• मुखपृष्ठ
  • समालोचन
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • वैधानिक
  • संपर्क और सहयोग
No Result
View All Result
समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • बातचीत
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • बातचीत
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
No Result
View All Result
समालोचन

Home » सूर्यास्त सूक्त: विनय कुमार

सूर्यास्त सूक्त: विनय कुमार

विनय कुमार की सूर्योदय श्रृंखला की कुछ कविताएँ आपने समालोचन पर नवम्बर २०२० में पढ़ी थीं,  आज सूर्यास्त श्रृंखला की कुछ कविताएँ प्रस्तुत हैं.   कवि और कलाकार ही हैं  जो उगते सूरज के साथ-साथ डूबते सूरज की भी अभ्यर्थना करते हैं. सूर्यास्त की अनेकानेक छबियों  के बीच सूर्य से सम्बन्धित  मिथ-कथाएं और  कवि के अपने जीवन के धुंधले होते जाते अनके प्रसंग यहाँ गुथे हुए मिलेंगे.  आज प्रसिद्ध मनोचिकित्सक और अनूठे कवि विनय कुमार का जन्म दिन भी है. उन्हें बधाई और आप सबके लिए उनकी ये कविताएँ. 

by arun dev
June 9, 2021
in कविता, साहित्य
A A
सूर्यास्त सूक्त: विनय कुमार

Painting by Wendy-Puerto

फेसबुक पर शेयर करेंट्वीटर पर शेयर करेंव्हाट्सएप्प पर भेजें


विनय कुमार की सूर्योदय श्रृंखला की कुछ कविताएँ आपने समालोचन पर नवम्बर २०२० में पढ़ी थीं,  आज सूर्यास्त श्रृंखला की कुछ कविताएँ प्रस्तुत हैं. 
 

कवि और कलाकार ही हैं  जो उगते सूरज के साथ-साथ डूबते सूरज की भी अभ्यर्थना करते हैं. सूर्यास्त की अनेकानेक छबियों  के बीच सूर्य से सम्बन्धित  मिथ-कथाएं और  कवि के अपने जीवन के धुंधले होते जाते अनके प्रसंग यहाँ गुथे हुए मिलेंगे. 

आज प्रसिद्ध मनोचिकित्सक और अनूठे कवि विनय कुमार का जन्म दिन भी है. उन्हें बधाई और आप सबके लिए उनकी ये कविताएँ. 

 

कविताएँ
सूर्यास्त सूक्त 
विनय कुमार

 

 

१.

 

मेरी जन्मभूमि के पश्चिमी सिवान पर

बहुत कम ताड़ बचे हैं अब

फिर भी ताड़ों के पीछे आपको फिसलते देखना

मुझे एक कौतुक लगता है

शायद इसलिए कि इस दृश्य की बुवाई तब हुई थी

जब मेरा मन एक बहुत छोटी क्यारी भर था

अपने भीतर देस और दुनिया के कई बीघे सम्हालता

आज फिर आपको देख रहा

और एक विराट विस्मय आँखों की राह डूब रहा मुझमें

 

आज भी ताड़ के पत्तों की चमक वही

तब मेरे पास शब्द नहीं थे

मगर आज उस चमक को

चामीकर कहने का मन हो आया है

 

यह ताड़ के पत्तों की जीवित कौंध की

तौहीन तो नहीं होगी नऽ

 

मेरे जीवन में ताड़ के पेड़ों और शाम का सम्बन्ध

एक नितांत निजी काव्य है

इनके सूखे पत्तों की खड़-खड़ मैंने गर्भ में सुनी है

 

हाल ही में पचासी पार पिता ने बताया था

कि पुरखों के बनाए घर का पूर्वी अलंग

हथिया के झपास में धँस गया था

और दशहरे के बाद गौना कराना था तुम्हारी माँ का

चौदह-पंद्रह की सिन थी मेरी

बाबा तुम्हारे थे नहीं

जो भी करना था मुझे ही

सो छोटे-बड़े ताड़ के पत्ते काट लाया डम्हको समेत

और टेढ़े-मेढ़े खम्भों के बीच उन्हें ही गाड़-बाँध

उठा ली थी कुल-मर्यादा की दीवार

 

मैंने पूछा था – बाबू जी, शाम के समय ये खगड़े तो बिलकुल सोने की तरह चमकते होंगे न ?

प्रश्न सुन पिता मुसकुरा उठे थे

मुझे लगा इस मुस्कान के पीछे

आपके रंग में चामीकर हुए खगड़े हैं

और उनके पीछे रत्ती भर सोना पहने मुसकुराती हुई माँ !

 

 

२.

