विष्णु खरे : अप्रत्याशित का निर्वचन
ओम निश्चल
विष्णु खरे की कविता उनके व्यक्तित्व की तरह ही जटिल और संश्लेषी है. वह आसानी से भावविगलित होने वाली कविता नहीं है. वह संशयों, विश्वासों, तर्कों और स्थितियों के मनोविश्लेषणों से गुजरती हुई अपने नैरेटिव का विन्यास रचती है. वह इस हद तक प्रोजैक और गद्यात्मक है कि उसे बाजदफे कविता के रूप में स्वीकार करने में संकोच हो. किन्तु छंद के बंधनों से मुक्त होने के बाद जिस तरह कविता निराला के यहां और बाद में मुक्तिबोध, शमशेर, रघुवीर सहाय, विजेन्द्र, ज्ञानेन्द्रपति, राजेश जोशी, देवीप्रसाद मिश्र और गीत चतुर्वेदी तक विकसित होती और परवान चढ़ती है वह हिंदी कविता की एक दिलचस्प यात्रा है तथा इस यात्रा में कविता की दृष्टि अत्यंत समावेशी और विचार के रुप में सुदृढ़ व प्रतिबद्ध होती गयी है. यहां तक कि एक संकीर्णतावादी लोकतंत्रवादी समाज में भी जहां तमाम किस्म की भावुकताएं और रूढ़ियां सांस लेती दिखती हैं वहां भी कविता– एक सच्ची कविता अपने वक्त का क्रिटीक बन कर उभरती है. ऐसे नैरेटिव जिसमें आख्यान भी है, बयान भी, एक सार्थक वक्तव्य भी है एक प्रामाणिक किस्म की गवाही भी– कविता कवि का स्वैराचार होती हुई भी जहां एक ओर आधुनिकतावादी प्रयोगों से टकराती है वहीं विश्व कविता से होड़ लेती हुई विश्वसजग, आत्मचेतस,समाजचेतस होने का दायित्व भी निभाती है.
एक पत्रकार होने के नाते और भाषा, साहित्य व संस्कृति तथा विदेशी अनुवाद से जुड़े होने के कारण विष्ण खरे अपनी कविता को अपने समकालीनों से बहुत अलग ले जाते हैं. उनका नैरेटिव भी अपनी तरह का है. रघुवीर सहाय का नैरेटिव चौकस है सुघर(सुगढ़ के अर्थ में) है. वह लोकतंत्र, नागरिकता, संविधान, राष्ट्र राज्य के कार्यभार, जनता के सरोकारों की दृष्टि से जहां एक सजग राजनीतिक कवि की भूमिका निभाता है वहीं विष्णु खरे का नैरेटिव अपने समय की अनेक विडंबनाओं पर उंगली रखता हुआ अपनी विक्षुब्धता को छिपा नहीं पाता. जिस मानसिक उहापोह से एक पढ़ा लिखा नागरिक गुजरता है, विष्णु खरे में वे सारी बेचैनियां सांस लेती हैं. अचरज नहीं कि वे अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता को अक्सर छिपा नहीं पाते. अंतिम दिनों में तो उनमें यह बेचैनी किसी पार्टी कार्यकर्तासरीखी हो गयी थी कि वे किसी पार्टी के पक्ष में मतदान न करने का सीधा ऐलान कर सकते थे.
तथापि अपनी बहुज्ञता के चलते और समाज को कविता, पत्रकारिता, व सिने माध्यमों से देखने समझने की जो सिफत उनमें थी वह बहुधा उनके समकालीनों में नहीं है. वे न तो गतानुगतिक थे न किसी के पैरोकार. वे किसी वैचारिक आंधी में बह जाने वाले रचनाकार भी नहीं थे. उनकी राय कभी कभी बहुत अप्रत्याशित व चौंकाने वाली होती थी. अपने कवित्व के प्रति श्लाघा व दूसरे के कवित्व को छलनी कर दे सकने वाली प्रतिसंवेदी आलोचना से भी वे यदा कदा बच नहीं पाते थे . अत: साहित्य में उनकी बहुज्ञता का लोहा मानने वाले तो बहुत हैं पर उनके कवित्व के प्रति असंदिग्ध राय रखने वाले कम है. किन्तु उनके किसी मत से कोई नाराज हो जाए, इसकी उन्हें चिंता कभी नहीं रही. वे अपनी कविताओं के निर्माण में भी इसी निर्भयता से काम लेते थे. बाहर से बहुत रूखी सूखी और कभी कभी भदेस-सी भी लगने वाली उनकी कविता में आखिर क्या बात है कि हम उसे झुठला नहीं सकते. उसकी उपेक्षा नहीं कर सकते. विष्णु खरे उस नैरेटिव के कवि हैं जिनकी कविता साठ के बाद के लोकतंत्र में आती हुई तब्दीलियों और मानवीय स्वभाव का अंकन भी है. उनके व्यक्तित्व में किसी तरह का पिछलगुआपन बेशक कम मिलता है पर वे कभी विचलन का शिकार होते हुए ‘नई रोशनी‘ जैसी कविता भी लिख सकते हैं, इसमें संशय नहीं. पर यहां भी वे सीधे सादे ढंग से निपट तारीफ के पुल नहीं बांधते बल्कि अपनी विदग्ध व्यंजना का परिचय भी देते हैं.
(एक)
विष्णु खरे का रचनाकाल 1956-57 से 2018 तक फैला है. इस दौर में वे पत्रकार रहे, जनता की समस्याओं से उनका गहरा वास्ता रहा. साहित्य अकादेमी से जुडे, विभिन्न भाषाओं में अनुवाद के व्यापक कारोबार से जुड़े, सिने समीक्षा को एक नया रचनात्मक आयाम दिया, अनेक बार साहित्यक शैक्षणिक व पत्रकारीय प्रयोजनों से विदेश गए, सिने समारोहों का अंग बने—इन सबने उन्हें देश, विदेश, उसकी समस्याओं, सत्ता के मूलगामी चरित्र को पहचानने का अवसर दिया. उनकी कविता जिन तत्वों से बनी है वे सामान्य नहीं हैं. जिस तरह कुंवर नारायण के शुरुआती कविता संग्रह ‘परिवेश:हम तुम‘ या केदारनाथ सिंह के पहले संग्रह ‘अभी बिल्कुल अभी‘ की कविताएं हैं —चित्ताकर्षक एवं प्रगीतात्मक — उन अर्थों में विष्णु खरे की कविताएं न तो रोमैंटिक हैं न प्रगीतात्मक, पर वे किसी न किसी विडंबना को कविता के केंद्र में रखते हैं. बल्कि कहें कि वे शुरु से ही अपनी एक राजनीतिक पहचान बनाने वाले कवियों में नजर आते हैं जैसे रघुवीर सहाय, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना, ऋतुराज, विजेन्द्र व ज्ञानेन्द्रपति आदि.
विष्णु खरे के नैरेटिव में कोई न कोई वृत्तांत समाहित होता है. ‘पिछला बाकी‘ की पहली ही कविता टेबल को देखें तो यह टेबल के बहाने मुरलीधर नाजिर, बेटे सुंदरलाल, पत्नी रामकुमारी व उनके भी बेटे की कहानी है. टेबल तीसरी पीढ़ी तक स्थानांतरित होती है और उससे जुड़ी बातें कवि तफसील से बयान करता है. यह अलग बात है कि टेबल तो निमित्त मात्र बनता है पर उस निम्न मध्यवर्गीयता की एक सांकेतिक तस्वीर जैसे जीवंत हो उठती है. अव्यक्त में कवि एक दिन छुट्टी के बाद स्कूल न लौट कर एक बागीचे की बेंच पर आ बैठता है और अपना ही किस्सा बयान करता है. गर्मियों की शाम भी अपने में अनूठी कविता है. इस कविता को केदारनाथ सिंह लिखते तो शायद इसकी तासीर कुछ अलग होती. विष्णु खरे गर्मियों की शाम को चार लड़कोंकी घुमक्कड़ी की शाम में बदल देते हैं जिसमें दो लड़कियां भी शामिलहोती हैं. जहां लालटेन सी मद्धिम पीली धूप नज़र आती है और उनकी बहनें या दोस्तों की बहनें उनके आने पर दरवाजें से सिमट कर पीछे हट जाती है जैसे शाम को सरसराते मैंदान पर गर्मी की आखिरी दिनों की पीली धूप. इसी तरह हँसी, प्रारंभ, अकेला आदमी, मुकाबला, कार्यकर्ता, ढाबे में देर से आने वाले लोग, गूँगा, अंधी घाटी कविताएं हैं. कहा जाए तो वे अकेला आदमी हो या कार्यकर्ता या ढाबेमें देर से आने वाले लोग —वे क्या विस्तार से चित्र आंकते हैं कि उस शख्स या विषय वस्तु के सारे पहलू उभर कर सामने आ जाते हैं. यद्यपि चित्र कविता कोई उम्दा कोटि की कविता नहीं मानी जा सकती. संस्कृत में चित्र काव्य को अधम काव्य कहा ही गया है. आज के कवियों में चित्र ऑंकने में शायद ज्ञानेन्द्रपति सबसे ज्यादा कुशल कवियों में होंगे. पर कविता तो वह है जो केवल चित्र ने ऑंके, कुछ कहे. उसे पढ़ कर कोई अनूठी व्यंजना श्लेष या कुछ निराले कथ्य का आभास हो. इस दृष्टि से गूंगा कविता अंत में पहुंच कर करुणा-विगलित कर देती है.
