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Home » विष्णु खरे: एक दुर्जेय मेधा: ब्रजेश कृष्ण » Page 2

विष्णु खरे: एक दुर्जेय मेधा: ब्रजेश कृष्ण

ब्रजेश कृष्ण प्राचीन इतिहास, संस्कृति और पुरातत्व के अध्येता, विद्वान हैं और हिंदी के कवि भी. अपने इस आलेख को उन्होंने प्रकाश मनु की किताब ‘एक दुर्जेय मेधा: विष्णु खरे’ पर केन्द्रित किया है. विष्णु खरे की ख़ासियत को उन्होंने यहाँ इतने सृजनात्मक और दिलचस्प ढंग से उद्घाटित किया है कि जहाँ इस किताब के प्रति उत्सुकता पैदा होती है वहीं विष्णु जी के प्रति आदर और लगाव भी.

by arun dev
August 23, 2021
in समीक्षा
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मनु ने विष्णु जी के साथ एक और महत्वपूर्ण इंटरव्यू किया. वास्तव में तो इसे भी इंटरव्यू कहना सही नहीं है. विष्णु जी के व्यक्तित्व और कविता में स्वयं एक तरह का ‘कबीरी तेवर’ है और उन्होंने कबीर का विशेष अध्ययन भी किया है. इसलिए यह कबीर के संदर्भ में आज के वक्त की चिंताओं को समेटती एक बहुत विस्तृत, अंतरंग और दुर्लभ बातचीत बन गई है! दोपहर बारह बजे से रात आठ बजे तक चली यह बातचीत “एक दुर्जेय मेधा” में पैंसठ पृष्ठों में प्रकाशित है. कहना नहीं होगा कि कबीर हिंदी कविता के सबसे बड़े विद्रोही, क्रांतिकारी और दुस्साहसी कवि हैं और आज की हमारी चुनौतियों के लिए सबसे अधिक प्रासंगिक भी! कबीर को गहराई से जानने-समझने में यह इंटरव्यू हमारी बहुत मदद करता है.

हिंदी जगत की यह विडम्बना ही है कि ऐसे महत्वपूर्ण कवि को एक लम्बे अरसे तक विस्मृति के गर्त में रखा गया. बीसवीं सदी के आरम्भ में रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने इन्हें बाउल गीतों में पाया और उन्होंने देश का ध्यान कबीर की ओर आकृष्ट किया. बाद में आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी की गहन और आत्मीय व्याख्या ने कबीर की कविता के मर्म और शक्ति को हमारे आगे खोला.

आज की सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक चुनौतियों के लिए कबीर और कबीर की कविता की प्रासंगिकता और सीमाओं का गहन विश्लेषण तो विष्णु जी ने इस बातचीत में किया ही है, इसके साथ-साथ उन्होंने कबीर की कविता के नए अर्थ, नई व्याख्याएं तथा कबीर के अंतर्विरोधों की ओर भी हमारा ध्यान आकृष्ट किया है. उन्होंने कबीर की कविता के तमाम शेड्स के साथ-साथ कबीर पर अब तक हुई नई-पुरानी टीकाओं और विमर्शों की सीमाओं को भी इंगित किया है.

विष्णु जी का मत है :

  • कबीर, सूर और तुलसी की त्रयी में कबीर निश्चित ही सबसे बड़े और आज के वक्त के लिए सबसे अधिक प्रासंगिक कवि हैं…बल्कि मैं उन्हें हिंदी का सबसे बड़ा कवि मानता हूँ.

  • कबीर आज भी केन्द्र में हैं और अपनी पूरी अक्खड़ता के साथ डटे हैं. वे हिंदू हों या मुसलमान दोनों के ही एस्टेब्लिशमेंट के खिलाफ हैं! लिहाजा कबीर होना एक माने में आधुनिक होना है. कबीर आज छै सौ साल बाद भी आधुनिक हैं, छै सौ साल पहले भी आधुनिक थे!

  • कबीर जैसा सच बोलने वाला एक युगांतकारी व्यक्तित्व हमारे पास है, जिसकी यथार्थ की समझ इतनी पैनी और साफ है कि उसे धोखा नहीं दिया जा सकता…मगर हमने उनसे क्या सीखा? क्या लिया? जब भी उसका अनहद हममें गरजेगा तब कट्टरता, साम्प्रदायिकता, जात-पांत, ऊंच-नीच, शोषण जैसे सारे भूत भाग जाएँगे!!

