पार्टनर का पॉलिटिक्स
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(यह टिप्पणी, जो रज़ा फाउन्डेशन और मुक्तिबोध फाउन्डेशन की एक मुक्तिबोध संगोष्ठी के लिए लिखी गई थी, नेमिचंद्र जैन की स्मृति को इसलिए समर्पित है कि उन्होंने गजानन माधव मुक्तिबोध के पत्रकार को भी खोजा और सराहा तथा राजेंद्र माथुर की स्मृति को इसलिए समर्पित है कि युवा मुक्तिबोध और उनके युवतर समकालीन माथुर दोनों मध्यप्रदेश-मालवा के और अखबारनवीसी में विलक्षण प्रतिभा के धनी थे.क्या इनमें रूसी बोल्शेविक क्रांति पर उसी समय- अक्टूबर 1917 में- ‘कर्मवीर’ में सम्पादकीय लिखनेवाले, मध्यप्रदेश-खंडवा के बड़े हिंदी कवि-पत्रकार,दादा माखनलाल चतुर्वेदी को भी न जोड़ लूँ? )
मेरे सहचर हैं ढहा रहे वीरान विरोधी दुर्गों की अखंड सत्ता.
उनके अभ्यंतर के प्रकाश की कीर्तिकथा
जब मेरे भीतर मँडराई
मेरी अखबार-नवीसी ने भीतर सौ-सौ आँखें पाई
(मुक्तिबोध की कविता ‘’जब प्रश्नचिन्ह बौखला उठे’’ का एक अंश, रमेश गजानन मुक्तिबोध द्वारा संकलित-संपादित समशीर्षक लेख-संग्रह में से उद्धृत.)
(एक)
ग़ैर-ज़रूरी गहराई में गए बिना यह कहा जा सकता है, और जागरूक पाठक जानते ही हैं, कि सभी तरह की ख़बरों-घटनाओं और उनके विश्लेषणों से सम्बद्ध मुद्रित पत्रकारिता कई तरह की होती है. यह भी कि आवधिकता का मूलभूत प्रभाव पत्रकारिता पर पड़ता है – ख़बरें दैनिक प्रकाशन में अलग तरह की होती हैं और साप्ताहिक, पाक्षिक और मासिक में अलग-अलग. समाचारों की वार्षिकियाँ भी प्रकाशित होती हैं. उधर स्वयं दैनिक में कई छोटे-बड़े दैनिक समाहित होते हैं. अब तो लगभग प्रत्येक मानव-गतिविधि पर सारे संसार में दैनिक को छोड़कर– यद्यपि कई अत्यंत प्रभावशील आर्थिक दैनिक भी उपलब्ध हैं- सैकड़ों भाषाओं में शायद लाखों स्वतंत्र आवधिकता के मुद्रित पत्र-पत्रिकाएँ उपलब्ध हैं. इनमें कलाओं-संस्कृतियों-साहित्यों के ऐसे प्रकाशनों को भी शामिल करना होगा.
इस जटिल वैविध्य से विचित्र प्रश्न उठते हैं. ’असल’ अखबार,ख़बरें और खबरनवीस क्या और कौन हैं? क्या समाचारपत्र वही है जो बड़े आकार का होता है और जिसे रोज़ सुबह कोई हमारे यहाँ फेक जाता है ? क्या उसमें वेतन पर काम करनेवाले ही पत्रकार होते हैं ? और कई कारणों से जो उनमें चोरी-छुपे लेकिन नियमित तनख्वाह पर जुड़े होते हैं , वे ? उनमें भी क्या मात्र वही असली होते हैं जो कथित ‘’फील्ड’’ में घूमकर ख़बरें बटोरते-सूँघते और लिखते हैं और ‘’डेस्क’’ पर बैठकर या ‘’चैंबर’’ में प्रतिस्थापित ख़बरों या समूचे अखबार को संपादित करनेवाले कहाए जानेवाले नहीं ? और उसमें नियमित-अनियमित मूल ‘’फ़ीचर’’,’’कॉलम’’ आदि लिखनेवाले ‘फ्री-लांसरों’ को क्या माना जाए?
(दो)
साठ वर्ष से भी अधिक पहले, जब आज की महानतम हिंदी प्रतिभा गजानन माधव मुक्तिबोध ने मध्यभारत का अपना वतन-ए-मालवा छोड़कर सी.पी.एंड बरार की, हालाँकि बहुसंख्यक मराठी-मातृभाषा वाली, राजधानी नागपुर में दुर्दांत जीवन-संघर्ष शुरू किया था, तब अन्य पापड़ बेलने के अलावा उन्होंने सरकारी अखबारनवीसी के सूचना विभाग में कारकुनी भी की और शायद तभी वह पत्रकारिता के सघन संपर्क में आए होंगे, क्योंकि उससे पहले पत्रकार बनने के उनके इरादे और वलवले तो मालूम पड़ते हैं,कोई प्रमाण नहीं मिलते. मुक्तिबोध साहित्य में पहले-से ही प्रकाशित हो रहे थे, ’तार सप्तक’ में शामिल होने के बाद उनकी ख्याति और बढ़ी. दुनियावी और समाजी वर्गीय तौर पर उनका जो भी मर्तबा रहा हो, लेखकों-बुद्धिजीवियों की बिरादरी में उन्हें सम्मान मिलने लगा था. वामपंथी वह थे ही, एक असाधारण मेधा के धनी थे और उन्हें सब कुछ जानने-समझने की भूखी एक वृकोदर वैश्विक चेतना हासिल थी.
यूँ तो मुक्तिबोध आजीवन अपनी किसी नौकरी और रिहाइश से सही अर्थों में संतुष्ट नहीं हुए, तब भी मालवा की ज़िन्दगी तज कर उनका नागपुर आना एक बौद्धिक ‘क्वांटम जम्प’ था. उज्जैन, इंदौर, ग्वालिअर की तरह नागपुर भी साझा हिंदी-मराठी संस्कृतियों का, लेकिन उन सबसे बड़ा और कहीं आधुनिक, केंद्र था (और अब भी है). भोंसलेशाही के बाद वहाँ अंग्रेज़ी राज आया, वह एक नए सूबे की राजधानी बना, एक विश्वविद्यालय और कई प्रतिष्ठित कॉलेज वहाँ खुले और 1947 के बाद वह स्वातंत्र्योत्तर नई देशी राजनीति का एक बड़ा केंद्र बनकर उभरा और 1956 में भाषावार राज्य-पुनर्गठन तक रहा. तब तक वहाँ बाळ गंगाधर टिळक और महात्मा गाँधी आदि के पुतले भी लग चुके थे. रविशंकर शुक्ल, द्वारिकाप्रसाद मिश्र, ना.भा.खरे आदि तभी के चर्चित व्यक्तित्व हैं. तत्कालीन ‘सैन्ट्रल प्रॉविन्सेज़ एंड बरार’ की पूँजी, उद्योग, राजनीति और सत्ता पर मुख्यतः यू.पी. के ब्राह्मणों और राजपूताना-मारवाड़ के वैश्यों का आव्रजक वर्चस्व था, बरार में भी, जिसे अब विदर्भ कहा जाता है, जहाँ यूँ तो प्रचंड बहुमत निम्न- एवं मध्यवर्गीय मराठीभाषी सुफैदगरेबानों, बुद्धिजीवियों, डॉक्टरों, वकीलों, डोमाजी वस्ताज जैसे लुम्पेनों, मज़दूरों और किसानों का था (और अब भी है). नागपुर औद्योगिक विश्व में अपनी सूती मिलों के लिए भी विख्यात था.
