विनोद दास |
जब साहित्यिक परिदृश्य पर अनगिनत छोटी-बड़ी पत्रिकाओं का घटाटोप छाया हो-यहाँ तक कि किसी शहर से दो-तीन पत्रिकाएं निकल रही हों, तब ऐसी स्थिति में अपनी पारिवारिक सुविधाओं में कटौती करके अपनी जेब की रकम से पत्रिका निकालने का किसी सृजनशील रचनाकार पर जुनून क्यों चढ़ता है, इसका रहस्य समझ पाना इतना आसान नहीं है.
हर साहित्यिक पत्रिका के जन्म की प्रेरणा के बीज अलग-अलग होते हैं. कुछ युवा लेखक साहित्यिक पत्रिका का प्रकाशन साहित्य में कुछ नये प्रयोग करने की दृष्टि से शुरू करते है तो कुछ नवजवान रचनाकार दूसरी पत्रिकाओं में छपने के लिए रचनाओं का आदान-प्रदान करने के प्रयोजन से पत्रिका निकालने का उद्यम करते हैं.
कुछ सृजनशील रचनाकार साहित्यिक परिदृश्य में प्रखर हस्तक्षेप करने या किसी वैचारिक कार्य योजना की दृष्टि से भी निकालते हैं. यह विचित्र है कि जब कोई रचनाकार अचानक पत्रिका का संपादन शुरू करता है तो अक्सर कुछ व्यंग्य में यह कहा जाता है कि अब इस रचनाकार के लिखने के दिन गये. यहाँ तक कि उसके सृजनात्मक लेखन के लिए शोक प्रस्ताव भी जारी कर दिए जाते हैं.
किंतु हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि संपादन कर्म किसी भी रचनाकार का आत्म विस्तार ही करता है. हम जानते ही हैं कि हर लेखक स्वभाव से ही प्राइवेट और कुछ आत्मकेंद्रित होता है. लेकिन संपादन ऐसा कर्म है जहाँ संपादक पूर्णरूप से आत्मकेंद्रित नहीं रह सकता. एक संपादक की यह विवशता होती है कि वह दूसरे रचनाकार से संपर्क करे. एक श्रेष्ठ पत्रिका निकालने की दृष्टि से उसे समकालीन सृजन परिदृश्य को समझने के लिए अपने सहधर्मी रचनाकारों की रचनाधर्मिता को जानना-समझना पड़ता है और कई बार असहमतियों के बावजूद उन्हें सादर प्रकाशित करना पड़ता है. इस प्रक्रिया में जहाँ एक ओर रचनाकार संपादक के अहं की कड़ी गाँठें थोड़ी शिथिल होती है, वहीं वह रचनाकार नितांत प्राइवेट व्यक्ति भी नहीं रह पाता. यही नहीं, उसका जीवन-व्यक्तित्व और साहित्य का आकाश बड़ा हो जाता है. उसकी सोच में व्यापकता आती है और विविधवर्णी साहित्य के लिए उसके अंतर्मन में जगह बनती है. मुझे यह कहने में बिलकुल संकोच नहीं है कि अंतर्दृष्टि पत्रिका के प्रकाशन के पीछे कहीं न कहीं मेरी यह दृष्टि भी काम कर रही थी.
अंतर्दृष्टि पत्रिका के प्रकाशन की स्मृति के बारे में कोई ऐसा बिंदु नहीं है कि जिस पर उंगुली रखकर मैं कह सकूं कि किस क्षण पत्रिका निकालने का ख्याल मन में आया. इतना ज़रूर याद है कि वे लखनऊ प्रवास के दिन थे.
हिंदी परिदृश्य में उन दिनों अनेक पत्रिकाएं मौजूद थीं. लेकिन मेरी कल्पना की कसौटी पर कविता केन्द्रित कोई छोटी पत्रिका नहीं उतरती थी. हालांकि आज पीछे मुड़कर देखता हूँ तो लगता है कि अंतर्दृष्टि पत्रिका भी मेरी कल्पना के अनुरूप कहाँ निकल पायी. बहरहाल उन दिनों मेरे ह्रदय के निविड़तम प्रदेश में एक व्याकुलता और कुलबुलाहट थी कि ऐसी पत्रिका निकाल सकूं जिसमें वे रचनाकार प्रकाशित हों जिन्हें मैं तहेदिल से पसंद करता हूँ. इस बहाने मैं समकालीन काव्य संभावनाओं को समझने के साथ दरअसल अपने सृजनात्मक निकषों को जांचकर अपनी थाह भी लेना चाहता था. विडम्बना यह थी कि मेरे पास साहित्यिक पत्रिका के संपादन की न तो कोई अनुभव राशि थी और न ही धन राशि थी जिसकी मिट्टी से मैं अपनी इस छोटी सी आकांक्षा को साकार कर सकूं. लेकिन एक छोटी सी ज़िद और कुछ सकारात्मक घटनाओं ने अंतर्दृष्टि को तत्कालीन साहित्य के दृश्य पटल पर ला ही दिया.