बाकी दो इंटरव्यूज़ एक-दूसरे के पूरक हैं. ये विष्णु जी के व्यक्तित्व के तमाम नए-नए पहलुओं को पृष्ठ-दर-पृष्ठ बहुत स्पष्टता से खोलते चले जाते हैं. यह देश में बहुत उथल-पुथल का समय था. चुनाव हुए और संयुक्त मोर्चे की देवगौड़ा की सरकार बनकर गिर चुकी थी. ऐसे में स्वाभाविक तौर पर बातचीत राजनीति और विष्णु जी की राजनीतिक कविताओं से ही शुरू होनी थी. दरअसल, विष्णु जी ने कई ऐसी कविताएं जिन्हें वे स्वयं “राजनीतिक कविताएं” कहते थे. ‘नेहरू-गांधी परिवार से मेरे संबंध’, ‘मुल्जिम नरसिंह राव’ जैसी कई कविताएं राजनेताओं पर सीधे-सीधे नाम लेकर प्रहार करती हैं. कांस्टीट्यूशन क्लब में आयोजित कार्यक्रम में, जिसमें विष्णु जी को रघुवीर सहाय स्मृति पुरस्कार दिया गया था, उन्होने इतने आवेश में ये कविताएँ सुनाईं कि पूरे सभागार में सन्नाटा छा गया! विष्णु जी के अनुसार, नाम लेकर ऐसे सीधे प्रहार करने वाली कविताएं हिँदी में नगण्य ही हैं, और इनका प्रकाशित करना तो और भी मुश्किल, पत्र-पत्रिकाएं और अखबार छापने की हिम्मत ही नहीं जुटा पाते!

विष्णु जी को यह मंजूर नहीं कि कवि केवल हवाई दुनिया में घूमता रहे. बगैर साहस के न कविता हो सकती है न पत्रकारिता! यहां हिंदी में राजनीतिक कविताओं के बहाने साहित्य और राजनीति के अंतर्संबंधों पर काफी विस्तार से चर्चा हुई है. वे बहुत स्पष्टता से कहते हैः

  • इस दौर की कविता की विडंबना ही है कि लोग सीधी-सीधी बात करते हुए घबराते हैं और उसे इतना गोलमोल कर देते हैं कि किसी चीज का कुछ मतलब न रह जाए. या तो व्यवस्था को गालियां देते रहो और किसी का नाम न लो…या नाम लो तो हास्य-व्यंय में लपेटकर जायकेदार बनाकर अपनी बात कहो, ताकि लोग उस नाम पर हँसते हुए बाहर आएं… जी नहीं, मैं यह नहीं चाहता! मैं इस तरह नाम लेकर बात कहना चाहता हूं कि मैं कहूं तो सभा कक्ष में सन्नाटा खिंच जाए, जैसा कि रघुवीर सहाय कहा करते थे!

इन दोनों बातचीतों के दौरान विष्णु जी तत्कालीन राजनीति को लेकर बहुत अशांत, उद्वेलित और चिंतित थे. उन्होंने कहा कि साहित्य का समाज पर प्रभाव बहुत धीमी गति से पड़ता है, इसलिए बुद्धिजीवियों को बढ़-चढ़कर राजनीति में हिस्सा लेना चाहिए. वे स्वयं राजनीति में जाना चाहते थे! बहुत सारे सवाल ‘ताकि सनद रहे’ वाली शैली में थे—बहुत संक्षिप्त और उनके जीवन  के तमाम क्षेत्रों से संबंधित. इनसे विष्णु जी के भीतरी व्यक्तित्व की अनजानी रेखाएं और अभी तक अज्ञात या अल्प-ज्ञात रुचियां भी सामने आईं. इनसे उनकी में दृष्टि हिंदी का सबसे बड़ा कवि,  उनकी पसंद और नापसंद के अन्य कवि, आलोचक, उपन्यासकार, साहित्यिक मित्र, साहित्य अकादेमी और भारत भवन जैसे संस्थान, हिंदी-उर्दू और प्रांतीय भाषाओं के मसले, जीवन में धर्म की जगह, महाभारत, राम, कृष्ण, ईश्वर, भारत और भारतीयता के मायने, उनकी पसंद की फिल्में, अभिनेता और अभिनेत्री, खेल, खिलाड़ी, प्रिय राजनेता, संपादक, सबसे बड़ा भय, सबसे बड़ी नफरत, उनकी आस्था का केन्द्र जैसे सवालों के जवाब उन्होंने बेहिचक दिए.

