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समालोचन

Home » विनोद कुमार शुक्ल से जीतेश्वरी की बातचीत

विनोद कुमार शुक्ल से जीतेश्वरी की बातचीत

2023 के ‘PEN-Nabokov Award for Achievement in International Literature’ से विनोद कुमार शुक्ल के सम्मानित होने की सूचना से साहित्य जगत आह्लादित है. वे पहले भारतीय एशियाई मूल के लेखक हैं जिन्हें इस सम्मान से सम्मानित किए जाने का निर्णय लिया गया है. इस पुरस्कार में विनोद कुमार शुक्ल को 50 हजार डॉलर की राशि प्रदान की जाएगी. इस अवसर पर उनसे यह ख़ास बातचीत जीतेश्वरी ने की है. प्रस्तुत है.

by arun dev
March 1, 2023
in बातचीत
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विनोद कुमार शुक्ल से जीतेश्वरी की बातचीत
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28 फ़रवरी की शाम थी. सी-217 शैलेंद्र नगर रायपुर जहां विनोद कुमार शुक्ल रहते हैं, वह घर आज और दिनों से कहीं ज्यादा गमक रहा था. घर के भीतर और बाहर एक अलग तरह की ही खुशबू बिखरी हुई थी. उनके आंगन में लगा हुआ मौलश्री आज कुछ ज्यादा ही प्रमुदित जान पड़ रहा था. यह सब कुछ अकारण भी नहीं था, विनोद जी को कल शाम ही अंतरराष्ट्रीय सम्मान ’पेन अमेरिका नाबाकोवा अवार्ड फॉर अचीवमेंट इन इंटरनेशनल लिटरेचर पुरस्कार 2023’ मिलने की खबर मिली थी और आज पूरे देश भर में इसकी सूचना फैल गई थी.

विनोद जी के घर पर बधाई देने वालों का और मीडिया के लोगों का तांता सा लगा हुआ था. इन्हीं सब के बीच विशेष रूप से ’समालोचन’ से बात करने के लिए विनोद जी ने लगभग दो घंटे का समय निकाला और वे अपने जीवन और रचनाकर्म के पुराने और नए पन्नों को देर तक ‘समालोचन’ के साथ उलटते-पलटते रहे.
जीतेश्वरी

विनोद कुमार शुक्ल से जीतेश्वरी की बातचीत

1.
आपको इस पुरस्कार की सूचना कब और कैसे मिली? आपकी पहली प्रतिक्रिया क्या थी ?

इसकी सूचना मुझे सुबह फोन से मिली. जो हो रहा है (हल्की सी मुस्कराहट के साथ) वह देखेंगे. यही पहली प्रतिक्रिया थी.

2.
आप इस अंतरराष्ट्रीय ‘पेन अमेरिका नाबाकोव अवार्ड फॉर अचीवमेंट इन इंटरनेशनल लिटरेचर पुरस्कार 2023’ पाकर कैसा महसूस कर रहे हैं?

लोग कहते हैं कि यह अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार है. दूसरों ने कहा और मैंने मान लिया कि यह अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार है और इसे स्वीकार किया.

3.
आपका जो अवदान है साहित्य में क्या यह पुरस्कार उसका प्रतिफल है?

अगर यह न होता तो मुझे पुरस्कार वे क्यों देते? तो यह प्रतिफल तो है ही.


4.
आप एक संत की तरह रहते हैं जिन्हें पुरस्कार की दुनिया से कोई मतलब नहीं है?

मुझे पुरस्कार की दुनियादारी से कोई मतलब नहीं है, लेकिन लेखन की दुनियादारी से बखूबी मतलब है.

5.
आज आप अंतरराष्ट्रीय लेखक हैं? जिसे एक भाषा या एक देश या एक राज्य की सीमा से बांधकर नहीं देखा जा सकता है?

मैं तो मनुष्यता के साथ बंधा लेखक हूं और जहां-जहां मनुष्य हैं, जिस देश में हैं मैं उनके साथ जुड़ा हूं अपनी रचनाओं के माध्यम से.

