विजयदेव नारायण साही की आलोचना दृष्टि |
“क्या मैं सफल आलोचक हो सकता हूँ? मेरी भाव-ग्राहिका शक्ति किस–किस प्रकार कार्य-प्रतिकार्य करती है, उसके व्यवहारों के प्रति कुछ न कुछ निश्चित जागरूकता तो मेरे भीतर अवश्य है. जीवन के विभिन्न अनुभव क्षेत्रों में सिद्धांतों को लागू करने की क्षमता भी मैंने देखी है. अपने सीमित ज्ञान के अनुसार मैं निष्पक्ता भी रख सकता हूँ, परंतु यह सब होते हुए भी मुझे पूर्ण विश्वास नहीं होता कि मैं आलोचक हो सकता हूँ. तर्क-वितर्क का शास्त्रीय गद्य लिखने की योग्यता मैं अपने में नहीं पाता. मैंने अपने गद्य को गौर करके देखा है. भावुक स्थानों पर उसमें निश्चय ही शक्ति आ जाती है. परंतु केवल दार्शनिक या तार्किक स्थलों पर मेरी लेखनी में लड़खड़ाहट उत्पन्न हो जाती है. भला जो शांत, तर्कपूर्ण, शक्तिवान गद्य नहीं लिख सकता वह आलोचक क्या होगा? यह मैं जानता हूँ कि प्रयत्न करके अच्छी गद्य शैली अपनायी जा सकती है. पर कौन इस जरा से काम के लिए इतनी मेहनत करने जाये.”
(डायरी से: रचना काल 12. 1. 48 पूर्वग्रह: साही विशेषांक अंक 65 पृष्ठ 13)
आज से लगभग तीन चौथाई शताब्दी पहले साही की आलोचना-दृष्टि और उसकी सरणियों पर विचार करते हुए हमारा सबसे पहले ध्यान उनके इस महत्वपूर्ण वक्तव्य की ओर जाता है जहाँ साही ने बड़ी बेबाकी और ईमानदारी के साथ अपने आलोचक व्यक्तित्व पर शक किया है.
गौर किया जाए तो आमतौर पर आलोचक अपने लिखे पर खुद शक की निगाह से नहीं देखते हैं पर साही देखते हैं. अपने को शक की निगाह से देखना ही अपने को हमेशा विकासमान, परिमार्जित और पुनर्नवा करना है.
साही अपने समस्त लेखन में ऐसा करते दिखते हैं. शायद यही वह तत्व है जो उन्हीं के शब्दों में उन्हें यानी उनकी आलोचना दृष्टि को शांत, तर्कपूर्ण, शक्तिवान गद्य लेखन की ओर लगातार अग्रसर करती रही है.
लघु मानव के बहाने हिन्दी कविता पर एक बहस, शमशेर की काव्यानुभूति की बनावट, धर्म निरपेक्षता की खोज में हिन्दी साहित्य, उसके पड़ोस पर एक दृष्टि, साहित्य क्यों? छठवाँ दशक, साहित्य और साहित्यकार का दायित्व जैसे विचारोत्तेजक और भावप्रवण आलोचनात्मक निबंधों के अलावा जायसी पर केंद्रित उनकी ऐतिहासिक आलोचना पुस्तक जायसी जैसी रचनाएँ उनके सैद्धांतिक और व्यावहारिक आलोचनात्मक विवेक और साहस को जानने समझने की एक प्रेरक ज्ञानराशि है, जहाँ एक धीरोदात्त आलोचक के सैद्धांतिक और व्यावहारिक आलोचना की सरणियों को जाना-परखा जा सकता है.
तिरपन पृष्ठों की चौहद्दी में फैले अपने दिलचस्प किन्तु अधूरे (साही ने खुद उसे अधूरा निबंध ‘लघुमानव के बहाने हिन्दी कविता पर एक बहस’ कहा है) निबंध में साही ने आलोचना की भूमिका को दो-टूक लहजे में स्पष्ट करते हुए फरमाया है
“मेरी समझ में आलोचना का काम साहित्यिक कृति की संवेदना को जबरदस्ती खींच कर पाठक तक पहुंचाना नहीं है. आलोचना सिर्फ इतना कर सकती है कि पाठक के जो भी वैचारिक या धारणात्मक पूर्वाग्रह जाने या अनजाने अपनी उपस्थिति या अनुपस्थिति के कारण, पाठक को उस ओर उन्मुख होने से रोक रहे हैं जहाँ से काव्य का प्रभाव प्रवाहित हो रहा है, उन्हें विनष्ट करके पाठक को एक उचित तत्परता की अवस्था में छोड़ दें. यंत्र जगत की एक स्थूल उपमा के द्वारा हम यों कह सकते हैं कि रेडियो की सुई को लहर-मान पर लाकर लगा भर देना आलोचना का काम है. बाकी ट्रांसमीटर से आता हुआ गायन तो रेडियो सेट स्वयं पकड़ेगा.”
इसी निबंध में आगे साही यह भी जोड़ते हैं-
“आलोचना साहित्य का दर्शन शास्त्र है और उसका एक काम यह भी है कि वह संश्लिष्ट उत्तर का विश्लेषण करके उसकी सीमा रेखा को सुस्पष्ट और तीक्ष्ण बनाए. नहीं तो जीवन के प्रति साहित्य का स्पर्श गूंगे के गुड़ की तरह होकर रह जाएगा”.
(लघु मानव के बहाने हिन्दी कविता पर एक बहस: विजयदेव नारायण साही पृष्ठ: 94)
आलोचना साही की दृष्टि में एक सहयोगी प्रयास है- ‘कामन परसूट’. साहित्य को समझने के लिए सिर्फ साहित्य को जानना ही जरूरी नहीं है बल्कि इतिहास, समाज, संस्कृति, सभ्यता, राजनीति और अर्थनीति को जानना भी जरूरी है. साथ ही ज्ञान के जितने भी अनुशासन हैं उनसे भी एक आलोचक को गुजरना पड़ता है. हिन्दी में जितने भी बड़े आलोचक अब तक हुए हैं उनमें आलोचना दृष्टि के ये तत्व बोध समाहित हैं.
महावीरप्रसाद द्विवेदी, रामचन्द्र शुक्ल, रामविलास शर्मा, मुक्तिबोध, नामवर सिंह की आलोचनाओं को पढ़ते हुए सहज ही इस तथ्य का अंदाजा लग सकता है.
गौर किया जाए तो आलोचना की इस परंपरा में विजय देव नारायण साही आलोचना में ज्ञान के सभी अनुशासनों की सिर्फ गंध ही नहीं मिलती बल्कि साहित्य-विमर्श के साथ उसकी सटीक व्याख्या भी दिखाई पड़ती है. इस लिहाज से साही का बहुचर्चित निबंध ‘लघु मानव के बहाने हिन्दी कविता पर एक बहस’ में सिर्फ आलोचनात्मक प्रतिमानों की खोज नहीं है बल्कि आलोचना की रचना के मूल्यांकन में क्या पद्धति हो, इसका जगह-जगह विश्लेषण है. साहित्य का इतिहास लेखन कैसे किया जाए इसकी भी बानगी आपको इस निबंध में दिखाई देगी. कहने का आशय यह है कि साही की आलोचना दृष्टि में ‘बहुलता’ स्थाई भावबोध है जो ‘लोकतान्त्रिक समाजवाद’ की जबरदस्त हिमायत है. जिसका विश्लेषण आगे करूंगा. उनकी आलोचना की सैद्धांतिकी में इस विचारधारा और उसकी विचारदृष्टि का खासा जोर है.
साही की आलोचना के निर्माण में जिस बात की लगातार टकराहट है वह है– ‘अविराम बौद्धिक जिज्ञासा’ जिसके कारण उनकी आलोचना दृष्टि में एक सतत प्रश्नाकुलता, उधेड़ बुन, चीजों को समझने का जतन और एक दार्शनिक व्याकुलता की आह, जिसे पकड़ने और पाने के लिए वह हमेशा बहस और जिरह करते हुए साहित्य और विचार की दुनिया को एक असमाप्त कोर्ट रूम बना देते हैं जहाँ उनके विचारों और स्थापनाओं की आंच और उसकी चिंगारियाँ आधी शताब्दी बीत जाने के बाद भी अभी बुझ नहीं सकी. इन लम्हों में साही को भुलाने की बड़ी कोशिशें भी हुई पर उनके विचार के लावे बीसवीं शताब्दी की गहमागहमी से ऊब कर अनजाने ही इक्कीसवीं शताब्दी में चुपचाप दाखिल हो चुके हैं. जिनसे कतरा कर निकल पाना असंभव है.
साही के समकालीन साथी मलयज ने यद्यपि कहा था कि ‘साही की आलोचना का आकाश खंडित है’ उनकी सोच थी कि साही की आलोचना तीन सिरों की टकराहट से उपजी है- साहित्यिक, दार्शनिक और ऐतिहासिक. बकौल मलयज जब तीन सिरों वाले लोग ही नहीं हैं तो टकराए कौन? कहने की आवश्यकता नहीं कि साहित्य और विचार के निर्णय सिर्फ वर्तमान में ही तय नहीं होते बल्कि भविष्य के गर्भ में छिपे होते हैं और समय आने पर विचारों के स्फुलिंग हमारे समय पर दस्तक देने लगते हैं. फलतः जो मनुष्य और समाज कान को बंद किए रहते हैं वे भी सुनने के लिए अनायास ही कान खोल कर सुनने के लिए चौकन्ने हो जाते हैं.
धर्म निरपेक्षता की खोज में हिन्दी साहित्य और मध्यकालीन कवि ‘जायसी’ का आधुनिक कवि के रूप में आविष्कार जैसी आलोचना दृष्टि की सृष्टि हमारे मौजूदा समय, समाज और देश के लिए शायद सबसे मौजूं तकरीरें हैं. जिसे आज के ज्यादातर धर्मांध समाज और देश में गम्भीरतापूर्वक समझने और अमल में लाने की चीजें हैं. क्योंकि आज हर अतीत की बिना शिनाख्त किए हुए बेतहाशा महिमा मंडन किया जा रहा है. जबकि हर अतीत मनुष्य और समाज की स्मृति नहीं होती. अतीत का उजला पक्ष ही हमारी स्मृति है जो आज हमारे साथ होनी चाहिए. साही जी के ही शब्द हैं-
“मेरी स्मृति अतीत नहीं है, मेरी स्मृति वर्तमान का क्षण है.”
(2)
साही की आलोचना दृष्टि पर विचार करते हुए सबसे महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि वे शुद्ध साहित्य की खोज में भटकने वाले आलोचक नहीं हैं. साहित्य को स्वतंत्र सत्ता का दर्जा देने वाले साही के साहित्यिक विवेक में समाज, राजनीति, संस्कृति, अर्थनीति के साथ इतिहास बोध की गहरी मीमांसा है. मुक्तिबोध ने आलोचना को ‘सभ्यता समीक्षा’ कहा था. जाहिर है सभ्यता समीक्षा का रेंज काफी चौड़ा और व्यापक होता है- गंगा के सुदूर फैले रेतीले पाटों की तरह. इस लिहाज से देखा जाए तो साही की सम्पूर्ण आलोचना में सभ्यता समीक्षा का निदर्शन है पर यहाँ खास तौर से ‘लघु मानव के बहाने हिन्दी कविता पर एक बहस’ और ‘जायसी’ जैसी आलोचनात्मक कृतियाँ साही के आलोचनात्मक रेंज, सभ्यता समीक्षा और इतिहास दृष्टि के लिहाज से बेहद महत्वपूर्ण है.
हिन्दी साहित्य के इतिहास में नामवर सिंह को छोड़ कर प्राध्यापकीय आलोचना ने व्यापक तौर पर छायावाद को ‘वायवीय’ और ‘यथार्थ विमुख’ काव्यान्दोलन माना, साही ने इस पूरी अवधारणा को जैसे अपनी पैनी, नवोन्मेषी दृष्टि से उलटा लटका दिया है. जिस छायावाद को एक युग कहा जाता है उसे साही ने ‘सत्याग्रह युग’ कहकर पूरे काव्यान्दोलन को स्वराज्य आंदोलन में तब्दील कर दिया. यह आंदोलन अगर महत्वपूर्ण है तो अपनी काव्यात्मक भंगिमा या काव्य मुद्राओं के रूप में ही क्यों न हो ‘मेटा फिजिक्स’ से जुड़ता है. जाहिर है इस मुद्दे पर साही ने निबंध में गहरी व्याख्या की है.
दिलचस्प और ऐतिहासिक तथ्य यह भी है कि साही की दृष्टि में नयी कविता की आंतरिकता उस अर्थ में आध्यात्मिक नहीं जिस अर्थ में छायावाद की आंतरिकता. कहना न होगा कि गांधी के चिंतन की शब्दावली साही को प्रसाद, निराला और प्रेमचंद के वहाँ एक तान में सुनाई पड़ती है.
वे गांधी को ‘अपराजेय संकल्प’ और नेहरू को ‘अपराजेय विवशता’ की संज्ञा से अभिहित करते हुए लघु मानव की बहस को स्वराज्य आंदोलन के साहित्य के दौर से लेकर नयी कविता आंदोलन तक आगे बढ़ा कर मनुष्य की नियति को परिभाषित करते हैं. इस बहस में उनकी तर्कशक्ति और साहित्य को समाजबोध, इतिहासबोध और कालबोध के साथ पकड़ने का एक बेहतर उद्यम दिखाई पड़ता है. इस प्रसंग में साही का यह कहना पर्याप्त होगा-
“गांधी जी हिंदुस्तान के लिए गांधी इसलिए नहीं थे कि वे हमारे विचारों और आदर्शों के प्रवक्ता थे, उनका जोड़ देश के साथ कहीं और भी गहरा था, वे हिंदुस्तान की ज़िंदगी के रिदम (RHYTHM) की अभिव्यक्ति थे, इतनी पूर्णता के साथ जो उस युग में किसी और को प्राप्त नहीं थी: और आगे भी किसी को हो सकेगी, कहना कठिन है”.
(लघु मानव के बहाने हिन्दी कविता पर एक बहस: विजय देव नारायण साही: पृष्ठ 98)
इस बहस में साही की नज़र बीसवीं सदी के तीसरे दशक की ओर जाती है. जाहिर है तीसरे दशक का संबंध नेहरू से है. सत्याग्रह युग अपराजेय संकल्प का युग था वह युग और समय गांधी का है. आगे चल कर यह अपराजेय संकल्प विवशता में लक्षित होता है. कहना चाहिए कि तीसरा दशक न केवल हिन्दी साहित्य के आधुनिक इतिहास की दृष्टि से बल्कि स्वराज्य आंदोलन की दृष्टि से एक बहुत बड़ा परिवर्तन का भी मार्ग है. साही बार-बार तीसरे दशक की खंडित चेतना का ज़िक्र करते हैं-
“हम हिन्दी के तीसरे दशक की ओर ध्यान केंद्रित करें जहाँ ऊपरी ढांचा वैसा ही रहते हुए भी भीतर से मनोभूमि में परिवर्तन आ गया. भगवती चरण वर्मा, बच्चन, दिनकर, नवीन, माखनलाल चतुर्वेदी, नरेंद्र शर्मा आदि ने वह आरंभ किया जिसे आलोचकों ने छायावाद का दूसरा दौर कहा है. इसे हम छायावाद का शेषांश भी कह सकते हैं या नयी कविता का आरंभ भी. यह सही है कि यदि हम इन कवियों और लेखकों को ध्यान से देखेंगे तो छायावाद और नयी कविता के बीच दुर्लध्य खाई के बजाय एक क्रमशः विकसित होती हुई परंपरा दिखलाई पड़ेगा और छायावाद के महामानव और आज के लघु मानव के बीच इतनी सख्त फौजदारी होती हुई भी नहीं मालूम पड़ेगी.”