विष्णु जी ने अनुवाद के क्षेत्र में बहुत महत्वपूर्ण काम है. अंग्रेजी से हिंदी और हिंदी से अंग्रेजी दोंनो दिशाओं से वे अनुवाद करने वे अत्यंत कुशल हैं. इस कुशलता के पीछे उनकी दोंनो भाषाओं पर बहुत गहरी पकड़ है. उन्होंने अनुवाद-कार्य किया भी बहुत है. बीस साल की उम्र में ही उनका पहला प्रकाशन टी.एस. एलिअट का अनुवाद “मरु प्रदेश और अन्य अन्य कविताएं” आ चुका था. उन्हें अपने अनुवादों में नितान्त देसी शब्दों के प्रयोग से कोई परहेज नहीं है. इस तरह वे अनुवाद को न केवल पठनीय बल्कि अत्यंत प्रवहमान भी बनाते हैं.उनके अनुवादों की विशेषता यह है कि वे अनुवाद लगते ही नहीं, एकदम मूल रचना जैसा आनंद देते हैं.

“एक दुर्जेय मेधा” में विष्णु जी के दो महत्वपूर्ण अनुवादों की विस्तार से चर्चा है. एक तो विख्यात जर्मन लेखक गुंटर ग्रास की कोलकाता-प्रवास पर डायरी शैली में लिखी गई पुस्तक है जिसका अनुवाद विष्णु जी ने जीभ दिखाना के नाम से किया है. और दूसरा फिनलैंड का महाकाव्य (जो वहां का राष्ट्रीय काव्य भी है) जिसका अनुवाद कालेवाला के नाम से हुआ है.कालेवाला कोई छोटा-मोटा काव्य नहीं, पूरे साढ़े सात सौ पन्ने का महाकाव्य है. इसके लिए विष्णु जी को फिनलैंड का राष्ट्रीय “नाइट ऑफ़ दि ऑर्डर ऑफ़ दि व्हाइट रोज़” सम्मान मिला. इन दोनों अनूदित पुस्तकों पर मनु ने विस्तृत समीक्षात्मक लेख लिखे, जिन्हें “एक दुर्जेयमेधा” में शामिल किया गया है. ये दोंनो लेख न केवल विष्णु जी की मेधा औरअनुवाद-कौशल को रेखांकित करते हैं बल्कि इन पुस्तकों के कथ्य की गहन विवेचना करते हैं.

“एक दुर्जेय मेधा” के अंतिम अध्याय में ‘कथादेश’ के ‘मैं और मेरा समय’ स्तम्भ में प्रकाशित विष्णु जी का आत्मकथ्यात्मक लेख दिया गया है. इसे पढ़ना एक विलक्षण अनुभव से गुजरना है. उन्होंने गहरी आत्मपरकता के बावजूद अपने वक्त को परखने के लिए ऐसी सघन तटस्थता का इस्तेमाल किया है कि अचरज होता है. इस लेख में विष्णु जी ने अपने जीवन के कुछ करुण प्रसंगों का उल्लेख किया है. अर्थाभाव के कारण अविवाहित ही रह गईं दो बुआओं की मृत्यु, तपेदिक से ग्रस्त मां का बचपन में विदा हो जाना या कैंसर के कारण अंतिम समय में पिता का कंकाल हो जाना जैसे प्रसंग पाठक को भीतर तक भिगो देते हैं. पूरा आत्मकथ्य हमारे, आपके और सबके समय के परिप्रेक्ष्य में एक सघन और अत्यंत संवेदनशील लम्बी कविता में लिखी आत्मकथा का अनुभव देता है.