इस लेखक की ज़िला-जन्मस्थली छिन्दवाड़ा, जो हाल तक एक क़स्बा या छोटा शहर ही था, की नागपुर से दूरी 80 मील या 120 किलोमीटर रही आती है. छिन्दवाड़ावासियों के लिए नागपुर अब भी मक्का-मदीना, मुंबई और ऑक्सब्रिज का मिला-जुला रुतबा रखता है. मेरे पिता वहीं के 1938 के प्रतिष्ठित साइंस कॉलेज के गर्वीले सेकंड-क्लास ग्रेजुएट थे. 1955 में मेरे छिन्दवाड़ा छोड़ने तक वहाँ के हिंदी प्रचारिणी पुस्तकालय-वाचनालय में नागपुर से प्रकाशित दोनों अंग्रेज़ी दैनिक ‘हितवाद’ और ‘नागपुर टाइम्स’ आते थे, जिनकी राष्ट्रीय इज़्ज़त थी, और कहने को पुराना हिंदी दैनिक ‘नवभारत’ भी, जो न तब स्तरीय था और न आज है. अब तो उसके मालिक भी बदनाम हो चुके हैं. महत्वपूर्ण यह है कि वहाँ तब हिंदी साप्ताहिक ‘नया खून’ भी आता था, जो मोटामोटी वामपंथी था, एक तरह से लोकप्रिय अंग्रेज़ी ‘ब्लिट्ज’ की परंपरा में था और अपने देसी, हिंदी तेवरों, निडरता और व्यंगपूर्ण शैली के कारण अत्यंत पठनीय था. कृष्णानन्द ‘सोख्ता’ उसके मालिक-सम्पादक थे और बाद में अन्य नौकरियाँ छोड़ते हुए उसके सम्पादक बने गजानन माधव मुक्तिबोध.
घनघोर आर्थिक संकटों ने मुक्तिबोध को ‘मूनशाइनिंग’ का, यानी कहीं नियमित वेतन पर पूर्णकालिक काम करते हुए भी अतिरिक्त आमदनी के लिए उपनाम या गुमनामी से कहीं और कोई ‘पार्ट-टाइम’ या ‘कैज़ुअल’ काम करने का, ’मास्टर’ बना दिया था. ऐसा अब भी होता है, और मुद्रित पत्रकारिता में भी. लेकिन केंद्र और प्रदेश सरकारों में अब भी एक सख्त नियम यह है कि उनका कोई भी मुलाजिम बिना पूर्व-सूचना और अनुमति के लेखन सहित अन्य कोई भी वैतनिक-अवैतनिक काम नहीं कर सकेगा ताकि वह कोई राजनीतिक या विरोधी, आलोचनात्मक चीज़ न लिख या कर डाले. आज़ादी के फ़ौरन बाद यह क़ानून बहुत सख्त था और सामान्य, नागरिक विषयों पर भी सम्पादक के नाम मासूम पत्र लिखने तक पर पाबंदी थी. शायद यह अब भी ‘फंडामैन्टल रूल्स’ में हों लेकिन अब उनका अस्तित्व उनकी अवज्ञा में ही रह गया है. मुक्तिबोध के साथ तो तिहरी मार थी – वह न सिर्फ़ सियासी पत्रकारिता करना चाहते थे बल्कि छद्मनाम से, साथ में कम्युनिस्ट भी थे, और एक सरकारी कर्मचारी के लिए यह तीनों परले दर्जे के ग़ैरकानूनी, राजद्रोही (कु)कृत्य थे. यह वह ज़माना था जिसमें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और, समाजवादी जवाहरलाल नेहरू के बावजूद, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी और विचारधारा पर बराबर का प्रतिबन्ध लगा हुआ था.
मुक्तिबोध ने कभी रामगोपाल महेश्वरी के उपरोक्त हिंदी दैनिक ‘नवभारत’ या नागपुर या कहीं और के किसी अन्य दैनिक में लिखा या नहीं यह मालूम नहीं– उनकी पत्रकारिता को लेकर और भी कई सूचनात्मक या तथ्यात्मक समस्याएँ हैं – लेकिन नेमिचंद्र जैन द्वारा संपादित ‘मुक्तिबोध रचनावली’ के छठे खंड में संकलित उनके पत्रकारितापरक लेखों, टिप्पणियों और सम्पादकीयों से यही सामने आता है कि लगभग 180 पृष्ठों में फैली यह सामग्री मुख्यतः ‘नया खून’ और तत्कालीन विद्रोही कांग्रेसी नेता द्वारिकाप्रसाद मिश्र के हिंदी साप्ताहिक ‘सारथी’ में छपी थी.मैं नहीं समझता कि उन दिनों एक ही शहर से इस तरह के दो “बाग़ी” साप्ताहिक किसी अन्य हिंदी प्रदेश से प्रकाशित होते थे. बाद में तो मुक्तिबोध घोषित रूप से ‘नया खून’ के सम्पादक नियुक्त हुए थे किन्तु बावजूद इसके कि वह ‘सारथी’ के कुछ नहीं तो साहित्य-सम्पादक तो थे ही और उसमें कॉलम भी लिखते थे लेकिन उनका वास्तविक नाम कहीं नहीं गया –ज़्यादातर उन्होंने (उज्जैन की स्मृति में) ‘’अवन्तीलाल गुप्त’’ उपनाम का प्रयोग किया अथवा कभी-कभी ‘’यौगंधरायण’’ का. ’नया खून’ में प्रकाशित बौद्ध संस्कृति से जुड़े एक लेख में अलबत्ता उन्होंने अपना नाम ‘’अमिताभ’’ रखा. यदि मुक्तिबोध ने कभी-कभी ‘नया खून’ और ‘सारथी’ के लिए एक साथ भी लिखा है तो यह जानना दिलचस्प होगा कि यह दुहरी ‘मूनशाइनिंग’ कृष्णानंद ‘सोख्ता’ और द्वारिकाप्रसाद मिश्र के संज्ञान में थी या नहीं – यह तो लगभग असंभव है कि न रही हो, क्योंकि मुक्तिबोध का पत्रकारिता-गद्य भी इश्क और मुश्क की तरह छिपाए नहीं छिपता.
(तीन)
‘कमला’ में 1941-42 में कभी प्रकाशित ‘नव-भाववाद’ शीर्षक निबंध को मुक्तिबोध की ‘’पत्रकारिता’’ का पहला नमूना मानना कठिन है क्योंकि अव्वल तो ‘कमला’ साहित्यिक पत्रिका ही रही होगी, फिर उसे मुक्तिबोध का ‘पहला’ वैसा निबंध सिद्ध किया नहीं जा सकता और तीसरे वह मराठी साहित्य की एक तत्कालीन प्रवृत्ति से सम्बद्ध है जो स्वयं फ़्रोइड और बरट्रांड रसेल सरीखे मनोवैज्ञानिकों और नवाचारी चिंतकों से प्रभावित थी. उसकी ‘जानकारियों’ के कारण शायद उसे साहित्यिक-सूचना-पत्रकारिता कहा जा सकता है. यदि ‘नया खून’ के 1952 के किसी अंक में प्रकाशित लम्बे,अधूरे ‘’सम्पादकीय’’ को मुक्तिबोध का पत्रकारिता-अरंगेत्रम् माना जाए और उसी में 21 फ़रवरी 1958 के अंक में प्रकाशित ‘’हुएन सांग की डायरी’’ को उनका पत्रकारिता-विदा-लेख, तो अव्वल तो यह सवाल उठता है कि मुक्तिबोध इतने पहले ‘नया खून’ में सम्पादकीय लिखनेवाले कैसे हुए, और फिर भले ही ‘नया खून’ और ‘सारथी’ दोनों ही साप्ताहिक थे, फिर भी उनमें छः वर्षों यानी अधिकतम 624 हफ़्तों में, मुक्तिबोध के सिर्फ़ 49 लेखादि क्यों हैं ? प्रकाशन-स्थगन,संयुक्तांक,अंकों की अनुपलब्धि,हारी-बीमारी,अस्थायी बे-बनाव आदि कई कारण हो सकते हैं,निजी समस्याएँ भी, लेकिन इतने कम ‘आउटपुट’ से कुछ निराशा तो होती ही है.
