“Poetry is the mother-tongue of the human race.”
समकालीन कविता पर केंद्रित ‘मैं और मेरी कविताएँ’ के अंतर्गत आपने निम्न कवियों की कविताएं पढ़ीं और जाना कि वे कविताएं क्यों लिखते हैं.-आशुतोष दुबे/ अनिरुद्ध उमट/ रुस्तम/ कृष्ण कल्पित/ अम्बर पाण्डेय/ संजय कुंदन/ तेजी ग्रोवर/ लवली गोस्वामी / अनुराधा सिंह/ बाबुषा कोहली/सविता सिंहअब इस श्रृंखला में पढ़ते हैं विनोद दास को.
मैं कविता क्यों लिखता हूँ ?
|
”उठो लाल अब आँखें खोलो, पानी लायी हूँ मुंह धो लो.”
जब माध्यमिक में आया तो दो कविताएँ गुनगुनाता था. जिस कविता को गाते हुए जोश से भर जाता था, वह थी खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी और दूसरी कविता थी “सारे जहाँ से अच्छा हिन्दुस्तां हमारा.” कुछ बड़ा हुआ तो घर की लाइब्रेरी में जयशंकर प्रसाद की एक पतली सी किताब “आंसू “हाथ में आ गयी. तत्सम शब्दों की मीठी ध्वनि और निर्झर की तरह बहती भाषा के मोह में मैं उसकी विरह वेदना में ऐसा डूबता-उतराता जैसे मैं ही उसका भुक्तभोगी हूँ. दिलचस्प यह था कि न तो मैं उन पंक्तियों का अर्थ समझता था और न ही प्रेम या विरह नामक किसी चिड़िया से मेरा परिचय था. जब किशोरावस्था में निराला की “वह तोड़ती पत्थर इलाहाबाद के पथ पर” पढ़ी तो पहली बार लगा कि इसमें जो चित्र खींचा गया है, उसे मैंने देखा. लेकिन कभी इसके पहले इस तरह नहीं देखा था. निराला जी ने पहली बार जीवन में देखी हुई चीज़ को देखना और पहचानना सिखाया. कविता में सौन्दर्य, जिजीविषा और संघर्ष को नये सिरे से देखने का यह मेरे लिए एक पहला झरोखा था.
उसके बाद कविताओं को पढ़ने लगा लेकिन कविता सृजन का दरवाज़ा अभी तक मेरे लिए नहीं खुला था. मैं कथा प्रेम में गिरफ्तार था. बांग्ला कथा की तर्ज़ पर आसपास के चरित्रों पर केन्द्रित दो-तीन कहानियाँ लिख ली थीं लेकिन उन्हें प्रकाशित नहीं कराया था. सारिका पत्रिका की कहानियों के यथार्थ बोध ने बांग्ला कहानियों के रोमान और किस्सागोई को पृष्ठ भूमि में डाल दिया,. आपात काल का मन पर गहरा असर पड़ा और पहली कहानी “सौदा” उसी यंत्रणा पर लिखी और प्रकाशित हुई. लेकिन अभी तक कविता सृजन का कोई अंकुर नहीं उगा था.
दरअसल मैंने कविता लिखना उस उम्र में शुरू किया जब कवियों के एक दो काव्य संग्रह प्रकाशित हो जाते हैं. जहाँ तक कविता लिखने की बात है, शायद 1980-81 से छिटपुट कवितानुमा कुछ लिखने लगा था जिसमें भावावेग की ज्यादा भूमिका होती. कुछ छपीं भी लेकिन अपूर्णता की कील भीतर चुभती रहती. दरअसल मुझे अपनी हर कविता अक्सर अपूर्ण लगती है. पूरी तरह से तैयार उत्पाद जैसी कविता मुझे आकर्षित नहीं करती. यह अकारण नहीं है कि अपनी कविताओं को लिखने के बाद मैं उसे पढ़ने से बचता हूँ. जब भी मैं दुबारा पढ़ ता हूँ, उसमें जीवन की तरह कुछ नया जोड़-घटाव करने की विकलता से ग्रस्त हो जाता हूँ. यही कारण है कि मैं कविता लिखते ही किसी संपादक को कविताएँ भेजकर भूल जाता हूँ ताकि कविता में बदलाव के लिए कम से कम अवसर रहे. जहाँ तक अपनी कविता के स्रोतों की बात है, अपने आसपास की वस्तुएं, जीवन दृश्य या कोई चरित्र या कोई आख्यान मुझे कविता की और जाने के लिए जाने संकेत देते रहते हैं लेकिन अक्सर मैं अपने कुछ स्वभाव या कुछ आलस्य से उनसे संवाद करना मुल्तवी करता रहता हूँ.
अगर वह कुछ समय की दूरी को लांघकर रच पककर मुझे परेशान करती रही तो मैं उसे कागज पर उतार लेता हूँ. मुझे वह एक ऐसी सृष्टि लगती है जो इस संसार से जुड़ी होकर भी इससे अलग होती है. जब मैं कविता रचने की प्रक्रिया में होता हूँ तो मेरे परिजन समझ जाते है कि मैं इस दुनिया में नहीं, किसी और दुनिया में विचरण कर रहा हूँ. इस हालत में मुझे कुछ सुनायी नहीं देता. मैं किसी से बात नहीं करता. उस समय कविता मुझे एक ऐसा लोकतंत्र लगता है जहाँ में निर्भय होकर बोल सकता हूँ. तानाशाह को ललकार सकता हूँ, उत्पीड़ित के साथ रो सकता हूँ. किसी प्रिय के कान में कुछ फुसफुसा सकता हूँ. किसी भी निर्जीव वस्तु से गप्प मार सकता हूँ. बस कविता का यही गुण मुझे अपनी तरफ़ बुलाता है. इसके लिए मुझे कोई बड़े तामझाम की जरूरत नहीं पड़ती.
