विष्णु खरे : विवरण में संसार
सविता सिंह
किसी कवि को कैसे याद करना चाहिए कि वह ठीक-ठीक याद किया जाए और समझा जाए, वह भी यदि वह विष्णु खरे जैसा कवि हो जिसकी कविताओं के बनने की एक विशिष्ट पद्धति है. किसी कवि को कैसे याद करें कि वह मायूस न हो बल्कि हैरत से देखे कि किसी अन्य ने उसके रहस्य को कैसे जान लिया. ऊपर के रूखे आवरण के बावजूद किसी ने कैसे भीतर के जल के तापमान को महसूस कर लिया. विष्णु खरे ने कविता के अलावा और भी बहुत कुछ लिखा, ख़ासकर फिल्मों पर उनका लेखन अनूठा है. अनुवादों की लम्बी-फेहरिस्त है, देश-विदेश के कवियों को उन्होंने इन्हीं के जरिये और भी पढ़ा और जज़्ब किया. मेरे लिए भी उनका यूँ अचानक ही उठकर चले जाना, दुःखदायी है. मेरी कविताओं पर उनकी खरी टिप्पणियाँ अक्सर उनमें सुधार ही लाती थीं. आख़िरी दिनों में मेरी कविताओं के संचयन की वे भूमिका लिख रहे थे. सोचती हूँ एक पूरा संसार ही उन्होंने लिखा होता. अक्सर वे ऐसा ही करते थे.
(एक)
उनकी कविताओं में भी यह दुखी-सुखी संसार, जिसमें हम जी रहे हैं और जिसके बरक्स वे एक और संसार बनाना चाहते थे, विवरणों के ज़रिये ही परिभाषित होता था. रोमांटिक कवियों से अलग, कविता में कल्पना का सहारा वे कम लेते थे. जो है उसे ही सही-सही डिस्क्राईब कर, उसके छोटे से छोटे ब्योरे को भाषा में लाकर एक प्रति संसार गढ़ते थे. इस तरह एक आख्यान तैयार होता था जिसमें यह संसार अपने रहस्यों में भी उजागर हो जाता था. यह सभी कुछ कविता में एक ऐसा आस्वाद पैदा करता था जिससे सत्य के दर्शन होने की अनुभूति होती थी. इनके यहाँ कविता में विवरणों से पैदा की जाने वाली काव्य चेतना अपने सौंदर्यबोध में वाकई अद्वितीय है.
ऐसा कहा जा सकता है कि अपनी कविताओं में जिस संसार की जो तस्वीर वे पेश करते हैं वे उसे पाते भी हैं, उसकी क्षणिक स्थिरता में ही सही, या फिर अपने विवरणों में तथ्यों के संयोजन से वे उसे मूर्त कर देते हैं. एक कमरा तब मुकम्मल दिखता है जब यह दिखे कि टेबल कहाँ रखी है और मेज़ कहाँ और दीवार पर लगी तस्वीरें क्या असर पैदा करती हैं इस कमरे के यूँ होने में, क्या कवि अपनी तरफ़ से उसमें एक आईना भी जोड़ देता है ताकि वह एक प्रतिसंसार-सा भी दिखे?
विष्णु खरे क्या अपनी कविताओं में जितना हैं उससे अधिक अर्थ पैदा करते हैं या फिर उसे तलाशते भर हैं या कोई दूसरी ज्ञानात्मक क्रीड़ा चलती रहती है इस कवि की अपनी एक विशिष्ट लीला की तरह, इन्हें पढ़ते हुए लगातार सोचना पड़ता है.
यह कवि अपने विवरणों से ही अपनी राजनीति भी करता है. कहना कभी-कभी मुश्किल हो जाता है कि नरोदा पाटिया की त्रासदी कवि की कविता से अपने विवरणों में पूरी होती है या कविता को पूरा करती है– असर लेकिन तीक्ष्ण ही होता है और आप एक दर्द के दरिया में सचमुच उतरे हुए खुद को पाते हैं. इनकी कविताओं में विवरण दरअसल सिर्फ़ यथार्थ के एक चित्र को खींचने के लिए नहीं होते बल्कि उन्हें अर्थपूर्ण बनाने के लिए, बहुत बारीकी से यथार्थ का अवलोकन कर, उस पर आधारित होकर.
विष्णु जी की कविताओं की शैली उनके विवरण करने की कला और क्षमता की वज़ह से सामान्य चीज़ों को सामान्य बनाती-सी भले दिखे, लेकिन यह सामान्यीकरण जब गहरे अर्थों में हमारे यथार्थ को पकड़ लेता है तो हमें अन्दाजा होता है कि जो कुछ चल रहा है, इस सलीके से किये जा रहे तथ्य संयोजन में वह विशेष है, विलक्षण प्रयास है. यहाँ बिम्ब नहीं हैं, विवरण हैं, जिनसे जाना जा सकता है टेम्पो में अपनी गृहस्थी लेकर घर बदलते हुए एक निम्नमध्यवर्गीय परिवार को उसकी वर्गीय सच्चाई में, एक आदमी अपने दाँत खोदने वाली सींक को नाक की तरफ़ ले जाता हुआ बता देता है अपनी मानसिक और सामाजिक स्थिति को.
लालटेन जलाना क्या है ? एक प्रक्रिया या ग्रामीण या फिर कस्बाई जीवन का वह यथार्थ जहाँ से विष्णु खरे जैसा कवि अपनी संपूर्ण सोचने की पद्धति के साथ निकलता है, सकारात्मक अर्थ में एक अनुभववादी (इंपिरिसिस्ट) कवि, जो कविता में शोध करता है. इस संसार को उसके अंदरूनी अर्थ को समझने के लिए उनकी कविता ‘दोस्त’ में एक विवरण आता है जिसमें एक युवक को एक सब-इंस्पैक्टर से दोस्ती करने की नसीहत दी जाती है. नसीहत दिये जाने के विवरणों के ज़रिये अपनी कविता को विष्णु खरे उसके राजनैतिक आशयों में पूरा करते हैं. वर्ग घृणा को बेवाक ढंग से सामने लाते हुए यहाँ वर्ग का कोई बड़ा आख्यान नहीं प्रस्तुत किया गया है–बस यथार्थ के डिटेल्स हैं, सूगा (suara) की पेंटिंग की तरह बनाया गया है. प्यांटिलिज्म (Pointalism) यानी, महीन बिन्दुओं से यथार्थ का चित्र तैयार किया गया है.
‘‘एक नौजवान पुलिस सब-इंस्पैक्टर से दोस्ती करो
लेकिन दो-तीन बरस बाद तुम अचानक पहचानोगे
कि सड़क जहाँ पर रस्से लगाकर बंद कर दी गई है
और लोग साइकिलों पर से उतरकर जल्दी-जल्दी जा रहे हैं
और तमाशबीनों की क़िस्तों को बार-बार तितर-बितर किया जा रहा है
पास ही की दूकान से बैंच उठवाकर वह वर्दी में बैठा हुआ है
टेबिल पर टोपी और पैर रखकर
तुम कहोगे कि उसकी हैल्थ शानदार हो गई है
जबकि ऊपर उठ आए गालों के ऊपर स्याह हलके़ गढ़े पड़ गये हैं
और पेट और पुट्ठों के अप्रत्याशित उभारों पर कसी हुई पोशाक में
वह यत्नपूर्वक साँस ले रहा है
उसकी बग़लें
कलफ़ और पसीने से चिपचिपा रही हैं
और माचिस की सींक से दाँत कुरेदते हुए वह
उसे बार-बार नाक की तरफ ले जा रहा है सियासत
और बड़े लोगों की रंगीन रातों की कुछ अत्यंत
गोपनीय बातें बताते हुए वह उस समय एकाएक चुप हो जाता है
जब सड़क के उस ओर दूर पर भीड़नुमा
कुछ नज़र आता है
और मेहनत के साथ वह उठते हुए कहता है
अच्छा, अब तुम बढ़ लो, ये मादरचोद आ रहे हैं.”
सचमुच कहाँ से चलती, बनती हुई कविता कहाँ आकर ठहरती है, साँस लेती यहाँ ! बड़े सैद्धांतिक वैचारिक खाकाओं को बिना सामने लाए, एक बड़ा वर्गीय यथार्थ दिख ही जाता है इस कविता में. हमारे समाज की राजनैतिक आर्थिक विद्रूपताएं यूँ गालियों में संप्रेषित हो जाती है. उनकी बहुचर्चित और विवरणों के शोधबोध से पगी पद्धति की सचमुच बेजोड़ कविता है ‘लालटेन जलाना’. यह यहाँ शायद कहा जा सकता है कि एक बड़ी कविता अपने विवरणों में ऐसे हो सकती है जैसे यह संसार.
“लालटेन जलाना उतना आसान बिल्कुल नहीं है
जितना उसे समझ लिया गया है ..
यह ज़रूर है कि जब दिया-बत्ती की बेला आए
तो यह न मालूम हो कि लालटेन पीपे या शीशी में तेल नहीं है
और शाम को साढ़े छह बजे निकलना पड़े मिट्टी के तेल के लिए ..