यह तथ्य कम दिलचस्प नहीं है कि ‘नया खून’ के उपरोक्त “सम्पादकीय” को ‘’नौजवान का रास्ता’’ शीर्षक नेमिचंद्र जैन ने ‘रचनावली’ में पाठकों की सुविधा के लिए दिया है. तो क्या नेमिजी के सामने उसकी बेसरनामा, अधूरी पांडुलिपि थी, मुद्रित पृष्ठ नहीं ? इस लेखक ने ‘नया खून’ देखा-पढ़ा है, वह टैब्लोइड साइज़ का हुआ करता था और उसका कलेवर कभी इतना बड़ा न था कि उसमें क़रीब 5000 शब्दों का असाधारण, उदबोधनात्मक ‘’सम्पादकीय’’ छप सके. लेकिन इसी में तीन पंक्तियाँ हैं, जो शायद नेमिजी की गृध्र-दृष्टि से भी बची रह गईं, जो लगभग यह सिद्ध कर देती हैं कि यह सम्पादकीय नहीं था- “इस लेख का लेखक एक मामूली आदमी है…’’ ‘’… “क्या इन पंक्तियों का लेखक और उनका पाठक…’’ ’’…इस लेख का लेखक इस बात को ख़ुद पहचानता है…’’
बहरहाल, अपनी प्रकृति में है यह मुक्तिबोधियन-शैली का पत्रकारिता-लेखन ही, जो यूँ तो समूचा पढ़ा जाना चाहिए लेकिन इस तरह के कुछ अंश विशेषतः ध्यातव्य हैं : “जो नौजवान 19-20-21 साल में ही बूढों की खूसट सांसारिक आँखों से ही दुनिया को देखने लगता है,समझ लीजिये कि उसमें साहस की प्रवृत्ति,नए अनुभव प्राप्त करने की जिज्ञासा और क्षमता,तथा जीवन के नव-नवीन उन्मेष का नितांत अभाव है. ऐसा नौजवान नायब तहसीलदार या आइ.ए.एस.हो सकता है.लेकिन वह देश के किस काम का’’! मुक्तिबोध स्वयं उस समय सिर्फ़ 35 वर्ष के थे लेकिन उस ज़माने में एक संघर्षशील, अभावग्रस्त निम्नमध्यवर्गीय पुरुष (और स्त्री भी) उस उम्र तक, विशेषतः यदि बाल-बच्चे हुए तो, बुज़ुर्ग मान लिया जाता था और वैसा दीखने और व्यवहार भी करने लगता था. आज के युवकों को, ख़ास तौर पर हिंदी के महत्वाकांक्षी ब्लॉगिए अकादमिक-ग़ैर-अकादमिक वर्चुअल हुड़ुकलुल्लुओं को, मुक्तिबोध की इस्लाह एक अनधिकार, बचकाना, ’आउट ऑफ़ डेट’, वृथा-आदर्शवादी और हास्यास्पद चेष्टा लग सकती है लेकिन लेकिन नौजवानों की यह तस्वीर उनके ज़ेहन में थी: ‘तर्कसंगत विचार-सरणि, जिज्ञासा, तथ्य-अनुसंधान, उज्ज्वल आदर्शवाद, ज्ञान, सत्य, हार्दिकता, विनम्रता, प्रेम, त्याग के सामने विनय, संघर्षमय मानव विकास में आस्था,मानव-शत्रुओं पर विजय में विश्वास,जनोद्धार में श्रद्धा,अपने अनुभवों और ग़लतियों से सीखते रहना, दूसरों की सामान्य ग़लतियों और कमज़ोरियों का हमदर्द और ईमानदार विश्लेषण, निजी साहस और निर्णय-क्षमता, व्यक्तिगत जीवन का सुसंगठन’ आदि. ज़ाहिर है कि अपने निजी जीवन के बरक्स आज के जलेसी, प्रलेसी, जसमी, सहमतिये और अन्य, फ्री-लांस, ‘’वामपंथी’’ युवक-युवतियों की कल्पना कर पाना मुक्तिबोध के बूते की बात न थी.
पिछले कुछ वर्षों से और भी संदिग्ध तथा अक्षम बना दी गई राष्ट्रीय संस्था यू. पी. एस. सी. इन दिनों फिर हिंदी के प्रश्न पर कटघरे में है और यह देखना दिलचस्प है कि पत्रकार मुक्तिबोध की एक चिंता यह कथित राज-राष्ट्र-भाषा भी थी. “अंग्रेज़ी जूते में हिंदी को फ़िट करनेवाले ये भाषाई रहनुमा’’ शीर्षक लेख में उनका मानना था कि हिंदी की पारिभाषिक शब्दावली पूरे हिंदी प्रदेश को इकठ्ठा बैठकर बनानी चाहिए और शेष राष्ट्र की भाषायी भावनाओं, क्षमताओं और ज़रूरतों का ध्यान रखा जाना चाहिए.’’
हिंदी भाषा का ठेका न मध्यप्रदेश मंत्रिमंडल को दिया जा सकता है, न उसे लेना चाहिए’’. उर्दू और बोलियों की शब्दावली के विरोध को मुक्तिबोध साम्प्रदायिक मानते हैं. हिंदी को दुरूह बनाए जाने और प्रस्तावित हिंदी यूनिवर्सिटी पर मुक्तिबोध का प्रश्न है:
‘’जनसंघ के मौलिचन्द्र शर्मा, पुरुषोत्तमदास टंडन और डॉ. रघुवीर में आख़िर मौलिक अंतर क्या है’’? हम देख ही रहे हैं कि जन्मना पतनशील वर्धा गाँधी हिंदी विश्वविद्यालय उत्तरोत्तर इतना सड़ चुका है कि ‘’ऑल दि परफ्यूम्स ऑफ़ अरेबिया’’ उसकी बदबू को छिपा नहीं पा रही हैं. लेकिन 1958 तक न तो पारिभाषिक शब्दावली बन पाई और दूसरी ओर 1965 तक हिंदी को राजभाषा बनाने का प्रश्न और जटिल तथा उग्र हो चुका था और यह तिथि एक मखौल बन चुकी थी. अपने एक लेख के शीर्षक में ही मुक्तिबोध मानते हैं कि “सन् पैसठ तक हिंदी केन्द्रीय राजभाषा बन सकती है’’ लेकिन समस्या की विकरालता को देखते हुए अन्दर यह भी कहते हैं कि
“सन् 1965 के बाद हिंदी के साथ-साथ अंग्रेज़ी भी चालू रखी जाये…’’ ‘’…राज-काज के मामलों में हिंदी को अत्यंत प्रधान बना दिया जाये और अंग्रेज़ी को गौण बना दिया जाये…’’वह हिंदी को राजभाषा बनाने के लिए सावधानीपूर्वक ‘’क़दम-ब-क़दम और मंजिल-दर-मंज़िल’’ आगे बढ़ने की बात करते हैं लेकिन अंत में उनके क़लम से यह भी निकल जाता है कि ‘आज जब भारत में अंग्रेज़ी का व्यापक प्रचार है तो उसे कम करने की ज़रूरत नहीं, उसे बढ़ाने की ज़रूरत है. विशेषकर तब तक कि जब तक हिंदी भाषा अंग्रेज़ी,रूसी और जर्मन के समान ही समृद्ध नहीं हो जाती’. यह ‘न नौ मन तेल होगा न राधा नाचेंगी’ वाली ‘कैच-22’ ज़िच है. क़सूर अकेले मुक्तिबोध का नहीं है- हिंदी को राजभाषा की मंज़िल तक पहुँचाने वाला, यदि उसे पहुँचाना ही है तो, सड़क-नक्शा कभी किसी के पास नहीं रहा और अब तो लगता है कि सुप्रीम कोर्ट की लताड़ के बावजूद गंगा-सहित भारत के सारे नदी-नालों को प्रदूषण-मुक्त करना तो संभव होगा,जिसमें अरबों की कमाई है, हिंदी को राजभाषा बना पाना नहीं,जिससे कानी कौड़ी भी टेंट में नहीं आएगी.
