, समुद्र. दपदप करते चंद्रबिंब. वेनिस की कटावदार इमारतें. उनके बिंब-प्रतिबिंब. तैरते हुए चाँद. ‘तुम्हारे माथे कोटिचंद्र विराजें!’ आकाश में तो एक ही चाँद था. वेनिस के समुद्र में, आईनों में, खिड़कियों के शीशों में करोड़ों चाँद चमक रहे थे. धरती और आकाश के प्यार का फल था यह. प्रेम की देवी का नाम धारण करने वाले शहर वेनिस ने नस-नस में बिजली दौड़ा दी थी मानो. पहली ही नज़र में मुझे वेनिस से प्यार हो गया. हर मुलाक़ात में प्यार बढ़ता ही चला गया.
दूसरा पल
वह पल, जब भूपेन खख्खर और उनके दोस्त तिओपोलो में अफ़लातून (प्लेटो) की गुफा में मिलते हैं और आइज़ेन्श्टाइन उनकी इस मुलाक़ात को असीसते हैं.
सन 1992 वेनिस बिएनाले के आयोजकों की तरफ़ से सर्गेई मिखायलोविच आइज़ेन्श्टाइन के कला-विचार पर आयोजित एक सप्ताह चलने वाले सेमिनार में निबंध पढ़ने का निमंत्रण मिला. अमरीका से लेकर जापान तक आइज़ेन्श्टाइन के कला-विचार को लेकर शोधकार्य कर रहे क़रीब नब्बे स्कॉलर इस सेमिनार में भाग ले रहे थे. पढ़े गए पेपरों और चर्चाओं की एक सात सौ पृष्ठों की किताब भी बाद में इतालवी भाषा में प्रकाशित की गई.
कान्फरेन्स पालात्सिओ लाबिआ नामक राजमहल में संपन्न हो रही है. वहाँ की दीवारें चित्रकार जोवानी बितस्ता तिओपोलो (1696-1770) के बनाए भव्य भित्तिचित्रों से सजी हैं. हममें से कुछ एक ने अपने-अपने निबंध के साथ कुछ वीडिओ क्लिप और स्लाइडों का प्रदर्शन भी किया. पालात्सिओ के प्रमुख कक्ष में फिल्म प्रदर्शित करने के लिए परदा सजा दिया गया था. यह कक्ष कोई सिनेमाघर तो था नहीं, इसलिए यहाँ कुछ मात्रा में प्रकाश फैला हुआ था. मेरी फिल्म ‘फिगर्स ऑफ थॉट’ की छवियाँ परदे पर उभरने लगीं. यह फिल्म तीन प्रसिद्ध भारतीय चित्रकारों- भूपेन खख्खर, नलिनी मालानी और विवान सुंदरम्– के काम पर आधारित है. परदे पर उनके चित्रों और आसपास के भारतीय परिवेश का चित्रण करने वाली छवियाँ उभर रही थीं. साथ ही उनसे संवाद करती, उनके काम की हिमायत करती या फिर उसपर तंज़ करती ध्वनियाँ सुनाई दे रही थीं. जो अनुभव हो रहा था, उसकी एक पर्त भारतीय चित्रकला और परिवेश की थी. उधर दीवारों पर नीम अँधेरे और नीम उजाले में तिओपोलो की छवियाँ झलक रही थीं.
तिओपोलो की इन छवियों में चित्रित फ़िज़ा स्थापत्य से होड़ ले रही थी. चित्र में बनी खिड़कियाँ और दरवाज़े वास्तविक खिड़कियों-दरवाज़ों के साथ ऐसे मिल गए थे कि भूलभुलैया में फँस जाने का अहसास हो रहा था. कभी-कभार उनसे होते हुए इधर से उधर, उधर से इधर आने-जानेवाले दर्शकों की छाया कृतियाँ भी झलक-झलक जाती थीं. कभी दालान की असली खिड़कियों से बाहर की नावों के आकार नज़र आ जाते थे. बीच-बीच में पानी की लकदक करती सतह चमक जाती.
