लड़कियों के बाप
|
लड़कियों के बाप
विष्णु खरे
वे अक्सर वक्त के कुछ बाद पहुँचते हैं
हड़बड़ाए हुए बदहवास पसीने-पसीने
साइकिल या रिक्शों से
अपनी बेटियों और उनके टाइपराइटरों के साथ
करीब-करीब गिरते हुए उतरते हुए
जो साइकिल से आते हैं वे गेट से बहुत पहले ही पैदल आते हैं
उनकी उम्र पचपन से साठ के बीच
उनकी लड़कियों की उम्र अठारह से पच्चीस के बीच
और टाइपराइटरों की उम्र उनके लिए दिए गए किराए के अनुपात में
क्लर्क-टाइपिस्ट की जगह के लिए टैस्ट और इन्टरव्यू हैं
सादा घरेलू और बेकार लड़कियों के बाप
अपनी बच्चियों और टाइपराइटरों के साथ पहुँच रहे हैं
लड़कियाँ जो हर इम्तहान में किसी तरह पास हो पाई हैं
दुबली-पतली बड़ी मुश्किल से कोई जवाब दे पाने वालीं
अंग्रेजी को अपने-अपने ढंग से ग़लत बोलनेवालीं
किसी के भी चेहरे पर सुख नहीं
हर एक के सीने सपाट
कपड़ों पर दाम और फ़ैशन की चमक नहीं
धूल से सने हुए दुबले चिड़ियों जैसे साँवले पंजों पर पुरानी चप्पलें
इम्तहान की जगह तक बड़े टाइपराइटर मैली चादरों में बँधे
उठाकर ले जाते हैं बाप
लड़कियाँ अगर दबे स्वर में मदद करने को कहती भी हैं
तो आज के विशेष दिन और मौके पर उपयुक्त प्रेमभरी झिड़की से मना कर देते हैं
ग्यारह किलो वज़न दूसरी मंज़िल तक पहुँचाते हुए हाँफते हुए
इम्तहान के हाल में वे ज़्यादा रुकना चाहते हैं
घबराना नहीं वगैरह कहते हुए लेकिन किसी भी जानकारी के लिए चौकन्ने
जब तक कि कोई चपरासी या बाबू
तंग आकर उन्हे झिड़के और बाहर कर दे
तिसपर भी वे उसे बार-बार हाथ जोड़ते हुए बाहर आते हैं
पता लगाने की कोशिश करते हुए कि डिक्टेशन कौन देगा
कौन जाँचेगा पर्चों को
फिर कौन बैठेगा इन्टरव्यू में
बड़े बाबुओं और अफ़सरों के पूरे नाम और पते पूछते हुए
कौन जानता है कोई बिरादरी का निकल आए
या दूर की ही जान-पहचान का
या अपने शहर या मुहल्ले का
उन्हें मालूम है ये चीज़ें कैसे होती हैं
मुमकिन है कि वे चाय पीने जाते हुए मुलाज़िमों के साथ हो लें
पैसे चुकाने का मौका ढूँढते हुए
अपनी बच्ची के लिए चाय और कोई खाने की चीज़ की तलाश के बहाने
उनके आधे अश्लील इशारों सुझावों और मज़ाकों को
सुना-अनसुना करते हुए नासमझ दोस्ताने में हँसते हुए
इस दफ़्तर में लगे हुए या मुल्क के बाहर बसे हुए
अपने बड़े रिश्तेदारों का ज़िक्र करते हुए
वे हर अंदर आने वाली लड़की से वादा लेंगे
कि वह लौटकर अपनी सब बहनों को बताएगी कि क्या पूछते हैं
और उसके बाहर आने पर उसे घेर लेंगे
और उसकी उदासी से थोड़े ख़ुश और थोड़े दुखी होकर उसे ढाढस बँधाएँगे
अपनी-अपनी चुप और पसीने-पसीने निकलती लड़की को
उसकी अस्थायी सहेलियों और उनके पिताओं के सवालों के बाद
कुछ दूर ले जाकर तसल्ली देंगे
तू फिकर मत कर बेटा बहुत मेहनत की है तूने इस बार
भगवान करेगा तो तेरा ही हो जाएगा वगैरह कहते हुए
और लड़कियाँ सिर नीचा किए हुए उनसे कहती हुईं पापा अब चलो
लेकिन आख़िरी लड़की के निकल जाने तक
और उसके बाद भी
जब इन्टरव्यू लेने वाले अफसर अंग्रेजी में मज़ाक़ करते हुए