आख़िर कोई लालटेन अच्छी तरह क्यों जलाई जाए…
लेकिन लालटेन जलाने का लुत्फ़ मुख्यतः तेल से है
और शायद उससे से ज्यादा
उम्दा साफ़ किए गए काँच की है
भलाई इसी में है कि बत्ती से बेवज़ह छेड़छाड़ न की जाए
लेकिन अगर उस पर ज़्यादा ग़ुल जमा हो ही गया हो
तो उसे उँगलियों से नोचना बेवकूफ़ी होती है
क्योंकि उसके बाद जब उसे बाला जाएगा
तो चारों तरफ़ से पुच्छल तारों जैसी दुमदार रोशनी निकलेगी
और काँच बच भी गया तो काला तो हो ही जाएगा
कैंची से काटने में भी रेशे निकल आते हैं
या टेढ़ी-मेढ़ी कटती है
उसे ब्लेड जैसी चीज़ से काटा जाना चाहिए वह भी एहतियात से
लेकिन यह तभी मुमकिन है जबकि वह काफ़ी लंबी हो
ऐन मौके पर यह पता लगना कि बत्ती छोटी है
लालटेन की कुप्पी को मिट्टी के तेल से बिला वजह
लबालब भरने पर मजबूर करता है
और तब भी वह साढ़े नौ बजे तक दम तोड़ देती है ….
लेकिन जो काम सबसे ज्यादा सलीके मेहनत और निगाह की मांग करता है
वह है शीशे को साफ़ करना…..’’
कविता में इस तरह रौशनी पैदा होती है जिस तरह यह अपनी बारीक बनावट में खुद को बरतती हो क्योंकि शीशे को साफ़ करने में यह ध्यान रखना पड़ता है कि
“कि कब्जे से निकालते वक्त
उसे गलत तरफ़ से तिरछा न कर दिया जाए कि वह टूट जाए
फिर यह कि शीशा सिर्फ़ बढ़िया राख से ही चमक सकता है
यानी या तो अच्छी जलाऊ लकड़ी की राख हो
या फिर सख़्त कंडे की”
बिना यह सब कुछ जाने और एहतियात बरते बग़ैर, यह रौशनी बच नहीं सकती कविता में या कि कायनात में.
(दो)
विष्णु जी की एक और कविता है जिसे मैं एक बेहद महत्वपूर्ण रचना मानती हूँ और जिसके ज़रिये वे हमें अमानवीयता की तस्वीर दिखाते हैं जो इन्हीं ब्योरों के कारगर संयोजन और विस्तार की मदद से संभव हुई है. एक साथ यह कविता आपको हतप्रभ और चमत्कृत दोनों करती है, वह भी आपके बहुत करीब पहुंच कर जब आप यथार्थ को अभी दूर से ही देख रहे होते हैं. ‘सिर पर मैला ढोने की अमानवीय प्रथा’ कविता में वे इस पूरी प्रथा की अमानवीयता को यथार्थपूर्ण ढंग से परिभाषा की गिरफ्त में ले लाते हैं,
‘‘इस पूरे मुहावरे पर ही ग़ौर करें
जो ध्यान दें, है
सिर पर मैला ढोने की अमानवीय प्रथा
अब यदि हम ज़ोर सिर पर देते हैं
तो ध्वनि यह निकलती प्रतीत होती है
कि यदि मैला सिर के बजाय कंधों, पीठ या कमर पर ढोया जाएगा
तो प्रथा अमानवीय नहीं रहेगी.’’
बात जो बनती हुई दिख रही है वह यह कि क्यों कोई किसी और का मैला ढोये, लेकिन शायद इतने से बात नहीं बन पा रही. कवि इसलिए इस मैले को ढोये जाने की प्रक्रिया, उसकी सम्पूर्ण प्रविधि में जाता है, जो आपको भीतर तक, समझा दे कि आख़िर किस तरह हमने अपनी मनुष्यता खोई है. वे कहते हैं, ‘
मुहावरे को सिर पर नहीं दिमाग़ में रखे हुए
यदि हम बल मैला ढोने पर देते हैं
कुछ यूं लगेगा कि इसे ढोना भले ही अमानवीय हो.’’
अमानवीय होने की परिभाषा को पूरा करने के लिए कवि उसकी डिटेलिंग के ज़रिये उसे प्रस्तुत करता है. मैं सोचती हूँ कि कविता ज्ञान के किस आयाम को खुद में समोये है यहाँ, किस अर्थशास्त्रीय रचनात्मक मीमांसा की भारी-भरकम पद्धतियों का भार-वहन करती है यह कविता–
‘‘बहरहाल इस भाववाचक संज्ञा के आते ही
प्रश्न यह खड़ा हो जाता है कि क्या
सिर पर मैला ढोने को प्रथा कह सकते हैं
क्योंकि ज्ञानमंडल बृहत हिंदीकोश देखें
तो इस तत्सम शब्द के दो तत्सम पर्याय
रीति या परिपाटी दिये हुए हैं
जबकि कुछ संदिग्ध गुणवत्तावाला नालंदा शब्दकोश
इसे रिवाज या प्रणाली बताता है.’’…
परन्तु उसकी असल अमानवीयता तो यहाँ है–
‘‘कि तुम जब बैठे ही हो
अचानक कभी घुस आता था कोई थूथन नहीं
बल्कि चूड़ियों वाला कोई साँवला-सा हाथ
टीन की चौड़ी-गहरी तलवार जैसा एक खिंचौना लिए हुए
फिर जैसे तैसे उछलकर भागने से पहले आती थी
स्त्री हँसी की आवाज़ जो कहती थी
और पानी डाल दो बब्बू
और उसके बाद राख की मांग की जाती थी
जिसे राखड़ कहा जाता था राख कहना अशुभ होता
जो ज़रूरी थी सिर पर मैला ढोने की अमानवीय प्रथा को
कुछ वहनीय बनाने के लिए
यानी पहले टोकरे में बिछाई जाती थी वह
जिसके ऊपर तक भर जाने के बाद
उसे ढका जाता था फिर राख की मोटी परत से ही
यह तथ्य अल्पज्ञात ही है कि अनेक पिछवाड़ों का मैला
कितनी जल्दी तरल हो जाता है
और राख ज़रा-सी कम हो तो टोकरे की किमचियों से टपकने लगता है.’’
यह किमचियों से टपकता मल मैला ढोने वाली स्त्री के चेहरे, बाल, पीठ, छाती से होता हुआ उसे सम्पूर्ण रूप से अमानुषिक या मनुष्य से कमतर कोई और जीव बना देता है. दिल और मिजाज़ को बिगाड़ देने वाली ऐसी कोई और कविता नहीं पढ़ी. परन्तु इसमें क्या कोई शक़ है कि यह कविता अपने विवरण में ही सत्य के इस रूप का भी बखान बन सकी है.
ब्यौरों और विवरणों से खड़े किये गए एक निम्नमध्यवर्गीय परिवार के सत्य को आप विष्णु खरे की कविता ‘जो टेम्पो में घर बदलते हैं’ में देख सकते हैं. हैरत में पड़ सकते हैं कविता क्या कुछ कर सकती है ऐसे पद्धतिपगे प्रयत्न से. जो परिभाषा हम गढ़ पाने में ज्यादातर अक्षम होते हैं, वह यहाँ अपनी स्पष्टता में एक दृश्याचित्र की तरह प्रस्तुत है– निम्न मध्यवर्गीय मनुष्य के घरेलू जीवन की पहचान कराते इस कविता के सामान, उनके रंग-रूप, उनकी अनिवार्यता और उसमें संचित-सुरक्षित उनकी वर्गीय असुरक्षाएं–सब-कुछ जाहिर है एक टेम्पो में अपनी गृहस्थी लादे चला जा रहा है एक परिवार अपना घर बदलता हुआ,
‘‘पुराने सोफ़े एक डबल बैड सेकेंड हैंड
एकाध निबाड़ का फोल्डिंग पलंग कीलें निकली हुई कुर्सियाँ
फटी बदरंग दरियाँ फीके पर्दे घिसे पाँवपोश
ज़र्द पड़ चुका दस बरस पहले क़िस्तों पर लिया गया फ्रि़ज
वैसा ही ब्लैक एंड वाइट टी.वी. उसका जंग लगा अधटूटा एंटेना
मटमैला गैस सिलिंडर चूल्हा जिससे कंपनी का नाम मिट चुका है
उखड़े हुए सनमाइकावाली डाइनिंग टेबिल हिलती हुई तीन कुर्सियों समेत
एक दांचेदार गोदरेज की अल्मारी जो असल में गोदरेज की नहीं
शीशे में फफूँद-पड़ी डगमग करती एक ड्रेसिंग टेबिल न घूमने वाला टेबिल फ़ैन
बर्तन भाँडे खूँटियाँ पाटे मोगरियाँ झाड़ुएँ सिल-बट्टा
टूटे हुए पल्लुओं वाला एक कूलर एक लैब्रेटा जो अब स्टार्ट तक नहीं होता
चटके किनारों वाले कुछ गमले जिनमें मनीप्लांट सहित अन्य आधे मुरझाए पौधे
प्लास्टिक की बाल्टियाँ मग्घे हर तरह की शीशियाँ डब्बे-डब्बी
वैलकम वाली फ्रेम जड़ीं गृह कलाकृतियाँ दीवार के उड़ते हुए विकासमान हंस
कैलेंडर पिछली दीवाली के लक्ष्मी-गणेश कुछ अक्षरों कम वाली नेम प्लेट
फीके खिलौने प्लास्टिक की साइकिल एक कैसेटवाला मोनो टू-इन-वन देसी
बच्चों की पुरानी किताबें खुले बंडलों में इस साल की उनके स्कूलों के बैगों में
टीन की चादरों के संदूक मिलिटरी कैंटीन से लिए गए जानपहचानी सूटकेस
अब नारियल की रस्सी से बँधे हुए और भी बहुत कुछ
जिसका महत्त्व सिर्फ़ घर की औरत जानती है.’’