कविता में उन्हें लाने और स्थापित करने का श्रेय अशोक वाजपेयी को जाता है. पहचान सीरीज में उनकी पहली किताब उन्होंने ही छापी. बाद में उनकी कई पुस्तकें आई. पिछला बाकी, सबकी आवाज के पर्दे में, लालटेन जलाना, पाठांतर, खुद अपनी आंख से, काल और अवधि के दरमियान और अभी पिछले ही साल प्रकाशित और अन्य कविताएं जिस पर छपे कवर पर प्रदर्शित आलेन कुर्दी के शव की हिंदी हल्के में बहुत निंदा हुई. ‘आलोचना की पहली किताब‘ में उनकी समीक्षाएं संकलित हैं तो सिनेमा समय नामक सिने समीक्षा की एक पुस्तक भी हाल ही में प्रकाशित हुई है. हिंदी में गुडी गुडी कहने का चलन बहुत है पर अपनी वाम पक्षधरता के लिए पहचाने जाने वाले विष्णु खरे ने किसी भी मुद्दे पर सदैव बेबाक राय रखी. उनकी कविताएं कविता में नैरेटिव का एक विरल उदाहरण हैं. उनके गद्य का पाट बेहद चौड़ा था. वह देश दुनिया के बड़े मुद्दों पर अपनी वैचारिक दृढता के लिए जाने जाते रहे. इसलिए उनकी कविताएं मुक्तिबोध की सी बीहड़ता लिए हुए दिखती हैं. बेशक उनका संघर्ष मुक्तिबोध जैसा नहीं रहा न कविता-कसावट ही, पर उन्हें वे अपना काव्यगुरु मानते थे. इसकी वजह शायद यह थी कि कभी नागपुर से प्रकाशित सारथी में मुक्तिबोध ने उनकी पहली कविता छापी थी.
उनके भाषा सामर्थ्य और भीतर अंतर्निहित ठहरी गहराइयों की प्रशंसा कुंवर नारायण ने बहुत पहले की थी. यद्यपि उन्होंने यह भी पाया कि उनकी कुछ कविताओं में यथार्थ की ठसाठस कुछ कुछ उसी तरह है जैसे किसी दैनिक अखबार का पहला पेज. लेकिन इसमें भी कविता के मूलार्थ को बचाए रख पाना उनकी कला का परोक्ष आयाम है. वे इनमें यथार्थ की भीड़ में कंधे रगड़ते चलने का रोमांच पाते हैं तो अनुभवों की अधिक अमूर्त शक्तियों का अहसास कराने का सामर्थ्य भी. उनकी कविताएं बौद्धिकता और ज्ञानार्जन का प्रतिफल हैं. वे कमोबेश जिरहबाज़ लगती हैं. परन्तु इस जिरहबाज़ और संगतपूर्ण निष्कर्षों तक कविता को ले जाने की प्रवृत्ति उनमें कूट कूट कर भरी थी. कविताएं उनकी वैज्ञानिकता का लोहा मनवाती हैं पर बाजदफे लगता है कि उनकी कविता में साधारणता में जीने वालों के प्रति एक सहानुभूतिक रुझान भी है. यह कवि-कातरता है- करुणा है जिसके बिना कविता में वह भावदशा नहीं आ सकती जो आपको विगलित और विचलित कर सके. उनकी कविताओं में दृश्य की यथास्थितिशीलता के एक एक पल का बयान होता है- रेखाचित्र से लेकर उस पूरी मनोदशा भावदशा समाजदशा का अंकन. शोक सभा के मौन को लेकर लिखी पहली ही कविता इन्हीं दशाओं से होकर निरुपित हुई है. वह शोकशभा का रेखांकन भी है और दिवंगत आत्मा के प्रति पेश आने वाले पेशेवर हो चुके शोकार्त समाज का आईना भी. पर जहां उनके भीतर का यह कुतूहल बना रहता है हर विषय को अपनी तरह से स्कैनिंग कर लेने में प्रवीण और उत्सुक वहां वे अनेक स्थलों पर करुणासिक्त नजर आते हैं.
वहां अपनी बौद्धिकता के आस्फालन को इस हद तक नियंत्रित करते हैं कि चकित कर देते हैं. ‘उसी तरह‘ में अकेली औरतों और अकेले बच्चों को जमीन पर खाते न देखने का काव्यात्मक ब्यौरा कुछ इसी तरह का है. इसी तरह उनकी कविता ”तुम्हें” है. सरेआम एक आदमी को मारे जाते देखने वालों पर यह कविता एक तंज की तरह है. जैसे वह बाकी बचे हुए लोगों को उनका हश्र बता रही हो. अकारण नहीं कि यहां मानबहादुर सिंह जैसे कवि याद आते हैं जो बुजदिल तमाशबीनों के बीच अकेले कर मार दिए गए और भीड़ अपनी कायरता के खोल में छिपी रही.
वहां अपनी बौद्धिकता के आस्फालन को इस हद तक नियंत्रित करते हैं कि चकित कर देते हैं. ‘उसी तरह‘ में अकेली औरतों और अकेले बच्चों को जमीन पर खाते न देखने का काव्यात्मक ब्यौरा कुछ इसी तरह का है. इसी तरह उनकी कविता ”तुम्हें” है. सरेआम एक आदमी को मारे जाते देखने वालों पर यह कविता एक तंज की तरह है. जैसे वह बाकी बचे हुए लोगों को उनका हश्र बता रही हो. अकारण नहीं कि यहां मानबहादुर सिंह जैसे कवि याद आते हैं जो बुजदिल तमाशबीनों के बीच अकेले कर मार दिए गए और भीड़ अपनी कायरता के खोल में छिपी रही.
(दो)
विष्णु खरे हिंदी के एक ऐसे कवि, पत्रकार, अनुवादक, सिने समीक्षक एवं वक्ता थे जिनके भीतर हिंदी की उस जुझारु पीढी की अप्रत्याशित साहसिकता थी जो कभी अपने वक्त के निर्भीक पत्रकारों का आभूषण हुआ करती थी. हिंदी की सुभाषितोन्मुख हो चली दुनिया में जहां किसी वाजिब बात पर भी स्वीकार्य किस्म की प्रतिक्रियाओं का रिवाज़ चल पड़ा हो, विष्णु खरे अंतिम समय तक खरी-खरी बातें कहने के लिए जाने जाते रहे. उन पर इस बात का कोई फर्क नहीं पड़ता था कि वह युवा है या अपने समय का प्रतिष्ठित कवि लेखक या राजनेता. इन दिनों वे इस स्तर पर मुखर हो उठे थे कि किसी सार्वजनिक साहित्यिक समारोह के ऐन धन्यवाद ज्ञापन में किसी एक खास राजनेता को वोट न देने की उद्धत अपील तक कर सकते थे. किन्तु हिंदी कविता के नैरेटिव में एक खास तरह आवेगी संवेदना के लिए वे जाने ही नहीं जाते, इस तरह के गद्य के वे आविष्कारक भी माने जाते रहे हैं.
अपने निज को प्राय: गौण रखते हुए भी और नाज़ मैं किस पर करुँ जैसी कविता में उनका नास्टैल्जिया बोलता है. उनका छिंदवाड़ा का पारिवारिक परिवेश बोलता है. वे जीवन भर न केवल अपने समय से, अपने मित्रों और वैचारिक शत्रुओं से, बल्कि खुद से भी लड़ते व संघर्ष करते रहे. अपनी अनेक कविताओं में उन्होंने इस जद्दोजेहद का संकेत किया है. उन्होंने बहुत हुआ कविता में लिखा है:
नहीं मेरी आस्था किसी स्वर्ग में
किसी परमपद में
किसी ब्रहृम में लीन होने में भी नहीं……….चाहा तो कितना था कि बहुत कुछ करके जाऊँ
नहीं कर पाया तो उसके कई कारण थे
जिनमें सबसे बड़ा कारण में ही था. ‘
यह कविता जैसे उनके जीवन में एक पाश्चात्ताप की तरह है—विक्षोभ के बोध से टकराता हुए एक आत्मस्वीकार जिसे वे प्राय: अभिमानवश धकियाते रहे.