बाथरूम से लौटकर अपने अपने कमरों में जा चुके होते हैं
तब तक वे खड़े रहते हैं
जैसा भी होगा रिज़ल्ट बाद में घर भिजवा दिया जाएगा
बता दिए जाने के बावजूद
किसी ऐसे आदमी की उम्मीद करते हुए जो सिर्फ़ एक इशारा ही दे दे
आफ़िस फिर आफ़िस की तरह काम करने लगता है
फिर भी यक़ीन न करते हुए मुड़ मुड़कर पीछे देखते हुए
वे उतरते हैं भारी टाइपराइटर और मन के साथ
जो आए थे रिक्शों पर वे जाते हैं दूर तक
फिर से रिक्शे की तलाश में
बीच-बीच में चादर में बँधे टाइपराइटर को फ़ुटपाथ पर रखकर सुस्ताते हुए
ड्योढ़ा किराया माँगते हुए रिक्शेवाले और ज़माने के अंधेर पर बड़बड़ाते हुए
फिर अपनी लड़की का मुँह देखकर चुप होते हुए
जिनकी साइकिलें दफ्तर के स्टैंड पर हैं
वे बाँधते हैं टाइपराइटर कैरियर पर
स्टैंडवाला देर तक देखता रहता है नीची निगाह वाली लड़की को
जो पिता के साथ ठंडे पानी की मशीनवाले से पाँच पैसा गिलास पानी पीती है
और इमारत के अहाते से बाहर बैठती है साइकल पर सामने
दूर से वह अपने बाप की गोद में बैठी जाती हुई लगती है.
वर्णन का काव्य
|
विष्णु खरे की कविता के विषय में कुछ बद्धमूल धारणायें बन चुकी हैं. केवल इनको पृष्ठभूमि में रखकर उनकी कविताओं की मीमांसा हो तो कुछ नुकसान नहीं होगा पर इन्हें उनकी कविता का पिंजड़ा बनाने से अजब-ग़ज़ब भाष्य पैदा होंगे. पहली धारणा है कि खरे का काव्य भाव और कल्पना को अति गौण करके विवेक पर आधारित है और पाठक को उसे भावात्मक स्तर के बजाय बौद्धिक स्तर पर ग्रहण करना चाहिए. यह विचार नया नहीं है.
अंग्रेज़ी के ऑगस्टन युग (18वीं शताब्दी) में कविता में भाव और कल्पना पर नियंत्रण तथा विवेक पर बल दिया गया. (देखें अलेक्ज़ांडर पोप : ऐन एसे ऑन क्रिटिसिज़्म). इसके विरोध में अंग्रेज़ी रोमैंटिक आंदोलन का सूत्रपात हुआ. रोमैंटिक कवियों ने सिद्ध किया कि श्रेष्ठ कविता पोप के विधि-निषेधों के बाहर न केवल लिखी जा सकती है बल्कि बेहतर लिखी जा सकती है. बौद्धिक कविता काव्य का विकसित रूप नहीं है, न भाव और कल्पना की कविता पिछड़ी है. ऐतिहासिक रूप से क्रम उल्टा भी रहा है.
दूसरी धारणा यह है कि खरे का काव्य वर्णनात्मक है. वर्णनात्मक काव्य- परंपरा भी बहुत पुरानी है. 17 वीं शताब्दी के मध्य में वर्णनात्मक
कविता का आरंभ इतिवृत्तात्मक काव्य में रूपक तथा अन्य अलंकरणों की अधिकता के प्रतिक्रिया- स्वरूप हुआ. यह परंपरा समाप्त नहीं हुई. वर्ड्सवर्थ की ‘परफ़ेक्ट वुमन’ और एमिली डिकिंसन की ‘समर शॉवर’ इसके अच्छे उदाहरण हैं. हिंदी में निराला की ‘भिक्षुक’ और ‘वह तोड़ती पत्थर’ वर्णनात्मक कविता के उदाहरण हैं. यह भ्रम है कि वर्णनात्मक कविता में बिम्ब और रूपकादि होते ही नहीं हैं. इस तरह की कविता में जटिल बिम्बात्मकता और अलंकरण को दूर रखते हैं परंतु शाब्दिक बिम्ब तो होते ही हैं और उपमा या रूपक का सीमित प्रयोग भी होता है. जिस कविता पर विचार करने जा रहे हैं उसमें भी एक उपमा, एक रूपक और एक उत्प्रेक्षा का प्रयोग हुआ है.
