लेखन और दृष्टि का स्त्री-अध्याय
|
विश्व का प्रथम साहित्य लिखने वाली एक स्त्री थी. मेसोपोटामिया की एनहेदुआना का समय 23वीं शताब्दी ईसा पूर्व है. वह दुनिया की पहली ज्ञात लेखिका और कवयित्री हैं. एक राजकुमारी और पुजारिन होने के अतिरिक्त एक लेखिका और कवयित्री भी.
दुनिया के आरंभिक महान साम्राज्य निर्माताओं में से एक प्राचीन मेसोपोटामिया शासक सर्गोन की पुत्री एनहेदुआना का सर्गोन साम्राज्य में शान्ति और समृद्धि के लिए अक्काद और सुमेरियन देवों को प्रसन्न करने का कार्य सौंपा गया था. एनहेदुआना प्रसिद्ध जिगरत मंदिर के पुजारियों में थी. प्रथम वेबोलियन साम्राज्य के अंत के बाद उनका कार्य विलुप्त हो गया था. ब्रिटिश पुरातत्त्वविद सर चार्ल्स लीओनार्ड वूली (17.4.1880-20.2.1960) ने मेसोपोटामिया के ‘अर’ (आधुनिक दक्षिणी इराक) के उत्खनन में, वहाँ के गीपुरू में इन्हें देखा और जाना. बाद में इनके संभावित लेखन की जाँच आरंभ हुई.
एनहेदुआना का अर्थ है ‘अन की मुख्य पुजारिन’. ‘अन’ आकाश का देवता है, ‘एन’ मुख्य पुजारिन, ‘हेडु’ आभूषण और ‘आना’ का अर्थ है ‘स्वर्ग की’. इस प्रकार ‘एनहेदुआना’ का अर्थ है – ‘स्वर्ग की आभूषण मुख्य पुजारिन’.
इसने अपने मंत्रों और प्रार्थनाओं में देवताओं की नयी व्याख्या की. कविता के माध्यम से अपनी बात कही.
‘‘मैंने रौशनी को छूना चाहा, तो रौशनी मुझे जलाने लगी और जब मैंने अंधेरे में शरण लेनी चाही, तो उसने मुझे तूफानों से डराया.”
इश्तर के नाम से प्रचलित महान देवी इनन्ना (प्रेम और कामना की देवी) से अपनी सहायता के लिए कविता के माध्यम एनहेदुआना ने अपनी गुहार लगाई. उसने निनमेसारा (इनन्ना स्तुति), इन्निन सगुरा (करूणामयी स्वामिनी) और इन्निमेहुसा (भीषण शक्तियों की देवी) के लिए श्लोक रचे.
अपनी कविता में अक्काद के लोगों के लिए देवताओं की पुनः व्याख्या की, जिससे अक्काद साम्राज्य सर्गोन के शासन में अक्षुण्ण रहे और किसी प्रकार का झगड़ा न हो. तीन महान ग्रंथों के अतिरिक्त एनहेदुआना की 42 अन्य कविताएँ भी हैं, जिसमें उनके अपने जीवन की आशाएँ, कामनाएँ, पीड़ा, उदासी और संसार की परेशानियाँ हैं.
स्त्री-लेखन और चिन्तन का इतिहास बहुत पुराना है. इसे सुविधा के लिए प्राचीन, मध्यकालीन, उन्नीसवीं, बीसवीं और इक्कीसवीं शताब्दी (भारत में स्वाधीनता और नव उदारवादी अर्थ-व्यवस्था) के विविध चरणों में बाँटा जा सकता है. स्त्री-लेखन प्रायः सभी साहित्य रूपों में है- कविता, कहानी, उपन्यास, आत्मकथा, आलोचना, जीवनी, नाटक, यात्रा-वृत्तान्त, संस्मरण, डायरी, निबंध, अनुवाद और व्यंग्य में भी.
1.
आधुनिक युग के पूर्व यह लेखन काव्य-रूप में है. प्राचीन भारत में बौद्ध भिक्षुणियों (धर्म संघनियों) की ‘थेरीगाथा’ पर बहुत अधिक लिखा गया है. उससे पहले ऋग्वेद के कुछ मंत्र स्त्रियों द्वारा रचित है.
