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समालोचन

Home » रेत में भी रेत का फूल खिलता है: कुमार अम्‍बुज

रेत में भी रेत का फूल खिलता है: कुमार अम्‍बुज

1964 की हिरोशी तेशिगहारा (Hiroshi Teshigahara) द्वारा निर्देशित जापानी फ़िल्म ‘वुमन इन द ड्यून्स’ को कई प्रतिष्ठित पुरस्कार मिले हैं. विश्व सिनेमा से कुमार अम्बुज की इस श्रृंखला का यह आलेख इसी फ़िल्म के समानांतर चलता हुआ अपने अर्थ तक पहुंचता है. क़ैद से बाहर नहीं निकल सकते तो क़ैद को ही बेहतर बनाओ, जैसे आदम ने स्वर्ग से बहिष्कृत होकर धरती को अपने रहने लायक बनाया था. कवि ने अपनी भाषा के फूल भी यहाँ बिखेर रखे हैं. प्रस्तुत है.

by arun dev
March 13, 2023
in फ़िल्म
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रेत में भी रेत का फूल खिलता है: कुमार अम्‍बुज
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रेत में भी रेत का फूल खिलता है

कुमार अम्‍बुज

मनुष्‍य को जीवन भर सबसे बड़ा भय यह सताता है कि कहीं कोई उसे धोखा न दे दे. इसी डर  में आदमी का जीवन बीतता है. मित्र से, शत्रु से, क़रीबी से, अपरिचित से, सभी से यह डर बना रहता है. अमीर, निर्धन, कमज़ोर, बलशाली, कोई इससे अछूता नहीं. सत्ताएँ और सभ्यताएँ भी इसी भय से ग्रस्त रहती आईं हैं. इसी आशंका में वे जाग्रत और व्यग्र बनी रहती हैं. जैसे सारी तरक्‍़क़ी़, विकास और उपलब्धि किसी के साथ छल करने पर निर्भर है. धोखा करनेवाला भी भयभीत बना रहता है कि कहीं कोई और उसके साथ वैसा धोखा न कर दे, जैसा उसने किया. मानो धोखा देना और धोखे से बचना जीवन है. इसमें जो पारंगत होगा, सर्वोपयुक्‍त होगा. वही बचा रहेगा. जो सहज विश्वासी होगा, उसके साथ छल होगा. कोई शक्ति उसे नहीं बचा सकती.

यह तुम जो रेत की खदान में अपनी सहमति से उतर रहे हो, तुम यहाँ फँसने जा रहे हो.  तुम धोखे को समझ नहीं सके. तुम  कीटविज्ञानी हो, अन्वेषक और आविष्कारक हो लेकिन मनुष्य के धोखा देने की सहज प्रकृति को समझने में असमर्थ. इस मरुभूमि में तुम अपने अध्ययन को विस्तृत करने आए थे, अब यहाँ इस ढूह से रेत के पाताल में उतरते हुए अपहृत हो रहे हो. तुम सोच रहे हो कि एक रात का आश्रय पाकर  अगली सुबह अपने शहर चले जाओगे, जहाँ तुम्हारा घर-परिवार, नौकरी, संस्थान और दोस्त हैं. लेकिन वह सुबह कभी नहीं आएगी. यह जीवन है, यहाँ हर क़दम पर धोखा है. हर क़दम पर बारूद. सँभलकर रहो,  यहाँ रेत है.

रेत में चलना, रेत की घाटियों को पार करना मुश्किल है. पाँव और हृदय एक साथ रेत में धँसते हैं. तुम्‍हें लगता है कि बस, एक रात की बात है. इस रेतीली भूमि पर एक रात का डेरा है. सोचते हो कि सुबह की बस तुम्हें वापस अपने शहर ले जाएगी. आज की एक रात बिताने के लिए इस रेत की खदान में उतरो. ऊपर मत देखो, आँखों में रेत भर जाएगी. यों भी नीचे रेत तुम्‍हारा इंतज़ार कर रही है. अब तुम अपने पंजों से, उँगलियों के पोरों के बीच फँसी रेत झाड़ लो. आगे का सफ़र कठिनतर है. कहने को तुम एक घर में आए हो लेकिन दरअसल तुम रेत के रसातल में आ चुके हो. संतोष करो कि यहाँ तुम एकदम अकेले नहीं हो. एक स्‍त्री यहाँ पहले से है. रेत उसका जीवन है. रेत का टिब्‍बा उसका घर है. वह जानती है कि तुम उसके स्थायी साथी की तरह आ गए हो. हालाँकि तुम ख़ुद को अतिथि मान रहे हो. यही मायाजाल है. रस्सी से बुने जाल को, धागों से बुने जाल को काटा जा सकता है, माया से बुने जाल को नहीं.
माया जो तुम्हें अपने जाल का हिस्सा बना लेती है.

(दो)

‘Woman in the Dunes’ फ़िल्म का एक दृश्य

रेत की स्‍त्री को पता है तुम भूखे हो. लो, खाना खाओ. छत से रेत झर रही है. यह छाता इसलिए तान दिया है कि भोजन में रेत न गिरे. छाता यहाँ पानी की नहीं, रेत की बारिश से कुछ हद तक बचा सकता है. तुम विशेषज्ञ हो, तुम समझ सकते हो कि कीड़ों की हलचल से भी रेत झर सकती है. जलहीन हर चीज़ एक दिन रेत हो जाती है. आदमी भी. हर चीज़ में से एक दिन बुरादा झरने लगता है. लकड़ी हो या लोहा. पत्थर या कोयला. यहाँ रेत के  जीवन में तुम्हारा स्वागत है. अभी तुम भोजन करो. कुछ नींद ले लो. काम कल से करना होगा.