तीसरा आग्रह यह है कि खरे का काव्य-‘परसोना’ या वाचक तटस्थ है, उसके भाव या विचार कविता में प्रकट नहीं होते. यह पूरी तरह सही नहीं है. ‘एक कम’ कविता पूरी तरह काव्य- परसोना के विचारों के विषय में है. ‘द्रौपदी के विषय में कृष्ण’ एक ‘ड्रमैटिक मोनोलॉग’ है जिसमें वाचक की तटस्थता असंभव है. परंतु जिस कविता की चर्चा हम करने जा रहे हैं उसमें वाचक तटस्थ प्रतीत होता है.
यह भूमिका इसलिए आवश्यक हुई कि कविता ‘लड़कियों के बाप’ की इस टीका में परम्परागत उपकरणों का काफी प्रयोग होगा. कोई यह आपत्ति न उठाये कि खरे की कविता के लिए ये उपकरण अनुपयुक्त हैं. काव्यशास्त्र स्वयं एक विकासशील अनुशासन है, अत: नई आलोचना और उसकी परवर्ती विचारधाराओं को भी ध्यान में रखना होगा.
‘लड़कियों के बाप’ कई छोटे शब्द-चित्रों से निर्मित एक वर्णना है जो अपने आप में पूर्ण है. इसके ऊपर कोई निश्चित अर्थ आरोपित करना अनावश्यक है. इसमें सामाज या व्यवस्था के बारे में कोई सिद्धांत खोजना भी व्यर्थ ही है. परंतु यह वर्णना पाठक की कल्पना को किस तरह उत्तेजित करती है और उसकी सामाजिक समझ को किस तरह विस्तार देती है इसकी जाँच करना फलप्रद होगा.
पहली आठ पंक्तियों में जिनका चित्र है वे निम्न मध्यवर्ग और निम्न वर्ग से आये लग रहे हैं. लड़की को नौकरी की परीक्षा दिलाने लाये हैं. देर से पहुंचे हैं इसकी हड़बड़ी है. देर से न पहुंचते तब भी शायद हड़बड़ी में रहते. परीक्षा के बारे में उत्कंठा है, माहौल में असहज हो रहे हैं या हड़बड़ी स्थायी भाव है. जो साइकिल से आये हैं वे ऑफ़िस के गेट के पहले ही उतरकर पैदल आते हैं. ऑफ़िस और ऑफ़िस वालों के प्रति पूर्ण संभ्रम का भाव है – उनके सामने सवारी से उतरना ठीक नहीं लगता. हम कल्पना कर सकते हैं कि ये वे ग़रीब पिता हैं जो अपने वर्ग में प्रगतिशील हैं, लड़की को पढ़ाया-लिखाया है और स्वावलंबी बनाना चाहते हैं. लेकिन यह भी स्पष्ट है कि वे लड़की को अकेले परीक्षा-भवन तक नहीं भेजते.
हम इन पिताओं के आय के एक ही कोष्ठक में होने का अनुमान करते हैं.साइकिल और रिक्शे से आने वालों की हैसियत में थोड़ा फ़र्क़ हो सकता है. बाद की पंक्तियों में आता है –
“और टाइपराइटरों की उम्र उनके लिएदिये गये किराये के अनुपात में”.
इससे भी लगता है कि यह वर्ग पूरी तरह अविभक्त या ‘अनडिफ़रेंशिएटेड’ नहीं है.