 

जाइए आप, ले जाइए अपना ताप

अरसे बाद गाँव के बाहर फिंकी झोपड़ी में लौटा है हृदय

लौटे हैं कई तरह के अनाज

एक नहीं दो ढिबरियाँ जलने को तैयार हैं

हुक्के की गुड़गुड़ाहट थमने का नाम नहीं ले रही

चूल्हे को घेरे बैठे बच्चों की फटी निकर

नयी क़मीज़ों से ढकी हैं

तवा चिकना है

गुड़ की मिठास ने आटे की उदासी हर ली है

बीते दिनों की अटारी पर बैठे अमीर खुसरो

अपने एक प्रिय गीत को एक टक देख रहे हैं

जाइए न आप, यह इनके उदय की बेला है,

यह आपकी तरह रोज़ नहीं आती-जाती

सभ्यता का ध्रुवांत है यह

सुख महीनों बाद उगता है।

 

 

३.

 

(नरेश मेहता के लिए )

किरणें लौटती हैं

जैसे लौटती हैं धेनुएँ

साँवले होते ग्राम के धूसर गोशालों में

 

मुझे भ्रम होता रहा है

कि यह गायों और बैलों के आने की धूल है

या आपके जाने की

 

अब जब कि बैल ट्रैक्टर के पहियों के नीचे आ गए हैं

सिर्फ़ गाएँ लौटती हैं

वो भी इक्का-दुक्का

और आपकी किरणें भी दिन के दफ़्तर से

थकी लड़कियों और औरतों की तरह लौटती हैं

कहीं कोई घमासान नहीं

आप भी तो मोबाइल के ऊँचे टॉवर के पार

फिसल भर जाते हैं!

 

 

४.

 

आप जब उगते हैं तो हमारे शरीर में डूबते है

और हम आप की तरह गर्म

और आपके अश्वों की तरह गतिशील हो जाते हैं

 

मगर जब डूबते है तो हमारे मन में उगते हैं

अँधेरे और ठंड से निपटने के साहस की तरह

विचारों के कमरे में दिए की अडिग लौ की तरह

चेतना के काले जल में बूड़ी जिज्ञासा के हाथ में

अंडर वॉटर टॉर्च की तरह

और गहरी नींद के पाताल में किसी मणि की तरह

कि दिमाग़ की नसों में नाचती उलझनें

सपने की प्रयोगशाला में सुलझ सकें

 

सच कहता हूँ दिवाकर आप रोज़ शाम हमारे भीतर उगते है

कभी-कभी तो आँखों से छिटकते भी हैं

और सामने खिले मुख को चन्द्रमा में बदल देते हैं !

 

 

Painting by albert-bierstadt

 

५.

 

कई बार लगता है मुझे

कि प्रकृति आपको ठेल देती है उधर उस तरफ़

जैसे उम्र बूढ़ों को दालान के कोनों में

उन अभिसार-पथों से दूर

जो प्रेम-मंदिर के गर्भ-गृह तक जाते हैं

प्रेम का जादू तो तभी परवान चढ़ता है न

जब प्रकाश की चाबी अपने हाथ में हो

आँखें ही देखें आँखों को और देखना दिखाई न दे

वैसे आपसे क्या छिपा

गन्धर्व आवेगों से भरी धरती पर

कब क्या नहीं हुआ

और क्या-क्या नहीं दिखाया आपने उन्हें भी

जिन्हें देखकर नहीं देखने की तमीज़ नहीं

 

इसीलिए …..

इसीलिए लगता है मुझे कि

प्रकृति आपको ठेल देती है उधर उस तरफ़

जिधर मुसकुराते हुए धोए गए कपड़े और बाल

सूखने के लिए उत्सुक होंगे !

 

 

६.

 

जानता हूँ –

हमी आपके देश से दूर जाते है

हमी करते हैं आपकी तरफ़ पीठ

आप थिर हैं, घूमती है मेरे ही पैरों तले की ज़मीन

 

मगर मान कैसे लूँ

कैसे झुठला दूँ आपके भास्वर उदय को

कैसे कर दूँ अनदेखा कि रोज़ शाम

बिलकुल डूबने की तरह डूबते हैं आप

 

अपने उदय से अपराह्न तक

सत्य के पीछे भागते-भागते समझ गया हूँ अब

कि कुछ सच जानने भर के लिए ही होते हैं

कि आज भी दस दिशाओं में घूमता हुआ मन

यही मानता है –

यह घूमती हुई पृथ्वी

इतनी थिर ज़रूर है कि उस पर घूमा जा सके

और आप बस इतना ही डूबते हैं

कि अगली भोर आपके उगने के शोर से भर उठे !

 

 

७.

