विष्णु खरे
संसार के अधिकांश दर्शक सिनेमा को मनोरंजन या अच्छा वक़्त बिताने के लिए देखते हैं. यूँ भी अपने यहाँ अधिकतर अय्याश हिंदी फ़िल्में उनके क्षणभंगुर संगीत सहित देख कर भूल जाने के लिए बन रही हैं. फ़िल्म की जो कचकड़े की रील अपने स्पूल-सहित आज भी सिनेमा का ग्राफ़िक प्रतीक बनी हुई है वह अब बाबा आदम के वक़्त की चीज़ हो चुकी है. एक और विडंबना यह है कि जिस देश में लाखों लोग एक जून पेट काटकर भी फ़र्स्ट डे फ़र्स्ट शो ज़रूर देखेंगे वहाँ लेखकों, बुद्धिजीवियों, प्राध्यापकों, समीक्षकों ने न फ़िल्में देखीं, न उनपर सोचा, न उनपर लिखा, जबकि इस्लाम के पहले के हमारे पूर्वजों ने संसार के किसी विषय की ‘प्रैक्टिस’ या ‘थ्योरी’ को अविचारित जाने नहीं दिया. भरत मुनि के युग में यदि सिनेमा-जैसी चीज़ आ जाती तो हमारे संस्कृत पंडित उसपर कितना-क्या लिख डालते इसकी कल्पना से ही कलेजा मुँह को आता है. आज का संस्कृत (पोंगा) पाण्डित्य तो अपने पतन में ही उल्लेख्य है. हिंदी की हालत बदतर है.
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प्रचण्ड प्रवीर |
उधर पश्चिम में कई सिने-सिद्धांत विकसित किए गए हैं और प्राचीन एथेंस-रोम से लेकर आज तक का मानविकीय चिंतन फिल्म-कला के हर पहलू पर लागू किया गया है. राजनीति, अर्थशास्त्र, समाज-शास्त्र, दर्शन, ललित कलाएँ, भाषा-शास्त्र, मनोविज्ञान, संस्कृति, यहाँ तक कि विज्ञान भी, आज फिल्म थ्योरी का हिस्सा हैं क्योंकि सिनेमा में इन सब की आवाजाही है. हूगो मुस्टेन्बर्ग, रुडोल्फ़ आर्न्हाइम, ख्रिस्तिआन मेत्स, आँद्रे बाज़ें, बैला बालास, सीग्फ़्रीड क्रात्साउअर, एंड्रू सैरिस, सोस्योर, लेवी-स्त्राउस, उम्बेर्तो एको, ल्वी अल्ठुसेर, ज़्याँ-ल्वी बोद्री, लॉरा मल्वी, लूस इरिगारे, मेरी एन डोएन आदि स्त्री-पुरुष आलोचकों, अनेक महान निदेशकों, अन्य सिने-कर्मियों तथा ‘काइए दु सिनेमा’ और ‘सिनेथीक’ जैसी पत्रिकाओं आदि ने फ़िल्म-कला के विश्लेषण और आस्वादन को जिन ऊँचाइयों तक पहुँचा दिया है उनके मुक़ाबले हमारी उड़ान ब्रॉइलर मुर्ग़ियों-जितनी है.
इसलिए यह देख कर हैरत होती है कि मुंगेर, बिहार के एक युवा उपन्यासकार (‘’अल्पाहारी गृहत्यागी’’, हार्पर), जो आइआइटी दिल्ली से केमिकल इंजीनिअरिंग के बी.टेक. हैं, प्रचण्ड प्रवीरने हिंदी फिल्म सैद्धांतिकी के ‘वर्जिन’ मुक्ताकाश में संपाति-जैसी एक क्वांटम उड़ान भरी है और संस्कृत के रस-सिद्धांत को विश्व-सिनेमा पर लागू करने की कोशिश की है. मैं उनकी इस पुस्तक पर लिखने का अधिकारी नहीं हूँ क्योंकि न तो मैं सिनेमा का सैद्धांतिक व्याख्याकार हूँ और न भारतीय-संस्कृत ‘रस-सिद्धांत’ का अध्येता – सच तो यह है कि मैं फिल्म-सरीखी वैश्विक, लोकतांत्रिक और ज़बरदस्त लोकप्रिय कला-विधा के ‘रस’-आस्वादन को अधिकाधिक ‘सरल’ और व्यापक रखने के पक्ष में हूँ, इसलिए उस पर ‘रस’ का संस्कृत पैमाना लागू करने में मुझे कई तरह की बाधाएँ हैं. साहित्य-चर्चा में भी मैं, मार्क्स और नगेन्द्र को धन्यवाद, रस-मीमांसा से दूर रहा हूँ.