मेरी फिल्म में परदे पर चित्रकारों की आवाज़ें, बाहर तेज़ी से चली जाती मोटरबोटों की जबरदस्त गुर्राहटें, वापरेतो के भोंपू – सब मिलाकर एक अद्भुत-सा रसायन तैयार हो रहा था. पल में घुलकर ग़ायब हुआ जा रहा था. पल में फिर बन रहा था.
सेमिनार में उपस्थित लोगों की विविध भाषाओं और दबी आवाज़ों में बोले जाते संवाद, पानी की कलकल ध्वनि, फिल्म में से निकलती ध्वनियाँ, सचमुच की खिड़कियों से बाहर की दुनिया की, दूर से आती सचमुच की आवाज़ें सब मिलकर एक अजीबोग़रीब-सा समयाकाश तैयार हो चला था. उसमें सत्य था और स्वप्न भी था. कालबद्ध कुछ था और कालातीत भी कुछ था.
प्लेटो की पुस्तक ‘रिपब्लिक’ में जीवन के रूपक के तौर पर छवियों की गुफा का वर्णन है. वैश्विक दर्शन और साहित्य के यथार्थ और कल्पना– दोनों छोरों को एकबारगी छूने वाला अद्वितीय लेखन है यह. इसमें प्रस्तुत इस प्रसंग में हम धरतीवासी एक गुफा में बैठे हैं. गुफा के बाहर की गतिविधियों की बस, छाया कृतियाँ ही हमें दिखाई दे रही हैं. क्योंकि हम रोशनी की ओर, दुनिया की ओर पीठ फेरकर बैठे हैं. इस दुनिया की वस्तुएँ, प्राणी, स्थल और घटनाएँ सत्य की इस रोशनी में गुफा के बाहर घटित हो रही हैं.
हम आमने-सामने उन्हें देख नहीं पा रहे. उनके सत्य स्वरूप का अहसास हमें नहीं हो सकता. इस सत्य से हम हमेशा के लिए वंचित रह जाएंगे. हमें जो महसूस हो रही है वह सिर्फ़ उसके नित्य परिवर्तनशील छाया रूपों की दुनिया है. शाश्वत सत्य कालातीत होता है, अंतरिक्षातीत होता है.
सेमिनार में भाग लेने वाले हम सब एक साथ बैठते हैं, जीवन, कला, दर्शन, सौंदर्य को लेकर चर्चा करते हैं. शब्द बहते रहते हैं. कभी कथ्यपूर्ण कभी कथ्य विहीन, कभी अभिधा, लक्षणा, व्यंजना- तीनों शब्द शक्तियों- को स्पर्श करते चलते, कभी बस words, words, words.
वेनिस से मेरे प्यार का यह दूसरा पल था. रेनेसा में वेनिस का बहुत बड़ा हिस्सा रहा. पाँच सदियों बाद, रेनेसा की आत्मा के बीसवीं सदी के अवतार सर्गेई मिखायलोविच आइज़ेन्श्टाइन के बारे में चर्चा करने, रेनेसा के दौरान जो महज़ सपना लग सकती थी उस सिनेमा कला के बारे में चर्चा करने के लिए इकट्ठा हुए थे हम सब. कैमरा ल्युसिडा, कैमरा ऑब्स्क्युरा आदि कई साधनों की वजह से, दृष्टि निरंतरता के नियम के अहसास की वजह से रेनेसा ने सिनेमा को धुँधले रूप में ही सही पहचान तो लिया था. उसकी आशा की थी, अपेक्षा की थी.
इस कक्ष में, भित्तिचित्रों से सजी, रेनेसा के उत्सव को मना रही पृष्ठभूमि पर, कई देशों और सभ्यताओं से, कई अध्ययन-क्षेत्रों में, कलाओं में, शास्त्रों में सहभागी क़रीब सत्तर और क़रीब दो सौ श्रोता जमा थे. वेनिस में बोया गया रेनेसा का बीज बीसवीं सदी में फिर अंकुरित हुआ था, उसपर नन्ही-नन्ही पत्तियाँ, कलियाँ फूट रही थीं. वेनिस की नगरदेवी यह सब देख रही थी, सुन रही थी.