कैसा काम? तुम चकित हो रहे हो लेकिन समझ नहीं पा रहे हो कि तुम यहाँ क़ैदी हो चुके हो. रस्‍सी की वह सीढ़ी हटा ली गई है, जिसके सहारे तुम्हें यहाँ उतारा गया था. ख़ूबसूरत धोखा अपनी सहजता के कारण बहुत देर तक धोखे जैसा नहीं लगता. यहाँ ज्‍़यादातर सब कुछ रेत से ही साफ़ करना होता है. तुम अपना दिमाग़ भी रेत से साफ़ कर लो. रेत की कोई कमी नहीं. रेत यहाँ झरने की तरह गिरती है. कई बार जलप्रपात की तरह. एक रेतप्रपात. सब कुछ को समोता हुआ. लीलता हुआ. अपने में डुबोता. रेत की बाढ़. जलप्रलय नहीं. रेतप्रलय.

चौंको मत. यहाँ किसी और चीज़ की आवाज़ नहीं. और किसी का खटका नहीं. जो है, जैसी है, जहाँ भी है, सिर्फ़ रेत की आवाज़ है. रेत के सिवाय कुछ नहीं. यहाँ आदमी भी धीरे-धीरे रेत का हो जाता है. रात घिर आई है. मैं लैम्‍प जलाकर रात की रेत के घर में रोशनी करती हूँ. यह पहला दिन है, तुम विश्रााम कर लो. मुझे तो रात भर रेत निकालना है. यही आजीविका है. मैं रेत खोदूँगी और ऊपर गाँव वालों के लिए दूँगी. एक अकेली औरत के लिए यह कितना कठिन काम रहा है. तुम आए तो अब दो जन हो गए हैं. कुछ मदद होगी. रात्रि में रेत नम हो जाती है, खुदाई आसान होती है.

तुम्‍हें अंदाज़ा लग रहा है कि तुम्‍हें धोखा दिया जा चुका है. तुम बंदी बनाए जा चुके हो. मरुभूमि की रेतीली खाई के बंधक. तुम जो कीट-विशेषज्ञ हो, रेत का कीट बनने जा रहे हो. रेत के घर में, रेत में बने किसी बिल में रहने को अभिशप्‍त. रेतीले अंधकार में. रेतीली मरीचिका में. रेत जो जल-विहीनता का रूपक है. चिलचिलाते सुनसान का. उजाड़ का. और अतृप्त तृष्णा का.

यहाँ सपने भी रेत के आते हैं. रेत के जीवन में रेत के ही स्वप्न संभव है. रेत के विविध रूपाकार. जो देखोगे, सोचोगे, जो जियोगे, खाओगे, जिससे डरोगे वही तो स्वप्न में आएगा. नाना प्रकार से रेत ही रेत. हवा से बनीं ये रेत के समुद्र में धारियाँ. रेत पर प्रकृति की कलाकृतियाँ. सपनों की पलकों पर. यह सचमुच की रेत है या कल्‍पनाओं की. लेकिन तुम इस रेत पर कैसे चलोगे? जूतों में, पाँवों में, हवाओं में रेत है. ज़मीन पर तो रेत है ही. श्‍वास में, निश्‍वास में, उच्छवास में भी. रेत के पहाड़ उड़कर चले जाते हैं, नयी जगहों पर फिर रेत का पहाड़ बनने के लिए. तुम भी अब चलते-फिरते रेत के मनुष्‍य हो. तुम्‍हारी देह रेत की देह है. रेत में जागना है. रेत में सोना है. रेत में रहते हुए रेत से भाग निकलने का नामुमकिन स्‍वप्‍न देखना है.
ऐसे सपने अंतिम आशाएँ हैं.

(तीन)

‘Woman in the Dunes’ फ़िल्म का एक दृश्य

तुम ठीक कह रहे हो, तुम्‍हें कोई बंधक नहीं बना सकता. तुम पालतू पशु नहीं हो. तुम्‍हें अपनी मुक्ति के बारे में सोचना होगा. लेकिन रेत से बाहर निकलने के लिए तुम रेत पकड़कर नहीं चल सकते. कोई ठोस सहारा चाहिए. तुम रेत के विस्तार के क़ैदी हो. रेत की स्‍त्री कहती है कि परेशान मत होओ. रेत को स्‍वीकार कर लो. यहाँ से वापस कैसे जा सकोगे? आज तक कोई रेत के कारागार में से वापस नहीं गया है. सब यहीं दफ़न हो जाते हैं. मेरा बच्‍चा और पति भी यहीं रेत के इस विशाल ताबूत में बंद हैं. रेत पर यहाँ रेत गिरती है. रेत ही रेत को ढक लेती है. रेत के अलावा यहाँ सिर्फ़ रेत है. अब तुम मेरे सहायक हो. मैं अकेली जान इतनी रेत अकेले नहीं निकाल सकती. मैं तुम्हें सब कुछ दूँगी. भोजन. प्रेम. और रेत का यह रेतीला तन. मेरे बस में बस इतना ही है. जीवन कठिन है. अनवरत. गुस्‍सा थूक दो. वह रेत में मिलकर रेत हो जाएगा. और तैयार रहो, यहाँ रेत का बवंडर आ सकता है. मैं मरुथल में हवा की चाल, रेत की चाल समझती हूँ. यह तूफ़ान उत्तर दिशा से आता है. जैसे वही तुम्‍हारे हर प्रतिवाद का उत्तर है. वही तुम्हें तुम्हारी असहायता समझाएगा. मेरी बात तो तुम सुनते नहीं.