(वही: पृष्ठ 101)
कहना न होगा कि आगे साही नयी कविता को छायावाद की विकसित होती परंपरा में देखने की कोशिश करते हैं. वे नहीं चाहते हैं छायावाद और नयी कविता के बीच कोई दुर्लध्य खाई खोदी जाये. यह दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य है कि आज छायावाद के सौ वर्ष पूरे होने के बावजूद हिन्दी समाज और खासतौर से शोध और अध्ययन-अध्यापन में जुड़े हिन्दी प्राध्यापकों और विद्वानों की नज़र में छायावाद के परिप्रेक्ष्य में साही जी के इस ऐतिहासिक मूल्यांकन को लेकर न कोई बहस का दौर है और न कोई हलचल. इससे जाहिर होता है कि हिन्दी साहित्य के अध्ययन-अध्यापन के केंद्र कितने शिथिल, उदासीन और अपने समृद्ध विरासत के प्रति असावधान हैं.
कहना न होगा साही के आलोचनात्मक संघर्ष की लड़ाई हिन्दी समाज की उदासीनता और प्राध्यापकीय आलोचना की कामचलाऊ पद्धति से भी थी, जहाँ ज्यादातर अप्रबुद्धता का समाज अहर्निश फल-फूल रहा है.
(3)
साही की आलोचना दृष्टि में सबसे बड़ा रेंज समाज बोध का है. इस समाज बोध में केवल साहित्यिक सवाल ही महत्वपूर्ण नहीं हैं बल्कि सामाजिक सवाल ही साहित्यिक सवालों की आधार पीठिका के रूप में मौजूद हैं. इसलिए साही की नज़र में साहित्य के प्रश्न प्रथमतः जीवन बोध और उसकी रक्षा से जुड़े हुए हैं. इसलिए वे बार-बार अपने लेखों, टिप्पणियों, तकरीरों में साहित्य के सवालों पर दृष्टिपात करते हुए जीवन के अभाव ग्रस्त, विपदाग्रस्त पक्षों पर पहले पहल नज़र डालते हैं. मसलन अपनी बहुचर्चित तकरीर ‘साहित्य क्यों’? पर विचार करते हुए साही शुरू में ही अपनी बात गालिब के प्रसिद्ध शेर से करते हैं-
“सुखन में खाम : ए गालिब की आतश अफ़शानी
यक़ी है हमको भी, लेकिन अब उसमें दम क्या है”
यानी जब सारी ज़िन्दगी के बाद वह इसमें से कुछ भी घटित होता हुआ नहीं देखता- सचमुच या भ्रम वश तब वह पूछता है इसमें दम क्या है? शायद गालिब का प्रश्न इसी मन: स्थिति को व्यक्त करता है– कुछ हृदय की पुकार, कुछ प्रतिरोध की भावना, कुछ अपने कर्म के प्रति गहरी प्रतिबद्धता और कुछ थकान और हताशा. कहा जा सकता है कि बाद में गालिब को जितना व्यापक आकर्षण मिला वह उनके प्रश्न का पर्याप्त प्रत्युत्तर है और सिद्ध करता है कि गालिब का सवाल कितना भ्रमपूर्ण और क्षण भंगुर था.”
साही इस मोड़ पर यह वाजिब सवाल उठाते हैं कि
“लेकिन क्या सचमुच गालिब का सवाल इतना स्थूल, इसलिये निरर्थक और क्षण भंगुर है? क्या इस प्रश्न में एक ऐसा गुण नहीं है जो तमाम रस्मी उत्तरों के बाद भी शांत नहीं होगा, रचनाकर्म के पूरे विस्तार में अनुभूत लेकिन अदृश्य हवा की तरह मंडराता रहता है?”
(समकालीन हिन्दी आलोचना स. परमानन्द श्रीवास्तव; पृष्ठ 138)
गौर किया जाए तो इन दिनों विकास का चौतरफा हल्ला है. सवाल उठता है किसका विकास कैसा विकास? पूंजीवादी समाजों में असमानता की कितनी बड़ी खाई है साही ने पहले ही ताड़ कर कहा था-
“प्रगति मेरे लिए भी भविष्य में होगी तो मैं कहूँगा तुम एक खामख्याली में हो. यह गति ही दुनिया की नहीं है. तो ये टेक्नोलॉजी के दैत्य खड़े किए गए हैं ये दैत्य तभी तक हैं, इनके अस्तित्व के लिए जरूरी है कि कहीं दैत्य न हो अगर कहीं चंद्रयान है तो उसके होने की शर्त है कि कहीं बैलगाड़ी भी रहे. जिस दिन बैलगाड़ी (खालिस) होगी उसी दिन चंद्रयान भी खालिस हो जाएगा. इसमें मेरे मन में कोई संदेह नहीं है. न्यूयार्क और भूखों मरता हुआ बस्तर, छतीसगढ़ एक ही बीसवीं शताब्दी के अंग हैं:…. न्यूयार्क और मास्को के होने की शर्त ही यही है कि एक छतीसगढ़ भी हो, एक बस्तर भी हो और बना रहे. जिस दिन बस्तर उठेगा न्यूयार्क गिरने लगेगा”.
(हमारा समय: साही का व्याख्यान पूर्वग्रह 65: पृष्ठ 41)
कहना न होगा साही अपने समय के साथ समय के बाहर भी सोचते थे. क्योंकि वे भविष्य द्रष्टा थे.
जाहिर है साहित्य का सच प्रायः जमाने का सच नहीं होता, क्योंकि साहित्यकार त्रिकालदर्शी होता है. अतीत, वर्तमान, भविष्य तीनों को समेटते हुए वह प्रायः कालातीत हो जाता है. इसलिए महान साहित्य को जमाने के हिसाब से उसके महत्व और स्वीकार में समीकरण बदलते-बनते रहते हैं. आज कई सिरफिरे हैं जो रामचारितमानस को समाज विरोधी, जन विरोधी मान कर उसकी सरेआम भर्त्सना, निंदा करते हैं. कइयों ने उसकी दिल्ली और लखनऊ में प्रतियां जलाई हैं. तो इससे क्या आशय निकाला जाए कि तुलसीदास जन विरोधी कवि हैं ?
अभी हाल ही के महीनो में गीताप्रेस गोरखपुर के प्रबंधक ने दावा किया है कि अयोध्या में राम मंदिर बनने के बाद देश भर से रामचरितमानस की मांग न केवल हिन्दी में बल्कि सभी भारतीय भाषाओं में (प्रतियों की मांग-खरीद) लगातार बढ़ी है.
इससे क्या साबित होता है कि बिक्री से साहित्य की मूलवत्ता और गुणवत्ता में रातों रात फ़र्क आ जाता है? क्या तुलसीदास जैसे कालजयी कवि बाज़ार की मांग पर खरीदे और बेचे जा सकते हैं ? जो मांग कर खाने में यकीन करके कहीं भी सो जाने के लिए जीवन में अभिशप्त रहे हैं, क्या उन्हें बाजार या धर्म का कर्मकांड खरीद कर बेच लेने की भसोट रखता है ?
मेरा ख्याल है कि साही यदि आज जीवित रहते तो इस मुद्दे को ‘साहित्य क्यों’ के सवालों में एक सवाल के रूप में अवश्य शामिल करते और वाजिब उत्तर की तलाश करते. वैसे इस मुद्दे पर प्रकारांतर से इसी निबंध में उन्होंने वाजिब जवाब दे दिया है, जिस पर विचार किया जा सकता है-
“समूचा साहित्य जन्म लेते ही प्रतिष्ठान की विकराल दाढ़ों में समाने लगता है. प्रतिष्ठान के दाढ़ों की चक्की बहुत सटीक या पूरी विचक्षणता के साथ नहीं चलती. इसीलिए बहुत कुछ बाहर गिर जाता है, या जो कुछ भी पिस कर, चिकना होकर मानवता की धरोहर के रूप में प्रतिष्ठान से हमें मिलता है, उसमें बहुत सा हमारे लिए स्वीकार्य भी नहीं होता. ….
अंत में साही चेतावनी देते हैं कि
“साहित्यहीन प्रतिष्ठान की कल्पना तो की जा सकती है लेकिन प्रतिष्ठाहीन साहित्य की कल्पना असंभव है.”
(वही पृष्ठ 142-43)
साही की आलोचना दृष्टि में यह देखना हमेशा महत्वपूर्ण और दिलचस्प है कि वे साहित्य को हमेशा समाज से जोड़ कर रखते हैं क्योंकि इन दोनों के केंद्र में मनुष्य है. वे हर बहस में, वह साहित्य हो या समाज हमेशा केंद्र में मनुष्य, मनुष्यता, मानवता की वकालत करते हैं. इसलिए उनकी निगाह में साहित्य में बिना समाज और मनुष्य की परिकल्पना असंभव है. कहना न होगा कि लघु मानव वाली बहस के केंद्र में वह मनुष्यता की खोज ही है जिसे मानव, महामानव, लघु मानव, साधारण मनुष्य के रूप में उसकी प्रतिष्ठा की गयी है. वास्तव में `मनुष्य` और उसकी मनुष्यता साही के दिमाग में हमेशा मथने-चलने और रहने वाले साथी हैं जिनके बिना उनके जीने और रचने की कल्पना असंभव है. साही इसीलिए हमेशा व्यक्ति और उसके परिवेश के अंतर्गत मानव समाज के सभी क्रिया– व्यापारों को समान महत्व देते हैं. इसलिए उनके आलोचनात्मक विवेक और मानदंडों में मनुष्य और उसके समाज के स्वप्न और यथार्थ, आंतरिकता और वाह्यता, महता और लघु, इतिहास और विचार धाराओं, संस्कृतियों के प्रवाह की आवाजाही हमेशा दो-चार होती रहती है.
इस प्रसंग में सत्यप्रकाश मिश्र का यह विश्लेषण सटीक है कि
“इसके माध्यम से ही हम साही की मनोभूमि को समझ सकते हैं जिसमें एक प्रकार की सामंजस्य की खोज है जो इन विरोधों, ध्रुवान्तों, और अतियों के बीच से जोखिम उठाकर रास्ता खोजने के संकल्प के रूप में विद्यमान हैं. वे देवता और राक्षस को अलग अलग भी देखते हैं और उसके अन्तः प्रवेश तथा बर्हिराच्छादन को भी ध्यान में रखते हैं. और चूंकि इन सबका स्रोत अंततः मनुष्य है इसलिए साही अपने सभी महत्वपूर्ण लेखों में—यहाँ तक की जीवन में- उस अपरिभाषित को जिसे सामाजिक कठिनाई के कारण अपौरुषेय कह दिया गया था, परिभाषित करते रहने का लगातार प्रयत्न करते हैं. उनके हर लेख, कविता और राजनैतिक भाषण का विषय मनुष्य है. जहाँ आम आलोचक `विशेष`से शुरुआत करता है वहीं साही `सामान्य` से शुरू करते हैं. उनकी विचार-प्रक्रिया सामान्य, विशेष और सामान्य होती है. इस मानसिक बुनावट में कितना फिरदौसी है और कितना कालिदास, कितना जवाहर लाल नेहरू है और कितना आचार्य नरेंद्र देव और डॉ.. लोहिया कितना खुसरो है और कितना जायसी, कितना नीत्शे और कितना अरविन्द, कितना गीता, कुरान और बाइबिल है और कितना मार्क्स, एँगेल्स, लेनिन और गांधी—यह सब फिलहाल मेरे इस विश्लेषण सीमा से बाहर है. उस काल में इनमें से काफी लोग उस युग बोध के हिस्सा थे, जिससे रचना और लेखक की टकराहट होती है. इस युग मंथन से निकले अमृत और विष दोनों का साहित्य में योगदान है.”
(विजयदेव नारायण साही: पृष्ठ 19)
कहना चाहिए साही के व्यक्तित्व और विचार में ये सभी विभूतियाँ प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से हमेशा प्रभावित ही नहीं करती हैं बल्कि उनके वैचारिक, राजनीतिक-साहित्यिक जीवन में आगे डग भरने के लिए संकेत करती हैं; पर कहना होगा कि साही जी की मनोरचना, विचार और कर्म में डॉ. लोहिया की वाणी और विचार हमेशा उन्हें परिमार्जित ऊर्जस्वसित और साहित्य, संस्कृति, समाज और राजनीति को बदलने के लिए अभिशप्त, उदास और बेचैन रखते हैं.
जाहिर है उनकी यह बेचैनी वैयक्तिक नहीं सार्वजनिक जीवन के रोजमर्रा अनुभवों, कशाघातों, विफलताओं, अवसादों के आरोह-अवरोह के कठिन क्षणों से उपजी है. साहित्य और आलोचना दृष्टि में इसलिए उनकी सामाजिकता ओढ़ी अथवा फैशनेबुल किस्म की दिखावटी नुमाइश नहीं बल्कि प्रतिक्षण जीने-मरने की प्रक्रिया है.
एक सच्चे समाजवादी विचार धारा से लैश आदमी के साहित्य और जीवन की बागडोर कर्म की नैतिकता से हमेशा आबद्ध रहती है जिसके अनिवार्य प्रहरी के रूप में साही जी साहित्य में, राजनीति में, सामाजिक जीवन के हरेक मौकों पर सन्नद्ध रहे.
साही के अनन्य समाजवादी मित्र और असमिया के विख्यात साहित्यकार वीरेंद्र कुमार भट्टाचार्य ने साही का मूल्यांकन करते हुए उचित कहा है कि
“होने और बनने की बुनियादी समस्या ही साही की मुख्य चिंता थी…. वे जोर से खुलकर हँसते थे लेकिन उस हंसी के भीतर कहीं गहरे अवसाद की गूंज थी…. उन्हें अंधेरे में आँख मिलाने का साहस था.”
(ओ अपरिचित क्या कहूँ ? पूर्वग्रह-65: पृष्ठ 6)
इसलिए मुझे सत्यप्रकाश मिश्र का यह मूल्यांकन सटीक लगता है कि
“गांधी और लोहिया आदि के विचारों का क्रमिक अमूर्तन साही की उस प्रवृत्ति का परिणाम है जिसे वे सरकारी गांधीवादी, मठी गांधीवादी और कुजात गांधीवादी कहकर अपने को कुजात गांधीवादी की कोटि में रखते हैं. उस अर्थ वे कुजात मार्क्सवादी भी हैं. शायद कुजात होना रचनाकार की नियति है. मठी गांधीवाद से यह अलगाव व्यक्ति और साहित्य दोनों में अतिवादों से बचाकर उन्हें वहाँ स्थिर करता है जहाँ ‘सहज मनुष्य’ या साधारण मनुष्य खड़ा होता है.”