नहीं मेरी आस्था किसी स्वर्ग में
किसी परमपद में
किसी ब्रहृम में लीन होने में भी नहीं……….चाहा तो कितना था कि बहुत कुछ करके जाऊँ
नहीं कर पाया तो उसके कई कारण थे
जिनमें सबसे बड़ा कारण में ही था. ‘
यह कविता जैसे उनके जीवन में एक पाश्चात्ताप की तरह है—विक्षोभ के बोध से टकराता हुए एक आत्मस्वीकार जिसे वे प्राय: अभिमानवश धकियाते रहे.
वे इस सबके बावजूद हर वक्त लड़ाकू मुद्रा में ही नहीं, पढाकू मुद्रा में भी रहते थे. उनके नए संग्रह और अन्य कविताएं पर मैने समीक्षा लिख कर उन्हें पढने को भेजी तो उनकी नाराजगी की अपेक्षा रखते हुए भी उत्तर बहुत शालीन-सा आया. बस शीर्षक नहीं जँचा — ‘वृत्तांतप्रियता में झपकियां लेता गद्य’, जिसे मैंने बदल कर ‘वृत्तांतप्रियता में विश्रांति’ कर दिया, जो उन्हें जँचा. उनकी आलोचना कभी कभी इतनी तीखी होती थी जितनी कि कभी कभी किसी कवि को शिखरत्व से मंडित कर देने में कुशल. उनके ब्लर्ब कवियों के लिए प्रमाणपत्र की तरह हैं जिनके लिए भी वे कभी लिखे गए हों. कविता में वे इतने चयनधर्मी रहे हैं कि कोई औसत या औसत से नीचे का कवि उनसे आंखें नहीं मिला सकता था. अपने कहे पर उन्होंने शायद ही कभी खेद जताया हो. पर इसका अर्थ यह नहीं कि उनके अंत:करण का आयतन कहीं संक्षिप्त था, बल्कि वह इतना विश्वासी, अडिग और प्रशस्त रहा है कि वह पीछे मुड़ कर नहीं देखता था. कविता में या जीवन में या समाज में वे कभी संशोधनवादी नहीं रहे. उन्हें साधना मुश्किल था. उनकी साधना जटिल थी. उनकी कविता को साधना और समझना और भी जटिल . क्योंकि अनेक ग्रंथिल परिस्थितियां उनकी कविता के निर्माण में काम करती दीखती हैं. वे मेगा डिस्कोर्स के कवि हैं और सदैव कवियों के बीच स्पृहा से पढ़े जाते रहेंगे.
सनातन आस्थाओं के प्रति उनके क्रिटीक का एक चरम यह भी है कि वे सदियों से पूजित अभिनंदित सरस्वती को भी सरस्वती वंदना में आड़े हाथो लेते हैं. वे कहते हैं कि अब न तुम श्वेतवसना रही न तुम्हारे स्वर सुगठित– कमल विगलित हो चुका, ग्रंथ जीर्णशीर्ण, तुममे अब किसी की रक्षा की सामर्थ्य नहीं कि तुम किसी को जड़ता से उबार सको. वे यजमानों की आसुरी प्रवृत्तियों की याद दिलाते हुए उन्हें अपने पारंपरिक रूप और कर्तव्य को त्याग कर या देवी सर्वभूतेषु विप्लवरूपेषु तिष्ठिता के रूप में अवतरित होने का आहवान करते हैं. सरस्वती के आराधकों को खरे का यह खरापन कचोट सकता है पर विष्णु खरे का कवि ऐसी गतानुगतिकता पर समझौते नही करता. क्योंकि वह जानता है कि बाजार के इस महाउल्लास में सरस्वती भी बाजार नियंत्रित हो चुकी हैं. उनकी वंदना भी अब हमारे प्रायोजित विनय का ही प्रतिरूप है.
(तीन)
अचरज नहीं कि अपने समय के वरिष्ठ कवि रघुवीर सहाय उनकी कविताओं में उनकी वस्तु योजना की प्रशंसा करते हुए कहते हैं कि कहानी में कविता कहना विष्णु खरे की सबसे बड़ी शक्ति है. इस संग्रह में उनके रचना संसार की विविधता का पता हमें उनकी विविध शक्तियों के रूप में मिलता है. इसके लिए वे टेबलका उदाहरण प्रस्तुत करते हैं और कहते हैं कि टेबिल एक साथ कई जिन्दगियों को एक जगह पकाकर एक गहरी करुणा की कविता बनाती है. रघुवीर सहाय कहते हैं कि विष्णु खरे की भाषा तो हमें किसी रोमांटिक,रहस्यमय, गदगद् संसार में जाने से ठोकर मार कर बार बार रोकती है. वे निष्कर्षात्मक लहजे में कहते हैं कि ”उनकी वस्तुयोजना अदभुत धीरज और साहस के साथ, जो कि अपनी अनुभूतिको संप्रेषित हो जाने तक बचाए रखने के लिए कवि को चाहिए, एक शांत शक्ति वाली भाषा तैयार करती है.यह उपलब्धि आधुनिक कविता के प्रयत्न को संपूर्ण बनाती है और विष्णु खरे की कविता को अद्वितीय. ”
आधुनिक उत्तरऔदयोगिक समय कविता के लिए कितनी उपेक्षा का समय है यह उनकी कविता रुदन बताती है. निरंतर यांत्रिक होता समय जैसे यंत्रमानवों का समाज निर्मित कर रहा है जहां कविता के लिए कोई संवेदना नहीं बची है. वे कितने क्षोभ से यह कहते हैं :
कविता के लिए अब अवकाश नहीं है
मशीनों और भूख के जंगल में
कविता की चीख गूंज कर डूब जाती है
किन्तु इस्पाती वृक्षों पर बैठे
रुपहले गुबरैले बीन कर खाते हुए कांस्यबनमानुस
एक उपेक्षामय दृष्टि नीचे डालकर
पुन: व्यस्त हो जाते हैं . (पिछला बाकी, पृष्ठ 88)
यह कविता आज के समय में कविता की जगह कम होते जाने व आसपास के उत्तर औद्योगिक वातावरण में ग्रीस की उठती बू के बीच एक कोयल के कूकने तक की कितनी कम गुंजाइश बची है इस बात को लेकर चिंतित दिखती है. जाहिर है कि विष्णु खरे की निपट गद्य के वृत्तांत सरीखी ये कविताएं और उनका विन्यास भी उत्तरोत्तर गद्यमय होती वसुंधरा की गवाही देते हैं. वे प्रकृति और पारिस्थितिकी के उजाड़मय वातावरण में पेड़ों की अकिंचनता देखते हुए कहते हैं :
पेड़ शाप देते हैं
प्रतीक्षा करते हैं कि कट कर गिरने से पहले
अपने शरीरों से उठती अंतिम गंध को नहीं कोई तो
सूख जाने वाली उनकी पत्तियां ही सूँघें
बादल नदियां जानवर और चिड़ियां
सुनते हैं पेड़ों की आखिरी सांसों को और मिल कर शाप देते हैं.
(वही, शाप, पृष्ठ 87)
पेड़ शाप देते हैं
प्रतीक्षा करते हैं कि कट कर गिरने से पहले
अपने शरीरों से उठती अंतिम गंध को नहीं कोई तो
सूख जाने वाली उनकी पत्तियां ही सूँघें
बादल नदियां जानवर और चिड़ियां
सुनते हैं पेड़ों की आखिरी सांसों को और मिल कर शाप देते हैं.