कलम क़ागज काफी है. विश्व के अनेक कवियों के पास तो क़ागज भी नहीं था तो उन्होंने जेल में सिगरेट की डिब्बियों पर कविताएँ लिखी हैं. कई बार ऐसे वक्फे आते हैं जब कुछ भी लिखते नहीं बनता. कविता मेरे लिए मांग और आपूर्ति की तरह नहीं है जो बाज़ार की जरूरत के अनुरूप रची जा सकती है. तमाम पेशेवर लोग करते हैं और कविता खो देते हैं. मेरी कविता की कमी यही है कि वह योजनाबद्ध तरीके से नहीं लिखी जाती. शायद कई दौर में अनुभव रचना में बदलने में कुछ समय लेते हैं. हालांकि उस दौर में भी कुछ रचने की प्रक्रिया में होता हूँ. रचना एक सतत कार्रवाई हैं. रचना करना जितना बड़ा सुख है उतना ही त्रास दायक भी. फिर भी उसी में रत रहता हूँ. चाहे कविता बने या न बने.
विनोद दास : क वि ता एँ |
१.
अनकही कथा
सब्ज़ी की दुकान पर
चिकने सुंदर बैंगन देखकर
उसके मन में उठती है भाप की तरह
माँ की थाली की याद
जहाँ से आने के बाद धुंधला हो गया है
उसकी वापसी का रास्ता
वह उस घर की एक भूली हुई संतान है
सिर्फ़ सावन में जिसकी आती है याद
जैसे पितृपक्ष में याद आते हैं
विस्मृत पूर्वज साल में एक बार
वह एक सुंदर बैगन उठाती है
प्यार से छूती-सहलाती है
फिर बुदबुदाती है “बैंगन सस्ते हैं”
लेकिन उन्हें नापसंद हैं
फिर गिरा देती है चुपके से टोकरी में वापस
जैसे गिरा देती है उसकी इच्छा पर
अपना नवजात गर्भ
उसका हृदय
उसकी ध्वस्त इच्छाओं का मलबा है
आँखें सूनी खामोश गुफाएं हैं
पुत्री जनने के लिए
वह उसके झूठे कलंक का सामाजिक उपहास है
वह उसकी उपेक्षा का खिलौना है
उसकी झिड़की का है गुप्तकोष
नशे में धुत आदमी की
वह हिंसा का करुण स्मारक है
रति क्रिया की अपनी अतृप्ति में
वह उसकी दुर्बलता का
खुफिया राज़ है
यह उसकी अनकही कथा है
जिसकी अनुपस्थिति में भी
उसके मन पर चढ़ी रहती है उसकी सांकल
वह उससे डरती है
जैसे तिलचट्टे से डरती है
जैसे छिपकली से डरती है
जैसे सांप से डरती है
वह उसकी उपस्थिति में डरती है
वह उसकी अनुपस्थिति में भी डरती है
शौच में भी मंडराता रहता है उसका भय
जल्दी- जल्दी निबटती है
कहीं वह भड़क न जाएँ
खाने में देर होने पर
कभी वह एक प्रेत लगता है
जो हर क्षण उसका पीछा करता रहता है
कभी लगता है कोई ख़ुफ़िया जासूस
जो खंगालता रहता है निजी सामानों के बीच
उसका अतीत
उसका कोई पुराना प्रेम पत्र
किसी पुरुष मित्र के साथ उसकी तस्वीर
अपने अपराधों के लिए
वह खुद बन जाता है न्यायाधीश
उसके शब्दकोश में क्षमा शब्द रहता है हमेशा गूंगा
और प्रशंसा खर्च होती रहती है बेहिसाब
दूसरी स्त्रियों के लिए
फिर भी उसकी दीर्घायु के लिए
वह रखती है भूखी प्यासी रहकर निर्जल व्रत
जो उसके रोमांचित शरीर के संगीत से बेखबर
हर रात सोता है उसके निकट
खर्राटे भरती एक लाश की तरह.
(2)
यातना गृह
स्मृतियों की राख के साथ
वे अभी भी वहां रहते हैं
एक नाजायज़ संतान की तरह
जहां चिनार की पत्तियों से हरी हवा नहीं
बहती है बारूद की गंध
रस्ते में हिलते मुस्कराते हाथ नहीं,
रेत की बोरियों के पीछे से स्वागत करती हैं
बन्दूक की नलियां
भारी बूट खटखटाते हैं दरवाज़ा
और घर से ग़ायब हो जाता है
एक बिस्तर
हमेशा के लिए
यह वह ठिकाना नहीं है
जहाँ ग़ायब हुई चीज़ें मिल ही जाती हैं
कहीं न कहीं देर सबेर
यहां मिलता है
उनका टूटा हुआ चश्मा
खून से सना ऊनी स्वेटर
सिगरेट के जलते दाग़ों से सजी लाश
उसके उखड़े नाखून
फटी हुई गुदा
यातनाएं कभी चटपटे किस्सों की तरह
हुंकारी भरकर नहीं सुनी जा सकती
उसे खून के आंसुओं के साथ रोया जाता है
इश्क़
यहाँ नाज़नीन
मर्द से नहीं, कफ़न से करती हैं
जब वह आशिक़ से मिलती हैं गले
तो उन्हें लगता है कि कब्र पर
सिर रखकर रो रहीं हैं
वे अपनी खिड़कियों से देखती हैं
अपने दरवाज़े से गुज़रता हुआ जनाज़ा
जो जनाज़ा कम
इन्कलाबी जुलूस लगता है ज़्यादा
ईंट भट्ठे से उठते हुए धुएं की तरह
वहां रुंधे हुए गले से निकलते हैं नारे
आज़ादी आज़ादी आज़ादी
जो बुलेट प्रूफ दिलों तक नहीं पहुंचते
आज़ादी
उनके लिए महज़ एक लफ्ज़ नहीं है
न ही कोई रूमानी ज़ज़्बा
यह बारूद के बिछे तारों के नीचे
छिपा एक स्वप्न है
जिस पर पांव रखते ही उड़ जाते हैं
उनके परखच्चे
आपको बताने से क्या फर्क पड़ेगा
इस समय आप देख रहे होंगे
