कश्मीरविनय कुमार की कविताएँ |
1.
इब्तिदा
जहाँ मौसम में उठापटक कम
वहाँ शहर बसाए जा सकते हैं
मगर पुराने पहाड़ नहीं
न ही वे पेड़ जिनके बीज घर छोड़ते ही मर जाते हैं
न रोपी जा सकतीं वे झीलें
जिनके जन्म की कथा सिर्फ़ पृथ्वी को याद है
श्रीनगर जाना है
जहाज़ के उड़ने में देर है
वहाँ का मौसम ठीक नहीं
मगर उसे ठीक नहीं किया जा सकता
बदला तो ख़ैर जा ही नहीं सकता
बस पढ़ा जा सकता है
ऐसा कोई दफ़्तर नहीं
जो मौसम पर हुकूमत कर सके
अब हवा में हूँ और श्रीनगर जा रहा हूँ
कहा गया है-
मौसम ठीक तो नहीं मगर विमान उतारे जा सकते हैं!
2.
डल झील पर बारिश
यह किसी पुराने प्रेम का नया अध्याय है
अंतराल की आग से विह्वल एक तन्मय राग
जिसके बीच कई सूर्यास्त होने हैं
अभी इस वक़्त बारिश होकर थम गयी है, झील थिर है
और पर्वत के तकिए पर आकाश का सिर है
दोनों की साँसें भीगकर भारी और मद्धिम
हृदय की धड़कनें बहुत धीर
ऐसी मेघमय पृथ्वी और ऐसा पार्थिव आकाश
पहली बार देख रहा, जबकि यह रास
मुरली के आविष्कार के पहले से जारी है
ब्रह्मांड का यह कमरा जिसका नाम कश्मीर है
वहाँ कितनी शिद्दत से महसूस हो रहा कि
अंतरंग और एकात्म जैसे शब्द प्रेम के बारे में
कितना कम कह पाते पाते हैं !
3.
फुनगी वाला फूल
माटी से उठकर तकें माटी के दो नैन
फुनगी वाले फूल के तिरछे-तिरछे सैन
तिरछे तिरछे सैन मेघ झुक-झुक झाँके है –
कौन इसे गिरिवर से भी ऊँचा आँके है
कह कुमार कविराय कैमरा जो न करा दे
लेंस बदलकर खूँटे को मीनार बना दे
4.
शालीमार में कमांडो
कमांडो की वर्दी में था तो ज़रूर
मगर कमांडो क़तई नहीं था इस वक़्त
सितम्बर की धूप और छतरीनुमा छाँटे गए पेड़ की छाँव से उठा था कान से फ़ोन सटाए, कह रहा था- बड़ी खपसूरत जगह है जी
बैगन साग फुलगोभी जैसन फूल के कियारी है
साला, फूल भी एक से एक
कौची के ? का जाने कौची के
मगर ए जी बहुत खपसूरत है
आउ सुनो नऽ, जैसे माँग टीकती हो नऽ
वैसहीं नीचे से ऊपर तक सिरमिट के करहा में पानी है
हट बेक़ूफ, पनिया नीचे से ऊपर न जी
ऊपरे से नीचे आता है, पहाड़ी इलाक़ा है नऽ
आउ एक बात बतावें ……….
एक से एक खपसूरत लड़की आउ औरत है हियाँ
बाप रे बाप, एतना गोर आउ एतना चिक्कन
कि देखो तऽ नजरे पिछुल जाए
अइसन तऽ जिनगी में कहियो न देखे ..
भीडिओ देखावें का ? ….
और तभी, फ़ोन कट जाता है और जवान
हँसते हुए जेब में रख आगे बढ़ जाता है
और फिर जा लेटता है छतरीनुमा छाँटे गए पेड़ की छाँव में
गोया शब ए वस्ल से निकल
दालान के ओसारे में बिछी खाट पर जा लेटा हो
मुझे वह क़िस्सा याद आया जब जंग के बीच
तोप के मुँह में घुसकर सोया था नेपोलियन!
5.
ख़्वाब
एक दिन ख़्वाब में देखा
कि निशात बाग़ के परकोटे से बादशाह ने लगायी है छलाँग और डल के पानी में तिर चला है, मगर
शाही पोशाक की वजह से तैरना मुश्किल
गहनों और जवाहरात का वज़न भी आफ़त
लेकिन बादशाह तो बादशाह
हार कैसे मान लेता भिड़ चला पानी से
और पानी वक़्त की तरह गहरा जिसमें तवील तारीख़ भी तिनका बराबर
हाथ और पाँव की हरकतें मुतमइन तो कर रही थीं
कि शाही पोशाक के भीतर एक मज़बूत लड़ाका है
मगर मगर नहीं था वह कि यहाँ भी राज कर लेता
बेचारा जल्द ही हाँफ चला और तभी एक जनाना चीख़ उठी
किनारे पर ख़ौफ़ के पानी में खड़ी थी
मुल्क और हुस्न की मलेका नूरजहां
जान ए जहांगीर!