ऋग्वेद की ऋषिका रोमशा ने प्रथम मंडल के 126वें सूक्त के 7 वें मंत्र की रचना की है और यह कहा है कि उसके कार्य और विचार छोटे नहीं हैं. भारत में ही नहीं, संभवतः विश्व में भी स्त्री-कर्म और विचार को लेकर एक स्त्री के द्वारा कहा गया यह पहला कथन है. रोमशा ने कहा –
‘‘मामे दभ्राणि मन्यथा’’
(मुझे छोटा मत समझना),
‘अहमस्मि रोमशा’
(मैं रोमशा हूँ).
रोमशा के इस कथन में जैसा आत्मविश्वास और आत्मसम्मान है, उसे आज के भारत के स्त्री लेखकों को अवश्य सुनना चाहिए. स्त्री के आत्मविश्वास और आत्मसम्मान का यह ऐतिहासिक कथन है. ऋग्वेद का एक मंत्र लोपामुद्रा (अगस्त्य की पत्नी) का है. याज्ञवल्क्य की पत्नी मैत्रेयी ऋग्वेद के लगभग दस सूक्तों की रचयिता हैं. ऋग्वेद के दसवें मंडल के एक छंद में, घोषा की व्यक्तिगत इच्छाएँ और वैवाहिक जीवन के लिए उसकी अन्तरंग भावनाएँ प्रकट हुई हैं.
वैदिक काल की कई विदुषियाँ – घोषा, लोपामुद्रा, अपाला, इंद्राणी, विश्ववारा आदि अपने विचारों के कारण प्रमुख हैं. गार्गी वाचक्नवी दार्शनिक, वेद-व्याख्याता और ब्रह्मवादी थी. आत्मन को लेकर उन्होंने याज्ञवल्क्य को चुनौती दी थी. याज्ञवल्क्य से उनका शास्त्रार्थ प्रसिद्ध है. कई दार्शनिकों से उनका संवाद था. वैदिक युग में कई महिलाएँ विद्वान थीं. मैत्रेयी एक ब्रह्मवादिनी और अद्वैत दार्शनिक थीं. दर्शन के क्षेत्र में वैदिक युग की महिलाओं का अपना महत्व है. विचार और चिंतन के धरातल पर स्त्रियों को दोयम मानने का आज भी जो चलन है, उसे इन स्त्रियों के उदाहरणों से दूर किया जाना चाहिए.
बुद्ध द्वारा निर्मित संघ में प्रव्रज्या प्राप्त स्त्री थेरी कहलाती थीं. इन भिक्षुणियों का अलग एक संघ था. इस संघ की 73 थेरियों की 522 गाथाएँ ‘थेरी गाथा’ कहलाती हैं. थेरी गाथा पाली में रचित तीन पिटकों (लघु संग्रहों) में से एक ‘सुत्त पिटक’ के खुद्दक निकाय के 15 ग्रंथों में एक है, जिसमें 73 विदुषी भिक्षुणियों ने अपने उद्गार व्यक्त किये हैं. ‘थेरी’ संस्कृत ‘स्थविरा’ का विकृत रूप है. ‘स्थविरा’ का अर्थ भिक्षुणी है. थेरी बौद्ध मतानुयायी भिक्षुणी हैं. ‘थेरी गाथा’ महिलाओं का सबसे पहला ज्ञात संग्रह है. इसकी कई कविताओं में पितृ व्यवस्था के प्रति रोष के साथ दुःख और संत्रास और उनके साथ विविध स्तरों पर जारी भेद-भाव का वर्णन है. थेरी गाथा में सभी वर्णों की स्त्रियों की आवाज़ें हैं. उनमें वर्ण आदि को लेकर किसी प्रकार का भेद-भाव नहीं है. ये कविताएँ तीन सौ वर्ष की अवधि की हैं.
थेरियों की कोई एक जाति नहीं है. इनमें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र सब हैं. अस्सी वर्ष ईसा पूर्व त्रिपिटक में इसका लिखित रूप है. इन गीतों में स्त्री-स्वरों का वैविध्य है. उनके साहस और संघर्ष के कारण इनका आज विशेष महत्व है. अधिकांश स्त्रियाँ ब्राह्मण हैं. दंतिका, सोमा, मैत्रिका आदि कुल 18 थेरियाँ ब्राह्मण वर्ण की हैं. आतरा और सिंहा क्षत्रिय कुल की हैं. इनका समय बुद्ध का समय है.