कुछ ऐसे पल होते हैं जो आपको रचनात्मक ऊर्जा से भर देते हैं, ऐसा ही एक सुखद पल था जब कवि कथाकार विष्णु नागर से दिल्ली में एक मुलाक़ात के दौरान मैंने कविता केंद्रित एक पत्रिका के प्रकाशन की चर्चा करके उनसे रचनात्मक सहयोग के लिए अनुरोध किया और उन्होंने झट से रघुवीर सहाय से अपनी और इब्बार रब्बी की एक लंबी बातचीत देने का वायदा कर दिया..
यह बातचीत कैसेट में रिकॉर्ड की गयी थी. उन्होंने जब कैसेट मेरे पास भेज दिया तो मेरे सपनों की मिट्टी में पड़े बीज अंखुवाने लगे. प्रवेशांक में ही मेरे प्रिय कवि रघुवीर सहाय मौजूद होंगे, यह सोचकर मन उछाह से भर जाता था. मुझे लगता कि बहुत बड़ा साहित्यिक खजाना मिल गया है. लेकिन मुझे यह इल्म नहीं था कि कैसेट से इंटरव्यू उतारना कितनी त्रासद प्रक्रिया है. मेरे पास एक टू-इन वन टेप रिकॉर्डर था. दफ़्तर से लौटने के बाद उसमें कैसेट डालकर चलाता. फिर कागज़ पर दो तीन शब्द लिख पाता. बामुश्किल एक घंटे में एक पैराग्राफ लिख पाता. उन दिनों शार्ट हैण्ड का ज्ञान न होना सबसे बड़ी अपंगता लग रही थी. रघुवीर सहाय के वाक्य भी लंबे और घुमावदार थे. मेरी कोशिश थी कि उनका कथन अक्षरश: लिख लूँ. पल-पल पर टू-इन वन टेप रिकॉर्डर को चलाने और बंद करने से विनीता ऊब ही नहीं, खिन्न हो चुकी थीं. उन्हें डर था कि नया टू-इन-वन टेप रिकॉर्डर दम न तोड़ दे. उनका डर सही भी हो गया.
रिकॉर्डर खराब हो गया. उसे ठीक कराने के बाद फिर इंटरव्यू को लिपिबदध् करने का सिलसिला शुरु हो गया. जब इंटरव्यू सिमट गया तो लगा जैसे पत्रिका निकलने का सपना सरक कर और पास आ गया है. इस अवसर पर अपनी पीड़ा भी साझा करना चाहता हूँ कि इंटरव्यू को लिपिबदध् करना उस समय मुझे किसी यातना से कम नहीं लग रहा था लेकिन यह भी स्वीकार न करना गुस्ताखी होगी कि रघुवीर सहाय की बातचीत को उतारने के दौर में उनके सोचने की प्रक्रिया को समझने का मुझे दुर्लभ अवसर भी मिला. रघुवीर सहाय सीधे उत्तर नहीं देते थे. प्रश्नकर्ता के सवालों के उत्तर को फ्रेम करते समय अपने अनुभवों के अरण्य में ऐसे भटकते थे जैसे वह कुछ तलाश कर रहे हों. फिर अचानक विचार का कोई मोती सामने पेश कर देते थे. इंटरव्यू का काम पूरा होने के बाद कुछ दिन तक मुझे हर शाम कुछ खाली-खाली सी लगने लगी जैसे कोई बहुत आत्मीय बुज़ुर्ग मेहमान घर से चला गया हो जो अपने अनूठे अंदाज़ में अपने रचना समय और अनुभव के बारे में हर शाम मुझसे बातचीत करता था.