(चार)
जर्मन में जिसे ‘कुल्टूअरपोलिटीक’ (Kulturpolitik) कहा जाता है उसे लेकर ‘नया खून’ में क्रमशः 18 सितम्बर 1953 और 28 जून 1957 को ‘’ज़िंदगी के नए तकाज़े और सामाजिक त्यौहार’’ तथा ‘’सांस्कृतिक-आध्यात्मिक जीवन पर संकट’’ शीर्षकों से प्रकाशित मुक्तिबोध के दो अनाम लेख उनकी सांस्कृतिक पत्रकारिता के विरल किन्तु अनूठे उदाहरण हैं. दरअसल दोनों सामान्य सांस्कृतिक अखबारनवीसी के गद्य और शैली में लिखे ही नहीं गए हैं – पहला तो सामाजिक टिप्पणी, पर्यवेक्षण,संस्मरण,लगभग कविता-कहानी और रिपोर्ताज़ का मार्मिक कोलाज़ है और मुक्तिबोध चाहते तो उसे अपनी एक और अद्भुत कविता या कहानी में बदल सकते थे.एडिनबरा के बारे में पढ़े हुए और नागपुर के देखे-भुगते समान्तर शहरी ‘’विकास’’ की चर्चा करते हुए वह एक ही नगर की दो संस्कृतियों (‘’टू कल्चर्स’’) पर कहते हैं: “एक ही शहर की दो संस्कृतियाँ हैं– एक गरीब की संस्कृति और दूसरी अमीर की संस्कृति. एक ही शहर में दो राष्ट्र हैं. एक राष्ट्र ग़रीब है,काम करता है,कुलीगीरी करता है,मजदूरी करता है,रिक्शा चलाता है,क्लर्की करता है,टाइमकीपरी करता है,दर्जीगीरी करता है. एक और दूसरा राष्ट्र है जो मैंगनीज़ की खदानें लेता है, अंग्रेज़ी, हिंदी, मराठी अखबार निकालता है,चुनाव लड़ता है,और सरकार चलाता है, और उद्योगों में पैसा लगाता है’’.
मुक्तिबोध यदि आज यह लेख लिख रहे होते तो कहते कि साहित्य,संगीत,कला और अन्य संस्कृति की तिजारत भी वही करता है. दृष्टव्य है कि मुक्तिबोध की यह ‘टू कल्चर्स’ और ‘टू-नेशंस’ या ‘इंडिया-भारत थ्योरीज़’ आज साठ वर्षों से भी ज़्यादा पुरानी हैं.
आगे चलकर इस निबंध में शीतला माता को पूजने जा रही निचले वर्गों और वर्णों की ग़रीब औरतों, उनके गंदे मोहल्लों, संडासों, नालियों, धड़ाधड़ होने वाली, विशेषतः बच्चों की मौतों का ज़िक्र है. “तब किसी ईश्वर की कृपा के लिए…मातृ-हृदया औरतें सड़कों और गलियों में गाती हुई निकलती हैं. यह उनकी संस्कृति है, हमारी संस्कृति नहीं’’. फिर मुक्तिबोध फटेहाल सब्जी बेचनेवालों, रिक्शेवालों, फटी चड्डी पहने होटलों के पीलियाग्रस्त लड़कों, किसी अभागन मा द्वारा गटर में तज दी गयी दो वर्ष की एक रोती हुई मरणासन्न बच्ची, उसे बचानेवाले मरे ढोर धोते हुए एक मुंसीपाल्टी-मेहतर,अखाड़ों के जुलूस में शामिल होनेवाले और मुहर्रम में कुछ कमाई के लिए पेंटर नागेश की कूची से शेर बने हुए ग़रीब हिन्दू किशोर-युवकों की ज़िंदगियों के स्कैच पेश करते हैं.
आज़ादी के बाद के सांस्कृतिक ह्रास के एक पहलू पर मुक्तिबोध कहते हैं :
“…कांग्रेस सरकार के अधिष्ठित होते ही,एक ज़माने में गणेशोत्सव,जो राष्ट्रीय सामाजिक और सांस्कृतिक त्यौहार माना जाता था,उसमें अब बैंड-बाजे के बदले लाउड-स्पीकरों और सस्ते सिनेमा गीतों को लगाया जाता है.इसका वह पुराना सामाजिक सत्य अब नष्ट हो गया है”…”आज तक हमारे पास सांस्कृतिक नेतृत्व रहा.अब उसमें ह्रास के चिन्ह दृष्टिगोचर हो रहे हैं’’.
यह अच्छा ही हुआ कि मुक्तिबोध आज का कल्पनातीत सांस्कृतिक पतन देखने के लिए जीवित न रहे जिसमें सारे हिन्दू पंचांग वैश्विक उपभोक्तावाद यानी पूँजीवाद के सबसे बड़े हथियारों के रूप में स्थापित हो चुके हैं और राष्ट्रीय संस्कृति सनी लिओने के सार्वजनिक गुप्तांगों में सिमट आई है.
अपने उपरोक्त दूसरे, अपेक्षाकृत छोटे, सांस्कृतिक-पत्रकारिता निबंध में मुक्तिबोध फिर एक असामान्य किन्तु अपनी सुपरिचित ‘डायलॉग’ शैली अपनाते हुए अपने ‘प्रोतेगोनिस्त’ से एक चौंकानेवाला सिद्धांत प्रतिपादित करवाते हैं. संवाद ‘’मैं’’ और ‘’हमारे एक मित्र’’ के बीच है, जो अपनी एक अलग ‘’आध्यात्मिक’’ दुनिया में रहने की फुरसत चाहता है. ’’आध्यात्मिक’’ से उसकी मुराद एक ऐसी रूहानी ज़िन्दगी से है जिसमें आदमी खुद से ऊपर उठे, किसी बात के लिए जीना और मरना चाहे. मित्र मानता है कि कभी ‘’हमारे’’ समाज में ‘’सत्संग’’ की अहमियत थी. ऊँचे विचारों और भावनाओं से दिल-ओ-दिमाग़ में एक हरारत रहती थी. किसी श्लोक, चौपाई या ग़ज़ल से हमें आध्यात्मिक ऊंचाई मिलती थी. उनमें जो बात कही जाती थी वह जीवन जीने की, अमल में लाने की कोशिश करने की वस्तु लगती थी. वह उत्तरोत्तर रस,सौन्दर्य,जीवन-मार्ग और गंतव्य हो जाती थी. हम अपनी संकीर्णताओं को तजते हुए कभी सूफ़ियों, कभी गाँधी और कभी मार्क्स तक भी जाते थे.यह एक अलग ‘’सत्संग’’ की माँग करता था जो साधू-संतों के सत्संग से अलग था. मित्र कहता है: ‘’आतंकवादी महापुरुषों का सत्संग भी ऐसी चीज़ थी’’…’’
आपत्ति और संकट के समय सत्संग-रस के मर्मज्ञ अपनी-अपनी सेवाएँ प्रस्तुत कर देते थे’’…इस सत्संग के प्रभाव से न्यायप्रियता, ईमानदारी, श्रमशीलता, प्रतिष्ठा और लोकप्रियता प्राप्त होती थीं. सांस्कृतिक पत्रकारिता में यांत्रिक ‘एलिएनेशन’ के विरुद्ध आध्यात्मिकता और सत्संग की ऐसी समावेशी,यद्यपि सूक्ति-शैली में की गई, व्याख्या अद्वितीय ही कही जाएगी.
‘नया खून’ के एक तिथिविहीन सम्पादकीय ‘दीपमालिका’ में मुक्तिबोध दीपावली के बहाने दो काल्पनिक कबीलों का एक लोककथानुमा लंबा यूटोपीय रूपक गढ़ते हुए अंत में कहते हैं:
“यदि (हिन्दुस्तान की जनता को) भारत को स्वाभाविक मानव-जीवन का स्वर्गलोक बनाना है, तो शोषण और अत्याचारों के पहाड़ों को चीरकर, नीचे के रेगिस्तानों में अपार श्रम से नयी प्राण-धारा बहानी होगी. तभी हमारे जीवन में मानवोचित स्वाभाविकता और समृद्धि आ सकती है’’.