स्त्रियों को सदैव मुँह बंद करने को कहा गया है. बौद्ध काल में भी प्रश्न करना मना था. उन्हें लम्बे समय तक प्रश्न करने की ही नहीं, असहमत होने और मुँह खोलने तक की मनाही थी. उब्बिरी, पटाचारा, किसा गोतमी, चंदा, खेमा, सुंभा, सुमेधा, संघा, सोमा, अड्डकासि, मुक्ता, पुण्णा, विमला, इसिदासी, अडता कासी, कुंडल केसी, नंदीतारा, रोहिणी, भद्दा कंचना आदि थेरियो की वाणी से तत्कालीन परिवार और समाज में स्त्री-स्थिति का पता चलता है.
थेरीगाथा स्त्री-जीवन की आदि कथा है. इन थेरियों में अम्बपाली, विमला और अन्य कई वेश्याएँ भी थीं. यहाँ स्त्री का निजी स्वर है. ये स्त्रियाँ राज परिवारों से गरीब परिवारों तक की हैं. पारिवारिक त्रासदी के कारण कई थेरियाँ संघ में शामिल हुईं, दीक्षित हुईं. पटाचारा में अपने घर के सेवक से विवाह करने का साहस था. इनकी प्रज्ञा को दो अंगुलि मात्र का इसलिए कहा गया क्योंकि वे भात पकने का निर्णय दो-एक चावल हाथ में रख कर करती थीं –
‘‘यं तं इसीहि पत्ब्बं ठानं दुरभि संभवं
न तं द्वयन्गुलपन्नय सक्का पप्पोतुमित्थिया ति”.
अनेक अपना सम्मान बचाने के लिए धर्म में दीक्षित हुईं थीं. समाज ने जिन्हें पतित माना, उनके लिए उस समय बौद्ध धर्म था. आम्रपाली को सभी की उप पत्नी (वेश्या) बना दिया गया था. थेरियों का संघर्ष सामाजिक मुक्ति के लिए था. सोमा ने स्त्री और पुरुष को ज्ञान-प्राप्ति से नहीं जोड़ा. पूर्णा ने सवाल किया कि अगर जल में स्नान करने से मुक्ति मिलती है, पाप समाप्त होते हैं, तो सभी पशुओं के साथ भी यह होता होगा. मुक्ति के विविध स्वर थेरी गाथा में हैं. थेरी गाथा में तत्कालीन स्त्रियों की वेदना और उनसे मुक्त होने की आकांक्षा है. इसके पहले मुक्ति का ऐसा विपुल स्त्री-स्वर कहीं सुनाई नहीं पड़ता.
पांडुलिपियों के आधार पर इंडोलॉजी के विद्वान और जर्मन दार्शनिक हरमन ओल्डेन बर्ग (31.10.1854-18.3.1920) और ‘प्राकृत भाषाओं का इतिहास’ के विद्वान लेखक, जर्मन भारतविद् रिचर्ड पिशेल ने 1883 में थेरी गाथा का मूल पाठ प्रस्तुत किया. पहली बार ‘थेरी गाथा’ का अंग्रेजी अनुवाद पाली भाषा में बौद्ध ग्रंथ की सम्पादक, अनुवादक और व्याख्याकार कैरोलीन ऑगस्टा फोले राइस डेविड्स (27.9.1857-26.6.1942) की पुस्तक ‘सॉन्ग ऑफ द सिस्टर्स’ शीर्षक से 1909 में प्रकाशित हुआ.
अंग्रेजी में इसके कई और अनुवाद हुए. चार्ल्स हॉलिसे (थेरवाद बौद्ध धर्म के विशेषज्ञ और हार्वर्ड डिवाइनिटी स्कूल में बौद्ध साहित्य पर येहान नुमाता के वरिष्ठ व्याख्याता) के ‘थेरीगाथा : पोयम्स ऑफ द फर्स्ट बुद्धिस्ट वुमन’ (हार्वर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, 2015) के प्रकाशन के बाद भी भारत और भारत के बाहर ‘थेरीगाथा’ पर कार्य जारी है.