यह सारा सामान और साथ में पति, पत्नी, किशोर वय में प्रवेश कर गयी बेटी और छोटे दो और बेटे-बेटियाँ–सब इसी टेम्पो से घर बदलते हुए सवार हैं. यह एक पूरा संसार है जो सत्य की छाया नहीं, बल्कि उसका असली रूप है! देखने में कितना छोटा दिखता है टेम्पो, जैसे यह कविता, लेकिन एक विस्तृत सत्य इसमें समा ही गया है—
‘‘देखने में कितना छोटा दिखता टेम्पो
लेकिन पाँच प्राणियों की गिरस्ती ख़ुद उनके समेत
कितने करीने से आ जाती है उसमें और फिर भी
पीछे घर के एकाध बुजुर्ग और टेम्पोवाले के
दो-तीन मज़दूरों के बैठने की जगह निकल आती है.’’
यथार्थ की ऐसी सधी हुई तस्वीर में यह जोड़ना भी कवि नहीं भूलता कि इस हचकती-चलती जादुई गाड़ी में उसका चालक और क्लीनर ‘चोली के पीछे क्या है’ गाना भी गाने लगते हैं,
सिर नीचा किए किशोरी बरजने लगी छोटों को
कि साथ न गाएँ, ताल न दें’
गिरस्तिन देखती है पति को
जो अतिरिक्त ग़ौर से देख रहा है ट्रैफ़िक को
वह अभी झंझटों में नहीं पड़ना चाहता लेकिन माँ-बेटी समझ रही है इस गाने को गाये जाने की फूहड़ मंशा और उससे उपजता भय का हमलावर रूप और असर.
‘‘बेचारा ‘गिरस्त’ पीछे वाली जाली से देख लेता है
हिलती हुई अपनी पूरी गिरस्ती को
उसे डर है तो यही कि सिलिंडर पर थाप देते छोकरे सिगरेट न पीने लगें
फ्रिज की गैस लीक न हो जाए
गोदरेज पर नयी खरोंच या ढांचा न पड़े
ड्रेसिंग टेबिल का शीशा न चटके कोई टी.वी. की गठरी पर न बैठ जाए
सभी कुछ सही-सलामत पहुँच जाए दो कमरों के अपरिचित घर में.’’
गिरस्त के सामान के अतिरिक्त डिटेलिंग कर कवि ने इस परिवार में ‘सामानों’के विस्तृत मनोवैज्ञानिक अर्थां का भी उद्घाटन किया है- आख़िर क्या ज़्यादा असुरक्षित करता है इस वर्ग के मनुष्य को- सामान या सामान की तरह हो चले परिवार के सदस्य; किशोर होती बेटी जो अपने हमलावरों से रू-ब-रू है, सबकुछ समझती, बरजती मगर आँखें नहीं दिखाती. यह अलमारी पर नया ढांच नहीं पड़ने की चिंता कैसी चिंता है? ढांच बेटी के बदन पर भी पड़ रही है ‘चोली के पीछे क्या है’ गाने की अश्लीलता से भयभीत वह चुप है, और अपने संकेतों में लगातार टेंस बनाता हुआ सत्य भी यहाँ है. क्या कुछ और आ घटे, सामान का एक घर से दूसरे घर तक पहुँचने में यह सारा शहर ही न कहीं भूकंप में तहस-नहस हो जाए. या टेंपो ही न उलट जाए.
यहाँ दूसरी तरफ की हिंसाएँ न मुखर हो जाएँ जिस कारण संतुलित-सा यह दृश्य अपनी सत्यता में असंतुलित न हो जाए. सारा खेल बदल सकता है, यदि कोई ऐसी दुर्घटना हो जाए. इस समझदार गिरस्त को रिस्क लेने के लिए मजबूर न होना पड़े. हालाँकि परिणाम का तो पता है
ही-उसकी हार.
(तीन)
यथार्थ में व्याप्त मनोवैज्ञानिक परत को विष्णु जी की कविताएँ लगातार खोलने का भी प्रयास करती रहती हैं. उन्हें लगता है किसी कवि को सत्य के इस डार्क (अंधेरा) परिधान से उसे बाहर लाना ही चाहिए. इस मायने में उसका यह विशेषाधिकार है क्योंकि उसका यह व्यवसाय है कि वह सत्य को जाने, उसके सारे छद्म रूपों को उजागर करे. समाज में फैली विकृतियों के बने रहने के कारणों को उजागर करे. स्त्री-पुरुष के बीच जो संबन्ध हैं, इस मायने में, उनपर वे अपने ध्यान को केन्द्रित करते हैं. सत्य के छद्म रूप को, झूठ को, कागज़ के कवर की तरह चीर देते हैं. वे पाते हैं स्त्री-पुरुष आपस में प्रेम नहीं करते, महज सहूलियत की वज़ह से ही साथ रहते हैं.
स्त्रियाँ तो फिर भी स्त्रियों को जानती हैं, इसलिए सहानुभूतिपरक ढंग से एक दूसरे से प्रेम करती हैं, मगर पुरुष तो सदा शंकाओं, आशंकाओं और भय से ग्रस्त रहते हैं स्त्रियों को लेकर. उन्हें डर बना रहता है कहीं उनके सर्वश्रेष्ठ होने का ‘हवामहल’ ध्वस्त न हो जाए. अतः स्त्रियों को दबाकर रखते हैं- नियंत्रण का जाल मैटेरियल और आडियोलोजिकल दोनों ही तरह से जबर्दस्त ढंग से बुना गया है यहाँ. इसे हम पितृसत्ता की संरचना का भी नाम दे सकते हैं. विष्णु खरे इसके अंधेरे पक्ष को प्रकाश से भर देते हैं. पत्नियों की निजता को पति कैसे नष्ट करते हैं इसका एक सत्यपरक खुलासा है यहाँ और एक विश्लेषण भी किया गया है कि कैसे वे पत्नियों के एकांत को नष्ट करके ही चैन लेते हैं. साथ ही इस बात का भी आत्मस्वीकार है कि पुरुष स्वतंत्र जीवन जीने वाली स्त्री से दरअसल रश्क़ करते हैं और बदनाम भी. यह एक प्रवीण पैंतरा है पितृसत्ता का जिसकी शिकार स्वतंत्र और अस्वतंत्र सारी स्त्रियाँ होती हैं. ‘हमारी पत्नियाँ’ कविता में आरम्भ से ही प्रस्तावना की तरह अपनी मनोवैज्ञानिक मंशा को स्पष्ट करते हुए विष्णु खरे लिखते हैं–
‘‘औरतों पर मर्दों के ज़ुल्म के बारे में बहुत-कुछ कहा गया है
पत्नियों पर पतियों की क्रूरताओं को भी
सामान्यजन तथा विशेषज्ञों ने
विभिन्न कोणों से देखा है
वे सचाइयाँ अपनी जगह होंगी
लेकिन यहाँ कुछ और ही संकेत अभीष्ट हैं.’’
पुरुष अपनी पत्नियों के बारे में लगातार सोचते रहते हैं कि उनके पहले कोई और तो नहीं था उनके जीवन में- उन्हें सुरक्षित बने रहने के लिए यह जानना ज़रूरी लगता है. यह भारतीय पितृसत्ता की सड़ांध है जो उनके भीतर उनके पुरुषवाद को परिभाषित कर उन्हें मर्द बनाती है.
‘‘एक ही शंका हम अपने अंदेशे को छेड़छाड़ में छिपाते हुए
लगभग आजीवन उनकी बनिस्बत अपने से करते हैं
कि हमसे पहले कोई और तो नहीं था
अपनी पत्नियों से हम अपेक्षा नहीं करते
कि उन्हें याद आए अपने अतीत की
पत्नियों और उनकी सहेलियों का कैशोर्य
हमें सिर्फ़ उनकी कुछ संभावित स्त्रियोचित अंदरूनी बातें जानने में ही दिलचस्पी होती. उनके सच को जानकर ही चैन मिल सकता. क्योंकि तभी सज़ा तय की जा सकती है. पत्नियों का अपराध ही उनका विवाह से पहले का अपेक्षाकृत स्वतंत्र जिया गया जीवन होता है. और जब वे उनकी गिरफ़्त में आ गयी हैं पत्नियों के रूप में, उन्हें उनकी स्वतंत्रता की चाहत से भय लगता है–उनका कुछ भी अपना नहीं होना चाहिए इस कारण वे पूर्णतया पराधीन हों तभी शांति कायम हो सकती है. वे लिखते हैं,
‘‘जब हमारी पत्नियाँ लौटने लगती हैं
अपने पुराने दिनों में तो हम घबरा जाते हैं
उनकी स्मृतियों को काटने की कोशिश करते हैं
हम अपने अतीत से ..
हम नहीं चाहते कि हमारी पत्नियों को याद आएँ
उनके पिता की जय-पराजय उनकी माँ का दमकता या कुम्हलाता हुआ चेहरा
उनके खिलंदड़े या गुमसुम भाई-बहन
उनका पुराना घर स्कूल-कालेज रास्ते और पिकनिकें
और जो सौंदर्य और कुरूपताएँ उन्होंने जाने
क्योंकि उनके पास इतनी सारी स्मृतियों का होना
हमें एक लाचार डर से भर देता है.’’