कवि कूँची के ब्रॉड स्ट्रोक लगाकर रंग भरने का बहुत सा काम पाठक के लिए छोड़ देता है. हम अपने अनुभव और कल्पना के आधार पर इन चरित्रों को, उनके घर-परिवार को, यहां तक कि उनकी शक्लों को कल्पित करते हैं और उनसे तादात्म्य स्थापित करते हैं. दो छोटे शब्द-चित्रों और कुछ शब्दों में कई पृष्ठों के गद्य का काम ले लिया. कुछ दिनों पहले एक टिप्पणी में मैंने कविता को शाब्दिक कंजूसी की कला कहा था. यहां यह कला पूरे निखार पर है. कथ्य के कितने आयाम चंद पंक्तियों में व्यक्त हुए हैं !
सात-आठ पंक्तियों में इम्तिहान देने आई लड़कियों का वर्णन है – सादा, घरेलू, दुबली-पतली, पढ़ाई-लिखाई में औसत या कम रही, ग़लत अंग्रेज़ी बोलने वाली, दब्बू आदि. फिर ये अनासक्त पंक्तियाँ जो अनासक्त होने के कारण और भी प्रभावोत्पादक हो गई हैं –
‘किसी के भी चेहरे पर सुख नहीं
हर एक के सीने सपाट
कपड़ों पर दाम और फ़ैशन की चमक नहीं
धूल से सने हुए दुबले चिड़ियों जैसे साँवले पंजों पर पुरानी चप्पलें’
इन पंक्तियों में एक भी पंक्ति ऐसी नहीं है जिसका एक ही अर्थ हो. ‘चेहरे पर सुख नहीं‘ का अर्थ केवल ग़रीबी, बेकारी, अभाव, अनिश्चय और उद्देश्यहीनता का दु:ख नहीं है, बल्कि जीवन में किसी भी उस चीज़ का अभाव है जो सुख का कारण बन सके. जो चीज़ें अच्छी दिखती हैं , जैसे शिक्षा, वे भी सुखद अनुभव नहीं रहीं – “हर इम्तहान में किसी तरह पास” होना, बस. ग़रीब की साधारण शैक्षणिक उपलब्धि वाली लड़की का जीवन उन छोटे सुखों से भी वंचित है जो उसे अपढ़ रहकर मिल जाते. इसी तरह सपाट सीना केवल कुपोषण का रूपक नहीं है, मध्यवर्गीय सुरुचि प्राप्त करने के अवसर का अभाव, उसे व्यवहार मे परिणत करने के लिए अर्थ का अभाव, इनके सबके पीछे जाकर अपने को सुंदर दिखाने का विचार भी न आना आदि कई अर्थ गुंफित हैं. अंतिम दो पंक्तियों में चिड़िया के पैरों से लड़कियों के पांवों की तुलना भी ऐसी ही है. ‘सांवले पंजे’ एक रूपक है – परवाह न किये जाने का या परवाह करने की असमर्थता का.
वरना यह तो संभव नहीं लगता कि सभी लड़कियां सांवली हों.
कहानी (यह कहानी ही है) का असली घटनाक्रम अब आरंभ होता है. इसके 5 पद हैं –
1.लड़की को परीक्षा कक्ष तक पहुंचाना, 2. ऑफ़िस में सोर्स-शिफ़ारिश की जुगत ढूंढ़ना 3. साक्षात्कार में सहायता करने की चेष्टा,4. परिणाम पता करने की चेष्टा और 5. वापस लौटना.
इस समस्त घटनाक्रम के नायक पिता हैं. परीक्षा के बाद तीन संक्षिप्त शब्दों में वापस चलने के अनुरोध के अलावा लड़की चुप रहती है. मुद्रा या हरकत से भी पिता पर कोई भाव ज़ाहिर नहीं करती. पिता उसे टाइपराइटर सहित तीसरी मंज़िल पर स्थित कक्ष तक ले जाते हैं हालांकि लड़की आसानी से मशीन का बोझ उठा सकती है. कक्ष में पहुंचकर लड़की का उत्साह बढ़ाते हैं (और कदाचित् पहले से अधिक नर्वस कर जाते हैं); लेकिन असली उद्देश्य यह अंदाज़ा लगाना है कि परीक्षा के दौरान कोई मदद हो सकती है क्या. अंत में बाबू और चपरासी द्वारा भगाये जाते हैं. लड़की उनके व्यवहार पर लज्जित हुई होगी यह ख़्याल भी उनके दिमाग़ में नहीं आता.