विष्णु जी की कविता का विस्तृत और मुकम्मल आकलन होना अभी बाकी है. “एक दुर्जेय मेधा” के एक अध्याय में मनु ने उनकी कविताओं पर एक लम्बा लेख लिखा है. इसका शीर्षक उन्होंने विष्णु खरे की कविताएं—मेरे कुछ नोट्स दिया है. भले ही वे इसे नोट्स कह रहे हों, मगर इस लेख में उन्होंने तमाम उदाहरणों सहित विष्णु जी की कविताओं का बहुत सार्थक विश्लेषण किया है. विष्णु जी की कविता को समझने उनकी अपनी कुछ अलग दृष्टि है. उनका कहना है कि वे विष्णु जी की कविता पर विस्तार से लिखना चाहते हैं, और इसके लिए वे पहले ‘पात्रता’ पाना चाहते हैं, शायद ये ‘नोट्स’ नींव का काम करें! मनु के दृष्टिकोण को समझने के लिए यहां कुछ बिन्दुओं को उद्धृत करना ही मुझे उपयुक्त लग रहा हैः

  • विष्णु खरे से समय-समय पर लिए गए इंटरव्यू उनकी कविताओं को समझने के लिए जरूरी नेपथ्य का काम तो करते ही हैं, साथ ही हमारे समाज में भयानक आर्थिक शोषण, साम्प्रदायिक असहिष्णुता और फासीवाद के खिलाफ निरन्तर काम कर रही बेचैन शक्तियों का एक अनौपचारिक घोषणा-पत्र भी यहां देखा जा सकता है.

  • विष्णु खरे की लगभग सारी कविताएं कविता को नेगेट करके ही कविता बनती हैं…या कि कविता बनना चाहती हैं. वे कविताई के ढंग पर चलकर कविता नहीं होना चाहतीं. बल्कि उनकी जिद है—बड़ी सख्त और अपूर्व जिद कि वे कविता के अभी तक बने-बनाए रास्ते के एकदम उलट चलकर ही खुद को कविता साबित करेंगी.

  • किसी ने मुक्तिबोध और विष्णु खरे की तुलना नहीं की, जब कि मुझे लगता है कि हिंदी में मुक्तिबोध के नजदीक कोई कवि है तो वे विष्णु खरे ही हैं….दोंनो की कविताएं कविता के कटे-तराशे फ्रेम या आकारों को तोड़-फोड़ कर अजस्र बहती लम्बी कविताएं हैं- नाई हुई लम्बी कविताएं नहीं है, जैसी कि बाद में बहुत से नकलची कवियों ने लिखीं. बल्कि बहुत स्फूर्त लम्बी कविताएं हैं… फिर दोंनो की कविताएं खासी गद्यात्मक या वर्णनात्मक होकर भी… गद्य के एकदम कठिन और अप्रयुक्त शब्दों का इस्तेमाल करते हुए भी, कविताएं हैं—वे न सिर्फ अपना कविता होना साबित करती हैं बल्कि वे हमारे समय की सबसे ज्यादा प्रतिनिधि और शक्तिशाली कविताएं भी हैं. यह कोई छोटा-मोटा चमत्कार नहीं है. मगर यह चमत्कार या तो हम मुक्तिबोध में देख पाते हैं या विष्णु खरे में.…दोंनो की कविताएं अपने विषय में इतनी लीन हो जाती हैं कि कविता होने की भी परवाह नहीं करतीं. फिर भी वे हमारे समय की सबसे मूल्यवान कविताएं हैं.

  • मुक्तिबोध और विष्णु खरे दोंनो ही कवियों की एक खासियत यह है कि उनके यहां बीहड़ता या रुक्षता का सौंदर्य है. हालांकि इस बीहड़ता और रुक्षता भीतर बहुत गौर से देखें तो बहुत कोमलता भी छिपी नजर आ सकती है.

  • विष्णु खरे की कई कविताओं में पत्नी और गृहस्थी के सौंदर्य की छवियां हैं. ‘हमारी पत्नियां’ जैसी कविताएं तो बेजोड़ हैं, मगर ‘अनकहा’ शीर्षक से भी पत्नी के लिए एक सुंदर कविता है. हालांकि यहां प्रेम और सुंदरता का बहुत खुला चित्रण नहीं है, पर संकेतों में…कहना चाहिए कि कुछ लकीरों में ही एक बड़ी बात कह दी गई है.