(विजयदेव नारायण साही मोनोग्राफ: सत्यप्रकाश मिश्र पृष्ठ 25)
(4)
सहज मनुष्य, साधारण मनुष्य, लघु मानव जैसे मानवीय प्रत्ययों के मनुष्यता के इतिहास में क्या मायने हैं इसे जानने के लिए आपको साही के पास जाने के पहले इस प्रसंग में परिमल के इतिहास को जानना होगा. तभी आप लघु मानव की बहस के निहितार्थ को समझ सकते हैं. इस परिप्रेक्ष्य में परिमल के इतिहास को देखें तो इसके आरंभिक सूत्रधारों में साहित्य में लोहियावादी विचारों को पोषित और पल्लवित करने की कोशिश झलकती है. इस सिलसिले में विजयदेव नारायण साही और लक्ष्मीकांत वर्मा का योगदान अन्यतम है. मेरा ख्याल है परिमल ग्रुप में साही अकेले साहित्य-शलाका पुरुष थें जिनकी वाणी, विचार और कविता में लोहियावादी समाजवाद की अनंत और असमाप्त अनुगूँजे हैं.
यह आकस्मिक नहीं है कि आज साही ही अकेले शिखर-पुरुष हैं जिन्होंने मार्क्सवाद से असहमति के बावजूद साहित्य में व्यक्तिवाद को अस्वीकार किया और साहित्य को भारतीय समाज के फ्रेम में जड़ने और रचने की अकेली कोशिश की. संभवतः इसीलिए उनकी कविता और विचारों में बराबर ऊष्मा और प्रवाह बना रहा.
परिमल के इतिहास से उपजे वे अकेले कवि आलोचक के रूप में अपनी जगह प्रतिष्ठित हैं जिनसे कोई मार्क्सवादी टकरा तो सकता है, पर कतरा नहीं सकता. आज अगर लोहियावादी आलोचना का कोई वजूद है तो उसके अकेले मेरुदंड विजयदेव नारायण साही हैं, जिनसे टकरा पाना किसी मार्क्सवादी के लिए आसान नहीं.
अपनी विराट प्रतिभा को किसी चमत्कार की तरह अपनी वाणी में सान चढ़ाकर पेश करने वाले साही, मार्क्सवादियों के लिए आजीवन आतंक का पर्याय बने रहें, साही की असमाप्त बहसों को नामवर सिंह, अमृतराय जैसे मार्क्सवादी कैसे भूल सकते हैं ?
साही की बौद्धिक रगों में समाजवाद के आखिरी आदमी का खून दौड़ता था. उनकी वाणी में लोहिया के विचारों का दो टूकपन, हाजिरजवाबी, जिरह और बहस बराबर फूटती रहती है. देखने की बात है कि परिमल और नई कविता की बहसों में असहमति का स्वर साही में सबसे ज्यादा है. नई कविता आंदोलन के सिलसिले में नई कविता पर क्षण-भर बहसमाला में नामवर सिंह से वे जिस तरह बौद्धिक जिरह के साथ असहमति का स्वर रखते हैं उसी तरह नई कविता पर पहली पुस्तक ‘नई कविता के प्रतिमान’ लिखने वाले लक्ष्मीकान्त वर्मा से भी.
जब 1954-55 में पहली बार नई कविता के सिद्धांतों की चर्चा करते लक्ष्मीकान्त ने नई कविता के प्रतिमानों को स्थिर करने की कोशिश की तो उसकी भूमिका में विजयदेव नारायण साही ने बहस की कि
“चूंकि नई कविता का इतिहास अभी अत्यंत अत्यल्प है (3 या 4 वर्ष) इसलिए इतने कम समय में नई कविता के प्रतिमानों पर चर्चा करना अभी उचित नहीं. अच्छा होता कि नई कविता के प्रतिमानों की अपेक्षा कविता के नए प्रतिमानों की खोज की जाती.”
कम से कम इस महत्वपूर्ण वक्तव्य के लिए नामवर सिंह को विजयदेव नारायण साही के प्रति कृतज्ञ होना चाहिए जिन्होंने इसी वक्तव्य से सबक लेकर नई कविता के दौर से लेकर आज तक के समय तक चर्चित, ऐतिहासिक आलोचना पुस्तक ‘कविता के नए प्रतिमान’ (1968) लिखी, जिसके केंद्र में अज्ञेय नहीं मुक्तिबोध हैं.
लक्ष्मीकान्त वर्मा की मुख्य बहस का मुद्दा नई कविता में उठाए गए विवादास्पद बहस लघु मानव की प्रतिष्ठा का ही है. श्री वर्मा ने यह सवाल वस्तुतः मध्यमवर्गीय आदमी के अस्तित्व-संकट के साथ उठाया था. उनकी चिंता है कि आज मनुष्य के सामने सबसे बड़ा संकट उसके अस्तित्व का है. आज का मानव, अस्तित्व की लड़ाई के बीच लघु मानव की भूमिका में जूझ रहा है. इसलिए नई कविता की मूल संघर्ष की आत्मा, मनुष्य के अस्तित्व-संघर्ष की है. इसलिए वे कवि के लिए ‘अहं’ का काव्य विवेक महत्वपूर्ण सत्य मानते हैं. उनकी दृष्टि में
“जब मैं कवि के अहं की बात करता हूँ तो उसका तात्पर्य इसी आत्मचेतना के संदर्भ में आंतरिक अनुभूति की स्थापना के लिए उस अहं को आवश्यक मानता हूँ. बिना इस अहं के कवि को आंतरिक अनुभूति नहीं हो सकती और बिना आंतरिक अनुभूति के उसका आत्मसत्य, कविसत्य उपलब्ध नहीं हो सकता.”
(कवि सत्य का दृष्टिकोण: लक्ष्मीकांत वर्मा, नई कविता, अंक 5-6 पृष्ठ 130)
नई कविता में ‘अहं’ की यह आवश्यकता दरअसल व्यक्तित्ववाद का उत्पाद है. लक्ष्मीकान्त वर्मा ने वास्तव में लघु मानव की प्रतिष्ठा का सवाल उठाकर प्रकारांतर से अज्ञेय के व्यक्तिवाद को प्रोत्साहित किया. यही व्यक्तिवाद नई कविता को अकेलेपन, ऊब और आत्मरति की दुनिया में ले गया, जिसने कविता को समाज से एकदम बिछिन्न कर दिया. यही नहीं, लक्ष्मीकान्त वर्मा कविता को कवि की व्यक्तिगत संपत्ति मानते हैं-
“कविता मूलतः कवि की व्यक्तिगत वस्तु है. (काफ्का अपनी डयरी के बारे में कहता है) उसकी व्यक्तिगत अनुभूति जब अपने ही अन्वेषण में तल्लीन होती है और जब उसके अर्जित सत्वों के बीच से उसे उसकी दृष्टि स्थापित मूल्यों को देखने के लिए विवश करती है तो वास्तव में उस अनुभूति का स्तर केवल कवि का व्यक्तिगत स्तर होता है.”
(कवि सत्य का दृष्टिकोण: लक्ष्मीकान्त वर्मा, नई कविता पत्रिका, अंक 5-6 1961, पृष्ठ 130)
लेकिन लक्ष्मीकान्त वर्मा के इस लघुमानव की बहस का नई कविता आंदोलन के कई प्रवक्ताओं ने विरोध किया. जिसमें जगदीश गुप्त और विजयदेव नारायण साही के विचार प्रमुख हैं. जगदीश गुप्त ने प्रश्न किया कि
“मानव-व्यक्तित्व तथा नए मनुष्य की कल्पना के प्रसंग में यह विचार कर लेना भी आवश्यक है कि उसके स्वाभिमान की धारणा नई कविता के एक प्रतिमान के रूप में बहुचर्चित लघु मानव की धारणा से कहाँ तक मेल खाती है. क्या लघुता की भावना प्रेरक हो सकती है? यदि हो सकती है तो किन परिस्थितियों में और कितनी दूर तक ? मेरे विचार से मानव स्वाभिमान तथा व्यक्तित्व से सम्पन्न मनुष्य अपने को लघु माने ही ये आवश्यक नहीं है. यदि लघुता एक मानव-मूल्य माना जाए तो यह निश्चित रूप से स्वाभिमान का विरोध सिद्ध होगा. (जिसका वर्मा जी खुद विरोध करते हैं.) वास्तव में लघुता दूसरों की महानता से उत्पन्न एक अभिशाप है. महानता अथवा वीर पूजा (हीरोवरशिप) का विरोध करना और लघुता को एक प्रतिमान बनाकर मानव-व्यक्तित्व पर उसे आरोपित करने का यत्न करना निरर्थक और परस्पर विरोधी है. मनुष्य को उसके सहज रूप में लघु मानने की कोई आवश्यकता नहीं. महान कहे जाने वालों के अत्याचार से पीड़ित तथाकथित लघुमानव कवि की सहानुभूति एवं संवेदना का अधिकारी हो यह स्वाभाविक है, परंतु किसी भी क्षण यह विस्मृति नहीं होनी चाहिए कि यह लघुता तथाकथित या व्यंगपरक ही है, वास्तविक एवं वरेण्य नहीं.”
इस तरह जगदीश गुप्त लघुमानव की स्थापना को अस्वीकार करते हुए अस्तित्ववाद की इस बहस को रद्द कर देते हैं —
“मनुष्य वास्तव में महान के आतंक से पूरी तरह तभी मुक्त हो सकेगा जब वह अपने को लघु कहना छोड़ दे. मैं समझता हूँ कि श्री वर्मा ने प्रतिवाद में जो उत्तर यह तर्क देकर कि लिटिल मैन का तात्पर्य स्माल मैन नहीं है अथवा लघु और छोटा समानार्थी शब्द नहीं है, व्यर्थ का वाग्जाल खड़ा करता है, जिस पर कोई भी समझदार आदमी श्रद्धा नही करेगा.”
(नई कविता: नये मनुष्य की प्रतिष्ठा: जगदीश गुप्त, नई कविता, अंक 4, 1959, पृष्ठ 15-16)
इस मुद्दे पर दूसरी बहस खुद विजयदेव नारायण साही की है जिन्होंने अपने अधूरे लेख लघु मानव के बहाने हिन्दी कविता पर बहस में लघुमानव के सवाल को करीब तीन चार पंक्तियों में रफा-दफा किया है. श्री साही लक्ष्मीकान्त वर्मा से पूछते हैं—
“क्या लघुमानव की मृत्यु हो गई ? कुछ दिनों तक पक्ष-विपक्ष में लघुमानव की चर्चा सुनाई पड़ी. अब सुनाई नहीं पड़ती. क्या लघुमानव की कल्पना ने आज के साहित्यिक कृतित्व की रूपरेखा समझने में कोई मदद की ? या सिर्फ एक कौतूहलपूर्ण आग्रह बन कर रह गया ? बहुत कुछ ये सारे प्रश्न शव-परीक्षा जैसे लगते हैं किन्तु यदि लघुमानव की मृत्यु भी हो गई हो तो भी शव-परीक्षा एक दृष्टि से उपयोगी है.”
उन्होंने अपनी इस दिलचस्प बहस में मनुष्यता के प्रश्न को ऐतिहासिक संदर्भ में उठाते हुए कहा-
“भारतेन्दु हरिश्चंद्र के जमाने से होकर आज तक मनुष्य को उसकी चिरंतन परिवर्तनशीलता में समझने का जिम्मा हिन्दी साहित्य ने उठा लिया है तो अब इस जिम्मेदारी से निकल भागने की खास आतुरता नहीं दिखाई पड़ रही है. अगर यह सत्य है तो हमें यह स्वीकार करना होगा कि बारम्बार मनुष्य को बदलते हुए देशकाल में परिभाषित करना, साहित्य की जिम्मेदारी है.”
यहाँ पर साही ने लक्ष्मीकान्त का समर्थन तो नहीं किया बल्कि प्रश्न को सीधा खड़ा करके ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में साहित्य और मनुष्य के रिश्ते को एक विराट फलक पर बहस करने के लिए आमंत्रित किया. इस बहस में आगे साही ने जगदीश गुप्त से असहमति व्यक्त करते हुए कहा,
“मनुष्य की हर परिभाषा सहज मनुष्य की परिभाषा है. चाहे हम उस मनुष्य की परिभाषा को कितना भी विकृत और अयथार्थ क्यों न समझें. अगर वह सहज मनुष्य की न हुई तो उसे परिभाषित करना व्यर्थ है.”
इसीलिए साहित्य कभी सहज मनुष्य को नहीं पकड़ता
“वह केवल उस केंद्रित कालबद्ध जाल में फंसी हुई सीमित झलक को पकड़ता है, जहाँ से वह सहज आभासित होता है.”
“आदमी को कठघरों में बांध कर कौन रख सका है? लेकिन सिवाय आदमी के इस कोशिश में लगा भी कौन है ? इसीलिए मुझे यह कहना है कि लघुमानव सहजमानव का विरोधी है कुछ जंचता नहीं और यह आग्रह भी मुझे काम का नहीं लगता कि हम सहज मानव या मानव ही क्यों न कहें. क्योंकि सहज मानव या मानव की किसी झलक को हम देख रहे हैं और उस असीम की कितनी सजीवता हमारी पकड़ में आ रही है, इसी को समझने के लिए तो यह सारी खोजबीन है.”
श्री साही ने अपने इस गंभीर लेख में इस बात से भी असहमति व्यक्त की,
“कल्पना मनुष्य की महत्ता या महानता का निषेध व्यक्त करती है. मनुष्य का जो सर्वश्रेष्ठ है, सबसे विराट है उससे हमारे संबंध को तोड़ देती है. मुझे इसमें शाब्दिक चमत्कार दिखाई पड़ता है तत्व कम”.
“इस संबंध में मैं प्रसाद की सूक्ष्म दृष्टि का हवाला दूंगा जहाँ उन्होंने यथार्थ को लघु से और आदर्श को महत से संबद्ध किया है और यथार्थ और आदर्श दोनों को समन्वित दृष्टि से देखने की कोशिश की है. लघु और महत कहीं-न-कहीं वैसे ही मिलते हैं, जैसे यथार्थ और आदर्श. यथार्थोन्मुख आदर्शवाद, आदर्शोन्मुख यथार्थवाद का उसी वजन पर अगर हम कह सकें ‘लघुत्तम महतवाद’ या दुर्मुख लघुवाद (जो कुछ भी इस सारगर्भित शब्दावली का मतलब हो)
इस किस्म की शब्दावली छायावाद युग की है, लक्ष्मीकान्त की नहीं. इसलिए अच्छा हो कि हम यह मानकर चलें कि लघु की कल्पना मनुष्य में जो महत है उसका निषेध नहीं करती..”
इस पूरी बहस को समेटते हुए श्री साही ने अंत में लक्ष्मीकान्त को आरोपों से बरी करते हुए कहा,
“कम से कम इतना तो हो ही जाएगा कि अगर मतभेद प्रसाद जी से तो गुबार लक्ष्मीकान्त पर नहीं उतरेगा.”