‘द फर्स्ट फ्री वुमेन : पोयम्स ऑफ द अर्ली बुद्धिस्ट नन्स’ के लेखक मैटी वेनगास्ट ने लिखा है कि
‘‘मेरे लिए, बुद्ध के मार्ग की मानवता और सार्वभौमिकता थेरी गाथा में अधिक जीवंत हैं’’.
इन कविताओं ने उनके जीवन को भी बदला. थेरीगाथा की कविताएँ वाचिक परम्परा में अधिक समय तक जीवित रही हैं. इसमें जंजीरें तोड़ने और दीवारों को गिराने की बात भी कही गयी है –
‘‘अपनी जंजीरें तोड़ो
दीवारों को गिराओ
फिर दुनिया में एक स्वतंत्र
महिला के रूप में घूमें.’’
भारत का स्त्री-चिन्तन और विमर्श ‘थेरी गाथा’ के उल्लेख के बगैर पूर्ण नहीं हो सकता.
सुसी थारू और के. ललिता ने ‘वुमेन राइटिंग इन इंडिया’ के पहले खण्ड (ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, 1991) में ईसा पूर्व छह सौ वर्ष से बीसवीं शताब्दी के आरंभ तक जिन स्त्री कवियों-लेखकों पर विचार किया है और उनकी कुछ कविताओं के जो अनुवाद दिए हैं, उनमें ‘थेरीगाथा’ के बाद तमिल के संगम कवि हैं. संगम कालीन तमिल स्त्री कवियों में वेणमणिप्पुटि, वेल्लि विटियार, अयुवैयर (अव्वयार), कावर पेण्डु, ओक्कुर मैकेटि्टयार और काक्कईपटिनियार नैसेल्लियार प्रमुख हैं.
2 हजार 381 कविताओं में 154 कविताएँ स्त्रियों की हैं. काव्य-विषय की दृष्टि से ये कविताएँ दो श्रेणियों- अकम (आंतरिक या रोमैंटिक) और पुरम (बाह्य और युद्ध-संबंधी) श्रेणियों में विभाजित हैं. इनमें दैनिक जीवन के भी स्वर हैं. इन सभी स्त्री कवियों में अयुवैयर सर्वाधिक उल्लेखनीय हैं, जिनकी कुल 59 कविताएँ उपलब्ध हैं. इनमें 33 कविताएँ ‘पुरम’ कोटि की हैं और 26 कविताएँ ‘अकम’ के अन्तर्गत हैं. ‘अकम’ की तुलना में ‘पुरम’ की कविताओं की अधिकता से इस कवि की यह विशेषता प्रकट होती है कि उसके यहाँ अन्तः संसार की तुलना में बाह्य संसार का विशेष महत्व है. अयुवैयर की विशेषता यह है कि उन्होंने जितना प्रेम को महत्व दिया, उससे कहीं अधिक राजा के युद्ध और राजनीति के संबंध में लिखा. उनकी ऐसी रचनाएँ तमिल के सभी संगमकालीन स्त्री कवियों से कहीं अधिक विशिष्ट हैं. संगम कवयित्रियाँ गायिका, नर्तकी और संगीतज्ञ भी थीं.