6.
आपसे मिलकर ऐसा लगता है जैसे अभी भी बहुत कुछ आपके भीतर उमड़ रहा है जो बाहर आना चाहता है ?

अच्छा, आपने तो मुझे अपने आप के लिए आश्चर्य में डाल दिया है. मुझे तो नहीं लगता है, मैं अब तक जो भी लिख पाया हूं वह आधा-अधूरा ही लिख पाया हूं. मुझे इन दिनों यह ज्यादा ही महसूस होता है कि जिंदगी क्यों इतनी जल्दी खत्म होने के कगार पर आ गई है? हो सकता है मैं इस दहलीज में नहीं होता तो और कुछ लिखता. लेकिन उम्र के साथ तो सबकी सीमा बंधी हुई है और रचना का होना तो रचना के समय पर निर्भर करता है.

जब लेखक का लिखने का समय होता है तब रचना का समय हो या न हो यह लेखक नहीं जानता. रचना का, लिखने का जब समय होगा और लेखक भी कहीं उस समय में लिखने में होगा तो रचना लिखी जाएगी. रचना हमेशा लेखक का पीछा करती रहती है. लेखक की गति ज्यादा होती है दुनियादारी में रचना की गति थोड़ी धीमी होती है. लेखक जीवन से इन सारी रचनात्मक चीजों को इकट्ठा करता है, उन रचनात्मक स्थितियों को लिखने में फिर समय नहीं लगता जब लेखक उनमें रम जाता है. तो दौड़-धूप तो होती है लिख लेने की, जिंदगी के अनुभव को पाने की.

7.
आपके पहले उपन्यास ‘नौकर की कमीज’ पर मणि कौल ने फिल्म बनाई और जब आपने पहली बार फिल्म देखी तब आपको कैसा लगा?

यह मेरे लिए बहुत आश्चर्य की बात है क्योंकि मणि कौल की बनाई हुई फिल्म को देखना अपने लिखे हुए को फिल्म में, दृश्य में देखना, यह मेरा पहला अनुभव था और उससे मैं बहुत चकित हुआ. कई बार मैं धोखा खाया करता कि मणि कौल की फिल्म बनाने की प्रक्रिया में  यह जो वह बना रहे हैं, यह एक ऐसी स्थिति है कि कभी-कभी तो मुझे लगता है कि मैंने यह उपन्यास (एक आनंदित हंसी के साथ) मणि कौल की बनी हुई फिल्म देखकर तो नहीं लिखा था. ऐसा भी मुझको अनुभव होता है.

एक आर्ब्जवर होता है, देखने वाला और जिसको देख रहे होते हैं वह दिखने के लिए उपस्थित होता रहता है. कभी-कभी ऐसा तारतम्य हो जाता है कि जिसको मैं देखना चाह रहा हूं वही मुझे दिखता है और जो दिखाया जा रहा है उसे आप देखना चाहते हैं. इसलिए मणि कौल भी एक रचनाकार थे, मैं भी अपने लिखे हुए को देख रहा था तो ये हम दोनों का मिलाजुला स्वरूप था.

8.
मणि कौल ने जब आपसे पहली बार बात की कि आपके उपन्यास पर वह फिल्म बनाना चाहते हैं? कैसा महसूस हुआ?

मणि कौल ने जिस दिन यह उपन्यास पढ़ा उसी दिन से उन्होंने कहना शुरू कर दिया था और मुझे फोन पर सूचित किया कि विनोद जी मैं इस किताब पर फिल्म बनाना चाहता हूं और मैं (खुशी से) इंतजार करता रहता था कि कब वे फिल्म बनाना शुरू करेंगे. उस समय वे परेशान थे कि फिल्म बनाने के लिए जरूरी फंड कितनी जल्दी इकट्ठा कर लूं ताकि जल्दी से यह फिल्म बना सकूं.