मैं एक सरकारी अधिकारी हूँ. वैज्ञानिक. तुम और तुम्‍हारे ये गाँव के लोग मुझे क़ैद में नहीं डाल सकते. मैं घर-परिवारवाला आदमी हूँ. लोग मुझे खोजते हुए आएंगे और तब तुम सब पर मुसीबत आएगी. रेत की स्‍त्री अविचलित है, वह कहती है- रेत खोदो. तब भोजन मिलेगा. यदि तुम काम नहीं करोगे तो वे लोग लकड़ी के फट्टों का यह छोटा-सा घर भी जला देंगे. तब सिर्फ़ वह आसमान बचेगा जिससे रेत झरती रहती है. सूरज के नीचे. चंद्रमा और सितारों के नीचे. रात और दिन के नीचे. तब वह जीवित आदमियों के लिए क़ब्र बना देती है. तुम रेत के महासागर में आए हो तो  हमेशा के लिए आ चुके हो. तुम बंधन को आज़ादी मान लो. तुम रेत के समुद्र में रेत से सीढ़‍ियाँ नहीं बना सकते. तुम हर चीज़ का मुक़ाबला कर सकते हो, रेत का नहीं. रेत महज़ झरती नहीं है, गिरती है. दबोचती है. और धसकती है. हर उस शै के ऊपर जो उसके खिलाफ़ है और उसकी ज़द में है. यहाँ रहते हुए तुम्‍हें रेत से सामंजस्य बनाना होगा. और मित्रता करना होगी. रेत का जीवन जीना होगा. यही तरीक़ा है.  इधर सब तरफ़ रेत है.
रेत के बीच यह मैं हूँ: रेत की स्‍त्री.

तुम रेत से नहीं लड़ सकते. जीतने का सवाल ही नहीं. वह भी तुमसे युद्ध नहीं चाहती. प्रेम चाहती है. वह विपुला है. इसी वसुंधरा का गौरवशाली हिस्‍सा. वह अपराजेय है. उसे कोई परास्त नहीं कर सकता. उसके साथ रहना सीखना पड़ता है. चाहो या न चाहो. यहाँ रहते हुए तुम केवल रेत के बारे में सोच सकते हो. रेत का जीवन जी सकते हो. वह तुम्हारे पास नहीं आई है. तुम रेत के पास आए हो. मर्जी से या भुलावे से. विश्वास से या धोखे से. लेकिन रेत के पास तुम आए हो. तो उसे स्वीकार करो. उससे पार पाने की हिमाक़त मत करो. तब तुम देखोगे की रेत भी प्यास बुझा सकती है. तब तुम रेत पर उस तरह चल सकते हो जैसे पानी में नाव.

तुम मेरे शब्दों की उपेक्षा करते हो इसलिए तुम रेत से युद्ध करते हुए चोटिल हो गए हो. अब बस करो. लेटो, तुम्‍हें दवा लगा दूँ. तुम्हारी चोटों को सहला दूँ. नहीं, नहीं. मैं जानवरों की तरह बाड़े में नहीं रह सकता. मैं जीवित आदमी हूँ. कोशिश करता रहूँगा. मैं मुक्‍त होकर ही चैन की साँस लूँगा. तुम किसी पराजित की तरह आत्‍समर्पण कर चुकी हो. तुम लड़ना नहीं जानतीं. अपने अधिकारों के बारे में नहीं जानतीं. तुम शरणार्थी की तरह रहना चाहती हो. तुम मेरे साथ किए गए धोखे का हिस्‍सा हो. मैं भी तुम सबको धोखा दूँगा और भाग निकलूँगा. मैं इस रेत-नरक में नहीं सड़ सकता. मेरे गले में पट्टा नहीं डाला जा सकता, मेरी गरदन पर घंटियाँ नहीं लटकाई जा सकतीं. तुम मुझे घोंटकर मार देना चाहते हो लेकिन अभी तो लड़ाई शुरू हुई है. मैं हिम्मत नहीं हार सकता. यह लड़ाई रेत के खिलाफ़ नहीं, तुम लोगों के खिलाफ़ है. संसार में, प्रत्येक जगह, प्रत्येक अक्षांश, प्रत्येक देशांतर पर आदमी को अपनी आज़ादी के लिए लड़ना पड़ता है. हर काल में. हर शताब्‍दी में. हर दशक में. हर रोज़. मैं पिंजरे का पंछी नहीं हूँ. मैं पिंजरा तोड़ डालूँगा.

लेकिन यह तो खुली रेत का पिंजरा है. यह पहले से ही बिखरा हुआ है. टूटा है. इसे कैसे तोड़ोगे? यह रेत का ग्रह है. यह पूरा ग्रह पिंजरा है. तुम भले रेत के खिलाफ़ नहीं हो लेकिन लड़ाई तो तुम्हें रेत में रहकर ही लड़ना पड़ेगी. रेत के युद्ध का यही पेंच है. यहाँ अनुकूल हवा भी चलती है तो उड़कर आँखों में रेत भरती है. यही चक्रव्‍यूह है. रेत का हर कण ब्रह्मास्त्र है. अचूक और मारक. पानी में रहने के लिए पानी से बैर नहीं दोस्‍ती करना पड़ती है. मरुस्‍थल में रहकर रेत से.

(चार)

‘Woman in the Dunes’ फ़िल्म का एक दृश्य

काम नहीं करोगे तो वे राशन कम कर देंगे.  रेत के ढूह में से रेत निकालकर दो. वरना क्‍या खाओगे. रेत? रेत को खाया नहीं जा सकता. जैसे हवा समुद्र में पानी की लहरें उठाती है वैसे ही हवा इस रेतीले सागर में रेत की लहरें उठाती है. रेत पर रेत चढ़ी आती है. लहरि‍यादार. पट्टेदार. इसे प्‍यार करो तो नृत्‍य. वरना ताण्‍डव. हम लगातार झरती हुई रेत की इस मुश्किल में इसलिए आ गए हैं कि तुमने रेत खोदना बंद कर दिया है. यह जीवन यापन के लिए ही नहीं, रेत के क्रोध को कम करने के लिए भी ज़रूरी है. रेत नहीं निकालोगे तो वह कहीं न कहीं तो गिरेगी. धसकेगी. धोखेबाज! तुम चुप रहो और समझो कि तुमने इस काम के लिए ग़लत आदमी चुन लिया है. मैं अध्‍यापक हूँ, स्‍कॉलर हूँ. मैं इस तरह के श्रम का आदी नहीं हूँ. ऐसी मेहनत मेरे वश की नहीं. मेरी उत्सुकता रेत के कीड़ों के लिए थी. रेत खोदने के लिए नहीं. मेरे अध्ययन का, मेरी रुचि का विषय कीड़े हैं.