(सभी संदर्भ लघुमानव के बहाने हिन्दी कविता पर एक बहस : नई कविता, अंक 5-6, 1960-61, पृष्ठ 67)
लक्ष्मीकांत के बरअक्स साही के आलोचनात्मक विवेक पर गौर करें तो पता चलता है कि साही साहित्य को मनुष्यता की दृष्टि से देखने के पक्षपाती थे. जैसे रामचन्द्र शुक्ल, हजारीप्रसाद द्विवेदी. नई कविता के परिप्रेक्ष्य में उनके व्यक्त किए विचार इसी तथ्य की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट करते हैं. उन्होंने लघुमानव की बहस को नई कविता के ही परिप्रेक्ष्य में सीमित करने के बजाय पूरे आधुनिक युग के सामाजिक-सांस्कृतिक जागरण के परिप्रेक्ष्य में जाँचने-परखने की कोशिश की. उन्होंने लघु और महत जैसे मुद्दों को उसी तरह मान्यता दी जहाँ यथार्थ और आदर्श की संगति बैठती है. श्री साही ने कहा कि नई कविता की कोई अभी नई उपलब्धि नहीं है. ऐसी चीजें जो सारे छायावाद युग में इस द्वैत के भेद को मिटाने की कोशिश में लगी रही हैं, उनमें प्रसाद जी का समरसता-बोध वस्तुतः इसी द्वैत को समाप्त करने की एक बड़ी कोशिश थी.
छायावादी युग के इस सत्य को स्वीकार करते हुए साही ने कहा,
“यह बढ़ना, यह उन्मुखता, एक स्थितिजन्य सत्य की ओर उन लोगों की मनोभूमि के लिए ढांचा तैयार करती थी जिन्हें आजादी की लड़ाई में कोई दिलचस्पी नहीं थी.”
उन्होंने कहा कि
“इस तरह लघु और महत दोनों ही नए परिप्रेक्ष्य हैं—जिनके बीज तो छायावाद में मिल जाएंगे लेकिन जिसकी अनुभूति आजादी के बाद के साहित्य की अपनी है. ये दोनों ही भीतर और बाहर की ओर देखने के नतीजे हैं.”
किन्तु उन्होंने छायावादी आध्यात्मिकता से नई कविता आंदोलन को अलग करते हुए कहा,
“नई कविता की आंतरिकता आध्यात्मिक या अर्धआध्यात्मिक है. इस आध्यात्मिक ऊहा का विनाश किसने किया ?”
उनका कहना है कि
“इस जड़ को खोदने का काम दिनकर, बच्चन, भगवतीचरण वर्मा आदि ने ही शुरू किया. अज्ञेय और उनके साथ छायावाद ने तो मट्ठा डॉ.ला है.”
हालांकि साही नई कविता की उस अर्धआध्यात्मिक दृष्टि का विश्लेषण नहीं करते. लेकिन उन्होंने नई कविता और नए साहित्य के सामने एक चुनौती के रूप में खड़े इस गंभीर सवाल को उठाया कि
“आज के साहित्य की मनोभूमि की प्रथम अनुभूति यही है कि अंतःसत्य और बर्हिसत्य के बीच एक विशाल खाई है जो पाटे नहीं पटती.”
उन्होंने उदाहरण दिया कि इस खंडित चेतना को धर्मवीर भारती ने स्वर दिया-
इसीलिए सूने गलियारे में
निरुद्देश्य
चलते रहे सदा
दाएँ से बाएँ
और बाएँ से दाएँ
मरने के बाद भी
यम के गलियारे में
चलते रहेंगे सदा
दाएँ से बाएँ
और बाएँ से दाएँ
(अंधा युग)
इस खंडित लहर को साही बताते हैं कि
“राजनीतिक और कल्पनाशील में एक तनाव पैदा हो गया और इसके बीच की नैतिक कड़ी आधी इधर आधी उधर विलीन हो गई. आध्यात्मिक मुद्दा लापता हो गई.”
साही का निष्कर्ष है दरअसल नई कविता के उद्भव का कारण यही है. साही की द्वितीय स्थापना जो स्वयं अज्ञेय को भी हैरतअंगेज लगी वह यह कि नई कविता के प्रयोक्ता श्री अज्ञेय आश्चर्यजनक रूप से छायावादी प्रसाद के व्यक्तित्व एवं कृतित्व के निकट हैं. बावजूद इसके कि स्वयं अज्ञेय प्रसाद को विश्वविद्यालय का कवि मानते रहे हैं. साही की टिप्पणी है कि
“दर्शन और अनुभूति को घुलाने के लिए अज्ञेय वहीं से प्रारंभ करते हैं जहाँ प्रसाद ने छोड़ा था. वही शालीनता, वही शब्दों की चौकसी, वही आभिजात्य और वही कुछ खुला हुआ व्यक्तित्व. बेशक दोनों के बीच दो युगों का अंतर है.”
इस दिलचस्प विश्लेषण में साही ने अज्ञेय की ‘चिंता’ कविता संग्रह, प्रसाद की ‘कामायनी’ का चिंता सर्ग, ‘कामायनी’ के मनु, ‘शेखर एक जीवनी’ के शेखर, ‘नदी के द्वीप’ के भुवन, ‘कामायनी’ की श्रद्धा और इड़ा, नदी के द्वीप की रेखा और गौरा में सचमुच अद्भुत समानताएँ विश्लेषित की हैं.
इस महत्वपूर्ण विश्लेषण में साही का अज्ञेय के बारे में निष्कर्ष है,
“अज्ञेय की समानता दुनिया-भर के तमाम कवियों से की गई है और अक्सर उन्हें हिन्दी के लिए बाहरी आदमी समझा गया है. हिन्दी साहित्य का स्रोत जो लोग हिंदुस्तान से बाहर, खासतौर से अंग्रेजी में खोजने की कोशिश करते हैं वे, यदि छोटे मुंह बड़ी बात न लगे तो कहना चाहूँगा इसी कारण से वे करते हैं कि उनका अंग्रेजी-ज्ञान साहित्य के बारे में बहुत थोड़ा है. दुनिया के किसी कवि से यदि अज्ञेय की निकटता दीखती है तो वह जयशंकर प्रसाद से. वे दोनों एक ही सिमिट्री की दो विपरीत दिशाएँ हैं जिनके वेश में तीसरे दशक की खंडित चेतना वाली मनोभूमि है.”
(वही,पृष्ठ 155)
लघुमानव के बहाने हिन्दी कविता पर बहस जैसे गंभीर और विचारोत्तेजक लेख में साही की स्थापनाओं से किसी को भी गंभीर असहमतियाँ और आपत्तियाँ हो सकती हैं जैसे नई कविता के सिलसिले में नव आध्यात्मिकता के लोप की बात. लेकिन तीसरे दशक की जिस खंडित चेतना वाली मनोभूमि की बात साही करते हैं उससे असहमत होना कठिन है. इस खंडित चेतना की मनोभूमि को ही वे नई कविता का प्रस्थान मानते हैं. दरअसल यह बात नए साहित्य के निर्माण पर भी लागू होती है जिसका आजादी के बाद कथा-साहित्य में प्रस्थान हुआ था.
इस तरह साही की दृष्टि में नई कविता दरअसल हिन्दी के तीसरे दशक की कविता का एक नया उन्मेष है. वे कहते हैं,
“इस दृष्टि से नई कविता निश्चय ही उसी परंपरा से उद्भूत होती है जिसने तीसरे दशक तक की कविता का निर्माण किया. वस्तुतः नई कविता के अलग-अलग कवि एक तरफ छायावाद के दार्शनिक पथ से आए, दूसरी ओर बच्चन आदि भावनात्मक मार्ग से. इसलिए वे एक जैसे नहीं हैं किन्तु अन्तः सत्य और बाह्य सत्य अलग-अलग है. इस विडंबना की खुली स्वीकृति ही उन सबका आरंभ स्थल है. और यह भी कि यह सिर्फ दार्शनिक समस्या नहीं है, मूलतः अनुभूति की समस्या है. अज्ञेय ने इसको सूत्रबद्ध किया और पुरानी परंपरा से जोड़ा.”
(वही, पृष्ठ 156-57)
इस वक्तव्य के परिप्रेक्ष्य में देखें तो साही नई कविता को भारतीय कविता का एक नया प्रस्थान मानते हैं. तीसरे दशक की खंडित चेतना वाली अनुभूति को ही वे नई कविता का मुख्य स्वर मानते हैं. वे औरों की तरह नहीं मानते कि नई कविता की ‘जड़ें न्यू पोएट्री’ का छायानुकरण है. वे अपनी स्थापनाओं में जिस तर्क-पद्धति का इस्तेमाल करते हैं उनमें भारतीयता यानी भारतीय समाज, मनुष्य और यहाँ की संस्कृति का विशेष योग है. साही की वैचारिक सारणियों में मार्क्सवादी आलोचना के बीजशब्द भले ही न हों पर उनकी तार्किकता और जिरह में आलोचना की वस्तुवादी चेतना का प्रवाह जरूर है. इस प्रसंग में कुँवर नारायण की यह टिप्पणी सटीक जान पड़ती है कि
“लघुमानव के बहाने नई कविता पर साही की बहस निर्णयात्मक नहीं कही जा सकती, लेकिन उस समय भी साही ने कई मुद्दे उठाए जो आज विचारणीय है. भारतीयता को लेकर इधर जो सोच-विचार हुआ उसके बीज साही की उस बहस में है- और उसका संकेत सही दिशा में था कि भारतीय जीवनबोध एक ओर अगर बिल्कुल किसानी अर्थों में जमीन का है तो दूसरी ओर अत्यंत उदात्त अर्थो में भारतीय सांस्कृतिक, दार्शनिक और वैचारिक परंपराओं से शक्ति खींचता है. साही दोनों स्रोतों को संश्लिष्ट रूप से ग्रहण करते हैं. शायद यही वह मूल बिंदु है जहाँ साही का राजनीतिक व्यक्तित्व और उनका जीवन-दर्शन एक सही भारतीय मानस का प्रतिनिधित्व करता है. साही का समाजवाद ठीक उन्हीं अर्थों में उदारतावादी था जिन अर्थों में उनकी भारतीयता रूढ़िवादी नहीं थी. साही की प्रगतिशीलता भारतीय जीवन-पद्धति का निषेध नहीं है, नए और जरूरी को निष्पक्षता से जांच कर स्वीकार या अस्वीकार करने की सतर्कता है.”
(कविता के बहाने एक सही आदमी पर बहस: कुंवर नारायण: पूर्वग्रह- 65: विजयदेव नारायण साही पर केंद्रित, पृष्ठ 52)
यह सच है कि साही मार्क्सवाद से असहमत थे, पर वे मार्क्सवाद के उस तरह के कट्टर विरोधी नहीं थे जिस तरह अज्ञेय और उनके फालोवर थे. पर हिन्दी आलोचना का इसे दुर्भाग्य ही कहना चाहिए कि साही की लोहियावादी तेवर की दृढ़ता से लोगों ने उन्हें मार्क्सवाद का कट्टर विरोधी सिद्ध कर दिया. उनके दोटूकपन को उनकी अतिवादिता मान लिया गया. जबकि सच्चाई यह है कि उनकी आलोचना-दृष्टि में भारतीय साहित्य के हजारों वर्षों की स्मृतियाँ, सपने, जय और पराजय के प्रतिरूप झलकते मिलते हैं.
नई कविता के सिलसिले में वे निर्णायक अभिमत भले ही न निकाल सकें हों, पर निधन से पूर्व जायसी को लेकर भक्तिकाल के साहित्य में धर्मनिरपेक्षता और साधारण मनुष्य की खोज को उन्होंने जिस पैनी और खुली दृष्टि से जायसी को सौन्दर्य का महान कवि सिद्ध किया है वह किसी मार्क्सवादी आलोचक के लिए चुनौती है. साही जिस तरह विशिष्ट को तोड़कर कविता में साधारण की प्रतिष्ठा को रचने की कोशिश करते हैं उसी तरह आलोचना में भी वे शिष्ट साहित्य पर हास्य प्रकट करते हैं और साधारण मनुष्य की पुकार को सुनने-गुनने वाले साहित्य के पक्षधर प्रतीत होते हैं.
आज बीसवीं शताब्दी के अवसान में साहित्य क्यों? पर उनके ये विचार शायद सबसे ज्यादा मौजूं है जो आज से आधी शताब्दी पहले कहे गए थे :
“आज हम उस समय मिल रहे हैं जब इस तीर्थयात्रा के पहले उत्साह को बीते हुए कुछ अरसा गुजर गया है. बीसवीं शताब्दी ढल रही है. इसका अवसर आ गया है कि हम थोड़ा तटस्थ होकर देखें—क्या इस सारे कुहराम में कोई अर्थ रहा है? इतिहास की इस कभी उत्तेजित, कभी हताश गति में क्या कोई रूपरेखा रही है जो याद किए जाने योग्य हो? शीघ्र ही, शायद हममें से बहुतो की ज़िन्दगी में इक्कीसवीं शताब्दी की शुरुआत होते ही यह बीसवीं शताब्दी उस सबके लिए पर्याय बन जाएगी जो खत्म हो चुका है, मर चुका है, हमेशा के लिए दूर जा चुका है, उस समय यह बीसवीं शताब्दी कैसी दिखेगी ?”
(साप्ताहिक हिंदुस्तान, अप्रैल 1970)
लोहियावादी आलोचकों में जगदीश गुप्त शायद इस मायने में ज्यादा प्रभावशाली हैं क्योंकि उन्होंने नई कविता आंदोलन में अपनी सक्रिय भूमिका निभा कर इस नयी काव्य-प्रवृत्ति को एक ढांचे की शक्ल में खड़ा किया. नई कविता पत्रिका के मुख्य संपादक के रूप में उन्होंने नयी कविता पर होने वाली बहसों को एक व्यापक मंच दिया. उन्होंने इस काव्यान्दोलन को व्यापक रूप से प्रतिष्ठित करने के लिए नई कविता को एक नए काव्यशास्त्र के रूप में गढ़ने की कोशिश की. लोहियावादी आलोचना शास्त्र के सिलसिले में यह तथ्य नोट करने का है कि लक्ष्मीकान्त वर्मा, विजयदेव नारायण साही और जगदीश गुप्त में समान रूप से नवीनता का आग्रह है.
लक्ष्मीकान्त वर्मा जरूर अस्तित्ववाद की चपेट में आकर लघुमानव का काल्पनिक सवाल उठाते हैं. पर जगदीश गुप्त और विजयदेवनारायण साही समान रूप से नई कविता के उन्मेष को परंपरा और इतिहास में ढूँढ़ते हैं. इस लिहाज से विजयदेव नारायण साही की प्रखरता कहीं ज्यादा तीक्ष्ण और असरदार है. लक्ष्मीकान्त और जगदीश के साथ जो सबसे बड़ी दिक्कत है वह है- अज्ञेय का प्रभामंडल. शायद इसी प्रभा मण्डल के आकर्षण ने दोनों को, व्यक्ति को पहले महत्व देने के लिए बाध्य किया. जगदीश गुप्त नई कविता की सर्वोत्तम व्याख्याएँ अज्ञेय के व्यक्तिवाद में ढूंढते हैं, पर वे उसी के समानांतर मुक्तिबोध की सामाजिक प्रतिबद्धता से लैस कविता के मूल्यांकन में चुप्पी साध लेते हैं. फलतः ये दोनों नई कविता की व्याख्या एकांगी और सुविधाजनक ढंग से करते हैं. यह तथ्य लक्ष्मीकान्त और जगदीश गुप्त के आलोचनात्मक मानदंडों की सबसे बड़ी सीमा है.