अंत में मणि कौल ने नीदरलैंड की प्रोडक्शन में ‘नौकर की कमीज’ फिल्म बनाने की शुरूआत की. शायद उनकी पत्नी ही उस फिल्म की प्रोड्यूसर थी. मणि कौल के बारे में मैं जानता नहीं था लेकिन वह बड़े विश्लेषक हैं. मुझे एक घटना याद आ रही है मुझे जब यह बात पता चली कि मुक्तिबोध पर फिल्म बनाने के लिए अशोक वाजपेयी ने मणि कौल का चुनाव किया है और उन्होंने मुक्तिबोध पर फिल्म बनाई ‘सतह से उठता हुआ आदमी’ तो मुझे लगा कि जिस व्यक्ति ने सबसे पहले मुक्तिबोध पर फिल्म बनाई और अब वह मेरे उपन्यास पर फिल्म बना रहे हैं तो मैं बहुत आश्चर्यचकित हुआ.

9.
आप अपनी किस रचना को विश्व की अधिकतम भाषाओं में अनूदित होते हुए देखना पसंद करेंगे?

यह मैं कैसे बता सकता हूं. क्या होना चाहिए रचना के साथ, यह रचनाकार कभी नहीं सोचता. यह तो दूसरों को सोचना चाहिए जो रचना को देखते, सुनते और पढ़ते हैं.

10.
आप स्वयं के लिए कवि या कथाकार क्या कहलाना अधिक पसंद करते हैं?

मूलतः तो मैं कवि हूं और कविता या कवि कहलाना या कथाकार या उपन्यासकार या निबंधकार कहलाना इनमें कोई अंतर ही नहीं है. मैंने जो लिखा है ज्यादातर तो मुझको यह कहते हैं कि मैं उपन्यासकार हूं. मैं भी यह सोचता हूं.

उपन्यास के उबड़-खाबड़ रास्ते पर चलते हुए अचानक मुझे कविता का एक गहरा गड्ढा मिल जाता है और मैं गहराई में डूब जाता हूं. तो उपन्यास भी कविता की तरफ पहुंचने का एक रास्ता है. मेरे लिए कहानी भी कविता तक पहुंचने का एक रास्ता है. अगर कहीं मैं निबंध लिखूंगा तो वह भी मेरे लिए कविता तक पहुंचने का ही एक रास्ता ही होगा. मैं कहीं से भी चलूं रचना के लिए मैं पहुंचूंगा कविता की ही तरफ.

11.
इधर आपने बच्चों के लिए खूब कहानियां, कविताएं लिखी हैं . इस उम्र में बच्चों के लिए लिखने का ख्याल आपके मन में कैसे आया?

बच्चों के लिए लिखना मैंने बहुत बाद में शुरू किया और यह बहुत अच्छा हुआ कि मैं बच्चों के लिए लिखने लगा. यह मेरे लेखन का मोड़ था और यह कितनी अच्छी बात है कि बुढ़ापे के अंतिम समय में यह मोड़ मुझको मिला. इससे मेरी ज़िंदगी, मेरी उम्र बढ़ गई. मुझे लगता है कि मैं बच्चों के लिए नहीं लिखता तो शायद इतने लंबे समय तक जीवित नहीं रह पाता.

मैंने बच्चों के लिए लिखा हुआ बहुत कम पढ़ा है. इसलिए मेरे मन में किसी भी प्रकार का कोई पूर्वाग्रह नहीं था और मैंने जब लिखना शुरू किया वह मेरे लिए बिना किसी प्रभाव के बिना किसी एहसास के कि मैं किसी और की तरह नहीं लिख रहा हूँ. मैं जो लिख रहा हूं वह मेरी अपनी नई शुरूआत है. मैं स्वीकार करता हूं कि मैंने बच्चों पर लिखा हुआ साहित्य बहुत कम पढ़ा है और जो कुछ पढ़ा वह लिखते हुए थोड़ा बहुत पढ़ा है. लेकिन मैंने लिखा अपनी ही तरह. मैंने कविता, कहानी और उपन्यास भी अपनी ही तरह लिखने की कोशिश की है.

12.
अपने प्रारंभिक लेखन के बारे में भी कुछ बताइए?