 

जो कहते थे दहाड़कर

कि मेरे साम्राज्य में नहीं डूबते आप

उनके घर में ही रोज़ डूबते थे

दिन में भी चराग़ां करना पड़ता था

कि लालची आँखों को दिखे कोह ए नूर

 

और सर्दियों में कितनी कम देर रुकते थे

कई बार तो दिखते भी नहीं थे हफ़्ता भर

लकड़ियाँ जलाकर गर्म करनी पड़ती थीं उँगलियाँ

कि एक और हमले के लिए हुक्म जारी हो सके

 

फिर भी यह घमंड

आप तो जानते ही हैं श्रीमान मार्तंड

ऐसा ही होता है अगर आत्मा अस्त हो जाए !

 

Painting by albert-bierstadt

 

 

8.

 

सोने की रही होगी रावण की लंका

मगर यह तो अशोक वाटिका की तरह हरी है

क्या ख़ूब साहिल और क्या मज़े की चाय

क्या पागल समुद्र और क्या बाँके से आप

ऐसे झुक आए हैं

मानो हृदय की तरह धड़कते पानी को

बाहों में समेट ही लेंगे आज

 

समुद्र की प्रभुता आज मोहिनी अवतार में है

और आपका पुरुषत्व गर्म लोहे की तरह लाल

वह आपको तृप्त करने को व्यग्र

और आप उसे भाप में बदलने को बेचैन

मगर दोनों अपनी गरिमा की धुरी पर धीर

 

कैसा धीमा रास है यह

कृष्ण देखते तो आपको समुद्र में ढकेल

रात के हृदय में समा जाते

 

लेकिन वे तो हैं नहीं

यहाँ तो आँखें पसारे कोरे मनुष्य हैं हम जैसे

कोई कैमरा थामे कोई चाय कोई बीयर का मग

सब के ऊपर आपकी ललाई बरस रही

 

आह कैसा लाल हो आया है समुद्र

और कैसा लहालोट लास्य

आज जाना, आपकी किरणें गुदगुदी भी लगा सकती हैं

 

लीजिए, गयी महानता पानी में

आप भी डूब चले

आधे से भी कम दिख रहे

जैसे रावण के आराध्य महान प्रेमी शिव

 

पलकें झुक चली हैं

गिर चली है साँवली से काली होती यवनिका

मेरी प्रिया ने थाम लिया है मेरा हाथ

समुद्र हँस रहा है !

 

 

९.

 

आपके डूबने से

पृथ्वी के आकाश को फ़र्क़ पड़ता है

उसे नहीं जो अपने होने में आकाश है

 

किसी के डूब जाने के बाद घर डूबने लगते हैं शहर नहीं

वह तो किसी स्वचालित पठार की तरह

छः ईंच और ऊपर उठ जाता है

फ़सीलों की मरम्मत शुरू हो जाती है

अगरबत्ती और लोबान के धुएँ गाढ़े हो जाते हैं

चीख़ों और कान के बीच मोटी हो जाती है रुई की दीवार

पुकारों के शोर में नर को कुंजर कर लिया जाता है

 

ठीक वैसे ही जैसे आपके डूबते ही

सिटकिनियाँ और ताले तलब किए जाते हैं

छोड़ दिए जाते हैं खुले कुत्ते

और तैनात कर दिया जाता है

कोई अधमरा चौकीदार

जो गाँजे की लहर में डूबता-उतराता खाँसता है –

जागते रहो !

 

 

१०.

 

जब आपकी करोड़ों आँखों से बनी

आँख दिखाती आँख नहीं दिखती

हमें वह दिखता है जो गोपनीय माना जाता

वो आँखें खुल जाती हैं

जो बटन और बेल्ट के भीतर बन्द कर रखी जाती हैं

 

आपका जाना

हमारी उस बुनियादी मौलिकता को आने देता है

जो त्वचा के ऊपर सिर्फ़ धूल और दाग़ पहनती है

 

यह हमारे लिए परीक्षा की घड़ी होती है

जिस से एक उलझन एक द्वंद्व के साथ मिलते हैं हम

पहले हमें ब्रह्मा याद आते हैं अपनी देह के साथ

उनकी वह कथा भी जिसने चतुर्मुख किया था उन्हें

मगर सरस्वती भी याद आती

जिसके सिले वस्त्र पहनकर बड़े हुए हैं हम

सहस्राब्दियाँ पार की हैं

 

यूँ तो ब्रह्मा अधिक व्यापते हैं

अधिक व्यापती है पहली आग मगर तभी

सरस्वती के हाथों सिला पहला वस्त्र याद आ जाता है

वही जिसे गाते और रोते सिला था उसने

हम में से ज़्यादातर लोग उसे पहनने को सिकुड़ जाते हैं

मगर क्षमा कीजिएगा मार्तंड जी,

कभी-कभी ब्राह्म लोलुपता मातृहंता बना देती है

अधीर कर देती है, इतना अधीर कि मालती लता को

पसरने और खिलने का अवसर ही नहीं देती !