मेरे निबंध का विषय था ‘रंग’.
तीसरा पल
रंग-ध्वनितरंग
रंगों की संवेदनशीलता को वेनिस की एक ख़ास देन है. और यह देन सिर्फ़ दृश्य कलाओं तक सीमित नहीं है. संगीत में भी वेनिस ने रंग भरे हैं.
इतालवी रेनेसा ने यूरोपीय चित्रकला को जो कुछ भी दिया, उसमें वेनिस के चित्रकार रंगों के उनके प्रयोग के लिए ख़ास तौर पर मशहूर हैं. वेनिस को अनुभव कर चुकने के बाद इसे लेकर कतई आश्चर्य नहीं होता. वहाँ का समुद्र, आकाश, बादल, प्रकृति के बदलते रूप तो किसी को भी दीवाना बना दें. आम तौर पर दिन में प्रकाश आता है आकाश की यानी ऊपर की दिशा से. वेनिस को घेरे हुए समुद्र के चलते, वेनिस की नन्ही-नन्ही गलियों में घुसे उसके पानी के चलते प्रकाश नीचे से परावर्तित होता रहता है. इससे होता यह है कि हम जो कुछ देख रहे होते हैं, उसके साये इस परावर्तित प्रकाश की वजह से बदलते रहते हैं. आभास कुछ-कुछ यह होता है कि ये साये वास्तव नहीं हैं.
वेनिस के चित्रकारों ने वहाँ के प्रकाश के इस अद्भुत रूप को बख़ूबी पहचान लिया. रंग को बराबर नया बनाने वाले तेज का, प्रकाश का, छायाओं और रंगरूप का जायज़ा लिया. उनके चित्रों में प्रकाश और रंग के तरल रूप प्रकट होते रहे. बादल नेत्रोद्दीपक रचनाओं के ज़रिये आधे सच, आधे सपने के-से आकार धारण करते हैं. ये चित्र मानव मन के चेतन, अवचेतन और अचेतन के प्रतिबिंब रँगते हैं. उनमें बड़ी शान से प्रविष्ट होता प्रकाश हर तरफ़ आनंद ही आनंद लुटाता फैलता जाता है.
उन्नीसवीं सदी में जब कि इंप्रेशनिज़्म अभी पैदा नहीं हुआ था, तब वेनिस के चित्रकारों ने रंगो, ऋतुओं और प्रकृति का जो हृदयस्पर्शी, नेत्रसुखद और लुभावना अनुभव कराया उसका कोई सानी नहीं. वह अनुभव स्पेन के चित्रकारों में होता है, गोया के चित्र में होता है, एल ग्रेको की मज़बूत चित्र-रचना में होता है. लेकिन जीवन का आनंद उठाने का जो खुला अंदाज़ वेनिस के चित्रकारों का है, वह अन्यत्र शायद ही कभी देखने में आए. उन्होंने रेखाओं से पहले से ही सुनिश्चित किए आकारों में रंग भरकर अपने चित्र नहीं सजाए हैं. रंगों में ही चित्र रचे हैं उन्होंने. मसलन, वेनिस के चित्रसंग्रहालय अकादेमिया में चित्रकार ज्यॉर्जिआनो का रंगफलक ‘टेम्पेस्ट’ (सन 1506) देखा, तब मुझे यह फ़र्क साफ़-साफ़ महसूस हुआ. नज़र को सहज ही दूर तक ले जा सकनेवाले प्रकाश की वजह से वेनिस के चित्रकार अपने चित्रों में दूर तक के ब्यौरे रँग सके. इसीसे वाइड एँगल लेन्स से दिखाई देनेवाले दृश्य के-से दृश्य रँगने की वेनिस की शैली का विकास हुआ.
रंग की इस वेनिशियन शैली के एक महत्त्वपूर्ण चित्रकार हैं टिशियन. वे न तो लिओनार्दो जैसे वैश्विक विद्वान थे और न ही मिकेलांजेलो जैसे प्रभावशाली व्यक्तित्व के धनी. लेकिन रंग पर उन्हें जो महारत हासिल थी उसे लेकर एक प्रसंग अक्सर सुनाया जाता है. कहते हैं एक बार टिशियन के हाथ से गिरा ब्रश ख़ुद एम्परर चार्ल्स द फिफ्थ ने उठाकर उनके हाथ में थमा दिया था.