यह तो ठीक है, लेकिन ‘’अमिताभ’’ छद्मनाम से लिखित और ‘नया खून’ में ही 21 फरवरी 1958 को प्रकाशित ‘’हुएन सांग की डायरी’’ को सांस्कृतिक पत्रकारिता के किस प्रकार के अंतर्गत रखा जाए ? हुएन सांग की पुरातन आत्मा में प्रवेश करते हुए मुक्तिबोध उस महान चीनी यात्री के भारत और नालंदा के रोजनामचे की आख़िरी आत्मकथात्मक इन्दराज़ लिखते हैं. कितने डूब कर, स्नेह, कुतूहल, गर्व और अन्तरंगता से पढ़ा होगा मुक्तिबोध ने उसके यात्रा-वृत्तान्त को और उससे और बौद्ध-धर्म से सम्बंधित बीसियों अन्य ग्रंथों को! यह मात्र एक काल्पनिक डायरी नहीं है, आठवीं सदी के भारतीय इतिहास और संस्कृति का खुलासा है जिसमें बुद्ध से लेकर तत्कालीन बीसियों महापुरुषों, शिक्षकों, ग्रंथों, पुस्तकालयों आदि के नाम जटित हैं. कितना भयावह स्नेह रहा होगा मुक्तिबोध को प्राचीन और अर्वाचीन भारत से ! आज जब नालंदा विश्वविद्यालय फिर से स्थापित और सक्रिय किया गया है तो मुक्तिबोध का यह छोटा किन्तु ठोस, सघन निबंध अत्यंत प्रासंगिक हो उठता है. किसी भी अन्य भारतीय पत्रकार में ऐसी कल्पना का ही माद्दा न था. यह राहुल सांकृत्यायन, रांगेय राघव और वृन्दावनलाल वर्मा की टक्कर का लेखन है. यह कल्पना रोमांचक है कि इतिहास-मर्मज्ञ मुक्तिबोध यदि भारतीय इतिहास और संस्कृति पर कोई उपन्यास लिखते तो वह कैसा होता. अभी तक तो प्राध्यापकी में प्रवेश से पहले ‘’ललित पत्रकारिता’’ का यही अंश मुक्तिबोध की अखबारनवीसी की आख़िरी स्वीकृत बानगी है. तो इसके अंतिम अंश में क्या शायद कोई विडंबनात्मक रूपक,प्रतीक पढ़ा जाए–
“जिस विद्या-मंदिर का वातावरण कला,साहित्य,दर्शन और तर्कशास्त्र की चर्चाओं से दिन-रात गूँजता रहता हो उसे छोड़कर जाने की इच्छा नहीं होती. पर मुझे चीन तो लौटना ही है’’.
आज शायद ही किसी को मालूम या याद हो कि 1956 के पहले भारत का आंतरिक नक्शा कैसा था या कि, उदाहरणार्थ,आज से 54 वर्ष पहले महाराष्ट्र और गुजरात नामक अलग-अलग प्रदेश नहीं थे .’नया खून’ में 7 जून 1957 को प्रकाशित अपने ‘’संयुक्त महाराष्ट्र का निर्माण एकदम ज़रूरी’’ शीर्षक मूलतः राजनीतिक सम्पादकीय में मुक्तिबोध स्वायत्त महाराष्ट्र राज्य की तार्किक पैरवी करते हुए उसे एक ऐतिहासिक-सांस्कृतिक दस्तावेज़ भी बना देते हैं.’मराठा’ कौम, ’महाराष्ट्र’ की उत्पत्ति और विकास तथा मराठी भाषा के उद्भव और विस्तार में जाते हुए मुक्तिबोध कहते हैं कि महाराष्ट्र-भावना संतों की देन है और वह ज्ञानेश्वर, नामदेव, तुकाराम, एकनाथ आदि के बिना निरर्थक है. इस भावना के पीछे दलितों, पीड़ितों, पिछड़े वर्गों के साथ सवर्णों का भी योगदान है क्योंकि संत इन सभी में पैदा हुए. जिसे इन संतों ने ‘महाराष्ट्र-धर्म’ कहा वह किसी ग्रन्थ या स्मृति से बंधा न था, उसके आध्यात्मिक, सांस्कृतिक, सामाजिक, राजनीतिक आदि सभी पक्ष थे. वह शिवाजी और उनके गुरु संत रामदास से पहले ही था. एक लम्बे इतिहास में विलक्षण संक्षेप से जाते हुए मुक्तिबोध ब्रिटिश षड्यंत्रों का हवाला देते हुए लोकमान्य बाल गंगाधर टिळक तक पहुँचते हैं और इस पर बल देते हैं कि महाराष्ट्र प्रांत के लिए आन्दोलन अलगाववादी नहीं है बल्कि वह भारतीय संस्कृति और महत्वाकांक्षा का ही एक वेगवान रूप है.
लेकिन केन्द्रीय कांग्रेस सरकार के रुग्ण चिंतन, धोखादेही और ‘’जनमत संग्रह’’ के हास्यास्पद तथा ख़तरनाक प्रस्ताव आदि के कारण ‘मराठी माणूस’ का मोहभंग हुआ और स्वायत्त महाराष्ट्र के आन्दोलन ने उग्र रूप धारण कर लिया. बंबई में दिल दहलानेवाली हिंसा हुई, वर्तमान ‘’हुतात्मा चौक’’ उसी का स्मारक है. मुक्तिबोध तो अपने नायक जवाहरलाल नेहरू से भी अलफ़ हो गए. यह ध्यातव्य है कि महाराष्ट्र के प्रश्न पर इतना गहरा, सुचिंतित और संतुलित सम्पादकीय शायद नागपुर का कोई अन्य पत्रकार, कृष्णानंद ‘सोख्ता’ या द्वारिकाप्रसाद मिश्र भी, नहीं लिख सकता था क्योंकि इस विषय पर मुक्तिबोध जैसी सांस्कृतिक,ऐतिहासिक,सामाजिक और राजनीतिक दृष्टि,पकड़ और जन्मजात पार्श्वभूमि बरार या महाराष्ट्र में तो क्या,पूरे हिंदी प्रदेश में भी किसी बुद्धिजीवी-पत्रकार के पास नहीं थी. यह इस बात का भी विरल उदाहरण है कि एक ‘’सम्पूर्ण’’ पत्रकार या सम्पादक होने के लिए कितनी सलाहियतें दरकार हैं. विडंबना यही है कि संयुक्त या स्वायत्त महाराष्ट्र बना अवश्य, लेकिन इस सम्पादकीय और कई बदमज़गियों के बाद ही,1960 में,जब पत्रकारिता और महाराष्ट्र को मुक्तिबोध लगभग सदा के लिए छोड़ चुके थे.