टीवी पर देश को तोड़नेवाली तक़रीर
फिर भी बताना मेरा धर्म है
यहाँ लोग काले कहवे में डुबोकर खाते है
हर सुबह दुःख की डबलरोटी
खाली कटोरे के साथ
मस्जिद के सामने हिजाब पहने बैठी एक खातून
ऊपरवाले से मांग रही है
रहमो करम की दुआ
झील के झिलमिल पानी में
सजे-धजे शिकारे
नवागत वधू की उतराई हुई लाश की तरह
खड़े हैं ख़ामोश
भूखे टट्टुओं की करुण हिनहिनाहट से
विलखती रहती है हरी -भरी घाटी
एक विधवा की तरह
मोबाइल की कॉलर ट्यून सुनने के लिए
तरस रहे हैं टैक्सी ड्राईवरों के कान
ये वादियां ये फिजाएं
बुला रहीं हैं हमें
आपके पास पुरानी तस्वीर है न वहां की
जिसमें आपकी फुंदेवाली लाल टोपी पर चमक रही थी
बर्फ़ के नन्हें नन्हें कण
जगमग करते सितारों की तरह
और वह दूसरी फोटो
जो आपके बटुए में रहती है हमेशा मौजूद
जिसमें मुस्कराती हुई आपकी मोहतरमा की गोद में
दुबका दिखता है
उसी ज़न्नत का एक मासूम छौना
वही जन्नत जहां आप तफ़रीह के लिए गए थे
आज कोमा के मूर्छित मरीज़ सी कराहती है
सांस लेती है
खाती है
धडकता है रहता उसका दिल
सिर्फ मौत का इंतज़ार करते हुए
जीना एक जिंदा लाश की तरह
खाना सोना हगना भर नहीं है
यह दस्तरखान पर चुहल करते हुए
एक दूसरे को रकाबी देकर खाने के लिए मनुहार करना भी है
वहां से आती रहती है
आतंकियों के मारे जाने की ख़बर
ट्रकों से भर कर आते रहते हैं सुंदर सेब
हम कुतरते हैं
वाह ! कितने लज़ीज़ हैं
अरे! रसीले और मीठे भी हैं
सिर्फ़ उसके गूदे में
कुछ खून सा चमकता है.
(3)
बलात्कृत का हलफ़नामा
नहीं, नहीं, बिल्कुल नहीं
इस समय मैं कतई नहीं रोऊँगी
आंसू बहाकर मैं भीगी माचिस नहीं बनना चाहती
अपनी बेतरतीबवार ज़िन्दगी की तरह
मैं कुछ बेतरतीबवार बताना चाहती हूँ
प्यार से नहीं भूल से पैदा हुई संतान के लिए
खतरा अधिकतर आसपास होता है
और इसकी शुरुआत
बहुत पहले मेरे घर से ही हो चुकी थी
अक्षर ज्ञान के पहले से ही
मैं पढ़ने लगी थी नेत्रहीनों की तरह कामातुर स्पर्श
जब मामा चाचा सौतले भाई
रिश्तों की आड़ में बन जाते थे मर्द
जलेबी, लेमनचूस या अँधेरे के खेलों के खतरों का
मुझे तो क्या
मेरी मां को भी तब तक पता न चलता
जब तक उल्टियां नहीं होतीं
या खून से लथपथ नहीं मिलता मेरा अंतर्वस्त्र
क्या यह वासना थी
वासना क्या होती है
इतनी अल्पायु में
भला मैं क्या जानती
जैसे नहीं जानती थी वह पागल स्त्री
जो उभरे बड़े पेट के साथ देश के हर शहर में
किसी चौराहे के पास जूठे पत्तल चाटती हुई मिल ही जाती है
बस ! जब वे छूते
तो लगता कि कोई छिपकली
मेरे अंगों पर रेंग रही है
नितंबों पर चिकोटियां काट रही हैं चींटियाँ
बस-ट्रेन की भीड़ में
मेले-बाज़ार की धक्का मुक्की में
वे बिलबिलाते तिल चट्टे की तरह मुझे छूते
छूते सरसराते केंचुएं की तरह
बलात्कार
सिर्फ़ लिंग से ही नहीं होते
आँखों से भी होते
सृष्टि में सबसे अधिक बलात्कार
कल्पना में होते
इनके अनंत चेहरे थे
कोई गणित ट्यूटर के वेश में आता
अकवार के बहाने नोचने लगता वक्ष
तो कोई संगीत गुरु तबले की तरह
बजाने लगता मेरी देह
कोई तरक्की का झांसा देकर
केबिन में चबा लेता होंठ
कोई अभिनेत्री बनाने की लालच देकर
खेलता देह-प्रेम का खेल
बाबा-फ़कीरों की बात ही अलग थी
संतान सुख देने के बहाने
उतार देता था अंग से पूरे वस्त्र
शौहर के बारे में मैं कुछ नहीं कहूँगी
अवमानना का मुकदमा चल जाएगा मुझ पर
न्यायालय भी देता है शौहर को बलात्कार की छूट
जलती सिगरेट के दाग की तरह
मेरी आत्मा पर हैं इनके दंश के इतने पक्के निशान
जो अंतिम समय मेरी अस्थियों के साथ जायेंगे
गरीब-दलित सखियों के बारे में क्या कहूँ
काँपता है कलेजा
ये सखियाँ ऊँची जातियों के लिए नाबदान हैं
फिर भी आम की मुफ़्त चटनी से भी ज्यादा
उन्हें लगती हैं इनकी देह चटपटी
होती है खेत-खलिहान में रौंदने के लिए केलि बिस्तर
ना-नुकुर या चूं-चरा करने पर
बन जाती है उनके प्रतिशोध का सामान
आपके किताबी लफ्ज़ों में कहूं
तो इनकी खामोश चीखों से
लिखा जाता है उनके वर्चस्व और पौरुष का इतिहास
गाय से भी कम है
इनका महत्व
वह चाहे घर में झाड़ू-पोछा करती छमिया हो
या फसल काटती धनिया हो
इनकी शिकायत
अक्सर थाने के बाहर छटपटाकर तोड़ देती दम
हुज्जत करने पर
लॉकअप में पिटते है नाते रिश्तेदार