पुकारा बादशाह ने और मुड़ा उसकी सिम्त
मगर भीगे हुए रुतबे के भार से हार चला
हौलनाक मंज़र देख मैं भी घबराया – काश! मैं भिश्ती होता
और तभी देखता हूँ कि
आशिक़ जहांगीर ने अपना भारी सिरपेंच उतार फेंका है
और हौले-हौले तैरते हुए भीग चुके शाही लिबास से
निजात की कोशिश भी जारी है
आख़िरी सीन ज़रा प्राइवेट सा है
बस इतना कह सकता हूँ कि हँसती हुए मलेका
बादशाह का हाथ पकड़ ऊपर खींच रही थी
और हाँफता और ठंड से काँपता बादशाह
पानी के पैराहन में पानी-पानी था !
6.
फूल के बीज
पोशाक बेचनेवालों के बदन पर पोशाक
अखरोट बेचनेवालों के हाथों में उन्हें तोड़ सकने भर ताक़त
केसर बेचनेवालों के होठों पर केसरिया मुस्कान
और शिलजीत बेचनेवालों की आवाज़ में सेक्स अपील
मगर वे छोरे जो फूलों के बीज बेच रहे थे उनके गाल
जा ब जा गिरे फूलों की तरह सूखे थे
और बमुश्किल दिला पाते थे भरोसा
कि एक दिन बाग़ ए में निशात की तरह ये भी खिलेंगे
और ख़रीदने वाली की महबूबा ख़ुश हो जाएगी
बाक़ियों की तो नहीं कह सकता मगर मुझे
सूखे पत्तों की तरह इधर-उधर उड़ते वे छोकरे बड़े प्यारे लगे
उनके मैले हाथों में मुझे अपने पुरखों की भाग्य रेखाएँ दिखीं
उनकी कोशिश और शिकस्त और फिर एक कोशिश
और मैं उनके क़रीब गया और बोला –
भाई, अगली बहार के थोड़े से बीज मुझे भी दे दो
कि मेरी भी एक महबूबा है खिलेंगे तो ख़ुश हो जाएगी
मेरी बात सुन सारे छोकरे हँस पड़े और उनकी आँखें
पहली बार शिकार पर निकले भौंरों की तरह गुनगुना उठीं !
7.
अधबुना स्वेटर
दो पुहुप पंक्तियों के बीच रेस लगाते दो प्यारे बच्चे
जैसे गझिन गुल्म के पड़ोस में स्वेटर बुनती स्त्री ने
फूलों से ही बुना है इन्हें
तनिक दूर चटाई भर छाँव में लेटा सुदर्शन पुरुष
यह दृश्य देख रहा और वैसी ही लचकदार एक पंक्ति
उसके परित: भी खेल रही जिसे वह प्रेरित करता सा
कि जाओ उधर खेलो
अब उधर पुहुप पंक्तियों की त्रिवेणी बन गयी है
और इधर एक बनता हुआ संगम
बीच में अधबुना स्वेटर रखा है
मुझे अब आगे चलना चाहिए !
8.
पुराना कश्मीर
बातचीत की चटाई बिछा दो तो सारे मुसाफ़िर
अपने-अपने ज़हन की गठरी खोल देते हैं
कम ओ वेश सबकी गठरी में
गरमागरम लच्छे पराठे सा महकता आज दिखता है –
ज़िंदगी और लुत्फ़ से भरपूर
और छेने-सा सफ़ेद चैन
जो नींद के फ्रिज में ख़यालों के दूध पर मलाई सा जमता है
और ज़रा सा इत्मीनान, गोया पान की गिलौरी वरक़-दार
अलग-अलग गठरियों में अलग-अलग चीजें भी दिखती हैं
मसलन, बच्चों के होठों के रंग की टॉफ़ियाँ
सब्ज और कासनी और नीले और लाल दुपट्टों के बिल
अलग-अलग बाइक्स की प्राइस लिस्ट, मकानों के नक़्शे
और कल को जाती बसों की टिकटें
मगर, हर गठरी में थोड़ी सी बर्फ़ और
बर्फ़ सी जमी एक चुप्पी और इतनी गुंजाइश ज़रूर
कि आ बसे उनकी पसंद का पुराना कश्मीर !
9.