मेरी आंतरिक इच्छा थी कि अंतर्दृष्टि पत्रिका में वरिष्ठ कवि से लेकर कविता के नये अंकुर को सम्माननीय जगह मिले. एक नये अनुभवहीन संपादक को प्रतिष्ठित कविगण अपनी कविताएँ देंगे, इसे लेकर मन में गहरा संशय था. लेकिन यह सच है कि जब आप अपने किसी सपने से प्यार करते हैं तो कई बार कुछ ऐसे सुखद और अविश्वसनीय चमत्कार घटित होते हैं जो आपके सपनों को पूरा करने के लिए संभावनाओं के नये द्वार खोल देते हैं. अपनी अंतर्वस्तु,संवेदना और विचार के संयोजन से समकालीन कविता को नया आयाम देने वाले वरिष्ठ कवि विनोद कुमार शुक्ल और मंगलेश डबराल ने अपनी कविताएँ जब निसंकोच उपलब्ध करा दीं तो मेरे पंख अपने लक्ष्य की और उड़ने के लिए और भी फड़फड़ाने लगे. मुझे तब और भी बल मिला जब मेरे प्रिय कवि भगवत रावत ने अपनी कविताएँ उदारता से भेज दीं. स्वप्निल श्रीवास्तव और राजेंद्र शर्मा पर मैं कुछ अपना अधिकार समझता था. उन्होंने मेरे इस अधिकार की रक्षा की. उनकी कविताएँ भी मुझे मिल गईं. कई बार आप उनसे निराश होते हैं जिन पर आपको सबसे अधिक भरोसा होता है. कुंवर नारायण और केदार नाथ सिंह की कविताएं नहीं मिल पायीं. हालांकि इन दोनों प्रिय कवियों से कविताएं मिलने की मुझे कुछ ज्यादा उम्मीद थी.
यह जरूर था कि कुंवर नारायण जी ने बर्तोल्त ब्रेख्त की कविताओं का अनुवाद देकर राहत ही नहीं, खुशी भी दी. बाबा नागार्जुन, शमशेर बहादुर सिंह, केदार नाथ अग्रवाल और त्रिलोचन सरीखे बुज़ुर्ग कवियों से संपर्क नहीं कर पाया. इस कमी की मामूली भरपाई त्रिलोचन के ताज़ा प्रकाशित कविता संग्रह “सबका अपना आकाश” पर मैंने विस्तृत समीक्षा लिखकर पूरी की. शायद यह कहना गलत न होगा कि मुझे सर्वाधिक संतोष बद्री नारायण की कविताएँ मिलने पर हुआ जो अपने मिज़ाज में तत्कालीन हिंदी काव्य संसार में ताजा हवा के सुगंधित झोकें की तरह थीं. यह उल्लेख करना जरूरी है कि बद्री नारायण के काव्य व्यक्तित्त्व की उन शैशवकालीन कविताओं में लोक जीवन अनुस्यूत था. लोक जीवन के प्रति मेरा यह गहरा अनुराग ही था कि “छापक पेड़ छिहुलिया” नामक लोक गीत को उसके हिंदी रूपांतर के साथ पत्रिका में प्रकाशित करने के लोभ से मैं बच न सका. अपने देश की दूसरी भाषाओं की कविता से हमारा रिश्ता सघन बना रहे, इस दृष्टि से बांग्ला के शीर्ष कवि सुभाष मुखोपाध्याय की एक कविता “जुलुस में चेहरा “ के अनुवाद को अंक में शामिल करना मुझे अनिवार्य सा लगा.
पत्रिका का आलोचना खंड खाली था. आलोचना विहीन पत्रिका मुझे हमेशा श्रीहीन लगती है. दरअसल मेरी योजना थी कि पत्रिका में ऐसी आलोचना हो जो समकालीन परिदृश्य से परिचय कराने के साथ कुछ वैचारिक रूप से भी उद्वेलित और उत्प्रेरित करे. इस बात से शायद ही कोई इंकार करेगा कि आलोचना के कारखाने विश्वविद्यालय के हिंदी विभागों में हैं. लेकिन मेरे पास उसका गेटपास नहीं था. अभी भी नहीं है. उसके गेटपास पाने के तौर-तरीके होते है जो मुझे नहीं आते. दूसरे, मुझे कहीं यह भी लगता था कि रचनाकारों की आलोचना में सृजन की चुनौतियाँ ज्यादा मुखर होती हैं और उसका लाभ कोई रचनाकार अपनी सृजनात्मक गुत्थियों को सुलझाने में कभी कर सकता है. इस परिप्रेक्ष्य में विश्वविद्यालय के हिंदी विभागों का उतना मुखापेक्षी भी मैं नहीं था. बहरहाल एक शाम जब दफ्तर से लौटने के बाद डाक से मिला एक लिफ़ाफा खोला तो सुखद अचरज से भर गया. विष्णु नागर जी ने कविता भेजने के मेरे अनुरोध की एवज में अपना एक आलोचनात्मक लेख “आज की कविता पर एक बयान” भेजा था.