पितृसत्ता के भीतर बैठा स्त्रियों की निजता के प्रति ऐसा भय ही पुरुषों को गढ़ता है, न कि उनकी किन्हीं अन्य अर्थां में श्रेष्ठता और यह भय कितना भयानक रूप ग्रहण करता है इसका विवरण भी वे इस कविता में प्रस्तुत हैं.
‘‘हमारी पत्नियाँ हमारी अनुपस्थिति में क्या करती हैं
यह जानने से हम इसलिए नहीं कतराते
कि वह हमारे लिए शर्मनाक होगा
बल्कि इसलिए कि वह जान लेने के बाद हम जान जाएँगे
कि हमारे और अपनों के लिए ही सब-कुछ करने की प्रक्रिया में
वे ख़ुदमुख़्तार शख़्सियत होने लगती हैं
और यह ख़याल ही हमें असुविधा में डाल देता है.’’
स्त्रियों की ख़ुदमुख़्तारी का भय पुरुषवाद की जटिल आक्रमक भयाकुलता की जड़ में है. यह एक (पुरुष) कवि ही बता सकता है क्योंकि वह सत्य को पकड़ने की सूक्ष्म तरकीबों से वाक़िफ है. वह सत्य का टेक्नीसियन है, उसका सक्षम इंजीनियर-अभियंता. कवि वह इसलिए है कि वह इसे कह देता है, जो कविता की भी शर्त है- ‘सत्य वचन ही बोल रे तोहे पिया मिलेंगे’. तभी कविता भी मिलेगी, कविता की आध्यात्मिकता ही कुछ ऐसी है. जब कवि अपने भय के एकांत में दाखिल होता है, जब वह पत्नियों के एकान्त को नष्ट करने की प्रविधि और चिंता में शामिल होता है—तमाम शंकाओं की एक कुशल मनोवैज्ञानिक की तरह पड़ताल करता है, उन्हें हर कोण से देखाता है दिखता है ताकि अंत में जब वह पत्नियों के एकांत को वेधे तब किसी को उनके लिये असहानुभूति न पैदा हो. स्त्रियों ने अपनी आंतरिक दुनिया को बचाकर रखने का अपराध जो किया है. भारतीय स्त्रीवादी विमर्श को तो पितृसत्ता की आतंरिक क्रूरताओं का स्वरूप समझ में आ ही जाता है यहाँ. विष्णु जी लिखते हैं,
‘‘सबसे भयावह तो है पत्नियों का
कभी-कभी अकेले अपने आप से बात करना
और उसके बीच एकाध बार हलके से हँसना-
उनका अचानक चुप हो जाना और घर के एक कोने में बैठकर
अकेले धूप या बारिश या न कुछ और देखना भी
हमें व्यग्र करता है-
याद होगा कितनी ही बार हमें उनसे अधिक लाड़ करने का नाटक
उनके ऐसे निजीपन को नष्ट करने के लिए भी करना पड़ा है.’’
यह कवि एक विलक्षण इनसाईडर है जो सत्य को छिपाता नहीं बल्कि अपने अपराध को अपनी निरीहता में डुबोकर कुछ ऐसे पेश करता है कि वह औचित्यपूर्ण लगे. मगर स्त्री तो गयी अपने आप से. लगातार वह पुरुष दृष्टि में एक वस्तु, एक आबजेक्ट बनी रहती है. जो स्त्री के दिल में है उसे पुरुष अपने निगाह में लाना चाहता है. उसका गेज एक ऐसा फंदा रचता है जो स्त्री के गले में नहीं पड़ता बल्कि उसकी आत्मा को अपनी गिरफ़्त में लेता है.
पत्नियों को नियंत्रित करने के लिए क्या-क्या नहीं करता है पुरुष पति. कितनी पेचीदी है यह पूरी प्रक्रिया जब एक मनुष्य दूसरे को नष्ट कर उसे अपने अधीन करता है. उनकी महत्वाकांक्षाओं को कड़वे पेय की तरह गटक जाता है, उनकी व्यष्टि को समाप्त कर देता है. इस संसार में वह प्रेतों की तरह जीने को विवश हो जाती है, उसे अपनी छाया भी साथ रखने की गुंजाइश नहीं है. कौन बच सकेगा जब किसी को टेलीस्कोपिक ढंग से ‘वाच’ किया जा रहा हो. और फिर अपनी पत्नियों को इसके बदले पुरुष सुरक्षा देने का प्रस्ताव रखते हैं ताकि वे, यानी पत्नियाँ, अपनी आत्मिक प्रफुल्लता और विकास का सौदा आसानी से कर लें. उन्हें उन्हीं की शर्तों पर समझने की असहनीय पीड़ा न झेलनी पड़े पति को. पुरुष कितना नियंत्रणकारी है, यह कविता हमारी आँखें खोल कर दिखा देती है–
‘‘अपने हर किये पर उनकी राय सिर्फ़ इसलिए जानना चाहते हैं
कि वे उसकी ताईद करें या कम से कम अपनी राय न दे सकें
हमें एक साँसत भरी राहत मिलती है
उन्हें अत्यधिक सफल और महत्वाकांक्षी देखकर भी
ज़्यादतियों के अनूठे नुस्ख़े आज़माते हैं हम अपनी पत्नियों पर…..
ताकि वे उस तरह संपूर्ण एवं जटिल न बन सकें
कि हर बार उन्हें उन्हीं की शर्तों पर समझना पड़े.’’
(चार)
विष्णु खरे इस मायने में एक विशेष कवि हैं क्योंकि वे सत्य के कथाकार भी हैं, वह भी एक वैज्ञानिक कथाकार जो अपने शोध में किसी भी तथ्य को छोड़ना नहीं चाहता. बहुत हद तक इसलिए भारतीय पितृसत्ता की एक तस्वीर यहां पूरी होती है. यह बात अपने आप में अंतर्विरोधी लग सकती है यदि मैं विष्णु खरे को सत्य का कथाकार कवि कहूँ क्योंकि आख्यानों की दरकार उन्हें जो पड़ी वह शायद इसी लिए कि इसका उन्हें पता लग गया था कि एक प्रविधि के ज़रिये कविता कथा के रूप में प्राप्त हो सकती है. शायद सत्य की इन शर्तों से उनका साबका व्यक्तिगत ढंग से पड़ा हो. जीवन भर इसलिए भी वे कटुता के अपने इस भार को स्वभाव की ही तरह ढोते रहे. लेकिन हमें तो इस कारण अपने अनेक रूपों में सत्य, कम से कम एक रूप में, हासिल हुआ ही.
इसे वे अपनी एक कविता ‘प्रतिसंसार’ में बखूबी पेश करते हैं. यह एक ठेठ ‘प्रोज कविता’ है जिसे पढ़ने और आस्वाद लेने के लिए भीतरी कनवर्जन या रूपांतरण की ज़रूरत पड़ती है. प्रोज कविता पढ़ना आसान नहीं, लिखना तो दुरूह है ही. एक ठंडी गहरी नदी की तरह होती है ऐसी कविता जो बाहर से शीतल मगर भीतर से गरम होती है. इसमें गिरे बिना कोई कैसे जान सकता है कि इसके भीतर अनंत लहरें और मछलियाँ हैं. एक कवि जब अपने विवरणों और आख्यानों के माध्यम से एक प्रतिसंसार गढ़ता है या रचता है तो वह दरअसल एक पूरा संसार ही गढ़ रहा होता है, ‘प्रति’आहिस्ता से खिसक कर कहीं और चली जाती है, शायद नदी में जहाँ लहरें उसे लील लेती हैं.
‘प्रतिसंसार’ एक महत्त्वपूर्ण कविता है जिसे उनकी कविता ‘लाइब्रेरी में तब्दीलियाँ’ कविता से जोड़कर पढ़ने पर और भी बौद्धिक आस्वाद उत्पन्न होता है. प्रतिसंसार के पूरे टेक्स्ट में कहीं भी पूर्ण विराम नहीं है, मतलब कि यह यानी संसार का बनाया जाना, गढ़ा जाना एक मुसलसल चलनेवाली प्रक्रिया है. यह संसार रोज़ ही बन रहा है, और उसे विष्णु खरे जैसा कवि भी बना रहा है अपने संशयों, कविताओं, कथाओं और निपट कटुताओं से.
“जिस काम पर वह जा रहा था उसे करने की इच्छा नहीं थी
फिर भी फु़र्ती से वह अपना दुपहिया चला रहा था.’’ ( कविता ‘मंजर’)
यह रास्ता, प्रतिसंसार बनाने का
‘‘अपेक्षाकृत वीरान है
सिर्फ एक विराट आकाश ऊपर फैला हुआ है
उसे सीधे ब्रह्माण्ड से जोड़ता हुआ
इस तरह के अकेलेपन से हौल पैदा होता है
और अकारण अकारथता.’’
इस अकारण मात्रा बावजूद कवि प्रतिसंसार रचने का कठिन उपक्रम करना चाहता है. यह संसार जो सतत रचे जाने की प्रक्रिया में तो है ही मगर यह कविता अपने आप में एक और पहल है. यह तो इसी बात से ज़ाहिर है कि बिना पूर्ण विरामों वाली यह कविता अपने वाक्य विन्यास में ही इस नये संसार की संरचना का संकेत देती है. लेकिन यह कितनी सार्थक है, कितना नये अर्थ लिए हुए है, यह विश्लेषण का विषय है यहाँ. प्रतिसंसार रचने की लालसा कविता का अपना भी चरम लक्ष्य हो सकता है और इस कठिन कार्य के अकारथ हो जाने की संभावना भी भयभीत कर सकती है कवि को जब वह यथार्थ से उसके ‘प्रति’ की तरफ अग्रसर होता है.
