विष्णु खरे : वह अंतिम आदमी
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युवाओं का हमसफर
नरेश सक्सेना
विष्णु खरे विलक्षण प्रतिभा के कवि आलोचक थे कभी-कभी बेहद कटु और दुस्साहसी. आहत करने वाले और संवेदनशील एक साथ. यह एक विरोधाभास की तरह उनमें था. प्रशंसा और प्रेम या कटु आलोचना और धिक्कार दोनों में अतिरेक. किन्तु कविता की उनसे बेहतर समझ बहुत ही कम लोगों में है. यह बेहद दु:ख और निराशा का समय है.
वे अकेले थे जिन्होंने आलोचना की भाषा में कविता को संभव किया. कभी-कभी ऐसा कठोर गद्य गोया कानून की किताब का अंश. असफल भी हुए तो फ़िक्र नहीं की.
बौद्धिक स्तर पर उनसे टकराने का साहस बहुत कम लोगों में था. जिनसें वे प्रेम करते थे वे भी उनसें डरते थे.
पिताओं के साथ टाइपिंग का इम्तिहान देने आई लड़कियों पर उनकी वह मार्मिक और करुणा से भरी कविता. उस विषय पर यानी निम्न मध्यवर्गीय पिताओं की बेटी को कम से कम क्लर्क बना देने की निरीह और कातर आकांक्षा. वैसी कविता हिंदी में दूसरी नहीं है.
उनके न रहने से सबसे बड़ी क्षति युवा कवियों की हुई है. इतने आग्रह और आत्मीयता से शायद ही कोई उन्हें पढ़ता हो.
जब वे युवा थे तो अपनी एक कविता में ‘शाम को घर लौटती चिड़ियों’ से उन्होंने पूछा था एक अशुभ सवाल, कि चिड़ियो तुम मरने के लिये कहां जाती हो’
उनके बारे में अशुभ ख़बर सुनते ही, ये वाक्य अनायास ही याद आया.
वे जीवन की तलाश में बार-बार अकेले छिंदवाड़ा जाते थे. यही तलाश उन्हें दिल्ली खींच लाई थी.
मृत्यु ने कितनी क्रूरता से हमें याद दिलाया कि यही है जीवन.
विष्णु खरे के लिए एक विदा
विजय कुमार
अन्तत: वही हुआ, जिसकी आशंका थी. विष्णु खरे नहीं रहे. उनका जाना कोई अप्रत्याशित नहीं. पिछले कुछ दिनों से स्थिति बहुत खराब थी. फिर भी उन पर कोई शोकान्तिका या श्रूद्धांजलि लिखना बहुत कठिन है.
एक जीवन्त, सृजनात्मक, वैचारिक, सूचनात्मक, अनप्रेडिक्टेबल, बहस तलब, जीवंत, जिज्ञासु, पढाकू, जुझारू, मौलिक, गपशप को आतुर, औपचारिकाताओं को ताक पर रख देने वाला, प्रतिभा को आगे बढ कर अभय देने वाला, मूर्खताओं को भड़भड़ा देने वाला, प्रतिभाशून्य यशाकांक्षियों के लिये जूता निकाल लेने वाला, किसी के लेख या कविता के पसंद आ जाने पर देर तक उसी के बारे में बतरस में डूबा रहने वाला, योग्य और अयोग्य की अपने, एकदम अपने मानकों पर छंटनी करने वाला, सभी से संवाद करता हुआ, सब की आवाज़ के पर्दे में रहने वाला, सभी को खरी खरी सुना देता हुआ, साहित्य के टॉप फ्लोर से ग्राउंड फ्लोर तक किसी को भी सीधे सीधे फटकार लगा देने वाला, मूर्तिभंजक, विवाद प्रिय, मित्रताओं और शत्रुताओं दोनों का सीधे सीधे हिसाब कर देने वाला, क्रोधी, कड़क, उत्सुक, कोमल, भावुक, शुभचिन्तक, नीट पीने वाला, कोई रियायत न देने वाला, थोडी सी तारीफ करते ही एक विकराल हंसी हंस देने वाला, अपने तरकश में अलग अलग लोगों के लिये अलग अलग तीर रखने वाला, कोमल गंधार से लेकर मौलिक गालियों तक फैले एक अजीब से बीहड़ रेंज वाला वह हमारा अग्रज साथी, किसी को भी किसी भी किस्म की रियायत न देने वाला वह लिटमस पेपर चला गया.
ऐसा आदमी कि जिनको उसने माना उनसे खूब प्यार किया, उन्हें बहसें करने की भी अनुमतियां दीं, यह भी नहीं जताया कि अंतिम सत्य मेरे ही पास है लेकिन लिजलिजों और खीसें निपोरते, यशाकांक्षी पिलपिलों की ठकुरसुहाती महफिलों में वह ‘बुल इन चाइना शॉप’ था.
ऐसा अग्रज साथी जो एक मौकापरस्त, अविश्वसनीय, दोगले, आत्ममुग्ध, आत्मकेन्द्रित साहित्यिक परिदृश्य के परखचे उड़ाता था. वह जो संस्थाओं से कभी दूर भी नहीं रहा पर संस्थाओं से जिसकी पटरी कभी बहुत बैठी नहीं. अब उसके जाने के बाद उसके किस पक्ष पर चर्चा की जाये ?
1977 -78 के आसपास एकदिन चन्द्रकांत देवताले ने कहा कि दिल्ली इतनी बार जाते रहते हो. विष्णु खरे से नहीं मिले. वे साहित्य अकादमी में बैठते हैं. मैंने कहा कि उनसे मिलने में डर लगता है. आज याद करता हूं तो लगता है कि यह बात अजीब थी कि उनसे मिलने के बहुत पहले ही उनके लेखों को पढकर एक अजीब किस्म की प्रतिक्रिया ने जन्म लिया था. उसमें आदर, उत्सुकता और भय सब एक साथ थे.
देवताले ने कहा कि वो निहायत देसी आदमी है. डरना सिर्फ ‘स्नॉब’ किस्म के लोगों से चाहिये. खैर देवताले जी से मिलता रहा, लेकिन खरे जी से मिलने में डर बना ही रहा. 1980 के आसपास एक कार्यक्रम में अचानक मुलाकात हुई. किसी ने परिचय कराया. तुरंत बोले “वो रविवार ‘में‘ कमीजें ‘शीर्षक वाली कविता तुम्हारी है ? हां कहने पर कुछ नहीं बोले. एक शब्द भी नहीं बोले और आगे बढ गये. अजीब आदमी है, मैं भीतर ही भीतर भुनभुनाया. लेकिन उनकी इस अदा ने मुझे बहुत आकर्षित भी किया. उस कविता के बारे में बीस वर्ष बाद अचानक एक दिन बोले और बहुत देर तक बोले. मैंने बीच में टोका तो बिगड़ गये. बोले जब मैं किसी विचार प्रवाह में बह रहा होता हूं तो मुझे अपना कान दे देना चाहिये.
इस बीच इन बीस वर्षों में उनसे एक प्रगाढ परिचय हो चुका था. गपशप में उन जैसा ‘पैशन‘ और उत्तेजना से भरा आदमी मैंने नहीं देखा. गॉसिप के उनके अपने अंदाज़ थे. किसी किस्से के अज्ञात पक्ष को अचानक खोल देते थे. किसी सर्वज्ञात तथ्य के पिष्टपेषण में उनकी रुचि नहीं थी. महफिल में वह छठा या सातवां आदमी बहुत देर से कुछ बोल नहीं रहा है, इस पर उनकी नज़र रहती थी. बहुत बोलते को अचानक डांट सकते थे. चार साल पहले बम्बई में प्रेस क्लब में कार्यक्रम के बाद की एक अतंरंग महफिल में एक बड़बडिया उनकी रचनाओं पर बहुत देर से बहुत अनावश्यक तारीफ किये जा रहा था. वे चुप थे. तबियत भी कुछ ठीक नहीं थी. अचानक बोले “देखो मेरे इतने बुरे दिन अभी नहीं आये हैं कि मैं तुम्हारी इस बकवास भरी तारीफ को सुन फूला न समांऊ. अब तुम यहां से दफा होने का क्या लोगे?”. वह बेचारा हतप्रभ रह गया. थोडी देर बाद चुपचाप उठकर चला गया.
क्या विष्णु खरे क्रूर थे? थे, शायद एक सीमा तक. क्या विष्णु खरे बहुत कोमल थे? थे, शायद एक सीमा तक. मोहम्मद रफी के निधन पर उन्होंने दिनमान में लिखा था कि गाते हुए “:रफ़ी का चेहरा किसी अबोध बच्चे की तरह मासूम सा लगता था.‘’ मुझे पता नहीं क्यों आज उन पर लिखते हुए रफी के बारे में उनका लिखा हुआ यह वाक्य याद आ गया. खरे जी के बहुत सारे रंग थे. लेकिन विष्णु खरे अपने मूड्स और अपने व्यवहार के एक सप्त रंगी पर्दे के पीछे छिप छिप जाते थे. लोग अक्सर इस पर्दे पर उनके वे भड़कीले, सुर्ख रंग देखते रह जाते थे. इन रंगों के पीछे एक रंग किसी मासूम से उस बालक का था जो अपने ‘इनोसेंस’ को बचाये रखना चाहता था.
एक बेहद जटिल व्यक्ति जो जीवन के हर मरहले पर इस दुनिया की भीड़़ में अपने् बचपन की किसी इनोसेंस को खोज रहा था. बाकी तो सब बातें साहित्य की पेशेवर बातें हैं. दृश्य में विष्णु खरे की इस अजीब सी ‘डायनमिक’ और बहुत ‘कलोसेल’ की किस्म की जो उ्पस्थिति रही है, वह एक मुद्दा है .
अभी उनकी कविता, लेख, अनुवाद, पत्रकारिता पर बहुत सारी बातें होंगी. होनी भी चाहिये. अशोक वाजपेयी, ऋतुराज, विनोद कुमार शुक्ल, चन्द्रकांत देवताले, धूमिल, राजकमल चौधरी, जगूड़ी आदि की उस पीढी को हम हमेशा आगे भी अपने अपने तरीकों से विश्लेषित करते रहेंगे. इन लोगों पर लगातार बात करना हमारा शगल है. साठ के दशक से 2018 के बीच गंगा में बहुत सारा पानी बह चुका है. बहुत कुछ लिखने को होगा. पर शायद कोई उस बेहद जटिल व्यक्तित्व के भीतर के किसी कोने में बैठे उस मासूम बच्चे को भी कोई देखेगा जो बहुत दुनियादार नहीं था.
अलविदा अग्रज साथी . .
अलविदा मेरे कवि
कात्यायनी
अपनी राह खुद बनाने वाले हिन्दी के अप्रतिम विद्रोही कवि विष्णु खरे नहीं रहे. किसी अनिष्ट की आशंका तो उस दिन से ही बनी हुई थी, जिस दिन पता चला कि मस्तिष्काघात के बाद जी.बी.पंत अस्पताल के आई.सी.यू. में भरती विष्णु जी कोमा में चले गये हैं. फिर भी जबतक जीवन चलता रहता है, इंसान उम्मीद की डोर थाम्ह कर ही चलता है. आज उम्मीद की वह डोर टूट गयी और हृदय गहरी उदासी और शोक से भर गया.