अब तुम्‍हारी ये बातें निरर्थक हैं. इनका जवाब देना भी ठीक नहीं. तुम तो यह देखो कि रात में चाँद कैसा दिख रहा है. यह रेत का चाँद है. यह रेत की रात है. चाँदनी से मथी हुई.  चाँदनी मरुस्थल में गिरकर रेत की हो जाती है. सफ़े़द रेत की रात. चाँदनी की रेत. रेत की चाँदनी. पीठ पर, चेहरे पर, गले में चिपके हुए रेत के ये कण देखो. ये त्‍वचा का हिस्‍सा हैं. ये ही त्‍वचा के भीतर हैं. पंचतत्व मिलकर कुल एक तत्व में बदल चुके हैं: रेत. यह पारदर्शी देह और तुम भी. अब रेत रेत को समर्पित हो रही है. यह रेत से रेत का संसर्ग है. रेत विस्तृत हो रही है. देह पर रेत शोभित होकर चमकती है. यह रेत का शृंगार है. यह प्रेम है. संचित व्याकुल कामनाओं का शमन है.

तुम देह से रेत हटाओगे तो रेत की देह समक्ष होगी. तुम जिन अधरों को चूम रहे हो, वे रेत के होंठ हैं. यह वक्ष, यह नाभि, ये जंघाएँ, यह रोमावली भी रेत की है. तुम जिससे बँध रहे हो, वह रेत की वासना का पाश है. यह रेत का बंधन है इसे तोड़ा नहीं जा सकता. रेत से रेत अलग नहीं की जा सकती. यह अटूट है. रेत को रेत प्रेम नहीं करेगी तो कौन करेगा? जीवन में रेत ही सत्‍य है. रेत को दुत्कारोगे तो भविष्य भी नहीं बचेगा. वर्तमान पहले से रेत है. देखो, हमारी शामिल देह पर रेत बहते पानी की तरह बह रही है.

(पाँच)

‘Woman in the Dunes’ फ़िल्म का एक दृश्य

तुम विद्वान हो, स्‍कॉलर हो तो रेत में उगनेवाले पौधे उगाओ. और वे भी जो अभी तक रेत में नहीं उग सके हैं. तुम रेत से पानी निकालो. तुम वह करो जो एक आविष्कारक को करना चाहिए. नहीं, मैं यहाँ से बाहर निकलने की कोशिश करूँगा. एक पक्षी आसमान में उड़ता दिख रहा है. क्‍या यह उड़ान मेरे लिए मरीचिका है. या स्वतंत्रता का कोई स्‍मरण-पत्र. उस सपने का जो रेत के जीवन में रहते हुए नींद में लहराता है, लबालब भरी झील की तरह. या इस जलरहित भूमि में मेरा ख़ून भी सूखकर अपनी रक्‍त-कणिकाओं को रेत में बदल देगा? पानी की आख़‍िरी बूँद चुक जाती है तो क्‍या होता है? थूक भी गटकते हैं तो लगता है रेत गटक रहे हैं. गले में रेत भर गई है. रेत को पिया नहीं जा सकता.

जैसे ही नींद आती है. या चेतना जाती है. स्‍वप्‍न में और अवचेतन में पानी आता है. पानी का अभाव पानी के सपने में बदल जाता है. बहुत प्‍यास के बाद बहुत पानी पिया नहीं जाता. ज्‍़यादा पी लो तो बेहोशी आती है. तृप्ति की बेहोशी. क्‍या तुम रेत खोदने के लिए जीवित हो. या जीवित रहने के लिए रेत खोद रहे हो? क्‍या हम रेत की खदान के ग़ुलाम हैं. क्या दासता के ऐसे जीवन को स्‍वीकार किया जा सकता है? ओ रेत की स्त्री! यदि तुम रेत के संसार में, रेत के इस तलघर में रहना ही चाहती हो तो अपने लिए कुछ अधिकारों की माँग करो. किंचित तो विद्रोह करो. नहीं, मैं ऐसा कुछ नहीं करूँगी. यह बालू का टीला मेरा घर है. मेरे लोग इसी रेतघर के आँगन में दफ़न हैं. और अब तुम मिल गए हो. तुम अजनबी थे, बंदी थे लेकिन अब मैं तुम्‍हारे मोह में पड़ रही हूँ. मुझे रेत के इस घर में ही रहना है. ओह, रेत की खाई कैसे किसी का स्थायी आवास हो सकती है? किसी व्यक्ति में मुक्ति की इच्छा जगाना संसार का किस क़दर कठिन काम है. ख़ासतौर पर उसमें जिसने दासता को नियति मान लिया है. दासता को अपना कर्तव्य, अपनी दिनचर्या बना लिया है.

मैं अकेला ही यहाँ से निकलने की कोशिश करूँगा. यों ही मर जाना ठीक नहीं. मुझे किसी तरह एक रस्‍सी बनाना होगी. मुक्ति की लालसा पैदा हो जाए तो युक्ति की लालसा भी पैदा हो जाती है. रस्‍सी के सहारे रेत पर चढ़ाई. खुली हवा. दौड़. लेकिन तुम्हारी मुश्किल थी कि तुम रेतमय इस भूगोल को नहीं जानते. इसलिए तुम्‍हारी दौड़ रेत से शुरू होकर रेत के ही चक्‍कर काट रही है. तुम अंतत: रेत के इस दलदल में फँस गए हो. उन्‍हीं आक्रांताओं को पुकार रहे हो जिन्‍होंने तुम्‍हें रेत के कुएँ में धकेल दिया था. वे तुम्‍हें चोरबालू के गड्ढे से खींच रहे हैं और बता रहे हैं कि ऐसे भागोगे तो मारे जाओगे. यहाँ कई पर्यटक, कई विद्वान दबे पड़े हैं. कुत्‍ते भी इस दलदल से दूर रहते हैं लेकिन मुक्ति की आकांक्षा के जोश का मारा आदमी अकसर धोखा खा जाता है. आवेग में समझदारी खो देता है. अंधों की तरह दौड़ लगाने से मुक्ति नहीं मिलती. अब तुम एक बार फिर उसी रेत के पाताल में, रेत खोदने के लिए आत्मसमर्पण हेतु मजबूर हो. तुम्हारा जीवन एक बार फिर दासता, मुक्ति की आकांक्षा और संघर्ष का एकांतर होनेवाला है. आज़ादी आसान नहीं. यही त्रासदी है. यही प्रहसन. दोनों करुणाजनक.