जबकि लोहियावादी आलोचना में साही अकेले आलोचक है जो अज्ञेय से बिना अभिभूत हुए अज्ञेय के समानांतर शमशेर से काव्य-विमर्श करते हैं. ‘शमशेर की काव्यानुभूति की बनावट’ इस दृष्टि से लोहियावादी आलोचना का सर्वश्रेष्ठ प्रदेय है. क्योंकि विजयदेव नारायण साही व्यक्ति की जगह साधारण व्यक्ति के पक्षधर थें. इसलिए उनकी आलोचना-दृष्टि व्यापक, समाजोन्मुखी और ऐतिहासिक है. वे अपनी आलोचना में जिस तरह इतिहास से जूझते हैं, इससे साबित होता है कि साही हिन्दी काव्य की मुक्ति चाहते थे. वह नई कविता ही क्यों न हो. जैसे समाज में वे डॉ.. लोहिया की तरह आखिरी आदमी की मुक्ति के हमेशा पक्षधर रहे. कहना न होगा कि श्री साही लोहियावादी आलोचना-दृष्टि की अकेली अनन्य उपलब्धि है. दरअसल साही की आलोचना में जो निर्भीकता और साहस है उसके पीछे उनकी समाजवादी सक्रिय राजनीति तो है ही जनता से मुखामुखम संवाद है. यही ताकत उनकी आलोचना में सामाजिकता को बल देती है.
(5)
साही की आलोचना दृष्टि पर विचार करते हुए इस तथ्य की ओर हमारा ध्यान सहसा जाता है उनकी आलोचना दृष्टि के निर्माण में जैसा कि पूर्व में मलयज के कथन की चर्चा हो चुकी है कि साही की आलोचना में तीन सिरों की टकराहट है- साहित्यिक, दार्शनिक और ऐतिहासिक– राजनीति. लेकिन गौर किया जाए तो इन तीनों के साथ उनकी आलोचना में व्यापक स्तर पर परंपरा, इतिहासबोध, प्रगतिशीलता और आधुनिकता बोध के तत्व प्रमुख हैं. यहाँ लघुमानव की अवधारणा वाले पहलू पर विस्तार से चर्चा करते हुए परंपरा, इतिहास बोध, दार्शनिकता की चर्चा कर चुके हैं. यहाँ सबसे जरूरी है उनकी आधुनिक दृष्टि की शिनाख्त और उनकी व्यापक प्रगति-शीलता का बोध. बिना इसे समझे, मथे आप साही की आलोचना के ग्राफ को पूर्ण नहीं कह सकते.
साही की नई कविता की अवधारणाओं और लघुमानव पर उठी बहसों पर गौर किया जाए तो साही विचारों में भारतीय समाजवाद के प्रबल पक्षधर और भाष्यकार हैं. जिस तरह भारतीय समाजवाद का अंतिम लक्ष्य समाज के आखिरी आदमी की नियति को बदलना और उसकी आवाज को सुनना है, उसी तरह साहित्य की मनोभूमि में साहित्य का अंतिम लक्ष्य मनुष्य है, जिसकी आवाज को सुनना और उसकी मुक्ति के मार्ग को चुनना ही लक्ष्य है.
गौर किया जाए तो साही अपनी बहसों में हमेशा साधारण आदमी की पसलियों में हो रहे दर्द को पकड़ने की कोशिश करते हैं. कहना न होगा कि नई कविता के दौर में नई कविता को परिभाषित करने में नया समाज यानी आजादी के बाद बदलते भारत के परिप्रेक्ष्य में वह सबसे ज्यादा फोकस आधुनिकता की खोज में तल्लीन लगते हैं. दिलचस्प तथ्य यह है कि उनकी यह आधुनिकता पश्चिम में आधुनिकता वादी कोख से जायमान नहीं है बल्कि भारत की मनोहारी प्राचीन भूमि के उर्वर प्रान्तरों से पैदा हुई है. यह आधुनिकता जितनी भारतीय है उतनी ही देसी है. जिसे देसी आधुनिकता कहा जाता है. कहना न होगा कि साही की आधुनिकता दृष्टि के विकास में देसी आधुनिकता का विशेष हाथ है. अन्यथा वे कबीर और जायसी को जो मध्यकाल में पैदा होकर विकसित हुए,उन्हें आधुनिक कवि के रूप में मूल्यांकित नहीं करते.
वे कबीर और जायसी की आधुनिकता के उतने ही दीवाने हैं जितना कालिदास और फिरदौसी के. क्योंकि ये दोनों कवि साही को संभावना के दो छोर के रूप में दिखाई पड़ते हैं और इन दो ध्रुवातों के बीच में रखकर वे धर्मनिरपेक्षता के सवाल को दूर तक परखते हैं. जाहिर है उनके परखने का आधार और अंदाज साहित्य है. जहाँ दोनों धर्मनिरपेक्षता की भाव-भूमि पर एकसाथ मिलते हैं.
जैसे मध्यकाल के दो महान कवि कबीर और जायसी साही के उत्तरवर्ती जीवन और लेखन में लगातार मथते है, बेचैन करते हैं. ये दोनों भारतीय कविता की ऐसी आवाज़ें हैं जिनमें धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा की गहरी गूँजे समाहित हैं. सबसे पहले जायसी को लें. साही की नज़र मे जायसी को लेकर दो मुख्य स्थापनाएँ हैं जो उन्हें भारतीय आधुनिकता की परंपरा से जोड़ती हैं. पहली अवधारणा धर्म निरपेक्षता की है,दूसरी अवधारणा यह है कि जायसी विशुद्ध सौन्दर्य के विलक्षण कवि हैं. साही की दृष्टि में यह दोनों अवधारणाएँ उन्हें आधुनिक बनाती हैं. जायसी के प्रसंग में उनका यह कथन सटीक है कि
“जायसी ने लिखा चाहे सोलहवीं शताब्दी में लेकिन उनकी सृजनशीलता एक गहरे अर्थ में आधुनिक है.”
(कवि के बोल खरग हिरवानी : विजयदेवनारायण साही : समीक्षा दशक पृष्ठ 228 स. निर्मला जैन)
मध्यकाल के ऐसे विलक्षण आधुनिक कवि के कविकर्म की गहरी मीमांसा करते हुए साही का मानना था कि
“जायसी जहाँ खड़े थे वहाँ से वे बहुत आसानी के साथ कबीर की तरह एक वैकल्पिक आध्यात्म की सृष्टि कर सकते थे. उन्हें कबीर की जानकारी है. अखरावट में उनकी चौपाई है
‘ना नारद तब रोई पुकारा
एक जुलाहे से मैं हारा’
विद्वानों ने अनुमान लगाया है कि शैतान को हराने वाले जुलाहे से यहाँ जायसी का अभिप्राय कबीर दास से ही है. हो सकता है ऐसा ही हो. तब जायसी के आध्यात्मिक मार्ग द्रष्टाओं की सूची में एक कबीरदास का नाम जोड़ना पड़ेगा: परंतु जायसी कबीरदास की परिणति देख चुके थे.”
(वही पृष्ठ 228)
इसलिए जायसी कबीर पंथियों से अलग विशुद्ध प्रेम मार्गी बन कर अकेले चलने के लिए कृत संकल्प होते हैं. साही का मानना है
“जायसी की निर्मल दृष्टि मानवीय समस्या को जिस प्रकार देख रही थी उसमें कबीरदास की परिणति से अपने को बचाना जरूरी था. इसलिए जायसी ने न कोई अखाड़ा बनाया न चेले बनाए न बाबागिरी अपनाई, न किसी आध्यात्मिक दर्शन का रूपक बांधा. उन्होंने अपने लिए कवि और केवल कवि की भूमिका चुनी जिसका दावा सिर्फ इतना ही है कि जिसने उनका मुंह देखा उसे हंसी आ गई लेकिन जब काव्य सुना तो आँसू आ गए. लगता है कि जायसी अपने पाठक के सिवा इस एक प्रश्न के और कुछ भी नहीं पूछना चाहते कि आपका आध्यात्म चाहे जैसा हो, ईश्वर चाहे जैसा हो, कर्मकांड चाहे जैसा हो लेकिन आपकी आँखों में आँसू आने की क्षमता शेष है या नहीं.”
(वही, पृष्ठ: 228-29)
अपनी ऐतिहासिक आलोचनात्मक कृति ‘जायसी’ में साही ने जायसी को काव्यानुभूति और काव्याभिव्यक्ति में पूरे मध्यकाल और भक्ति परंपरा के कवियों में बेजोड़ कवि सिद्ध करते हुए अपने विश्लेषण में रामचन्द्र शुक्ल सरीखे आलोचकों से आगे जाकर
“जायसी के भीतर मानवीय विषाद की एक ऐसी तस्वीर देखी है जिसमें निष्कलंक आदर्श भी है और बहुत कड़वे यथार्थ भी है झिलमिलाती यूटोपिया भी है और रिश्वत खोरी पर चलते कारगार भी हैं, संत और साका भी हैं छल से भरा हुआ विध्वंशकारी राजहठ भी है”.
(वही, पृष्ठ :229)
यहाँ जायसी की धर्म निरपेक्षता को उद्घाटित करते हुए साही का निष्कर्ष बहुमूल्य है-
“जायसी एक मात्र कवि हैं जिनके सामने हिन्दू– मुसलमान अलग-अलग नहीं हैं वे घुल मिल कर सामान्य पाठक या श्रोता हो गए हैं. इसलिए जायसी को न चौकन्नी तटस्थता की जरूरत पड़ती है, न आलोचना और प्रतिरोध के तराजू के दोनों पल्लों को बराबर बनाए रखने की चिंता व्यापती है····· अपने युग में जायसी ने जो बौद्धिक उन्मेष खोज निकाला वह अनोखा था. उसकी समीक्षा का विषय धर्म नहीं मनुष्य था···· लेकिन कबीर दास के हिन्दू और मुसलमान दो जमातो में अलग-अलग उनके पाठक हैं. कबीरदास जानबूझ कर दोनों से समानांतर दूरी की नीति बनाते हैं ताकि उसकी निष्पक्षता पर आंच न आए.”
(वही : पृष्ठ 229)
कहने की जरूरत नहीं कि साही ने अपनी चौकन्नी विवेकशक्ति से धर्म निरपेक्षता और काव्यत्व के मामले में जायसी को कबीर से बड़ा कवि सिद्ध किया है. क्योंकि कबीर अपने सम्पूर्ण व्यक्तित्व में पहले भक्त हैं बाद में कवि हैं जबकि जायसी सिर से पाँव तक सिर्फ और सिर्फ कवि हैं. जायसी के कवि व्यक्तित्व की ऊंचाई को नापने के लिए साही ने अपनी समाजवादी धर्म निरपेक्षता की सोच का जिस खुले मन से इजहार किया है वह एक आलोचक के विवेक और साहस का बेमिसाल प्रमाण है. वर्ना सूफी मत के तर्क जाल में रामचन्द्र शुक्ल लेकर नामवर सिंह तक सभी जायसी को लेकर फंसे हुए दीखते हैं.
मुझे याद है और मैं इसे अपने जीवन का सौभाग्य मानता हूँ कि साही उन दिनों सन 1980 के दिसंबर माह में (6,7,8) की तिथियों में गोरखपुर विश्वविद्यालय हिन्दी विभाग की ओर से आयोजित जायसी संगोष्ठी में आए हुए थे. नामवर सिंह दिल्ली से आये थे. इसके अलावा दो दर्जन हिन्दी के धराऊँ विद्वानों का जमावड़ा मचा हुआ था. पर मेरा आकर्षण सिर्फ साही को सुनने में था. मुझे पता चला कि साही नई कविता को छोड़ कर जायसी में आजकल रमे हुए हैं. तब यह जानकार अचरज भी हुआ था कि नई कविता का यह आदमी अचानक जायसी में इस कदर कैसे डूब गया है ? इस रहस्य को जानने का कौतूहल भी मन में था. यद्यपि जायसी मेरे पाठ्यक्रम में थे, पर जायसी के बारे में सामान्य जानकारी हासिल कर पाया था. बस मैं यही जान पाया था कि जायसी सूफी मत के कवि थे.
उल्लेखनीय है कि उन तीन दिनों की संगोष्ठी में साही आरंभ से अंत तक छाए रहे. उनकी तकरीर में आलोचना का तर्क और भावनाओं का सम्मिश्रण बेमिसाल था. राजेंद्र कुमार के शब्दों में कहूं तो “पाइप का कश लेते ही साही के चेहरे पर बौद्धिकता थोड़ी और आंच पा जाती थी”.
उस दिन साही ने अपने निर्वचन से जायसी में एक नए जायसी का अवतरण कराया. उन दिनों वे जायसी में अहर्निश डूबे हुए थे. साही की उस `डूब` ने ही `जायसी` जैसी बेमिसाल कृति संभव कराई. मुझे यह भी याद है कि उस संगोष्ठी के दौरान साही के निर्वचन की चहुंओर धूम थी. उनकी तकरीर की स्थापनाओं के बाद किसी में टिकने की हिम्मत न थी. मुझे यह भी याद है कि साही के बाद नामवर सिंह बोलने आए. उन्होंने बहस में साही का सामना करने की कुछ देर कोशिश भी की पर ज्यादा देर साही की बहस पिच पर टिक नहीं पाए. वे दूसरे दिन ही दिल्ली लौट गए. मैंने जीवन में पहली बार नामवर सिंह को साही के सामने लड़खड़ाते देखा. लगभग पस्त और तर्कहीन.
जबकि साही और नामवर की अनेक बहसें पेरिस में कामू और सार्त्र की बहसें याद दिलाती हैं जो आजीवन दोनों के बीच खत्म नहीं हुईं. कामू की दुर्घटना में अचानक हुई मौत ने उस बहस को विराम दिया था. तब खुद सार्त्र ने ही कहा था
“मैं आज सचमुच हार गया हूँ ?”
क्या महज अट्ठावन साल में अचानक गए साही (5 नवंबर 1982) की मौत के बाद नामवर जी ने साही के न रहने पर यह कभी सोचा होगा कि मेरे लिए मैदान खाली हो गया है. काश ! मैं नामवर सिंह से कभी पूछ लिया होता. यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि हिंदी में आज दोनों नहीं हैं.
कहना न होगा कि साही की आलोचना की रेंज को नजदीक से अगर देखना हो तो जायसी जैसी कृति बार-बार पढ़ी जानी चाहिए. वहाँ साही की आलोचना की वाक शक्ति और `अविराम बौद्धिक जिज्ञासा` की थाह लगती है. यह भी लगता है कि एक आलोचक किस कदर अपने कृतिकार में डूब-उतरा रहा है और हर बार विचारों के नए मोती पाठक के सामने बिखेर रहा है. जैसे रामचन्द्र शुक्ल कभी तुलसीदास में और हज़ारी प्रसाद द्विवेदी कबीर में डूबे थे.
काश ! नामवर सिंह मुक्तिबोध में इसी तरह डूब पाते. काश ! मलयज रामचन्द्र शुक्ल में थोड़ी दूर और चलकर डूब पाते तो हिन्दी आलोचना और समृद्ध होती. काश ! विजयदेवनारायण साही पर लिखते हुए सत्यप्रकाश मिश्र मौत से थोड़ी और इजाजत लेकर पूरे साही को हमारे सामने प्रकट कर पाते. लेकिन ‘जो नहीं हो सका उसका गम क्या’.