1857 के ‘’रक्तरंजित राष्ट्रीय संग्राम’’ की शताब्दी पर ‘नया खून’ के अपने सम्पादकीय में मुक्तिबोध उस क्रांतिधर्मा विद्रोह के कारणों में जाते हुए कहते हैं कि वह…’’ईस्ट इन्डिआ कम्पनी द्वारा भारतीय अर्थतंत्र पर किये गये क्रूर अत्याचारों के विरुद्ध होने के साथ-ही-साथ जनता के उस व्यापक असंतोष के फलस्वरूप था जो कंपनी द्वारा खुली और निर्दय लूट के सबब उग्र रूप से जनता के सभी वर्गों में फैल गया था ‘’.वह बग़ावत ‘’जनता के दिल की आग से पैदा हुई थी’’ और देशभक्त जुझारू सामंत उसके रहनुमा थे.यह अत्यंत सारगर्भित है कि मुक्तिबोध कहीं भी कांग्रेस और गाँधी-नेहरू का नाम तक नहीं लेते बल्कि कहते हैं : ‘’सन् सत्तावन की उस अत्यंत भव्य और युगांतरकारी असफलता ने आगे चलकर शीघ्र ही वासुदेव बलवंत फड़के-जैसे गेरिल्ला सेनानी को जन्म दिया,जिसके तुरंत बाद लोकमान्य टिळक राजनीति में कूद पड़े.राष्ट्रीय संघर्ष की यह अखंड उग्र परम्परा भारतीय आतंकवादी क्रांतिकारियों के रक्त-रंजित संघर्ष से गुज़रती हुई सुभाष बाबू की इंडिअन नैशनल आर्मी की फ़ौजी कार्रवाइयों से लेकर सन् उन्नीस सौ सैंतालीस में भारतीय जहाजी बेड़े के सिपाहियों द्वारा दागी गयी तोपों तक जारी रही.’’ मुक्तिबोध ’’स्वातंत्र्य-वीर’’ बैरिस्टर सावरकर को भी 1857 के उनके इतिहास और उसमें वर्णित ‘’हिन्दू-मुस्लिम एकता के दुर्दम दृश्यों’’ के लिए नहीं भूलते.लेकिन इस सम्पादकीय का अंतिम वाक्य,हमारे रेखांकन के साथ,एक अत्यंत ज्वलंत,सांकेतिक और दिशा-निदेशक आशावाद प्रस्तुत करता है: ‘’सन् सत्तावन का यह दुर्धर्ष काल हमारे ह्रदय में हर तरह के अन्याय के विरुद्ध आग सुलगाता रहेगा,यह संदेह से परे है.
हम नहीं जानते कि तत्कालीन कांग्रेस विधायिका में वह कब कौन-सी अनुशासनहीनता और उसे दबाने के लिए किसने क्या कारवाई की थी कि मुक्तिबोध ‘नया खून’ में ‘’अनुशासन का भोंथरा परशु’’ शीर्षक सम्पादकीय लिखने को प्रेरित हुए लेकिन उससे एक दिलचस्प तथ्य यह सामने आता है कि सिर्फ़ ना.भा.खरे,द्वारिकाप्रसाद मिश्र और सर सी डी देशमुख सरीखे एकल बाग़ी ही नहीं,जवाहरलाल नेहरू के मध्यान्ह सूर्य-काल में ही कांग्रेस पार्टी में कई ‘’प्रेशर-ग्रुप’’, लॉबियाँ, गुट और गिरोह,अधिकतर दबे-छुपे,सक्रिय हो चुके थे और किसे पता कि इनमें से कुछ के पीछे नेहरू समेत देश के कुछ सर्वोच्च नेताओं की प्रेरणा भी न रहती हो. मुक्तिबोध साफ़ देखते हैं कि भ्रष्टाचारी वर्ग कांग्रेस में घुस चुके हैं. पार्टी में उनका असर है. मात्र अनुशासनात्मक कार्रवाई या गीदड़भभकी से एकता नहीं आ सकती. न तो लूट की एकता हासिल हो रही है और न त्याग की एकता. मंत्रिमंडल स्वयं इन गुटों की चुप्पी या वोट खरीदना चाहता है या चुनावी चंदे के लिए उनके आगे हाथ पसारता है. यदि चंद कांग्रेसी जनता से जुड़े भी हैं तो उनका भरोसा पार्टी के नैतिक चरित्र में नहीं रह गया है. अपने शायद सबसे बेबाक़ राजनीतिक सम्पादकीय में मुक्तिबोध कहते हैं कि यह गुट कभी-कभी परस्पर ज़हर उगलने लगते हैं और, इससे भी बढ़कर, सरकार और पार्टी के भीतर और बाहर, विपक्षियों तक से मिलकर, अपना उल्लू सीधा करते रहते हैं. इन्हीं गुटों की ‘’यह महिमा थी कि…केन्द्रीय वित्त मंत्रियों पर प्रहार होते रहे. अगर एक बार बिड़ला ने एक वित्त मंत्री मारा,तो दूसरी बार टाटा ने बिड़ला के चहेते वित्त मंत्री को मार दिया’’.
इस तरह की ठेठ,निर्भीक भाषा तो आज के सम्पादकीयों में कहीं नज़र नहीं आती. मुक्तिबोध कहते हैं कि प्रतिष्ठा अर्जित करने के लिए कांग्रेस को नैतिक शुद्धता और जनता की भावनाओं को आत्मसात् करना होगा. मुक्तिबोध के ऐसा लिखने के बाद से अब तक कांग्रेस ने कभी ऐसा करने की इच्छा या हिम्मत नहीं दिखाई,यह अवश्य है इंदिरा गाँधी के बाद कम से कम केंद्र में कांग्रेसी गुटबाज़ी की कमर टूट-सी गई.
विनोबा भावे ने, जो कभी राजनीति या सत्ता में नहीं रहे, 1957 में कभी कहीं कह दिया कि सारे बूढ़े राजनीति से रिटायर हो जाएँ. तब भूदानी गाँधीवादी ब्रह्मचारी विनोबा की एक राष्ट्रीय नैतिक उपस्थिति थी, कुछ-कुछ 2013 तक के अण्णा हज़ारे जैसी, इसलिए दिल्ली के सारे राजनेताओं में हड़कंप मच गया. इस घटना से प्रेरित होकर मुक्तिबोध ने ‘नया खून’ में एक अनाम लेख लिखा जिसमें उन्होंने सिर्फ़ चर्चिलऔर नेहरू को बख्श कर– नेहरू पर उनकी स्नेह और चिंता-भरी टिप्पणी ’’ दून घाटी में नेहरू’’ पठनीय है- राजनीति तथा साहित्य में व्याप्त वृद्धतंत्र (gerontocracy) पर चुटीले प्रहार किए हैं. वह स्तालिन, मोलोतोव, आडेनाउअर, सरदार पटेल, श्रीकृष्ण सिन्हा, अनुग्रहनारायण सिंह, वर्डस्वर्थ, मैथिलीशरण गुप्त आदि पद- एवं सत्तालोलुपों के नाम लेते हैं– तब मैथिलीशरण जीवित थे लेकिन मुक्तिबोध उन्हें मैं-थैली-शरण कहते हैं, उसी तरह जैसे आज एक दिवंगत जात-पाँत, साम्प्रदायिकता एवं अस्पृश्यता-समर्थक को विद्यानाशक के लोकप्रिय नाम से स्मरण किया जाता है. स्पष्ट है कि मुक्तिबोध अपने समय की साहित्य-नीति ( Literaturpolitik लिटेराटूअरपोलिटीक ) को ख़ूब जानते थे:
‘’और आज नयी दिल्ली में बूढ़े पके-बाल साहित्यिकों का जमघट इकठ्ठा हो गया.उनको स्वर्गवास नहीं वरन् दिल्लीवास हुआ.अर्थात् उनकी प्रतिभा की मृत्यु हो गयी और उन्होंने पढ़ना लिखना छोड़ दिया.अब वे प्रतिष्ठा और सम्मान के स्वर्ग में हैं,और उस स्वर्ग में वे अधिक-से-अधिक आदर-श्रद्धा और पद के लिए राजनीति करते हैं, सूत्र हिलाते हैं,किन्तु सूत्रधार होने के बदले,वस्तुतः, वे विदूषक हो जाते हैं’’. देखकर हैरत होती है कि हिंदी साहित्य और दिल्ली की एकदम अभी और हमारे आसपास की दुनिया को मुक्तिबोध ने लगभग छः दशक पहले कितनी शिद्दत से पहचान लिया था. ’’हाय हाय मैंने देख लिया इन्हें नंगा’’…
इसी सन्दर्भ में वे शायद हिंदी के पहले लेखक-पत्रकार हैं जिन्होंने ‘’पद्मभूषण’’ और ‘’भारतरत्न’’ सरीखे हास्यास्पद और निरर्थक नामोंवाली बोगस पदवियों की निर्भीक भर्त्सना की है. बहरहाल, वे कहते हैं कि ‘बूढ़ों का पूरा रिकार्ड देख जाने से पता चलता है कि…वृद्धापकाल शुरू होते ही रिटायर हो जाने में उनका कल्याण है’. नागार्जुन की कविता ‘’दादाजी आप रिटायर हों’’ याद आती है. लेकिन दोनों यह देखने के लिए जीवित न रहे कि सिंदबाद की कहानी में तो सिर्फ़ नौजवानों की पीठ पर बूढ़े सवार होते हैं,आज युवाओं पर अधेड़, अधेड़ों पर खूसट और खूसटों पर मरणासन्न जरद्गव लदे हुए हैं. कहीं-कहीं इसका विपरीत क्रम भी देखने में आता है. और यह नज़्ज़ारा सिर्फ़ मर्दों तक महदूद नहीं है,इसमें खालिस और ‘मिक्स्ड डबल्स’ भी शामिल हैं.