रेत की स्‍त्री, जिसे तुम ग़ाफिल बनाकर भागे थे, वह तुम्‍हें वापस आता देख रही है. कुछ दुख से, कुछ सुख से. तुम बड़बड़ा रहे हो कि भागने की योजना नाकाम और हास्यास्पद हो गई. लेकिन मैं फिर कोशिश करूँगा. नाकामी से शिक्षा लूँगा. यही हासिल होगा. असफलता की स्मृति मार्गदर्शन करेगी. उसी स्मृति की कोख से भूल सुधार होगा और एक नयी कोशिश का प्रसव. रेत की स्‍त्री कह रही है- तुम शांति से बैठो, मैं तुम्‍हारी पीठ साफ़ करती हूँ. तुम्‍हें नहलाती हूँ. तुम थक चुके हो और चोटिल हो. तुम सोच रहे हो कि रेत की स्‍त्री में इतना धीरज, इतनी ममता और इतनी करुणा. क्‍या रेत ने इसके भीतर बसे प्रेम का वाष्पीकरण नहीं किया? रेगिस्तान का तापक्रम भी इसका अंतर जल नहीं सुखा पाया?

(छह)

‘Woman in the Dunes’ फ़िल्म का एक दृश्य

मैं भूखे-प्‍यासे कौए को पकड़ने के लिए यह ख़ाली जलपात्र रेत के खुले में रख रहा हूँ. ऊपर से यह एक हलका सा काग़ज़ी ढक्कन और चारा. इस पर कौआ बैठेगा तो अपने वज़न से ख़ाली पात्र में गिर जाएगा. मैं उस कौए के पैर में एक संदेश बाँधूँगा. ज़रूर वह शहर या कहीं ऐसी जगह पहुँच जाएगा कि मेरा संदेश सही हाथों को मिल सके और मुझे यहाँ से छुटकारा मिल जाए. मैं अनुसंधानकर्ता हूँ. मैं यहाँ गुमनाम जीवन जीते हुए नहीं मरना चाहता. रेत की स्‍त्री मंद मुस्करा रही है. वह चुप है. वह जानती है कि यह सारी क़वायद बेकार है. मज़ाक़ है. आशा भी मनुष्य को बेचैन बनाए रखती है. न कौआ आता है, न कोई मुक्तिदाता.

वह चीख़ रहा है, मुझे पूरी मुक्ति मत दो लेकिन दिन भर में यहाँ से कुछ देर के लिए, दस मिनट, बीस मिनट बाहर तो निकालो. मुझे वातायन दो. क़ैदी को भी कोठरी में रोशनदान दिया जाता है. यहाँ मेरा दम घुटने लगा है. उसकी पुकार बता रही है कि घुटे हुए अँधेरे में रोशनदान की इच्छा दुनिया की सबसे बड़ी कामना है. इस रेत में रहना ऐसा है जैसे पानी पर मकान बनाना. पानी के नीचे पानी. रेत के नीचे रेत. मुक्ति का स्वप्न असंभव सच्चाई के पत्थर पर सिर पटककर लहूलुहान हो चुका है. जो रिहाई दे सकते हैं वे तुम्‍हें अश्‍लीलतम शर्त बताते हैं. रेत की स्‍त्री तुम्‍हें आगाह कर रही है, समझा रही है कि यह पतन का नया मानक होगा. ये तुम्‍हें रिहा नहीं करना चाहते, पशु बना देना चाहते हैं. तुम्‍हें लज्जित करते हुए अपना मनोरंजन चाहते हैं. लेकिन तुम मुक्ति की मरीचिका में उलझकर रेत की स्‍त्री को सार्वजनिक रूप से उस तरह अपमानित करना चाहते हो जो कोई जानवर ही कर सकता है. तब तुम रेत की स्‍त्री का वह संघर्ष देखते हो जो औरत अपने सम्‍मान के लिए कर सकती है तो सिर्फ़ विजयी होती है. जो कहती है कि मैं रेत खा लूँगी, मर जाऊँगी मगर अपना गौरव बचा लूँगी. आज तुम उचित ही पराजित हुए. तुम नैतिकता की कीमत पर मुक्ति चाहते थे.
तुम अब अपना मुँह रेत में छिपा सकते हो.

तुम्‍हारी कौआदानी में कौआ नहीं आया लेकिन तुम अचानक देख रहे हो कि उस ख़ाली पात्र में पानी आ गया है. यह कल्‍पना से परे है. तुम अक़ल लगा सकते हो कि यह कैसे हुआ. रेत के लगातार वाष्‍पाीकरण से, वाष्‍प की बूँदें ढके हुए पात्र के ढक्‍कन से टकराकर वापस जल के रूप एकत्र हो गईं हैं. यह अप्रत्याशित खोज है. रेत में से पानी निकालने के इस आविष्कार का सुख अनिर्वचनीय है.