जब प्रचंड प्रवीर ने इस पुस्तक के परिच्छेद ‘स्वतंत्र’ लेखों के रूप में प्रकाशित करवाने शुरू किए तो उन्हें पढ़कर मैं उनकी इस परियोजना से निराश ही हुआ था. लेकिन अब जबकि उनकी सम्पूर्ण पुस्तक मेरे सामने है तो मैं अब भी उनके अभियान से बहुविध असहमतियाँ रखते हुए उससे बहुत प्रभावित हुआ हूँ. लेखक ने अपने ध्येय को जिस गंभीरता से अपने और पाठकों के सामने रखा है वह सांसर्गिक है. यह पुस्तक कहीं भी सतही और चलताऊ नहीं है – सिनेमा पर अधिकांश हिंदी पुस्तकें और ‘समीक्षाएँ’ अक्सर वैसी हो जाती हैं – और धीरे-धीरे इसकी संजीदगी आप पर भी तारी होने लगती है, शर्त यही है कि जितनी फ़िल्में प्रचंड प्रवीर ने देख रखी हैं वह भले ही सभी आपकी निगाह न गुज़री हों किन्तु आपकी जानकारी में होनी चाहिए, जो, जैसा कि स्वयं लेखक ने कहा है, आज के लैपटॉप, डीवीडी, पैनड्राइव, एमआरक्यूई, आइएमडीबी, टॉरेंत्ज़ और पालिका बाज़ार आदि के युग में बहुत कठिन नहीं रह गया है.
यह पुस्तक स्वयं लेखक और अपने सामने कई चुनौतियाँ खड़ी करती है. वह मान कर चलती है कि उसके पाठक इतने वयस्क और प्रबुद्ध सिने-दर्शक हैं कि वह उसकी ‘सामग्री’ से कोई बौद्धिक कठिनाई महसूस नहीं करेंगे और उसके ‘संस्कृतनिष्ठ’ ‘तत्सम’ वातावरण से बिदकेंगे नहीं. उसमें देशी-विदेशी, प्राचीन-अर्वाचीन सन्दर्भ और उद्धरण बिखरे हुए हैं किन्तु वह उसके बीच की यात्रा को कंटकाकीर्ण नहीं, बल्कि एक सुखद भटकाव से भर देते हैं. किसी भी सुन्दर उद्यान या समृद्ध संग्रहालय में एक रास्ता सीधा भी होता है, जिसके लिए बाण- या संख्या-चिन्ह बने होते हैं किन्तु केवल सरसरी गुज़रनेवाले ही उन्हें पकड़ते हैं. यह पुस्तक हमें बार-बार रोकती-ठिठकाती है. फिर जब हम लेखक द्वारा की गई श्लोकों की व्याख्या और उनकी प्रयुक्तियाँ देखते हैं तो हमें तो उतनी संस्कृत आती नहीं और हम सोचते हैं कि क्या खुद लेखक को आती है और उसपर भरोसा किया जा सकता है ? इस पुस्तक में कोई भी ऐसा पृष्ठ नहीं है जिसके किसी एक वाक्य या वक्तव्य से आपकी सहमति या असहमति न हो या जो आपमें कोई बौद्धिक शंका-संशय न जगाता हो. आप इसे एक अंतहीन खंडन-मंडन में पढ़ते हैं.