दूसरे चरण में पिता पता करने की कोशिश करते हैं कि उनकी जाति या उनके इलाक़े का कोई है क्या जिससे मदद मिलने की उम्मीद हो. कोई पिता चाय पीने जाते हुए कुछ बाबुओं के पीछे लग जाते हैं और तमाम झूठ बोलकर उनसे संवाद बनाने का प्रयास करते हैं. बाबू उनकी पुत्री को लेकर कुछ अनुचित कहते हैं पर वे न सुनने-समझने का बहाना करते हैं. फिर भी बाबू लोग घास नहीं डालते.
साक्षात्कार के समय वे हर लड़की से आग्रह करते हैं कि उससे जो पूछा जाय वह अन्य लड़कियों से साझा करे. कोई लड़की साक्षात्कार खराब करके आती है तो वे कुछ दु:ख- प्रकाश करते हैं पर अंदर से ख़ुश भी होते हैं. जब उनकी लड़की बाहर आती है तब लगता है वह भी कुछ अच्छा करके नहीं आई है.
ऑफिस द्वारा सूचित किया जाता है कि परिणाम बाद में भेज दिया जायेगा.फिर भी देर तक पिता लोग इस चक्कर में मडराते रहते हैं कि शायद कुछ इशारा मिल जाय.
हारकर वापसी की तैयारी होती है. रिक्शा खोजने दूर तक जाना पड़ता है,दाम भी ड्योढ़े देने पड़ते हैं. साइकिल वाले कन्या को अपने सामने बिठाकर चलते हैं जिस पर वाचक की यह उत्प्रेक्षा है –
“दूर से वह अपने बाप की गोद में
बैठी हुई लगती है”
काव्य-विषय (Themes)
सबसे महत्त्वपूर्ण थीम अंतिम पंक्तियों में प्राय: स्पष्ट रूप में व्यक्त हुई है. पढ़ी-लिखी होकर भी लड़की का पिता से संबंध आश्रिता का है. नौकरी के इम्तहान में बैठना एक ऐसा काम है जिसमें उसे पूर्ण रूप से ख़ुदमुख़्तार होना चाहिए था पर बाप की भूमिका प्रबल मालूम पड़ रही है. शिक्षा बाप- बेटी के पारस्परिक संबंध में सत्ता या स्वायत्तता का हस्तांतर लड़की के पक्ष में नहीं कर पाई है. बल्कि शिक्षा ने लड़की को अपनी शक्तिहीनता का बोध कराकर उसका सुख और नष्ट ही किया है. परंतु यह स्पष्ट कर देना उचित होगा कि कविता में एक पंक्ति भी ‘जजमेंटल’ नहीं है. कवि ने वस्तुसत्य के चित्र प्रस्तुत किये हैं; किसी पात्र को दोषी नहीं ठहराया.
दूसरी थीम साधारण व्यक्ति की शक्तिहीनता है. व्यवस्था उसके लिए एक रहस्यमय और आतंक पैदा करने वाली चीज़ है. कविता में स्पष्ट नहीं है नौकरी देने वाला कार्यालय सरकारी है या निजी. इतना स्पष्ट है कि कविता में कोई संकेत नहीं है कि परीक्षा में किसी प्रकार की अनियमितता हुई है या हो सकती है. परंतु सरकारी हो या निजी, व्यवस्था की संघटनात्मक संस्कृति में सामान्य जन का कोई स्थान नहीं है. इसलिए उसका व्यवस्था के प्रति दृष्टिकोण अविश्वास, भय और संशय से निर्धारित होता है.
तीसरी थीम गौण है फिर भी उल्लेखनीय है. लोगों ने अनियमितता, भ्रष्टाचार और अन्याय को जिस सहजता से सामान्य और स्वाभाविक मान लिया है वह चिंतनीय है. पिता लोग स्वयं अपनी पुत्रियों को अनुचित लाभ मिल जाय इस प्रयास मैं सारा समय बिताते हैं.