मैंने इस घटना का बार-बार उल्लेख किया है कि जब मैंने लिखना शुरू किया तब भवानी प्रसाद मिश्र की कविता ‘जी हां हुजूर मैं गीत बेचता हूं.’ की पंक्ति की तरह मेरी कविता की पंक्ति थी ‘किसिम किसिम के गीत बेचता हूं’ तो जब यह कविता मेरे बड़े भाई जो बहुत पढ़ने-लिखने वाले आदमी थे, भगवती प्रसाद शुक्ल, ने मुझे बहुत डांटा. उन्होंने कहा यह तो भवानी प्रसाद मिश्र की कविता है. मैं अपनी अम्मा के पास गया, छोटा था शायद 15, 16 साल का रहा होऊंगा. मैंने अम्मा से कहा कि अम्मा तुम हमेशा यह कहती हो कि मैं अपने परिवार के बारे में लिखूं हालांकि मैं परिवार के बारे तो नहीं लिख पाया. जो पढ़ता-लिखता था उसी के बारे में लिखा. तो उसमें तो भवानी प्रसाद मिश्र की लाइन आ गई.

अम्मा ने कहा तुम अपने लेखन में इस बात को सोचो जैसे मैं जो कुछ भी काम करती हूं, उसके लिए मैंने तरह-तरह की छन्नी बना रखी है. गेहूं की छन्नी अलग है, चोकर निकालने की छन्नी अलग है, मैदे की छन्नी अलग है और चाय की छन्नी अलग है. तो तुम भी ऐसी छन्नी क्यों नहीं बना लेते कि दूसरों का लिखा हुआ आए तो छन जाए. तो अम्मा ने कहा कि अपने मन को पहले छन्नी बना लो फिर लिखने की शुरुआत करना. फिर वह बन गई इस तरह ऐसा लगता है.

13.
‘लगभग जयहिंद’ से आपने अपनी काव्य यात्रा की शुरूआत की और यहां तक पहुंचे पहुंचते बहुत कुछ बदल गया

यह सब समय करवाता है. हम दोबारा वैसा नहीं लिखते हैं और हम यह चाहते भी हैं कि हमने जो पहले लिखा है वैसा दोबारा न लिखें और हम हर तरीके से अपने समय के साथ में, जो नया समय होता है उसे एक लेखन में नए तरह का लगने वाला लेखन होना चाहिए ऐसा सोचते हैं और यह जरूरी भी है. लेकिन यह बहुत मुश्किल काम होता है क्योंकि हम लौटते हैं बार-बार अपने पुराने प्रतीकों और बिंबों की तरफ जो हमें आकर्षित करते हैं.

वे हमें लौटने की तरफ इशारा करते हैं और अच्छे भी लगते हैं क्योंकि वे पहले आ चुके होते हैं और थोड़े जाने-पहचाने हमारे अपने होते हैं. लिखने के बारे में हम सोचते हैं वही हमारे सोचने का है कि हमारी रचना हो जाए और हम ठीक-ठीक से अपनी अभिव्यक्ति पा सकें यही मुख्य बात होती है.

14.
आप अपने जन्मस्थान राजनांदगांव को आज किस तरह याद करते हैं?

नांदगांव छोड़ने से पहले जो नांदगांव था वही मेरी याददाश्त में है. अब सब बदल गया है. मेरी याददाश्त का जो नांदगांव था वह भी बदल गया है. अब वह नांदगांव रहा नहीं कोई दूसरा नांदगांव हो गया है.

15.
सब कहते हैं कि आप मुक्तिबोध के बेहद करीब रहे  और  उनसे बहुत प्रभावित भी थे. जबलपुर में आपका बहुत समय मुक्तिबोध के साथ गुजरा भी है, आज आप मुक्तिबोध को किस तरह याद करते हैं?

यही कि वो दिन कैसे थे. अब तो याद करके बीते हुए दिनों को लगता है कि वो दिन जो बीत गए हैं वो कितने अच्छे थे. ये दिन भी जो बीत रहे हैं वे अच्छे हैं और क्या! लेकिन बीते दिन ज्यादा अच्छे होते हैं, वे ज्यादा याद आते हैं.