उन्होंने तत्कालीन काव्य परिवेश को एक कवि की अंतर्दृष्टि से देखते हुए ठंडे और तटस्थ संयम से अनेक अलक्षित कोनों को विवेचित किया था और कवियों के समक्ष आ रही चुनौतियों को रेखांकित किया था. कहने की ज़रूरत नहीं कि इस लेख ने पत्रिका संबंधी मेरी परिकल्पना को पूरा करने में बहुत बड़ी भूमिका निभायी और मुझे एक बड़ी चिंता से मुक्त कर दिया.
लेकिन ज़रा थमिए. अभी उस लेख की बात तो मैंने की ही नहीं, जो अंतर्दृष्टि पत्रिका के प्रवेशांक का सबसे विवादास्पद लेख था. जिस लेख ने पत्रिका को राष्ट्रीय फलक पर पहुँचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी. आपकी उत्सुकता को शांत करने के लिए बता ही दूँ कि वह लेख राजेश जोशी का “एक नाराज़ कवि के नोटस” था. यह लेख किसी पूर्व योजना के तहत न तो लिखवाया गया था और न ही किसी साहित्यिक दुरभिसंधि का हिस्सा था. एक कवि के मन में हिंदी आलोचना को लेकर लंबे समय से कतरा-कतरा जो असंतोष जमा हो रहा था, वह प्रैसर कुकर की सीटी की तरह एक नाराज़गी के तौर पर शब्दों में फट पड़ा था. दस खंडों में इस लेख की भाषा ही नहीं, शिल्प भी रूढ़ और पारंपरिक नहीं था. कविताओं की मेरी मांग की एवज में राजेश जोशी से मिली इस नायाब सौगात को मैं हमेशा याद रखता हूँ.
कोई पत्रिका सिर्फ़ प्रकाशनार्थ सामग्री से ही नहीं निकलती है, उसे मुद्रित कराने के लिए मुद्रा की भी जरूरत पड़ती है. उन दिनों मेरी गृहस्थी बन रही थी. इस सिलसिले में अपने बैंक और रिज़र्व बैंक तथा नाबार्ड की कर्मचारियों की ऋण सोसाइटियों से लिए गये उधार की किश्तें जमा करने के बाद घर खर्च के लिए बहुत कम रकम बचती थी. ऐसे में फैजाबाद के पुराने साथी सूर्यबाला पत्रिका के संपादक चंद्रमणि त्रिपाठी ने अपनी प्रेस से पत्रिका छापने और किश्तों में रकम अदा करने का विकल्प दे दिया. इस बीच यह भी सुखद संयोग घटा कि कथाकार अखिलेश सुल्तानपुर से मेरे पड़ोस में रहने लखनऊ आ गये. अंतर्दृष्टि पत्रिका के प्रकाशन के लिए वह मुझे निरंतर गुर सिखाते रहते थे. उनके सहयोग से पत्रिका को हिंदी संस्थान का 500 रूपये का विज्ञापन भी मिल गया.
मामूली कागज पर 48 पृष्ठों की पतली सी पत्रिका छप गयी. उसे देखकर ऐसी खुशी हुई जैसे पहली संतान बेटी के जन्म पर हुई थी. कागज और प्रिंटिंग स्याही की मिली जुली खुशबू से घर भरा रहता था. अब लेखकों और विभिन्न शहरों के विक्रय केन्द्रों में पत्रिका को पहुंचाना था. पत्रिकाओं के डिस्पैच के लिए बण्डल बनाने और नाम लिखने में विनीता ने बड़ी मदद की. बेटी भी उत्साह से पास में बैठकर इसमें लग जाती थी. एक तरह से यह एक पारवारिक अनुष्ठान सा हो गया था. एक बड़े से थैले में पत्रिकाएं लादकर हज़रतगंज स्थित जीपीओ के लाल डिब्बे में जब पत्रिकाएं डालता था तो लगता था जैसे पृथ्वी के एक शहर( 18/66 इंदिरा नगर) लखनऊ में अपने होने की पाती भेज रहा हूँ.