वेनिशियन चित्रकारों ने आकाश, पानी और प्रकाश का चित्रण जिस तरह से किया वैसा उनसे पहले किसी ने नहीं किया था. इसकी एक वजह यह है कि उन्होंने तैलरंगों का इस्तेमाल किया, इससे उनका रंगपट इंद्रधनुष से होड़ लेने लगा. लेकिन यह वजह उनकी रंग-समृद्धता को उजागर करने के लिए पर्याप्त नहीं है. कई चर्च की छतें और उनपर खड़े गुंबद, उनपर बनाए नीलाकाश और सफ़ेद बादलों, उड़ते हुए देवदूतों के चित्र देखने वाले भक्त को यही आभास कराते होंगे जैसे वह स्वर्ग के दर्शन कर रहा हो. मुझ नास्तिक को भी ऐसा लगा जैसे मैं रोज़ाना ज़िंदगी की आपाधापी से ऊपर उठ चुका हूँ. यही अहसास हुआ कि उस ऊँचाई पर तो सिर्फ़ कलाकार और द्रष्टा की प्रतिभा ही ले जा सकती है. लगा, धरती पर पैर ज़रूर हैं मगर प्रतिभा के पंखों ने मुझे हौले-से ऊपर उठा लिया है. चित्रकार कानालेटो ने वेनिस के सागर-चित्रों में लहरों पर प्रकाश की जगमगाहट और धीमे छाया विहीन प्रकाश की मुलायमियत. दोनों को एक-से लाड़-प्यार से रँगा है.
इसी वेनिस में तिंतोरेतो ने जीवन बिताया. उन्होंने रंग की विराट शक्ति से पूरी कायनात को तान दिया. दृष्टि क्षेत्र की गहराई में वृद्धि करते चले जाते हुए बाहरी दुनिया से नज़र को हटाए बग़ैर उसे अंदर की ओर मोड़ लिया. ठीक उसी तरह एक साथ अंदर-बाहर उजाला कर दिया, उजाला रँग दिया, जिस तरह दहलीज़ का दीप करता है. सुंदरता की लिज़लिज़ी अवधारणाओं की परवाह किए बग़ैर उन्होंने फ़िज़ा के ज़रिये वेदना और भावना की गहराई को प्रकट किया. उसके लिए फ़िज़ा को तान दिया, निचोड़ा. वेनिस के उल्लास भरे आकाश के बदले उन्होंने बेधते, चुभते प्रकाश को रँगा. रंग के संयोजन के ज़रिये उनके आपसी संघर्ष को प्रकट किया. रौद्र रस और तांडव का आवाहन किया.
टोलिडो में बस चुके चित्रकार एल ग्रेको हालाँकि वेनिस के रहनेवाले नहीं थे, लेकिन उनकी कला पर वेनिस के चित्रकारों का बड़ा प्रभाव रहा है. (उनका जन्म क्रीट नामक ग्रीक द्वीप में हुआ था, लेकिन उस दौरान यह द्वीप वेनिशियन रिपब्लिक का ही हिस्सा था.) खास बात तो यह कि एल ग्रेको तिंतोरेतो को बहुत मानते थे और यह कोई मामूली बात नहीं थी. ग्रेको इतने मुँहफट थे कि सिस्टिन चॅपेल देखने के बाद मिकेलांजेलो के बारे में उन्होंने कहा था, ‘मिकेलांजेलो भले आदमी हैं. क्या ही अच्छा होता अगर वे चित्रकला जानते’!