भक्ति-आन्दोलन में स्त्रियों का विशिष्ट योगदान है. भक्ति-आन्दोलन के कवि विष्णु और शिव के भक्त हैं. दक्षिण भारत में विष्णु के भक्त आलवार हैं और शिव के नायनार. नायनार भक्ति-आन्दोलन का पहला गीत कराइकल अम्माइयार ने लिखा है. भक्ति-आन्दोलन की कविता समर्पण की नहीं, विद्रोह की भी है. स्त्री कवियों में विद्रोह के ये स्वर मौजूद हैं. पितृसत्तात्मक समाज, सामन्ती एवं ब्राह्मणवादी-वर्णवादी व्यवस्था के विरूद्ध स्त्री-स्वर यहाँ मौजूद हैं. भक्ति आन्दोलन को स्त्री कवि से अलग कर नहीं देखा जा सकता. इसमें स्त्रियों की प्रभावकारी भागीदारी है. 12वीं से 18वीं शताब्दी तक भारत की विविध भाषाओं का स्त्री-स्वर अनूठा है. रामविलास शर्मा ने ‘भारतीय संस्कृति और हिन्दी प्रदेश’ के दूसरे खण्ड में ‘तमिलनाडु की आण्डाल, कर्णाटक की अक्क महादेवी, हिन्दी प्रदेश की मीराँ बाई और कश्मीर की ललद्यद’ पर एक साथ विचार करना उचित माना है. दक्षिण भारत की संत कवि आण्डाल बारह आलवार संतों में हैं. विष्णु के प्रति अटूट भक्ति के कारण उन्होंने सांसारिक विवाह नहीं किया. उन्होंने दो तमिल कृतियों-‘तिरूप्पवई’ और ‘नचियार तिरूमोइ’ की रचना की. दक्षिण भारत की महिलाओं के लिए वे विशिष्ट हैं. कई महिला समूह- गोदा मंडली आदि उनसे प्रेरणा प्राप्त करते हैं. ‘नचियार तिरूमोई’ का अर्थ है ‘देवी की पवित्र बातें’. इसे जयदेव के ‘गीत गोविन्द’ के समान माना गया है. उनके यहाँ कई स्थलों पर उन्नत, पीन, तरूण ‘पयोधर’ का उल्लेख है.
‘‘गोदा के पदों में सघन ऐन्द्रियता है, जो अन्य संत कवियों में नहीं है. भागवत के अलावा इसका एक स्रोत कालिदास-काव्य हो सकता है, विशेष रूप से मेघदूत.’’ (रा. वि. शर्मा)
वे केवल कृष्ण के रूप-सौन्दर्य का ही वर्णन नहीं करतीं, अपने रूप और यौवन के प्रति भी सचेत हैं. वे कृष्ण से शारीरिक सम्पर्क की इच्छुक हैं. निराशा के क्षणों में उन्होंने अपने स्तन को उखाड़ फेंकने की बात भी कही है. ‘आण्डाल’ का शब्दिक अर्थ शासन करने वाली’ है.
अक्क महादेवी कन्नड़ भाषा की पहली कवयित्री हैं – ‘दिगम्बर विद्रोहिणी’. समाज की जड़ मान्यताओं का उन्होंने विरोध किया. उनके यहाँ ‘एक योद्धा की ललकार’ है. वे अपने को निरूपाय, विचलित, भय-ग्रस्त नहीं मानतीं.
‘‘कठिन से कठिनतर कोई चुनौती हो, लडूँगी, सामना डट कर करूँगी.’’
अक्क महादेवी ने समाज की जड़ मान्यताओं का विरोध किया है. उनका व्यक्तित्व अडिग और अपराजेय हैं. उन्होंने नग्न होकर एक प्रकार से समाज को नग्न किया. बारहवीं शताब्दी की इस कवि को अपने पति कौशिक के राजपाट और ऐश्वर्य से कोई मतलब नहीं था. उनका प्रेम मल्लिकार्जुन से था. यह निर्णय स्त्री-निर्णय है, स्वतंत्र निर्णय. वे उसी की पूजा करती थीं.
‘‘घर में पति और
बाहर प्रियतम
एक साथ दोनों से निबाह
नहीं कर पाऊँगी मैं
यह संसार और
वह दूसरा संसार
एक साथ दोनों से निबाह नहीं कर पाऊँगी मैं’’.
उन्होंने धार्मिक संकीर्णताओं का विरोध किया, पितृसत्ता और ब्राह्मणत्व को चुनौती दी, विपरीत स्थितियों और प्रतिकूलताओं का मुकाबला किया. वे राजमहल से निर्वस्त्र निकलीं, अपनी देह को अपने लम्बे बालों से ढँका. सुभाष राय ने अपनी सद्य: प्रकाशित पुस्तक ‘दिगम्बर विद्रोहिणी अक्क महादेवी’ में उन्हें ‘‘देह की दृष्टि से … दक्षिण की तीन अन्य महत्वपूर्ण कवियों अवइयार, कराइकल अम्माइयार और आण्डाल से भिन्न’’ माना है. उनके यहाँ देह से मुक्ति है –
‘‘देह में रहते हुए मैं लिंग में हूँ
लिंग में रहते हुए मैं देह में हूँ
दोनों में भेद से मुक्त होकर
मैं आनन्द से भर गयी हूँ.’’