हिंदी में स्नातकोत्तर शोध-कार्य को कॉलेजों, विश्वविद्यालयों और उनके दशकों से अयोग्य प्राध्यापकों ने नष्ट-भ्रष्ट कर दिया है. प्रकाशक भी विद्वत्ता और रिसर्च के नाम पर वह कूड़ा छाप रहे हैं जिसे देवनागरी लिपि पहचानने वाला कोई आत्मसम्मानी सूअर तक अपनी थूथन नहीं लगाएगा. आज देश में ऐसा कोई भी भारतीय भाषा विभाग या उसका कोई अध्यापक मुझे दिखाई नहीं देता जहाँ प्रचण्ड प्रवीर की इस पुस्तक की ‘पिअर रिव्यू’ हो सकती. हिंदी के कथित प्राध्यापक न इतना सिनेमा समझते हैं न संस्कृत न रस-सिद्धांत; संस्कृत के अधिकांश ‘प्राध्यापक’,जो विद्यानिवास-मिश्र सरीखों के मानस-पुत्र हैं, सिनेमा देखने को लुच्चों-लफंगों-अन्त्यजों का काम और हिंदी-अंग्रेज़ी को अस्पृश्य मानते हैं ; सिनेमा के कोई कोर्स हैं ही नहीं और जहाँ हैं वहाँ उनपर फिल्म-निरक्षर मतिमंद वही हिंदी के प्राध्यापक काबिज़ हैं जिनकी लेंडी फ़िलहाल इसी में तर हो रही है कि एम. ए. में लुग्दी साहित्य लग गया है.
लेकिन यदि सिनेमा में आपकी किंचित् भी रुचि है तो आप इस पुस्तक को लेखक से लड़ते हुए भी उसे एक ही बैठक में पढ़ना चाहेंगे. मैं यह बहुत सावधानी से लिख रहा हूँ कि सिनेमा पर भारतीय शास्त्रीय आलोचना परम्परा को आयद करने की कोशिश की शुरूआत करनेवाली ऐसी पुस्तक विश्व-सिने-समीक्षा इतिहास में पहली है. इसमें बहुत जोखिम उठाया गया है. इस महती प्रयास का उपहास भी किया जा सकता है. इसकी आशंका भी है इसमें छद्म-गाम्भीर्य (सूडो-प्रोफंडिटी) खोज ली जाए. लेखक ने ही नहीं, उसके प्रशंसकों ने भी एक ओखली में सर दे दिया है. लेकिन, दूसरी ओर, हम चाहें तो प्रचण्ड प्रवीर को बिना किसी अतिरंजना के हिंदी-फिल्म-आलोचना का युवा महावीरप्रसाद द्विवेदी या युवा ‘हाली’ भी कह सकते हैं क्योंकि मतभेदों के बावजूद यह पुस्तक एकदम नई दृष्टि रखती और देती है, नूतन मार्ग बनाती है और अग्रगामी है.
हिंदी में देखते-ही-देखते कई मेधावी और उल्लेखनीय फ़िल्म समीक्षक-समीक्षिकाएँ सक्रिय हो गए हैं. वह बहुत उम्दा काम कर रहे हैं. अब उन्हें प्रचंड प्रवीर जैसा धुनी, परिश्रमी और ‘देशज’ साथी भी मिल गया है. वह ‘सब कुछ संस्कृत और प्राचीन ऋषि-मुनियों के पास था’ के प्रतिक्रियावादी और पुनरोत्थानवादी राष्ट्रवाद से बचे हुए हैं. वह सिनेमाघरों, एक्टरों, निर्माता-निर्देशकों पर पथराव करनेवाले फाशिस्टों के खिलाफ खड़े हुए हैं और सिनेमा की पैरवी और बचाव कर रहे हैं. यह पुस्तक नई अध्ययन-दिशा की ओर इंगित तो करे, दूसरों के साथ स्वयं भी किसी प्रतिक्रियावादी चूहा-दौड़ में शामिल न हो. यहाँ नए, संघर्षशील किन्तु महत्वाकांक्षी ‘दखल प्रकाशन’ को भी बधाई और धन्यवाद देने चाहिए कि उन्होंने इस पुस्तक को प्रकाशित किया.
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(फोटो साभार :मनीष गुप्ता) |
ऐसा करने की मेरी आदत नहीं किन्तु यह ऐसी अद्वितीय पुस्तक है कि मैं सख्त सिफ़ारिश करता हूँ कि इसे ख़रीदा जाए और सिनेमा तथा हिंदी के पाठ्यक्रम में अनिवार्यतः सम्मानजनक जगह दी जाए. एक बहस शुरू तो हो.
(विष्णु खरे का कॉलम. नवभारत टाइम्स मुंबई में आज प्रकाशित, संपादक और लेखक के प्रति आभार के साथ.अविकल )
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विष्णु खरे
सिनेमा पढ़ने के तरीके : प्रवीण प्रकाशन, दिल्ली : 2008
सिनेमा से संवाद : प्रवीण प्रकाशन, दिल्ली : 2009
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