सत्यप्रकाश जी जितना साही को अपने दिल और दिमाग में उतार पाए हैं वह उन्हें पूरा देखने की एक सार्थक और बेजोड़ कोशिश दिखती है. साही के जायसी लेखन पर सत्यप्रकाश की यह टिप्पणी गौर तलब है-
“साही की आलोचनात्मक क्षमता और बौद्धिक प्रखरता का प्रमाण उनके निबंधों से अधिक `जायसी` में है. क्योंकि इस कृति में विद्वता और आलोचना का वह मिलाजुला रूप है जिसे कुछ कवि और विद्वान महज अध्यापकीय कह देते हैं. मैं कहना चाहता हूँ कि इसकी तुलना टी.एस. इलियट के दांते के विश्लेषण से की जा सकती है. इसमें साही ने मानवीय मूल्यवत्ता और प्रातिभ आंतरिकता की तलाश को ही मूल्य नहीं माना है बल्कि इलियट की ही तरह से मानवीय विवेक और भावना की चुनौती को जायसी की सृजनशीलता का कारण माना है. भावना के हाथों बुद्धि और बुद्धि के हाथों भावना के पकड़े जाने के परिणाम का विश्लेषण वह लघुमानव वाले निबंध में कर चुके हैं. जायसी के पहले ही साही ने दर्शन और अनुभूति के संबंध के आधार पर छायावाद और नई कविता में यह अंतर माना था कि छायावादी अनुभूति को दर्शन में घुलाता था और अज्ञेय दर्शन को अनुभूति में घुलाते हैं. यह एक प्रकार की दृष्टि का महत्वपूर्ण परिवर्तन है. जायसी में उनकी समस्या उन्हीं प्रश्नों के हल की है जिसे `मनुष्य का आविष्कार` कहा जाता है····· वे निर्णय नहीं देते परंतु अपने समय के प्रमुख प्रश्नों का क्या समाधान उन्होंने खोजा यह स्पष्ट कर देते हैं····· अपने समय के प्रमुख प्रश्नों की टकराहट के आधार पर ही जायसी को वे महान मानते हैं.”
(विजयदेव नारायण साही मोनोग्राफ: सत्यप्रकाश मिश्र, पृष्ठ 46-47)
सत्यप्रकाश जी साही की आलोचना मे `मानवीय भावना की समरस` और `उदास व्यापकता की दृष्टि` का जिक्र करते हुए जायसी की महानता, ‘जायसी हिंदी के पहले विधिवत कवि हैं ’ का हवाला हवाला देकर किया है. आगे सत्यप्रकाश जी लिखते हैं — (साही में)
“परंतु इन सबमें अधिक महत्वपूर्ण है उनके द्वारा किया गया ‘पदमावत’ की संरचनात्मक अर्थवत्ता का विश्लेषण जिसमें आचार्य शुक्ल भी चूक गए बाद के हिन्दी आलोचकों का तो प्रश्न ही नहीं है. साही का उद्देश्य सिंहल-लोक और इतिहास लोक की दो इकाइयों को चित्तौड़ के दो मुँहेपन से जोड़ कर कथा की संरचनात्मक अन्विति को स्पष्ट करते हुए अर्थ के स्रोत को उद्घाटित करना है— साही लिखते हैं `स्वप्नों आकांक्षाओं मूल्यवत्ता की एक दुनिया भीतर है. रौंदती हुई सत्ता की एक आतंककारी दुनिया बाहर है. क्या ये दोनों दुनियाएँ एक दूसरे में प्रविष्ट होकर समन्वय प्राप्त कर सकती हैं ? जब ये दुनियाएँ एक दूसरे के निकट जाती हैं, तो क्या होता है ? अपनी आत्मा की पूरी शक्ति से `पद्मावत` कथा में जायसी ने यह पूछने का अभूतपूर्व प्रयास किया है. जवाब में उन्होंने देखा —चिता से उड़ती हुई राख और एक विराट सन्नाटा. और जायसी उस चिता की राख को कुरेदते हैं, उसमें एक धड़कता हुआ हृदय था. उसका क्या हुआ? गालिब के शब्दों में `
जला है जिस्म जहाँ दिल भी जल गया होगा
कुरेदते हो जो अब राख, जुस्तजू क्या है ?”
(वही: पृष्ठ 47)
सत्यप्रकाश जी की साही जी की जायसी वाली आलोचना दृष्टि पर की गई यह टिप्पणी सटीक लगती है कि
“मुझे लगता है जैसे टी. एस. इलियट शेक्सपियर और दांते को देखता है और आलोचना को आलोचनात्मक क्षमता उत्पन्न करने के स्तर पर पहुंचता है वैसे ही साही तुलसी, कबीर और खुसरो आदि से जायसी की तुलना करके अपने मान और मूल्यों का प्रमाण जायसी को सिद्ध करते हैं···· साही बौद्धिकता, विचारधारा और मानवीय स्थिति के घोल की कल्पना करते हैं जो किसी रचना को मूल्यांकित करने के लिए काफी है.”
(वही: पृष्ठ 49)
कहना न होगा कि साही के भीतर जायसी अचानक नहीं प्रवेश किए बल्कि धीरे-धीरे. 1956 के एशियाई लेखक संघ में भी तुलसीदास और जायसी पर की गई तकरीरें साही के भीतर मथती रहीं. बाद में तुलसीदास तो उनसे छूट गए उसकी जगह कबीर उनके भीतर दाखिल हो गए. जायसी साही को आलोचना के मैदान में उतार दिए जबकि कबीर उनके भीतर के कवि के रूप में अपनी स्थाई जगह बना लिए और ‘साखी’ जैसे कालजयी काव्य संग्रह का जन्म हुआ.
जीवन के आखिरी दौर में ये दोनों कवि उनके सच्चे सहचर बने रहे. इस तथ्य को दुहराना जरूरी है कि साही नई कविता आंदोलन की शहराती आधुनिकता को छोड़कर अपनी परंपरा में आधुनिकता की तलाश करते हुए जायसी और कबीर के पास जाते हैं,जैसे ये दोनों उनके ज़ख्मी जिगर के टुकड़े हों और वे उन्हीं से बराबर जीने और रचने के लिए आक्सीजन लेते रहे हो. काश! साही जायसी जैसा कबीर के बारे में हजारी प्रसाद द्विवेदी के आगे कुछ लिखते.
आधुनिकता के इस प्रसंग में शमशेर के मूल्यांकन पर केंद्रित लेख ‘शमशेर की काव्यानुभूति की बनावट’ जो वस्तुतः 1964 में ‘विवेचना’ की गोष्ठी में साही ने इलाहाबाद के बौद्धिकों के बीच पढ़ा था. साही ने शमशेर की काव्यानुभूति की जटिलता और उसकी आंतरिक सघनता पर दृष्टिपात करते हुए शमशेर की कविता से कई हैरतअंगेज नतीजे निकाले हैं.
साही शुरू में ही शमशेर के प्रसंग में काव्यानुभूति की मालार्मीय विडंबना का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि मलार्मे को जितना ही यह विश्वास जकड़ता जाता था कि चारों ओर के भौतिक जड़ जीवन के अतिरिक्त और कुछ भी सत्य नहीं है उतना ही काव्यानुभूति के लिए अपेक्षित अतिक्रमण असंभव दिखता है. इस विडंबना का मलार्मे के लिए हश्र ये हुआ कि उसका कालांतर में लिखना न के बराबर हो गया···· साही ने शमशेर की काव्यानुभूति की समस्या का आकलन इस आधार पर किया कि शमशेर कम लिखते हैं और उससे भी कम प्रकाशित करते हैं. लेकिन किसी लेखक के कम लिखने और न लिखने के कारणों की पड़ताल इतनी आसान है जितना की साही ने समझ लिया है. यह दूसरी बात है कि शमशेर अपनी काव्याभिव्यक्ति के मामले में बेहद शब्द किफायती हैं. मुँहफट शब्दों में कहूँ तो वे अपने ढंग के विरले शब्द-कंजूस कवि हैं. शब्द उनके लिए किसी सिक्के की तरह है. जिसे वह बहुत सोच-समझ कर खर्च करते हैं. काव्यानुभूति के मामले में वे काव्य वस्तु का चुनाव भी बहुत सोच-समझ कर करते हैं.
साही जिस मानवीय करुणा की कविता में सबसे बड़े पक्षधर भाष्यकार हैं उसमें शमशेर की कविताओं में मानवीय करुणा का अवतार प्रायः प्रकट होता है. शमशेर के काव्य संसार में कितनी विविधता है शुरू से लेकर आखीर तक. शमशेर खुद कहते हैं —
“मैं बहुत कामयाब कवि शायद नहीं बन पाया हूँ, लेकिन संभवतः एक जेनुइन कवि अपने आप को कह सकता हूँ. अगर यह ठीक है तो मेरे लिए संतोष की बात कम नहीं है”
साही शमशेर को विशुद्ध सौन्दर्य बोध का कवि मानते हैं जबकि नामवर सिंह की दृष्टि में
“जो शमशेर को `शुद्ध सौन्दर्य का कवि` मानने के आग्रही हैं उनकी आँख खोलने के लिए उन छवियों की ओर संकेत करना पर्याप्त होगा जिसमें अंकुठ मन से शरीर का उत्सव रचा गया है. शमशेर के लिए सौन्दर्य एक ठोस बदन अष्टधातु का- सा हैं जिसमें जंघाएँ ठोस दरिया/ ठहरे हुए से. कवि की पहली प्रेमिका/ जो आईने की तरह साफ है` और बदन के माध्यम से बात करती है. और वह कांसे का चिकना बदन हवा में हिल रहा है ! हिन्दी कविता में कहाँ है ऐसी सघन ऐंद्रियता.”
(प्रतिनिधि कविताएँ : शमशेर बहादुर सिंह पृष्ठ- 7)
कहने की जरूरत नहीं कि शमशेर का काव्य संसार इतना विविध और बहुधर्मी है कि उसे इंद्रधनुषी काव्य संसार कहना ज्यादा उपयुक्त होगा. ऐसे विविधवर्णी कवि में ठहराव की गुंजाइश बेहद कम है. शमशेर की काव्यानुभूति में दुहराव की झलक शायद ही दिखे. वे वैचारिक स्तर पर मार्क्सवाद से इस कदर प्रभावित है कि वे कहते है `मार्क्सवाद मेरी कविता के लिए आक्सीजन की तरह है` जिसने 1948 में ही अपनी काव्य यात्रा के प्रथम चरण में ही `वाम वाम वाम दिशा/ समय साम्यवादी` जैसा ओजस्वी गीत लिखा वही कवि आधी शताब्दी बाद ` काल तुझसे होड़ है` मेरी कविता में लिखते है—- ‘क्रांतियाँ, कम्यून/ कम्युनिष्ट समाज के / नाना कला विज्ञान और समाज के/ जीवन वैभव से समन्वित मैं`. इस प्रसंग में नामवर सिंह की यह टिप्पणी सटीक लगती है कि
“इसलिए शमशेर के लिए इतना काफी है कि वे कवि हैं-सिर्फ कवि. न शुद्ध कविता का कवि, न प्रयोग का कवि और न ही प्रगति का ही कवि. कुछ कवि ऐसे होते हैं जिन्हें हर विशेषण छोटा कर नेता है.”
(वही पृष्ठ- 8)
शमशेर की कविता बहुधा हिन्दी के शीर्ष आलोचकों- कवियों से लेकर नई पीढ़ी के कवियों-आलोचकों में हमेशा आकर्षण का विषय रही हैं तो इसलिए कि शमशेर को कोई विचार,कोई अनुभूति एक तरफा बांध नहीं सकी है. स्वयं अशोक बाजपेयी के प्रिय कवियों में मुक्तिबोध, के बाद शमशेर ही सबसे प्रिय कवि हैं. उन्होंने शमशेर की कविता का मूल्यांकन करते हुए वर्षों पहले कहा था कि ‘शमशेर तीसरे संसार की जरूरत के कवि हैं’ और वे ‘शब्दों के बीच नीरवता के कवि रहे हैं’ ऐसे विलक्षण कवि का मूल्यांकन करते हुए उन्होंने साफ लिखा है
“बीसवी शताब्दी के अधिकाँश में जीते और अंततः नि:शेष होकर शमशेर ने जो छाप छोड़ी है वह हिन्दी के जातीय चित्त पर, उसकी काव्य स्मृति पर बहुत गहरी और अमिट है. जब तक हिन्दी कविता के लिए समाज में जगह रहेगी शमशेर उसके रोशन शिखर रहेंगे. जिन्होंने कविता और इसलिए उसमें प्रकट जीवन को बदला, सुन्दरतर और चित्रमय किया. भारतीय कविता की आधुनिकता के वे एक प्रमुख स्थपति की तरह हमेशा स्मरणीय रहेंगे.”
(कवि कह गया है : अशोक वाजपेयी पृष्ठ 53)
जबकि साही की नज़र की शिनाख्त करते हुए सत्य प्रकाश मिश्र कहते हैं कि
“साही शमशेर की काव्यानुभूति की बनावट के प्रसंग में शमशेर के काव्य सत्य और मार्क्सवाद और अति यथार्थवाद को यूटोपिया के दो लोकों की तरह कल्पित करते हैं और कहते हैं कि जिससें वह बचना चाहते हैं जिससे काव्य सत्य का साक्षात्कार चाहते हैं—वह बाहर ही रहता है. काव्यानुभूति और उससे बाहर यानी हाशिये पर स्थित प्रगतिवाद, जो आमने-सामने दर्पण की भांति रखे हुए हैं, उसका समाधान शमशेर साही के अनुसार
“वस्तुपरकता के मर्म में आत्मपरकता और आत्मपरकता के मर्म में वस्तुपरकता का आविष्कार करके निकालते हैं.” साही की नज़र में शमशेर ‘ये कविताएँ, एक ही कविता लिखते हैं.’ इस पर सत्यप्रकाश की सटीक और बेधक टिप्पणी है कि ‘कहा जा सकता कि साही भी कई निबंध नहीं लिखते हैं बल्कि एक ही निबंध को बार-बार लिखते हैं. शमशेर की काव्यानुभूति की बनावट का काफी प्रभाव ‘जायसी’ में हैं.”
(विजयदेव नारायण साही : सत्यप्रकाश मिश्र पृष्ठ 49)
सवाल उठता है कि क्या महज शमशेर के मूल्यांकन के चलते साही की आलोचना दृष्टि में धुंधलापन की छाया का अंदाजा आप लगा सकते हैं ?