उधर नीम बेहोशी में रेत की स्‍त्री बुदबुदा रही है: मेरी साँस घुट रही है. क्‍या हवा रुक गई है. अंधड़ थम गया है. क्‍या रेत का झरना बंद हो चुका है. क्‍या मैं इस भीषण दर्द से उबर जाऊँगी? क्‍या मेरा गला अब नहीं सूखेगा? क्‍या अब जीवन में कुछ नहीं किरकिराएगा. क्‍या मैं बच जाऊँगी? उम्मीद है इसलिए वह बच जाएगी. उसने अशांत स्थितियों में भी शांत रहना सीखा है. वह जीवन के प्रति स्‍वीकार से भरी है. वह सकुशल वापस आएगी. और मैं कहाँ जाऊँगा? इतना वक्‍़त गुज़र गया. मेरे शहर से, मेरे परिवार से, आत्‍मीयजन में से, कार्यालय सहयोगियों में से भी कोई मुझे खोजने नहीं आया. सबको पता था कि मैं यहाँ इस रेतीले इलाक़े में आया हूँ. और वापस नहीं पहुँचा. तब भी कोई नहीं आया. किसी ने मेरी फ़ि‍क्र नहीं की. एक दिन आख़‍िर सब एक दूसरे के बग़ैर रहने लगते हैं. जो चला गया, जो ग़ायब हो गया, उसे मृत मान लिया जाता है. बिना यह जानने की कोशिश किए कि वह मरा भी है या नहीं. यही सभ्‍यता का चरम है. संबंधों का मरुस्‍थल.

उनके बरअक्‍स यहाँ यह रेत की स्‍त्री है, जिसने मेरा स्वागत किया. जो रोज़ इस चिंता में सोती है कि कहीं अगली सुबह वह अकेली न रह जाए. वह वापस आएगी. रेत की भी एक वंशावली होती है. इनसे भागकर मैं भला कहाँ जा सकता हूँ. सब तरफ़ रेत के घरौंदे हैं. और मैंने अभी जो खोज की है, रेत में से पानी बनाने की. इस आविष्कार की प्रसन्नता भी तो साझा करना है. मैं इन्हीं ग्रामवासियों को अपनी यह विधि, यह उपलब्धि बताऊँगा. उनसे साझा करूँगा जिनके लिए इसका कुछ मोल है. शहर के लोगों को, पानी उजाड़नेवाली सभ्‍यता को इससे क्‍या हासिल होगा? मरु प्रदेश में पानी की संभावना और जल युक्ति का महत्व वही जानेगा जो रेत की भूमि में रहता है.

तो क्‍या रेत ने मुझे उसी तरह अपना लिया है जैसे रेत की स्‍त्री ने? या मैंने रेत की स्‍त्री को, उसके प्रेम को स्‍वीकार कर लिया है. मैं ख़ुद किसी मोह में पड़ गया हूँ. क्‍या मैं रेत का आदमी होता जा रहा हूँ. मैं अब इस मोह में धोखा तो नहीं खाऊँगा. धोखा तो नहीं दूँगा? क्‍या रेत के विशाल कारागृह से मुक्ति की मेरी आकांक्षा नष्‍ट हो चुकी है?
क्‍या मोह ग्रस्‍त हो जाना ही मुक्ति है??
शायद हाँ. शायद नहीं.

Movie: Woman in the Dunes, 1964/ Director- Hiroshi Teshigahara.
कुमार अम्बुज
जन्म: 13 अप्रैल 1957, ग्राम मँगवार, ज़‍िला गुना, संप्रति निवास- भोपाल.प्रकाशित कृतियाँ-कविता संग्रह: ‘किवाड़’-1992, ‘क्रूरता’-1996, ‘अनंतिम’-1998, ‘अतिक्रमण’-2002, ‘अमीरी रेखा’-2011, ‘उपशीर्षक’- 2022. कविताओं का चयन ‘कवि ने कहा’-2012, किताबघर से. राजकमल प्रकाशन से ‘प्रतिनिधि कविताएँ’- 2014.कहानी और अन्य गद्य: ‘इच्छाएँ’-2008.

‘थलचर’- 2016.‘मनुष्य का अवकाश’-2020.कहानी संग्रह: ‘मज़ाक़’ और चयनित फ़िल्मों पर निबंधों का संकलन ‘आँसुओं का स्वाद’ शीघ्र प्रकाश्य.‘वसुधा’ कवितांक-1994 का संपादन. गुजरात दंगों पर केंद्रित पुस्तक ‘क्या हमें चुप रहना चाहिए’- 2002 का नियोजन एवं संपादन. अनेक वैचारिक बुलेटिन्‍स और पुस्तिकाओं का भी प्रकाशन, संपादन. हिन्दी कविता के प्रतिनिधि संकलनों एवं कुछ पाठ्यक्रमों में रचनाएँ शामिल. साहित्य की शीर्ष संस्थाओं में काव्यपाठ, बातचीत तथा वक्तव्य. कविताओं के कुछ भारतीय एवं विदेशी भाषाओं में अनुवाद तथा संकलनों में कविताएँ चयनित.कवि द्वारा भी कुछ चर्चित कवियों की कविताओं के अनुवाद प्रकाशित. ‘विश्व सिनेमा’ से कुछ प्रिय फ़‍िल्‍मों पर अनियत लेखन.भारत भूषण अग्रवाल स्मृति पुरस्कार(1988), माखनलाल चतुर्वेदी पुरस्कार,(1992), वागीश्वरी पुरस्कार(1997), श्रीकांत वर्मा सम्मान(1998), गिरिजा कुमार माथुर सम्मान(1998), केदार सम्मान(2000).kumarambujbpl@gmail.com

Tags: 20232023 फ़िल्मWoman in the Dunesविश्व सिनेमा से कुमार अम्बुज
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Comments 16

  1. डॉ. सुमीता says:
    1 week ago

    जीवन का सकदम और मुक्ति की शाश्वत आकांक्षा, स्वीकार्यता या मुक्ति का आदिम द्वन्द्व, मानव मनोवृत्तियाँ व स्त्री-पुरुष मनोविज्ञान/कंडीशनिंग और यह रेत की क़ैद का रूपक… अम्बुज जी के लेखन का लाजवाब प्रवाह है कि पढ़ते हुए गले पर कसते हुए फाँस और किरकिराहट का अनुभव होता है। पानी के लिए बेचैनी महसूस होती है।
    फिल्मों पर लिखी जा रही इस शृंखला की प्रतीक्षा रहती है। आभार।