अभी पत्रिका का अनुष्ठान पूरा नहीं हुआ था. हमारा हिंदी समाज मूलत: उत्सव प्रेमी है. किसी भी छोटे जीवन प्रसंग को उत्सव में बदल देना उसका सहज स्वभाव है. मैं उनमें से नहीं हूँ जो उत्सव से भागते हैं लेकिन उनमें से भी नहीं हूँ जो उसमें रचे-बसे होते हैं. उत्सवों को लेकर प्रेम और उदासीनता की रस्साकशी मेरे भीतर चलती रहती है. पत्रिका निकल जाने के बाद कुछ मित्रों का आग्रह था कि इसका विधिवत लोकार्पण कार्यक्रम हो. लोकार्पण कार्यक्रम हिंदी साहित्य समाज का एक प्रिय अनुष्ठान है जिसे खूब धूम-धड़ाके से मनाया जाता है.
लोकार्पण कार्यक्रम को लेकर मेरी हमेशा उदासीनता रही है. लेकिन मित्रों के बार-बार कहने से मैं इस बात पर राज़ी हो गया कि किसी उत्सव की तरह नहीं, बल्कि एक साहित्यिक परिवार में मिल बैठकर अपनी खुशी बांटने जैसा घरेलू आयोजन किया जा सकता है. भीगी कृतज्ञता के साथ मुझे यह कहने में कोई झिझक नहीं है कि नाटककार और इप्टा के कर्ता-धर्ता हमारे साथी राकेश जी ने इसका बीड़ा लिया. वह पंजाब नेशनल बैंक के यूनियन के प्रदेश स्तर के नेता थे. उन्होंने हजरतगंज स्थित शाखा के यूनियन कक्ष में एक शाम संगोष्ठी करने का फैसला ले लिया. न कोई कार्ड छपा और न ही कोई प्रेस विज्ञप्ति. टेलीफ़ोन और मौखिक रूप से साहित्यिक परिवार को खबर दे दी गयी.
यूनियन कक्ष बैंक के पिछले हिस्से में था. धीरे-धीरे लोग आने लगे. कवि कुंवर नारायण, कथाकार श्री लाल शुक्ल, कथाकर चिन्तक मुद्रा राक्षस, कवि लीलाधर जगूड़ी, कथाकार कामता नाथ, कथाकार रवीन्द्र वर्मा, आलोचक वीरेन्द्र यादव, कवि राजेश शर्मा, कवि और नौकरशाह प्रभास झा सहित अनेक रंगकर्मी और साहित्यकार मौजूद थे. उस समय सबके चेहरे पर खुशी की लहर दौड़ गयी जब कथाकार अखिलेश के साथ नयी कविता आन्दोलन के शीर्ष कवि-चित्रकार इलाहाबाद निवासी जगदीश गुप्त भी अचानक आ गये. कुछ प्रतियां मैं साथ ले गया था. सबको बाँट दी गईं. इस अवसर पर श्री लाल जी, कुंवर नारायण जी, लीलाधर जगूड़ी जी, रवीन्द्र वर्मा जी ने अपने विचार व्यक्त किये.
जगदीश गुप्त जी ने चुटकी लेते हुए कहा कि पत्रिका का नाम “अंतर्दृष्टि” तो कलावादियों का शब्द माना जाता रहा है जबकि पत्रिका के सम्पादक के कथन से लगता है कि पत्रिका प्रगतिशील और जनवादी मूल्यों की पक्षधर है. फिर कुछ कवियों ने काव्य पाठ भी किया. कैंटीन की चाय और बिस्कुट पर इस तरह विमोचन संपन्न हो गया. लेकिन सुखद अचरज से तब भर गया जब इस घरेलू सी बैठक की रिपोर्ट अमृत प्रभात अखबार में छपी देखी. दिलचस्प यह था कि नीचे दिए गये रपटकार के नाम से मैं बिलकुल अपरिचित था. यह तो बहुत अरसे बाद रहस्य खुला कि यह गुप्त अवदान और किसी का नहीं, हमारे मित्र कथा आलोचक वीरेंद्र यादव जी का था. कविता के प्रति रागात्मक लगाव न होने के बावजूद उनका मित्र भाव पुलकित कर गया.