विष्णु जी से मेरा 29 वर्षों का सम्पर्क था. हम लोगों की मैत्री के गहराते जाने में विष्णु जी की आयु या वरिष्ठता कभी आड़े नहीं आयी. अपनी बुनियादी प्रकृति से वह निहायत साफ़गो और लोकतांत्रिक प्रकृति के व्यक्ति थे. पहली बार उनसे मेरी मुलाक़ात लखनऊ में ही हुई थी. तब मैं ‘स्वतंत्र भारत’ अख़बार के लिए गोरखपुर से रिर्पोटिंग करती थी. ‘नवभारत टाइम्स्’ के गोरखपुर और आसपास के जिलों की संवाददाता पद के लिए साक्षात्कार देने मैं लखनऊ आयी थी.
विष्णु जी तब ‘नवभारत टाइम्सन’ के लखनऊ संस्करण के प्रभारी सम्पादक थे. मेरा साक्षात्कार उन्होंने ही लिया था. तब तक मेरी कविताएँ कई पत्र-पत्रिकाओं में छप चुकी थीं और विष्णु जी उनसे परिचित थे. पर उस पहली मुलाक़ात में पत्रकारिता के दायरे से बाहर हमलोगों की कोई बातचीत नहीं हुई. बाद की कुछ मुलाक़ातों के दौरान साहित्य पर कुछ अनौपचारिक चर्चाएँ हुईं. विष्णु जी ने जब ‘नवभारत टाइम्स’ छोड़ा, उसके कुछ ही दिनों बाद मैंने भी पत्रकारिता छोड़ दी, क्योंकि इससे सामाजिक-राजनीतिक कामों में काफी बाधा आ रही थी.
विष्णु जी से मेरे अनौपचारिक और प्रगाढ़ सम्बन्ध बने 1994 के बाद. 1994 में ही मेरा पहला कविता-संकलन ‘सात भाइयों के बीच चम्पा’ प्रकाशित हुआ. विष्णु जी ने विशेष तौर पर फोन करके मुझे बधाई दी और संकलन की कविताओं को लेकर बातचीत की. मुझे इतना याद है कि उन्होंने पूर्वज कवियों की छाया से निकलने और वाम कविता के रोमानी, यूटोपियाई तथा अतिकथन की प्रवृत्ति से पीछा छुड़ाने पर विशेष बल दिया था. 1994 के बाद, लगभग हर वर्ष (कभी-कभी वर्ष में एकाधिक बार भी) दिल्ली जाना और विष्णु जी से मिलना होता रहता था. 2010 तक, हर विश्व पुस्तक मेला के दौरान उनसे कई दिनों तक लगातार मुलाक़ातें होती थीं और साहित्य तथा राजनीति पर लम्बी-लम्बी बातें होती थीं. आज अगर मैं यह कहूँ तो अतिशयोक्ति नहीं होगी कि मेरे काव्य संस्कार और साहित्यिक आलोचनात्मक विवेक के विकास में जिन लोगों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है, उसमें विष्णु जी प्रमुखता के साथ शामिल हैं.
मेरा दूसरा कविता संकलन ‘इस पौरुषपूर्ण समय में’ 1999 में प्रकाशित हुआ. प्रस्तावना लिखने के लिए जब मैंने विष्णु जी से बात की तो वे न केवल तत्क्षण सहर्ष तैयार हो गये, बल्कि पंद्रह दिनों के भीतर एक लम्बी प्रस्तावना लिखकर भेज भी दी. इसके बाद के मेरे दो संकलनों ‘जादू नहीं कविता’ और ‘फुटपाथ पर कुर्सी’ के प्रकाशन के बाद जिन मित्रों ने सबसे पहले फोन करके इन संग्रहों की कविताओं पर बातचीत की, उनमें विष्णु जी भी शामिल थे.
अप्रैल 2003 में लखनऊ में ‘राहुल फाउण्डेरशन’ की ओर से आयोजित कार्यक्रम में विष्णु खरे ने अपने व्याख्यान में देश के राजनीतिक परिदृश्य पर बहुत प्रखरता से अपनी बात रखी थी. इस दौरान ‘आमने-सामने’ कार्यक्रम के अन्तर्गत उनके काव्यपाठ और उनसे संवाद का भी आयोजन हुआ था.
2007 में मैंने ‘परिकल्पना प्रकाशन’ (जो हम लोगों का साहित्यिक प्रकाशन है) को नयी कविताओं के एक संकलन और चयनित कविताओं का एक संकलन प्रकाशन हेतु देने के लिए विष्णु जी से बात की, जिसके लिए वे सहर्ष तैयार हो गये. जनवरी, 2008 में ‘पाठान्तर’ और ‘लालटेन जलाना’ इन दो संकलनों का परिकल्पना से प्रकाशन हुआ.
2013 से विष्णु जी से भेंट-मुलाक़ात का सिलसिला भंग हो गया. बस, कभी-कभार फोन पर बातचीत हो जाती थी. हमलोगों की आखि़री मुलाक़ात कई वर्षों बाद, अभी पिछले दिनों, जनवरी 2018 में जयपुर में आयोजित ‘समानांतर साहित्यक उत्सव’ में हुई. इसी उत्सव में अपने वक्तव्य में विष्णु जी ने ज़ोर देकर कहा था कि आज के हालात को समझने के लिए और उनका सामना करने के लिए मार्क्सवादी होना बहुत ज़रूरी है.
आयोजन के दौरान विष्णु जी से हिन्दुतत्ववादी फासिज़्म की चुनौतियों पर, सांस्कृततिक संकटों पर और हमलोगों की राजनीतिक-सांस्कृतिक सरगर्मियों पर टुकड़े-टुकड़े में कई बार बातचीत हुई. मैंने उन्हें लखनऊ आमंत्रित किया और कहा कि साहित्यिक कार्यक्रम के अतिरिक्त हमलोग इन सभी विषयों पर विस्तार से बैठकर बातें करेंगे. वह सहर्ष तैयार हो गये और हँसते हुए बोले, ”तुम जब भी, जहाँ भी बुलाओ, मैं आने को तैयार हूँ.” तय यह हुआ कि अक्टूबर या नवम्बंर में लखनऊ में कार्यक्रम रखा जाये, लेकिन विष्णु. जी, आपने तो वायदाखि़लाफ़ी कर दी. ऐसा तो आप कभी नहीं करते थे!
विष्णु खरे हिन्दी के एक ऐसे कवि हैं, जो स्वयं में एक परम्परा और एक प्रवृत्ति हैं. उनकी कविता आधुनिकता के प्रोजेक्ट पर अपने मौलिक ढंग से काम करती है. लोकजीवन की अतीतोन्मुख रागात्मकता के जिस लिसलिसेपन-चिटचिटेपन से उत्तरवर्ती पीढ़ी के कई वामपंथी कवियों की कविता भी पूरी तरह से मुक्त नहीं हो सकी है, वह विष्णु् खरे की कविताई में हमें आदि से अंत तक कहीं देखने को मिलती. नवगीतों के ज़माने में भी उनकी कविता उनकी छाप-छाया से एकदम मुक्त रही.
एक संक्रमणशील बुर्जुआ समाज के तरल वस्तुगत यथार्थ को पकड़ने और बाँधने की कोशिश करते हुए विष्णु खरे की कविता साहसिक प्रयोगशीलता के साथ गद्यात्मक आख्यानात्मकता की विशिष्ट शैली का आविष्कार करती है और हिन्दीं कविता के क्षितिज को अनन्य ढंग से विस्तारित करती है.
अपने समकालीन रघुवीर सहाय, कुँवर नारायण, केदारनाथ सिंह आदि बड़े कवियों से एकदम अलग ढंग से विष्णु खरे की कविता अपने समय और समाज की तमाम तफ़सीलों को एक किस्म की निरुद्विग्न वस्तुपरकता के साथ, ‘इंटेंस’ ढंग से प्रस्तुत करती है. विष्णु खरे की कविता अभिधा की काव्यात्मक शक्ति और अर्थ-समृद्धि की कविता है. मितकथन को कविता की शक्ति मानने की प्रचलित अवधारणा को तोड़ते हुए विष्णु खरे शब्द-बहुलता और वर्णन के विस्तार द्वारा एक प्रभाव-वितान रचते हैं, एक तरह का भाषिक स्पेस क्रियेट करते हैं, लेकिन वहाँ रंच मात्र भी भाव-स्फीति या अर्थ-स्खलन या प्रयोजन-विचलन नहीं होता. सच कहें तो छन्द-मुक्ति के बाद हिन्दी कविता ने विष्णु खरे की कविताई में एक नयी मुक्ति पाई है और जीवन की संश्लिष्ट गद्यात्मकता को पकड़ने की, ज्यादा गहराई से उतर गयी जीवन की अंतर्लय को पकड़ने की शक्ति अर्जित की है.
विष्णु खरे की कविता में कहीं गहन विक्षोभ के रूप में, तो कहीं आभासी ”तटस्थता” के रूप में एक नैतिक विकलता मौजूद रहती है, लेकिन जटिल प्रश्नों का सहज समाधान प्रस्तुलत करने के बजाय वहाँ विवेक को सक्रिय करने वाली प्रश्नाकुलता ही तार्किक निष्पत्ति के रूप में सामने आती है. मुझे विश्वास है कि हमारी इस अंधकारपूर्ण, आततायी शताब्दी के वर्ष जैसे-जैसे बीतते जायेंगे, विष्णु खरे की कविता हमारे समय के आम नागरिक की नैतिक विकलता, द्वंद्व, जिजीविषा और युयुत्सा की कविता के रूप में ज्यादा से ज्यादा महत्व अर्जित करती जायेगी.
न सिर्फ कविता, बल्कि हिन्दी पत्रकारिता, आलोचना, फिल्म्-समालोचना, अनुवाद आदि के क्षेत्र में भी विष्णु जी के जो अवदान हैं, उनका यथोचित मूल्यांकन किया जाना अभी बाक़ी है. इस विरल प्रतिभा को, इस बेहतरीन दिल वाले विद्रोही कवि को हमारा आख़िरी सलाम!
कविता का फ़कीरा चला गया
तुषार धवल
भाषा की लगाम थामे वह जंगल बीहड़ बस्ती बंजर उड़ता रहा. ज्ञान की टंकी से लहू सींचता वह अचानक किसी पन्ने से निकला हुआ कोई प्रेत था, किसी के माथे जा बैठा तो सिर धुन कर ही लौटता था.
उसके लिखे की समीक्षा तो समय करेगा, पीढ़ियाँ करती रहेंगी. नीरस गद्य की छाती से कविता की धारा निकाल देना उसकी कुछ वही ताक़त थी जो महाभारत के उस महानायक की, जो अपने बाण से सूखी धरती की छाती से गंगा निकाल लाता था. लेकिन इसमें वक़्त लगेगा. फ़ुर्सत में होगा यह सब.
अभी लेकिन, ग़मज़दा हूँ क्या? मैं खुद से पूछता हूँ. उसके चले जाने की आहट मुझे पहले ही हो गई थी. फरवरी 2018 में जब हमने साथ, लगभग पूरी रात शराब पी थी और तबले, चित्रे, मन्ना डे और जीबनान्द दास पर अंतहीन बातें की थी, जब हमने कॉमरेडों की ‘साहित्यिक ऐय्यारी की गुप्त कथाओं’ का श्रवण किया और ‘चॉम्स्की के चूतियापे’ जैसी शब्दावली की हँसते हँसते लोट-पोट हो जाने तक व्याख्या किया था.