मंद-मंद घिनौनी मुस्कान के साथ
कचहरी में पूछते वकील-जज ऐसे घृणित सवाल
गोया भरी सभा में आईने के सामने
फिर से किया जा रहा हो
शाब्दिक बलात्कार
कोई इन कुलिच्छनों के साथ नहीं आता
ना पंचायत ना राजनीतिक दल
इनके लिए राजधानी की सड़कों पर
कोई मोमबत्ती मार्च भी नहीं निकालता
टीवी अखबार के संवाददाता
महामहिम या अभिनेता के फ़ोटो शूट में रहते व्यस्त
वे सांसद भी रहतीं चुप
जो संसद में छाती पीटती थी
एक गर्भवती हथिनी के मरने पर
मैं आपको कुछ-कुछ समझने लगी हूँ
आप केवल देखना चाहते हैं
मेरी आँखों में
डर का काँपता पानी
मेरी आजादी
आपके डर के भीतर कैद है
चाहे मेरी पोशाक हो या नौकरी
या हो स्कूल का बस्ता
मन से शादी
या प्रेम का जिक्र करना
तो मेरे लिए कुफ़्र है
इसके लिए आपकी पंचायतें बांटती ही रहती हैं
चरित्रहीनता का प्रमाणपत्र
मैं जानती हूँ
शौचालय में मेरी गंदी-गंदी तस्वीर बनाकर
गंदी-गंदी गालियाँ नवाज़कर
तोड़ना चाहते हैं आप
मेरा मनोबल
अब मैं इस डर के पार चली गयी हूँ
वैसे भी आपकी नज़रों में हो गयी हूँ अशुद्ध
हालांकि ऐसी पवित्रता पर मैं थूकती हूँ
दरअसल मेरी योनि
मेरी देह का सबसे पवित्र अंग है
हर माह रक्तस्नान से होता रहता है पवित्र
जहाँ से हुआ है
इस पृथ्वी पर तुम्हारा जन्म
मेरी मौत की प्रतीक्षा करना बेकार है
जीवन बहुत सुंदर है
मोबाइल के अश्लील विडिओ से बनी
आपकी घटिया सोच के लिए
गले में दुपट्टा बांधकर नहीं दूँगी अपनी जान
हाँ ! आपके लिए एक और आखिरी बात
मेरा मन एक किले जैसा दुर्भेद्य है
जो किसी भी आक्रमण से नहीं जीता जा सकता
लेकिन मासूम है इतना
कि एक सुन्दर फूल पेश करने पर भी हार देता है
अपना सर्वस्व.
(4)
देश
वह इसके बारे में कुछ ज़्यादा नहीं जानता
कील पर घूमते हुए ग्लोब पर तो क्या
उसने इसे कभी कागज़ के नक़्शे पर भी नहीं देखा
देश के बारे में इसकी समझ
सिर्फ़ आठ किलोमीटर है
जहाँ से आयी एक स्त्री
गीली लकड़ियाँ फूंक-फूंक कर
उसे आलू चोखा और गर्म भात खिलाती है
बताने की जरूरत नहीं
कि देश उसके लिए सिर्फ़ बेदखली है
सिर छिपाने के लिए
चाहे रेल पटरी के किनारे नीले मोमजामे की छत हों
या हों शहर में आवारा बिखरे सीमेंट पाइप
घर के लिए
इस महादेश में कोई ऐसी जगह नहीं
जिसके पक्के कागज़ उसके पास हों
वह कभी नहीं करता देशप्रेम की चर्चा
यह उसके लिए शोक की घड़ी है
बस हो जाता है वह
गुमसुम और ख़ामोश
उसके डबडबाते आंसुओं में झिलमिलाने लगता है
वह शांत निस्तेज चेहरा
जो राष्ट्रीय ध्वज में लिपटा
सरहद से उसके घर लौटा था
देशप्रेम उसके लिए खेल भी नहीं है
वह कई दफ़े उनसे करता है ईर्ष्या
जो क्रिकेट मैच में
चेहरे पर राष्ट्रीय ध्वज बनाकर
जयघोष से भर देते हैं आकाश
टीवी एंकरों की बहसों में
इन दिनों बेतरह आता है यह शब्द
सबका बढ़ जाता है रक्तचाप
खौलने लगता है खून
आँखों के सामने तैरने लगते हैं
काल्पनिक दुश्मनों के कटे हुए सिर
इसे बुरा सपना समझने की भूल मत करें
यह एंकर विषैले वायरस से भी अधिक खतरनाक है
यह दुष्ट आपके पड़ोसी से बोलचाल बंद करा सकता है
घर में दीवाल खडी करा सकता है
शहर में दंगा करा सकता है
फ़िज़ूल की लंतरानियों की ओट में
आपकी तकलीफ और अन्याय छिपा सकता है.
इससे बचना होगा उसे महामारी की तरह
टमाटर की अपनी फसल सड़कों पर भी फेंककर
उसे जीना होगा
अगले बरस कपास के सुंदर फूल देखने की लालच में
पोटाश खाने से उसे बचना होगा
“देश खतरे में है” सुनकर
उसे समझना होगा
यह और कुछ नहीं
सिर्फ़ उसकी गरीब ज़ेब काटकर
विदेशों से महंगे हथियार खरीदने की तैयारी है
उसके लिए कहना मुश्किल है
विकास एक सुंदर फंतासी है
या है एक ऐसी सड़क
जिसके रास्ते में कभी नहीं आता है उसका घर
इसके नेपथ्य में बिकता है
हमारा पानी-खनिज
रेल या हवाई अड्डा
चंद अमीरों को
यह क्यों होता है
यह सवाल पूछना यहाँ ज़ुर्म है
इस पर फ़िलहाल मैं कुछ नहीं कहना चाहता हूँ
अगर आपको मुझ पर शक है
मेरे साथ उन कैदखानों में आइए
जहाँ सवाल पूछनेवाले बंद हैं
साधो ! आपको ग़लत लग सकता है
लेकिन सच तो यही है
नकली देश प्रेम अफीम सा नशा है
दिमाग़ बन जाता है इसका गुलाम
क्या उसे पता है
जब तक उतरेगा यह सम्मोहक नशा
अंधे न्याय की कलम से
तब तक उसका कच्चा घर ढह चुका होगा
पूरी तरह से.