पत्र खुली खिड़की सरीखे होते हैं जिनसे घर में जहाँ विचारों की ताजी हवा, धूप के साथ सुवास का झोंका आता है, वहीं धूल-मिट्टी के साथ गुस्से भरी आंधी भी आती है. अंक पावती पर धड़ाधड़ पत्र -प्रतिक्रियाएं मिलने लगी. हिंदी में पत्रिकाओं पर मिले पत्र प्रतिक्रियाओं का अपना एक विशिष्ट चरित्र होता है. इन पर कभी शोध किया जाय तो बेहद दिलचस्प नतीज़े मिल सकते हैं. आमतौर से बधाई या शुभकामनाओं से शुरुआत होती है. फिर उसमें प्रकाशित एकाध रचनाओं का उल्लेख करने के बाद संपादकीय की प्रशंसा की जाती है और अंत में दबे-छिपे और कई बार साफ़ लफ्ज़ों में रचनात्मक सहयोग देने का प्रस्ताव मिलता है. कहना न होगा कि ऐसे पत्र बड़ी संख्या में मिले. लेकिन सबसे अधिक पत्र राजेश जोशी के आलेख पर मिले. इन सभी पत्रों को अगले अंक में प्रकाशित किया जाता तो एक अंक उसी पर निकालना पड़ता जिसके लिए न तो मेरी सामर्थ्य थी और न ही कोई योजना. ऐसे में अगले अंक में पत्र न देने का एक अनुदार निर्णय लेना पड़ा. राजेश जोशी के शब्दों में कहें कि क़िस्सा कोताह अभी ख़त्म नहीं हुआ.
साल का आखिरी दिन जिस तरह स्मृति के अल्बम में लंबे अरसे तक बसा रहता है. उसी तरह कविता के तथाकथित धुर विरोधी प्रख्यात कथाकार राजेन्द्र यादव की सदाशयता बरसों याद रहेगी कि उन्होंने अपनी मासिक कथा पत्रिका हंस में कविता की पत्रिका अंतर्दृष्टि में छपा राजेश जोशी जोशी का विचारोत्तेजक आलेख साभार बिना किसी सूचना के पुनर्प्रकाशित कर उसे व्यापक पाठक समुदाय तक पहुंचा दिया. मुझे याद है कि ट्रेन से सफ़र कर रहा था और किसी स्टेशन पर उतरकर स्टाल से हंस पत्रिका खरीदी थी और अचानक उस लेख को देखकर सुखद कृतज्ञता से भर गया था. बड़ी प्रसार की पत्रिकाएं अक्सर छपी सामग्री को प्रकाशित करने से बचती है लेकिन हंस संपादक ने अनाम संपादक की एक छोटी पत्रिका से रचना देकर अपनी सह्रदयता ही नहीं दिखाई बल्कि एक ऐसी अच्छी परंपरा का सूत्रपात किया जो अनुकरणीय है. हंस और जनसत्ता तथा अनेक अखबारों ने पत्रिका की गुणवत्ता की सराहना कर हौसला अफ़जाई की.
आज जब अंतर्दृष्टि पत्रिका के प्रकाशन के अपने निर्णय के बारे में सोचता हूँ तो कोई मलाल या पछतावा नहीं होता बल्कि उस गृहिणी की तरह खुशी होती है जो अपनी ग़रीब रसोई से यथासंभव पोषक और स्वादिष्ट खाना खिलाकर खुश होती है. एकांत में सिर्फ़ मेज़ पर बैठकर यह काम नहीं हो सकता. इसके लिए आपको बाहर की दुनिया से जुड़ना होगा. इस सांस्कृतिक कर्म से वह अपने भीतर के उस असंतुष्ट “दूसरे आदमी” को भी थोड़ा संतुष्ट कर सकेगा जो हमेशा बड़बड़ा कर शिकायत करता रहता है कि बाहरी दुनिया से उसका संपर्क नहीं है. इस प्रक्रिया में आपके भीतर की दुनिया जहाँ व्यापक और बहुल बनेगी, वहीं आपको किंचित विनयशील भी बनायेगी.
दूसरे शब्दों में, यह एक ऐसा सामूहिक कर्म है जो आपको दूसरों को साथ ले कर चलने के लिए उत्प्रेरित करेगा जिससे आपके भीतर कुंठा और अवसाद जैसे वाइरस फलने फूलने के लिए कम जगह बचेगी. अगर किसी लेखक को साहित्य का कुछ रोमांचकारी अनुभव उठाना है तो उसे एक बार छोटी पत्रिका के प्रकाशन का जोख़िम ख़ासकर बड़ी प्रसार वाली पत्रिकाओं की अकाल बेला में ज़रूर उठाना चाहिए.
विनोद दास कविता, आलोचना और संपादन |