हम तीन लोग थे. वे, सॉनेट मंडल (अंग्रेज़ी का युवा कवि) और मैं. हमने देखा, वे लगातार ‘नीट’ पीये जा रहे थे. मैं चिंता और हैरत से उन्हें देख रहा था. सॉनेट को मैं ने बताया कि ये अभी दिल के दौरे से उबरे हैं. इस तरह पीयेंगे तो कब तक टिकेंगे? हमने कोशिश की कि ग्लास को कुछ डाइल्यूट कर दिया जाये, लेकिन सम्भव नहीं हो पाया.
इस बीच लिस्से (किस्से) चलते रहे, विवेचन होता रहा. शराब, संगीत, कविता, हँसी रात बहा ले गई. शायद उस शाम मैंने उन्हें मग्न पाया था, तकलीफ़ों से गुज़र कर लिखी जा रही कविता में पाये जाने वाले सुख में रमा देखा था. मैंने उन्हें ‘अंतिम’ तोष में रमा हुआ पाया था, मैं ने मृत्यु से लौट कर उन्हें ‘नीट’ पेग्स की अनगिनत घूँटों के बीच आसन्न अंत को पुकारते हुए देखा था, मैं ने ‘दुर्वासा’ को उस रात ‘जीने की निपट फकीरी में’ हँसते हुए देखा था. अंत की आहट बेआवाज़ थी, उसमें हँसी थी जिस से संयम के अवरोध को यम ने धीरे से खिसका दिया था.
दुर्वासा ! कविता का मुँहफ़ट फ़कीरा चला गया !!
संवाद के खरे
मोनिका कुमार
विष्णु खरे के पास संवाद करने का अदम्य साहस था, हम में से अधिकतर लोग खुले मन और विचारों के होते हुए भी एक ख़ास नापतोल और संवाद के संभावित प्रभाव और दुष्प्रभाव का आकलन करने के बाद संवाद में रत होते हैं लेकिन विष्णु जी की संवाद-ऊर्जा का स्रोत उनकी विशुद्ध साहित्यिक सक्रियता थी. मुझे नहीं लगता विष्णु जी ने अपनी दृष्टि में आने वाली साहित्यिक कृति या किसी घटना के प्रसंग में अपने विचारों को कभी ज़ब्त किया या कूटनीति के अंतर्गत उसे प्रकट करने में कभी विलंब भी किया हो. इस तरह के स्वभाव होने से जो नफ़ा-नुक्सान होता है, वह नफ़ा-नुक्सान तो उन्होंने झेला होगा लेकिन यह बात अद्भुत है कि विष्णु जी बातचीत और व्यवहार में कभी पीड़ित और बोझिल नहीं लगते थे.
अक्सर वरिष्ठ लोग एक विशेष प्रकार का बैगेज ढोए हुए मिलते हैं जैसे कि इतिहास का भला और स्वर्णिम युग बीत चुका है, जैसे घी का युग बीत गया और अब केवल छाछ बची है. विष्णु जी भी राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक गिरावट को लेकर चिंतित और दुखी होते थे लेकिन उनसे बात करते हुए कभी ऐसा नहीं लगता था कि अब कुछ नहीं बचा है बल्कि उनसे बात करके या उनके विचार पढ़कर ऐसा लगता था कि जीवन सतत संघर्ष है, कल भी था, आज भी है और कल भी रहेगा. विष्णु जी के ऐसे गुण से युवा पीढ़ी ने सकारात्मकता प्राप्त की है क्यूंकि वे हमेशा युवा साहित्यकारों के लेखन में रूचि लेते थे और उस पर लिखते भी थे.
साहित्यकार विष्णु जी के व्यक्तित्व में अतीत, वर्तमान और भविष्य बोध का सुंदर संयोग था, वे केवल अतीतजीवी नहीं थे, वर्तमान से निराश होकर अकर्मण्य नहीं थे और भविष्य को लेकर सिर्फ़ आतंकित या संशयित नहीं थे बल्कि उनकी सक्रियता इन तीनों काल खंडों के बीच ‘सामयिक’ प्रकार से संभव होती थी.
विष्णु जी के विधिवत प्रकाशित साहित्य से भी अधिक सक्रियता उनकी फुटकर टिप्पणियों के रूप में मिलती रही है. भविष्य में जब कोई पाठक उनके रचनात्मक लेखन और व्यक्तित्व की खोज करेगा तो यह खोज केवल उनके छपे हुए साहित्य या इधर-उधर छपे हुए जीवन वृत्त से या लोगों द्वारा लिखी हुई टिप्पणियों तक नहीं खत्म होगी बल्कि उस पाठक को कई जगहों तक पहुँच बनानी होगी, शायद यह खोज सोशल मीडिया पर संपन्न हुए गंभीर साहित्य कर्म को नए ढंग से रेखांकित करेगी और नए माध्यम की प्रासंगिकता को पुख्ता भी करेगी. विष्णु खरे ने सोशल मीडिया का भी भरपूर उपयोग किया.
हिंदी साहित्य के विवाद-उर्वर प्रदेश में अधिकतम रूप से अपना मत प्रकट किया. भूले बिसरे या भुला दिए गए संदर्भों को विमर्श में लाते रहे और इस तरह निरंतर वे वर्तमान को अतीत से जोड़ते गए. पिछले कुछ समय से मैनें विष्णु जी की टिप्पणियों में एक ‘रिमाइंडर’ देखा है जो किसी प्रसंग में अतीत में घटित किसी घटना से जुडी महत्वपूर्ण सूचना जोड़ते थे और विषय को विस्तार देते थे.
विष्णु जी ने लंबा साहित्यिक जीवन जिया, उससे बड़ी बात कि तल्लीनता और संलग्नता से यह जीवन जिया. साहित्य प्रदेश के ज़िम्मेवार नागरिक बनकर इसके जनपद में अपने अस्तित्व का निवेश किया. पहले मुझे ऐसा लगता था जैसे विष्णु जी हमेशा गुस्से में रहते हैं लेकिन जैसे जैसे मैनें “कैसा कहा जा रहा है” के साथ साथ “क्या कहा जा रहा है” की तवज्जो करनी शुरू की तो विष्णु जी की अभिव्यक्ति का सघन टैक्सचर समझ आया. इस तरह विष्णु जी की साहित्यिक संगति में मेरे भीतर के पाठक और श्रोता को जो चुनौती मिली, उससे मुझे लाभ हुआ. हमने विनम्रता और मीठी भाषा के प्रति बहुत भारी आग्रह बना लिया है लेकिन वह सच्ची और गहरी भी तो हो ना ! उत्तेजना से आच्छादित खरे जी की खरी खरी क्यूँ ना सुनी जाए!
विष्णु जी का लोकधर्म सूक्ष्म था और साहित्यिक संवेदना वैश्विक रूप से व्यापक इसलिए वे हर प्रकार की कविता का आस्वादन करते थे. अक्सर ऐसा लगता रहा कि वे बहुत अतेरिक से प्रशस्ति और आलोचना करते हैं, उनके वाक्यों में संज्ञा से पहले कुछ विशेषण अनिवार्यतः होते थे चाहे वे आलोचना कर रहे हों या प्रशंसा. अक्सर पथिक इन विशेषणों के अतिरेक से घबरा जाता है लेकिन समग्रता में देखें तो पाठकीय विवेक का प्रयोग करके उनकी हर टिप्पणी से कुछ महत्वपूर्ण प्राप्त होता है. विष्णु जी की प्रगतिशीलता उनके व्यवहार में गुंथी हुई थी, ओढ़ी हुई नहीं थी. उनकी विद्वता के कई आयाम थे. उन्होंने कविताएँ लिखीं, आलोचना लिखी, अनुवाद किये, सिनेमा पर लिखा और इसके अलावा भी विपुल लिखा जिसे हिंदी साहित्य के कई ब्लॉग सहेज कर रखेंगे. अभी तो हमें समय लगेगा उनके अवदान को समझने में. लेकिन इतना तो अभी भी पता है कि यह बहुत मूल्यवान है, हिंदी साहित्य की थाती का अभिन्न अंग है.
विष्णु जी का जीवन वृत्त जानकार पता चलता है कि वे बार बार ख़ुद को एक जगह से खदेड़ कर दूसरी जगह रह सकते थे, उन्हें अज्ञात और अनजान का भय नहीं होगा. इसी देश में उन्होंने बदलते हुए राजनीतिक और सांस्कृतिक माहौल को देखा लेकिन साहसपूर्वक इन सब के बीच रह कर स्वायत्त बने रहे. संवाद को जीवन का आधार बनाते हुए अखंड जीवन जिया. ख़ास उत्तेजना से भरे हुए विष्णु जी हिंदी साहित्य की विशिष्ट भंगिमा है जो अनुभव, ताज़गी और तीक्ष्ण बुद्धि से बनी है, ऐसी भंगिमा जो चेहरे को विश्वसनीय बना देती है.
तौबा मेरी तौबा ……
अनुराधा सिंह
फिलहाल तो मैं यह तय नहीं कर पा रही हूँ कि उनसे मिलकर ठीक किया था मैंने या गलत. शायद न मिलती तो आज बेहतर होती. मेरे लिए यह केवल हिंदी के एक अप्रतिम कवि, विचारक और आलोचक से विदा लेना भर होता. यह जो मैं इस आदमी के ऐसे मोह में पड़ गयी हूँ इसका क्या करूँ अब? अब यह मुलाकात एक खलिश बनकर टीसती रहेगी उम्र भर.
जबकि मैं पिछले साढ़े चार साल से मुंबई में ही रहती रही हूँ, उनके अपने शहर में. मेरा संकलन इसी साल प्रकाशित हुआ है. ये सारे संयोग ऐसे हैं कि मुझे उनसे मिलना ही चाहिए था पर नहीं मिली. अपनी कविताओं की दुनिया के निर्जन वैभव में खुश थी, उनसे मिलने से किसी सोये शेर को छेड़ने जैसी मुसीबत भी गले पड़ सकती थी. लोगों की बातें सुन पढ़कर मुझपर ऐसा खौफ़ तारी था कि बस. सो मैं नहीं मिली. लेकिन २६ जून को विजय कुमार जी से एक चर्चा के दौरान उन्होंने कहा, ‘अरे मैडम ज़रूर मिलिए उनसे. अपना संग्रह भी दीजिये. आपकी कविताएँ उन्हें डिज़र्व करती हैं.’ और उनका नंबर भेज दिया.
मैंने डरते काँपते फोन मिलाया, मेरी हालत कबड्डी के खेल में दूसरे पाले में घुसने वाले उस फिसड्डी खिलाड़ी जैसी थी जो घुस तो जाता है लेकिन मुड़ मुड़ कर पीछे देखता जाता है कि ज़रा ख़तरा महसूस हो और गिरता पड़ता अपने पाले में वापस भाग आये.
‘सर नमस्ते, मैं अनुराधा सिंह.”
नमस्ते
सर मैं मुंबई में रहती हूँ, थोड़ा लिखती पढ़ती हूँ
बहुत अच्छी बात है यह तो.
आपसे मिलना चाहती हूँ. इसी साल मेरा संग्रह ज्ञानपीठ से प्रकाशित हुआ है (सोचा कि इससे पहले कि वे फोन पर कुछ फेंक कर मारें उन्हें बता दूं कि कुछ ठीक-ठाक कविताएँ हैं मेरे पास)
ज़रूर पढ़ाइये, कैसे पढायेंगी
कुरियर कर दूँ ?