(वही, शाप, पृष्ठ 87)
उनके नैरेटिव में कोमलकांत न अनुभव हैं न पदावली. लड़की भी है तो करुणांध मां व कायर पिता के बारे में सोचती हुई है. घर लौटती है तो दफ्तर की अश्लीलताओं को उतार कर अरगनी पर टांग देती है और लालटेन की पीली रोशनी में किसी पीले खत की खोज में मशगूल हो जाती है. उनके मुहल्ले का विवर्ण हैं, संकरी सड़के हैं, मराहुआ ताजा कबूतर है, महिलाओं की आंख में दयादेख कर रोज नई जिन्दगी बख्शने वाले धीरोदात्त हैं, चिड़ियों, तोतों की आवाजें और हलचलें हैं, आखिरी उड़ान भरती चिड़ियां हैं, अकेला आदमी है बहुत रात गए लौटता हुआ जब बस्ती के ढाबे में रात गए अलुमिनियम के भगोने के मँजने की आवाज आ रही है, फटी एड़ियों व अपना आपा खो चुके इस आदमी के दिल में पैदल स्कूल जाती पांचवी क्लास की सांवली लड़की की यादें हैं,गर्मियों की शाम के कुछ अनूठे विवर्ण चित्र हैं और फूलों के नाम पर मेहदी के फूलों की गंध. उनकी कविताओं की टीका करते हुए गिरधर राठी उनके यहां व्यक्ति सत्ता, व्यंग्य, तल्खी, विडंबना, बचपन, कैशोर्य, जवानी, बुढापा, सफलता,रोग, दैन्य, छोटे शहरों की उदासी व उदास आकर्षण व बड़े शहरोंके दृश्य आते हैं. वे इस बात को लक्ष्य करते हैं कि उनकी कविताओं में कहानियां हैं पर शब्दों की कंजूसी है और कविता की दृष्टि से शब्दों की इफरात दिखती है. उनके नैरेटिव का जैसे यह सुविदित वैशिष्ट्य हो. कभी कभी तो बाणभट्ट की विंध्याटवी जैसे गद्य में विवरणात्मकता का प्रभूत बोलबाला दिखता है जो अरुचि-सी पैदा करता है. सरसता की नमी शब्दों की जड़ों तक मुश्किल से पहुंच पाती है. पिछला बाकी जिस एक बहुत ही छोटी किन्तु प्रभावी रचना के लिए याद की जाती है वह है डरो. इसका शिल्प उनके आजमाए शिल्प व कहन से भिन्न है व पढ़ने में एक अदभुत अर्थ की सृष्टि करती है. कविता अपने कथ्य में वह समूचा यथार्थ कह देती है जिसके लिए वे नितांत अभिधा की राह अपनाते हैं —
कहो तो डरो कि हाय यह क्यों कह दिया
न कहो तो डरो कि पूछेंगे चुप क्यों हो
सुनो तो डरो कि अपना कान क्यों दिया
न सुनो तो डरो कि सुनना लाजिमी तो नहीं था
देखो तो डरो कि एक दिन तुम पर भी यह न हो
न देखो तो डरो कि गवाही में बयान क्या दोगे
सोचो तो डरो कि वह चेहरे पर न झलक आया हो
न सोचो तो डरो कि सोचने को कुछ दे न दें
पढ़ो तो डरो कि पीछे से झाँकने वाला कौन है
न पढ़ो तो डरो कि तलाशेंगे क्या पढ़ते हो
लिखो तो डरो कि उसके कई मतलब लग सकते हैं
न लिखो तो डरो कि नई इबारत सिखाई जाएगी
डरो तो डरो कि कहेंगे डर किस बात का है
न डरो तो डरो कि हुक़्म होगा कि डर
विष्णु खरे की कविता में लड़कियां तमाम तरह से आती हैं. उनके लिए उनके बीहड़ गद्य से भी करुणा टपकती है. जो मार खा रोई नहीं—में बाप से करुणा और उम्मीद की कातर निगाह से देखती हुई लड़कियां दिखती हैं तो लड़कियों के बाप में टाइपिंग का टेस्ट देने आई लड़कियों के पिताओं के बहाने उन लड़कियों की तालीम, उनके लिए हलाकान होते पिता दोनों की उम्दा तस्वीर अंकित है. यह वह कस्बाई दृश्य और देश काल है जब टाइपिंग के टेस्ट के लिए खुद की टाइपमशीन बांध कर ले जानी पड़ती थी. अत्यंत चित्रोपम कविता है यह. इसी तरह लड़की कविता है जो करुणांध मां और कायर पिता की संतति है. बेटी कविता से इस बीहड़ से लगते कवि के भीतर करुणा की नम ज़मीन से परिचय होता है. एक लड़की जिसे वह नौकरी तो नही दिला पाता पर उसके मुंह से अपनी बेटी समझ कर ही मुझे रख लीजिए– सुनने के बाद उसे अजीब सा अहसास होता है. इस कविता का अंत करते हुए वह एक भावुकताभरा संसार सामने खड़ा कर देता है:
हर शाम मेरी अजनबी बेटी लौटती है
मायूस होने से पहले कुछ नए रहमदिलों की बेटी बन कर
सुबह फिर निकल जाती हैं मेरी हजारों बेटियां
एक परेशान डरी हुई अपमानित उम्मीद लिए
अपने असली पिताओं से अलग उस पिता की तलाश में
जो उन्हें बेटी या क़ाबिल माने न माने रख तो ले. (कवि ने कहा, बेटी, पृष्ठ 70)
(चार)
वे अपने ब्यौरों में कितने अलग हैं, यह बात ब्यौरों के ही कवियों की कविता से तुलना करते हुए ही पता चलती है. यद्यपि उन्हें मुक्तिबोधी शिल्प का कवि कहा माना जाने लगा है. पर ऐसा यत्किंचित होते हुए भी मुक्तिबोध की कविताएं अपने विषयों से ऐसी संगति आद्यंत बनाए रखती थीं कि कुछ भी अवांतर विस्तार या नैरेशन वहां नहीं दिखता. प्राय: प्रदीर्घ कविताएं लिखने के बावजूद मुक्तिबोध की लक्ष्य पर निगाह होती थी. उनकी कविताओं के आदि और अंत में एक युक्तियुक्तता दिखती है. जैसे कोई गणितज्ञ अपना प्रमेय सिद्ध कर रहा हो. यह बात विष्णु खरे की कविताओं में कम है. कहीं कहीं वह अच्छे विषयों के बावजूद उसकी सार्थक निष्कृति के बजाय केवल ब्यौरों में उलझ कर रह गयी है. लालटेन जलाना कविता ऐसी ही है कि वह केवल लालटेन जलाने की प्रविधि में ही उलझी रह जाती है और बिना कोई सार्थक बात किए इति को प्राप्त होती है. प्रभूत विवरणात्मकता के बावजूद कवि का दायित्व यह है कि पूरी कविता में ताना बाना न टूटे, उसका तनाव अंत तक शिथिल न हो, अर्थ की निष्पत्ति बाधित न हो, यदि वह चरित्र चित्रण है तो केवल चित्रण बन कर न रह जाए.
उनके कविता संग्रहों में सबकी आवाज के पर्दे में —तमाम कारणों से एक अलग संग्रह है. इसलिए भी कि इसकी अनेक कविताओं में व और अन्य कविताएं की आलैन कविता जैसी गहरी संवेदनात्मक भावुकता भी है, मार्मिकता भी है और कविता अंतत: कुछ कहती भी है, इसका ख्याल भी रखती है. विष्णु खरे में स्त्री संवेदना कितनी गहरी है उसका साक्ष्य आग कविता है. इसे पढ़ते हुए उदय प्रकाश की औरतेंकविता याद हो आती है. एक स्त्री को विवाहोपरांत ससुराल वाले किस तरह जला कर मार डालते हैं एक एक वाक्य में यह कविता शीशे की तरह हमारी चेतना को विगलित करती है. यह समानुभूति में बदल देने वाली कविता है. जाहिर है कि यह कविता अखबारी यथार्थ से उपजी है पर इसमें केवल ब्यौरा नहीं, कवि की मेहनत दिखाई देती है. हर आज कितना लहूलुहान हो सकता है, कितना उत्सवी ,कितना निष्करुण, कितना शर्मनाक–आज भीकविता हमारी अंतश्चेतना को बेधती है. यहां खरे का ब्यौरा केवल ब्यौरा नहीं, वह आज के फलितार्थ का पूरा नक्शा उकेर देता है. जुर्म का इक़बाल कितना तकलीफदेह होता है इसे वही जानता है जो इस प्रक्रिया से गुजरा हो. इक़बाल–ऐसी ही कविता है. सब कुछ ब्यौरेवार बतलाती हुई. उस जिल्लत से निजात पाने की गुहार भी कि ‘बस सजा दो और रोज़ रोज़ की इस सॉंसत से मुक्त करो.‘
यह विष्णु खरे की कवि संवेदना है कि वे पेड़ के नीचे टाट के पेबंद से एक घर बना लेने वाले गरीब परिवार की ओर ध्यान आकृष्ट करते हैं तो जो टेंपों में घर बदलते हैं, उनकी परेशानियों पर एक चित्रोपम कविता लिख डालते हैं. यह एक ऐसा देखा भाला दृश्य है कि कोई भला इसे क्योंकर कविता का विषय बनाएगा. पर विष्णु खरे की कविताएं ऐसे ही अप्रत्याशितों का निर्वचन है जहां कोई भी सुपरिचित, अलक्षित सी लगने वाली, अप्रत्याशित सी घटना, स्थिति, परिस्थिति या चीज़ या कोई प्रतीति एक नैरेटिव का आकार ले लेती है. वह जीवन की उस विराट दिनचर्या का भाष्य होती है जहां बहुत सी चीजें अनायास घटती हैं, प्राय: अलक्षित ही रही आती हैं पर विष्णु खरे जैसे कवि की निगाह ऐसे ही अप्रत्याशित से विषयों व मुद्दों पर पड़ती है और कविता बन जाती है. जो मार खा रोई नहीं का जिक्र पहले हो ही चुका है. ऐसी ही एक अन्य कविता है : दिल्ली में अपना फ्लैट बनवा लेने के बाद एक आदमी सोचता है—कविता ऐसी ही चीजों के मनोविज्ञान में उतरने की चेष्टा है जिनसे हर निम्नमध्यवर्गीय लगभग गुजरता है.