रंग का प्रयोग सामने दिखाई दे रहे दृश्य का अनुकरण करने के लिए बारीक ब्यौरों सहित भी किया जा सकता है या फिर भावनाओं के साथ रंगों के अलग-अलग रिश्तों को समझते हुए, उन्हें महसूस करते हुए आत्माभिव्यक्ति के लिए भी किया जा सकता है. रंग को अनुकरण की क़ैद से आज़ाद करने पर ही उसकी सारी सामर्थ्य प्रकट हो सकती है. एल ग्रेको तिंतोरेतो को जो इतना मानते थे उसका प्रमुख कारण था भावाभिव्यक्ति के लिए तिंतोरेतो द्वारा रंग का खुलकर किया हुआ प्रयोग. ग्रेको छब्बीस साल की उम्र में वेनिस आ गए. वहाँ तिंतोरेतो के काम के प्रति उनमें आकर्षण पैदा हुआ. तिंतोरेतो से जो कुछ सीखना था वह सीखकर तब वे टोलिडो चले गए.
चित्रकला के क्षेत्र में ग्रेको से पहले और उनके बाद भी उनके जैसा चित्रकार नहीं हुआ. उन्होंने धार्मिक, रहस्यवादी अतिउन्मादक भावनाओं का जो चित्रण किया है, उसमें रंग का योगदान बहुत बड़ा है. परस्पर पूरक या परस्पर विरोधी रंगों को पास-पास रख उन्होंने कुछ ऐसा परिणाम पैदा किया है जिससे देखने वाले की आँखों में तेज की लपटें उठने लग जाएँ. उनका बनाया ‘व्यू ऑफ टोलिडो’ पश्चिमी कला का पहला महत्त्वपूर्ण प्रकृति-दृश्य है. इसमें ग्रेको ने बादलों के रंगों और उनसे बरसते प्रकाश के ज़रिये उल्लासोन्माद की भावनाओं को बग़ैर मानवीय संदर्भों के, प्रकृति के माध्यम से प्रकट किया है.
ग्रेको ने चित्रकला में जो रंग भरे हैं उनका महत्त्व समझने में दुनिया को कई सदियाँ लग गईं. स्युर-रिअलिज़्म और एक्सप्रेशनिज़्म जो बीसवीं सदी की महत्त्वपूर्ण शैलियाँ, कला-विचार हैं, उनकी जड़ें ग्रेको की शैली में पाई जाती हैं. माद्रिद के कला-संग्रहालय प्रादो और टोलिडो के संग्रहालयों में भी ग्रेको के कई चित्र देखने को मिल जाते हैं. उनके सामने खड़े होते यह अहसास होता है कि ग्रेको ने रंग से दिव्य संगीत किस तरह गवा लिया. रंग के खुले प्रयोग के चलते वे मातीस, फोविस्ट और वैन गॉफ से रिश्ता बताते हैं लेकिन वह भी एक बुज़ुर्ग का रिश्ता.
यह सब कुछ वेनिस की देन है.
वेनिस के चित्रकारों में से कई संगीतकार थे. वेनिस रिपब्लिक संगीत, मनमोहक दृश्यों, उत्सवों का दीवाना था. ऐसे समय इकट्ठा होने पर जो आदान-प्रदान होता था उसी से पश्चिमी सभ्यता में चित्रकला और संगीत की एक मिली-जुली साधारण भाषा का निर्माण हुआ. चित्रकला में रंग के ‘टोन’ का ज़िक्र होता है. ‘क्रोमेटिक स्केल’ में तो ‘क्रोमा’ अर्थात रंग साफ़-साफ़ नज़र आता है, जो मूल शब्द है.
वेनिशियन चित्रकारों ने रंग का प्रयोग सांगीतिक मोटिफ की तरह किया. उनके रंग-संयोजन में किसी एक जगह पर रंग का आरंभ होता था, वह विस्तार को प्राप्त होता जाता था, और फिर कभी कभार विरोधी या पूरक रंग में तिरोहित हो जाता था. यमक विभिन्नार्थी शब्दों को नाद के ज़रिये आपस में गूँथ देता है. अनुप्रास भिन्नार्थी शब्दों को आपस में जोड़ता है. नजदीक ले आता है. उसी तरह अलग-अलग वस्तुओं का वस्तुत्व भले ही अलग-अलग हो, रंग उन्हें सादृश्य के सहारे आपस में जोड़ देता है. इसके अलावा, इसके ठीक विपरीत वह एक ही वस्तु में भिन्न या परस्पर विरोधी रंगों की छँटाओ का इस्तेमाल कर उसकी एकता में बाधा डाल देता है.