ठीक है कर दीजिये. आपको बता दूं कि मैं परसों दिल्ली के लिए निकल रहा हूँ, हिंदी अकादमी ज्वाइन कर रहा हूँ .
जी सर .
तो देख लीजिये, आपका संग्रह देखना चाहता हूँ
ठीक है सर , नमस्ते.
बाद में याद आया कि उनको अकादमी के लिए बधाई देनी चाहिए थी. लेकिन मैं घबराहट में इतनी तेज़ गति से बात करती हूँ कि कुछ याद नहीं रहता. पहले से सोचा हुआ सब एक साँस में बोल कर फोन काट देती हूँ. लेकिन फिर भी यह तय हुआ कि कल उनके घर जाकर उन्हें संग्रह दे दिया जायेगा. वे उस पूरी शाम और देर रात तक मुझे अपना पता मैसेज करने की कोशिश करते रहे. लेकिन शायद नेटवर्क की खराबी या किसी और कारण उनके वे सन्देश मुझ तक नहीं आये. मैं उनकी इन कोशिशों से अनभिज्ञ थी. सुबह नौ बजे उनका फोन आया कि पता नहीं जा पा रहा. फिर पता पहुँच गया. फिर फोन आया. “मैं एक स्लम एरिया में रहता हूँ क्या अब भी आप आना चाहेंगी?” फिर फोन आया कि, “मैं अपने फ्लैट में अकेला रहता हूँ, परिवार पास में दूसरे फ्लैट में रहता है. यह बात जानना आपके लिए ज़रूरी है.”
मुझे थोड़ा संकोच हुआ फिर सोचा, अब तो जाना ही पड़ेगा पर मैं बहुत सचेत रहूंगी. बिलकुल सजग, बस अब मिल ही लेना चाहिए. कल से आज तक उनके साथ इतनी कॉल हो चुकीं थीं और वे इतने अनौपचारिक और उत्साहित थे कि मैंने अनायास पूछा :
“सर आप मिठाई खाते हैं
नहीं
फिर ठीक है, वैसे मैं आपके लिए मिठाई लेकर आने वाली थी.
…………….(१० सेकंड)
यह तो आप बहुत अच्छा करेंगी.”
सो मैंने उनके लिए एक बंगाली मिठाई ली लेकिन यह मातहत अफसर वाला डिब्बा नहीं था. बस ५-६ पीस ही थे कि बस हम दोनों खा सकें और चार समोसे भी ले लिए. अब मैं बताती हूँ मैंने ऐसा क्यों किया था, एक तो अपने यहाँ मुंबई में जब भी किसी साहित्यकार से मिलने जाओ वे आवभगत बहुत करते हैं. मेज भर के मिठाइयाँ और पकवान खिलाते हैं. भले ही वे सुधा अरोड़ा हों, सूरज प्रकाश, धीरेन्द्र अस्थाना, संतोष श्रीवास्तव या मीरा श्रीवास्तव. मैं उनको इस उम्र में इस तवालत से बचा लेना चाहती थी. इससे भी ज़रूरी बात यह थी कि मेरे घर में दो-दो बुड्ढे हैं, पापा ७६ साल के ससुर जी ७४ के, उन्हें बिगाड़ने में मुझे बहुत मज़ा आता है. और मैं एक ही दिन में इस बुड्ढे के प्यार में पड़ गयी थी. (साहित्य और कविता गई तेल लेने, मुझे यह आदमी बहुत अपना लगा, यह कल से अब तक कई बार मेरे साथ हँस चुका था, और कसम से इसके बाद इसका लिखा पढ़ा सब मेरे लिए बेकार था. पापा को ११ जून २०१७ को स्ट्रोक हुआ था, तबसे मैंने उनकी आवाज़ नहीं सुनी थी. विष्णु जी की आवाज़ एक अमृत की धार सी मेरे बावले कानों में बह रही थी.)
मैं टैक्सी में बैठी और उनका फोन आया, “चल दीं ?” फिर पापा याद आये. तौबा….!!
“टैक्सी वाले को फोन दीजिये” उसे बताया कि किस-किस मोड़ से कैसे कैसे मुड़े कि मुझे असुविधा न हो. उसी पल लगा कि एक इन्सान के तौर पर वे बहुत कुछ मेरे जैसे हैं. बहुत परवाह करने वाले, बहुत डिटेलिंग पसंद.
रास्ता वाकई बहुत लम्बा और गन्दा था, म्हाडा का इलाका. मुझे वह हिंदुस्तान का हिस्सा ही नहीं लग रहा था. लेकिन उन्होंने इतनी तरह के लैंडमार्क बताये थे कि मैं आराम से उनके घर पहुँच गयी. घर की बाहरी दीवार पर बड़े ही सुरुचिपूर्ण ढंग से चटाइयाँ जड़ी थीं. दरवाज़ा खुला और हिंदी साहित्य की दुर्जेय शख्सियत मेरे सामने खड़ी थी, वृद्ध, गरिमामय और सुन्दर.
टैक्सी की सीट गीली रही होगी, मेरा दुपट्टा और कुरता थोड़े गीले थे. मैंने उनके सोफे पर बैठने से मना किया तो वे उस पर बिछाने के लिए एक मोटी चादर ले आये. उन्हें देखते ही अब तक का मेरा संकोच ख़त्म हो गया. हम दोनों ही गज़ब बातूनी. संकलन तो बैग में ही रखा रह गया. मैं एक छोटे कबूतर सी फुरफुरी और उत्साह से भरी, उनकी बातों का जवाब दे रही थी. उन्होंने पहले आधे घंटे में ही लगभग हर बड़ी हस्ती को मूर्ख कह लिया था, एक आध को गधा भी. लेकिन आप देखिये यही फर्क है विष्णु खरे में और शेष दुनिया में कि वे किसी बड़े से बड़े आदमी को उसके मुँह पर गधा कहने की जुर्रत रखते थे लेकिन ह्रदय उनका कलुषित नहीं था. वे अहंकारी नहीं थे, अहम्मन्य नहीं थे. उन्हें उनकी गलती बताओ तो मान लेते थे.
हिन्दी साहित्य के भीष्म पितामह
प्रचण्ड प्रवीर
इस दु:ख की घड़ी में विष्णु जी के देहावसान का शोक उनकी स्मृति पर भारी पड़ रहा है. हिन्दी साहित्य संसार उन्हें बहुत से रूपों में जानता है और याद करता है. बहुत से लोग उन्हें कवि, आलोचक, पत्रकार या साहित्यकार की तरह उन्हें सम्बोधित करते हैं. उनके विराट व्यक्तित्व को अपूर्व मेधा, धुरंधर विद्यार्थी व अध्येता, बहुविध विद्वान और संघर्षशील बुद्धिजीवी की तरह भी देखा जा सकता है. उनकी प्रतिभा वैज्ञानिकों और समाजसुधारकों की अपेक्षा एक सत्यनिष्ठ और कर्मठ बुद्धिजीवी की कसौटियों पर कसी जा सकती है, जिसके मानक विशिष्ट हैं. यह अतिरेक नहीं है, किन्तु कटु सत्य है कि विष्णु खरे की समकक्ष प्रतिभा का कोई व्यक्ति हिन्दी साहित्य संसार में अब शेष नहीं, जिसकी स्मृति विलक्षण, विश्व साहित्य पर पकड़ असाधारण, प्राचीन भारतीय ग्रंथ और विचार परम्परा परिचय उल्लेखनीय, सिनेमा सौन्दर्य दृष्टि अद्भुत, काव्य आलोचना कर्म अनन्य, नयी कविता दृष्टि अनुपम और समसामायिक लेख दूरदर्शी हों.
हमारे एक सीनियर हुआ करते थे जिनकी निजी स्मृति यह थी कि मोहम्मद रफ़ी की मौत पर रोते हुये उन्हें यह बहुत आश्चर्य हो रहा था कि उनके सहपाठी साथ क्यों नहीं रो रहे? क्या वे नहीं समझते कि रफ़ी कौन है? यह शोक दुगुना हुआ जा रहा है कि इस क्षति की कहीं कोई भरपायी दूर-दूर तक नज़र नहीं आती. न जाने कितने लोग समझ सकते हैं कि विष्णु खरे कौन थे.
विष्णु जी का सानिध्य मुझे उनके जीवन काल की संध्या में प्राप्त हुआ, वह भी कुल दो साल दस महीने. वह भी इसलिये क्योंकि हिन्दी में एकमात्र वही थे जो नयी पीढ़ी से संवाद करने के लिये ईमानदारी से न केवल उपलब्ध थे बल्कि उनसे तर्क-वितर्क करने का सामर्थ्य भी रखते थे. मैं यह भी कहना चाहूँगा कि नवोदितों में जो ढिठाई रहती है, जिसका कारण सूचना संचार तंत्र की विपुलता से उपजा सूचनात्मक ज्ञान अग्रजों से कई गुना बढ़ कर है, उनकी बेरूखियाँ, बदतमीजियाँ, नादानियाँ झेलने की क्षमता विष्णु जी में थी.
अपने मारक वाक्यों में और व्यंग्यात्मक वचनों में भी विष्णु जी ने केवल हम सभी की कल्याण ही चाहा. एक पिता की तरह वह ‘जैकस ताती’ को ‘जाक़ ताती’, ‘नट हैम्सन’ को ‘नुत हैम्सन’, ‘रेने चार’ को ‘रेने शार’ जैसी गलतियों को सुधारते हुये वह कभी भी अज्ञान पर हँसते नहीं थे. वर्तनी की अशुद्धि हो या व्याकरण की, एक बड़े पेज पर विष्णु जी की नज़र एकदम से गलतियाँ ढूँढ लेती थी. या तो यह उनके बरसों के पत्रकारिता करियर का कमाल था, या जन्मजात प्रतिभा, विष्णु जी ने विलक्षण अध्येता और संपादक के रूप में यह सिखलाया कि साहित्यकार बनने की पहली शर्त भाषा के साथ तमीज़ बरतना होती है.
महाभारत उनका प्रिय ग्रंथ था. इन अर्थों में हम आज उन्हें हिन्दी साहित्य संसार की भीष्म पितामह की तरह याद करते हैं. उनके समकालीनों ने उनके कई रूप देखे होंगे और उनका अनुभव कहीं ज्यादा व्यापक होगा. विष्णु जी की विलक्षण कविताएँ, जिन्हें ललित निबंध या उत्तर आधुनिक काव्य रचनाएँ कहना समीचीन लगता है, हिन्दी में बहुत बड़ा स्थान रखती है जिसे आज हम सभी याद कर रहे हैं. किन्तु यह हमें याद करना चाहिये कि किस तरह, किन विपरीत परिस्थितियों में अपने सिद्धांतों पर लड़ते हुये उन्होंने नवभारत टाइम्स के संपादक की नौकरी छोड़ी और अवैतिनक कार्य करते हुये उन्होंने जीवन के अंतिम चौबीस वर्ष उसे आत्म सम्मान, निर्भयता और प्रखरता के साथ जिये.