  • समकालीन कविता की सबसे बड़ी दुर्घटनाओं में से एक यह है कि वह प्रकृति से बहुत दूर आ गई आ गई है…विष्णु जी की कविताओं में जिस ढंग से प्रकृति आती है और वह जिस तरह आत्मीयतापूर्वक हस्तक्षेप करती है, वैसा बहुत कम समकालीन कवियों के यहां हो पाता है.

  • विष्णु खरे की कविताओं के साथ प्रकृति फिर से लौटती है—हालांकि बड़े बेढब रूप में, जिसमें थोड़ी करुणा भी घुली-मिली है….गिद्ध, उल्लू और चमगादड़ों का विष्णु खरे की कविता में इस कदर पसारा है कि वह ऊपर से सुरुचिभंजक लग सकता है. या आप कह सकते हैं कि उन्हें सराहने के लिए एक बृहत्तर और उदात्त सौंदर्य-बोध चाहिए. यह एक किस्म से अरसे से कुरूपता के पाले में डाल दी गई चीजों की सुंदरता है.

  • विष्णु खरे को आप नजदीक से जानें तो वे खासे भावुक व्यक्ति हैं, वैसे ही उनकी कविता में बेहद भावुक, आर्द्र क्षण आते हैं. हां, ऊपरी रुक्षता के भीतर संवेदना के इन आर्द्र क्षणों को डिस्कवर करना पड़ता है. उनकी कविता भावुकता का प्रदर्शन करना भद्दी चीज मानती है और खुद को उससे सायास दूर रखती है. इनमें ‘अकेला आदमी’, ‘चौथे भाई के बारे में’, ‘दिल्ली में अपना फ्लैट बनवा लेने के बाद एक आदमी सोचता है’, ‘मिट्टी’, ‘जो टेंपो में घर बदलते हैं’, आदि ऐसी कविताएं जो मानवीय और पारिवारिक रिश्तों की ऊष्मा में सीझी हुई है.

  • विष्णु खरे हिंदी के उन विरले कवियों में से हैं जिनकी कविताओं में सबसे ज्यादा आत्मकथा है. कहानी में आत्मकथा लिखना आसान है, किन्तु कविता में बहुत दुष्कर.

  • विष्णु खरे की कविताओं में मध्यवर्गीय समाज या मध्यवर्गीय आदमी की इच्छाओं की अभिव्यक्ति बहुत है. लेकिन मुक्तिबोध की कविताओं में जिस तरह की सामाजिक लड़ाइयों के चित्र हैं, वैसी लड़ाइयां विष्णु खरे की कविताओं में नहीं हैं. इसके बजाय वहां अकेले आदमी की हार, टूटन, अपमान या अकेले दम पर लड़ाइयां कहीं अधिक दीख पड़ती हैं…वे पराजय, टूटन, अपमान और यंत्रणा के बारे में कहती हैं तो इस उम्मीद से कि इनसे लड़ने की समाज में एक ‘उर्वर जमीन’ तैयार होगी. वे सीधे-सीधे जीवन-स्थितियों को सामने रखने वाले कवि हैं. उनमें बार-बार एक संवेदनशील और धर्म निरपेक्ष समाज का चित्र सामने आता है जो अन्यायों के प्रति सजग है और उनसे किसी न किसी रूप में लड़ाई भी चलती रहती है.

मार्क्सवाद के संबंध में विष्णु जी ने अपने एक इंटरव्यू में बताया था कि बहुत छोटी उम्र में ही गोर्की को पढ़ते हुए वे मार्क्सवाद से अविछिन्न रूप से जुड़ गए थे. वे मार्क्सवाद को शोषण और अन्याय के खिलाफ एक अनवरत लड़ाई के रूप में ग्रहण करते हैं. उन्होंने अपनी तरह से अपने रास्ते पर चलते हुए अपनी मार्क्सवादी समझ को विकसित किया. यद्यपि विष्णु जी कभी किसी मार्क्सवादी संस्था के सदस्य नहीं रहे किन्तु उनकी सामाजिक प्रतिबद्धता और सरोकार निर्विवादित और बहुत गहरे हैं. ‘सिर पर मैला ढोने की प्रथा’, ‘गाहक’, ‘घर’, ‘खुशी’, ‘बेटी’, ‘स्वर्ण जयन्ती वर्ष में’, ‘एक स्मृति’, ‘वृन्दावन की विधवाएं’, लड़कियों के बाप, एक कम, जिनकी अपनी कोई दूकान नहीं होती, जैसी बीसियों कविताएं ऐसी हैं जो समाज के निम्न स्तर पर रह रहे लोगों के गहन दुख और पीड़ा को बहुत गहरी संवेदना के साथ चित्रित करती हैं.

