विनय-सौरभ कुछ तो वजह है कि बचा हुआ हूँ इस पृथ्वी पर राही डूमरचीर |
हर कवि अपने तरीक़े से लिखता है. जो ऐसा नहीं कर पाता कवि के रूप में उसकी प्रतिष्ठा संदिग्ध होती है. उसके इस तरीक़े में उसका एक व्यक्ति और पृथ्वीवासी होना शामिल होता है. हम यह स्वीकार करते हैं कि व्यक्ति अपनी सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक देशकाल की निर्मिति होता है. मेरे ख़याल से इसमें उसके भूगोल को भी शामिल किया जाना चाहिए. व्यक्ति धरती के जिस हिस्से पर पैदा होता है और उस हिस्से के साथ जैसा उसका सम्बन्ध विकसित होता है, वैसा ही उसका व्यक्तित्व निर्मित होता है. अर्थात् हम जिस तरह के धरती-वासी होंगे वैसी ही हमारी चिंतन-प्रक्रिया भी होगी.
पृथ्वी का बासिन्दा बनना एक प्रक्रिया है, जिसमें पाठक और कवि दोनों शामिल होते हैं. विशेषकर कवि की सार्थकता इस प्रक्रिया पर बहुत ज़्यादा निर्भर करती है. जैसे एक मजदूर, मजदूर होने मात्र की वजह से ही पूँजीवाद के ख़िलाफ़ नहीं होता. वैसे ही सचमुच में पृथ्वी का बासिन्दा होना भी हमारी चेतना के विकसित होने से जुड़ा होता है. इसलिए जिस तरह कवि का अपना तरीक़ा होता है, वैसे ही पाठक भी अपने तईं कविता के साथ रिश्ता कायम करता है.
समर्थ पाठक कविता के मर्म को लोकतांत्रिक विस्तार देता है. वह कवि से असहमत हो सकता है और कविता के पक्ष में खड़ा हो सकता है. इसी वजह से पाठक और कवि के बीच एक द्वंद्वात्मक सम्बन्ध निर्मित होता है. इसलिए कविता से गुज़रते हुए, उसका पाठ करते हुए, पाठक के तौर पर हमें सतर्क रहना पड़ता है. ‘सवाल यह नहीं है कि आप पाठ को कितनी दृढ़ता से पकड़ते हैं, बल्कि यह है कि ऐसा करते समय आप खोज क्या रहे हैं.‘[1] सामाजिक निर्मिति और पृथ्वीवासी होने के नाते हमें यह समझना ज़रूरी है कि हम ढूँढ़ क्या रहे हैं? स्मृतियों का इस खोजने की प्रक्रिया से गहरा सम्बन्ध होता है. स्मृतियाँ हमारे मानस और चाहने को तय करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं.
एक)
विनय सौरभ की कविता के महत्त्व को रेखांकित करते हुए ज़्यादातर लोग उन्हें ‘स्मृतियों का कवि’ घोषित करते हैं. उन्हें स्मृतियों को बुनने वाला, स्मृतियों का चितेरा, स्मृतियों से संवाद करने वाला, झीनी स्मृतियों का कवि…आदि आदि कहा जाता है. सवाल है कि क्या कोई कवि बिना स्मृतियों के हो सकता है ? स्मृतियों से संवाद किए बिना क्या कोई कवि समग्रता से अपनी बात कह सकता है ? यह भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि स्मृतियों का भी निर्माण किया जाता है. हमारी स्मृतियाँ पहले से निर्मित एवं तय की गई हमारी पहचान पर आधारित होती हैं. ये स्मृतियाँ एक पृथ्वीवासी के रूप में हमारा निर्माण करती हैं और हमसे निर्मित भी होती हैं. हम मनुष्य स्मृतियों की उपज भी हैं और स्मृतियों की खाद-पानी भी. हमारी भाषा हमारी स्मृतियों की देन है और भाषा में रचित हमारी कविताएँ भी. टेरी ईगलटन के हवाले से कहें तो,
“कविता अन्य बातों के अलावा हम जो हैं उसी रूप में स्वीकार किये जाने की आदिम भावना की स्मृति-निशान (memory trace )है.“[2]
इस आदिम भावना से सायास दूर जाने के प्रयास और कथित रूप से आधुनिक होने की कोशिश में हम धरती-वासी के रूप में लगातार हारते रहे हैं. मेरे तईं एक मनुष्य के रूप में हमारी यह असफलता है कि हम पहले से तय किए गए पहचान में पूरी ज़िन्दगी काट देते हैं. उन पहचानों से आलोचनात्मक संवाद किए बिना धरतीवासी तो दूर, मनुष्य होना भी मुश्किल है. विनय सौरभ की कविता से गुज़रते हुए यह महसूस होता है कि उनकी कविता उस ‘आदिम भावना’ की शिनाख्त करने वाली, उसे महसूस करने वाली और उसके अभाव से पैदा हुए स्मृतियों से, होड़ लेने वाली कविता है. वह भी बहुत विनम्रता से और ठहर कर.
विनय सौरभ की कविताओं में स्मृतियाँ सिर्फ़ पिता, माँ, बड़े भाई, दीदी, मौसी, गरीब रिश्तेदारों तक सीमित नहीं हैं. न उनके गाँव-समाज से जुड़े डाकिया, जिल्दसाज़, गंगेसर मिस्त्री, मित्र रमेश, दोस्त के बूढ़े और अकेले हो गए पिता तक ही सीमित हैं. उनकी कविताओं में रिश्तों की स्मृतियाँ तो हैं ही, साथ ही वे चीज़ें भी हैं जिन पर शिलालेखों की भांति स्मृतियाँ अंकित हैं. संवेदनाओं को सामान्य व्यवहार की तरह बरतने वाले उसे डीकोड नहीं कर सकते. पिता की कमीज़, माँ की शॉल, दिवंगत भाई की किताबें, खाट, दरवाज़े, कुहनी की छुअन से घिस गई मेज़, देहरी पर टंगा हुआ छाता, ताड़ के पंखें, सब्जियों से भरे खोमचे आदि भी समान रूप से उनकी स्मृतियों के हिस्से हैं. हमारा लगाव और रिश्ता सिर्फ़ मनुष्यों या जीवित प्रजातियों तक सीमित नहीं होता बल्कि हम जिन दीवारों के बीच जीते हैं, जिन दरवाज़ों से गुज़रते हैं, जिस झरोखे से झाँकते हैं, जिस मेज़ पर खाने या पढ़ने के लिए झुकते हैं, उनसे भी हमारा क़रीबी रिश्ता होता है. स्मृतियाँ सिर्फ़ चेहरों या किसी घटना के रूप में नहीं आतीं बल्कि अपने पूरे परिवेश के साथ उपस्थित होती हैं. ये स्मृतियाँ महज नॉस्टैल्जिक नहीं होतीं बल्कि उपभोक्तावादी संस्कृति का प्रत्याख्यान होती हैं.
ऐसी स्मृतियाँ होती तो सभी के पास हैं पर इन स्मृतियों के साथ वही संवाद कर सकता है, जो अपने परिवेश और प्रकृति के प्रति भी संवेदनशील हो. रिश्तों और समाज की स्मृति का महत्त्व भी वही समझ सकता है, जो अपने परिवेश और प्रकृति के भयावह रूप से स्मृति में बदलते जाने की समझ रखता है –
“कहते हैं धूप के रंग
बदले हैं अब
आँगन बदला
इस मकान के दरो-दीवार बदले
हवा तक बदली है हमारी आँखों में[3]
धूप के रंग बदलने ने हमारी पृथ्वी को आज बेहद असुरक्षित बना दिया है. इसी वजह से हमारा जीवन और रिश्ते लगातार छीजते गए हैं. हवा बाहर बदलेगी तो आँखों के अन्दर भी बदलेगी ही और जीवन अन्दर-बाहर क्रमशः विषाक्त होता जाएगा. इस बारीक समझ के बिना कविता मात्र स्मृतियों का संकलन होगी और स्मृतियाँ महज गलदश्रु.
स्मृतियाँ वर्तमान का मूल्यांकन होती हैं. यह उस इतिहास के मूल्यांकन से ही जुड़ा होता है, जिसके बनने में सायास-अनायास हमारी भूमिका होती है. स्मृतियाँ वर्तमान और इतिहास का निष्क्रिय ढंग से न्यायीकरण नहीं होतीं बल्कि वह हमारे अस्तित्व और अस्मिता का भी मूल्यांकन करती हैं. इसके लिए सिर्फ़ दूसरों की ही नहीं बल्कि हमें अपनी भूमिका का भी अन्वेषक-आलोचक होना पड़ता है. इसलिए उनकी कविताओं में स्मृतियाँ, हमारे स्मृति-भ्रंश समय में एक प्रतिरोध की तरह उपस्थित हैं. ये स्मृतियाँ हमारे अधूरेपन, हमारे पश्चातापी होने को छूती हैं. जहाँ पश्चाताप होता है, वहाँ ग़लती का अहसास भी होता है. यह हमारे मनुष्य होने के लिए भी ज़रूरी है. जिनमें यह अहसास है, वे इन कविताओं से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकते. विनय सौरभ महज स्मृतियों को संजोने, बुनने और उनसे संवाद करने वाले कवि नहीं हैं. उनकी कविताओं में उपस्थित स्मृतियाँ आलोचनात्मक विवेक और गहरे इतिहासबोध से युक्त हैं. स्मृतियाँ तो स्मृति ग्रंथों में भी दर्ज हैं और बेहद प्रभावशाली हैं. वहाँ वे एक आचार की तरह, एक अनुशासन की तरह मौजूद हैं. वे स्मृतियाँ प्रभुत्वशाली लोगों की स्मृतियाँ हैं जबकि कविता की स्मृति उस प्रभुत्व के ख़िलाफ़ होती है. ये आचार से ज़्यादा व्यवहार की स्मृतियाँ होती हैं, शिष्ट की नहीं लोक से सम्बंधित होती हैं. उनकी कविताओं में स्मृतियों की इस भूमिका को सहज ही देखा जा सकता है.