    Reply
  2. किरण मिश्रा says:
    1 week ago

    “Woman in the Dunes” की टेग लाइन है। “Are you shoveling to survive, or surviving to shovel?” जीवित रहने जे लिए जीवन मे फावड़ा चलना कितना जरूरी है, जबकि ज़िन्दगीं एक खूबसूरत धोखा हो..Kobo Abe के उपन्यास पर बनी फ़िल्म Sisyphus के मिथक का मॉडर्न वर्जन है। यथार्थवाद को संयोजित करती इस फिल्म को एक साल पहले देखा था। दुर्लभ फिल्मों में से एक। कुमार अम्बुज जी ने बहुत ही अच्छा विश्लेषण किया। आप दोनों को हार्दिक शुभकामनाएं !

    Reply
  3. हेमन्त देवलेकर says:
    1 week ago

    निश्चित ही फिल्म कमाल की है। कविता से परिपूर्ण। उसकी उतनी ही विशद और कवितामय व्याख्या प्रस्तुत की है अम्बुज जी ने। रेत शब्द की न जाने कितनी बार आवृत्ति हुई है यहाँ, मगर हर बार उसका आशय, संदर्भ एकदम अलग है। एक ही शब्द के कितने सारे रंग, कितने सारे भाव और अर्थ। कितनी व्यञ्जनायें, कितने बिंब भरे हैं इस प्रस्तुति में। लगता है इस संसार की ही बात हो रही है, यही तो है वह रेत का ग्रह। बीतता हुआ हर क्षण रेत का ही कतरा है। हम सभी बीत रहे हैं। और इस नश्वर याने फिसलते हुए संसार से ही मोह माया से ग्रस्त हैं। जो वैज्ञानिक है वह या तो योगी सन्यासी है या फिर कोई सृजन धर्मी। इसे पढ़कर जितना रोमांच हुआ उतना ही अपने को और अपने संसार के सत्य को टटोलने का मन हुआ। फिल्म अवश्य ही देखी जाना चाहिए। किंतु यह जो आख्यान यहाँ मंचित किया गया है उसके लिए कवि को हार्दिक बधाई। यह अपने आप में एक स्वतन्त्र कविता है।

    Reply
  4. राजीव सक्सेना says:
    1 week ago

    रेत पर जमती – फिसलती पटकथा और
    मानवमन के रेतीलेपन का खूबसूरती से पड़ताल करती कुमार अम्बुज जी की समीक्षा एक प्रवाह है.. फ़िल्म की अपनी ही भाषा – परिभाषा ने इसे ऑस्कर सरीखा सम्मान हासिल कराया है..

    Reply
  5. अमिता शीरीं says:
    1 week ago

    उफ्फ कहानी को बताने का क्या नायब ढंग है☘️ रेत आंखों में चुभने लगी☘️घुटन थोड़ी और बढ़ गई ☘️फिल्म मिलेगी तो देखूंगी ज़रूर 🌿

    Reply
  6. ललन चतुर्वेदी says:
    1 week ago

    कुमार अंबुज के विश्लेषण को पढ़ते हुए चकित हो जाता हूँ। हम सब रेतघर में ही रह रहे हैं। ज्ञान का दंभ लिए मुक्ति की आकांक्षा कैसे सफल होगी। यह विशुद्ध भारतीय दर्शन है। अंतत: हमारे हाथ से समय भी रेत की तरह फिसल जाता है।सब रेत है तो हमारा क्या अभिप्रेत है। बुनियादी सवाल यह है। फिर यह स्त्री हमें क्यों प्रेम दे रही है जबकि वह भी रेत के सिवा कुछ और नहीं है। अंत में इस संसार में लौटकर अपनी उपलब्धियों को बतलाने का क्या मकसद जबकि संसार हमारी प्रतीक्षा में नहीं है। फिर भी यह कर्तव्य से विमुख करने वाली बात नहीं है,अपितु आँख खोल कर कर्म क्षेत्र में उतरने की चेतावनी देती हुई प्रतीत होती है। मुझे तो ऐसा ही प्रतीत होता है। कुछ अपना भी सत्य जुड़ जाये तो आश्चर्य नहीं।

    -ललन चतुर्वेदी

    Reply
  7. Surendra Manan says:
    1 week ago

    बहुत बारीक कातते हैं अंबुज जी !
    Duens, dunes, dunes all around!

    Reply
  8. रवींद्र व्यास says:
    1 week ago

    इधर, प्रिय कवि Kumar Ambuj ने ‘समालोचन’ के लिए फिल्मों पर जिस नई दृष्टि और भाषा में लिखा है, लिख रहे हैं, वह हिंदी की सिने-समीक्षा के परिदृश्य में ऐसा रचनात्मक हस्तक्षेप है जो फिल्म को सिर्फ बतौर मीडियम और तकनीक से आगे जाकर उसमें नया देख-दिखा लेने का अपूर्व उद्यम है। और इसमें सिर्फ उनका फिल्मों के प्रति प्रेम ही नहीं बल्कि उसे अपनी अनूठी भाषा में फिर से अर्जित कर लेने का एकाग्र जतन है। उनका यह लेखन फिल्म-सत्य और फिल्म-मर्म को इस तरह से नए आलोक में उद्घाटित करता है कि वह जीवन-सत्य और जीवन-मर्म की बारीक परतों को छूता और उघाड़ता चलता है। यह फिल्म पर आधारित होने के बावजूद भी फिल्म के भीतर से ही इस तरह बाहर निकलता दिखाई देता है जैसे यह एक नई फिल्म को ही रच रहा है। इस भाषिक संरचना में हम बिम्ब, प्रतीक और यथार्थ की अनेक स्तरीय परतों को देख पाते हैं जो शायद कवि ही देख पाता हो, जैसे यही कि रेत में भी रेत का फूल खिल सकता है। इस लेखन का जितना सिनेमाई मूल्य है, उतनी ही जीवन मूल्य और साहित्य मूल्य भी है।