(पांच)
मुक्तिबोध कस्बों और तत्कालीन मँझोले शहरों के Literaturpolitik को भी बखूबी जानते थे.’नया खून’ में प्रकाशित एक और नाम- तथा तिथिहीन सम्पादकीय में उन्होंने प्रांतीय हिंदी साहित्य सम्मेलन के चुनावों पर अपनी ‘’आलोचना की गदा’’ से प्रहार किया है.मुक्तिबोध जब भी व्यंग पर आमादा होते हैं, हरिशंकर परसाई से टक्कर लेते हैं.इस टिप्पणी का शीर्षक ‘’साहित्य के काठमाण्डू का नया राजा’’ ही काफ़ी-कुछ कह देता है.इसे आज भी पूरा पढ़ा जाना चाहिए, भले ही इसके प्रमुख खिलाड़ियों या किरदारों को हम न जानते हों या भूल चुके हों, क्योंकि हिंदी साहित्य का अधोजगत वैसा ही,बल्कि और भी वैसा ही,चला आ रहा है. आज ब्रिजलाल बियाणी,भवानी प्रसाद तिवारी, द्वारिकाप्रसाद मिश्र, शंकरलाल तिवारी, नरेश चन्द्र सिंह, गोपालदास मोहता, मनोहरभाई पटेल आदि को ठीक ही लगभग कोई न जानता है न याद करता है,लेकिन मुक्तिबोध के यह प्रश्न और उद्बोधन प्रासंगिकतर होते गए हैं: ‘’मध्य प्र. के लुटे-पिटे किसानों, जनपद ग्राम-पंचायत के मास्टरों, छोटे-छोटे दुकानदारों, बीड़ी मजदूरों, खदान मज़दूरों, आदिवासियों का जीवन कितना कष्टपूर्ण और भयानक हो गया है. क्या (हिंदी साहित्य सम्मलेन के कर्णधारों की) क़लम इस जनता के जीवन-चित्रण के लिए कभी अकुलायी ?…क्या उनकी क़लम जनता के लिए साहित्य निर्माण हेतु उठी ? क्या साहित्यिक लक्ष्य का प्रचार किया गया?….हि.सा.स. का जनता से कोई ताल्लुक नहीं…वह एक नक़ली साहित्यिक संस्था है. हम दुर्ग, रायगढ़, मुंगेली, अकलतरा, राजनाँदगाँव, रायपुर, नरसिंहपुर, छिन्दवाड़ा, खंडवा, बुरहानपुर,आदि छोटी-छोटी जगहों के अन्याय-पीड़ित जीवन बितानेवाले वर्गों के साहित्यिक नौजवानों को यह आव्हान करते हैं कि वे ‘जनता के लिए साहित्य’ का आन्दोलन उठायें और म्युनिसिपल कंदील के नीचे,बरगद के तले,और जहाँ-जहाँ उन्हें जगह मिल सके,वे आपस में मिलें और यह तय करें कि उन्हें जनता का जीवन चित्रण करना है.(विभिन्न विधाओं और शैलियों में) लिखें और सुनाएँ…जनता के लिए अपनी कलात्मक अभिव्यक्ति को सुधारें,सँवारें और निखारें,तथा नेमाड़ी, बुन्देली, छत्तीसगढ़ी आदि मध्यप्रदेशीय लोक भाषाओँ के पुनरुत्थान के लिए दिन-रात कोशिश करते रहें’’.
यह एक रहस्यमय विडंबना है कि मुक्तिबोध यूँ तो ‘नया खून’ के सम्पादक रहे किन्तु उसमें 1952 से 1954 के अधिकतम 30 महीनों में उनके मात्र 4 लेख छपे, और उसके बाद अप्रैल 1957 से फ़रवरी 1958 के दस महीनों में 10,जिनमें सिर्फ़ 5 सम्पादकीय थे, जबकि ‘सारथी’ के साथ उनके जुड़ाव ने उनसे 1954 में 6,1955 में 5, 1956 में 37 और 1957 में 7लेख लिखवा लिए – यानी उन्होंने ‘नया खून’ से करीब चौगुनी पत्रकारिता ‘सारथी’ में की और लगभग 32 महीनों में 55, यानी करीब प्रति मास औसतन पौने-दो लेख लिखे. यह भी एक पहेली है कि अक्टूबर 1954 से अक्टूबर 1955 तक मुक्तिबोध का ‘नया खून’ में सिर्फ़ एक ‘’समाजवादी समाज या अमरीकी-ब्रिटिश पूँजी की बाढ़’’ शीर्षक अनाम लेख मिलता है. इसका कहीं कोई कारण प्राप्त नहीं है कि ‘नया खून’ में उनकी पत्रकारिता अपेक्षाकृत वैविध्यपूर्ण और प्रतिबद्ध तो है लेकिन कुछ अन्यमनस्क,टूटी हुई,बिखरी हुई सी क्यों लगती है और उसके मुकाबले में ‘सारथी’ में ज़्यादा नियमित और ठोस और जीवंत क्यों ? अपने कुछ पत्रों में मुक्तिबोध ने ‘नया खून’ में काम के बहुत अधिक बोझ की शिकायत की है लेकिन अपने मित्रों से लगातार अपने साप्ताहिक के लिए कुछ-न-कुछ लिखने का इसरार भी किया है.
अभी मुक्तिबोध पर कांतिकुमार जैन की एक किताब आई है जिसमें सुना है मुक्तिबोध के उन दिनों के कांतिकुमारियन ब्यौरे हैं और हो सकता है उनसे मुक्तिबोध-सोख्ता-द्वारिकाप्रसाद संबंधों और मुक्तिबोध की पत्रकारिता पर कुछ प्रकाश पड़े. इन तीनों का पत्राचार, यदि कभी हुआ हो तो,कहीं उपलब्ध नहीं है. यह भी एक रहस्य है कि अपने किसी भी स्वतंत्र लेख या पत्र आदि में मुक्तिबोध ने अपनी या व्यापक पत्रकारिता पर या इन दोनों सरपरस्तों पर विचारपरक, संस्मरणात्मक या सैद्धांतिक कुछ भी नहीं लिखा है.