लोक की स्मृतियों से मुख़ातिब होना, उसे आलोचनात्मक तरीक़े से देखना जिसमें कवि स्वयं भी शामिल है, इतिहास से मुखातिब होना है. देखने में स्मृति इतिहास की सबसे छोटे अंशदाता की तरह दिखाई पड़ती है पर इतिहास को आकार देने में उसकी प्रबल भूमिका होती है. इसलिए जब कोई तानाशाह अपने आप को एकमात्र विकल्प के तौर पर पेश करता है, तब सबसे पहले वह हमारी स्मृतियों को कुंद करता है. इसके बाद इतिहास की मनमाफ़िक व्याख्या उसके लिए बाल-क्रीड़ा की तरह होती है. हमारी स्मृतियों को उस नए और मनोनुकूल ‘इतिहास’ के पेपरवेट से दबा दिया जाता है. असल में सिलेबस और किताबों को बदलकर, इतिहास पलट देने का भ्रम पाला जा सकता है पर स्मृतियाँ तानाशाहों के हाथों से छिटक जाया करती हैं. ये स्मृतियाँ इतनी महीन होती हैं कि तानशाहों के पहुँच के बाहर होती हैं और यही एक मनुष्य और दूसरे साथी मनुष्य के रिश्ते को मज़बूत बनाती हैं. कोई तानशाह झीनी प्रतीत होने वाले मगर इस अत्यंत गहरे रिश्ते को कैसे समझ सकता है,
“एक बार सब्जियों के हाट में उसने
अच्छे प्याज़ छाँटने में मेरी मदद की थे
इससे ज़्यादा का कोई वास्ता नहीं रहा मेरा उससे “[4]
कवि स्मृतियों से बने हमारे समाज का ही एक अंग है. वह भी विभिन्न स्मृतियों में जीता है, उससे मुठभेड़ करता है और अपनी स्मृति चुनता है. यह चुनना ही कवि को कवि बनाता है. उसे प्रवक्ता या उपदेशक होने से अलग करता है. सार्थक कविता अपनी बात थोपती नहीं है. थोपने वाला कवि भी नहीं होता. विनय सौरभ जिस सहजता से स्मृतियाँ चुनते हैं उसी सहजता से उन्हें अपनी कविताओं में बरतते भी हैं. उन्हें विशेष या महत्त्वपूर्ण बनाने की कोशिश बिल्कुल नहीं करते. इसलिए उनकी कविताओं से गुज़रते हुए यह महसूस होता है कि हम स्मृतियों के कोलाज़ से गुज़र रहे हैं. कोलाज़ बनाना आसान काम नहीं है. तस्वीरों को महज एक जगह एकत्रित करना, कोलाज़ नहीं होता बल्कि उसमें कोलाज़ बनाने वाले की दृष्टि और अभिरुचि की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है. असल में कोलाज़ दिखानेवाले की आँखें होती हैं, जिसे देखने वाले देखते हैं-
‘’उनकी बातें सुनते हुए
एक कोलाज़ का बनना शुरू हो गया था
जैसे मेरे भीतर !
जैसे आधे-पौन घंटे की फ़िल्म चल रही थी
और मैं उसके भीतर था “[5]
विनय सौरभ की कविताओं से गुज़रना भी ऐसा ही अनुभव होता है. आप बाहर से उसे नहीं देख सकते, वह हमारे अन्दर घटित होता है. विनय सौरभ सामूहिक स्मृतियों के कवि हैं, जिसे वे अपनी कविताओं में दृश्यों के माध्यम से बरतते हैं. इसलिए वे सिर्फ़ बिम्बों के नहीं बल्कि दृश्यों की निरंतरता के कवि हैं. बिम्ब -चित्रण से एक भाव-दशा उभरती है, जो कविता को उसके प्रतिपाद्य के क़रीब ले जाती हैं. कविता के बदलते समय और परिप्रेक्ष्य के बावजूद कविताओं में बिम्बों की उपस्थिति आवश्यक बनी रही. बिम्ब-निर्माण को कमोबेश सभी काव्य-चिंतकों ने कविता का प्रमुख और प्रभावशाली गुण माना है. बचपन की कक्षाओं से ही हमें बताया गया कि कविता में वर्णन नहीं चित्रण होता है. सच भी है कि कविता जब आँखों के सामने कोई चित्र उपस्थित कर देती है, तब अपेक्षित भाव जीवित हो उठते हैं. रघुवीर सहाय की कविता ‘चढ़ती स्त्री’ बिम्बविधान और उसकी सामाजिकता का बेहतरीन उदाहरण है –
“बच्चा गोद में लिए
चलती बस में
चढ़ती स्त्री
और मुझमें कुछ दूर तक घिसटता जाता हुआ. ‘‘[6]
बिम्बों का प्रभाव देर तक और दूर तक हमारे ऊपर रहता है. पर कई ऐसे गद्यकार और कवि भी हुए जिनके यहाँ चित्रण-वर्णन की दूरी दिखाई नहीं पड़ती. गद्य में रेणु इसके शानदार उदाहरण हैं. बिम्ब से एक भाव-दशा, एक दृश्य क्षण भर के लिए उपस्थित होता है, पर कविता में दृश्य जब निरंतरता के साथ उपस्थित होते हैं, एक कहानी उपस्थित होती है. इस दृष्टि से विनय सौरभ मुझे कविताओं में क़िस्सा कहने वाले समर्थ कवि के रूप में दिखाई देते हैं. यह भी सच है कि कविता में दृश्यों का निर्माण वही कर सकता है, जो बिम्ब निर्माण में निपुण हो. उदाहरण के तौर पर इस पंक्ति को देखा जा सकता है
‘छाता पूरे सावन-भादो देहरी चौखट पर टिका रहता था’[7]
यह एक कमाल का बिम्ब तो है ही पर स्मृतियाँ इस चित्र को दृश्य में बदल देती हैं. देहरी या चौखट पर टंगे छाता के साथ-साथ, वहाँ से आने -जाने वाले और उनकी कहानियाँ भी हमें नज़र आने लगती हैं. उस कहानी में हम शामिल होता हुआ-सा महसूस करते हैं और अपनी-अपनी स्मृतियों को जीने लगते हैं. दृश्यों के निर्माण के लिए परिवेश की भूमिका अहम होती है. वैसे भी उनके यहाँ स्मृतियाँ अपने पूरे परिवेश के साथ उपस्थित होती हैं-
“इलाक़े में लोग वैसी बारिश को याद करते थे इन दिनों
और अफ़सोस से भर जाते थे अपने खेतों को देखकर’’ [8]
रिश्ते, लोगों का स्मृति हो जाना बुरा है पर प्रकृति का स्मृतियों में तब्दील होते जाना भयावह है. बावजूद इसके हम घर के भीतर रिश्ते बचाने में व्यस्त हैं, घर की खुशियों के लिए चहारदीवारी रंगने में मशगूल हैं. धूप, बारिश से घर को बचाने की तकनीकी कोशिश में धूप और बारिश के ख़िलाफ़ होकर हम घर को ही मुश्किल में डाल रहे हैं, इसका इम्कान तक नहीं है. यहाँ लोग जैसे बारिश को याद कर रहे हैं, ठीक इसी तरह से घीसू ठाकुर के भोज को याद करते हैं. वास्तविकता यह थी कि बाप-बेटे को गर्म आलू से अपनी तालू जलाना ही बमुश्किल नसीब था. वैसा भोज न उन्हें मयस्सर था और न ऐसा होने की संभावना ही थी. घीसू भोज की स्मृति का दृश्य खींचते हैं और माधव भी उसमें शामिल हो जाते हैं. उससे भी भयावह है इन कहानियों में शामिल होना जहाँ बारिश स्मृति हो गई है. बारिश नहीं होगी तो छाते की भी स्मृति नहीं होगी, देहरी पर आने जाने वालों की भी स्मृतियाँ नहीं होंगी. बारिश, पेड़, नदियों का स्मृति हो जाना डरावना है. यह डर उनकी कविताओं से गुज़रते हुए अन्दर सिहर उठता है.
हम सच जानते हैं, पर उसका सामना नहीं करना चाहते. कविताओं से गुज़रते हुए उस डर से बचकर नहीं निकला जा सकता. स्मृतियाँ सिर्फ़ यादें नहीं होतीं बल्कि वह हमारे वर्तमान से उपजी आँखें होती हैं जो वर्तमान और भूत को साथ-साथ देखती हैं. स्मृतियाँ असल में हमारे मनुष्य होने और बने रहने का मूल्यांकन हैं. ये कविताएँ बिना शोर किए हमें हमारे मूल्यांकन के लिए आमंत्रित करती हैं. दक्षिण अमेरिका के आयमारा आदिवासी समूह के बीच एक प्रचलित कहावत है कि ‘आपका अतीत आपकी आँखों के सामने है और भविष्य आपके पीठ के पीछे है’. हम भविष्य को नहीं देख सकते, हम अपने अतीत को ही देख सकते हैं और उसका मूल्यांकन कर सकते हैं और चाहे तो उससे सीख सकते हैं. भविष्य तो एक अनुमान है, एक हाइपोथिसिस. इसे हमारी पीढ़ी से बेहतर कौन समझ सकता है.