यह हिन्दी के किसी साहित्यकर्मी के लिये एक आदर्श खड़ा करता है कि अंग्रेजी से एम. ए. किया हुआ एक युवक छोटे से अखबार में नौकरी करने के बाद, प्रफ़ेसर की नौकरी छोड़ कर साहित्य अकादमी का कार्य सचिव का दारोमदार सम्भाला, और फिर नवभारत टाइम्स जैसे समाचार पत्र के संपादक रहें. यह देखना चाहिये कि अपने विचारात्मक लेखों और आलोचना के लिये उन्होंने कितना परिश्रम और कितनी मेहनत उस दौर में किया जब इंटरनेट उपलब्ध नहीं था. महान संगीतकार मोजार्ट ने एक बार अपने किसी प्रशंसक को उत्तर दिया था कि मेरी संगीत साधना के पीछे मेरे जाग कर बितायी रातें कोई नहीं देखता. कोई यह नहीं जानता कि मैंने अपने से पहले सभी बड़े संगीतकारों की सारी रचनाओं का गहन अध्ययन और अभ्यास किया है.
यही लगन इस बात से समझी जा सकती कि मात्र उन्नीस वर्ष में उन्होंने टी. एस. एलियट की कविताओं का हिन्दी अनुवाद किया था, जब एलियट जीवित थे. रामधारी सिंह दिनकर, जो विष्णु जी की आयु से अनभिज्ञ थे, उन्होंने ‘श्री विष्णु खरे’ जी की इतनी प्रशंसा की कि डर के मारे विष्णु जी कभी दिनकर जी से नहीं मिले. विष्णु जी के लिये हिन्दी का कथा साहित्य संसार की सबसे बड़ी विभूति जैनेन्द्र थे. मेरे अल्पज्ञान में, मौज़ूदा हिन्दी साहित्य संसार जो अपने चरित्र में राजनैतिक दखल देना और राय रखना अपनी मजबूरी और जिम्मेदारी समझता है, और स्वतंत्रता के बाद की साहित्यिक पीढ़ी जो ज्ञान, विषय, चेतना और दर्शन के समस्याओं से परिचित होने के साथ अपनी राय कदाचित ईमानदारी से रखती थी, सभी पीढ़ियों के बीच सेतु रूप से मौजूद विष्णु जी हिन्दी साहित्य के बहुतेरे आयाम में सबसे बड़ी विभूति के रूप में प्रतिष्ठित हैं.
साहित्यकार होने के लिये पहली शर्त नैतिक रूप से प्रतिबद्ध जीवन जीना होता है. सभी उम्र के साहित्यकर्मियों के लिये विष्णु जी की तमाम नसीहतों में यह विशेष रूप से याद किया जाना चाहिये. वह इसलिये क्योंकि विष्णु खरे में सत्यनिष्ठा, स्वतंत्रता और मूल्यबोध के तीन आदर्श विलक्षण रूप से घटित हुये. यह मेरा सौभाग्य रहा कि विष्णु जी का आशीर्वाद मुझे मिला.
विष्णु जी को कोटि-कोटि नमन.
कहो तो डरो कि हाय यह क्यों कह दिया
(दिवंगत् : विष्णु खरे)
संतोष अर्श
आलोचना की अपनी पहली क़िताब में विष्णु खरे ने समर्पण (मलयज की स्मृति) में जो ग़ज़ल नज़्र की है और जो बिलाशक ख़ुदा-ए-सुख़न ‘मीर’ की है- के दो शे’र विष्णु खरे की तबीयत का मज़ा देते हैं:
बात की तर्ज़ को देखो, तो कोई जादू था.
पर मिली ख़ाक़ में क्या सहर बयानी उसकी..
मर्सिये दिल के, कई कह के दिये लोगों को.
शहरे-दिल्ली में है, सब पास निशानी उसकी.
यह कितनी हैरतअंगेज़ बात है कि किसी कवि की मृत्यु हो और उसके मरने के समय उसकी भाषा का कोई नया लेखक उसकी क़िताब पढ़ रहा हो. विष्णु खरे को दिल्ली में जिस समय ब्रेन हैमरेज हुआ और उसके बाद मौत भी, मैं उनकी पुस्तक जो संभवतः उन्हें प्यारी थी ‘आलोचना की पहली क़िताब’ पढ़ रहा था. उनकी मृत्यु ट्रैजिक है. वे दिल्ली में अकेले रह रहे थे और हाल ही में उन्हें हिंदी अकादमी दिल्ली का उपाध्यक्ष बनाया गया था.
विष्णु खरे इस उम्र तक संवादजीवी थे. हिंदी के ऐसे बहुत कम लेखक रहे हैं हैं जो 78 के सिन तक पचीस-तीस की उम्र के लेखकों से संवाद बनाए रखते थे. खरे खरी-खरी बोलते थे. डांट देते थे. गाली बक देते थे. फटकार देते थे. ज़ाहिल और काहिल कह देते थे. लेकिन उसी त्वरा से तारीफ़ भी कर देते थे. इतनी प्रशंसा कर देते कि नए लिखने वालों का आत्मविश्वास बना रहे. तमाम युवा लेखक उनसे कुढ़-चिढ़ जाते थे. उनकी बेबाकी से पस्त हो जाते और उनके बारे में अंट-शंट बोलने लग जाते. लेकिन वे बहुत फ़ायदा कमाते, जो उनसे सीखते थे. वह फ़ायदा मैंने स्वयं कमाया है. मुझे याद है मुद्राराक्षस की मृत्यु पर मेरे लिखे एक लेख पर उनकी टिप्पणी आई थी. मुद्रा लखनऊ के लेखक थे. विष्णु खरे ने काफ़ी समय, जब वे एक अख़बार के संपादक थे- लखनऊ में बिताया था. लखनऊ से उनके प्रेम को मैंने उस लेख पर की गई टिप्पणी में महसूस किया था. आज उनकी उस टिप्पणी को उद्धृत करना ज़रूरी लग रहा है-
“जब मैं लखनऊ नवभारत टाइम्स में तैनात हुआ तो मुद्रा से संपर्क और बढ़ा लेकिन टाइम्स ऑफ इंडिया समूह से मुद्रा की हमेशा खटकी रही- उन्हें उसके प्रकाशनों और साहू-जैन परिवार की कोई चिंता नहीं थी. हिंदी के कथित बड़े-से-बड़े साहित्यकार का वह माँजना बिगाड़ कर रख देते थे, लेकिन अकारण नहीं, उनके क़हक़हों में जो जंग-लगी धार थी उसने शायद ही किसी को बख़्शा हो. उनके बारे में निजी विवाद भी बहुत चले- चलेंगे, लेकिन वह उनकी जीवन-शैली को बिगाड़ न सके. उन्होंने उनकी कभी परवाह न की…..वह हिंदी के चंद ‘ग्रेट सर्वाइवर’ में से थे. वह हिंदी के हॉबिट थे, बल्कि योडा थे. वह लिलिपुट नहीं थे. संतोष अर्श ने उन पर यह इतना अच्छा लिखा है कि काश इसे मैंने लिखा होता.”
(समालोचन: स्मृति शेष मुद्राराक्षस)
विष्णु खरे ने कभी नाम का पीछा नहीं किया. उन्होंने काम किया और काम का ही पीछा किया. काम की प्रशंसा की. निरर्थक या हिंदी की ढर्रे की नहीं. हॉलीवुड और पाश्चात्य या फिर विश्व सिनेमा में हम युवाओं की जो हज़ारों-हज़ार फिल्में देख डालने की रुचि निर्मित हुई है, उसमें विष्णु खरे के सिनेमालोचन का कोई योगदान नहीं है, यह कहने की हम में हिम्मत नहीं है. वे कई बार हिंदी की ज़ाहिलियत से खीझ उठते थे. कुछ कड़वा बोल देते तो लोग खीझ उठते. उन्हें ‘एलीट’ कहने लगते. क्योंकि वे अँग्रेजी के प्राध्यापक रहे. अँग्रेजी में भी लिखा और विश्व कविता का अनुवाद किया. इस ‘एलीट’ से वे गुज़रे न होते तो यह लिखने की ज़रूरत उन्हें क्यों पड़ती कि:
“हिंदी के प्राध्यापकों की एक अक्षौहिणी पिछले पचासों वर्षों से जो परिवेश बना पाई है वह आज साहित्य के पठन-पाठन को कहाँ ले आया है, यह बताने की बात नहीं. किन्तु भारत जैसे देश में जहाँ निरक्षरता जाने कितने प्रतिशत है, महाविद्यालयों में पढ़ने वाला विद्यार्थी भी ‘एलीट’ है, उसे पढ़ाने वाले तो ‘एलीट’ हुए ही. स्पष्ट है कि ‘एलीट’ का परिवेश- ‘एलीट’ द्वारा निर्मित परिवेश- परिवेश नहीं हो सकता. भारत में लिखाई-पढ़ाई अभी भी ‘एलीट’ कर्म है- आम साहित्यकार आम आदमी से ऊपर है और श्रेष्ठ साहित्यकार, आज का आधुनिक साहित्यकार, तो उससे बहुत दूर है. ऐसे साहित्य की समीक्षा को जो भी संदर्भ इस्तेमाल करने होंगे वे लाख न चाहने पर भी ‘एलीटिस्ट’ होंगे- दरअसल सारी उच्चस्तरीय भाषा आम भारतीय के लिए ‘जैबरवॉकी’ या ‘जिबरिश’ है. ऐसी भाषा और ऐसा साहित्य गैर-साहित्यिक परिवेश की उदासीनता को कैसे साहित्यिक दिलचस्पी में बदल सकते हैं जबकि उसके लिए पूरे समाज को मौलिक रूप में बदलना हो ?”
(उदासीन परिवेश और आलोचना : आलोचना की पहली क़िताब)
कहना ये है कि कई बार वे हिंदी दुनिया की ज़ाहिलियत का शिकार होते थे लेकिन उससे पहले वे ज़ाहिलों का शिकार कर चुके होते थे. रचना पर उनसे बात करने के लिए जिस तरह की तैयारी होनी चाहिए वह कई बार हमारे पास नहीं होती थी, इस पर अगर वे फटकार लगाते थे, तो उसमें हमारा हित जुड़ा होता था. हम अपनी ज़ाहिलियत को छुपाने के लिए उन्हें ‘एलीटिस्ट’ बना देते थे. उनसे मेरा जो अंतिम साहित्यिक संवाद है वह जनकवि ‘विद्रोही’ (रमाशंकर यादव) पर लिखे एक लेख पर आई टिप्पणी के रूप में है. वह इस प्रकार है-
“मूल कविताओं या संग्रह को देखे बिना सिर्फ किसी अच्छी, भरोसेमंद समीक्षा के आधार पर ‘अहोरूपं अहोध्वनि:’ मचा देने की काहिल और ज़ाहिल रवायत हिंदी में एक वबा की तरह फैली हुई है. अभी यही कहा जा सकता है कि संतोष अर्श संकलन के प्रति उत्सुकता जगाने के अपने प्राथमिक उद्देश्य में सफल रहे हैं, लेकिन इसे क्या कहा जाय कि जन संस्कृति मंच द्वारा मुरत्तब इस संग्रह के प्रकाशन-संपादन के प्रारंभिक अनिवार्य दौरे नदारद हैं ?”