सैलानी
मैं उधर नहीं गया जिधर बंदूक़ें बोलती हैं
बमों के भीतर धमाके सुगबुगाते हैं
फूल जैसे हाथों को पत्थर पुकारते हैं
कि आओ और हमें चलाओ
हमें कुछ गर्म चाहिए गाढ़ा और लाल
मैं उधर नहीं गया जिधर मौत बेवजह घूमती है
सैलानी जो ठहरा
मौत और जंग कोई देखने की चीज़ है
बमों के अंदेशे के बीच कोई कैसे मना सकता है हनीमून
चलती गोलियों के बीच प्रेम तो कुत्ते भी नहीं कर पाते
नहीं गया जैसे नहीं गया था देखने
कुरुक्षेत्र और पानीपत और हल्दीघाटी की लड़ाइयाँ
मैं तो पलासी और बक्सर भी नहीं गया था
नेफ़ा लद्दाख और कारगिल भी नहीं
युद्ध के मैदानों को देखने लायक़ होने में वक़्त लगता है
माटी में मिले हाड़-मांस को माटी में मिलना
और दूबों के कई जनमों से गुज़रना पड़ता है
कहानियों में बहते ख़ून को ठीक से पानी होना होता है
तब कहीं जाकर युद्ध के मैदान
अमर चित्रकथा के पन्ने की तरह
पावन और मनभावन हो पाते हैं
इतिहास के पन्नों पर कितना रोमांचक
नहीं ..नहीं .. रोचक लगता है वह दृश्य
जब हज़ारों किलोमीटर जीतने वाले सीज़र के बदन पर
मुट्ठी भर सांसद ख़ंजर की नोक से अपनी राय लिखते हैं
और वही दृश्य जब शेक्सपीयर की क़लम से
काग़ज़ के पन्ने पर उतरता है तो क्या ख़ूब नाट्य
और क्या ख़ूब मुहावरा – ब्रूटस यू टू
मैं ये सब जानता हूँ शायद इसीलिए उधर नहीं गया
जिधर जाने के लिए पढ़ा लिखा होना कोई ज़रूरी नहीं
वैसे मैंने डल झील के पानी से पूछा था –
चलोगे उधर उस तरफ़
उसने कहा था- मैं आजकल सेवारों की गिरफ़्त में हूँ
ठीक यही बात पूछी थी चश्मा ए शाही से
और उसने साफ़ मना कर दिया था
कि मैं तो अपने पड़ोसी लाट साहब के यहाँ भी नहीं जाता
सो जनाब, मैं उधर नहीं गया
जिधर *शिगाफ का फ़लसफ़ा और ज़िंदा ज़ख़्म रहते हैं
मैंने वह देस नहीं देखा जहाँ कोई *पोस्ट ऑफ़िस नहीं !
संदर्भ :
शिगाफ़, मनीषा कुलश्रेष्ठ का कश्मीर केंद्रित प्रसिद्ध उपन्यास
A Country without Post office: Shahid Ali
10.
श्रीनगर हवाई अड्डे से से एक ख़त
(डॉ. अब्दुल माजिद के नाम)
भाई माजिद, भीगकर लौटा हूँ
कि भीगते शहर से भीगे बिना कैसे लौट सकता था
तुम्हारी मेज़बान आँखें और फिरन सी देख भाल
कल रात अच्छी नींद आई, मगर बारिश की आवाज़
नींद के भीतर किसी तानपूरे सी बजती रही थी
तुमसे विदा माँग अपने पुराने इश्क़ की तरफ़ गया था
बयालीस सालों बाद और वह भी सिर्फ़ तीन घंटों के लिए
इतना कम वक़्त लिए कोई कमबख़्त ही जा सकता है वहाँ
जहाँ तारीख़ ज़मीन
इमरोज शिगुफ़्ता और
मुस्तकबिल मेहमान
वहाँ का हाल तुम्हें क्या बताना, बस ये कह रहा
कि पहाड़ तो पहले की तरह ही पहरे पे खड़े लगे
मगर मेरे दोनों महबूब गुलिस्तान ख़ुशलिबास और मुश्ताक़
मुझे पल भर को भरम सा हुआ था –
ये इंतज़ामात कहीं मेरे लिए तो नहीं
मगर अगले ही पल
अपने में मगन आबशार ने सब समझा दिया था
कितने मुसाफ़िर हैं हम कितने बे-सबात कितने बे-वफ़ा
हम से तो अच्छे ये मौसम
जिनके बारे में की गयी कोई पेश-गोई सरासर झूठ नहीं
अब जा रहा हूँ जहाज़ की तरफ़
मगर अपनी थोड़ी सी बीनाई वहीं छोड़ आया हूँ
शालीमार या निशात कहाँ- याद नहीं
कि इश्क़ में किसे याद रहता कहाँ क्या छूटा
अब संगीत ख़त्म अब शोर, आगे और भी बहुत
कई-कई बाज़ार और बहुत सारे उलझे हुए धागे
आज की रात दिल्ली में गुज़रेगी
कैसे – कह नहीं सकता
कि रात और दिल्ली दोनों के बारे में
कोई पेश-गोई मुमकिन नहीं !