यह भी उल्लेखनीय है कि महाभारत विष्णु जी का प्रिय ग्रंथ है. इसके विभिन्न पात्रों पर उन्होंने अनूठी कविताएं लिखी हैं. स्त्रियों के संबंध में लिखी गईं उनकी तमाम कविताएं भी विलक्षण कविताएं हैं. मनु का मानना है कि इन कविताओं पर अलग से विस्तार सहित गम्भीर विवेचना की जरूरत है.

इसमें कतई संदेह नहीं कि विष्णु जी पूरे हिंदी साहित्य में हमारे समय के अतुलनीय और दुर्लभ कवि हैं!

इस तरह, प्रकाश मनु की पुस्तक “एक दुर्जेय मेधा विष्णु खरे (कुछ अंतरंग क्षण और मुलाकातें)” में विष्णु जी के जीवन की त्रासदियों, साहित्य, कविता, पत्रकारिता और अनुवाद के क्षेत्र में उनके अवदान की विस्तृत चर्चा करती है. इसके अलावा यहां देश-दुनिया, समाज, समय, राजनीति तथा साहित्य-की-राजनीति समेत तमाम सम्भावित विषयों पर विष्णु जी के दृष्टिकोण का विस्तार के साथ किया गया बहुत गहन-गम्भीर विश्लेषण और विवेचना है.

निस्संदेह, विष्णु जी का स्वयं का संसार और उनके द्वारा जाने गए संसार को समग्रता से देखने-समझने लिए यह एक जरूरी, अंतरंग और (फिलहाल) एकमात्र पुस्तक है! 

प्रकाश मनु : एक दुर्जेय मेधा : विष्णु खरे (कुछ अंतरंग क्षण और मुलाकातें), वाणी प्रकाशन, 21-ए, दरियागंज, नयी दिल्ली-110002, प्रथम संस्करण 2004, मूल्य 425 रुपए.

 

 ब्रजेश कृष्ण
1348, सेक्टर-5,
कुरुक्षेत्र-136118 (हरियाणा)
मो. 9416106707/ईमेल – brajeshkrishna45@gmail.com

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Tags: प्रकाश मनुविष्णु खरे
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Comments 3

  1. चन्द्रकला त्रिपाठी says:
    4 years ago

    पढ़ लिया। प्रकाश मनु संबंधों में आत्मीयता का सुवास भरते हैं। देवेंद्र सत्यार्थी जी पर उनका लिखा पढ़ा है। रचनाकार के आत्मसंघर्ष में अभावों का संदर्भ उसकी मानवीय नैतिक मजबूतियों का सन्दर्भ हो कर आता है। विष्णु खरे कबीर के राग और संघर्ष के कवि हैं। बहुत बीहड़ होने के बावजूद उनकी कविताएं मन में अटकती हैं। अच्छा आलेख।

    Reply
  2. गिरधर राठी says:
    4 years ago

    ब्रजेश कृष्ण जी ने विष्णु खरे और प्रकाश मनु , दोनों को अनेक पाठकों का आत्मीय सहचर बना दिया है।

    Reply
  3. Sanjeev buxy says:
    4 years ago

    विष्णु खरे जी से मेरे बहुत ही आत्मीय संबंध रहे ।खासकर मेरा उपन्यास भूलन कांदा आया तो उसे पढ़ने के बाद उन्होंने मुझे फोन किया और इस विषय पर चर्चा करने के लिए मुंबई बुलाया। मैं और रमेश अनुपम दोनों उनसे मिलने मुंबई गए और इसी समय 2 दिनों तक उनसे काफी बातें हुई ।उन्होंने ब्लर्ब लिखने के लिए भी अपनी सहमति दें दी और बहुत अच्छा लिखा भी ।विष्णु खरे जी को लेकर प्रकाश मनु जी से भी मेरी बातें होती रही तथा उनकी यह किताब मैंने खरीदी और पढ़ी।वे बड़े आत्मीय हैं।

    Reply

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