(5)
कुजात
आप हमें झट पहचान लेते हैं
अपने ब्रहमभोज में
पूड़ी-बूंदी के इंतज़ार में जमीन पर बिछे हम पत्तल हैं
परदेस में काम खोजते छूछे हाथ हैं
ईंटों का तकिया लगाये हुए
सदियों से चली आ रहीं आपकी हम दुत्कार हैं
हम प्रेम की शाश्वत भूख हैं
और आप
घृणा के आदि वंशज हैं
आपकी घृणा
हमारी रुलाई में नमक की तरह छिपी रहती है
और हमारे रक्त में घुलती रहती है धीरे-धीरे
आपके महादेश में
हमारी नागरिकता संविधान के बाहर है
मंदिर के बाहर पड़े जूतों की तरह
अपनी पीठ पर चावल की बोरी लादे
मैं भूखा चलता वह शख्स हूँ
जिसका नाम विकृत करके हँसना
आपका निःशुल्क मनोरंजन है
हमारा जन्म ही निर्वासन है
गाँव के किसी संकरे-गंधाते कोने में
और मृत्यु एक अदृश्य हत्या
जिसकी कभी कोई रपट थाने में नहीं लिखी जाती
हमारी टूटी छत से
होती रहती है दिन-रात घिन की बारिश
उठती रहती है उजड़े घर से
दुख के कीचड़ में गूंथी हुई सिसकियाँ
कौन लिखता है
हमारी नृशंस इबारत
एक जर्जर संस्कृत की किताब या वह पाखंड़ी सूत की डोरी
फ़ारिग होने के समय
जिसे कान पर चढ़ाने से हो जाता है पवित्र
आपकी आखेटक आँखें
हमारे बॉस मारते घरों में खिले फूलों की ताक़ में रहती हैं
और आपका बेगार न करने पर
खेतों में पड़ी उनकी लाशों के नाखूनों में
आपकी देह से नोची त्वचा मिलती है
ओह आपको मितली आती है
जब घूरे पर हमारे नंग धड़ंग बच्चे
सूअरों से लड़ झगड़ कर हगते हैं
और टूटी खात की आड़ में घर के सामने
हमारी औरतें पेटीकोट उठाकर लघु शंका करती है.
अच्छा आप नजर फेर लेते हैं
जब गंदगी के ढेर से मक्खियाँ उड़ाकर
उठा लेते हैं हम खाने का कोई फेंका हुआ टुकड़ा
और आपको कोटिशः धन्यवाद देते हैं
आशा की मैली लालटेन की रोशनी में
कबीर रैदास के साथ जब हम रोते गाते हैं
सहसा गुर्राने लगते हैं महाकवि तुलसीदास
पूजहू विप्र सकल गुण हीना शुद्र न पूजहू वेद प्रवीना
तब आती है प्रेमचंद की कलम
उनके फटे जूतों के साथ
आप नाराज़ हो गये न
हमारे सरकारी आरक्षण से आपका मुंह वैसे ही सूजा रहता है
गोया किसी जहरीले ततैये ने आपको काट लिया हो
हमारे लिए तमाम गालियाँ
आपकी ज़बान से गू की तरह बरसती रहती ही हैं
जबकि हमारी नौकरी की अर्जियां
अक्सर आपकी फाइल में दबी रहती हैं
फिर रद्द कर दी जाती हैं
योग्य पात्र न मिलने का बहाना बनाकर
इतिहास के नए व्याकरण में
हम हाशियाँ हैं
फिर भी हमारे गरीबखाने पर आते हैं जन प्रभु
अपने लाव लश्कर के साथ
खुले जख्म पर भिनभिनाती मक्खियों की तरह
धोते हैं साबुन से धुले हमारे पांव
खाते हैं हमारी रसोई में बैठकर खाना
अनगिनत कैमरे खींचते हैं हमारी तस्वीर
एक क्रूर प्रहसन की तरह
सांस लेना ही ज़िन्दगी नहीं है
यह बोलते समय भर्रा जाती है हमारी आवाज़
फटे तबले की तरह
गहरी नींद से जगी आँखें देख रही हैं
छल बल का साज़
हमारा वोट अमीरों का राज़
हमारे दुखों की बढ़ती जा रही हैं झुर्रियां
हमारी नसों में भरता जा रहा है क्रोध का बारूद
सावधान यह कभी भी फट सकता है
मानव बम की तरह
(6)
ख़ुदकुशी
यह पंखों से लटकी हुई पतली गर्दन
ट्रेन पटरियों पर बिखरी क्षत-विक्षत देह
ऊँची इमारत से गिरकर तरबूज़ सा फटा सिर
कीटनाशक पीकर नीली हुई लाश
या ब्लेड से कटी हुई हाथ की कोमल कलाइयां
पुलिस अपनी प्राथमिकी में चाहे जो कुछ भी लिख ले
मैं इन्हें ख़ुदकुशी मानने को हर्गिज़ तैयार नहीं हूँ.