एक ऐसे व्यक्ति के पराक्रम का आख्यान है प्रतिसंसार कविता जो लगभग ख़ब्त की हद तक पढ़ने लायक सामग्रियों की ‘फोटो कॉपी’ करवाता रहता है जिससे धीरे-धीरे एक प्रति लाइब्रेरी उसके कमरे में बन जाती है. असली लाइब्रेरी और इस फोटो कॉपी की गई प्रतियों से बनी लाइब्रेरी में फ़र्क़ इतना है कि यहाँ पर प्रति सामग्री किस तरह, किन सिलसिलों में रखी गयी. उसका नया संयोजन कैसा है. कविता में कम से कम. यह दुनिया कम संयत, लगभग उबड़-खाबड़ है परंतु इसी संसार में वह युवक आश्वस्त है–
“वह बहुत पढ़ता और जो उसे अच्छा या आगे कभी फुर्सत से पढ़ने लायक लगता वह उसकी फ़ोटोकॉपी कर लेता इस तरह अनेक पत्रिकाओं किताबों और अख़बारों से बहुत सारी छायाप्रतियाँ उसके पास हो गईं जीवन का शायद ही कोई विषय हो जिसपर किसी सामग्री को उसने एकाध बार इस तरह इकट्ठा न किया हो अक्सर उसे ऐसी चीजें चूँकि पुस्तकालयों में मिलती थीं जहाँ प्रतिलिपियाँ पा लेने की सुविधा रहती है इसलिए वह उनकी मशीनों को चलाने वालों के संपर्क में आया जिनमें से कुछ सादर उसके हितैषी बने और कुछ ने उसे उनका काम बढ़ाने वाला एक सनकी समझा जबकि वह उनसे न तो कोई विशेष मेहरबानी चाहता था और न उनसे कोई फ़ायदा उठाता था और नक़ल करवाए गए हर काग़ज की क़ीमत जो अब तक हज़ारों रुपयों तक पहुँच गई होगी ईमानदारी से चुकाता था बल्कि कभी-कभी वापस की रेज़गारी छोड़ भी देता था…..’’
यह युवक अपनी एक दूसरी दुनिया बना रहा था और इसमें वह कोई ख़लल नहीं चाहता था. जितना बेपेचदगी से यह काम होता चला जाय उसके लिए वही बेहतर था.
‘‘जो कर्मचारी उसके प्रति कृपालु थे वे उसके इतने ख़र्च पर कभी-कभी एक फ़िक्रमंद अचंभा प्रकट करते उसे साब या सर कहकर पूछते कि आख़िर वह क्यों और कब पढ़ता है.’’
अब कोई ऐसे व्यक्ति से यह औसत और साधारण प्रश्न या जिज्ञासा करे तो वह क्या उत्तर देगा. बल्कि उसकी फ़िक्र तो यह थी कि यदि वह लाईब्रेरी एक-आध दिन नहीं जाता तो इस निर्माण प्रक्रिया में कठिनाइयाँ पैदा हो जाती,
‘‘उसने पाया कि यदि वह नियमित रूप से वहाँ नहीं जाता है तो उनकी संख्या दिल दहलाने और मायूस करने की हद तक बढ़ जाती है इसलिए वह यह करता है कि जब मशीन पर कोई नहीं रहता तो वह उसके पास अपने अपेक्षित पृष्ठों पर पर्चियाँ लगाकर छोड़ देता और बार-बार जाकर यह निगरानी या सवाल न करता कि वे पन्ने हो गए या नहीं यदि वह कोई किताब होती जिसका उजरा मुमकिन होता तो वह बाज़ार के फ़ोटोकॉपी वालों के पास जाता’’
इस तरह यह प्रतिसंसार बिल्कुल कार्बन कापी न होकर तमाम नई मुश्किलों को खुद में शामिल किये हुए कुछ आड़े-तिरछे भी बना रहा था उसे. खराब कागज़ और फीके या आड़े-तिरछे अक्स वाली नकल भी स्वीकार करनी पड़ती और इस तरह उसके घर की टेबिलों कुर्सियों रैकों शैल्फ़ों अतिरिक्त पलंगों मुड्ढों यहाँ तक कि बिस्तरों पर और फर्श के कोनों में भी कई साईज़ों और उम्र व रोशनी और धूल के मुताबिक कई रंगों की प्रतिलिपियाँ हो गई हैं जिनमें से कुछ के हाशियों पर उसने कुछ ऐसा लिखा भी था जो अब ख़ुद उसे पहेली लगता है.
‘‘यह दुनिया कोई ठोस दुनिया न होकर कई तरह की दुनियाओं की आवृतियों एवं अनुकृतियों का म्यूजियम नुमा लाइब्रेरी है जिससे नई दुनियाएँ बन सकती हैं. वह इसका ऐसा निर्माता है जो अपनी ही लिखी टिप्पणियों के लिये अजनबी हो गया है. वह किसी भी अर्थ में इसका पितृसत्तात्मक नियंता नहीं, न ही उसका मालिक. निश्चित तौर पर प्रतिसंसार पूंजीवादी नहीं, न ही पितृसत्तात्मक. अलवत्ता वह जब भी इन्हें करीने से जमाने की सोचता है तो अक्सर उसकी आँखें इस या उस फोटोकॉपी पर रुक जाती है और वह सोचते हुए किसी ख़ाली जगह पर बैठ जाता है कि उसे पहले ही पढ़ लेना चाहिए था या इसका उसने अब तक कोई इस्तेमाल क्यों नहीं किया इस तरह वह उठाता देखता रखता जाता है और इन प्रतिलिपियों से एक विचित्र विविध प्रकीर्णिका बनती रहती है एक अनपढ़े अनकिए का पुस्तकालय तैयार होता जाता है कितने लोग कितने विचार कितना सृजन एक समांतर संक्षिप्तीकृत संचयित प्रतिसंसार उसके यहां बढ़ता रहता है फिर भी ख़त्म नहीं होता वह जिसकी प्रतिलिपियाँ उसे अब भी चाहिए और वह लगातार लाता रहता है लगातार नए अक्स ताजा अनुकृतियाँ…’’
अब जब कवि ने यह समझ ही लिया है कि जो नया रचा जाएगा वह न पुराने की तरह होगा, न बस एक तरह का. पूंजीवाद के बदले समाजवाद ही होगा इसकी आशंका कम ही है क्योंकि जहाँ अभी तक जो कुछ संग्रह किया गया है उसमें कितनी ही दूसरी संरचनाओं की गुंजाईश बन गयी है. यह विविध संसार, बनता हुआ प्रति संसार, एक बड़ी चुनौती है ज्ञान पद्धतियों के लिए और राष्ट्र राज्यों की केंद्रीभूत सत्ताओं के लिए भी. यह एक कवि का संसार है, खुद से खुद को निसृःत करता हुआ और विसर्जित करता हुआ भी.
आख़िर ‘लाइब्रेरी में तब्दीलियाँ’ कविता को पढ़ते हुए यह स्पष्ट हो जाता है कि कैसे एक संसार विस्थापित होता है और उसका ‘प्रति’ बेआवाज़ वहाँ उपस्थित हो जाता है. पुरानी दुनिया के निरर्थक होने को अपने विवरणों में इस कविता में खरे ने कुछ इस तरह प्रस्तुत किया है जैसे विस्थापितों को अपनी कविता में जगह दे रहे हों. यह काम एक कवि वास्तुकार ही कर सकता है. अपनी करुणा के छत तले उन्हें पनाह दे सकता है, नये कमरे बना सकता है, नये कोने गढ़ सकता है. उनके लिए वे तमाम बेरोज़गार युवक, निरर्थक जीवन जीते बूढ़े और वेश्याएँ जो यहाँ इस पुरानी लाइब्रेरी में पलभर राहत पाती थीं अपने ग्राहकों को खोजती हुई–सब नयी कम्यूटर टेक्नालॉजी के आगमन की शिकार हो जाते हैं. विज्ञान द्वारा सृजित यह विवेकशील (रैशनल) संसार, ज्ञान का अब कोई बीहड़ किला नहीं, यह एक उत्तर आधुनिक स्पेस है जिसमें यह इमारत ज्ञान से नहीं, उसकी प्रवीणता और ऐफिशिऐंसी (कौशल) से चलती है.