वीर शैव आन्दोलन में स्त्री वचनकारों की संख्या साठ से अधिक है. इस आन्दोलन से इतनी विपुल संख्या में स्त्रियों के जुड़ने का कारण धर्म, कर्मकाण्ड, जाति और लिंग से मुक्ति की आकांक्षा है. कई स्त्री वचनकार श्रमिक वर्ग से थीं. कुछ वेश्याएँ भी रह चुकी थीं. सुभाष राय ने लिखा है –
‘‘वीर शैव आन्दोलन से आकर्षित होकर सामने आयीं दलित और अस्पृश्य वर्ग की स्त्रियों ने उच्च कोटि के वचन कहे. आय्दक्की लक्कम्मा, कदिर कायकद कालव्वे, रेमाव्वे, बाचि कायकद कालव्वे, कन्नडि कायकद रेमम्मा, अमुगे रायम्मा, हड़पद लिंगम्मा, कोट्टणद सोमम्मर, धूपद गोग्गव्वे, हादर कायकद संकव्वे और सत्यक्का ऐसी वचनकारों में प्रमुख हैं.”
कश्मीर में ललद्यद को ललेश्वरी, ललयोगेश्वरी, लला, लल आदि नामों से भी याद किया जाता है. जिस प्रकार हिन्दी में कबीर के दोहे, तुलसी की चौपाई, मीराँ के पद और रसखान के सवैये प्रसिद्ध हैं, उसी प्रकार ललद्यद का वाख, जो एक काव्य-शैली है. इन्होंने मंदिर-मस्जिद, कर्मकाण्ड, बाह्याडम्बरों एवं मिथ्याचारों का विरोध किया. ललद्यद के वाखों के सम्पादक और हिन्दी अनुवादक शिबन कृष्ण रैणा उन्हें कबीर की भाँति हिन्दुओं और मुसलमानों को खरी-खोटी सुनाते देखते हैं. ललद्यद का जन्म कबीर के पहले हुआ है. साम्प्रदायिक भेद-भाव के संबंध में उनका कथन है –
‘‘शिव सर्वत्र व्याप्त है, अतः हे मनुष्य! तू हिन्दू तथा मुसलमान में भेद न जान. यदि तू बुद्धिमान है तो अपने आप को पहचान.’’
रामविलास शर्मा उनके
‘‘वाक्यों में यजुर्वेद से चली आती लोक संस्कृति की प्रश्नोत्तर करने वाली परम्परा को पुनर्जीवित’’
होते देखते हैं. ललद्यद का दुःख एक स्त्री का दुःख है. पितृ सत्तात्मक समाज में कन्या और पुत्र के जन्म लेने के अंतर की बात उनके यहाँ है. उन्होंने स्वयं निर्वस्त्र होकर नाचने की बात कही है. उनके यहाँ जीव-जन्तुओं की हत्या का विरोध है, पोथियों के पाठ अर्थहीन हैं और कामना, लोभ, लालच व्यर्थ हैं.
मीराँ के काव्य को डॉ. रामविलास शर्मा ने
‘ललद्यद से काफी दूर और आण्डाल के बहुत पास’ माना है. मीराँ हिन्दी कवयित्रियों में पहली विद्रोहिणी हैं. सामंती समाज में स्त्रियों की दशा कभी ठीक नहीं रही और राजघरानों के भीतर भी कई बंदिशें थी. मीराँ को निन्दा या लोकोपवाद की कोई फिक्र नहीं है. वे राजसी वस्त्राभूषण का त्याग करती हैं –
‘‘पाट पटम्बर सब ही मैं त्यागा, सिर बांध्यो छै जूड़ो
माणिक मोती सब ही मैं त्यागा, तज दियो कर को चूड़ो’’
मीराँ अपने को बंधन मुक्त कर स्त्री-स्वातन्त्र्य का आदर्श उदाहरण प्रस्तुत करती हैं. माघव हाड़ा ने मीराँ के विद्रोह को
‘‘उस राज, धर्म और लोकसत्ता के विरूद्ध’ माना है, ‘‘जो शत्रु के रूप में उनके समय में और उनके स्थान पर है.’’