उत्सवप्रिय वेनिशियन लोगों के जीवन के प्रति प्यार का पगला आनंदोत्सव अर्थात ऑपेरा. वेनिस तो ऑपेरा की जन्मभूमि है. सन 1637 में यूरोप के पहले ऑपेरा थिएटर का निर्माण वेनिस के नागरिकों ने किया. शुरू में ऑपेरा का वातावरण वैसा बिल्कुल ही नहीं था जैसा यूरोप में आज होता है. ऑपेरा में जाते समय बढ़िया पोशाक़, अत्याधुनिक फैशन, समाज की महत्त्वपूर्ण हस्तियों की उपस्थिति, थिएटर में दर्शकों से यह उम्मीद कि वे शांति रखें, थिएटर के रीति-रिवाजों का सख़्ती से पालन करें- यह सब कुछ नहीं था. यह सब आज ला स्काला या कॉन्वेंट गार्डन्स में दिखाई देता है. उस ज़माने के ऑपेरा शाम के मनबहलाव के साधन भर थे.
वेनिस की अभिसारिकाएँ उनकी सुंदरता के लिए जानी जाती थीं. लेकिन वहाँ की सभी महिलाएँ शहर की शान मानी जाती थीं. (प्रवाद यह भी था कि उनकी अभिलाषा का अंदाज़ लैटिन था.) उनके ताम्रवर्ण केश और चेहरे की हल्की गुलाबी रंगत श्रेष्ठ वेनिशियन चित्रकारों के चित्रों में देखी जा सकती है.
लॉर्ड कॉन्वेंट्स में भी बेहतरीन संगीतकार उन्हें संगीत की शिक्षा दिया करते थे. चर्च के कॉइर का संगीत भी उच्च कोटि का होता था. इससे एक तरह से ऑपेरा के लिए एक पृष्ठभूमि पहले से तैयार बन बैठी थी. साधारण स्तर का गाना भी उच्च स्तरीय हुआ करता था. लॉर्ड बाइरन का वेनिस में बिताया दौर बड़ा ख़ुशनुमा रहा जिसमें इनका बड़ा हाथ रहा.
पूरब और पश्चिम के व्यापार का बड़ा केंद्र था वेनिस. यहीं से निकल कर मार्को पोलो चीन के कुबलाई ख़ान तक पहुँचा था. बेहतरीन से बेहतरीन पोशाक़ों, मसालों, हीरे-जवाहरात, बड़े-बड़े मोतियों से मालामाल वेनिस शाम को सजधजकर ऑपेरा देखने के लिए निकल पड़ता था. ऑपेरा देखना, उसका आनंद उठाना और अपने वैभव को प्रदर्शित करना तो वेनिशियन्स ही जानें.
पश्चिमी रंगमंच के विकास की अगर दो शाखाएँ मानी जाएँ तो उनमें से एक है शेक्सपिअर, मार्लो के एलिज़ाबेथन दौर की शाखा. यह थिएटर शब्दों के रंग में रँगा हुआ था. दूसरी शाखा है ऑपेरा. रंग में डूबी हुई, संगीत में सराबोर. इंग्लैंड में श्रेष्ठ चित्रकार नहीं हुए. इससे नेपथ्य का विकास नहीं हो पाया. इसके विपरीत इटली में कई कलाओं का मेल साधनेवाली ऑपेरा जैसी संगीत-नाट्य विधा ईजाद हुई और परवान चढ़ी. शेक्सपिअर के कुछ नाटक कॉमेडी भी हैं और कुछ ट्रैजेडी भी हैं. उसी तरह ऑपेरा में भी दो उपविधाएँ हैं- ऑपेरा बुफा और ऑपेरा सिरीआ.