(विद्रोही की काव्य-संवेदना और भाषिक प्रतिरोध का विवेक : समालोचन)
इसी लेख पर अपनी टीप को बढ़ते हुए उन्होंने लिखा था- “संतोष अर्श और अरुण देव (समालोचन के संपादक) की बाल-सुलभ नासमझी की वज़ह से ही इस टॉप सीक्रेट लिटरेरी मिशन का अनचाहा भंडाफोड़ हो गया.” कहना यह है कि वे एलीटिस्ट नहीं थे बल्कि एकमात्र ऐसे कवि-आलोचक थे जो निरंतर बिलकुल युवा पीढ़ी के लेखकों तक से संवाद बनाए रखे हुए थे. हम हिंदी वाले सीखने से पहले सिखाने की ज़िद या सनक पाले हुए विष्णु खरे जैसे साहित्यिक शिक्षकों से सीखने से बचते रहे हैं. यही हमारी ज़ाहिलियत का कारण है.
विष्णु खरे ने हिंदी के लिए जो काम किया है उसका ब्यौरा यहाँ प्रस्तुत करने की कोई ज़रूरत नहीं है, सभी जानते हैं, जिन्हें पढ़ने-लिखने में रुचि है. उनकी कविता और कविता की भाषा का ज़िक्र इसलिए ज़रूरी है की दिन-ब-दिन शब्दों से कंगाल होती जा रही हिंदी दुनिया को विष्णु खरे की मौत पर ही यह ख़याल रहे कि वे भाषा को लेकर कितने सचेत रहे. उन्नीस सौ अस्सी के किसी वर्ष में पटना के किसी कार्यक्रम में आज के प्रतिष्ठित आलोचक नंदकिशोर नवल ने रघुवीर सहायसे पूछा था कि, एकदम नई पीढ़ी के के कवियों में वे सबसे संभावनाशील किसे मानते हैं, तो उन्होंने उत्तर में विष्णु खरे का नाम लिया था. यह भाषा के ‘फ़ॉर्म’ को तोड़ने के लिए था. वास्तव में आठवें दशक की हिंदी कविता में प्रचलित भाषा के फ़ॉर्म को सबसे अधिक तोड़ने वाले कवि विष्णु खरे थे. फिर जब रघुवीर सहाय ने विष्णु खरे की कविता-पुस्तक ‘खुद अपनी आँख’ की समीक्षा दिनमान में लिखी तो, उनकी मृत्यु पर उनकी कविताई के लिए सबसे अधिक कही जाने वाली बात पहली बार उन्होंने ही कही थी- ‘कहानी में कविता कहना विष्णु खरे की सबसे बड़ी शक्ति है.’ इन सब बातों को बाक़ायदा नंदकिशोर नवल जैसे आलोचक लिख चुके हैं.
सांप्रदायिक फ़ासीवाद के खिलाफ़ मुखर रहने वाले विष्णु खरे के दिल पर इन दिनों क्या गुज़र रही थी, कह नहीं सकते. लेकिन उसका अनुमान उनके संग्रह ‘काल और अवधि के दरमियान’ की कवितायें जिन्होंने पढ़ी होंगी, वे कर सकते हैं. उनकी कवितायें पढ़ने के लिए बड़े धैर्य और संयम की ज़रूरत पहली शर्त है. और उससे भी पहली शर्त है कि हिंदीछाप ज़ाहिलियत से आप छुटकारा पा सके हों. उनकी ‘गूंगमहल’ कविता भी ख़ासी चर्चित रही. एक कविता ‘दज्जाल’ की शब्दावली देखिए-
“लोग पहले से ही कर रहे हैं इबादत इबलीस की
उनकी आँखों की शर्म कभी की मर चुकी है
बेईमानी मक्र-ओ-फ़रेब उनकी पारसाई और ज़िंदगानी बन चुके
अपने ईमान गिरवी रखे हुए उन्हें ज़माने हुए
उनकी मज़बूरी है कि अल्लाह उन्हें दीखता नहीं
वरना वे उस पर भी रिबा और रिश्वत आज़मा लें
मशाइख़ और दानिश्वरों की बेहुर्मती का चौतरफ़ा रिवाज़ है
कहीं-न-कहीं क़हत पड़ा हुआ है मुल्क में
क़त्ल और ख़ुदकुशी का चलन है
कौन सा गुनाह है जो नहीं होता…”
उनकी कई कविताएँ ऐसी ही भाषा का लिबास पहने हुए हैं. यह कवि की लक्षित सजगता है. वह आलोचना में भी ऐसा करते रहे हैं. हिंदी की भीरुता से उन्हें चिढ़ थी. हिंदी को संस्कृतनिष्ठता का पुरातन अचकन पहनाकर उसके सांप्रदायिकीकरण को भी वे चीह्नते थे. हिंदी की इस भीरु खाल पर वे कहीं-कहीं चिकोटी भी काट लेते हैं. जैसे कि यह-
“भारतीय जनमानस में जो भीरु हिन्दू बैठा हुआ है वह कभी राम के आगे शिव का आत्म-समर्पण करवा देता है, कभी कृष्ण को शिव से ‘ओब्लाइज़’ करवा देता है, कहीं बुद्ध को विष्णु का अवतार बना देता है, अटलबिहारी को जवाहरप्रेमी कर देता है. कर्म, पुनर्जन्म और माया की अवधारणाएँ इसी महाभय से निजात पाने की तरक़ीबें हैं, जय जवान जय किसान, गरीबी हटाओ, हिन्दू-मुस्लिम भाई-भाई आदि समस्याओं की भयावहता से न उलझ पाने से पैदा होने के टोटके हैं. वेद-पुराण और तंत्र में शत्रु को परास्त करने से लेकर सर्पदंश दूर करने के मंत्र मिलते हैं.”
(रचना के साथ सहज संबंध : आलोचना की पहली क़िताब)
उनकी कविताओं में उर्दू के शब्दों को देख कर लगता है कि कैसी नफ़ीस उर्दू वे जानते थे. उतनी ही अच्छी हिंदी और अंग्रेज़ी के तो वे अध्यापक रहे. अच्छे अनुवादक और संपादक. फ़िल्म समीक्षक भी. इलियट का उनके द्वारा किया गया अनुवाद हमारे लिए एक उपलब्धि की तरह है. हम हिंदी वालों को विश्व साहित्य के अनमोल पदों, शब्दों और मुहाविरों से अवगत कराने वाले, खूसट और निर्मम कहे जाने वाले आलोचक और जीवन के अंतिम समय तक जवान रहने वाले कवि का इस बुरे समय में चले जाना एक आघात की तरह है. हमें उनसे अभी बहुत कुछ सीखना था. अपनी ज़ाहिलियत और काहिलियत से नज़ात पानी थी. बात जिस ग़ज़ल से शुरू हुई उसी पर ख़त्म होगी. ‘मीर’ उन्हें प्रिय थे:
अब गए उसके, जुज़ अफ़सोस नहीं कुछ हासिल
हैफ़ सद हैफ़ कि कुछ क़द्र न जानी उसकी.
मृत्यु से पूर्व उनके आधे शरीर को लक़वा मार जाने की ख़बर मुझ तक पहुँची थी. तब से मैं अधीर था, उनकी ‘आलोचना की पहली क़िताब’ छूता था और रख देता था. मृत्यु प्रत्येक तरह की अधीरता समाप्त कर देती है.
मैं आपको अलविदा कैसे कहूं विष्णु सर..!
सारंग उपाध्याय
लिखने-पढ़ने और लिखे-पढ़े हुए के तेजी से प्रसारित-प्रचारित होने की होड़ में, अजीब रचनात्मक आवाजों के शोर में और मनुष्य सभ्यता के सर्वाधिक अभिव्यक्त होने वाले समय में विष्णु खरे की आवाज का मौन हो मुझे स्तब्ध कर देता है. एक अजीब बेचैनी से भर देता है. लगता है मानों इस भीषण शोर में एक आवाज जो मेरे नाम से मुझे पुकारती, जानती और समझाने वाली रही अचानक गुम हो रही है और शोर का एक सैलाब मुझे निगल जाने के लिए बेचैन है.
डिजिटल होते समाज में और डिजटली हाल-चाल पूछने के संदेशों की भीड़ में, सैंकड़ों Emails की आवाजाही के बीच मेरे मेल के इनबॉक्स में इक्का-दुक्का मेल विष्णु खरे जी के भी हैं, जिन्हें देखकर लगता है कि इस भीड़ में कुछ है जो अपना है.
इन mails को देखकर मेरे सामने विष्णु जी की आवाज और चेहरा घूम रहा है. यह mails मेरी संपदा है. चिट्ठियों के गुम होने के दौर में एक ऐसी संपत्ति है, जो मेरे जैसे गुमनाम युवा कलमकारों की अनोखी और कीमती विरासत है. लिखने-छाप देने की तूफानी स्पीड और अचानक बिखराव में कुछ बातचीत और प्रतिक्रियाएं भी हैं जो एक ठहराव हैं जहां स्थिर होकर इस समय और समाज को देखने की दृष्टि मिलती है.
शहरों-महानगरों की यायावरी से सालों पहले विष्णु खरे की प्रतिनिधि कविताओं से मैं उन तक पहुंचा था. फिर इंदौर में उनका नाम गोष्ठियों, चर्चाओं-परिर्चाओं और कई लेखकों से बातचीत में सुना. समय बीतता गया और एक लंबे अंतराल के बाद एक दिन अचानक मैं विष्णु सर के सामने था.
2011-12 में मुंबई में मलाड के मालवणी इलाके में एक से देढ़ घंटे की मुलाकात और पहली बार हिंदी साहित्य की दुर्जेय मेधा से साक्षात्कार. मैं जितना डरा, सहमा और झिझक से भरा हुआ था वे उतने ही सरल, सहज और कोमलता के साथ मिले.
इस लंबी बातचीत में मेरा मध्य प्रदेश से होना उनके विशेष स्नेह, दुलार का कारण बना. बातचीत में कस्बा, शहर, करियर, परवरिश लिखना-पढ़ना सबकुछ था और बाद में पूरी सहजता के साथ उन्होंने उनका जीवन साझा कर दिया. बातचीत में इतनी सरलता, सहजता और उष्णता ठहरी कि उनके साथ संबंधों की डोर मेरे मुंबई से दिल्ली आ जाने के बाद भी हमेशा जीवंत रही.
एक बार मुंबई में उन्होंने मुझे दोबारा मिलने के लिए बुलाया तो मैं जा नहीं पाया. फिर एक दिन फोन पर कहा- आप आने वाले थे आए नहीं..!
मैं आज सोच रहा हूं कि मैं आपसे दोबारा मिलने क्यों नहीं पहुंचा?
दो साल पहले समालोचन में फिल्म सैराट पर लिखी लंबी समीक्षा के बहाने फोन पर लगातार लंबी बातें हुईं. बोले- सारंग बाबू मैंने और तुम्हारी काकी ने भी भागकर शादी की थी. मैं हंसकर रह गया और अपने भी अंतरजातीय विवाह की कहानी सुना दी.
वह एक लंबी बातचीत का दौर था, जिसकी डोर हमारे मोबाइल नेटवर्क में बंधी थी. सिलसिला लंबा हुआ और ये बातें होती रहीं. मैं अचरज में था कि एक 32-33 साल के युवा से एक 70-75 साल का बुजुर्ग वरिष्ठ कवि कितनी आत्मीयता और मित्रता के साथ बातें करता है, और यह व्यक्ति आज के समय में भी कितना अपडेट है.