आप बिलकुल सही समझ रहे हैं
यह सौ फीसदी हत्या है
हालांकि यह अपनी तरह से मृतक का प्रतिरोध है
इस बर्बर दुनिया की यातना के खिलाफ़
सफ़ेद कफ़न पहनकर
वे कायर थे
या दिमागी तौर से बीमार
यह कहना उनका अपमान होगा
जिंदगी विकल्पहीन है
हर कोई जिंदगी जीना चाहता है भरपूर
वह आदमी हो
मछली हो या तिल चट्टा
जीने के लिए आदमी भीख मांगता है
मंदिर मस्जिद में प्रार्थनाएं करता है
ढ़ोंगी बाबा फ़कीरों के चरण चूमता है
गुलाम बनकर अपने आतताइयों की जी हजूरी करता है
इलाज़ के लिए घरबार बेचकर
डॉक्टर से जिंदगी के लिए गिड़गिड़ाता है
गुंडे के कट्टे की डर की छाया में जी लेता है
अपना एक गुर्दा बेच देता है
अपनी जान बचाने के लिए
दूसरे आदमी की हत्या तक कर देता है
एक अरब से ज़्यादा की आबादी में
दरअसल उनके लिए न कोई कंधा था
न ही आगे बढ़ा कोई हाथ
आशा भी छोड़ चुकी थी साथ
वे अपने दुःख में इतने अकेले, पराजित और कातर थे
कि जिंदगी की अंतिम गली में
सिर्फ़ उनके पास बचने के लिए मृत्यु की बस थी
वे बच सकते थे
जैसे बच जाती है प्रदूषित हवा में थोड़ी सी ऑक्सीजन
जैसे बच जाता है दवा के बिना सरकारी अस्पताल में मरीज़
जैसे पेट पर लात मारने पर भी बच जाती है
गर्भ में लड़की
जैसे दुःख के अंतरिक्ष में बच जाता है गर्म आंसू
फर्श की पतली दरारों में चीटियों की तरह
वे इस बेरहम दुनिया में गुज़र बसर कर लेते
अगर उनके काम मांगते हाथ दुरदुराये नहीं जाते
गोत्र के चाक़ू से उनके प्रणय की कलाइयां चीरी नहीं जातीं
कर्ज़ से लदे किसानों से बैंक यदि उसी भाषा में करता बात
जो उन्हें समझ में आती
बहू लक्ष्मी होती और मोटर साइकिल की फरमाइश पूरी न होने पर
उसकी पीठ जलते चिमटे से दागी न जाती
हाँ ! स्थानीय अख़बार के किसी कोने में छपी इस खबर पर
कुछ दिन कोहराम होगा
कुछ दिन उनकी छोड़ी हुई दुनिया याद आयेगी
याद आयेगी कुछ दिन उनकी खुरपी, कंघी, सुरती की डिबिया
याद आएगा उनका चारखाने वाला लाल गमछा-घिसे तल्लेवाला जूता
याद आयेगा छींटों वाला उसका दुपट्टा
गत्ते के डिब्बे में रखी गुलाबी चूड़ियाँ
संदूक में तहायी हुई सुहाग की साड़ी
कॉपी में रखे गुलाब के सूखे फूल
कुछ दिन धुंधले समूह फोटो में पहचाना जाता रहेगा
जबरन मुस्कराता उनका उदास चेहरा
फिर सब उसी तरह चलने लगेगा
एक किशोरी रच रही होगी
गदोलियों में बेलबूटों वाली मेंहदी
एक युवक भर रहा होगा नौकरी का आवेदन पत्र
किसान ला रहा होगा मंडी से नए बीटी बीज
अभिसार की तैयारी के लिए
एक नव विवाहिता काढ रही होगी अपने लंबे उलझे केश
नही होगा तो बस ! किसी के अंत:करण में
थोड़ी सी ग्लानि न ही कोई अपराध बोध
न ही होगा कोई क्षोभ
न कोई प्रायश्चित
न ही संताप
दुनिया बदलने की बात तो एकदम न होगी
इसी तरह
खुदकुशी के नाम पर
हर दिन हम मारे जाते रहेंगे धीरे-धीरे
और हमें पता तक नहीं चलेगा
क्या सोचा होगा
उसने अपने अंतिम क्षण में
मैं नहीं जानता
लेकिन मैं सोचता हूँ
कब तक इसी तरह जिंदगी बनी रहेगी प्रतीक्षालय
हमारी स्थगित हत्या के लिए.
(7)
दूसरी दुनिया
क्या बजा है
उसने हमसफर से पूछा
और हल्की पुष्टि के बाद
चलती ट्रेन में
फर्श पर गमछा बिछाकर
हाथ जोड़कर घुटनों के बल
झुक गया
अब उसे कुछ भी नहीं सुनायी दे रहा था
न ट्रेन की खटरपटर
न मुसाफिरों की चिल्ल पों
न ही इस दुनिया की कोई खबर
अपनी भीतर की घाटी में लीं
पपोटे बंद किये हुए
वह सुदूर अनंत में
किसी से कर रहा था बात
धीरे-धीरे फुसफुसाते हुए
अदृश्य मोबाइल पर
परिजन की तरह
मुसाफिरों की लिए
वह सिर्फ प्रार्थना थी
कुछ के लिए आने जाने की बाधा
कुछ के लिए और कुछ
लेकिन इस क्रूर दुनिया में
चलती ट्रेन के भीतर
दरअसल उसके लिए
यह एक अपनी सृष्टि थी
एक ऐसी सृष्टि
जहाँ इस दुनिया का कोई क़ानून लागू न था
वहां अन्याय की चाबुकों के न तो हरे घाव थे
न ही था सत्ता के सच झूठ का शाश्वत खेल
इस दुनिया की तरह
वहां फिलवक्त न तो भूख की परछाईं थी
और न ही युद्ध या दंगे का डर
विस्मय की बात यह थी
कि इस बाज़ारमय समय में
उस दुनिया में प्रवेश के लिए कोई शुल्क भी न था
इस संसार का वह विधायक था
इसकी रचना के लिए
उसे नहीं चाहिए था ईंट-गारा
मिस्त्री या दलाल
और न ही उसे लगाने पड़ते थे
नक्शा पास कराने के लिए
किसी सरकारी दफ़्तर के चक्कर
चलती ट्रेन में
इस दुनिया से परे
इस क्षण वह भूल गया था
कि वह क्या है
कहां का है नागरिक
उसे दिखाना है अपने होने का सबूत
फिलहाल
उसे यह भी याद न था
कि उसकी एक दाढ़ी है
उसे यह तक भी पता न था