कविताएं कवि के कवि वैशिष्ट्य का साक्ष्य होती हैं तो उसके आत्म का भी. विष्णु खरे की इन कविताओं की एनाटॉमी से गुजरते हुए विष्णु खरे की एक दिग्गज व दबंग कवि की आभा प्रतिबिम्बित होती है. सहजता से वे दुर्लंघ्य न थे. सहजता से वे पराजेय न थे. क्रोध उनकी कविताओं में रचनात्मक रूप से प्रवाहित होता हुआ दिखता है. कुछ एक में तो वे इसका इजहार भी पूरे आत्मविश्वास से करते हैं. उदाहरणार्थ निवेदन कविता के अंश —
बुजुर्गों यह न बताओ मुझे
कि मेरी उम्र बढ़ रही है और मैं एक शरीफ आदमी हूँ
इसलिए अपने गुस्से पर काबू पाऊँ
क्योंकि जीवन की उस शाइस्ता सार्थकता का अब मैं क्या करूंगा
जो अपने क्रोध पर विजय प्राप्त कर एक पीढ़ी पहले आपने
हासिल कर ली थी
ग्रंथों मुझे अब प्रवचन न दो
कि मनुष्य को क्रोध नहीं करना चाहिए
न गिनाओ मेरे सामने वे पातक और नरक
जिन्हें क्रोधी आदमी अर्जित करता है
क्योंकि इहलोक में जो कुछ नारकीय व पापिष्ठ है
वह कम से कम सिर्फ गुस्सैल लोगों ने तो नहीं रचा है
ठंडे दिल और दिमाग से यह मुझे दिख चुका है
(सब की आवाज़ के पर्दे से,सेतु समग्र कविता, विष्णु खरे)
(सब की आवाज़ के पर्दे से,सेतु समग्र कविता, विष्णु खरे)
कविता में नैरेटिव कई रूपों में दिखता है. अक्सर वह किस्सागोई के लहजे में होता है और उसका अंत किसी न किसी नैतिक संदेश के प्रतिकथन या इंगित में पर्यवसित होता है. कभी कवि एक कहानी की तरह कथ्य को सामने रखता है. संघर्ष और तनावों से गुजरते हुए किसी न किसी संकल्प से प्रतिश्रुत होता है. नैतिक संदेश स्पष्ट भी हो सकते हैं और अमूर्त व इंगित रूप में भी. कभी कभी कविता के कथ्य या उसके किसी चरित्र के कार्यकलापों से हम अर्थ की निष्पत्ति या कवि के इंगित तक पहुंचते हैं. नैरेटिव मिथकों के जरिए एक नया और समकालीन पाठ निर्मित करने के लिए भी हो सकता है. जैसे कुंवर नारायण की आत्मजयी, वाजश्रवा के बहाने जैसे लंबे काव्य या अंधेरे में (मुक्तिबोध), पटकथा(धूमिल), बलदेव खटिक(लीलाधर जगूड़ी ) आदि कविताएं. विष्णु खरे महाभारत के प्रसंगों को उठाते हैं, लापता, द्रौपदी, महाभारत के युद्ध के बाद लापता हुए 24165 लोग, सत्य, अग्निरथोवाच आदि में.
विष्णु खरे एक कवि के रुप में अनेक कथ्य को विजुअल्स के रूप में, नैरेशन के रूप में रखते हैं. बारीक से बारीक डिटेल्स में जाते हैं और कई बार कविता पढ़ते ही हम कवि दृष्टि से अभिभूत हो उठते हैं. हमें उद्दिष्ट इंगित मिल जाता है. कभी कभी केवल नैरेटिव तो हाथ लगता है पर कवि कह क्या रहा है और किसलिए कह रहा है यह नहीं पता चलता. यानी कविता का प्रयोजन भलीभांति पता नहीं चलता. इसीलिए जहां वे केवल वक्तव्य या कविता को बारीक से बारीक डिटेल्स में परिण्त करते हैं,वहॉं जरूरी नहीं कि कविता पूर्ण परिपाक पर पहुंचे. खरे की अनेक कविताओं के साथ ऐसा है जहां वे स्थितियां, दृश्य और तमाम पहलुओं की पड़ताल तो करते हैं पर कविता अतिशय वर्णनात्मकता से संवेदना की दृष्टि से च्युत नजर आती है.
ऐसे वर्णन भले कवि की डिटेलिंग का लोहा मनवाएं पर वे ऊब का निर्माण भी करते हैं. जब कि ज्ञानेन्द्रपति की तमाम कविताएं सामयिक यथार्थ से जुड़ी होते हुए तथा पर्याप्त नैरेटिव का सहारा लेती हुई भी ऊब नहीं पैदा करतीं क्योंकि वे बीच बीच में गद्य को कविता जैसा दिखने के लिए शब्दयुग्म व अन्त्यानुप्रास जैसा भी गढ़ते हैं. धूमिल व मुक्तिबोध के नैरेटिव में वक्तव्य का स्थापत्य होते हुए भी उनमें अन्त्यनुप्रास की छटा ओझल नहीं होती जो उनके नैरेटिव को प्रोजैक होने से बचाती व कविता में एक विशेष गति पैदा करती है जो उसके वाचिक हो प्रभावमय बनाती है.
विष्णु खरे एक कवि के रुप में अनेक कथ्य को विजुअल्स के रूप में, नैरेशन के रूप में रखते हैं. बारीक से बारीक डिटेल्स में जाते हैं और कई बार कविता पढ़ते ही हम कवि दृष्टि से अभिभूत हो उठते हैं. हमें उद्दिष्ट इंगित मिल जाता है. कभी कभी केवल नैरेटिव तो हाथ लगता है पर कवि कह क्या रहा है और किसलिए कह रहा है यह नहीं पता चलता. यानी कविता का प्रयोजन भलीभांति पता नहीं चलता. इसीलिए जहां वे केवल वक्तव्य या कविता को बारीक से बारीक डिटेल्स में परिण्त करते हैं,वहॉं जरूरी नहीं कि कविता पूर्ण परिपाक पर पहुंचे. खरे की अनेक कविताओं के साथ ऐसा है जहां वे स्थितियां, दृश्य और तमाम पहलुओं की पड़ताल तो करते हैं पर कविता अतिशय वर्णनात्मकता से संवेदना की दृष्टि से च्युत नजर आती है.
ऐसे वर्णन भले कवि की डिटेलिंग का लोहा मनवाएं पर वे ऊब का निर्माण भी करते हैं. जब कि ज्ञानेन्द्रपति की तमाम कविताएं सामयिक यथार्थ से जुड़ी होते हुए तथा पर्याप्त नैरेटिव का सहारा लेती हुई भी ऊब नहीं पैदा करतीं क्योंकि वे बीच बीच में गद्य को कविता जैसा दिखने के लिए शब्दयुग्म व अन्त्यानुप्रास जैसा भी गढ़ते हैं. धूमिल व मुक्तिबोध के नैरेटिव में वक्तव्य का स्थापत्य होते हुए भी उनमें अन्त्यनुप्रास की छटा ओझल नहीं होती जो उनके नैरेटिव को प्रोजैक होने से बचाती व कविता में एक विशेष गति पैदा करती है जो उसके वाचिक हो प्रभावमय बनाती है.