इटली के सर्वश्रेष्ठ ऑपेरा कंपोज़र आंतोनिऑ विवाल्डी की कला का विकास वेनिस में हुआ. उनके एक चरित्रकार ऑपेरा का वर्णन इस तरह करते हैं :
प्रस्तुत ऑपेरा के सेट तरह-तरह के प्रकाश-संयोजन और रंगमंच स्थित यंत्र-सामग्री से सुसज्जित होते थे. शनि के मंदिर के लिए शीशे का सेट बनाया गया था. उसमें तीन मंज़िलें थीं, सीढ़ियाँ थीं, छज्जे थे, कई मूर्तियाँ थीं. इस सेट को और भी अधिक नेत्रदीपक बनाने के लिए कुछ इस तरह का आयोजन किया गया था कि उसके अंदर की तरफ़ से प्रकाश फैल सके. इसमें मशीनी ऊँट थे, हाथी थे और असली घोड़े भी थे. साँस रोके रखने पर मजबूर करने वाले इस रंगमंच की बड़ी चर्चा यूरोप के सुसंस्कृत समाज में थी. देखते-देखते उसकी शोहरत पूरे यूरोप भर में फैल गई.
ऑपेरा की कोख से ही आज के ब्रॉडवे और सिनेम्युज़िकल्स का जन्म हुआ है. इसी से वैग्नर को सर्व कलासंगम, सर्व समाजप्रिय ऑपेरा का ख़याल आया. आइज़ेन्श्टाइन ने इसी से अपने ध्वनि चित्रपट की प्रेरणा ली और उसे नया रूप दिया. सिनेमा में वेनिस का योगदान बड़ा है. ऑपेरा ने सिनेमा के पार्श्व संगीत को दिशा दी है; उसे नेपथ्य दिया है, संगीत दिया है और एक सुसंपन्न मनोरंजन, मनोविकास और कलात्मक अभिव्यक्ति का साधन बनाया है . दुनिया का पहला अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह 1932 में वेनिस में ही संपन्न हुआ था. (1937 में प्रभात फिल्म कंपनी की फिल्म ‘संत तुकाराम’ को इसी फिल्म समारोह में विशेष पुरस्कार प्राप्त हुआ था.)
वेनिस बिएनाले और उसका एक हिस्सा वेनिस फिल्म समारोह- दोनों संस्थाएँ कला से संबंधित दुनिया की सबसे महत्त्वपूर्ण घटनाएँ मानी जाती हैं. इसी बिएनाले में पढ़ने के लिए जिन दिनों मैं ‘रंग’ विषय पर अपना निबंध लिख रहा था, उस समय मेरे मन में कई ऐतिहासिक कहानियाँ, किंवदन्तियाँ और कई व्यक्ति बराबर आ-जा रहे थे. उनमें विष्णुपंत पागनीस (‘संत तुकाराम’ में संत तुकाराम का चरित्र निभाने वाले कलाकार), फत्तेलाल और दामलेदादा (‘संत तुकाराम’ के दोनों निर्देशक) थे. तुकाराम के रचे अभंग थे. टॉमस मान का ‘डेथ इन वेनिस’ था, विक्रम सेठ का ‘इक्वल म्युज़िक’ था, विवाल्डी का संगीत था.
दुनिया में कितने सारे शहर हैं. लेकिन वेनिस जैसा सुंदर शहर मैंने तो नहीं देखा. ऐसा एक ही शांत शहर बचा है, जहाँ मोटरें नहीं हैं, भोंपुओं की कानफोड़ू चीख़ें नहीं हैं, जहाँ सिर्फ़ पैदल या फिर मोटरबोट में सवार हो सैरसपाटा किया जा सकता है.
यहाँ की शांति के चलते कितनी ही बातें सुनी जा सकती हैं. रस्किन के ‘स्टोन्स ऑफ वेनिस’ आपसे बातें करते हैं. वेनिस की लहरें अपना अमर संगीत सुनाती हैं. साथ ही वेनिस की समुद्री हवा की गंध आपको सुदूर इतिहास में ले जाती है. खारी हवाएँ त्वचा के मन को जगाती हैं.