16.
आपकी कविताओं में, कहानियों और उपन्यासों में जिस तरह से छत्तीसगढ़ बार-बार आता है, इसका कारण  है?

देखिए, मैंने इसके अलावा कुछ लिखा ही नहीं. मैं यहीं छत्तीसगढ़ में ही घूमता रहा यूं. कारण यही है मैं यहां घूमा हुआ था, यही मेरे अनुभव में है, यही जाना-पहचाना और जैसा कि मैंने कहा कि मैं अपने जाने-पहचाने को ही लिख रहा था. मैंने कविताएं भी वही लिखीं जिनसे मिलता रहा, बात करता रहा और यही मेरी सोच की सीमा है. मेरे जीवन के अनुभव ही मेरी रचनाओं में शामिल हुए हैं. जिनसे मिलता रहा हूं, अपने आस-पड़ोस से उन्हीं सब को लिखा. यही मेरी स्थानीयता है, मेरा विश्व है, मेरा संसार है.

17.
आप विदेशी कवियों में किसको अधिक पढ़ना पसंद करते हैं? आपके प्रिय कवि, लेखक कौन हैं?

नाम तो मुझको याद नहीं है, अब तो पढ़ना भी बहुत कम हो गया है. विदेशी लेखकों के जो अनुवाद आते हैं हिंदी की पत्र-पत्रिकाओं में उन्हीं को पढ़ता हूं मैं. लेकिन जैसा कि मैंने कहा कि मुझे नाम याद नहीं है. वैसे तो पहले के बहुत से लेखक हैं पर मुझे नाम याद नहीं है, मैं भूल जाता हूं. नाम याद नहीं आते. मेरे पास आज भी विदेशी कवियों की किताबें रखी हैं पर नाम याद नहीं.

18.
आप अपने लेखन की शुरुआत में सोमदत्त के साथ भी रहे हैं? जिन्हें लोगों ने आज भूला दिया है?

हां रहा हूं. अपने शुरुआती लेखन के समय में नरेश सक्सेना, सोमदत्त मैं सब साथ ही थे. सोमदत्त वेटनरी में थे, मैं एग्रीकल्चर में और नरेश इंजीनियर. लेकिन मिलते थे सभी हिंदी कविता के नाम पर. आज सचमुच सोमदत्त को याद करने वाले लोग नहीं रहे. इसमें हमारी स्मृति का भी हाथ है. हम भूला भी देते हैं, पर पुरानी रचनाओं को बीच-बीच में उलट-पलटकर देखते भी रहते हैं. साथ ही अपने को अपने पुरानेपन के साथ छांटकर नए को अलग रखने की कोशिश भी करते हैं. इसको आप स्वतः का संपादन कह सकती हैं, एक रचनात्मक संपादन है जो रचना को एक नयापन देता है.

19.
आज के युवा लेखकों के बारे में कुछ बताइए ?

(हंसते हुए) आज का युवा लेखन जिनको मैं देखता हूं जो दूसरे आलोचकों की नज़र में है. उनकी नज़र उनके प्रति अच्छी है और वाकई जो मुझसे मिलना चाहते हैं, जो आकर मुझसे मिलते हैं या जो दूर हैं और वे अपनी किताबें भेजकर मुझको अपनी रचना से मिलवाते हैं. जो रचना उन्होंने लिखी है उनको मैं देखता, सुनता हूं और अपनी राय देने की पूरी कोशिश करता हूं. इसकी मेरी सीमा है. कभी-कभी यह कर पाता हूं, कभी-कभी नहीं कर पाता हूं और कुछ भूल जाता हूं किसी की रचना के बारे में, कहने के बारे में, लेकिन बहुत अच्छा लिखा जा रहा है.

लोग जो हैं अपने लेखन में अधिकतम सीमाओं को लांघकर अपनी अभिव्यक्ति पाना चाहते हैं. उनकी गति तेज़ भी है और यह बहुत जल्दी हुआ है. चीजें बहुत जल्दी बदल गईं हैं.