कि ट्रेन की रफ़्तार के साथ
उसकी दाढ़ी काँप रही है
और उस पर एक पीली ततैये की छाया मंडरा रही है
(8)
सिपाही
शायद ही कोई इनसे ख़ुश हो
ख़ुद इनकी अपनी आत्मा भी नहीं
घर में पत्नी नाख़ुश
और बाहर पंसारी
जो उनकी बीवी को उधार देते देते
आ गया है आजिज़
सबको इनसे शिकायत है
किसी को कम
किसी को ज़्यादा
इन्हें देखकर
वे भी बना लेते हैं अपना विकृत चेहरा
जिनका कभी इनसे साबका नहीं पड़ा
और वे भी
जिनकी संतानों को इन्होंने फिरौतीबाज़ों से बचाया
संसार की कोई भी राजसत्ता
इनकी भुजाओं के बिना नहीं चलती
चाहे बीते समय की राजशाही हो
या आज का कथित लोकतंत्र
इनका इतिहास
दासता का आख्यान है
और वर्तमान भी कहाँ कुछ बदला है
ये हिंसा के मज़दूर हैं
महंगाई के विरोध में शांतिपूर्ण रैली हो
जंगल-ज़मीन बचाने की मुहिम हो
या रोज़ी-रोटी के लिए धरना
अफसर को मुआवज़े की अर्जी देनी हो
या अपने हक़ के लिए सड़क पर निकलना हो जुलूस
आँखों पर बांधे हुए अनुशासन की पट्टी
वे दीवार की तरह हर ज़गह रहते हैं मौजूद
इनके पास इतना भी नहीं होता अवकाश
कि धो सकें बू मारती अपनी पीली बनियाइन
सूराखों भरी जुर्राबें
हुक्म पाते ही हड़बड़ी में
पहन लेते हैं चारखाने वाली गीली जांघिया
कसते हैं चमड़े की बेल्ट
पहुंच जाते हैं वहां
दुर्भाग्य से जिसे वे कहते हैं
अपनी ड्यूटी
ड्यूटी की हथकड़ियों में बंधे
वे चलाते हैं गोली-डंडा
मारते हैं पानी की बौछार
छोड़ते है आंसू गैस
वह ड्यूटी पर थके हुए जाते हैं
और थके हुए लौटते हैं घर
जी हाँ ! आप सही सोच रहे हैं
यह अंग्रेज़ों की नहीं, हमारी अपनी पुलिस है
अपने भाई-भतीजे हैं
क़ानून व्यवस्था के नाम पर
पीटते हैं हमें दुश्मन की तरह
जैसे लूटते हैं बेईमान व्यापारी
राष्ट्रवाद के नाम पर
जरा इनकी बचपन की फ़ोटो देखिये
कितनी निर्मल और प्यार से भरी आँखें हैं इनकी
तब कटी पतंगों को लूटने के लिए
वे अदृश्य पक्षी बनकर उड़ते थे
लट्टू पर घुमाते थे सारा संसार
पाठशाला में इब्राहीम की बिरयानी बेहिचक बांटकर खाते थे
मकई के लंबे सफ़ेद बाल लगाकर
बनते थे सांताक्लॉज़
यह अब कोई रहस्य नहीं है
कि किस तरह बनाया जाता है इन्हें धीरे-धीरे क्रूर
बनाया जाता है धीरे-धीरे भ्रष्ट
थोड़ा हिंदू-थोड़ा मुसलमान
धीरे-धीरे बनाया जाता है
बांभन ठाकुर यादव लोध पासी बाल्मीकि
धीरे-धीरे वे रह जाते हैं कम पुलिस
मनुष्य तो और भी कम
फ़िलहाल कथित मुजरिमों के
वे वैधानिक संहारक हैं
इनसे ईमानदारी का आग्रह करना
इनके प्रति हिंसा होगी
इतनी कम मिलती है पगार
बेईमानी इनके लिए सबसे बड़ी नैतिकता है
वे अक्सर मुफ़्त चाय पीते हैं
और बदले में
होटल में बालश्रम करते बच्चे को देखकर
आँखें मूद लेते हैं
वे अक्सर ऑटों में मुफ़्त बैठते हैं
और ऑटो चालक को
ज़्यादा सवारी बैठाने की छूट देते हैं
असमय बूढ़ी हो गयी इनकी बेटी से
कोई जल्दी शादी नहीं करना चाहता
कोई जल्दी अपना मकान इनको किराये पर नहीं देना चाहता
कॉलेज में उसकी मीठी फब्तियों पर
जो लड़की बिंदास उसे कभी झिड़क देती थी
कभी फिस्स से हँस देती थी उसकी शेरो-शायरी पर
अब सड़क पर अचानक उसे वर्दी में देखकर
थर्रा कर रुँध जाती है उसकी आवाज़
समाज में ताक़तवर दिखते
ये हिंदी फिल्मों के लिए मसखरे हैं
इनके लिए प्रणय एक बुरा सपना है
जैसे कर्फ्यू में नमक
स्त्रियों के सपनों में वे आते हैं
डर की तरह
जीभ की तरह
पैंट से निकली बाहर कमीज़
और बढ़ी तोंद से कमीज़ के खुले बटनों के लिए
इनके परिष्कार की चर्चा कागजों पर खूब होती है
हालांकि सत्ता के लिए यह बारहा स्थगित काम है
शासकों की सामंती दुनिया में
झूठा आश्वासन ही उनका कथ्य है
और भाषा से खेलना शिल्प
उनके लिए वह जाले भरी किसी गंदी बैरक में
खूंटी पर टंगी एक पुरानी खाकी वर्दी है
जिस पर जमी धूल दंगों के बाद
कचहरी में संविधान की किताब की तरह
कभी-कभी झाड ली जाती है
अपनी पीड़ा के लॉकअप में बंद
आपकी शरीफ़ ज़बान में
वह टुल्ला
नशे की घूँट में घुलाता है हर चिपचिपी शाम
अपनी आत्मा पर लदा अपराधबोध
सौगात में मिली
दिन भर की घृणा और बेहिसाब डंक
लड़खड़ाते हुए
बेसुरी आवाज़ में गुनगुनाता है
पुरानी फिल्म का कोई उदास गाना
और घुर्र-घुर्र करते पंखें के नीचे सो जाता है बेसुध
कमर झुकी बीवी के बगल में
मुर्दे की तरह
अपने बेरोजगार बेटे के लिए
गालियां ही उसका प्यार है
अगर्चे रोजगार के रेगिस्तान में
जब उसका बेटा भरता है सिपाही भर्ती का फॉर्म
वह चिंदी-चिंदी कर उसे उड़ा देता है
खिड़की के बाहर
खुली हवा में.