दो)
स्मृतियाँ उनकी कविताओं का कथ्य भी है और शिल्प भी. इस शिल्प को साधने के लिए रचनात्मक-संयम की आवश्यकता पड़ती है. हरेक दृश्य को एक सिलसिले में आना होता है. इसलिए विनय सौरभ किसी बात को जल्दी ख़त्म करने या तुरंत कह कर निकल जाने में यक़ीन नहीं करते. कविता में वह औपन्यासिक संयम को बरतने वाले कवि हैं. उनका कवि गँवई मिट्टी से बना है पर यह गाँव और क़स्बे की सीमान्त पर निर्मित मन है. इसने शहराती मन की तरह होना और लगातार भागते रहना स्वीकार तो नहीं किया पर इस कश्मकश में वह पूर्णतः गाँव का भी नहीं रहा. यह कवि-मन परिवर्तन की अवश्यम्भावता को जानता है पर उसकी प्रक्रिया से ख़ुश नहीं है. गाँवों की ख़ासियत होती है कि वहाँ किसी से मुलाक़ात होने पर इत्मीनान से बतियाया जाता है. हाल-चाल पूछकर निकल जाने की रस्मी हड़बड़ी नहीं होती है. संताल परगना में बातचीत का यह इत्मीनान अब भी आसानी से दिख जाता है. यहाँ लोग अब भी रुककर और तफ़सील से मिलते हैं. भले ही संताल परगना और उसके जीवन पर आधारित कविताएँ उनके यहाँ कम हैं पर उनका कवि-मन वहीं की मिट्टी से बना है. उनकी कविता ‘जिल्दसाज़’ हो ‘एक बुजुर्ग डाकिये से मुलाक़ात’ या ख़ालिस राजनीतिक कविता ’मानहानि’, उनमें काव्यात्मक-धैर्य दिखाई पड़ता है. यह धैर्य अर्जित करना पड़ता है, मनुष्य होने की तरह धीरे-धीरे सीखना पड़ता है. भले ही वह अपनी एक कविता में यह कहते हैं कि तुमसे मिलने के बाद जो संसार मिला वह –
“वह कविता का नया संसार था
अनजाना अनदेखा अनचीन्हा और अलक्षित”[9]
पर उनकी कविताओं से गुज़रकर यह सहज ही अहसास होता है कि उनका कविता संसार जाना हुआ, देखा हुआ, चीन्हा हुआ और लक्षित संसार है, जिसे हमने अपने जीने के तरीक़ों से अनदेखा, अनचीन्हा और अलक्षित बना दिया है. उसे हम इसी तरह जीने के अभ्यस्त हो गए हैं. ये कविताएँ हमारी उस अभ्यस्तता में हस्तक्षेप करती हैं. हमारी कथित तौर पर आराम से कट रही ज़िन्दगी में आलोड़न पैदा करती हैं. उनकी कविता में आए हुए लोग, चीजें, दृश्य, मौसम हमारी अपनी ज़िन्दगी के हिस्से हैं, पर हम उन्हें अहमियत देना भूल गए हैं. उनकी उपस्थिति को अनुपस्थिति की तरह बरतते हैं और दुःख सहते हैं. चीजें बदलती ही हैं, परिस्थितियों में बदलाव अवश्यम्भावी है परन्तु उससे प्यार का छीजते जाना ज़रूर एक बड़ी समस्या है. उस छीजते जाते प्यार को पुनर्स्थापित करने का प्रयास ये कविताएँ करती हैं. एक कविता अगर अपनी इस भूमिका का निर्वाह करने में सफल होती है या पहलकदमी भी करती है तो वह एक ज़रूरी कविता है.
कविता हमारी रागात्मक वृत्ति को ही तो पल्लवित करती है, जिसके अभाव में हमारा जीवन राग-रंग और ख़ुशियों से विहीन होता जा रहा है. ठहर कर रिश्तों, अपने साथी-मनुष्यों और परिवेश को महसूस करने का इत्मीनान हमने खो दिया है. आपाधापी, हड़बड़ी, फ़ास्ट-ट्रांजेक्शन और मोबिलिटी किसी नशे की तरह हम पर तारी है पर ध्यान से देखिए तो असलियत कुछ और ही है. टेरी ईगलटन इसकी असलियत को स्पष्ट करते हुए बताते हैं, ‘तकनीक तेज़ गति से कार्यों को सम्पन्न करने का दावा तो करती है पर असलियत इसके उलट है’.[10] ज़िन्दगी को आसान और सहुलियत भरा बनाने के प्रयास में बहुसंख्यक आबादी अगर पीछे छूट जा रही है तो इस हासिल पर ठहर कर विचार करने की ज़रूरत है. विनय सौरभ अपनी कविताओं में ज़िन्दगी में इत्मीनान की ज़रूरत को समझाते हुए, नई बन रही इस अभ्यस्तता से बाहर झाँकने के लिए हमें आमंत्रित करते हैं –
“हवा और पत्ता
इस तरह से देखिए तो इन चीजों के प्रति
एक रागात्मक भाव मन में पैदा होगा “[11]
जीवन में इस इत्मीनान को खोकर हमने सिर्फ़ बेसब्री ही अर्जित की है. यह सहजता दुर्लभ हो गई है. कितने सहज ढंग से वह हमारे मनुष्य होने की आदिम-वृत्ति को यहाँ व्यक्त कर रहे हैं. विनय सौरभ के कवि की एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण ख़ासियत है कि वह बातों को सहज और उनके नैसर्गिक ढंग से कहते हैं. मेरा मानना है कि महत्त्वपूर्ण ढंग से कहकर, महत्त्वपूर्ण दिखने के फेर में हमने हमारी भाषा और भावों की सहजता का बहुत नुकसान किया है. कविता का नुकसान तो इससे होता ही है. विनय सौरभ भी अपनी कविताओं में वहाँ चूके हुए से लगते हैं जहाँ उन्होंने ऐसा प्रयास किया है पर यह सुखद है कि ऐसा कम हुआ है और यह उनकी मूल प्रवृत्ति भी नहीं है.
तीन)
विनय सौरभ ने सीधी राजनीतिक कविताएँ बहुत कम लिखी हैं. ‘संसद’, ‘एक बेदखल दुनिया का मर्सिया’ और ‘मानहानि’ कविताएँ मूल रूप से उनकी राजनीतिक कविताएँ हैं. ‘मानहानि’ कविता उनकी राजनीतिक समझदारी और प्रतिबद्धता की दृष्टि से अत्यंत महत्त्पूर्ण कविता है. तात्कालिक विषयों पर कविता लिखना एक जोखिम माना जाता है और विनय सौरभ तात्कालिकता के कवि भी नहीं हैं. फिर भी उन्होंने यह जोखिम उठाया और उसे ‘मानहानि’ कविता में निभाया भी. निश्चित रूप से यह कविता हमारे ह्रासोन्मुख समय और राजनीति की शिनाख्त और आलोचना करने वाली एक महत्त्वपूर्ण कविता है. रविभूषण के अनुसार
“‘मानहानि’ कविता देश की चिंताओं से जुड़ी चिंता है… यह ‘देशकाल के शर से’ बिंधी कविता है.”[12]
उनकी कविताओं में ‘एक बेदखल दुनिया का मर्सिया’ मुझे उनकी राजनीतिक दृष्टि की निचोड़ लगती है. इस कविता के ‘पसीने को धर्म’ और ‘ज़िन्दगी को किताब’ मानने वाले लोगों की उपस्थिति को, उनकी बाकी कविताओं से गुज़रते हुए महसूस किया जा सकता है.
हर कविता अंततः एक राजनीतिक हस्तक्षेप होती है. असल में विषय चयन से कविता निर्माण की प्रक्रिया पूरी होने तक, राजनीतिक दृष्टि अंतर्धारा की तरह विद्यमान होती है परन्तु कविता राजनीतिक बयानबाजी नहीं है. कविता पर जब बयानबाजी हावी होने लगती है, वह कविता नहीं रहती बल्कि वह कविता ज़्यादा राजनीतिक होती है जो किसी प्रचलित राजनीतिक मुहावरे का इस्तेमाल नहीं करती. मिसाल के तौर पर हमारे देश की राजनीति की हक़ीक़त को इन पंक्तियों में देखा जा सकता है, जहाँ ‘गाँधीजी का जंतर’ बीस रूपये वाले पानी के बोतल से पराजित नज़र आता है-
“गाँव से इलाज को आया एक आदमी अस्पताल के बाहर
बीस की एक बोतल ख़रीदता है
और पैसे बचाने को सात किलोमीटर पैदल
अपनी पत्नी के साथ घर लौटता है”[13]
विनय सौरभ की कविताओं की राजनीतिक-दृष्टि को उसके निहितार्थ में समझना चाहिए. राजनीति का अर्थ सिर्फ़ राजनीतिक दलों तक महदूद नहीं है. लोग ही असल राजनीति होते हैं, जैसे लोग ही देश होते हैं. इसलिए उन सारे लोगों को उनका दाय मयस्सर होना, उनके हिस्से की धूप और छाँव मिलना, मनुष्य के तौर पर वांछित सम्मान मिलना भी राजनीतिक मामला है. यह एक तरह की राजनीति ही तो है, जो किसी को उसके सही नाम या उसके नाम के सही हिज्जे के साथ नहीं बुलाती और किसी के नाम को ‘जी’ लगाकर बुलाती है. किसी को पुकारने और सम्बोधित करने तक में राजनीति शामिल होती है, हमारा लहजा तक राजनीति से प्रभावित होता है. इसलिए कोई ‘लिट्टी’ हो जाता है और कोई ‘गंगेसरा’. यह एक तरह की राजनीति है कि वह बहुसंख्यकों में हीनता-बोध को रचती-पगाती है और इस वजह से ही –
“हीनता बोध के बीच जी रहे लोगों में
यह बोध भी नहीं होता कि वह मना ही कर दें
कि यह सब मत कहिए
मेरा नाम ‘लिट्टी’ नहीं ‘रमेश’ है !”[14]
राजनीति के केन्द्र में लोग होते हैं. ऐसे में हीनताबोध से भरे लोग कैसा देश और समाज बनायेंगे ? राजनीति गहरे धंसते हुए जिन्हें प्रभावित करती है, विनय सौरभ उनकी गरिमा के साथ खड़े होने वाले कवि हैं. यह राजनीति हमारी रोजमर्रा की ज़िन्दगी में शामिल होती है, जो हमारे होने-बनने को तय करती है. राजनीति की जो हिजेमेनिक उपस्थति हमारे रगों में मौजूद है, उसकी शिनाख्त उनकी कविताओं में की जा सकती है. कई बार वह ख़ुद इस हिजेमनी के शिकार दिखाई पड़ते हैं. यही सहज भी है. मनुष्य होने की तरह कवि भी अपनी खूबियों और कमज़ोरियों के साथ ही मौजूद होता है.