विष्णु खरे छिंदवाड़ा के हैं, उनकी कई कविताएं इसे विस्मृत नहीं होने देती हैं. ऐसी ही दो कविताएं मन्सूबा और मिट्टी हैं. खरे को पत्रकारिता ने देश के मुद्दों को समझने का अचूक अवसर दिया है. वे छिंदवाड़ा को केंद्र में रखकर ये कविताएं जरूर लिखते हैं पर छिंदवाड़ा से छिनते रोजगार के अवसरों का जायज़ा भी लेते हैं, देश में राजनीति के करवटें बदलने का भी. इनमें कवि का आत्मधिक्कार भी बोलता है, आत्मस्वीकार भी. वे इतने राजनीतिक हैं कि पत्रकार रहते हुए तमाम दलों की कारगुजारियों को देखा है, देश को हौले हौले सांप्रदायिक होते देखा है, गुजरात को अयोध्या प्रसंग के बाद लहूलुहान होते देखा है, आपात्काल की निरंकुशता देखी है और बहुजन समाज के वे खामोश कार्यकर्ता भी देखे हैं जो किन्हीं रैलियों के लिए चुपचाप अशोक नगर स्टेशन पर चढते हुए चुपचाप भोपाल उतर जाते हैं. पर उनके बहाने कवि अपनी राजनैतिक मुखरता का इजहार करना नहीं भूलता —
मायावी राजनीति की काशी करवटों के असली चेहरे
शनाख्त करेंगे हर जगह छिपे हुए
मनु कुबेर और लक्ष्मी के दास-दासियों को अपने बीच भी
तुम्हारी द्विज राजनीति पिछले सौ वर्षों से सड़ चुकी है
और तुम उस मवाद को इनमें भी फैलती समझ कर सुख पाते हो
लेकिन इनकी आखों में और इनके चेहरों पर जो मैंने देखा है
उससे मैं जानता हूँ
कि तुम्हारे पांच हजार वर्षों की करोड़ोंहत्याओं के बावजूद
वे मिटे नहीं हैं ओर अब भी तुम्हारे लिए पर्याप्त है
(पाठांतर, सेतु समग्र: विष्णु खरे, पृष्ठ460)
(पाठांतर, सेतु समग्र: विष्णु खरे, पृष्ठ460)
2003 में आया काल और अवधि के दरमियानउनका महत्वपूर्ण संग्रह है. इसमें शिविर में शिशु, न हन्यते,लाइब्रेरी में तब्दीलियां, हर शहर में एक बदनाम औरत होती है, वृंदावन की विधवाएं जैसी चर्चित कविताएं हैं तो पृथक छत्तीसगढ़ राज्य, 1991 के एक दिन, और नाज़ मैं किस पर करूँ(और अन्य कविताएं) जैसी कविताएं भी जिसमें उनका नास्टैल्जिया भी बोलता है. जिस जीवन जिस बचपन जिस देश काल से उनका जुड़ाव रहा है वह उनकी कविताओं में एक नैरेटिव बन कर आता है एक खास तरह की बिलांगिगनेस के साथ जो खरे के कवित्व को उनके जीवनानुभवों को और सघनता से देखे जाने की मांग करता है. लीलाधर मंडलोई उन्हें ‘भीगे हुए सच‘ का कवि मानते हैं जैसे निराला की सरोज स्मृति का भीगा हुआ सच, जो आगे मुक्तिबोध, शमशेर और रघुवीर सहाय की कविताओं में उपस्थित है. और यह वे उनकी कुछ कविताओं के हवाले से कहते हैं, चौथे भाई के बारेमें, एक कम,लडकियों के बाप, शिविर में शिशु, ज़िल्लत और गूंगा आदि कविताएं जिनका जिक्र पहले हो चुका है. वे कविताओं के दृश्यालेखमें एक वृत्तचित्र जैसी सिनेमाई तकनीक व विजुअल्स के कट्स पाते हैं जिनमें तफसील के साथ वृत्तांत इंटेंस ढंग से सामने आते हैं.
यह भीगा हुआ सच चंद्रकांत देवताले के यहां भी बहुत है. बल्कि स्त्रियों लड़कियों के इतने सघन संवेदनशील चित्र कम कवियों के यहां देखने को मिलते हैं जितने देवताले के यहॉं. मैं आता रहूंगा तुम्हारेलिए, मां पर नहीं लिख सकता कविता, बेटी के घर से लौटना, प्रेम पिता का दिखाई नहीं देता जैसी सैकड़ों कविताएं हैं जो देवताले के भीतर एक विपुल सजल संसार का निर्माण करती हैं. शिविर में शिशु दंगोंकेबाद शिविर में पैदा हुए बच्चों की दास्तान है. बच्चे जो अपने परिजनों को खो देने के बारे में अनजान हैं जो उस हादसे के बारेमेंअनजान हैं,जिन्हें देख कर किस धर्म जाति के हैं यह अहसास नहीं पैदा होता, जिन्हें लाशें बननेसे कैसे बचाया जा सका है और जो अपनी मनोहारी छवि से जैसे अपनेको गोद में ले लेनेकोकहते हों, इन बच्चों को बचा लिए जाने को जैसे कवि मानवीय सभ्यता को मरने से बचा लिये जाने जैसा उपक्रम मानता है. खरे ऐसी कविताओं के प्रणेता माने जाते हैं जैसे विनाशग्रस्त इलाके से एक सीधी टीवी रपट,एक प्रकरण: दो प्रस्ताविक कविता प्रारूप, हिटलर की वापसी, न हन्यते, ज़िल्लत, दिल्ली में अपना फ्लैट बनवा लेने के बाद एक आदमी सोचता है, सिर पर मैला ढोने की अमानवीय प्रथा, हर शहर में एक बदनाम औरत होती है, संकेत, दम्यत्, तत्र तत्र कृतमस्तकांजलि,सरस्वती वंदना, प्रत्यागमन आदि. न हन्यते तो एक शख्स का ऐसा कन्फेशन है कि इसे केवल विष्णु खरे लिख सकते थे तो ज़िल्लत हिजड़ों पर लिखा एक ऐसा मार्मिक वृत्तांत है जिससे गुजरते हुए मानवीय सभ्यता में एक खास वर्ग को किस तरह की उपेक्षा से गुजरना पड़ता है.
यह भीगा हुआ सच चंद्रकांत देवताले के यहां भी बहुत है. बल्कि स्त्रियों लड़कियों के इतने सघन संवेदनशील चित्र कम कवियों के यहां देखने को मिलते हैं जितने देवताले के यहॉं. मैं आता रहूंगा तुम्हारेलिए, मां पर नहीं लिख सकता कविता, बेटी के घर से लौटना, प्रेम पिता का दिखाई नहीं देता जैसी सैकड़ों कविताएं हैं जो देवताले के भीतर एक विपुल सजल संसार का निर्माण करती हैं. शिविर में शिशु दंगोंकेबाद शिविर में पैदा हुए बच्चों की दास्तान है. बच्चे जो अपने परिजनों को खो देने के बारे में अनजान हैं जो उस हादसे के बारेमेंअनजान हैं,जिन्हें देख कर किस धर्म जाति के हैं यह अहसास नहीं पैदा होता, जिन्हें लाशें बननेसे कैसे बचाया जा सका है और जो अपनी मनोहारी छवि से जैसे अपनेको गोद में ले लेनेकोकहते हों, इन बच्चों को बचा लिए जाने को जैसे कवि मानवीय सभ्यता को मरने से बचा लिये जाने जैसा उपक्रम मानता है. खरे ऐसी कविताओं के प्रणेता माने जाते हैं जैसे विनाशग्रस्त इलाके से एक सीधी टीवी रपट,एक प्रकरण: दो प्रस्ताविक कविता प्रारूप, हिटलर की वापसी, न हन्यते, ज़िल्लत, दिल्ली में अपना फ्लैट बनवा लेने के बाद एक आदमी सोचता है, सिर पर मैला ढोने की अमानवीय प्रथा, हर शहर में एक बदनाम औरत होती है, संकेत, दम्यत्, तत्र तत्र कृतमस्तकांजलि,सरस्वती वंदना, प्रत्यागमन आदि. न हन्यते तो एक शख्स का ऐसा कन्फेशन है कि इसे केवल विष्णु खरे लिख सकते थे तो ज़िल्लत हिजड़ों पर लिखा एक ऐसा मार्मिक वृत्तांत है जिससे गुजरते हुए मानवीय सभ्यता में एक खास वर्ग को किस तरह की उपेक्षा से गुजरना पड़ता है.