यकीनन यह बहुत अद्भुत था. पीढ़ियों के अंतराल को विष्णु सर मिनटों में काट देते थे. लगता था मानों वे इस दौर से, समय से और इसमें हो रहे बदलाव पर पूरी तरह नजर बनाए हुए थे. वे युवाओं से सीधे संवाद करते थे और हर तरह की बातें करते थे.
दीन-दुनिया की बातें, हिंदी साहित्य के गलियारों में लेखकों के संसार और चरित्र की बातें, पुरस्कार वापसी जैसे मुद्दों की बातें, हिंदी फिल्मों और विश्व सिनेमा पर उनकी विराट समझ की बातें, समाज की बातें, राजनीति, धर्म, संस्कृति, इकॉनॉमी की बातें. बातें भी ऐसी कि बस आप सुनते जाइए. नये संदर्भों, हर विधा के विद्वानों और जानकारों के कोट के साथ.
विष्णु जी मुझे लेखक और कवि से ज्यादा पत्रकार के रूप में मिले. पत्रकार भी ऐसे कि देखने की इतनी सूक्ष्म नजर मैंने पहले कभी नहीं देखी. जानकारियों का अद्भुत खजाना और वहां निकलती ऐसी दृष्टि की आजकल के न्यूज रूम में वैसे संपादकों की कल्पना ही नहीं की जा सकती.
मैंने जब भी विष्णु जी के बारे में सोचा तो पाया कि मैं बातें किससे करता हूं
कवि से
लेखक से
पत्रकार से
या एक बड़े फिल्म समीक्षक से
पता नहीं विष्णु खरे जी के कितने रूप थे. लेखक, कवि और अनुवादक वाले रूप के अलावा अंग्रेजी के व्याख्याता विष्णु खरे से मेरा कभी सामना नहीं हुआ. जो बातें हुईं वह फिल्म पर हुई. मैंने उन्हें लेखक से ज्यादा मित्र के रूप में जाना और कवि से ज्यादा सिनेमा और फिल्म के एक अद्भुत जानकार के रूप में. उनके दिल्ली आने की सूचना से बहुत खुश था, लेकिन दिल्ली आने के उनके फैसले पर ब्रेन हैमरेज होने की घटना से गुस्सा भी आया. एक उम्र के बाद ऐसे कोई अकेले रहता है क्या? और आज तो इतने अचानक से इस दुनिया से विदाई..!
विष्णु सर, आपके इस तरह अचानक जाने की सूचना से स्तब्ध हो गया और उसी हाल में आपके जाने की खबर बना रहा था. मैं कैसा महसूस कर रहा था मैं ही जानता हूं.
ऊफ..! आप ऐसे कैसे जा सकते हैं जबकि मेरा लिखा हुआ बहुत कुछ आपको बताना था. बातचीत करनी थी और चाय तो बाकी ही थी.
मैं आपको अलविदा कैसे कहूं विष्णु सर..
विष्णु खरे : एक शरारती बच्चे का चले जाना
मनीष गुप्ता
“गुस्से वाले हैं, ज़रा संभल के बात करना” – लोग कहते थे.
“गुस्से वाला हूँ, ज़रा संभल के बात करना” – विष्णु जी कभी स्वयं कह देते थे.
लेकिन सब झूठ है. वे तुनकमिजाज़ ज़रूर थे जैसे बच्चा होता है.. शरीर, अल्हड़, कोमल, शैतान, मज़ाकिया, और किताबों-फिल्मों का कीड़ा थे. और पढ़ा लिखा आदमी कमज़र्फों की जहालत पर लानतें भेजे तो बदनाम हो जाता है. और फिर इनको मुँह बंद रखना नामंजूर रहता था. कई लोगों को यूँ भी लगा कि ‘कहता तो है भले की, लेकिन बुरी तरह’.
हिन्दी कविता प्रोजेक्ट अभी शुरू ही हुआ था. किसी ने बताया कि विष्णु खरे छिंदवाड़ा में हैं, फलाँ मुहल्ले में रहते हैं तो साहब उनकी कविता रिकॉर्ड करने के इरादे से पहुँचा उनके पास. अभी तक उनके काम से पूरी तरह परिचित नहीं था. हाँ, उनके नाम से कुछ हद तक वाकिफ़ था. दो-तीन बार दरवाज़ा खटखटाने पर एक खीजी हुई कुर्सी खिसकाने की आवाज़ आई फिर बेदिली से चप्पलें घसीटता हुआ कोई आया दरवाज़े तक कि कौन है भाई. मैंने दरवाज़े पर खड़े खड़े टूटा-फूटा कुछ बताने की कोशिश की कि कुछ वीडियोज़ दिखाना चाहता हूँ उन्हें और मुनासिब लगे तो उनका कविता-पाठ भी रिकॉर्ड कर लूँ किसी दिन. उन्होंने बताया कि वे लिख रहे हैं कुछ और फ़ालतू बातों के लिए वक़्त नहीं है. बहरहाल उन्होंने पाँच मिनट के लिए भीतर बुला लिया. उस दिन से मेरी ज़िन्दगी पूरी तरह बदल गयी.
“ठीक है लेकिन क्यों बना रहे हो?”
“तुम्हें लगता है कोई देखेगा इन्हें?”
“लेकिन तुमको क्या तमीज़ है साहित्य की, तुम तो किसी भी कवि को रख लोगे!”
सही बात है, मुझे क्या तमीज़ थी. उन्होंने बैठ कर एक फ़ेरहिस्त बनवाई, सभी के नंबर दिए जिनमें कुँवर नारायण, अशोक वाजपेयी से ले कर नरेश सक्सेना और राजेश जोशी, सविता सिंह, विजय कुमार से ले कर गीत चतुर्वेदी और कुमार अम्बुज तक के पूरे देश से कोई ३०-३५ नाम थे. जिनमें उनके अनुसार ‘सभी खेमों’ का प्रतिनिधित्व था.
“इनके सबके पास मेरा नाम मत लेना, तुम्हारा काम शुरू होने के पहले बंद हो जाएगा. सब साले एक दूसरे से जलते-कुढ़ते रहते हैं.. अभी तुम्हें पता चलेगा.”
बहरहाल उसके अलावा उन्होंने डोएच, और दूसरी स्कैंडेनेवियन भाषाओं से हिंदी में अनुवाद की बात भी की. वे हिन्दी, मराठी, उर्दू और अंग्रेज़ी के अलावा कई अन्य यूरोपियन भाषाओं पर सामान अधिकार रखते थे. पता नहीं कितने लोगों की जानकारी में है कि उन्हें फ़िनलैंड से ‘सर’ की उपाधी भी मिली हुई थी. उस दिन जीवन पर बात चलते चलते अवश्यम्भावी रूप से मृत्यु पर भी बात हुई. उनकी स्वयं की मृत्यु का भी प्रश्न आया तो उन्होंने कहा था कि
“बस बचे होंगे कोई ४-५ साल. नहीं, मुझे मृत्यु से कोई डर नहीं, मैं तैयार हूँ. जो कटी – अच्छी कटी. जो भी कटती है – अच्छी ही कटती है..”
वे जाने के पहले महाभारत पर काम करना चाहते थे. उत्सुकता और सर्जनात्मक ऊर्जा से भरी हुई उनकी आँखों से एक बड़े ग्रन्थ की उम्मीद बँधी थी – मुझे पता नहीं कहाँ तक पहुँचा था उनका काम. मैं बस इतना जानता हूँ कि उस दिन जो प्रेरणा मिली वह आज तक ऊर्जा दे रही है. अगर उनसे वक़्त पर नहीं मिलना होता तो न जाने हिंदी कविता प्रोजेक्ट कौन सी राह गया होता यह सोच कर ही गाहे-बगाहे सिहरन दौड़ जाती है शरीर में.
उनका जाना एक ज़ाती नुकसान की तरह साल रहा है (जो कि स्वार्थी बात है). वो जहाँ भी हों उनके हाथ में तगड़ा सा जाम हो और वो अपना सर कंप्यूटर में घुसाए कुछ लिख रहे हों.
उनकी एक कविता उन्हीं के द्वारा: https://youtu.be/KtZLXuRRk8E
विष्णु खरे The Baffled Hercule Poirot
विजया सिंह
विष्णु खरे को मैं सिर्फ़ उनकी कविताओं, ईमेल और फ़ोन के जरिये जानती थी. उनसे मिलने का सौभाग्य कभी प्राप्त नहीं हुआ. जब पता चला कि उन्हें स्ट्रोक हुआ है और वे कोमा में चले गए हैं, तो बहुत दुःख हुआ, लगा उनसे मिलना शायद अब हो नहीं पाएगा. लेकिन ७२ घंटों के संकट काल के परे उनसे मुलाक़ात की आशा मुझे फिर भी थी. लेकिन वे ७२ घंटे जीवन और मृत्यु के बीच का पुल साबित हुए जहाँ से वे लौट नहीं पाए.
इस बात का अफ़सोस मुझे हमेशा रहेगा कि समय रहते मैंने उनसे मुलाक़ात का उपक्रम क्यों नहीं किया! हालाँकि किसी से मिलना सिर्फ़ हमारे मन के आग्रह पर निर्भर नहीं करता. फिर भी भ्रम की स्थिति तो रहती ही है कि जैसा हम चाहते हैं वैसा कभी न कभी कर ही पाएँगे. समय के सीमित होने की सच्चाई यूँ तो बार-बार प्रस्तुत होती है पर हर बार उसका प्रमाण नये ढ़ंग से पेश आता है. उन्हें कौन नहीं जनता था, उनकी कविताएँ, आलेख और विशिष्ट शख़्सियत उनकी उपस्थिति को पुरज़ोर तरीक़े से स्थापित करती थीं, पर ज़ाती तौर पर मेरा उनसे परिचय नहीं था. पहली बार जब समालोचन पर मेरी कविताएँ प्रकाशित हुईं तो उनका ईमेल मिला जिसमें उन्होंने अपने अनोखे खिलन्दड़ी अंदाज़ में लिखा था :
“इधर किसी अत्यंत प्रतिभाशाली कवयित्री विजया सिंह की कुछ आश्चर्यजनक अनूठी कविताएँ आपने अपने मिलते-जुलते नाम विजया सिंह से छपा ली हैं. इस कृत्य की यूँ तो निंदा की जानी चाहिए थी किन्तु उसे ऐसी हाथ की सफ़ाई से ही सही किन्तु प्रकाश में लाने के लिए आपकी जितनी प्रशंसा की जाए उतनी कम है.”
विष्णु खरे The Baffled Hercule Poirot
Hercule Poirot की पूरी तरह से अनदेखी करते हुए, लौटती ईमेल से मैंने उनसे दो विजयाओं का स्पष्टीकरण माँगा, तो उन्होंने कहा तुम एक ही हो इसमें कोई शक नहीं, मैं तो तुमसे मज़ाक़ कर रहा था. तब कहीं मेरा ध्यान Hercule Poirot पर गया और इस बात पर भी कि विष्णुजी मज़ाक में भी साहित्यिक थे. उनकी अपनी कविताएँ और जीवन इस इस बात का संकेत हैं कि उनका कार्य क्षेत्र कितना उदात्त और विस्तृत था. कविताओं के अलावा वे सिनमा, अनुवाद और समीक्षा के क्षेत्र में भी अंत तक सक्रिय रहे.