कथ्य
कविता में जो कथा कही गई है उसका अंत औपचारिक अंत के पहले ही इन शब्दों में हो जाता है –
‘तू फिकर मत कर बेटा बहुत मेहनत की है तूने इस बार
भगवान करेगा तो तेरा ही हो जाएगा वगैरह कहते हुए
और लड़कियाँ सिर नीचा किए हुए उनसे कहती हुईं पापा अब चलो’
‘इस बार’ से लगता है लड़की पहले इस तरह की परीक्षाओं में असफल रही है. आज पिता की बातें उसे बल नहीं दे रही हैं, बल्कि और अवसादग्रस्त कर रही हैं. पिता की बात काटकर वह कहती है, “पापा अब चलो”. इन शब्दों में आज के परीक्षाफल के लिए निराशा, पिता के खोखले दिलासे के प्रति झुंझलाहट और अपनी परिस्थितियों से आजिज़ी एक साथ व्यक्त हुए हैं.
यह निम्नवर्गीय बेटियों और उनके बापों की ट्रैजिक कथा है जो कवि की भावशून्य कथन-शैली के ‘कंट्रास्ट’ द्वारा और गहन बन गई है. यह एक ग़रीब परंतु उच्चाकांक्षी वर्ग है जिसकी लड़कियां अपनी स्थिति को बदलने का प्रयास करती हैं. स्कूल या कॉलेज की शिक्षा में उनकी उपलब्धि औसत या कम है. फिर भी शिक्षा एक परिवर्तन का संकेत है. परंतु उनके परिवेश में कोई अंतर नहीं आया. पिता के साथ उनका संबंध ‘डिपेंडेंसी’ का है. सामाजिक रूप से वे अकुशल हैं –
‘ …बड़ी मुश्किल से कोईजवाब दे पाने वाली ’.
वे ग़रीब हैं और दिखती हैं. नौकरी के इंटरव्यू में उनके पिछड़े ढंग के पहरावे और सामाजिक कौशल की कमी का प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है. पिता का इतना रक्षणशील होना उन्हें सीमित करता है. पर लड़की की तरह पिता भी ‘विक्टिम’ है. न उसकी हैसियत है कि वह अपनी लड़की को स्वस्थ, पुष्ट, सुपरिहित, आकर्षक इत्यादि बना सके न उसमें इतनी वैचारिक सामर्थ्य है कि अपने आपको ही बदलना चाहे. जिस दुनिया में उसकी लड़की को प्रवेश चाहिए वह प्रतिकूल ही नहीं वैरपूर्ण है. यह ट्रेजेडी एक समूचे वर्ग की लड़कियों और उनके परिवारों की ट्रेजेडी है.
इस कथा में पिता थोड़ा हास्योत्पादक चरित्र लगता है. वह स्पष्टतः इतना जानकार या चतुर नहीं है जितना वह अपने आप को समझता है. वह मूर्खतापूर्ण हरकतें करता है और दूसरे लोगों की प्रतिक्रिया से यह नहीं समझ पाता कि वह ऐसा कर रहा है. लड़की की राह में वह अनजाने बाधा भी बन रहा है. परंतु वह अपने व्यवहार की अनुपयुक्तता से पूरा बेख़बर है. उसके इरादे लड़की के लिए असंदिग्ध रूप से अच्छे हैं. बस उनका असर उल्टा होता है. यह विडंबना इस कथा के केंद्र में है.
कविता की वैकल्पिक व्याख्यायें संभव हैं– कि वह पितृसत्ता को निशाना बनाती है, व्यवस्था की एक वर्ग के प्रति ‘होस्टिलिटी’ को रेखांकित करती है, वर्ग-चेतना के अभाव में अलग-अलग भयभीत निम्नवर्गीयों की कथा कहती है, आदि. मेरे विचार से कार्य-कारण-भित्तिक ऐतिहासिक, सामाजिक और अर्थनीतिक विश्लेषण का आधार कविता के पाठ से नहीं बनता.
शिव किशोर तिवारी (१६ अप्रैल १९४७) २००७ में भारतीय प्रशासनिक सेवा से निवृत्त.हिंदी, असमिया, बंगला, संस्कृत, अंग्रेजी, सिलहटी और भोजपुरी आदि भाषाओँ से अनुवाद और लेखन.tewarisk@yahoo.com |