यहाँ बरबस अम्बर्टो एको के ‘नेम ऑफ द रोज़’ की याद आती है जिसमें लाइब्रेरी एक लाईव्रींथ है, ज्ञान की घुमावदार चक्करदार संरचना जिसमें मध्ययुगीन यूरोप अपने को बदल रहा था और इस नये ज्ञान को रहस्यमय ढंग से छुपा भी रहा था. नये ज्ञान के लोलुप मनुष्य कीड़े मकोड़ों की तरह ज़हर से भिगाये गये ग्रंथों को पढ़ते ही मर जाते थे क्योंकि उनकी अंगुलियों से जहर उनकी जीभ तक पहुँच जाता था. इस कथा में प्रेम विवेक के षड्यंत्रों का आख़िरकार खुलासा कर देता है. लाईब्रेरी ज्ञान का संग्राहलय न होकर, शक्ति का केंद्र है जो वैसे हर बदलाव को जो नया और परिवर्तनकारी है उसे अवैज्ञानिक साबित करने के लिए बाध्य है. सत्ता में परिवर्तन ही नये ज्ञान को स्थापित और आद्रित करता है. मनुष्य यहाँ कुछ नहीं, उनकी मृत्यु इस सत्ता की अपेक्षित खुराक भर ही है. लाइब्रेरी में तब्दीली सत्ता में हो रही तब्दीली का द्योतक है यहाँ. इस अर्थ में यह एक जायज़ जिज्ञासा है कि लाइव्रींथ का हश्र आख़िर होता क्या है. यहाँ इस कविता में भी विष्णु खरे दिखाते हैं कि पुराना लाईव्रींथ अब बिला गया, वहाँ पर किताबों की सूची लकड़ी के ब्यूरो और कैबिनेटों में नहीं, बल्कि कम्प्यूटर के मगज़ में दर्ज़ कर दिये गये हैं. यथार्थ एक कम्प्यूटर है, एक सतह, एक स्क्रीन और उसके भीतर ज्ञान के बीहड़ को छिपा दिया गया है या फिर वह समा गया है. नया संसार इस अर्थ प्रति संसार न होकर उसका ‘ट्रेस’मात्र है, एक धब्बा, बस दाग़ भर बचा हुआ है पहला यथार्थ. उस ठोस दुनिया के लोग, उसकी शक्ति संरचना, सब बिला ही जाएँगे या फिर नयी विविधता में शामिल हो दूसरे ढंग से ज्यादा शक्तिशाली हो अदृश्य हो जाएँगे. विष्णु खरे लिखते हैं,
‘‘पहले भी यहाँ परिवर्तन हुए हैं
यानी शैल्फ़ और रैक किसी और तरतीब में लगा दिए जाते थे
किताबों को विषयवार इकट्ठा इधर-से-उधर हटा दिया जाता था
इशू और डिपॉज़िट काउंटरों की दिशाएँ बदल दी जाती थीं
और कुछ दिनों के बाद अचानक ऐसा फ़र्क़ अच्छा लगता था
लेकिन इस बार की पुनर्व्यवस्था के परिणाम कुछ अलग ही हैं
किशारों और नौजवानों की एक पूरी भीड़ होती थी यहाँ ….
वे अधेड़ और बूढ़े अब यहाँ नहीं दिखते
जो अतिरिक्त यूरोपीय अदब-क़ायदे से महिला सहायकों से
पुराने टाइम और लाइफ़ के बारे में दर्याफ़्त करते थे
और तसल्ली न पाने के बावजूद मुस्कराकर
किसी पिछली टेबिल पर बैठे धीरे-धीरे निद्रालु हो जाते थे’’
अब यहाँ
‘‘तीस बरस पुराने सूट और टाइयाँ पहने
या मैले कमीज़-पैंट कुर्ते पजामे में
या अपने आप से बातें करते हुए हँसने वाले लोग
अब यहाँ नहीं आते जो फ़ोटोकॉपी करने वाले से रेट पूछते थे
और फिर दिन-भर अपनी लाइनदार पुरानी कॉपियों में
लिंकन या एमर्सन की जीवनियों से नोट्स लेते रहते थे’’
बल्कि अब तो
“पसीने उम्मीद और नीम घबराहट से गँधाती
वह अधसनकी वाजिब वेश्या भी अब नहीं आती
जो न्यूयॉर्कर या नैशनल जॉग्राफ़िक लिए हुए
किशोरों या वयस्कों की दिलचस्पी के इंतज़ार में घंटों बैठती थी
लगभग हर रोज असफल
कभी-कभी एअर कंडिशनिंग के सुख में सो जाती हुई.’’
क्योंकि अब
‘‘पुरानी कार्ड-व्यवस्था हटा दी गई है
उसकी जगह अब कंप्यूटर और सीडी रोम आ गए हैं
अब जब भी जाओ बैठने की जगह मिल जाती है.’’
और इन विस्थापित लोगों के बदले जो आते हैं वे ज्यादा से ज्यादा
‘‘कुछ जानकारियाँ चाहते हैं और हद से हद जेरोक्स कापियाँ
वे जानना चाहते हैं कि क्या सारा मैटेरियल
ई-मेल या इंटरनेट पर अवेलिबल नहीं.’’
अब वह साँवली वेश्या जो कहीं फ़ायदेमंद दिन गुज़ारना चाहती, ‘‘दस से छः तक खुली होने के बावजूद इस लाइब्रेरी में नहीं घुसती.’’ वह शहर और केंद्रीय भारतीय नाट्यशाला या उपग्रह निदेशालय के बीच घूमती है. इन विस्थापितों की चिंता कवि को, प्रबंधन को नहीं जो संतुष्ट है लाइब्रेरी के इस रूपांतरण से. इस व्यवस्था में
‘कुछ भी मुफ़्त नहीं मिलना चाहिए’
…व्यवस्था अधिक खुली और सुचारू हुई है
संकल्प हो तो कारगर पुनर्संयोजन में दिक़्क़त नहीं आती
जगह उतनी ही लेकिन ज़्यादा कुशीदा है चीज़ें करीने से हैं
आवाजाही जितनी कम होगी कार्यकुशलता और गुणवत्ता उतनी ही बढ़ेगी
आवाज़ें सिर्फ़ टेलीफ़ोनों महिला सहायकों कंप्यूटर की सीटियों माइक्रोफ़िल्म मशीन की हैं
(छत पर लगे हुए सुरक्षा कैमरे न दिखाई पड़ते न सुनाई देते).’’
इस नये बदले यानी बदलते (लाईब्रेरी) संसार में मनुष्यता की पुरानी परिभाषा कारगर नहीं, न ही उसका दर्शन. सर्वेलेन्स आधारित नया संसार है अब जहाँ ज्ञान आत्मा को तृप्त या उन्नत बनाने के लिए नहीं, अपितु राज्य एवं पूंजी की उन्नति को संयोजित एवं सृजित करने के लिए ही उपजाया जाएगा. यह तस्वीर किसी दुःस्वप्न की लगती है जिसे विष्णु खरे कविता की विवरणात्मक पद्धति के कारण दिखाना संभव कर पाये हैं. इसकी भी फोटोकॉपी हो सकती है, या फिर एक प्रतिसंसार जो फोटोकापी की फोटोकापी हो सकती है–दुःस्वप्न की तस्वीर, यानी एक नयी तस्वीर.
इनकी लाईब्रेरी वाली कविता का नायक, या प्रोटोगोनिस्ट एक ख़ब्ती (ऑबसेस्ड) इंसान है जो टेक्नालॉजी का सहारा लेकर एक नहीं, कई प्रतिसंसारों की रचना की तैयारी करता है. उसका अपना वजूद ज़ाहिराना तौर पर केंद्रीय नहीं, वह अपनी ही टिप्पणियों को, जो फोटो कॉपी किये गये कागज़ों के हाशिये पर लिखे गये, उनका अर्थ नहीं जान पा रहा है. कैसे जान पाए, जब वह कोई एक अर्थ पैदा ही नहीं करना चाहता. उसकी रुचि एक अर्थवाले वाक्यों में है भी नहीं. अनेक अर्थों वाले संसार में एकल अर्थ वाले संसार की शक्ति संरचना और उसकी मारक एकनिष्ठता का अंदाजा उसे है जो उसकी समझ में मनुष्यों और प्रकृति के उत्पीड़न का नैतिक आधार बनता है.
विष्णु खरे जैसे कवि ही अपनी ऐसी कविता से उत्तर-आधुनिक जगत के दुःस्वप्न का आख्यान लाईब्रेरी के मेटाफर के ज़रिये तैयार कर सकते थे. अपनी कविता के विवरणात्मक पद्धति से उन्होंने सत्य के कई भेद खोल दिये जिससे स्त्री उत्पीड़न से लेकर संसार का दुःस्वप्नों के मरू में भटकने का आख्यान भी है. वही बता सकते थे कि कैसे सत्य की तरह दिखता झूठ इस संसार में राज्य करता है. अपनी कविता ‘हर शहर में एक बदनाम औरत होती है’ में विष्णु खरे पितृसत्ता का एक दूसरा ऐसा ही भेद खोलते हैं जिसके लिए उन्हें प्रशंसा मिलनी चाहिए.
(पांच)
हिन्दी के ‘प्रेम कवियों’ के ठीक उलट वे सत्योद्घाटन करते हैं कि पुरुष स्त्रियों से प्रेम नहीं करते, बल्कि ईर्ष्या करते हैं लेकिन वह प्रेम की तरह दिखता है. पुरुष प्रेम की कविताओं के झूठों को वह कचरे की तरह जल से छानकर बाहर रख देते हैं. अपनी पत्नियों वाली कविता में वह बता ही चुके हैं कैसे पुरुष स्त्रियों के एकांत को नष्ट करने का षड्यंत्र रचते हैं और अपने भय से संचालित और प्रेरित हो वे स्त्री की मनुष्यता को बर्बाद करते हैं. लेकिन यह तो पितृसत्तात्मक व्यवस्था में होगा ही–यही तो उसका तर्क है, ‘हर शहर में एक बदनाम औरत होती है’ में वे इसकी प्रक्रिया में जाते हैं. एक स्वतंत्र-सी दिखती, रहती स्त्री जो सुन्दर भी हो, उसके इर्द-गिर्द एक कथा गढ़ी जाती है जो सिर्फ इसकी इस अवस्था को नकारने के लिए होती है–उसकी स्वतंत्रता या स्वायत्तता को स्पृहा से देखते हुए, अपने तंत्र में उसे एक सीता जैसी स्त्री न होने के कारण उसे संदिग्ध बनाने की.