यद्यपि, विष्णु खरे की कविताओं से कभी वैसी आसक्ति नहीं बनी जैसे अन्यों से. पर सदा उन्हें स्पृहा और हिंदी कविता में एक अनिवार्यता की तरह देखता रहा. वे पहचान सीरीज़ के कवि रहे. पहले संग्रह ‘खुद अपनी आंख से‘ ही उनके नैरेटिव को कविता में कुछ अनूठे ढंग से देखा पहचाना गया. वे कविता के नैरेटिव और गद्य को निरंतर अपने समय का संवाहक बनने देने के लिए उसे मॉंजते सँवारते रहे. पत्रकारिता, कविता, सिनेमा, कला, भाषा हर क्षेत्र में उनकी जानकारी इतनी विदग्ध और हतप्रभ कर देने वाली होती कि आप लाख प्रकाश मनु के अनुशीलन के अन्य पहलुओं से असहमत हों पर खरे को दुर्धर्ष मेधा का कवि कहने पर शायद ही असहमत हों. हालांकि कविता में अति मेधा का ज्यादा हाथ नहीं होता. औसत प्रतिभाएं भी कविता में कमाल करती हैं और खूब करती हैं.
‘काल और अवधि के दरमियान‘ की कविताओं को पढते हुए लगा था कविता में वे जितने प्रोजैक हैं उतनी ही उनकी कविता अपनी तर्काश्रयिता से संपन्न. वे दुरूह से दुरूह विषय पर और आसान से आसान विषय पर कविता को जैसे कालचक्र की तरह घुमाते हैं. उनके अर्जित और उपचित ज्ञान का अधिकांश उनकी कविताओं में रंग-रोगन की तरह उतरता है तो यह अस्वाभाविक नहीं. उनकी आलोचना कभी कभी इतनी तीखी होती है जितनी कि कभी कभी किसी किसी कवि को शिखरत्व से मंडित कर देने में कुशल. उनके ब्लर्ब कवियों के लिए प्रमाणपत्र की तरह हैं जिनके लिए भी वे कभी लिखे गए हों. कविता में वे इतने चयनधर्मी रहे हैं कि कोई औसत से नीचे का कवि उनसे आंखें नहीं मिला सकता.
भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार पाए कितने ही कवियों की धज्जियां उड़ाती उनकी आलोचना आज भी कहीं किसी वेबसाइट में विद्यमान होगी. हो सकता है, उसमें किंचित मात्सर्य का सहकार भी हो. पर अपने कहे पर विष्णु खरे ने शायद ही कभी खेद जताया हो. पर इसका अर्थ यही नहीं कि उनके अंत:करण का आयतन कहीं संक्षिप्त है बल्कि वह इतना विश्वासी, अडिग और प्रशस्त रहा है कि वह पीछे मुड़ कर देखना ही नहीं चाहता. कविता में या जीवन में या समाज में वे कभी संशोधनवादी नहीं रहे. उन्हें साधना मुश्किल है. उनकी साधना जटिल है. उनकी कविता को साधना और समझना और भी जटिल . क्योंकि अनेक ग्रंथिल परिस्थितियां उनकी कविता के निर्माण में काम करती दीखती हैं.
विष्णु खरे के आखिरी संग्रह ‘और अन्य कविताएं‘ पर आलैन कुर्दी का चित्र है– हमारे अंत:करण को झकझोर देने वाला कारुणिक चित्र. इस कारुणिक प्रसंग पर अनेक कवियों ने कविताएं लिखीं कि करुणा की बाढ़ एकाएक सोश्यल मीडिया पर छा गयी थी. खरे ने भी इस पर आलैनशीर्षक से बहुत मार्मिक कविता लिखी है. आलेन अपने परिवार के साथ ग्रीस जाने के लिए एक नौका पर सवार था कि अपनी मां, भाई और कई लोगों के साथ डूब जाने से उसकी मौत हो गई. लहरों के साथ बह कर तट पर पहुंचे आलन के शव की तस्वीर ने पूरी दुनिया में हंगामा मचा दिया. इस दुर्घटना में आलेन के पिता अब्दुल्ला कुर्दी बच गए. जिन्होंने कनाडा का शरण देने का प्रस्ताव ठुकरा दिया था. खरे की इस कविता की आखिरी पंक्तियां देखें ::
आ तेरे जूतों से रेत निकाल दूँ
चाहे तो देख ले एक बार पलट कर इस साहिल उस दूर जाते उफ़क को
जहां हम फिर नही लौटेंगे
चल हमारा इंतिजार कर रहा है अब इसी खा़क का दामन.
(और अन्य कविताएं–आलेन, पृष्ठ 38)
(और अन्य कविताएं–आलेन, पृष्ठ 38)
(छह)
खरे का काव्य संसार अप्रत्याशित का निर्वचन है. कवि मन जिधर बहक जाए, वहीं कविता हो जाए. निरंकुशा: हि कवय: जिसने कहा होगा, सच ही कहा होगा. विष्णु खरे ऐसे ही निरंकुश कवियों में हैं. उनके यहां कविता के अप्रतिम अलक्षित विषय हैं, कभी कभी दुनिया जहान की चीजों को कविता में निमज्जित करते हुए हमें अखरते भी हैं पर हम उनसे उम्मीदें नहीं छोड़ते. यहां दज्जाल ; जा, और हम्मामबादगर्द की ख़बर ला, संकेत, तत्र तत्र कृतमस्तकांजलि, दम्यत् जैसी कविताएं हैं जिनके लिए खरे से कुछ समझने की दरकार भी हो सकती है.पर अब तो वे हैं नहीं किससे पूछें. ऐसी भी कुछ कविताएं हैं जहॉं लगता है कि वे अपनी स्थानीयता को बचाए हुए हैं : ‘और नाज़ मैं किस पर करूँ‘, सरोज स्मृति, जैसी कुछ कविताओं में. प्रत्यागमनमें वे पुरा परंपरा में लौट कर कुछ नया बीनते बटोरते हैं तो ‘सुंदरता‘ और ‘कल्पनातीत‘ में वे तितलियों और बकरियों के दृश्य का बखान भी करते हैं. —-और दम्यत् तो एक ऐसे शख्स का रेखाचित्र है जो डायबिटीज से ग्रस्त होश खोकर कोमा में चला जाता है और उसकी अस्फुट सी अश्लील-सी बुदबुदाहट उस पूरी मन:स्थिति की यायावरी में तब्दील हो जाती है. इस कविता को लिखना भी एक अदम्य पीड़ा से गुज़रना है.