(6)
साही की आलोचना दृष्टि पर विचार करते हुए जो चीज पाठक को चमत्कृत करती है वह है—उनकी मूल्य दृष्टि की सृष्टि. जाहिर है साहित्य का अंतिम लक्ष्य तो मनुष्य की मुक्ति ही है. यह मुक्ति तभी संभव है जब समाज में बेहतर विचारों, भावनाओं का उन्नयन हो. विचारों से समाजवादी विचारक के रूप में शीर्ष पुरुष साही आजीवन अपने विचार और कर्म में ‘लोकतान्त्रिक समाजवाद’ के पक्षधर रहें. वे समाजवाद में डॉ. लोहिया की सप्तक्रांतियों के प्रतिबद्ध सामाजिक कार्यकर्ता रहे. डॉ. लोहिया के ही निर्देश पर भदोही लोकसभा का चुनाव लड़े और बहुत कम समय की तैयारी में अपने विरोधी कांग्रेसी उम्मीदवार को तगड़ी होड़ में उतरने के लिए मजबूर किया. बहुत कम मतो से साही चुनाव हारे थे पर वहाँ की जनता का दिल जीत लिया था. उस चुनाव की यह खासियत थी कि वह चुनाव भदोही की जनता लड़ रही थी, खास तौर से भदोही का कामगार वर्ग जिसमें भदोही के सारे बुनकर साही जी का चुनाव प्रचार कर रहे थें. उल्लेखनीय है कि साही ने कालीन बुनकरों की मांग को लेकर सुप्रीम कोर्ट तक मुकदमें की पैरवी और कोर्ट में खुद खड़े होकर बहस की थी और वह ऐतिहासिक मुकदमा जीता था.
एक बार साही जी से पूछा गया राजनीतिक कार्यकर्ता तथा मजदूर नेता होने में और शुद्ध बौद्धिक होने में क्या आप कोई अंतर्विरोध नहीं देखते ? तब साही ने कहा था
“नहीं ! सारी बौद्धिकता की तान यही टूटता है कि वैचारिक और व्यावहारिक आचरण में सामंजस्य कैसे स्थापित किया जाए. हर जागरूक बुद्धिजीवी को हमेशा इस खतरे से बचना चाहिए कि वह हाथी के दांत वाली मीनारों का जीवन बनकर न रह जाए. उसके लिये जरूरी है कि वह एक व्यावहारिक आचरण का निर्वाह करके कथनी और करनी में संतुलन स्थापित करे.”
(लोकतंत्र की कसौटियाँ : विजयदेव नारायण साही भूमिका पृष्ट- 3)
साही लोकतान्त्रिक समाजवाद के पक्षधर थे जिसमें वे तीन मूल्यों के प्रबल पक्षधर और अनुयायी थें- स्वाधीनता, समानता, भ्रातृत्व. इस मुद्दे पर साही ने डॉ. लोहिया को उद्धृत करते हुए कहा था कि
‘यदि हरेक आदमी जितना उसे चाहिए उतना ही ले, ज्यादा न ले तो दुनिया में गरीबी न रहे और कोई आदमी भूखा न मरे’ ····
समाजवाद मनुष्य जाति की, मनुष्य जाति के लिए, मनुष्य जाति द्वारा सरकार का विचार-दर्शन है, ताकि एक ओर जनता की, जनता के लिए और जनता के द्वारा सरकार हो तथा दूसरी कम्यून की, कम्यून के लिए और कम्यून द्वारा सरकार हो···· उन्होंने यह तो बताया था कि धर्म दीर्घकालीन राजनीति है और राजनीति अल्पकालीन धर्म है. उन्होंने यह भी कहा था कि राजनीति बुराइयों से लड़ना है और धर्म अच्छाइयों को बरतना है”
(लोकतंत्र की कसौटियाँ : विजयदेव नारायण साही : पृष्ठ 85)
पर आजादी के बाद भारतीय राजनीति में ऐसा संभव नहीं हुआ. लोकतान्त्रिक समाजवाद के नाम पर जो सरकारें आयीं उन्होंने अपनी राजनीति को बुराइयों से लड़ने के लिए तैयार नहीं किया. सरकारों से जनता का मोह भंग हुआ. साही इस पूरे परिदृश्य पर निगाह डालते अफसोस प्रकट करते है कि
“यह दुर्भाग्यपूर्ण बात है कि सर्वहारा वर्ग के रूसी और चीनी अधिनायक जिस प्रकार शक्ति को केंद्रित करते जा रहे हैं, जनतंत्र की शपथ खाने वाले, लोकतान्त्रिक समाजवाद के भारतीय नेता केवल अवसर के अभाव में, उस अनुष्ठान में उसके पीछे रह गए हैं और एक महान तपोमय तथा धीर फकीर के अनुयायी और ऋषियों और तपस्वियों की भूमि के निवासी होकर भी वे शक्ति और भोग के मोह से मुक्त होकर लोकतान्त्रिक समाजवाद के फूल के नवजात पौधे की जड़ में अपनी देह और मन को खाद बनाकर नहीं डॉ.ल सके.”
(वही पृष्ठ 86)
इस प्रसंग में साही का स्पष्ट मत है कि
“साहित्य जो स्वयं मानवता के अनेक महत्वपूर्ण पर्यायों में अन्यतम है, अपने स्वभाव और स्वधर्म की प्रेरणा लोकतान्त्रिक समाजवाद को प्रतिष्ठित और भास्वर करने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका चरितार्थ करे···· क्योंकि साहित्य समाज का लगभग समान धर्मा है—इसका एक बहुत बड़ा कारण उसके माध्यम का स्वरूप और स्वभाव है. भाषा स्वभावतः सामाजिक सामग्री है और उसके वैयक्तिक संचय का प्रश्न ही अस्वाभाविक है.”
(वही पृष्ठ : 86)
साही ने साहित्यकार के धर्म की शिनाख्त करते हुए उसे अपने दायित्व निर्वहन के लिए तैयार रहने का संकल्प देते हुए साफ कहा कि
“साहित्यकार यदि सिद्ध और समर्थ हो तो वह बाल्मीकि की तरह राजनीतिक भविष्यत को और व्यास की तरह उसके अतीत को अपने वर्तमान में बैठे-बैठे बांध सकता है, उसके अकाल त्रिकाल में और त्रिकाल को अकाल में देख और दिखा सकता है, पर अपने इस विराट रूप से भी वह अपनी पसंद का राज्य व्यवस्था का कल्याण कर सकता है···· यदि लोकतान्त्रिक समाजवाद को कभी साहित्य का ऐसा साधक मिलेगा तो पुरस्कार, परवरिश और नामजदगी के लोभ से नहीं यो उस पर पड़े हर शून्य का मोल दस गुना बढ़ता जाएगा.”
(वही पृष्ठ : 89)
यहाँ असली सवाल यह उठता है कि साही ने जिन मूल्यों और मानो की रक्षा के लिए भारतीय युग चेता लेखकों का आह्वान किया है, वहाँ क्या आज का लेखक उस मूल्य और मान की रक्षा के लिए अपने को मर-मिटने के लिए तैयार कर सका है ? जाहिर है यह मौजूं सवाल एक जलते हुए लावे की तरह आज के वर्तमान साहित्यकारों की हथेली पर हलफ उठाने के लिए मुंह बाए खड़ा है. उत्तर तो आज के मौजूदा लेखक समाज को देना है. साही जी के शब्द आज हमारे लिए एक विराट लेखकीय मूल्य की तरह है कि आप क्यों लिखते हैं ? किसके लिए लिखते हैं ? क्योंकि साही साहित्य को स्वभावतः लोकतान्त्रिक समाजवाद का समानधर्मा मानते हैं, अतः उनका मानना है कि एक सजग लेखक इस परिप्रेक्ष्य में अपनी भूमिका खुद तय करे.
वैसे साही की स्पष्ट मान्यता रही है कि बुद्धिजीवियों और साहित्यकारों को हमेशा जोखम की राजनीति करनी चाहिए न कि सहूलियत की. फिर जोखम की राजनीति से क्या मतलब है. इसके बारे में साही कहते हैं
“अपनी बौद्धिकता को जोखम में डॉ.लना. आज हर जागरूक बौद्धिक का यह कर्तव्य है कि वह अपनी बौद्धिकता को, जिसका उद्देश्य घुटन और जकड़न वाले समाज पर चोट करना है, जोखम में डॉ.ले. यानी स्वयं तैयार होकर घुटन और जकड़न वाली समाज की चोट को स्वीकार करे. तभी कुछ नतीजा निकल सकता है. शीशे की आलमारियों में बंद जीवन दर्शन का भारतीय बौद्धिक के लिए आज विशेष अर्थ नहीं रह गया है···· लेकिन राजनीति का एक दूसरा अर्थ भी है जिसके अनुसार वह आज के इस समाज की जकड़न और पूर्वाग्रहों पर भरपूर चोट करने और समाज की सृजनशील शक्तियों को उभरने के लिए अवसर प्रदान करने का अस्त्र है. हो सकता है कि इस कोशिश में आज बौद्धिक वर्ग आगे के लिए सिर्फ खाद बन कर रह जाए.”
(वही पृष्ठ 3: भूमिका से)
कहने की जरूरत नहीं कि आज के मौजूदा निजाम में बहुत सारे लेखक अपने को जोखम की राजनीति करने और अपने को जोखिम में डॉ.लने के बजाय सत्ता की हाँ में हाँ मिलाए रखने और सुविधा की राजनीति यानी सहूलियत की राजनीति करने में लगातार मुखामुखम हैं. ऐसे में यह उम्मीद करना कि वे अपने को जोखम में डॉ.लकर जनता और समाज को जिंदा रखेंगे यह सिर्फ खामखयाली होगी. पर साही के विचार बोध में यह लेखकीय मूल्य हमेशा जिंदा रहेगा. कहना न होगा कि साही की आलोचना दृष्टि में समाज के जीते-जागते सवाल जिंदा हैं जैसे उनकी चिंताओं में समाज और देश में बढ़ती सांप्रदायिकता की समस्या, लगातार हिंसा और असुरक्षा का बोलबाला, भाषा निर्माण का सवाल, धर्म निरपेक्षता का सवाल आदि ऐसे प्रश्न हैं जो साही की आलोचना के मूलमंत्र है.
सभी जानते हैं कि साही अंग्रेजी के प्राध्यापक थे. पर वे हिंदी, अंग्रेजी के अलावा उर्दू, फारसी, फ्रेंच आदि भाषाओं के जानकार और उसके साहित्य के मर्मज्ञ थे. यद्यपि हिन्दी भाषा के वे नियमित विद्यार्थी नहीं थे. हिन्दी उनकी मातृभाषा थी जिसके चलते वे अंग्रेजी हटाओ आंदोलन में शरीक हुए. इसलिए उनके समग्र लेखन में उर्दू और फारसी शब्दों का विशेष योग है. आलोचना में उर्दू, फारसी, के शब्दों का वे बेहद सधा इस्तेमाल करते है. भाषायी विविधता के प्रयोग ने उनकी आलोचना की भाषा को समृद्ध किया. जायसी, कबीर, फिरदौसी, अमीर खुसरो आदि कवियों की आलोचना लिखते हुए साही ने इन्हीं मूल्यों की रक्षा के लिए प्रयत्न किए. कहना न होगा कि ये सारे आलोचनात्मक मूल्य जीवन की रक्षा के लिए साही ने साहित्य में प्रयोग किए हैं,जो व्यापक स्तर पर मनुष्यता के पक्ष में हलफ उठाने के लिए कृत संकल्प हैं.
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साही की आलोचना दृष्टि पर एक और खास मुद्दे की ओर ध्यान आकृष्ट करना चाहता हूँ वह है—साही की भाषा और उनका लहजा. कहना न होगा ये दोनों ऐसे तत्व हैं जो उनकी आलोचना को वाद-विवाद और संवाद से समृद्ध करते हैं. शायद इसीलिए उनकी आलोचना का कद हिन्दी के मूर्धन्य आलोचकों की पात मे अग्रगण्य और अग्रधावक के रूप में शुमार होता है. उनकी आलोचना की भाषा का सबसे बड़ा गुण है- संवादधर्मिता जो बहस से शुरू होती हुई जिरह तक पहुँचती है. यह बेबाकी और दोटूकपन का गुण उन्हें लोहिया के समाजवादी तेवर से प्राप्त हुआ है. इसका अंदाजा आप उनके समूचे लेखन में पाएँगे. ‘लघुमानव के बहाने हिन्दी कविता पर बहस’ निबंध में भाषा की यह विविधता देखने लायक है-
“कहाँ है वह युग, जब एक सटीक शेर पर दिल्ली का कत्लेआम बंद हो जाता था, जब एक राखी की याद पर सल्तनतें लुट जाती थी. जब एक लाठी की मार पर अंग्रेज अफसर क्लर्क को तरक्की दे देता था, जहाँ एक लड़कपन की याद पर गुंडा आखिरी गोली तक जीवित रहने की प्रतीक्षा करता था, जब एक झोपड़ी की दृढ़ता पर पांडेपुर की सिगरेट फैक्ट्री को चुनौती देती अडिग खड़ी हो जाती थी. लघु और महत की यह नाटकीय विराटता कहाँ है ? इतिहास रथ की उड़ी धूल में पीछे बहुत पीछे !”
(पृष्ठ 97)
आप देख सकते हैं कि इस भाषा में बहस, जिरह, तनाव और क्षोभ के चेहरे किस कदर शब्दों में विन्यस्त हैं. महत्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि साही तनाव और गुस्से के मनोभाव के बावजूद भाषा की गरिमा और शालीनता की हद के बाहर नहीं जाते. भाषा की यही खूबी उनके समानधर्मा नामवर सिंह के भी पास मौजूद है. चूंकि साही (पब्लिक इंटेलेक्चुअल) सार्वजनिक बुद्धिजीवी थे इसलिए उनकी आलोचनात्मक भाषा में ज्यादातर सम्बोधन शैली का इस्तेमाल दिखाता है. यह सम्बोधन शैली न केवल उनके गद्य में बल्कि उनकी कविता की भाषा में भी शुरू से लेकर अंत तक बरकरार है. दरअसल इस सम्बोधन शैली वाली जुबान की कला साही ने समाजवादी आंदोलन के तेवर और उसके मिजाज से सीखी थी. उल्लेखनीय है कि यह तेवर और मिजाज लोहिया का था जिसका सीधा असर साही पर दिखाई देता है. दो टूक लहजा छोटे-छोटे वाक्य जो पाठक या श्रोता पर सीधा असर डालते हैं-
“पहला सवाल उसने (द्रौपदी) आते ही यह किया कि यह मेरे पतिदेव बताएँ कि क्या मैं उनकी संपत्ति हूँ कि उन्होंने मुझको दांव पर लगा दिया ? इनको मुझे दांव पर लगा कर हारने का अधिकार क्या है ? यह प्रश्न उन्होंने धृतराष्ट्र अपने ससुर से पूछा, भीष्म पितामह से पूछा, द्रोणाचार्य से पूछा, स्वयं धर्मराज युधिष्ठिर से पूछा कि आप धर्म की व्याख्या करते हैं- यह क्या किया आपने ? आपको अधिकार कहाँ से प्राप्त हुआ. सब चुप !”
(लोकतंत्र की कसौटियाँ : पृष्ठ 70 )
ऐसे स्थलों पर साही की हाजिर जवाबी और वाक पटुता, भाषा की तीक्ष्णता देखने लायक होती है.