हमारी स्मृतियाँ भी उसी राजनीति का हिस्सा हैं. इसलिए वह सिर्फ़ लोगों की ही नहीं बल्कि चौखटों, दरवाजों, भवनों की भी होती हैं. यह किसी घर का दरवाज़ा[15] भी हो सकता है और इस देश का सबसे भव्य ‘भवन’ भी-
“उस विशाल सभागार की दीवारें
अतीत की स्मृतियों से सुबकती थीं”[16]
ये उस संसद-भवन की दीवारें हैं जिसके पास उन आवाजों की भी स्मृतियाँ थीं, जिन्हें उसकी नज़रों के सामने कब्र दे दिया गया. उन ज़रूरी, पुकारती और सिसकती आवाजों को दबा दिया गया, जिनकी हिमायत और हिफ़ाज़त के लिए उसका निर्माण हुआ था. आज आप नए संसद-भवन को देखें तो वह सुबकती हुई नज़र नहीं आएगी. उसके पास अभी कोई स्मृति ही नहीं है. जो भवन सुबक रही थी, उसे अकेला कर दिया गया है. ‘टूरिस्ट-स्मृति’ उसे उपहार में दे दिया गया है. अब लोग-बाग़, घूमने-फिरने के बहाने वहाँ जायेंगे और उसकी भव्यता का रौब मानेंगे. उसके ही सामने मनमाफ़िक तरीक़े से उसकी स्मृतियों को बरतेंगे और व्याख्या करेंगे. विनय सौरभ की कविताएँ स्मृतियों को अजायबघर की चीज़ बना देने या उसे ‘टूरिस्ट-स्मृति’ में बदल देने के षड्यंत्र के ख़िलाफ़ हैं.
विनय सौरभ की कविताओं की एक बड़ी ख़ासियत साम्प्रदायिक होते गए समाज की बारीक पड़ताल भी है. समाज से प्यार किए बिना कोई कवि नहीं हो सकता और विभाजनकारी ताकतों की बुरी राजनीति की भर्त्सना किए बिना लोगों से प्यार नहीं किया जा सकता. यह समझ और प्यार ही हमें पृथ्वी का सच्चा वासी और कवि बनाता है. समाज का साम्रदायिक-सौहार्द का ताना बाना उसकी प्रत्येक इकाई पर निर्भर करता है. बहरूपियों के हमारे जीवन से चले जाने ने हमारी सहिष्णुता का कितना नुकसान किया है, यह उनकी कविता से समझा जा सकता है. 1989 के दंगे, भागलपुर का हिंसक अंखफोड़वा काण्ड, सांप्रदायिक ध्रुवीकरण में रामानंद सागर (दृश्य माध्यम) की भूमिका, 1992 के दंगे और इनके प्रभाव स्वरूप लोगों के मन में दिनोंदिन पैर पसारती सांप्रदायिक राजनीति की गहरी पहचान और पड़ताल उनकी कविताओं में की जा सकती है. उनकी कविताओं से गुज़रकर पाठक 1992 से पहले और उसके बाद की स्मृतियों के रंगों से भलीभांति परिचित हो सकता है.
चार)
उनकी कविताओं में कई स्त्री-चरित्र और प्रसंग आए हैं. उन्होंने पूरी सहानुभूति से उनका चित्रण भी किया है. समस्या यही है कि अधिकांशतः यह चित्रण सहानुभूति तक ही सीमित है. सहानुभूति, समान-अनुभूति नहीं बन पातीं. इसे उनकी स्त्री-विषयक कविताओं में देखा जा सकता है. प्रकृति उन्हें दुल्हन की तरह लगती है’[17] वीडियो कॉल पर बात करते हुई मित्र की पत्नी ‘लजाते हुए नत-नज़रों से बात करती है और कैमरे की तरफ़ देखती तक नहीं’.[18] उनकी कविताओं से गुज़रते हुए महसूस होता है कि स्त्रियों को लेकर वह बेहद संवेदनशील हैं परन्तु अनायास ही उनकी स्त्री-दृष्टि पर उनका ग़ैर-आदिवासी क़स्बाई मन हावी है.
स्त्रियों के बारे में चिंतित होना और ज़िम्मेदारी-बोझ से भरा होना हमें भावुक ज़्यादा करता है और यह भावुकता अनजाने ही हमें हमारे निहितार्थों के ख़िलाफ़ खड़ा कर देती है. हालाँकि कवि भी अपने समाज की ही उपज होता है. इसलिए कई बार हमारा चेतन मन, स्मृतियों से निर्मित अचेतन का ही अनुकरण करता है. हम अच्छा कहने या करने के प्रयास में जो समाज में चला आ रहा होता है, उसे ही आगे बढ़ा रहे होते हैं. स्मृतियों से आलोचनात्मक संवाद या मुठभेड़ जहाँ बंद हो जाती हैं वहाँ सामंती मन हावी हो जाता है. मिसाल के तौर पर इन पंक्तियों को देखिए…
”संभव है वे दो औरतें एक नई ज़िन्दगी
शुरू करने यहाँ आई हों
और हम उन्हें जल्दबाजी में वेश्याएँ कह बैठे हों
XX XX XX
वे वेश्याएँ या सन्दिग्ध भी कहाँ थीं
जब किसी ने उन्हें धंधा करते हुए नहीं देखा “[19]
जल्दबाजी में ही क्यों ठहर कर भी किसी स्त्री को ‘धंधा’ करने वाली या ‘वेश्या’ नहीं कहा जा सकता. यह हर स्थिति में ग़लत है. असल में हिन्दी भाषा की भी अपनी सीमा है. सामन्ती और पितृसत्तात्मक मूल्य इसमें आज भी गंभीर रूप से विन्यस्त हैं. हम सामान्य भाषा-व्यवहार में पुल्लिंग का ही प्रयोग करते हैं. मेरी भाषा भी इस ख़ामी से मुक्त नहीं है. इसलिए ‘वेश्या’ के बरक्स हिन्दी में पुरुषों के लिए कोई विशेष शब्द प्रचलन में नहीं दिखाई देता. अंग्रेजी में ‘सेक्स वर्कर’ जैसे शब्द ढूंढ़ें गए पर हिन्दी में इस तरह की कोशिश कम दिखाई पड़ती है. आदर्श स्थिति तो यह होगी कि ऐसे शब्द स्त्री और पुरुष दोनों के लिए अप्रासंगिक हो जाएँ. हम एक बेहतर समाज बनें और सभी को यथोचित सम्मान मिले.
बाज़ार द्वारा स्त्रियों को उपभोग की वस्तु बनाये जाने के वह पूरे दम-ख़म से ख़िलाफ़ हैं. बाज़ार की इस प्रवृत्ति के ख़िलाफ़ उनमें पर्याप्त रोष है. उन्होंने ‘यह ख़रीद लीजिए प्लीज़’ कविता में उचित ही लक्ष्य किया है कि बाज़ार स्त्रियों को मुक्त करने के सपने के नाम पर नई तरह की ग़ुलामी में बेच रहा है, परन्तु देखिए कि उनकी उसी कविता में स्त्री के मायने क्या हैं –
“इनकी उँगलियाँ गीले आटे के एहसास से नावाकिफ़ थीं
इन्हें अपने बच्चों को तैयार करके स्कूल भेजने की
जल्दी में नहीं जीना था और ना
आफ़िस जाते पतियों के लिए टिफ़िन तैयार करना था”[20]
क्या वे साबुन, तेल, ब्रा, कंडोम का प्रचार नहीं कर रही होतीं तो उन्हें मुक्त और ख़ुशहाल स्त्री कहा जा सकता था ? क्या वे उपरोक्त कार्यों को संजीदगी से अंजाम दे रही होतीं या अधिकांश स्त्रियाँ जो ऐसा कर रही हैं वे मुक्त और ख़ुशहाल कही जा सकती हैं ? यही तो असल समस्या है. स्त्रियों को एक तरफ़ सामन्ती मानसिकता ने और दूसरी तरफ़ बाजार ने अपना शिकार बना रखा है. दोनों ही स्थितियाँ उनके लिए विनाशकारी हैं. जबकि कवि यह भी शिद्दत से समझता है कि ‘वे दिन और रात की तरह सच हैं’ और यह भी कि ‘…ओस की तरह हैं उनकी इच्छाएँ / जो कठिन मेहनत और दुःख की आँच में सूख जाती हैं’.[21]
पाँच)
उनकी कविताओं के सन्दर्भ में कई लोगों ने यह रेखांकित किया है कि उनकी कविताओं में आदिवासी जीवन या जहाँ से वे आते हैं वह संताल परगना बहुत कम है. यह सच भी है. उनकी कविताओं में आदिवासी ज़्यादातर एक ज़िक्र की तरह आते हैं, ‘एक आदिवासी दोस्त था स्कूल के दिनों का/ पहाड़ के नीचे रहता था/ बरसों से उससे मिला नहीं’[22] निजी बातचीत में उन्होंने अपनी कविताओं में आदिवासी-लोक की अनुपस्थिति को स्वीकार भी किया है, इसलिए वे ऐसा कोई दावा भी नहीं करते .फिर भी यहाँ सावधानी से यह समझा जाना चाहिए कि संताल परगना की मिट्टी-पानी से उनकी स्मृति ने कितना आकार पाया है ? मेरे ख़याल से उस भूगोल के जीवन की निकटता ने उन्हें वह आँखें दी, जो वह किसी शहरी क्षेत्र या स्पष्ट कहूँ तो ग़ैर-आदिवासी क्षेत्र में रहकर नहीं पा सकते थे ? पहाड़ों, नदियों का छीजना, उन्हें अपनी नसों में महसूस नहीं होता तो जीवित लोगों की स्मृतियों के साथ खाट, कुर्सी, दरवाज़ा, कुओं तक के हमारे जीवन से छीजते जाने को इस तरह महसूस नहीं कर पाते.