हर बार उनकी कविताएँ पढ़ते हुए लगा कि वे कितनी बारीकी से आस-पास की दुनिया, समय और स्थान पर नज़र रखते थे. कभी-कभी तो उनकी कविताएँ पढ़ते हुए यूँ भी लगता था मानो कोई असम्भव घटना आँखों के सामने घट रही हो. उनकी प्रसिद्ध कविता “लालटेन जलाना” को ही लीजिये, उसकी शुरूआत एक साधारण प्रस्तावना से होती है, “लालटेन जलाना उतना आसान नहीं है, जितना समझ लिया गया है”.
इस के बाद ये कविता जो विस्तार पाती है वहां तक कम ही कवि पहुँच पाते हैं. यह कविता हमें सिर्फ यह नहीं जताती कि लालटेन जलाना एक कला है बल्कि यह भी कि इसका ऐंद्रियक सुख रौशनी और अँधेरे के अंतरंग खेल से उपजता है. ऐसा खेल जिसने सभ्यता की शुरुआत ही से इंसान को अपने इंद्रजाल में बांधा हुआ है और पौराणिक कथाओं और दूसरी कई कलाओं को जन्म दिया है. यूँ तो लालटेन भी एक आधुनिक अविष्कार ही है पर उसका सीधा सम्बन्ध आग से खारिज नहीं हुआ है, जिस तरह बिजली के बल्ब का होता है. लालटेन से छूट कर हम एक ऐसी दुनिया में कदम रखते हैं जहाँ रौशनी की चकाचौंध है. हालाँकि एडिसन का बल्ब भी कविता की मांग रखता है क्योंकि हम अब जिस रौशनी के युग में प्रवेश पा चुके हैं वहां हमारी परछाई ही को बर्खास्त करने के उपक्रम चल रहे हैं. कहना न होगा कि ये कविता इतिहास के एक युग को अपने में समेटे है. ऐसा युग जो यूँ तो बहुत प्राचीन नहीं है पर अब पीछे मुड़ के देखने से हाथ से फिसलता नज़र आता है.
उनकी एक और कविता “लड़कियों के बाप” जिसका समबन्ध लालटेन की ही तरह एक और लुप्तप्राय वस्तु टाइपराइटर से है का जिक्र किए बिना नहीं रह सकती. इस कविता ने मुझे देर तक आंदोलित किया और मैं उसके समानांतर टी. एस. एलीयट की “वेस्टलैंड”, ऋत्विक घटक की “मेघे ढ़ाका तारा”, अवतार कौल की “२७ डाउन” की टाइपिस्ट लड़कियों के बारे में सोचती रही. बीसवीं शताब्दी के प्रमुख प्रतीकों के रूप में इस टाइपिस्ट लड़की का जिक्र होना चाहिए.
यह वो लड़की है जिसका यौवन, और इच्छाएं बीसवीं शताब्दी की घनघोर स्थापना में आहूत हुईं. ऑफिस से ऑफिस भटकते ये बाप और बेटी भारतीय मध्यम-वर्ग का वो जोड़ा है जो परम्परा और आधुनिकता के बीच अपनेआप को सँभालने का भरसक प्रयास कर रहे है. टाइपराइटर की जगह कंप्यूटर ने ले ली है और नयी तरह के दमन आकार ले रहे हैं पर लड़कियों के बाप कविता के किरदार नये मुखौटे पहने हमारे साथ चल रहे हैं.
Hercule Poirot उर्फ़ विष्णु खरे दूसरी दुनिया के रहस्य खोजने निकल पड़े हैं. वहां से कोई संदेसा आना अब असंभव है. उनकी कवितायेँ और गद्य ही अब हमारे साथी हैं, उनकी पड़ताल ही से अब हम उन्हें दोबारा पा सकेंगे. जैसा की Hercule Poirot के बारे में कहा जाता था, “Hercule Poirot’s methods are his own” वैसा ही यदि विष्णु खरे के बारे में कहा जाये तो यह ज्यादती तो नहीं होगी.
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विष्णु खरे (9 फरवरी, 1940 छिंदवाड़ा मध्य प्रदेश – 19 सितम्बर, 2018 )
कविता संग्रह
1. विष्णु खरे की बीस कविताएं: पहचान सीरीज : संपादक : अशोक वाजपेयी : 1970-71
2. खुद अपनी आंख से: जयश्री प्रकाशन, दिल्ली: 1978
3. सबकी आवाज के परदे में: राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली: 1994, 2000
4. पिछला बाकी: राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली: 1998
5. काल और अवधि के दरमियान: वाणी प्रकाशन: 2003
6. विष्णु खरे – चुनी हुई कविताएं: कवि ने कहा सीरीज : किताबघर, दिल्ली : 2008
7. लालटेन जलाना (कात्यायनी द्वारा चयनित कविताएं): परिकल्पना प्रकाशन, लखनऊ: 2008
8. पाठांतर: परिकल्पना प्रकाशन, लखनऊ: 2008
9. प्रतिनिधि कविताएँ
१०. और अन्य कविताएँ २०१७
आलोचना
1. आलोचना की पहली किताब: (दूसरा संस्करण) वाणी प्रकाशन, दिल्ली: 2004
(चार आलोचना पुस्तकें प्रवीण प्रकाशन, दिल्ली के यहां यंत्रस्थ)
सिने-समीक्षा
1. सिनेमा पढ़ने के तरीके : प्रवीण प्रकाशन, दिल्ली : 2008
2. सिनेमा से संवाद : प्रवीण प्रकाशन, दिल्ली : 2009
चुने हुए अनुवाद (हिंदी में)
1. मरु-प्रदेश और अन्य कविताएं (टीएस एलिअट की कविताएं) : प्रफुल्ल चंद्र दास, कटक : 1960
2. यह चाकू समय : (हंगारी कवि ऑत्तिला योजेफ की कविताएं) : जयश्री प्रकाशन, दिल्ली :1980
3. हम सपने देखते हैं : (हंगारी कवि मिक्लोश रादनोती की कविताएं) : आकंठ, पिपरिया : 1983
4. पियानो बिकाऊ है : (हंगारी नाटककार फेरेंत्स कारिंथी का नाटक) : वाणी प्रकाशन, दिल्ली: 1983
5. हम चीखते क्यों नहीं : (पश्चिम जर्मन कविता) : वाणी प्रकाशन, दिल्ली : 1984
6. हम धरती के नमक हैं : (स्विस कविता) : राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली : 1991
7. दो नोबेल पुरस्कार विजेता कवि :(चेस्वाव मीवोश और विस्वावा शिम्बोर्स्का की कविताएं) : वाणी प्रकाशन, दिल्ली : 2001
8. कलेवाला : (फिनलैंड का राष्ट्रीय महाकाव्य) : वाणी प्रकाशन, दिल्ली : दूसरा, संशोधित संस्करण, 1997
9. फाउस्ट : (जर्मन महाकवि गोएठे का काव्य-नाटक) : प्रवीण प्रकाशन, दिल्ली : 2009
10. अगली कहानी : (डच गल्पकार सेस नोटेबोम का उपन्यास) : वाणी प्रकाशन, दिल्ली : 2002
11. दो प्रेमियों का अजीब किस्सा : (सेस नोटेबोम का उपन्यास) : वाणी प्रकाशन, दिल्ली : 2003
12. हमला : (डच उपन्यासकार हरी मूलिश का उपन्यास) : वाणी प्रकाशन, दिल्ली : 2003
13. जीभ दिखाना : (जर्मन नोबेल विजेता गुंटर ग्रास का भारत-यात्रा वृत्तांत) : राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली :1994
14. किसी और ठिकाने : (स्विस कवि योखेन केल्टर की कविताएं) : वाणी प्रकाशन, दिल्ली : 2002
हिंदी में विश्व कविता से सैकड़ों और अनुवाद किये, किंतु वे अभी असंकलित हैं.
अनुवाद (अंग्रेजी में)
1. अदरवाइज एंड अदर पोएम्स : श्रीकांत वर्मा की कविताएं : राइटर्स वर्कशॉप, कोलकाता : 1972
2. डिसेक्शंस एंड अदर पोएम्स : भारतभूषण अग्रवाल की कविताएं : राइटर्स वर्कशॉप, कोलकाता : 1983
3. दि पीपुल एंड दि सैल्फ : हिंदी कवियों का संग्रह : स्वप्रकाशित, दिल्ली : 1983
4. दि बसाल्ट वूम्ब : स्विस कवि टाडेउस फाइफर की जर्मन कविताएं, पामेला हार्डीमेंट के साथ : जे लैंड्समैन पब्लिशर्स, लंदन : 2004
अनुवाद (जर्मन में)
1. डेअर ओक्सेनकरेन : (लोठार लुत्से के साथ संपादित हिंदी कविताओं के अनुवाद) : वोल्फ मेर्श फेर्लाग, फ्राइबुर्ग, जर्मनी : 1983
2. डी श्पेटर कोमेन : (लोठार लुत्से द्वारा विष्णु खरे की कविताओं के अनुवाद) : द्रौपदी फेर्लाग, हाइडेलबेर्ग, जर्मनी : 2006
3. फेल्जेनश्रिफ्टेन : (मोनीका होर्स्टमन के साथ संपादित युवा हिंदी कवियों के अनुवाद) : द्रौपदी फेर्लाग,हाइडेलबेर्ग, जर्मनी : 2006
संपादित प्रकाशन
1 अपनी स्मृति की धरती : हिंदी अनुवाद में सीताकांत महापात्र की ओड़िया कविताएं : जयश्री प्रकाशन, दिल्ली : 1980
2. राजेंद्र माथुर संचयन (दो भाग) : वाणी प्रकाशन, दिल्ली : 1993
3. उसके सपने : (चंद्रकांत देवताले का काव्य-संकलन) : वाणी प्रकाशन, दिल्ली : 1997 [सह-संपादक]
चंद्रकांत पाटिल द्वारा इसी चयन का मराठी अनुवाद तिची स्वप्ने पॉप्युलर प्रकाशन, मुंबई से प्रकाशित
4. जीवंत साहित्य (बार्बरा लोत्स के साथ संपादित बहुभाषीय भारत-जर्मन साहित्य-संकलन) : वाणी प्रकाशन, दिल्ली : 1998
5. महाकाव्य विमर्श : वाणी प्रकाशन, दिल्ली : 1999
6. पाब्लो नेरूदा विशेषांक : उद्भावना, दिल्ली : 2006
7. सुदीप बनर्जी स्मृति अंक : उद्भावना, दिल्ली : 2010
8. शमशेर जन्मशती विशेषांक : उद्भावना, दिल्ली : 2011
सम्मान-पुरस्कार
→ हंगरी का एंद्रे ऑदी वर्तुलपदक (मिडेल्यन)
→ हंगरी का अत्तिला योझेफ़ वर्तुलपदक
→ दिल्ली राज्य सरकार का साहित्य सम्मान
→ रघुवीर सहाय पुरस्कार
→ मध्य प्रदेश शिखर सम्मान
→ मैथिलीशरण गुप्त सम्मान
→ भवभूति अलंकरण
→ फिनलैंड का एक सर्वोच्च राष्ट्रीय सम्मान “नाइट ऑफ दि वाइट रोज ऑफ फिनलैंड”
→ मुंबई की कला-संस्कृति-साहित्य संस्था “परिवार” का 2011 का
“हिंदी काव्य सेवा” पुरस्कार आदि
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