साही आमतौर पर आम बोल चाल,वाचिक परंपरा की भाषा का इस्तेमाल करते हैं. जहाँ भाषा का स्पोकेन वर्ड (उच्चारित भाषा) का स्वरूप झलकता है. शायद इसी के मद्देनजर कुँवर नारायण ने वाजिब टिप्पणी की है कि
“साहित्य साही जी के लिए लिखित से अधिक मौखिक परंपरा का विस्तार और परिष्कार था”
आज और आज से पहले : कुँवर नारायण (पृष्ठ 195) पर कई जगहों पर उनकी भाषा में कविता की गूंज देर तक और दूर तक गूँजती रहती है ऐसी जगहों पर भाषा का काव्यात्मक आवेग देखते ही बनाता है-
“उत्तर-प्रदेश वह सूबा है जहाँ बंगाल की पुरवैया भी आती है और पश्चिम की पछुआ भी. पुरवैया तो तीन चार महीने चलती है, लेकिन जाड़ों में अधरों पर पपड़ियाँ छोड़ जाती है और गरमियों में लू चलकर झुलसा कर रख देती है. बंगाल की पुरवैया शरतचन्द्र और रवींद्र नाथ को लाती है और पछुआ दयानंद सरस्वती को. और कुल मिलाकर आठ महीने पछुआ का ही राज रहता है—रूखा या तप से संयमित. उत्तर-प्रदेश की या साधारणतः हिन्दी भाषा की प्रकृति कुल मिलाकर संयम की अधिक है, वेग के साध वंधन को तोड़कर बहा ले जाने की कम”
(लघुमानव के बहाने हिन्दी कविता पर एक बहस : विजयदेव नारायण साही : पृष्ठ 98)
कहीं-कहीं पर साही की भाषा में गहरी रचनात्मकता, खोजपूर्ण दृष्टि और उसका बेधक चौकन्नापन काफी प्रभावित करता है. ऐसी आलोचना में साही का दार्शनिक अंदाज भी कम प्रभावोत्पादक नहीं-
“ठोस मानवीय स्थिति, वैचारिक आग्रह में घुलकर अप्रस्तुत नहीं हो जाती है जैसा अन्योक्ति में होता है, बल्कि वैचारिक मुहावरा ठोस परिस्थितियों में ही घुल जाता है और ऊपर से सरस दिखने वाली घटनाएँ लहर पर लहर फैलती हुई चिंतनशीलता में डूबी हुई दिखती है. अपने सम्पूर्ण प्रसार में चिंतन शीलता पूरी कथा में एक तरल विषाद दृष्टि का सृजन करती है जिसमें मानवीय व्यापार के प्रति पीड़ा है, लेकिन स्पष्ट नैतिक विवेक भी है यही वह सुगंध है जो फूल के मरने के बाद भी नहीं मरती” और यही कालिदासीय लय है.”
(विजयदेव नारायण साही: मोनोग्राफ़ : सत्यप्रकाश मिश्र पृष्ठ 49)
कहना न होगा कि साही की आलोचनात्मक भाषा सघन, सांद्र और मर्म भेदी है जिसे पकड़ पाने के लिए गहरे संयम और पाठकीय विवेक की जरूरत होती है.
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साही की आलोचना के सिलसिले में आखिरी बात यह कहनी है कि उनके लिए आलोचना कर्म दरअसल जीवन और समाज की खोज है. जिसमें गाँधीवाद, साम्यवाद, समाजवाद, अस्तित्ववाद जैसी अनेक विचार-सरणियों का अवगाहन और मुठभेड़ दोनों है. वे सबसे ज्यादा जिरह और मुठभेड़ मार्क्सवादियों से करते हैं जो मार्क्सवादी पार्टी के उपनिवेश के रूप में साहित्य का इस्तेमाल करते हैं ऐसे मार्क्सवादी विचारकों की तंगनज़री की वे तर्क साथ निर्मम आलोचना करते हैं और चुनौती देते हैं. दशकों पूर्व ‘मार्क्सवादी समीक्षा और उसकी कम्युनिस्ट परिणति ’जैसे विचारोत्तेजक और ऐतिहासिक निबंध लेखन के जरिए यह स्पष्ट करते हैं कि
“मार्क्सवाद के उत्तराधिकारियों ने धीरे-धीरे इन सोपानों के अंजर-पिंजर ढीले कर दिए और प्रगतिवाद तथा सामाजिक यथार्थ के नाम पर ऊंची उड़ानों को जमीन पर रेंगने के लिए विवश कर दिया”
(पृष्ठ : 14)
जब कि यहाँ उन्होंने मार्क्स के मशहूर कथन को उद्धृत किया है-
“कला का आनंद उठाने के लिए आवश्यक है कि आदमी कलात्मक रूप से सुसंस्कृत हो”
(वही पृष्ठ :20)
गौर किया जाए तो उनकी आलोचना में नए आलोचनात्मक शब्दों की भरमार है. साथ ही उन्होंने आलोचना के नए पारिभाषिक पदावली का इस्तेमाल करके आलोचना के परिसर को समृद्ध किया है. ऐसे पारिभाषिक शब्दावली और आलोचनात्मक प्रत्ययों की संख्या दर्जनों हैं, पर यहाँ कुछ महत्वपूर्ण प्रत्ययों का उल्लेख जरूरी है.
लघुमानव के बरअक्स महामानव, कविता की चोटियाँ, आरोह की प्रज्ज्वलित शिखाएँ, खण्ड दीपकों की टिमटिमाती लौ, विस्तार की समानता, कविता के नए प्रतिमान, लघु, महत मनुष्य, सम्पूर्ण मनुष्य, मनुष्य का अनंत, सहज मनुष्य की परिभाषा, कामन- परसूट, मेटाफिजिक्स छायावाद, अधरों पर पपड़ियाँ, दृश्यमान पार्थक्य, सत्याग्रह युग, कविता के बीच दुर्लघ्य खाई, सहज मानव, साधारण मानव, विवेक संतप्तता, तीसरे दशक की खंडित चेतना, लोकतान्त्रिक समाजवाद, मार्क्सवादी आलोचना की कम्युनिस्ट परिणति, अविराम बौद्धिक जिज्ञासा, अपराजेय संकल्प, अपराजेय विवशता, समय में रहकर समय के पार, नैतिकता में शक्ति के विलयन का काव्य, कल्पना का जलोन्मुख, काव्यानुभूति की मालार्मीय विडंबना, क्रांति के मोह में पड़ी हुई शताब्दी, विप्लवी प्रश्न, प्रतिमानीकरण (कैननाईजेशन), धर्म निरपेक्षता की खोज, समान दूरी वाली धर्म निरपेक्षता, समान निरर्थकता वाली धर्म निरपेक्षता, लोक संस्कृति बनाम उच्च संस्कृति, बैकुंठी प्रेम, विफलता में सफलता, झिलमिलाती यूटोपिया, मठी गाँधीवाद, सरकारी गाँधीवाद, कुजात गाँधीवादी, सीमित कालबद्ध आभासित सहज झलक, समान वर्तमान की खोज, दार्शनिक मुद्रा, बौद्धिकता का जोखिम, विराट नाटकीयता, संसारत्व, भाषा की आंतरिक सार्वभौमिकता, बौद्धिक आंतरिकता, यथार्थ का स्वाद, आंतरिक एकालाप, समान अतीत-सिलवटों वाली भाषा, समसामयिकता, स्थिरीभूत वर्तमान, मानवीय मूल्यवत्ता का अधिष्ठान, भावना के हाथों बुद्धि, बुद्धि के हाथों भावना, रौंदती हुई सत्ता की एक आतंककारी दुनिया, मानवीय स्थिति, व्यापक सत्य, आज के सत्य हाथी के दांत वाली मिनारों का जीवन, राजनीति का जोखम, निस्सीम के वरअक्स सीमित जाल जैसे सैकड़ों नए शब्दों, युग्मों, पारिभाषिक शब्दावलियों की फेहरिश्त उनके आलोचनात्मक लेखन में बिखरी हुई है जिसे जोड़ कर साही आलोचना के नए गवाक्ष खोलते हैं.
जाहिर है आलोचना के ऐसे बीज शब्द लम्बे कालखंड तक जीवित रहेंगे. इस प्रसंग में सत्यप्रकाश मिश्र की यह टिप्पणी उनकी आलोचना दृष्टि को खोलने के लिए शायद सबसे सार्थक टिप्पणी है-
“साही की आलोचना में जोर ‘व्यापक सत्य’ और ‘आज के सत्य’ पर है. वे आलोचना के मुहावरे को पुराने बनाए गए मुहावरे के रूप में नहीं मानते हैं उनके अनुसार उसे हर हाल में गलत बनाम सही, झूठ या अपर्याप्त सच बनाम सच का रूप ग्रहण करना होगा. सत्य तात्कालिकता, मानवीयता और सृजनशीलता, आंतरिकता, चिंतन शीलता, सार्व भौमिकता आदि तत्व साही के लिए संपृक्त घोल की तरह हैं जिन्हें पृथक करके उनकी आलोचना दृष्टि को न केवल समझना कठिन है बल्कि साहित्य मात्र को समझना कठिन है···· साही की आलोचनात्मक तेजस्विता के मूल में वह पद्धति है जिसे ‘खराद पर चढ़ना और चढ़ाना’ कहते हैं. साहित्य में मनुष्य को आविष्कृत परिभाषित करने की खोज से निकले प्रतिमान अर्थवान शब्द की खोज से भिन्न होंगे ही···· साही की आलोचना केवल उद्धरण नहीं है आविष्कार भी है. वह ‘सत्य मर्म’ को खोलने के लिए कुछ रूढ विश्वासों और जड़ कर्मकांडों पर चोट भी करती है जिससे भीतर विद्यमान मणि का प्रकाश पाठक को अपनी ओर आकर्षित कर सके. आलोचक के रूप में साही के लिए साहित्य मनुष्य के माध्यम से समाज को समझने का एक जरिया भी है और इसीलिए मनुष्य का समग्र कृतित्व साहित्य को समझने का माध्यम है”
(विजयदेव नारायण साही : सत्यप्रकाश मिश्र पृष्ठ 50)
साही की आलोचना दृष्टि के मूल्यांकन का समापन यहाँ उन्हीं के एक सार्थक उद्धरण से करना चाहूँगा जो साबित करता है कि साही हिन्दी के उन विरले आलोचको में एक हैं जिन्होंने विचारक इग्नेजियो, सिलोन के हवाले से कहा है कि “ सिद्धांतों के बल पर हम संप्रदाय स्थापित कर सकते हैं परंतु मूल्यों के आधार पर हम संस्कृति का निर्माण कर सकते हैं”. कहना न होगा कि उन्होंने अपनी आलोचना दृष्टि की समृद्ध बहुलता के चलते हिन्दी में आजादी के बाद एक अलहदा आलोचना की संस्कृति का निर्माण किया है जिसे आने वाली पीढ़ियाँ मुश्किल से भुला पाएँगी. यहाँ देखिए उनका आलोचना के बारे में यह बहुमूल्य विचार-
“आलोचना के लिए चाहे वह मूल्यांकन हो या पुनर्मूल्यांकन, सीधे-सुथरे गिनाए जाने लायक प्रतिमान काम के नहीं होते. सबसे अधिक आकर्षक आलोचना तो वही होती है जो एक साथ बहुत से पहलुओं को उजागर करती चलती है और पाठक को मूल कृति या कृतियों के बारे में एक विशिष्ट उन्मुख अवस्था में छोड़ देती है. अच्छी आलोचना इस उन्मुख अवस्था को धारदार विशिष्टता प्रदान कर देती है जो कभी भी प्रतिमान जैसी लग सकती है लेकिन वह विशिष्टता समूचे आलोचनातमक प्रबंध में दीप्त रहती है. बिना भ्रांति का खतरा उठाए उसे सूत्रवत संक्षिप्त कर देना संभव नहीं होता.”
(विजयदेव नारायण साही के विचार :वही पृष्ठ 50)
जाहिर है साही के लिए आलोचना अपने समय में मूल्यों की खोज थी जो साहित्य के जरिए समाज में मनुष्यता के पक्ष उठाया हुआ हलफ़नामा है. अन्याय के खिलाफ खतरों से खेलते हुए. अपनी बौद्धिकता को जोखिम में डालते हुए. साही जी के आलोचनात्मक विवेक का स्वप्न भी तो यही था.
अरविंद त्रिपाठी अब तक आलोचना और संपादन की दो दर्जन कृतियाँ प्रकाशित. प्रमुख प्रकाशित पुस्तकें हैं- शताब्दी, मनुष्य और नियति, हमारे समय की कविता, आलोचना की साखी, कवियों की पृथ्वी, श्रीकांत वर्मा (विनिबंध), देवीशंकर अवस्थी (विनिबंध) आदि. श्रीकांत वर्मा रचनावली (आठ खंडों में) श्रीकांत वर्मा संचयन (स०) के अलावा कई महत्वपूर्ण कवियों की प्रतिनिधि कविताओं के संकलन तथा बहुचर्चित आलोचना के सौ बरस (तीन खंडों में) का संपादन किया है. हिंदी अकादमी दिल्ली का कविता पुरस्कार, कृति सम्मान, मध्यप्रदेश शासन का सर्वोच्च आलोचना सम्मान, आचार्य रामचंद्र शुक्ल पुरस्कार, देवीशंकर अवस्थी स्मृति सम्मान, उर्वरक मंत्रालय भारत सरकार का इफ्को हिंदी सेवी सम्मान, भगवत रावत स्मृति सम्मान जैसे अनेक सम्मानों से अलंकृत. प्रसार भारती, आकाशवाणी सेवा में केंद्र निदेशक के रूप में लंबी सेवा के बाद त्यागपत्र देकर दीनदयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्यालय, गोरखपुर के हिंदी विभाग में प्रोफेसर और विभाग में स्थापित प्रेमचंद पीठ के अध्यक्ष रहे. arvindkumartripathi1234@gmail.com |
साही जी की आलोचनात्मक दृष्टि पर अरविन्द का यह प्रमाणिक आलेख है. अच्छा हो इसी बहाने साही के कवि रूप की भी चर्चा हो.
सारगर्भित आलेख, विजयदेव नारायण साही जैसे आलोचक की अंतर्दृष्टि तथा रचना कर्म की सूक्ष्म बुनावट को समझकर सुधि पाठकों को मार्ग दिखाने वाले तत्वों को एक स्थान पर रखने का भगीरथ प्रयास इसके माध्यम से संपन्न हुआ l बधाई sir
अरविन्द त्रिपाठी ने साही जी के आलोचक व्यक्तित्व का बहुत गहरा विश्लेषण किया है। साही की असमाप्त बहसों का हवाला देते हुए उनकी मूल्य दृष्टि पर भी प्रकाश डाला है। साहु मार्क्सवाद के भी गहरे विवेक संपन्न अध्येता थे, इसलिए उन्होंने उसकी कम्युनिस्ट परिणति के अंतर्विरोधों और उसके कुपरिणामोंको भी हिंदी समाज के सामने रखा।
अरविन्द का यह आलेख साही जी के मूल्यांकन की दिशा में किया जाने वाला एक गंभीर प्रयास है। अरविन्द त्रिपाठी को एतदर्थ हार्दिक बधाई और शुभकामनाएँ।
बेहतरीन आलेख है यह। साही जी बहुमुखी प्रतिभा के धनी और महान मानव थे। वे मेरे शिक्षक और मेरे हास्टल के वार्डन भी रहे, उनके सानिध्य में इतना समय रहने के बाद भी मेरा दुर्भाग्य यह रहा कि उनका साहित्य तब पढा जब वे इस दुनिया में नहीं थे। अरविंद त्रिपाठी जी को बहुत बधाई।
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