ऐसा नहीं है कि उनकी कविताओं में पहाड़, जंगल, नदियाँ सिरे से ग़ायब हैं. ऐसा कैसे संभव हो सकता है, जब विनय सौरभ को विनय सौरभ बनाने में संताल परगना की मिट्टी, हवा, पानी का सबसे बड़ा योगदान है. भागलपुर, पटना होते हुए दिल्ली पहुँचकर विनय सौरभ ने एक कवि के तौर पर अपनी पहचान बनाई, पर उस दिल्ली के बारे में वह कहते हैं –
“दिल्ली में पहाड़ की स्मृतियों से
घिरा रहता हूँ मैं
एक गाँव जगा रहता है मेरे भीतर
और रात के अँधेरे में एक लालटेन
जलती रहती है”[23]
इन स्मृतियों के बिना वह ‘दिल्ली’ की असलियत को न पहचान सकते थे और न दिल्ली की नज़र से देश को देखे जाने की चकाचौंध के ख़िलाफ़ गाँव को अपने अन्दर जगाए रख सकते थे. जिस दृष्टि से वे विषय चुनते हैं, उसे बरतते हैं वहाँ ‘पहाड़ दूर तक आखों में फैले हुए कुछ कहते थे’. अनचाहे ही हमारा भूगोल और उस भूगोल में रहने वाले साथी हमें प्रभावित करने लगते हैं. विनय सौरभ ने ज़रूर संताल परगना के बाहर के जीवन को, संताल परगना के ग़ैरआदिवासी जीवन को और मध्यवर्गीय जीवन को अपनी कविताओं के केंद्र में रखा लेकिन वह कवि-मन आदिवासी परिवेश की देन है.
जैसा कि मैंने पूर्व में भी निवेदन किया है कि विनय सौरभ क़स्बाई जीवन या क़स्बाई लोक के कवि हैं. मध्यवर्गीय माहौल में बड़ा होना और हिन्दी साहित्य का मध्यवर्गीय- जीवन-केन्द्रित होना हमें नैसर्गिक तौर पर ऐसा बनाता है. इसे उनके कविताओं के सौन्दर्य पक्ष के सन्दर्भ में भी देखा जा सकता है, जहाँ इस दृष्टि का स्पष्ट प्रभाव दिखाई पड़ता है –
“कैमरे पर कितना अनुराग जगाता है
बिस्तर पर बिखरी हुई उसकी किताबें
बरामदे पर रखे हुए फूल के गमले
खिड़की से दिखते पहाड़
दरवाज़े पर घने एरिका पाम “[24]
अथवा,
“कुछ पौधे लगाने हैं
अपने बाग़ का हरापन कायम रखना है
पिछवाड़े में नारियल के फलने की राह देखनी है
गीत लिखने हैं कामगार दोस्तों के लिए !”[25]
प्रकृति यहाँ गमले का फूल है, एरिका पाम है और ‘अपने बाग़’ की हरियाली है. पहाड़ हैं तो खिड़की से दिखते हुए. यह नितांत मध्यवर्गीय चाहत है, यह अनुराग मध्यवर्गीय है. यह सौन्दर्यबोध अभिजात्यवादी है. ऐसे में कामगार दोस्तों के लिए गीत कैसे लिखा जा सकेगा, लिखा भी जाएगा तो वह फैंटेसी ज़्यादा होगी. एक पक्ष यह भी है कि आज हमें जो मिला हुआ ‘स्पेस’ है, वहीं इस पृथ्वी को बचाने की कोशिश करनी होगी. इससे प्रकृति कितनी बचेगी, यह नहीं कह सकता पर यह भलमनसाहत भी आज के समय में दुर्लभ हो गई है.
ऐसे ही कई और प्रसंग हैं जहाँ उनका यह दृष्टिकोण दिखाई पड़ता है. ‘बारिश की आवाजें’ कविता में वे कहते हैं टीन की छत पर गिरती बारिश की आवाजें ‘इस दुनिया की सबसे प्राकृतिक ध्वनियों में से एक है’. यह बात ही विरोधाभास से पूर्ण है. आदिवासी क्षेत्र में बड़ा हुआ और जो कवि यह समझता है कि ‘अब जिसकी छत है /पतंग भी उसी की है’, वह ऐसा कहे तो और भी हैरत होती है. वैसे भी टीन की छत पर बारिश की बौछार उसे ही मोहक लगेगी, जिसे पक्की छत पहले से नसीब है. यह सच है कि उस आवाज़ में एक सम्मोहन होता है. वे आवाजें मुझे भी बेहद पसंद हैं पर यह अभिजात्य सौन्दर्यबोध है. हिन्दी कविता के सौन्दर्यबोध पर बड़े पैमाने पर अभिजात्य रूचि का प्रभाव है. इसलिए ज़रूरी है अभिजात्यता के इस घेरे को लोक की सौन्दर्य – दृष्टि से तोड़ा जाए. रामदयाल मुण्डा की इस बात को समझा जाए कि बाग़ तो हम नया लगा लेंगे पर जंगल कहाँ से लायेंगे.
क़स्बाई मन की यह ख़ासियत होती है कि वह शहर की सुविधाओं (कुछ अर्थों में खुलापन) के साथ गाँव की आत्मीयता को बचाए रखना चाहता है. यह प्रवृत्ति केदारनाथ सिंह से विनय सौरभ तक कविताओं में देखी जा सकती है. इसमें यह भावना निहित होती है कि हम जिस शहर में रहने को अभिशप्त हैं, उसे बेहतर बनाया जाए. बहुतेरी काव्य-पंक्तियाँ उनके यहाँ शहर को पहले की तरह बचाए रखने और बेहतर बनाने की शुभाकांक्षाओं से भरी हुई दिखाई पड़ती हैं. जैसे, ‘वह शहर अब बहुत बदल गया था / जो हमारी साँसों में बसता था‘.[26]
विनय सौरभ ने जिस लोक को चुना है, वे उस लोक की सम्पूर्णता के कवि हैं. इसलिए यह ज़्यादा महत्त्वपूर्ण नहीं है कि उनकी कविताओं में दुमका कितना है बल्कि यह कि जिस शहर को अपनी कविताओं में वे लिख रहे हैं, वह कितनी शिद्दत से वहाँ मौजूद है. इस दृष्टि से भागलपुर शहर की उपस्थिति उनकी कविताओं में अत्यंत मानीख़ेज़ है. कोई चाहे तो भागलपुर शहर का इतिहास उनकी कविताओं के आधार पर लिख सकता है. कोई दस्तावेजी फ़िल्मकार, फ़िल्म बना सकता है. वैसे भी वे दृष्टान्त के नहीं दृश्यों के ही कवि हैं. असल में भागलपुर उनकी काव्य-संवेदना की धुरी है. यह वह शहर है, जहाँ के माहौल में उनका कवि संस्कारित हुआ है. नोनीहाट से भागलपुर के बीच उनका कवि आवाजाही करता रहता है. यह आवाजाही बहुत डूब कर घटित होती है और यहीं से उनकी कविताएँ आकार लेती हैं. एक तरफ़ बनता और बदलता हुआ शहर है और दूसरी तरफ़ बनता और बदलता हुआ क़स्बा है. संताल परगना की पृष्ठभूमि में इन दोनों की द्वंद्वात्मकता से उनकी कविताएँ उपजती हैं और विस्तार पाती हैं.
छह)
दक्षिण अमेरिका के आयमारा आदिवासी समुदाय का मानना है, ‘हमारी भाषा हमारी आत्मा है. हमारे लिए यह सब कुछ है. यह ज्ञान है, हमारे माता-पिता हैं, हमारी विरासत है.[27] जी. एन. देवी ने भी बहुतेरे मौकों पर यह बात लगातार कही है कि ‘हम मनुष्य हमारी भाषा की निर्मिति ही हैं’. सच है कि भाषा ने मनुष्य प्रजाति को अफ़्रीकी महादेश से पूरी पृथ्वी पर फैलने का मौक़ा मुहैया कराया. इसलिए भाषा का मसला बेहद गंभीर होता है. ‘भाषा किसी डिस्पोजेबल सेलफ़ोन की तरह नहीं होती है जिसमें विचार पहले से ही तैयार और गुँथे हुए आते हैं. इसके विपरीत किसी कविता की भाषा अपने विचारों की निर्मिति होती है.’[28] इसलिए कवियों को भाषा को रक्षित, पल्लवित, विकसित करने वालों में अग्रणी माना गया. इसलिए कम से कम कवियों से भाषा-प्रयोग के प्रति पर्याप्त सजगता की उम्मीद की जाती है.
किसी भी कवि की पहचान उसकी काव्य-भाषा है. वस्तु-पक्ष तो काव्य-रूप को तय करता ही है परन्तु कविता की भाषा भी काव्य-रूप को तय करने में महत्त्पूर्ण भूमिका अदा करती है. मेरे तईं यह सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण घटक होती है. इस दृष्टि से देखें तो विनय सौरभ ने तीस वर्षों की अपनी काव्य-यात्रा में अपनी एक विशिष्ट काव्य-भाषा निर्मित की है. उनकी काव्य-भाषा, उनके कवि का पता देती हैं. विनय सौरभ की ख़ासियत है कि वह जैसा चाहते हैं, भाषा को वैसे बरत लेते हैं. यह इतनी सहजता से घटित होता है कि दरेरा डालने की ज़रूरत ही नहीं पड़ती. हिन्दी कविता की प्रगतिशील धारा ने आमफ़हम भाषा को जिस काव्यात्मकता के साथ बरता, वह विनय सौरभ के यहाँ ठाट से मौजूद है.
हिन्दी काव्य-भाषा की धारा पर गौर करें तो मुझे यह शिद्दत से महसूस होता है कि हमारी भाषा में प्रकृति के प्रति अपार अघोषित हिंसा है. विज्ञान के प्रकृति पर विजय की घोषणा के बाद प्रकृति के बारे में मनुष्य की भाषा में पर्याप्त असहिष्णुता दिखाई पड़ती है. हमारा अवचेतन लगातार हमें प्रकृति-विरोधी स्मृतियों में ज़िन्दा रखता है. सामाजिकता के सन्दर्भ में ‘न्यू नार्मल’ की अवधारणा भले ही कुछ दशक पुरानी हो पर प्रकृति सम्बंधित हमारे दृष्टिकोण पर बहुत पहले से यह ‘न्यू नार्मल’ ही ‘नार्मल’ की तरह रूढ़ हो है. इसलिए मुरारी की मुरली में खोया मन, भाषा में ‘न रहेगा बाँस न बजेगी बाँसुरी’ जैसे मुहावरों को उत्साहित होकर बरतता रहता है. इस प्रसंग को संक्षिप्त करते हुए इसे विनय सौरभ की कविताओं से ही समझते हैं.