हिंदी अनुवाद : रेखा देशपांडे
अरुण खोपकर मणि कौल निर्देशित ‘आषाढ़ का एक दिन’ में कालिदास की प्रमुख भूमिका. सिने निर्देशक, सिने विद् और सिने अध्यापक. फिल्म निर्माण और निर्देशन के लिए तीन बार सर्वोच्च राष्ट्रीय पुरस्कारों के सहित पंद्रह राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित. होमी भाभा फेलोशिप से सन्मानित. |
समालोचन अब हमारे समय के साहित्य और विचार का दस्तावेज़ हो चला है।
बहुत सुंदर आलेख, सुबह सुबह इसे पढ़ना जैसे दिनभर के लिए रंग मिल गए हों, तीन पल से मुक्तिबोध का तीसरा क्षण याद आया। संगीत में रंग भरने की कल्पना अद्भुत! समुद्र का वर्णन, वेनिस शहर का वर्णन या वेनिस की चित्रकला का वर्णन हो, अत्यंत पठनीय❤️
कितना सुन्दर. मार्मिक काव्यात्मक गद्य. मैंने आज से १५-१६ साल पहले गुरुदत्त पर लिखी उनकी किताब ‘तीन अंकी त्रासदी’ पढ़ी थी तब से मैं उनका मुरीद बन गया था. वह मराठी में है और उसका हिंदी अनुवाद निशिकान्त ठाकर ने किया है. उसका नया संस्करण आया है. और समालोचन पर उनके ये तीन पल भी अप्रतिम हैं. सुबह-सुबह एक सांस में पढ़ गया. बहुत सुन्दर है.
आप लगातार बढ़िया काम कर रहे हैं अरुण भाई . समय के साथ आलेखों और भी रचनाओं के एक अद्भुत संकलन के रूप में समालोचन हम सबके बीच है. इस आलेख को पढ़ना एक अलग ही संसार से आपको रूबरू कराता है, आपको समृद्ध करता है. पठनीयता से भरपूर संगीत और रंग की दुनिया में घुला मिला यह आलेख जरूर ही पढ़ा जाना चाहिए. बधाई आपको.
काव्यात्मक सघनता लिए हृदयग्राही गद्य, जिसमें चित्रकला, संगीत और सिनेमा के फ्यूजन में लेखक की कला चेतना, इतिहास बोध और जीवन दृष्टि का अद्भुत अंतरगुम्फन है! रेखा देशपांडे जी का अनुवाद मूल पाठ जैसा सहज और सुबोध। लेखक, अनुवादक के साथ समालोचन को बहुत बधाई और साधुवाद!
– शिवदयाल
आप निरन्तर बहुत अच्छी सामग्री हमें पढ़ने को दे रहे हैं। अरुण खोपकर जी का यह सुंदर काव्यात्मक गद्य उसी कडी में एक सशक्त रचना है और इसे बार बार पढने का जी करता है। ।अरुण खोपकर जी के मृणाल दा, अरुण साधु,पी.के नायर और प्रभाकर बर्वे जैसे मनीषियों पर लिखे शब्द -चित्र हमारी हमारे साहित्य -कोश में संचयित अमूल्य रत्न हैं। गुरुदत्त जैसे अदभुत कलाकार और एक जटिल व्यक्तित्व को भी उन्होंने अपने शब्दों में जिस तरह से साकार किया है ,वह अप्रतिम है ।
रेखा देशपांडे ने अरुण खोपकर के इस आलेख का बहुत सुंदर अनुवाद किया है ।मैं चाहूंगा कि रेखा ने स्मिता पाटिल की जो जीवनी लिखी है ,उसके भी कुछ अंश आप ‘समालोचन’ पर प्रस्तुत करें।हिन्दी के पाठक को एक अद्भुत सामग्री पढ़ने को मिलेगी।
रोचक और सशक्त रचना। अद्भुत भाषाई सौंदर्य। गद्य-पद्य एक साथ इस तरह कदम ताल मिलाकर चलते हैं कि पाठक अनायास ही इस प्रवाह के साथ बहता चला जाता है। हार्दिक बधाई।
सुंदर, नयी दिशाओं का यात्री
और कलाविचारपूर्ण।
संपन्नतादायक।