 

Painting by Thomas Moran

 

 

११.

 

सदा पूरा दिन बिता कर नहीं डूबते

कई बार असमय डूबते हैं

ठीक वैसे भी जैसे बाल हनुमान के मुँह में डूबे थे आप

 

मगर सबसे विकट होता है वह डूबना

जो भरी दोपहरी में घटित होता है

बैलों को खेत नहीं सूझता

हँसिए को फसल

किसान तो मानो अंधा हो जाता है

अधलिपे आँगन पर फिसल कर गिरती है गृहिणी

बच्चे पुकारते रह जाते हैं

कोई कहीं नहीं पहुँच पाता

सिर्फ़ हवा चलती है तेज बहुत तेज

जैसे विकल पुरवा अपने अंग से लिपटे

जीवित दिगंत को ढूँढती हो

कैसी बेचैनी कैसी रफ़्तार

नींद और स्वप्न और भविष्य

सूखे पत्तों की तरह उड़ते-उधियाते कहीं दूर जा गिरते हैं

घर तक आते बिजली के तार टूट जाते हैं

पोथियाँ के पन्ने पलटते रहते है

मगर अक्षरों को ढूँढती आँखें रेत और रक्त से लथपथ !

 

 

१२.

 

आप हैं तो पृथ्वी है और पृथ्वी है तो जीवन

जीवन है तो कितना कुछ

सूर्य भी कई    एक से एक

कुछ सबके लिए    कुछ बेहद निजी

 

सूर्योदयों से अटा यह जीवन

कैसा प्यारा और कितना जीने लायक़ लगता

मगर सूर्यों का घेरा कई बार ऊब पैदा करता

लेकिन

डूब का अंदेशा मन को प्रार्थना से भर देता

मन पुकारता – एक भी किरण नहीं डूबे

 

बेचारी प्रार्थनाएँ

वही तो हैं जो कभी नहीं डूबतीं

सूर्यास्तों की झड़ी के बीच भी दीप सी जलती रहतीं

एक करुण लौ जिसे छुओ तो उँगलियाँ भीग जाएँ !

सूर्योदय सूक्त : विनय कुमार, यहाँ पढ़े 

 

डॉ. विनय कुमार

पटना में मनोचिकित्सक. कविता संग्रह :   क़र्ज़ ए तहज़ीब एक दुनिया है, आम्रपाली और अन्य कविताएँ,  मॉल में कबूतर  और यक्षिणी. मनोचिकित्सा से सम्बंधित दो गद्य पुस्तकें :  मनोचिकित्सक के नोट्स  तथा मनोचिकित्सा संवाद से  प्रकाशित, इसके अतिरिक्त अंग्रेज़ी में मनोचिकित्सा की पाँच किताबों का सम्पादन.वर्ष २०१५ में एक मनोचिकित्सक के नोट्स के लिए अयोध्या प्रसाद खत्री स्मृति सम्मान. वर्ष 2007 में मनोचिकित्सा सेवा के लिए में इंडियन मेडिकल एसोसिएशन का डा. रामचन्द्र एन. मूर्ति सम्मान. इंडियन साइकिएट्रिक सोसाइटी के राष्ट्रीय एक्जक्यूटिव काउंसिल में १५ वर्षों से. पूर्व महासचिव इंडियन साइकिएट्रिक सोसाइटी. 

dr.vinaykr@gmail.com

Tags: कविताएँविनय कुमार
ShareTweetSend
Previous Post

समलैंगिकता, सेक्सुअलिटी और सिनेमा: आशीष कुमार

Next Post

छायाकार अशोक माहेश्वरी: एक अलक्षित यात्रा का खण्डित वृत्तांत: अशोक अग्रवाल

Related Posts

श्रेयसी : मनीषा कुलश्रेष्ठ
समीक्षा

श्रेयसी : मनीषा कुलश्रेष्ठ

संयोगवश: विनय कुमार
समीक्षा

संयोगवश: विनय कुमार

पानी जैसा देस:  शिव किशोर तिवारी
समीक्षा

पानी जैसा देस: शिव किशोर तिवारी

Leave a Reply Cancel reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

समालोचन

समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

  • Privacy Policy
  • Disclaimer

सर्वाधिकार सुरक्षित © 2010-2023 समालोचन | powered by zwantum

No Result
View All Result
  • समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • आलोचना
    • आलेख
    • अनुवाद
    • समीक्षा
    • आत्म
  • कला
    • पेंटिंग
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • शिल्प
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • संपर्क और सहयोग
  • वैधानिक