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डॉ. विनय कुमार (पटना में मनोचिकित्सक)कविता संग्रह : क़र्ज़ ए तहज़ीब एक दुनिया है, आम्रपाली और अन्य कविताएँ, मॉल में कबूतर और यक्षिणी. मनोचिकित्सा से सम्बंधित दो गद्य पुस्तकें : मनोचिकित्सक के नोट्स तथा मनोचिकित्सा संवाद से प्रकाशित इसके अतिरिक्त अंग्रेज़ी में मनोचिकित्सा की पाँच किताबों का सम्पादन. वर्ष २०१५ में एक मनोचिकित्सक के नोट्स के लिए अयोध्या प्रसाद खत्री स्मृति सम्मान वर्ष 2007 में मनोचिकित्सा सेवा के लिए में इंडियन मेडिकल एसोसिएशन का डा. रामचन्द्र एन. मूर्ति सम्मान इंडियन साइकिएट्रिक सोसाइटी के राष्ट्रीय एक्जक्यूटिव काउंसिल में १५ वर्षों से. पूर्व महासचिव इंडियन साइकिएट्रिक सोसाइटी.dr.vinaykr@gmail.com |
सुबह सुबह इतनी सुंदर कविताएं पढ़कर मन सूर्योदय सा खिल उठा। कुछ फूल भीतर खिले और खुशबू से महक उठे। विनय कुमार को पहली बार ’समालोचन’ के माध्यम से पढ़ा। कश्मीर पर उनकी सारी कविताएं समकालीन हिंदी कविता की किसी उपलब्धि से कम नहीं है। कश्मीर पर पहली बार इतनी सुंदर कविताएं पढ़ने को मिली । बधाई ढेर सारी बधाई विनय कुमार और ’समालोचन’ को ।
कश्मीर पर फारसी का एक शेर याद आ गया–गर फिरदौस बर रूए जमी अस्त/ हमी अस्तो हमी अस्तो हमीं अस्त।–धरती पर कहीं स्वर्ग है तो यही है यही है। पर एक दौर में कश्मीर को नरक बनते भी हम सबने देखा। ये कविताएँ भी कहीं-कहीं उस खौफ़ से बावस्ता हैं । पहली कविता में कश्मीर एक अद्भुत बिम्ब में रूपायित होकर कई अर्थों में व्यंजित है। कश्मीर पर बहुत दिनों के बाद कविताएँ पढ़ने को मिली, विनय जी एवं समालोचन को बधाई !
डाक्टर विनय कुमार सक्रिय संवेदनशीलता और गतिशील सौंदर्यबोध के विरल कवि हैं कश्मीर संबंधी उनकी प्रस्तुत कविताएँ राजनीतिक दुराग्रहों के कारण धूमिल कश्मीर के वास्तविक सौंदर्य और सहज मानवीय विवेक को उद्घाटित करती हैं. प्रायः दृष्टि सै छूट गयें दृश्यों के वे विरल पारखी हैं उनकी इस परख में मानवीय चेतना के परिष्कार और प्राकृतिक सौंदर्य बोध के साथ एक विलक्षण अंत:क्रिया घटित होती है जिसका सीधा प्रभाव अवचेतन तक पहुँच कर कुछ बदलने की कोशिश भी करता है. ये कविताएँ इसका भी प्रमाण हैं.
अरुण देव को धन्यवाद और विनय जी को इतनी बेहतरीन कविताओं के लिए बधाई.
बहुत सरस कविताएँ।
ऐसी मेघमय पृथ्वी और ऐसा पार्थिव आकाश
पहली बार देख रहा, जबकि यह रास
मुरली के आविष्कार के पहले से जारी है
आनन्दम !
विनयजी प्रिय कवि। अच्छी कविता केलिए बधाई।
वाह! बादलों की छायाओं की तरह कई शेड्स उड़ते हुए आए और आगे निकल गए। होनी और अनहोनी की अनेक रंगीनियाँ…
इन कविताओं में पर्यटकीय अनुभवों को लांघकर जीवन की वास्तविक इमेजेस के भीतर कथ्य को आविष्कृत
करने का हुनर दीखता है।
इसमें इतिहास के साथ संगत है वर्तमान के साथ संवाद।भाषा की रंगत
जुदा है और मानें तो कथ्य के साथ मज़े-मज़े का खिलंदड़ापन भीतरी सतह पर है।इतने कम समय में परिवेश की पकड़ भी अलग से दिखाई देती है।
डॉ साहब की समालोचन पर यहाँ प्रस्तुत कविताएँ कश्मीर की हलचलों को एक एक रागात्मक संवेदना में डूब कर लिखी गई प्रतीत होती है.
भाषा और शिल्प के नित नवीन प्रयोगों के माध्यम से विनय कुमार यह प्रयोग अलहदा लगा.बधाई समालोचन और डॉ साहब.