2.
उन्नीसवीं शताब्दी के सामाजिक सुधार और राष्ट्रवादी आन्दोलन के पहले का जो कुछ प्रमुख भारतीय स्त्री-लेखन है, उसमें कन्नड़ की सुले सनकव्वा (12वीं सदी) और संसिया होन्नाम्मा (अंतिम 17वीं सदी) मराठी की जनाबाई (14वीं सदी) और बहिनाबाई (17वीं सदी), बंगाली की रामी (15वीं सदी) और चन्द्रावती (16वीं सदी), गुजराती की गंगा सती (12-14वीं सदी), रत्ना बाई (12वीं-14वीं सदी), तेलुगू की अटुकुरी मोल्ला (आरंभिक 16वीं सदी), मुड्डुपलानी (18वीं सदी) और तरिगोंडा वेकम्मबा (19वीं सदी) फारसी की गुल-बदन बेगम (16वीं सदी) और उर्दू की महलका बाई चंदा (18वीं सदी) का विशेष महत्व है. सुसी थरू और के. ललिता ने अपनी सम्पादित पुस्तक में इन सब की कुछ कविताओं के अंग्रेजी अनुवाद दिए हैं. मध्यकालीन एवं भक्तिकालीन भारतीय स्त्रियों के लेखन पर खोज और अनुसंधान जारी है. प्रत्येक युग के स्त्री-लेखन में कुछ अंतर से ही सही, हम पितृसत्ता, राजसत्ता और धर्म सत्ता का विरोध देखते हैं. पितृसत्तात्मक समाज आज पहले की तरह नहीं है, पर भारतीय स्त्रियाँ इस सत्ता-त्रयी से आज भी प्रभावित हैं. स्त्री-चेतना का एक भिन्न स्वर उन्नीसवीं सदी के सुधारवादी आन्दोलन में है. स्त्री-शिक्षा से स्त्री-जागरण का एक नया दौर आरंभ होता है.
राधा कुमार (भारतीय नारीवादी लेखिका और शिक्षाविद) ने अपनी पुस्तक ‘द हिस्ट्री ऑफ डूइंग : एन इलस्ट्रेटेड अकाउंट ऑफ मूवमेंट्स फॉर वूमेन राइट्स एंड फेमिनिज्म इन इंडिया 1800-1990′ (1993) में लगभग विगत दो शताब्दी के भारत में स्त्री अधिकार और नारीवादी आन्दोलन पर विचार किया है. बारह अध्यायों और चार खण्डों में विभाजित इस पुस्तक में ब्रिटिश साम्राज्य के दौर में भारतीय महिलाओं एवं आजादी के बाद की अवधि के उनके अधिकारों एवं आन्दोलनों की जानकारी है. इसने मिलकर भारतीय और हिन्दी स्त्री-लेखन को प्रभावित किया. सुसीथरू एवं के. ललिता ने सुधार और राष्ट्रवादी आन्दोलन के दौर (बीसवीं शताब्दी के आरंभ तक) की जिन स्त्रियों के लेखन पर विचार किया है, उनमें सर्वाधिक संख्या बांग्ला और मराठी लेखिकाओं की 10-10 हैं. अंग्रेजी की 5, कन्नड़ की 4, मलयालम की 2, तेलुगू की 3, हिन्दी की 4 और ओड़िया की 1 है.
भारतीय नवजागरण का आरंभ बांग्ला नवजागरण से हुआ. बाद में अन्य भू-भाग में नवजागरण की लहर फैली. उन्नीसवीं सदी की तीन सक्रियतावादी एवं समाज-सुधारक स्त्रियाँ -सावित्री बाई ज्योतिराव फुले (3.1.1831-10.3.1897), ताराबाई शिंदे (1850-1910) और पंडित रमाबाई सरस्वती (23.4.1858-5.4.1922) महाराष्ट्र की थीं. सावित्री बाई फुले भारत की प्रथम महिला शिक्षक हैं. भारत में महिला शिक्षा की प्रणेता. लेखिका और कवयित्री. उनकी एक कविता है- ‘जाओ, शिक्षा प्राप्त करो’. डेढ़ सौ वर्ष पहले 24 सितम्बर 1873 को उन्होंने ‘सत्य शोधक समाज’ की स्थापना की, जिसका उद्देश्य शूद्र एवं अस्पृश्य जाति के लोगों की मुक्ति था. ज्योतिबा फुले जाति-व्यवस्था और भेदभाव के विरूद्ध थीं. इन तीनों के साथ डॉ. आनंदी बाई जोशी (31.3.1865-26.2.1887) और रमा बाई रानाडे (25.1.1862-25.1.1924) ने स्त्री मुक्ति आन्दोलन की आधारशिला रखी.