कवि यहाँ ईमानदारी से बताता है कि आख़िर यह ‘बदनाम औरत’ का कंस्ट्रक्शन होता कैसे है. यह बताते हुए यह जिज्ञासा हो सकती है–क्या वे एक ऐसी स्त्री या फिर इस जैसी स्त्रियों की वास्तविकता का ब्योरा दे रहे हैं या फिर अपने प्रतिसंसार में उनके लिए जगह बना रहे हैं? याकि वे इस बात से ही संतुष्ट हैं कि उन्होंने सत्य पहचानने की प्रविधि समझ ली है और दूसरों को भी इसे आजमाने के लिए प्रेरित कर सकते हैं. सत्य को समझने और कहने का संतोष इतना व्यापक और गहरा क्यों है? या फिर वह कोई मामूली काम करना चाह रहे हैं जो स्त्रीवादी चिंतकों ने अपने लिए बड़ा काम माना है– यह परिभाषित करना कि स्त्री क्या है, कौन है, उसको पितृसत्ता ने कितना बदरूप बनाया है. इस कविता में विष्णु खरे ने इतना तो कर ही दिया है कि मनुष्य की परिभाषा पुनः की जानी चाहिए जो अब कोई करना नहीं चाहता.
उन्होंने दिखाया है कि स्त्री मनुष्य है और उसकी भी एक गरिमा होती है जिससे पुरुष डरता है. इस सत्य का अभिज्ञान स्त्री पर पुरुष के नियंत्रण को समाप्त कर सकता है और वह अपने ही अंतर्विरोध में फँसा नीचतम कार्य भी करता है–उसे बदनाम करता है. हर स्वतंत्र स्त्री विश्रंखल ही होगी ऐसा मानना सहूलियत पैदा करता है. वह पूर्ण मनुष्य नहीं हो सकती, वह अपनी मनुष्यता में हर समय संदिग्ध ही रहेगी. पुरुष की इस मान्यता के पीछे के मनोविज्ञान को खूब समझती है विष्णु खरे की यह कविता. एक बदनाम स्त्री कौन है, और क्यों ऐसी है, विष्णु खरे कहते हैं,
‘‘कोई ठीक-ठीक नहीं बता पाता उसके बारे में
वह कुँआरी ही रही आई है
या उसका ब्याह कब और किससे हुआ था
और उसके कथित पति ने उसे
या उसने उसको कब क्यों और कहाँ छोड़ा
और अब वह जिसके साथ रह रही है या नहीं रह रही
वह सही-सही उसका कौन है
यदि उसको संतान हुई तो उन्हें लेकर भी
स्थिति अनिश्चित बनी रहती है
हर शहर में एक बदनाम औरत होती है
अक्सर वह पढ़ी-लिखी प्रगल्भ तथा अपेक्षाकृत खुली हुई होती है
उसका अपना निवास या फ़्लैट-जैसा कुछ रहता है
वह कोई सरकारी अर्धसरकारी या निजी काम करती होती है…
बताने की ज़रूरत नहीं कि वह पर्याप्त सुंदर या मोहक होती है
या थी लेकिन अब भी कम वांछनीय नहीं है.’’
ऐसी औरत तो न पति पर न पिता पर न ही अपने बच्चों पर आश्रित होती है. वह अपने आप में ही एक मनुष्य होती है. अपने विवरण में शत-प्रतिशत एकुरेट होते हुए, विष्णु खरे अवश्य कहते हैं,
“जबकि सच तो यह है
कि जो वह वाक़ई होती है उसके लिए
सुंदर या ख़ूबसूरत जैसे शब्द नाकाफ़ी पड़ते हैं
आकर्षक उत्तेजक ऐंद्रिक काम्या
सैक्सी वॉलप्चुअस मैन-ईटर टाइग्रेस-इन-बेड आदि सारे विशेषण
उसके वास्ते अपर्याप्त सिद्ध होते हैं….
उसे देखकर एक साथ सम्मोहन और आतंक पैदा होते हैं.’’
अब ऐसी स्त्री का पितृसत्ता क्या करे, वह तो अपने इस होने में ही एक चुनौती है. इसे फिर से मनमुताबिक तो गढ़ना ही पड़ेगा–जो स्त्री हर सांचे से बाहर है, उसे पुनः परिभाषित करना ही होगा. इस स्त्री के यूँ होने से ही पितृसत्ता की तो चूलें हिलने लगती हैं. कवि इसलिए बताता है आख़िर उसे कैसे गिराया जाता है; उसे कैसे मारा जाता है, कैसे कथाएँ, किवदंतियाँ गढ़ी जाती हैं, कैसे अपने तेज में वह सहनीय बनाई जाती है–कैसे उसको एक प्रेत, एक छाया में तब्दील किया जाता है—वह मनुष्य है इस तथ्य को मिटाया जाता है,
“वह एक ऐसा वृतांत ऐसी किंवदंति होती है
जिसे एक समूचा शहर गढ़ता और संशोधित-संवर्द्धित करता चलता है
सब अधिकाधिक रूप से जानते हैं कि वह किस-किस से लगी थी
या किस किस को उसने फाँसा था
सबको पता रहता है कि इन दिनों कौन लोग उसे चला रहे हैं ..
कि देखो-देखो ये उसे निपटा चुके हैं
उन उनकी उतरन और जूठन है वह.”
शायद इस वज़ह से ही वह सबकी रुचि का विषय होती है. इस समाज की विकृति यूँ ऐसे कंस्ट्रक्शन से सामने आती है. झूठ से पैदा हुई ख़ला को भरने के लिए उसका ऐसा होना भी ज़रूरी है शायद,
‘‘यह निष्कर्ष अपरिहार्य है कि उसका वजूद और मौजूदगी
किसी अजीब ख़ला को भरने लिए दुर्निवार है
जो औरतें बदनाम नहीं हैं उनका आकर्षण दुःस्वप्न
और उनके उन मर्दों के सपनों का विकार है वह बदनाम औरत
जो अपनी पत्नियों को अपने साथ सोई देखकर
उन्हें कोसते हैं और अपने को कोसते हैं
सोचते हैं यहाँ कभी वह औरत क्यों नहीं सो सकती थी.’’
ऐसी औरतें किसी की नहीं होतीं इसलिए उनके बारे में सोचने, बातें करने, उनकी कामना करने, फिर उन्हें घटिया बनाने का सामाजिक व्यापार चलता ही रहता है. ज़ाहिर है ऐसी औरतें समाज में बहुत ऊपर नहीं जा पातीं. इस बदनाम औरत की सत्यता को समझने का एक शोधात्मक रवैया अपनाता है कवि यहाँ जो उसे भीतर से द्रवित कर देता है. वह जानता है कि यह औरत कौन है–जबकि दूसरे जो इसे प्रेम करते हैं या नफ़रत, नहीं जानते. इस बदनाम की गयी औरत पर कोई वस्तुनिष्ठ शोध नहीं हुआ लेकिन यह कविता वहाँ तक जाती है जहाँ तक कविता ही जा सकती है–
“अध्ययन से मालूम पड़ जाएगा
कि शहरों की ये बदनाम औरतें बहुत दूर तक नहीं पहुँच पातीं
निचले और बीच के तबकों के दरमियान ही आवाजाही रहती है इनकी
न इन्हें ज्यादा पैसा मिल पाता है और न कोई बड़ा मर्तबा
वे मँझोले ड्राइंग रूमों औसत पार्टियों समारोहों सफलताओं तक ही
पहुँच पाती हैं क्योंकि उच्चतर हलक़ों में
जिन औरतों की रसाई होती है वे इनसे कहीं ज़हीन और मुहज्जब होती हैं
ऐसी किसी औरत से कभी किसी ने अंतरंग साक्षात्कार नहीं लिए हैं
न उसका मनोवैज्ञानिक अध्ययन किया गया है
और स्वयं अपने बारे में उसने अब तक कुछ कहा नहीं है
उसे हँसते तो अक्सर सुना गया है
लेकिन रोते हुए कभी देखा नहीं गया.’’
कवि इस बदनाम स्त्री के भीतर के रुदन को सुन रहा है और इसी कारण उसे दूसरी बातों का भी पता चलता है–नये सत्य भी वह हासिल करता है. वह जान रहा है कि यह स्त्री भीतर से इस बदनामी से शक्तिहीन नहीं बनती बल्कि वह अपनी शक्ति को और ठीक से पहचानने लगती है. जितना उसका चेहरा बिगाड़ने की कोशिश की जाती है उतना ही उसका आत्म अध्वस्त रहता है.
“यह तो हो नहीं सकता कि उस बदनाम औरत को
धीरे-धीरे अपनी शक्तियों का पता न चलता हो
और इसका कि लोग उससे कितने नफ़रत करते हैं
लेकिन कितनी शिद्दत से वे वह सब चाहते हैं
जो वह कथित रूप से कुछ ही को देती आई है
बदनाम औरत जानती होगी कि वह जहाँ जाती है
अपने आस-पास को अस्थायी ही सही लेकिन कितना बदल देती है.”