विनय सौरभ की सर्वाधिक प्रसिद्ध कविताओं में से एक कविता है ‘बख्तियारपुर’. जो उनके संग्रह का उनवान भी है. बेहद मार्मिक और देर तक गूँजने वाली कविता है (इसलिए मेरा इरादा उस कविता के असर को कहीं से हल्का करने का नहीं है ). गंभीर रूप से बीमार पिता को इलाज़ के लिए दिल्ली ले जाया जा रहा है. वह बख्तियारपुर स्टेशन देखना चाहते हैं. बख्तियारपुर आने से पहले उनकी आँख लग जाती है. गंभीर रूप से बीमार होने की वजह से उन्हें इन दिनों नींद बहुत कम आती थी. इसलिए जब स्टेशन आता है, तब घर वाले उन्हें नहीं जगाते हैं. उन्हें नहीं जगाने का कारण बताते हुए कवि लिखता है, ’हम नहीं चाहते थे कि उनकी नींद पर पानी पड़े !’[29] यह देख कर अचानक से ठेस लगती है कि पानी को इस नकारात्मकता से वह कवि बरत रहा है जो चाहता है,‘…धरती के गर्भ में इतना पानी / बस इतना भर पानी कि / कंठ सूखे न रह जाएँ !’[30] यह अपेक्षा तो की ही जा सकती है कि प्रकृति के पक्ष में खड़ा कवि अपनी भाषा में उसके ही ख़िलाफ़ न हो जाए. असल में प्रकृति के ख़िलाफ़ हमारी भाषिक हिंसा हमें दिखती ही नहीं है . इसे लेकर हिन्दी जगत में सजगता भी नज़र नहीं आती. इसलिए सिर्फ़ विनय सौरभ ही नहीं हिन्दी के बहुत सारे महत्त्वपूर्ण कवि, अपनी कविताओं में अनायास ही इस दृष्टि के शिकार नज़र आते हैं.
विनय सौरभ की कविताएँ हमारी अपनी देखी-जानी हुई दुनिया की कविताएँ हैं परन्तु उनकी कविताओं से गुज़रकर हम अपनी ही दुनिया को वापस देखने- जानने पर मजबूर होते हैं. उनकी कविताओं में स्मृतियों से ऐसी मुठभेड़ है जो ऊपर-ऊपर से बहुत शांत दिखाई पड़ती है. भीतर वे उन निर्मितियों से टकराती हैं जो स्मृतियों को उनके इतिहासबोध से मुक्त करने का प्रपंच रचती हैं. यह टकराहट कविताओं से हमारी ज़िन्दगी में फैलती है और हम आत्मालोचन के लिए बाध्य होते हैं. उनकी कविताएँ हमें अपने अन्दर झाँकने वाली आँखें देती हैं, जिसके अभाव में ‘अपने गिरेबान में झाँकना’ महज भाषिक चमत्कार बन कर रह जाता है. उनकी कविताओं से गुज़रते हुए शिद्दत से यह महसूस होता है कि –
“कुछ तो वजह है
कि बचा हुआ हूँ इस पृथ्वी पर !
मैं बचा हुआ हूँ अपने ही मोह के कारण
जबकि चीज़ें समय से जुड़कर मेरा साथ लगातार छोड़ रही हैं.”[31]
भाषा और भावों की रवानगी से भरी यह अद्भुत आवाजाही विनय सौरभ की कविताओं का हासिल है. उनकी कविताओं से गुज़रना भी हासिल सरीखा होता है. उम्मीद है आने वाले समय में उनकी कविताओं पर गंभीरता से विचार किया जाएगा और हिन्दी के सीमान्त से हिन्दी के केन्द्र को सँवारने वाले नोनीहाट के इस कवि को उसका अपेक्षित श्रेय प्राप्त होगा.
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सन्दर्भ
[1] Terry Eagelton, How to Read a Poem, page -02
[2] वही, पृष्ठ-58
[3] विनय सौरभ, बख्तियारपुर, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2024, पृष्ठ-123
[4] वही, पृष्ठ-89
[5] वही, पृष्ठ-99
[6] कृष्ण कुमार (सं.), रघुवीर सहाय संचयिता, राजकमल प्रकाशन,2003, नई दिल्ली, पृष्ठ-65
[7] विनय सौरभ, बख्तियारपुर, पृष्ठ-79
[8] वही, पृष्ठ-79
[9] वही, पृष्ठ -77
[10] There is, to be a sure, a theory that computers are actually a cunning way of trying to slow modern life down, as anyone who has tried to buy an air ticket or check into a hotel might testify. There are even those who are nostalgic for good, old-fashioned speed and bustle – for the whirlwind days when the hotel clerk simply took five seconds to slap your name down in a book, before modern technology put the brakes on such reckless rapidity., Terry Eagleton, How to read a poem, page-17
[11]विनय सौरभ, बख्तियारपुर, पृष्ठ-82
[12] रविभूषण, मानहानि’ का मुकदमा और ‘मानहानि’ कविता, जनसंदेश टाइम्स, लखनऊ, 7 अप्रैल 2023
[13] विनय सौरभ, बख्तियारपुर, पृष्ठ – 143
[14] वही, पृष्ठ-140
[15] “उस दरवाज़े की भी / एक कहानी है / एक हँसता हुआ घर / रहता था कभी इसके भीतर !”, विनय सौरभ, बख्तियारपुर, पृष्ठ-104
[16] वही, पृष्ठ-44
[17] वही, पृष्ठ-93
[18] वही, पृष्ठ-35
[19] वही, पृष्ठ-50
[20] वही, पृष्ठ-53
[21] वही, पृष्ठ-57
[22] वही, पृष्ठ-87
[23] वही, पृष्ठ 162
[24] वही, पृष्ठ -35″
[25] वही, पृष्ठ – 48
[26] वही, पृष्ठ – 73
[27] https://newint.org/blog/2014/06/17/endangered-languages-aymara
[28] Terry Eagleton, How to read a poem, page-04
[29]विनय सौरभ, बख्तियारपुर, पृष्ठ-121
[30] वही, पृष्ठ -80
[31] वही, पृष्ठ-48
राही डूमरचीर
दुमका में शुरुआती तालीम के बाद शांतिनिकेतन, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय और हैदराबाद विश्वविद्यालय से पढ़ाई पूरी करके इन दिनों आर.डी. एण्ड डी.जे. कॉलेज, मुंगेर (बिहार) में अध्यापन. rdumarchir@gmail.com |
विनय सौरभ टी.एन.बी. कॉलेज भागलपुर से स्नातक और भारतीय जनसंचार संस्थान (IIMC), नई दिल्ली से पत्रकारिता में स्नातकोत्तर डिप्लोमा. पिछले तीन दशक से विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ, संस्मरण, लेख आदि प्रकाशित राजभाषा विभाग एवं राष्ट्रभाषा परिषद, बिहार के ‘युवा लेखन पुरस्कार’, ‘कवि कन्हैया स्मृति सम्मान’, ‘सूत्र सम्मान’, ‘बनारसी प्रसाद भोजपुरी आदि सम्मान’ से सम्मानित. सम्प्रति झारखंड के सहकारिता विभाग में कार्यरत हैं. |
‘विनय सौरभ की कविताओं में स्मृतियाँ सिर्फ़ पिता, माँ, बड़े भाई, दीदी, मौसी, गरीब रिश्तेदारों तक सीमित नहीं हैं. न उनके गाँव-समाज से जुड़े डाकिया, जिल्दसाज़, गंगेसर मिस्त्री, मित्र रमेश, दोस्त के बूढ़े और अकेले हो गए पिता तक ही सीमित हैं. उनकी कविताओं में रिश्तों की स्मृतियाँ तो हैं ही, साथ ही वे चीज़ें भी हैं जिन पर शिलालेखों की भांति स्मृतियाँ अंकित हैं. संवेदनाओं को सामान्य व्यवहार की तरह बरतने वाले उसे डीकोड नहीं कर सकते. पिता की कमीज़, माँ की शॉल, दिवंगत भाई की किताबें, खाट, दरवाज़े, कुहनी की छुअन से घिस गई मेज़, देहरी पर टंगा हुआ छाता, ताड़ के पंखें, सब्जियों से भरे खोमचे आदि भी समान रूप से उनकी स्मृतियों के हिस्से हैं. हमारा लगाव और रिश्ता सिर्फ़ मनुष्यों या जीवित प्रजातियों तक सीमित नहीं होता बल्कि हम जिन दीवारों के बीच जीते हैं, जिन दरवाज़ों से गुज़रते हैं, जिस झरोखे से झाँकते हैं, जिस मेज़ पर खाने या पढ़ने के लिए झुकते हैं, उनसे भी हमारा क़रीबी रिश्ता होता है. स्मृतियाँ सिर्फ़ चेहरों या किसी घटना के रूप में नहीं आतीं बल्कि अपने पूरे परिवेश के साथ उपस्थित होती हैं. ‘
🍀
कितनी सुंदर बात कही है राही जी ने। विनय की कविता में स्मृति बहुआयामी है। वास्तव में यह समय-स्मृति है, जो चेहरों, चरित्रों, चीजों और माहौल में उनकी अवस्थिति से बनती है।
Vinay Saurabh का संग्रह ‘बख्तियारपुर’ मैंने भी पढ़ा है। उनके संग्रह के बारे में राही डूमरचीर ने समग्र रूप में बढ़िया लिखा है। एक कविता संग्रह के बहाने एक कवि के रचनाकर्म, परिवेश, इतिहासबोध और उनकी विशेषता को राही ने बेहतरीन ढंग से दर्ज किया है।यह आलेख विनय सौरभ की कविताओं को देखने समझने और उस पर विचार करने के एक मौलिक विवेक का सहज और सुंदर उदाहरण है। ऐसा बहुत कम लिखा जाता है।
अभी तक की पढ़ी गई समीक्षाओं में सर्वश्रेष्ठ
एक संवेदनशील और भावुक कवि ही पकड़ पाता है इतनी बारीकियां, बल्कि जो विश्लेषण है वो तो विनय ने लिखते समय सोचा नही होगा
विनय को 1992 से जानता हूँ पर आज यह सब जानकर और समृद्ध हुआ, बोले तो बख्तियारपुर कविता की भाषा में तमीज़ है
बासिन्दा या बाशिंदा ?