(9)
कोख
वह न तो सिर्फ खट्टी मितली है
न सिर्फ़ सूजे पांव
न ही स्वाद की नई-नई फरमाइश है
वह सृष्टि की पहली खुशी है
और इतनी बड़ी
कि ओढ़नी या पल्लू के पीछे भी
छिप नहीं पाती
उसका उभरा बड़ा पेट
इस कायनात का सबसे सुन्दर दृश्य है
शर्म से झुक जाती हैं मेरी आँखें
इस बड़े पेट के साथ वह फ़र्श पर पोंछा लगा रही है
बाल्टी पर झुकी कपड़े पछीट रही है
चिलचिलाती धूप में
सड़क पर गिट्टियां कूट रही है
मेरी ग्लानि की कोई सीमा नहीं है
जीवन रचने के क्षण में
वह निराहार तारे गिन रही है
सौरी से बाहर छनकर आती
वह दरअसल पृथ्वी की सबसे करुण कराह है
संतान की भूख मिटाने के लिए
अपनी भूख मारने का वह अभ्यास है
बिस्तर पर टट्टी-पेशाब में लथपथ
वह ऐसा रतजगा है
जिसका मूल्य विश्व का कोई बैंक नहीं चुका सकता
जिंदगी के तीसरे दौर में
कीड़े की तरह चेहरे की कुलबुलाती झुर्रियों के बीच
अब जब वह एक हिलती हुई ठोढी भर रह गयी है
उसकी औलाद ने उस दंतहीन पोपली को तज दिया है
केंचुल की तरह
वह उसके खत का जवाब नहीं देता
वह उसे मेले या स्टेशन पर अकेले भटकने के लिए छोड़ देता है
वह उसका मोबाइल नहीं उठाता
ईद दीवाली घर नहीं आता
अपने घर में उसे रखने की जगह
वह बिल्ली या कुत्ते पालता है
वह हवा में गुम उस शब्द सा है
जो बोलने के बाद वापस नहीं लौटता
पानी का इंतजार करती
वह रेगिस्तान की खाली बाल्टी है
मौत के लिए
मांगती भीख है
उसके पास मीठी लोरी की धुन है
पुरानी पेटी में उसके बचपन की कुछ लंगोटियां हैं
उन नन्हें-नन्हें पांवों की धुंधली याद है
जो कोख में उसको धीरे-धीरे मारते थे.
और उसे अनिर्वचनीय खुशी से भर देते थे
छूछे बादल सरीखी पगली सी भटकती
वह एक ऐसी अभागिन है
डॉक्टर ने निकाल दी हो जिसकी कोख
कैंसर के मरीज़ की तरह
वह अक्सर रात के तीसरे प्रहर नींद से उठती है
और अपनी बगल की खाली जगह टटोलने के बाद
रसोईं में रोटी बनाने लगती है
उसे भूखे बेटे के लिए
जिसने अभी सपने में दरवाज़ा खटखटाया था
बस अभी कुछ देर पहले.
(10)
झूठ
यह धूप की तरह चमकीला
और इतनी जल्दी रंग बदलता है
कि पहचान में नहीं आता है
झूठ और कुछ नहीं
दरअसल सच के साथ दग़ा है
झूठ का कोई पक्का साँचा नहीं होता
हर झूठ का होता है अपना अलग रंग
अपना ढब
गढ़ना पड़ता है हर बार
उसे अपना एकदम नया शिल्प
झूठ को सच का लिबास इतना पसंद है
कि न्यायमूर्ति के सामने हमेशा हलफ़ लेकर कहता है
जो कहूँगा सच -सच कहूँगा
उसकी आत्मा मिथक में बसती है
और वह धीरे-धीरे
कई बार आदमी की आस्था बन जाती है
कुछ झूठ बच्चों की तरह निर्मल होते हैं
और औचक पकड़ लिए जाते हैं
कुछ झूठ पेशेवर शातिर
अफीम की तरह इतने खतरनाक
कि राजमुकुट पहनकर देश को नींद में सुला देते हैं
प्रेमिकाएं अक्सर फूल से अधिक झूठ पर लहलोट होती हैं
धोखा खाने के बाद भी
अपने दुःख की अंधेरी कोठरी में
प्यार की तरह उसे छिपाये रखती हैं
अमरता भी एक झूठ हैं
यह बात झूठे कवि नहीं जानते
और झूठी प्रशंसा की तकिये पर सोते हुए
अमरता का सपना देखते रहते हैं
उद्दाम प्रेमियों की तरह
झूठ को प्रिय होता है आंकड़ों का सहवास
और उनकी नाजायज़ संततियां
देश के विकास का इतिहास लिखती हैं
सरकारी झूठ
श्लोक की तरह होते हैं पवित्र
अफ़वाह की तरह उसके होते हैं हज़ारहा मुंह
बादल की तरह हज़ारहा अदृश्य पांव
अशरीरी छायाओं की तरह चलते हुए
बहुमत की डरावनी आवाज़ बन गूँजते रहते हैं
इन दिनों
झूठ की डिजीटल पाठशालाएं खुली हुई हैं
जहाँ उड़ाया जाता है ज्ञान का मज़ाक
दी जाती है तथ्य के कब्र पर
झूठ के फूल चढ़ाने की तालीम
कहना न होगा
आकाश में तारों की तरह बढ़ रहा है
झूठ का परिवार
फिर भी वह अक्सर असुरक्षित और डरा रहता है
कोई वीर बालक जब कहता है उसे नंगा
भेज दिया जाता है उसे फ़ौरन कारागार
यह दिलचस्प है
एक कथाकार लिखित रूप में घोषणा करता है
कि उसकी कृति सिर्फ़ झूठ है
और विस्मित पाठक कई बार कहता है
नहीं, नहीं, लेखक भरमा रहा है
यह तो है जिंदगी के सच का इतिहास
किले की प्राचीर से
अपने संबोधन में कोई कितनी भी लंतरानी हांके
निष्कर्ष यही है
झूठ की अकाल मृत्यु तय है
जबकि सच बचा रहता है
गल्प में भी
अल्पमत में रहने के बावजूद.
____