20.
कैसा महसूस कर रहे हैं? लोगों की भीड़भाड़, दिन भर फोन, गहमागहमी.

ये मुझे अहसास कराने की कोशिश कर रहे हैं कि मैं कोई अलग तरीके से दिखने वाला आदमी हो रहा हूं. लेकिन मैं अपने आपको वैसा ही महसूस करता हूं जैसा कि पहले था. मैं आज भी वैसा ही हूं.

जीतेश्वरी
रायपुर

हिंदी साहित्य में एम.ए करने के पश्चात समकालीन हिंदी कहानी विषय में शोधरत.
विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में परिचर्चा और समीक्षाएं प्रकाशित.
मो. 9340791806
Tags: 20232023 बातचीतPEN-Nabokov Award for Achievement in International Literatureजीतेश्वरीविनोद कुमार शुक्ल
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Comments 10

  1. Ravi Ranjan says:
    3 weeks ago

    बहुत अच्छी वाग्जाल एवं आडम्बर से रहित सहज और अनौपचारिक बातचीत.
    विनोद जी को बधाई और जीतेश्वरी को इसे संभव और सुलभ बनाने के लिए धन्यवाद.
    सम्पादक अरुण जी को भी साधुवाद.

    Reply
  2. विजय राय says:
    3 weeks ago

    बहुत अच्छी और ज़रूरी बातचीत।
    आपका काम नायब है।जिस ईमानदारी से आप जुटे रहते हैं वह ईमानदारी ही आज सिरे से ग़ायब है।आपके अवदान को भुलाया नहीं जा सकता।

    Reply
  3. रमेश शर्मा says:
    3 weeks ago

    विनोद कुमार शुक्ल जी से जितेश्वरी की बातचीत बहुत अच्छी लगी । बड़ी साफगोई और सहजता से विनोद कुमार शुक्ल जी ने प्रश्नों का जवाब दिया है।कल ही जितेश्वरी के माध्यम से ही विनोद कुमार शुक्ल जी से मेरी बात हो पाई। उन्हें बधाई देते वक्त वे भी खुश थे और मुझे भी बहुत खुशी हो रही थी।

    Reply
  4. वंशी माहेश्वरी says:
    3 weeks ago

    सादगी अपना घर विनोद जी में बनाकर रहती है
    इस सम्मान को भी वे अपार सहजता से लेते हैं.
    लेखक की दुनिया पुरस्कार से बड़ी है.
    प्रश्नों के उत्तर में धीर-गांभीर्य और अपनी विराट रचनाधर्मिता को शब्दों की मितव्ययिता के साथ कहना विनोद जी का स्वभाव रहा है, बहुत ही संकोची लेकिन गहरी सजगता ,तल्लीनता, तत्परता के भाव सदैव चौकन्ना रहे हैं.

    हरेक प्रश्न में विनम्र विश्वास का जो आकाश है
    उसमें पिंजड़ा सहित पक्षी की उड़ान है.
    विनोद जी के उपन्यास, कहानी , निबंध,साक्षात्कार इत्यादि सभी में कविता है. उनकी साँसों में अर्थात् प्राणवायु में कविता है.
    उन्हें दुनियादारी से नहीं लेखन की दुनियादारी
    से सरोकार है.
    बक़ौल विनोद जी वे अपने लेखन को आधा-अधूरा मानते हैं तो समग्र क्या होगा.
    अपने लिये अपने को इस तरह देखना विनोद जी अंतरंगता ही है.

    जीतेश्वरी जी का यह साक्षात्कार बहुत अच्छा लगा. अंत में विनोद जी को मेरी व ‘ तनाव ‘ परिवार की स्वस्तिक कामना.
    अरुणोदय जी को धन्यवाद.