जबकि सच तो यह है कि जिस ठोस समर्पण, दत्तचित्त, ज्ञान, प्रतिबद्धता, सघन भाषा, कभी गुरु-गंभीर और कभी खिलंदड़ी शैली में मुक्तिबोध ने ‘सारथी’ की अपनी पत्रकारिता की है वह सब उस काल-खंड के किसी भी हिंदी अखबारनवीस के पास नज़र नहीं आते. उससे भी महत्वपूर्ण यह है कि अनाम होते हुए भी उन्होंने अपनी पत्रकारिता के लिए सिर्फ़ विदेशी मामलों को चुनते हुए अपना एक niche और एक brand निर्मित किया.इसके लिए श्रेय उनके स्वयं के मार्क्सवादी होने और जवाहरलाल नेहरू की मौजूदगी को दिया जा सकता है. दरअसल एक अच्छा, पैना कम्युनिस्ट होना अपने-आप में अन्य चीज़ों के अलावा एक trained globalised intellect होना भी है. नेहरू देश में आर्थिक और वाणिज्यिक उदारीकरण नहीं चाहते थे, समाजवादी समाज का दम भर रहे थे, भारत में परमिट-कंट्रोल का आतंक था, आम नागरिक को पासपोर्ट, विदेश-यात्रा का मौक़ा और विदेशी-मुद्रा को देख-छू पाना भी लगभग असंभव था लेकिन नेहरू की विदेश नीति, सारे विश्व की जनता और नेताओं में, विशेषतः सोवियत रूस और शेष वामपंथी दुनिया में, उनकी लोकप्रियता और ग्लैमर, पंचशील,तटस्थता तथा ‘’तीसरी दुनिया’’ की अवधारणा में उनके योगदान आदि ने मुक्तिबोध सरीखे युवा वामपंथी लेखक-पत्रकार को विदेशी राजनीति (Aussenpolitik) का अध्येता तथा विशेषज्ञ-जैसा बना दिया था.
यह अंग्रेज़ी के अच्छे ज्ञान के बिना संभव न था और इसमें सोवियत ब्लॉक और अन्य वामपंथी स्रोतों से आई पत्रिकाओं, किताबों और बुलेटिनों-पर्चों की भी नियमित भूमिका रही ही होगी. यह भी विदित है कि मुक्तिबोध नेहरू को बहुत चाहते थे और अपनी बेहोश बीमारी में भी नेहरू की तबियत के बारे में अस्फुट पूछते रहते थे हालाँकि नेहरू उनसे लगभग सौ दिन पहले गुज़र चुके थे. नियति का विचित्र न्याय है कि आज जननायक,युवा-ह्रदय-सम्राट,चाचा नेहरू देश और स्वयं उनके परिवार और पार्टी द्वारा उपेक्षित हैं और उस अनुपात में अपनी बिरादरी और समाज में मुक्तिबोध की कीर्ति अमर हिमालयी बलन्दियाँ छू रही है.
बहरहाल, मुक्तिबोध ने किन कारणों से विदेश-पत्रकारिता चुनी और द्वारिकाप्रसाद मिश्र ने उन्हें उसके लिए निश्शंक उदारता से अपने कॉलम दिए यह मालूम नहीं हो सका है किन्तु हम उनका एक डिस्पैच ही पढ़ लें तो यह रोमांचित विश्वास हो जाता है कि उन दिनों शायद हिंदी में उन्हीं के पास वह सारे गुण थे जो ऐसी विशिष्ट पत्रकारिता के लिए अनिवार्य हैं. कहा जाता है कि उन दिनों मुक्तिबोध के साहित्य सम्पादक थे किन्तु जिसे अखबारी भाषा में ‘’फ़ॉरेन डेस्क’’ कहा जाता है उसके अनौपचारिक प्रभारी तो थे ही. यह पूरी गंभीरता से कहा जा सकता है कि उस ज़माने में हिंदी में एकमात्र मुक्तिबोध ऐसी पत्रकारिता कर रहे थे और यदि दिल्ली-मुंबई-कलकत्ता के किसी प्रमुख देशी या अंग्रेज़ी अखबार में कर रहे होते तो उन्हें वामपंथी विश्व, यूरोप और अमेरिका से कम-से-कम एक बार सम्मानजनक बुलावा अवश्य आता.
नेमिचंद्र जैन द्वारा खोजे गए और ‘’मुक्तिबोध रचनावली’’ के छठे खंड में प्रकाशित अखबारी लेखन के कारण मुक्तिबोध का पत्रकार-अवतार यूँ भी कम जटिल न था लेकिन उसमें और भी कठिन समस्याएँ रमेश गजानन मुक्तिबोध ने अपने पिता की वैसी और ‘’नई’’ सामग्री खोज कर और उसे ‘’जब प्रश्नचिन्ह बौखला उठे’’ शीर्षक से ‘’रचनावली’’ के लगभग 30 वर्षों बाद,2009 में, राजकमल प्रकाशन से ही एक स्वतंत्र पुस्तक के रूप में प्रकाशित करवाकर उपस्थित कर दीं. इससे यह आशंका तो बढ़ ही गई कि मुक्तिबोध की और भी पत्रकारिता मिल सकती है, साथ में उनकी पत्रकारिता के अध्येताओं के सामने एक संकटाकीर्ण चुनौती रख दी गई. मुझे पता नहीं कि किसी ने मुक्तिबोध की अखबारनवीसी का अध्ययन 2009 से पहले किया था या नहीं लेकिन अब तो ‘’रचनावली’’ का वह खंड ‘’आउट ऑफ़ डेट’’ और भ्रामक हो ही गया.
1956 में मध्यप्रदेश के पुनर्गठन और नागपुर के महाराष्ट्र में चले जाने के बाद नागपुर की हिंदी-केन्द्रित राजधानी-राजनीति की जड़ें उखड़ गईं और कालान्तर में वहाँ की हिंदी पत्रकारिता छिन्न-भिन्न हो गई जो अब,लगभग साठ वर्षों बाद, नए हालात में एक शूर्पणखा-कृत्या जैसी पुनरुज्जीवित हुई है. “सारथी’’ के चाणक्य-भावी मुख्यमंत्री-स्वामी द्वारिकाप्रसाद मिश्र का डेरा भी वहाँ से उजड़ गया. यह मुक्तिबोध का निजी सौभाग्य था किन्तु शायद हिंदी पत्रकारिता का दुर्भाग्य कि तभी उन्हें (तत्कालीन मध्यप्रदेश/छत्तीसगढ़ के) राजनाँदगाँव में हिंदी-प्राध्यापकी मिल गई वर्ना दोनों का क्या होता इसकी कल्पना नहीं की जा सकती. अभी तक प्राप्त प्रमाणों के अनुसार उनके अंतिम पत्रकारितापरक लेख वह कहे जा सकते हैं जो ‘’नया खून’’ में जनवरी-फ़रवरी 1958 में छपे थे.
मुक्तिबोध की पत्रकारिता, जो मुख्यतः नेहरू-युग की विश्व-राजनीति, अमेरिकी-सोवियत शीत-युद्ध और इन सब में कश्मीर-समस्याग्रस्त नव-स्वतंत्र भारत की विकासमान भूमंडलीय भूमिका से वाबस्ता है. अंतर्राष्ट्रीय हालात और तनावों की जो समझ मुक्तिबोध में तब थी,हिंदी में आज वैसी सलाहियत का न कोई पत्रकार मौजूद है न कोई सम्पादक. उनके लेखन में उनकी वैश्विक मार्क्सवादी प्रतिबद्धता, अंध-राष्ट्रवाद-विहीन देशभक्ति, नेहरू-अनुराग, अकल्पनीय अध्ययन, ताज़ातरीन घटनाओं का लगभग प्रत्यक्षदर्शी जैसा ज्ञान,आत्म-विश्वास, अद्वितीय भाषा, प्रसंगानुसार शैली-परिवर्तन, देशी-विदेशी अखबारों-पत्रिकाओं के वाचन-प्रमाण आदि ऐसे गुण हैं जो उन्हें अनायास हिंदी के महानतम पत्रकारों में एक अद्वितीय स्थान देते हैं.
पत्रकार मुक्तिबोध को उनके पूरे सन्दर्भों में समझना,उस काल-खंड में प्रवेश करना, लोहे के चने चबाना है लेकिन उसकी कोशिश करना एक अनिवार्य चुनौती है. यह टिप्पणीकार तो उस बंद इस्पाती स्ट्रॉन्ग-रूम की बाहरी चद्दरों को अपने कमज़ोर नाखूनों से खुरच भी नहीं पाया है.
विष्णु खरे (वरिष्ठ कवि, आलोचक, अनुवादक, संपादक फ़िल्म मीमांसक और टिप्पणीकार) vishnukhare@gmail.com |