कविता अक्सर अपनी स्थूलता के बावजूद अभिप्रायों और प्रतीतियों में निवास करती है. वह सामाजिक विडंबनाओं के अतिरेक को पढती है. वह कोई उपदेश नही देती न किसी नैतिक संदेश का प्रतिकथन बन जाना चाहती है क्येांकि ऐसा करना कविता का लक्ष्य नही है खास कर आधुनिक कविताओं का. पर कविता की पूरी संरचना के पीछे उस विचार की छाया जरूर पकड़ में आती है जिसके वशीभूत होकर कवि कोई कविता लिखता है. यहां बढ़ती ऊँचाई जैसी कविता इसका प्रमाण है. दशहरे पर जलाए जाते रावण को लेकर हमारे मन में तमाम कल्पनाएं उठती हैं. वह अब इस त्योहार का एक शोभाधायक अंग बन चुका है. पुतले बनाने वालों के व्यापार का एक शानदार प्रतिफल. हर बार पहले से ज्यादा ऊॅचे रावण के पुतले बनाने की मांग और ख्वाहिश इस व्यापार को जिंदा रखे हुए है और लोगों की कामना में उसकी भव्यता का अपना खाका है. न व्यक्ति के भीतर के रावण को जलना है न बुराइयों का उपसंहार होना है पर रावण की ऊंचाई बढती रहे, यह लालसा कभी खत्म नही होती. ऐसे में कुंवर नारायण की एक कविता याद आती है, इस बार लौटा तो मनुष्यतर लौटूँगा. कृतज्ञतर लौटूँगा. पर यहां रावण को शिखरत्व देने वाला समाज है उसे जला कर प्रायोजित दहन पर खुश होने वाला समाज है. और रावण है कि उसका अपना एजेंडा है :
वह जानता है उसे आज फिर
अपना मूक अभिनय करना है
पाप पर पुण्य की विजय का
फिर और यथार्थता से जल जाना है
अगले वर्ष फिर अधिक उत्तुग भव्यतर बन कर
लौटने से पहले . (और अन्य कविताएं- बढ़ती ऊँचाई, पृष्ठ, 81)
इसी तरह संकल्प कविता समाज की नासमझी और मूर्खताओं का सबल प्रत्याख्यान है कि पढ कर भले अतियथार्थता का बोध हो पर कविता के भीतर से उठते निर्वचन से आप मुँह नहीं मोड़ सकते. इस बहुरूपिये समाज की ऐसी स्कैनिंग कि कहना ही क्या. कबीर ने तभी आजिज आकर कहा होगा, मैं केहिं समझावहुँ ये सब जग अंधा. कवि वही जो केवल सुभाषित का गान न करे समाज के सड़े गले अंश पर भी आघात करे भले ही वह गाते गाते कबीर की तरह अकेला हो जाए. इस कविता के अंश देखें–
सुअरों के सामने उसने बिखेरा सोना
गर्दभों के आगे परोसे पुरोडाश सहित छप्पन व्यंजन
चटाया श्वानों को हविष्य का दोना
कौओं उलूकों को वह अपूप देता था अपनी हथेली पर
उसने मधुपर्क-चषक भर-भर कर
किया शवभक्षियों का रसरंजन
सभी बहुरूपये थे सो उसने भी वही किया तय
जन्मांधों के समक्ष करता वह मूक अभिनय
बधिरों की सभा में वह प्राय: गाता विभास
पंगुओं के सम्मुख बहुत नाचा वह सविनय
किए जिह्वाहीन विकलमस्तिष्कों को संकेत भाषा सिखाने के प्रयास
केंचुओं से करवाया उसने सूर्य नमस्कार का अभ्यास
बृहन्नलाओं में बॉंटा शुद्ध शिलाजीत ला-लाकर
रोया वह जन अरण्यों में जाकर
स्वयं को देखा जब भी उसने किए ऐस जतन
उसे ही मुँह चिढाता था उसका दर्पन
अंदर झॉंकने के लिए तब उसने झुका ली गर्दन
वहां कृतसंकल्प खड़े थे कुछ व्यग्र निर्मम जन
(और अन्य कविताएं–संकल्प, पृष्ठ 98)
(और अन्य कविताएं–संकल्प, पृष्ठ 98)
विष्णु खरे का कवि-जीवन एक मिजाज की अनवरत यात्रा है. इतनी तरह की कविताएं उनके यहां हैं और ऐसे ऐसे वृत्तांत जो किसी भी वृत्तांतप्रिय कवि से तुलनीय नहीं . उनका गद्य वृत्तांतप्रियता में विश्रांति लेने वाला गद्य है. ऐसा गद्य जिसे पढ़ते हुए वास्तव में कविताओं के यथार्थ की भीड़ से कंधे रगड़ते चलने की की कुंवर नारायण जी की बात पुन: पुन: प्रमाणित होती हो. विष्णु खरे के कविता संसार की भाषा वक्तव्यप्रधान गद्य की भाषा जैसा ही है. बीच बीच में अंग्रेजी के शब्द भी बहुतायत में आते हैं. तत्समनिष्ठता उनकी कविता की पहचान नहीं है पर कुछ अप्रचलित से लगते पद उनके यहां जरूर आते हैं जिससे उनकी दुर्बोधता का अहसास होता है. जैसे दम्यत्, प्रत्यागमन, दज्जाल, तत्र तत्र कृत्मस्तकांजलि, जा, और हम्मादबादगर्द की खबर ला, ला दोल्वे वीता, अग्निरथोवाच आदि.
सारांश यह कि जिस तरह विष्णु खरे का गद्य एक बहुपठित धाकड़ आदमी का गद्य लगता है चाहे वह साहितय के मूल्यांकन के निमित्त लिखा गया हो या किसी अग्रलेख के रुप में, उसी तरह उनकी कविताएं एक ज्ञानी कवि(लर्नेड पोएट) की कविताएं लगती हैं. ऊपर से देखने में उनका पाठ इतना प्रोजैक लगता है जैसे किसी असिंचित संवेदना की काव्यभूमि पर हम आ गए हों—-पर उनके बारीक अन्वय एवं पाठ के उपरांत उनके नैरेटिव से कविता की रोशनी भी दीख पड़ती है. एक बड़े काव्यबोध और मुक्तिबोध के ज्ञानात्मक संवेदन एवं संवेदनात्मक ज्ञान के पथ पर चलते हुए विष्णु खरे एक बड़े कवि का रुतबा तो हासिल कर लेते हैं किन्तु उनकी कविता पर उतना ध्यान नहीं दिया गया जितना दिया जाना चाहिए था. लिहाजा, उन्हें वह लोकप्रियता व स्वीकृति नहीं मिल सकी जो कुंवर नारायण, केदारनाथ सिंह, विनोद कुमार शुक्ल, लीलाधर जगूड़ी, चंद्रकांत देवताले, मंगलेश डबराल, राजेश जोशी, अरुण कमल व ज्ञानेन्द्रपति जैसे कवियों को सहज ही प्राप्त है.
सारांश यह कि जिस तरह विष्णु खरे का गद्य एक बहुपठित धाकड़ आदमी का गद्य लगता है चाहे वह साहितय के मूल्यांकन के निमित्त लिखा गया हो या किसी अग्रलेख के रुप में, उसी तरह उनकी कविताएं एक ज्ञानी कवि(लर्नेड पोएट) की कविताएं लगती हैं. ऊपर से देखने में उनका पाठ इतना प्रोजैक लगता है जैसे किसी असिंचित संवेदना की काव्यभूमि पर हम आ गए हों—-पर उनके बारीक अन्वय एवं पाठ के उपरांत उनके नैरेटिव से कविता की रोशनी भी दीख पड़ती है. एक बड़े काव्यबोध और मुक्तिबोध के ज्ञानात्मक संवेदन एवं संवेदनात्मक ज्ञान के पथ पर चलते हुए विष्णु खरे एक बड़े कवि का रुतबा तो हासिल कर लेते हैं किन्तु उनकी कविता पर उतना ध्यान नहीं दिया गया जितना दिया जाना चाहिए था. लिहाजा, उन्हें वह लोकप्रियता व स्वीकृति नहीं मिल सकी जो कुंवर नारायण, केदारनाथ सिंह, विनोद कुमार शुक्ल, लीलाधर जगूड़ी, चंद्रकांत देवताले, मंगलेश डबराल, राजेश जोशी, अरुण कमल व ज्ञानेन्द्रपति जैसे कवियों को सहज ही प्राप्त है.
कहना न होगा कि विष्णु खरे की कविता मुक्तिबोध, नागार्जुन,त्रिलोचन, धूमिल, सर्वेश्वर व रघुवीर सहाय की तरह ही बेबाक रही है. न वे अपने राजनीतिक रुझान को छिपाते हैं न अपने कवित्व को किसी का यशोगान बनने के लिए पथ प्रशस्त करते हैं. आजादी के बाद नेहरु के सपनों के भारत की कवियों ने धज्जियां उड़ाई हैं तो आजादी के रंगों को थके हुए रंगों का नाम देकर धूमिल ने आजादी पर ही सवालिया निशान लगा दिया था. मोहभंग के इन स्वरों को श्रीकांत वर्मा व कैलाश वाजपेयी सघन बनाते हैं तो लोकतांत्रिक ताने बाने के छिन्न भिन्न होने की शिनाख्त रघुवीर सहाय अपनी कविताओं में करते हैं. नागार्जुन की तरह विष्णु खरे साठोत्तर व समकालीन राजनीतिक के विचलनों को खोल कर रख देने में बेबाकी बरतते हैं और एक ऐसे लोकतांत्रिक समाज की रचना के लिए व्यग्र दिखते हैं जो साठोत्तर दु:स्वप्नों, अयोध्योपरांत सांप्रदायिक शक्ल लेते हुए भारत के बावजूद शिथिल और विचारविवश नहीं हुई है.
उनकी कविताओं की न्यायिक दीर्घा में गरीबों, मजलूमों की सुनवाई होती है तो राजनीतिक सामाजिक कुटिलताओं की हामी शक्तियों की लानत मलामत भी कम नही होती जो विष्णु खरे की काव्यात्मक दृढता का परिचायक है.
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डॉ.ओम निश्चल
उनकी कविताओं की न्यायिक दीर्घा में गरीबों, मजलूमों की सुनवाई होती है तो राजनीतिक सामाजिक कुटिलताओं की हामी शक्तियों की लानत मलामत भी कम नही होती जो विष्णु खरे की काव्यात्मक दृढता का परिचायक है.
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डॉ.ओम निश्चल
द्वारा डॉ गायत्री शुक्ल,
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