अपनी कविता में विष्णु खरे शोध आगे बढ़ाते हैं और अब यह जानना चाहते हैं कि मर्द तो स्त्री का जो कुछ भी करते हैं, उसे जिस तरह खंडित करते हैं, परन्तु इस स्त्री का इसकी हमजात स्त्रियाँ क्या करती हैं. किस हद तक वे इस पितृसत्ता को पुरुषों के साथ मिलकर पुनःसृजित करती है. क्या स्त्रीवादी चिंतकों द्वारा किया गया अनुसंधान सही है कि ढेर सारी स्त्रियाँ पितृसत्ता को ‘को-प्रोड्यूस’ करती है, या करने के लिए बाध्य होती हैं. वे मर्दों की गोद में बैठती-खेलती हैं, उन्हें दिल से लगाती हैं, उनके लिए बच्चे पैदा करती हैं, पालती हैं उन्हें पुंसक बनाए रखती हैं—उनके साथ सबकुछ करती हैं जैसे वे चाहते हैं. एक छोटे-से विश्लेषण के बाद कवि अपने तथ्य पेश करता है,
“जो औरतें बदनाम नहीं हैं
उनका अपनी इस बदनाम हमजात के बारे में क्या सोच है
इसका मर्दों को शायद ही कभी सही पता चले
क्योंकि औरतें मर्दों से अक्सर वही कहती हैं
जिसे वे आश्वस्त सुनना चाहते हैं
लेकिन ऐसा लगता है कि औरतें कभी किसी औरत से
उतनी नफ़रत नहीं करतीं जितनी मर्दों से कर सकती हैं
और बेशक़ उतनी नफ़रत तो वे वैसी बदनाम औरत से भी कर नहीं सकतीं
जितनी मर्द उससे या सामान्यतः औरतों से कर पाते हैं.”
कविता अपने अनुसंधानपरक शोध में सफल होती है. उसने तमाम झूठ और षड्यंत्र के कचरों के बीच से सत्य का रत्न खोज लिया है–स्त्रियाँ स्त्रियों से तो सहानुभूति रखती हैं परन्तु मर्द और औरत एक दूसरे को प्रेम नहीं कर सकते हैं इस व्यवस्था में. स्त्री अपने प्रेम को अपनी आत्मा की तहों में सुरक्षित रखती है और उस समय का इंतज़ार करती है जब उसे पुरुष नियंत्रित करने की दुष्चेष्टा से परे न हो जाएँगे और मनुष्य को मनुष्य समझने को बाध्य होंगे चाहे वह स्त्री हो या पुरुष. वे एक दूसरे का उपयोग नहीं अपितु एक दूसरे से प्रेम करेंगे. एक दूसरे की आँखों में झाँकेंगे आत्मा तक पहुँचने के लिए. यथार्थ की ऐसी गहरी समझ तथ्यों के विश्लेषण से होती हुई, मनुष्यता के प्रति सहानुभूति तक पहुँचती है. विष्णु जी की कविताओं में प्रतिसंसार रचने का दुःस्साहस तभी तर्कसंगत भी जान पड़ता है स्त्रियाँ इस प्रतिसंसार में खुद में खुद हो सकेंगी. और लाईब्रेरी का मेटाफर ज्ञान में आने वाले बदलाव और दुबारा उसके शक्ति केंद्र रूप में स्थापित होने का भय और संशय दोनों ही विष्णु खरे को बेहाल किये हुए हैं. वैज्ञानिक सा दिखता कवि आख़िर अपने विवरणों के संसार में थोड़ा निरीह भी दिखने लगता है. सत्य आखिर किसी का नहीं.
अंत में उनके ‘इग्ज़ाम’ कविता के ज़रिये उनके और उनकी कविता की पद्धति जो आपस में एक होते रहते हैं, यही कह सकती हूँ कि उन्होंने प्रश्न पत्र के पाँच उत्तरों को लिखते हुए यह समझ लिया था कि धीरे-धीरे जैसे-जैसे विधाधीर एक से पाँचवें प्रश्न तक पहुँचता है दिये जा रहे उत्तर कमज़ोर होते जाते हैं. सत्य बहुत बड़ा है, उसकी ढेरों लीलाएँ और छवियाँ हैं लेकिन जिसने मनुष्य की मनुष्यता को समझने का कार्य भार संभाला हो, वह अंत तक तो सत्य में ही लिथड़ा रहेगा और सत्य ही बोलेगा. यह एक मार्मिक कविता है—
‘‘उत्तर पुस्तिका जब भर चुकी होती है
और तुम सप्लीमेंट्री में
बचे हुए सवाल का जवाब लिख रहे होते हो
तब जाकर तुम्हें अपनी लिखावट ही नहीं
अपना जवाब और उसे देने का तरीक़ा भी
कुछ कम संकोचजनक लगने लगते हैं
और तुम आख़िरकार स्वीकारते हो उस वक़्त
कि मेन कॉपी के भरे हुए सोलह पन्नों में
कितना कुछ अगर पूरा ग़लत नहीं तो थोड़ा ग़ैरज़रूरी तो है ही.’’
(छह)
विष्णु खरे जिस तरह अपने विवरणों में इस संसार को पाते हैं उतना ही इसे रचते भी हैं. एक दुनिया जो अपूर्ण थी कई बार कविता में पूरी होती है, जब वह अपने कई-कई संसार होने की संभावना से सिक्त हो जाती है. विवरण से कविता और संसार दोनों होते हैं, बनते हैं और बिगड़ते हैं. यह तो नश्वर विष्णु खरे ही कह सकते थे
“घड़ी देखते हो अंतिम कुछ मिनट बचे हैं
जबकि आख़िरी सवाल का जवाब ही अभी पूरा नहीं हुआ है
जिसे जल्दी ख़त्म करो
तो पिछलों को रिवाइज़ करने का कुछ वक्त मिल जाएगा.’’
यही वक्त उनको नहीं मिला. अपनी पकी उम्र में भी असमय ही गये विष्णु जी लेकिन प्रतिसंसार की एक फोटो कॉपी पीछे छोड़ गये हैं. इसके सहारे कविता की नई लाईब्रेरी बनाई जा सकेगी जिसमें करोड़ों पांडुलिपियाँ सुरक्षित होंगी जैसे मनुष्य और उसकी मनुष्यता की असंख्य आकृतियाँ या अनकृतियाँ. यहाँ अंबर्टो एको एवं मीशेल फूको सरीखे बैठकर दोबारा सोच सकते हैं, या फिर रिवाईज़ कर सकते हैं ‘फूकोज़ पेण्डुलम’ तथा ‘आर्कियोलोजी ऑफ नालेज’ को. ‘आर्डर ऑफ थींग्स’ पर नये ढंग से सोच सकते हैं. और वे हत्यारे प्रीस्ट पकड़े जा सकेंगे जिन्होंने ज्ञान की नयी मीमांसा वाली पुस्तिकाओं के पन्नों को ज़हर में डुबो दिया था जिससे कितने ही जिज्ञासु प्रशिक्षु मौत के आगोश में चले गये जो उन्हें पढ़ना चाहते थे, खुद को और संसार को बदलने के लिए जो उद्धृत थे. सभ्यता की लाईब्रेरी को इस बार इस तरह से बदलने की कोशिश की जाएगी कि उससे सिर्फ़ कम्प्यूटर की आवाज़ें नहीं हों. थोड़ी चहल-पहल होगी, वाद-विवाद होने की आवाज़ें होंगी तथा यहाँ कोई तानाशाह लाइब्रेरियन आकर लोगों को चुप नहीं कराएगा. विष्णु खरे की कविता ‘पत्नियाँ’ या फिर ‘बदनाम औरतें’ में नयी पंक्तियाँ जोड़ी जाएँगी जिससे सत्य अपने विवरणों में और दीप्त हो उठेगा. ऐसी दुनिया में पितृसत्ता की संप्रभुता फिर किस काम की रह जाएगी! इसे तो जाना ही है, यह जाएगी ही.
विष्णु खरे की ये कविताएँ अपने अकारथ हो जाने के संशयों के बावजूद पुराने संसार को निरस्त करती हुई उस पर नये की छाया गिराती हैं. यह आश्वस्ति भर नहीं, आस्वाद के नये इलाकों में प्रवेश करने जैसा है जहाँ नये मकान बनते दिखते हों.
“विष्णु खरे हमारे दौर के सबसे ज्यादा मेहनतकश कवियों में से हैं. वे अपनी कविताओं पर जितनी मेहनत करते हैं और महीनों-महीनों तथा कभी-कभी तो सालों तक जिस तरह उन्हें ‘सेते’ रहते हैं….और फिर अचानक उन्हें पूरी शक्ति के साथ फूटने देते हैं, उसकी मिसाल आसानी से नहीं मिल सकती. मेरा ख्याल है, इस संबंध में मुक्तिबोध ही एक कवि हैं जिनसे उनकी तुलना हो सकती है. ‘गुंग महल’ और ‘चौथे भाई के बारे में’ जैसी उनकी कविताएँ तो कई-कई सालों की लगातार प्रतीक्षा के बाद लिखी गईं. हालाँकि उनके भीतर अवचेतन में ये लगातार सक्रिय रहीं और अपने बाहर आने का रास्ता तलाशतीं रहीं.”
(प्रकाश मनु– ‘एक दुर्जेय मेधा विष्णु खरे’, पुस्तक से)
उद्भावना के विष्णु खरे अंक में भी प्रकाशित
सविता सिंह स्त्रीवादी विचारक और हिंदी की समकालीन महत्वपूर्ण कवयित्री हैं.
savita.singh6@gmail.com