    Reply
  9. शशिभूषण says:
    1 week ago

    यह लेखन की पराकाष्ठा ही है। कुमार अंबुज फ़िल्म के बहाने जो लिखते हैं वह इतना परिपूर्ण होता है कि उन महान फ़िल्म की तमन्ना भी नहीं होती जिन पर यह दृष्टा सृजन होता है।

    कुमार अंबुज का फ़िल्म पर लेखन फ़िल्म की स्क्रीन से मुक्ति है। यह फ़िल्म का देहहीन भाषायी अनुभव बन जाना है।

    फ़िल्म का दर्शक होना सुना-जाना है। थोड़ा बहुत हूं भी। लेकिन कुमार अंबुज जिनका नाम है वे महान फिल्मों के दृष्टा लेखक हैं।

    हिंदी का यह अप्रतिम लेखक शब्दों का फ़िल्मकार है। ऐसी फ़िल्म जो मानवता की कोख से जन्मती हैं और मानवता ही जनती हैं।

    शशिभूषण

    Reply
  10. Pradeep Shrivastava says:
    1 week ago

    सब रेत ही तो है फिसलते जाना नियत है फिर भी चलते तो रहना ही है. अंबुज जी ने बहुत बढ़िया लिखा. उन्हें हार्दिक शुभकामनायें.

    Reply
  11. तेजी ग्रोवर says:
    1 week ago

    बहुत साल पहले देखी फ़िल्म से जो बेचैनी और विचलन महसूस हुआ था उसकी अद्भुत स्मृति इस आलेख ने फिर पैदा कर दी।

    बढ़िया टेक्स्ट बन पड़ा है यह भी!!! गद्य में घना सम्मोहन बना रहता है शुरू से अंत तक।

    Reply
  12. Divya Prakash Singh says:
    1 week ago

    🧡

    Reply
  13. Sudeep Sohni says:
    1 week ago

    जिस किसी ने भी फ़िल्म देखी हो उसके लिए अंबुज जी का यह गद्य पढ़ना रोमांच से कम नहीं! मैंने यह फ़िल्म ftii में पढ़ाई के दौरान देखी थी. अद्भुत ही कल्पना है इस कहानी की. इस आलेख में कहानी और विचार की परतें किस तरह खुलती हैं, वह अद्भुत है.जैसे हम भी रेगिस्तान में क़ैद हो गए और निकलने का रास्ता ही नहीं है. एक आग्रह है, मुझे ऐसा लगता है कि हर फ़िल्म का एक छोटा कथासार भूमिका बतौर देने के बाद इसे पढ़ने का आनंद उनके लिए और भी होगा जिन्होंने फ़िल्म नहीं देखी. उम्मीद है Kumar Ambujजी गौर करेंगे. जैसे फ़िल्म एप्रिसीएशन कोर्स में किया जाता है. या किसी नाटक के पहले कथासार बताया जाता.

    Reply
  14. Kashmir uppal says:
    1 week ago

    हमारे आसपास जो लोग हैं। इनमें कुछ हमें अपने लगते हैं। हम इनके सहारे चलते हैं। एक दिन इन्हें नया सहारा मिल जाता है। यही लोग एक दिन रेत बनकर बिखतरे जाते हैं। हम जितना समेटते हैं रिश्ते उतने बिखरते जाते हैं। उम्र के एक पड़ाव पर हम अकेले हैं। हम इसके ही सहारे जीते जाते हैं। यह अकेलापन नहीं फिसलता। यही जीवन है।

    Reply
  15. कैलाश बनवासी says:
    6 days ago

    रेत के संसार में मनुष्य भी रेत हो रहा है। यहां रेत की स्त्री रेतीले संसार का आंशिक विकल्प भी है लेकिन कैद रखने की शर्त पर।रेत का जीवन इतना विस्तारित है कि मुक्ति के केवल सपने शेष हैं।इसके विरुद्ध हर कोशिश दम तोड़ रही है और जो है जैसा है को स्वीकार कर लेने की गुलामी रच रही है।इस कल्पना में मनुष्य रेत के कीड़े से अधिक कुछ नहीं। यहां राहुल सांकृत्यायन का लिखा याद आ रहा है –भागो नहीं दुनिया को बदलो। पढ़ लेने के बाद जैसे खुद को इस संसार में कैद पाने की विवशता ग्रस रही है। रेत यहां जितने सर्वाधिक बिम्बों, रुपकों, स्वप्नों के रुप में आया है वह मुझे फिल्मकार से अधिक संवेदनशील कल्पनाशील कवि की उपलब्धि अधिक लग रही है। निश्चय ही ऐसी फैंटेसी को रच पाना फिल्मकार की बड़ी चुनौती रही होगी। लेकिन कुमार अंबुज लगातार विश्व सिनेमा के ऐसे नगीनों को भारतीय संदर्भ में परखने की बड़ी चुनौती स्वीकार किए रचनाकार हैं।
    सिनेमा के लिहाज से शायद यह एक बड़ी फिल्म होगी, लेकिन जो आशय इसका मैं समझ पा रहा हूं,यह मनुष्य को नियतिवाद की तरफ ले जाती दिखाई दे रही है।
    संभव है यह मेरा आंकलन ग़लत भी हो।

    Reply
  16. Bharti says:
    6 days ago

    रेतीलेपन को इतनी तीव्रता से फिल्म ने भी महसूस करवाया की नही मुझे नहीं पता क्योंकि मैने ये फिल्म नहीं देखी परंतु ये जो रेत का दरिया अलग अलग मुकामों से होकर गुजरा है उसने मुझे ठहरा सा दिया, जैसे स्तब्ध सा कर दिया।कुमार अंबुज जी की ये शैली जो कविता की तरह कहानी को कहती है अद्भुद लगी मुझे।

    Reply

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