संताल या संथाल ?
प्रूफ़ की गलतियाँ थोड़ी लगी
बाकी तो सहेज रहा हूँ सिर्फ इसलिये नही कि यह तुमने लिखा है अनुज या विनय पर है बल्कि इसलिये कि समालोचना क्या है, विश्लेषण क्या है और पढ़कर आत्मसात करना और व्यक्त करना क्या है मतलब Comprehension का इससे बेहतर उदाहरण नही मिल सकता इधर के युवाओं में , शेख़ीबाज और थोथी अकड़ दिखाने वाले और तथाकथित रज़ा या इलीट सर्कल के घमंडी कवियों को यह पढ़ना चाहिये ताकि उन्हें उनकी औकात भी समझ आये और लिखना पढ़ना क्या है समझ आये
खूब जीयो दोनों
उम्दा लिखा। आरम्भ में कवि पर ज्यादा लम्बी बात हो गयी है। टीन की छत पर लोक सन्दर्भों का हवाला दिया है आपने वह एक उदाहरण अक्सर देता हूँ –
गांव में खपरैल पर मखना (कोहड़ा) की बेल चढ़ी है, भादो की झिमिर झिमिर लगी है। बूंदें बड़े बड़े पत्तों पर गिर रही हैं, मैं कमरे में दोपहर को कथरी ओढ़कर सो रहा हूँ। यहां बारिश की बूंदों का जो नाद है, उसके क्या कहने।
बहुत डूबकर, बहुत विस्तार से विनय जी की कविताओं पर लिखा है। पढ़कर कविता के साथ जीवन को देखने समझने की एक नई दृष्टि भी मिलती है। बहुत अच्छा लगा आपकी विस्तृत समीक्षा पढ़कर बधाई राही भाई.
विनय सौरभ जैसा कवि विरला ही होता है। उनकी कविताओं की सबसे बड़ी खूबी यह है कि वे सरल और सहज है। भाषा को बरतने का सलीका उनसे सीखा जा सकता है। मैंने भी बख्तियारपुर पढ़ा और कई कविताओं को पढ़ते हुए आंखें नम हुई। “गरीब रिश्तेदार” कविता ने तो बहुत रुलाया।
विनय सौरभ की कविताओं में कहानियां छुपी है और यह बहुत बड़ी बात है।
राही डूमरचीर जी ने बहुत विस्तृत समीक्षा की है। उनकी समीक्षा पढ़ ऐसा प्रतीत
होता है जैसे एक बार पुनः बख्तियारपुर पढ़ लिया ।
विनय सौरभ की कविताओं पर राही की यह सुचिंतित टिप्पणी लोक और कस्बाई सीमांत पर बसे कवि की कविताई की गहरी पड़ताल करती है। इन कविताओं में संथाल परगने की संस्कृति और जीवन लय के अंतरंग पहलू हैं तो दूसरी ओर वह कस्बाई लोक भी जो तेजी से बढ़ते शहराती जीवन का लक्षण है।एक कवि अपनी काव्य चेतना में परम्परा और समकाल को किस संयम से साध पाता है यह उसका अच्छा उदाहरण है।
Vinay Saurabh जी की बख्तियारपुर को मैने पढ़ा ।कविताओं के रूप में अपने बचपन से जवानी तक की यादों को संजो दिया है उन्होंने इस किताब में । उनके हर किरदार को अपने आसपास ही पाती हूँ अक्सर ,ऐसा मुझे लगता है ।
छोटी मुँह बड़ी बात होगी इस किताब पर कुछ बोलना ।फिर भी अपने को भाग्यवान समझती हूँ 😊उन्होंने मेरी रचनाओं को पढ़कर टिप्पणी की और अपनी दोस्ती की गठरी में मुझ अकिंचन को भी स्थान दिया ।
कवि के व्यक्तित्व और परिवेश को समझते हुए, कविताओं को हृदयंगम कर, उन्हें मन-मस्तिष्क में उतारकर राही जी ने एक विशद और सार्थक समीक्षा प्रस्तुत की है। एक-एक कविता के भावों को महसूस कर,उनमें प्रतिबिंबित दृश्यों का अवलोकन कर कविताओं का पारखी दृष्टि से आकलन और सूक्ष्म विश्लेषण किया है।
रचनाकार विनय सौरभ के साथ सुकवि/समीक्षक राही डूमरचीर जी को बहुत-बहुत बधाई!
विनय सौरभ की कविताओं में एक ताजगी है,उनकी कविताओं की एक अलग बानगी है।
विनय की कविताएं अपील दायर करती प्रतीत होती हैं ।
राही डूमर चीर ने बड़ी शिद्दत से महसूस किया है इन कविताओं को।
जय हो,सदा विजय हो ।
पृथ्वी का बासिन्दा बनना एक प्रक्रिया है, जिसमें पाठक और कवि दोनों शामिल होते हैं. विशेषकर कवि की सार्थकता इस प्रक्रिया पर बहुत ज़्यादा निर्भर करती है. जैसे एक मजदूर, मजदूर होने मात्र की वजह से ही पूँजीवाद के ख़िलाफ़ नहीं होता. वैसे ही सचमुच में पृथ्वी का बासिन्दा होना भी हमारी चेतना के विकसित होने से जुड़ा होता है. इसलिए जिस तरह कवि का अपना तरीक़ा होता है, वैसे ही पाठक भी अपने तईं कविता के साथ रिश्ता कायम करता है.
बिल्कुल सही बात। एक बार कविता कारी की नज़र में आ जाती है तो कारी की हो जाती है। बहुत अच्छा लिखा है!🌸
विनय सौरभ महत्त्वपूर्ण कवि हैँ। उनका कविता संग्रह प्रशंसनीय हैे।
दूसरा पक्ष :
(सही,गलत या अच्छा,बुरा ठहराने को नहीं, सिर्फ एक दूसरा पक्ष)
सबसे पहली बात तो यह कि आलोचक और आलोच्य दोनों ही मेरे प्रिय हैं । राही को पहले मैंने कवि के रूप में जाना, बाद में आलोचक के रूप में । विनय सौरभ का कवि-रूप ही अभी तक पढ़ने को मिला है । राही डूमरचीर और विनय सौरभ के विषय में, जितना उनको पढ़ा और देखा-सुना-जाना है, विश्वास के साथ कह सकता हूँ कि दोनों के यहाँ व्यक्तित्व और लेखन में फाँक नजर नहीं आती ( इस वाक्य में ज्यादातर शब्द जोड़ देना व्यावहारिक होगा !) । यह एक दुर्लभ गुण है आज के युग में ।
राही जब भी लिखते हैं तो बहुत तैयारी के साथ, पूरे मनोयोग से और खूब विस्तार में । ‘बख्तियारपुर’ पर उनके द्वारा लिखा गया यह लेख भी वैसा ही है । और जब वे ‘बख्तियारपुर’ पर लिख रहे हैं, तब वे कविता के पूरे परिदृश्य पर भी लिख रहे हैं । जिसने भी यह लेख पढ़ा है, वह समझ सकता है । कवि विनय सौरभ और उनकी कविता के विभिन्न पहलुओं पर तो उन्होंने बातें की ही हैं । आलेख के शुरू में ही उन्होंने टेरी ईगलटन को उद्धृत किया है – “सवाल यह नहीं है कि आप पाठ को कितनी दृढ़ता से पकड़ते हैं, बल्कि यह है कि ऐसा करते समय आप खोज क्या रहे हैं।” मेरी बात भी यहीं से शुरू होती है । उसमें यह बात भी जोड़ दी जाए कि आप कहाँ से खड़े होकर देख रहे हैं, और किस तैयारी के साथ । मुझे लगता है आलेख में कही गई कुछ बातों का एक दूसरा पक्ष भी हो सकता है । कई बार स्थान थोड़ा-सा बदलने से दृश्य बदल जाता है । परिदृश्य भी ।
आलेख में राही कहते हैं – “यह एक तरह की राजनीति ही तो है, जो किसी को उसके सही नाम या उसके नाम के सही हिज्जे के साथ नहीं बुलाती और किसी के नाम को ‘जी’ लगाकर बुलाती है. किसी को पुकारने और सम्बोधित करने तक में राजनीति शामिल होती है, हमारा लहजा तक राजनीति से प्रभावित होता है. इसलिए कोई ‘लिट्टी’ हो जाता है और कोई ‘गंगेसरा’. यह एक तरह की राजनीति है कि वह बहुसंख्यकों में हीनता-बोध को रचती-पगाती है ।” जिस कविता को उन्होंने उद्धृत किया है, वह भी यही कह रही है । इस तर्क को नकारा नहीं जा सकता, लेकिन बात यह भी तो है कि नामों को इस तरह थोड़ा बिगाड़कर बोलने का चलन ( कम-से-कम बिहार, खासकर उत्तर बिहार के इलाकों में ) सहज आत्मीयता या हँसी-मजाक के कारण से भी होता रहा है । क्या यह बात सही नहीं है कि ज्यादा करेक्ट होने के चक्कर में हमारे बीच से हास-परिहास का व्यवहार खत्म होता जा रहा है ? जो एक व्यंग्य करने की या तंज़ कसने की बात थी, वो सिरे से गायब होती जा रही है । यह ठीक है कि बहुधा यह व्यंग्य क्रूर भी हो जाया करता है, लेकिन इतना तो तय है कि इस तरह से हँसी-मजाक के खत्म होते चले जाने से आदमी का हँसना- हँसाना ही खत्म हो जाएगा । इसमें खुद पर हँस लेने की सामर्थ्य भी शामिल है । आदमी के समाज से कटे-कटे रहने और समाज के बँट जाने का यह एक सबसे बड़ा कारण हो सकता है।