    वंशी माहेश्वरी

    Reply
  5. अरुण कमल says:
    3 weeks ago

    अपने प्रिय कथाकार कवि आदरणीय विनोद कुमार शुक्ल को बहुत-बहुत बधाई और अभिनंदन—अरुण कमल

    Reply
    • त्रिलोक महावर says:
      3 weeks ago

      बहुत ही आनंद व गर्व हो रहा है। हम विनोद कुमार शुक्ल जी के शहर में रहते हैं । पुरस्कार पाने की खबर मिलते ही विनोद जी के घर जाकर मिलना, बधाई देना, मुँह मीठा करना और चाय के साथ अविस्मर्णीय पल , हार्दिक बधाई अनंत शुभकामनाएं ।
      त्रिलोक महावर 7000873240

      Reply
  6. Aishwarya Mohan Gahrana says:
    3 weeks ago

    इतना सरल साक्षात्कार तो मैंने हाल में तो नहीं देखा| मैं स्वच्छ स्थिर जल में शांत नाव मैं बैठे हुए विनोद कुमार शुक्ल जी को देख पा रहा हूँ| यह जल और नाव अपने स्वभाव से नहीं बल्कि विनोद जी के प्रभाव से स्थिर हो रही है|

    Reply
  7. ललन चतुर्वेदी says:
    3 weeks ago

    सरल,सहज साक्षात्कार । जैसा लिखना,वैसा ही दिखना।

    Reply
  8. Kalpana Pant says:
    3 weeks ago

    कितना सादगीपूर्ण साक्षात्कार

    Reply
  9. रामदेव सिंह says:
    3 weeks ago

    विनोद जी के दो उपन्यास ‘ नौकर की कमीज ‘ और ‘ दीवार में खिड़की रहती थी ‘ हिन्दी उपन्यासों में मेरे सर्वाधिक प्रिय उपन्यास हैं। एक लेखक के रुप में मेरा यह सपना रहा है कि काश! ऐसा ही एक उपन्यास मैं लिख पाता तो लेखक होना सार्थक हो जाता । लेकिन हर लेखक विनोद कुमार शुक्ल नहीं हो सकता । मैं इस बात से ही खुश और गर्व महसूस करता रहा हूं कि मैं उनका पाठक हूं ।
    एक बार विनोद कुमार शुक्ल के साहित्य की आलोचना में हमारे दौर एक प्रसिद्ध आलोचक वीरेंद्र यादव जी ने ,किसी पत्रिका में एक लेख लिखा था जिनसे मेरी असहमति थी । वीरेंद्र जी विद्वान आलोचक हैं जिनसे मेरे व्यक्तिगत सम्बन्ध भी थे , सो मैंने पत्रिका में तो नहीं ,लेकिन उन्हें पत्र लिखकर अपनी असहमति व्यक्त किया था। क्या संयोग था कि मेरा पत्र मिलने के दो चार दिनों बाद ही विनोद जी लखनऊ गये हुए थे और वे वीरेंद्र जी से मिलने उनके घर चले । वीरेंद्र जी ने मेरे पत्रोत्तर में तफसील से उस वाकए का जिक्र किया कि कैसे विनोद जी के अचानक पहुंचने से वे इंबैरेसिंग पोजीशन में थे । क्योंकि उस लेख को पढ़ने के बाद ही विनोद जी उनसे मिलने गये थे । वीरेंद्र जी ने उन्हें मेरा पत्र दिखाया भी था । वीरेंद्र जी का वह पत्र मेरे पास आए भी सुरक्षित है ।
    निजी तौर पर मेरा मानना है । हिन्दी साहित्य में निर्मल वर्मा के बाद विनोद कुमार शुक्ल सबसे बड़े संत लेखक हैं ।
    मैं एक बार राजनांदगांव गया था । जब विनोद जी वहां रहते थे । मेरे वहां जाने की परिस्थिति इतनी विषम थी कि मैं अपने प्रिय लेखक से मिल नहीं सका ।
    जिस दिन से विनोद जी के नाम पेन -नाबाकोव पुरस्कार की घोषणा हुई है, मैं फोन करके अपने मित्रों से उनके साहित्य की चर्चा कर रहा हूं , जैसे यह पुरस्कार मुझे ही मिला हो ।

    Reply

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समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

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