आजकल आदिवासी जीवन को साहित्य में बहुत प्रमुखता दी जा रही है । और यह दी भी जानी चाहिए । लेकिन हमें सजग रहना होगा । कहीं ऐसा तो नहीं कि एक नया बाजार तैयार किया जा रहा हो, जिसका दोहन अब होगा ? जिस तरह कंज़्यूमर गुड्स का बाजार पहले बड़े शहरों से शुरू होता है, फिर धीरे-धीरे दूर-दराज के इलाकों तक फैल जाता है, साहित्य भी बहुत से लोगों के लिए सिर्फ और सिर्फ व्यवसाय है, इस बात का ध्यान रखा जाना चाहिए । बाजार के संदर्भ में देखें तो संख्या के हिसाब से सबसे बड़ा वर्ग मध्यवर्ग ही है । जो मध्यवर्ग से नीचे है, वह भी चाहे-अनचाहे उसी में शामिल होता जा रहा है । ऐसे में ‘मध्यवर्गीय अनुराग’ या ‘आभिजात्यवादी सौंदर्यबोध’ को नकार देना, उसे नकारात्मक समझना या उससे बच पाना कहाँ तक संभव है ? ‘टीन की छत पर बारिश की आवाजें’ क्या आज के जमाने में भी आभिजात्य सौंदर्यबोध का द्योतक है? क्या दूसरों के अभावों से अपनी संपन्नता की तुलना करके खुश होना सिर्फ मध्यवर्ग का ही चरित्र है ? क्या सौंदर्य-मात्र ही आभिजात्य होने को इंगित नहीं करता ? क्यों, व्यक्ति चाहे किसी भी वर्ग का हो, खास मौकों पर सजना-सँवरना चाहता है ? शब्दकोश में आभिजात्य के दिए गए अर्थों में पांडित्य और सौंदर्य भी है । लोक की सौंदर्य-दृष्टि से आभिजात्यता के घेरे को तोड़ने से, हो न हो, एक अस्पृश्यता की भावना का एहसास मिलता है , किसी भी तरह की आभिजात्यता के खिलाफ । चाहे तो इसे ‘विलोम अस्पृशयता’ कह लें । वैसे भी “बजता है जलतरंग टीन की छत पे जब मोतियों जैसा जल बरसे” फिल्मी गीतों में ही ज्यादा सुहाता है । बारिश का संगीत तो खुले में, घने पेड़-पौधों-पत्तों के बीच ज्यादा सम्मोहन पैदा कर सकता है ।
“हमारी भाषा में प्रकृति के प्रति अपार अघोषित हिंसा है”, यह कथन चिंतित कर देनेवाला है । इस पर थोड़ा विचार किया जाए । प्रकृति में हर वस्तु अपनी एक उपयोगिता लिए हुए है, और उसी के अनुसार प्रकृति में संतुलन बना हुआ रहता है । ‘न रहेगा बाँस, न बजेगी बाँसुरी’ , इस कथन पर सोचने पर यह लग ही सकता है कि ‘बाँस’ बेचारा बेवजह मारा जाता है । लेकिन, वस्तुत: ऐसा है क्या ? इस कहावत में संभवत: ज्यादा जोर ‘न बजेगी बाँसुरी’ पर है । बाँस की अनुपल्बधता सिर्फ बाँस के समूल नष्ट कर दिए जाने से ही सुनिश्चित नहीं की जा सकती, और भी तरीके हो सकते हैं । फिर, यह जानी हुई बात है कि बाँस सबसे तेजी से उग आने वाली घास की प्रजाति है । गूगल पर प्राप्त जानकारी के अनुसार “बाँस एक सपुष्पक, आवृतबीजी, एक बीजपत्री पोएसी कुल का पादप है। इसके परिवार के अन्य महत्वपूर्ण सदस्य दूब, गेहूँ, मक्का, जौ और धान हैं ।” घास,गेहूँ, मक्का,जौ, धान—इन सभी की फसल को भी काटा जाता है ही । दूसरी एक बात यह भी है कि एक 18 मीटर लम्बे पेड़ को काटने पर उसका पुर्ननिर्माण होने में 30 से 60 वर्ष लग जाते है। इसकी तुलना में 18 मीटर के बाँस को 59 दिनों में वापस उगाया जा सकता है। तो, संभव है कि ‘न रहेगा बाँस’ से बाँस के काट दिए जाने की बात न हो रही हो, और यदि हो भी, तो भी बाँस कुछ ही दिनों में फिर उगाए जा सकते हैं । हाँ, इतना जरूर है कि भाषा के प्रयोग में ‘टोन’ बहुत कुछ इंगित कर जाता है । सीधी-सरल लगने वाली बात भी गाली मान ली जा सकती है, गालियों में प्रयुक्त होने वाले शब्द भी हँसी-ठट्ठा ! व्यक्ति की मंशा उसके द्वारा कहे गए शब्दों के अर्थ बदल दे सकती है । निहितार्थ भर सकती है ।
ऐसी ही बात ‘पानी पड़ जाना’, इस कहावत को लेकर भी है । पानी तो हमारे पंचतत्वों में एक है। पानी का गुण है भिगाना, शीतल कर देना, बुझा देना । पानी जीवनदायी है, तो कभी वह सजा भी दे सकता है । पानी पड़ा है अगर तो किसी न किसी प्रज्वलित चीज पर ही । प्रज्वलता आशा, सपने और उत्साह का प्रतीक है । पानी पड़ने या पानी फिर जाने से उत्साह के बुझ जाने का जो अर्थ प्रकट होता है, वह सीधे-सीधे तथ्यात्मक वाक्यों से तो नहीं हो सकता है । कविता पढ़ते समय अगर यह प्रतीत हो कि इसकी कोई उक्ति जबरन अपनी बात सिद्ध करने के लिए, किसी को नीचा दिखाने के लिए आई है, तब हम जरूर कहें कि कवि ने भाषा का दुरुपयोग किया है । कवि तो अपनी चेतना के स्तर से, अपने मनोभावों की भूमि पर खड़ा होकर बात करता है । अगर वह अपने उद्गारों के प्रति ज्यादा ही सतर्क होने लगे तो भाषा में कृत्रिमता आने का खतरा रहेगा । कवि का पॉलिटिकली करेक्ट होना कितना आवश्यक है, और यह कितना संभव हो सकता है ? भाषा के प्रयोग के द्वारा हिंसा न हो जाए, यदि इस बात पर बहुत ही ज्यादा जोर दिया जाने लगे, तब तो हमारे जीवन की बहुत सारी बातों में- खाने-पीने से लेकर पहनने-ओढ़ने, बातचीत से लेकर उठने-बैठने में – हमें यह खटका लगा रहेगा कि कुछ गलत न हो जाए । यहाँ यह भी कहा जा सकता है कि भाषा क्या है, अभिव्यक्ति का साधन और साहित्य या कविता जीवन की अभिव्यक्ति। जीवन में जो कुछ है, उसकी अभिव्यक्ति होगी, और उस अभिव्यक्ति का माध्यम है भाषा । भाषा से हटाने से पहले किसी भी बात को जीवन से हटाना होगा । कवियों को ज्यादा कड़ाई वाली नजरों से देखने का एक मतलब तो यह है कि हमें उनसे सर्वोत्तम की अपेक्षा है, अत: उनकी छोटी-से-छोटी कमी भी सुधारे जाने का प्रयास हर स्तर पर हो । दूसरी बात यह भी है कि हो सकता है हम उनके यानी कवियों के प्रति थोड़ा अनुदार भी हो रहे हों ।
अपने बहुचर्चित निबंध ‘कविता क्या है?’ में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल कहते हैं कि मनुष्य जिस अवस्था में अपने आपको भूलकर विशुद्ध अनुभूति मात्र रह जाता है, उस अवस्था को प्राप्त करने के लिए मनुष्य की वाणी जो शब्द-विधान करती आई है, उसे कविता कहते हैं । यानी कविता प्रथमत: और अन्तत: अनुभूति ही है । हर कवि अपनी कविता में अनुभूति को ही पकड़ना चाहता है । कविता अनुभूत किए जाने की चीज है, यदि यह नहीं सधे, तो बस शब्दों का खेल बचता है। और यह जो अनुभूति है वह सार्वभौमिक है, वह यक्ति-विशेष की नहीं, मनुष्य-मात्र की है । उसका प्रकट होना हर कवि के यहाँ देश-काल-संदर्भ-सापेक्ष है । अनुभूति वही है, प्रकटीकरण भिन्न-भिन्न। नीचे तीन कविताओं के उद्धरण दिए गए हैं । कवियों के नाम बाद में बताए जाएँगे । हम यह देखें कि क्या तीनों कवि एक-सी संवेदना को ही शब्द नहीं दे रहे । अलग-अलग बैकग्राउंड से आए कवि क्या एक ही अनुभूति तक पाठक को नहीं ले जा रहे? –
“ अब जिसकी छत है
पतंग भी उसी की है” [1]
“ जिसके पास चली गई मेरी ज़मीन
उसी के पास अब मेरी
बारिश भी चली गई” [2]
“ बोलते हैं लोग केवल बोलने के लिए
लड़ रहे हैं आदिवासी
अघोषित उलगुलान में
कट रहे हैं वृक्ष
माफियाओं की कुल्हाड़ी से और
बढ़ रहे हैं कंक्रीटों के जंगल से
दांडू जाए तो कहाँ जाए
कटते जंगल में
या बढ़ते जंगल में?” [3]
कवि हैं क्रमश: विनय सौरभ[1], नरेश सक्सेना[2] और अनुज लुगुन[3] ।
कविता की जमीन को समझने के लिए कवि की जमीन को भी समझना होगा । कई बार रंग-रूप और स्वाद अलग होने के बाद भी तासीर एक-सी हो सकती है । कवि की जमीन के साथ-साथ पाठक की मनोभूमि को भी जोड़ देना चाहिए । कोई भी रचना पाठक के मर्म-स्थल तक पहुँच कर ही पूरी होती है । कविता को चेतना के किस स्तर से, किस मनोभूमि पर खड़ा होकर और किस तैयारी के साथ देखा जा रहा है, ग्रहण किया जा रहा है, कविता का अर्थ इस पर भी निर्भर करता है । कविता, कवि और पाठक दोनों के लिए ‘स्वांत: सुखाय’ होनी चाहिए । राही डूमरचीर का यह आलेख भी इस बात का साक्षी है ।