उन्नीसवीं शताब्दी में कलकत्ता में हिन्दू कॉलेज की स्थापना एक बड़ी घटना थी. हेनरी विवियन डेरोजियो (18.4.1809-26.12.1931) ने ‘यंग बंगाल मूवमेंट’ आरम्भ किया. राजा राममोहन राय (22.5.1772-27.9.1833) ‘भारतीय पुनर्जागरण के अग्रदूत और आधुनिक भारत के जनक’ हैं. उन्होंने ब्रह्म समाज की स्थापना 20 अगस्त 1828 और आत्मीय सभा की स्थापना 1815 में की थी. केशवचन्द्र सेन (19.11.1838-8.1.1884) और ईश्वर चन्द्र विद्यासागर (26.9.1820-29.7.1891) प्रमुख समाज सुधारक थे. समाज सुधारकों की यह वृहत्त्रयी बंगाल की थीं. महाराष्ट्र में फुले, ताराबाई शिंदे (1850-1910) और पंडित रमाबाई सरस्वती (23.4.1858-5.4.1922) की महिला बृहत्त्रयी थी. राजा राममोहन राय ने अंध विश्वास, छुआछूत, विधवा स्थिति आदि के विरूद्ध लड़ाई लड़ी. सती प्रथा और बाल-विवाह की आलोचना-भर्त्सना की. उन्होंने रूढ़िवादी शिक्षा के स्थान पर प्रगतिशील शिक्षा का विकास किया. आत्माराम पांडुरंग और केशवचन्द्र सेन ने मिल कर 31 मार्च 1867 को प्रार्थना समाज की स्थापना की, जिसका एजेंडा था- जाति-व्यवस्था की अस्वीकृति, विधवा पुनर्विवाह और महिलाओं की शिक्षा. ईश्वर चन्द्र विद्यासागर के प्रयत्नों से विधवा पुनर्विवाह एक्ट 1856 में पारित हुआ. उन्होंने बाल विवाह का विरोध किया. अपने एकमात्र पुत्र की शादी एक विधवा से कराई.
महाराष्ट्र में ताराबाई शिंदे नारीवादी सक्रियतावादी थीं, जिनके पति महात्मा फुले के सहयोगी थे. ताराबाई शिंदे ने पितृसत्ता और जाति-व्यवस्था का विरोध किया. एक रूढ़िवादी अखबार ‘पुणे वैभव’ में प्रकाशित एक लेख की प्रतिक्रिया में उन्होंने ‘स्त्री-पुरुष तुलना’ पुस्तिका लिखी, जिसमें तीन पृष्ठों की भूमिका, उनसठ पृष्ठों की टिप्पणी और बावन पृष्ठों का लेख है. ‘स्त्री-पुरुष तुलना’ भारत का पहला आधुनिक भारतीय नारीवादी पाठ है, जिसमें पितृसत्ता की आलोचना है. यह पुस्तिका जाति और पितृसत्ता की ‘क्रिटीक’ है. ‘द हाई कास्ट हिन्दू वूमेन’ (1887) की लेखिका पंडिता रमाबाई भारत की पहली नारीवादी पंडिता हैं. उन्होंने धार्मिक-सामाजिक रूढ़ियों का विरोध किया. 1878 में कलकत्ता विश्वविद्यालय ने उन्हें ‘पंडिता’ और ‘सरस्वती’ की उपाधि प्रदान की. उन्हें शास्त्र-पुराण का अद्भुत ज्ञान था. अमेरिका जाकर उन्होंने नयी शिक्षा-नीति का अध्ययन किया. बाल विधवाओं के लिए ‘शारदा सदन’ की स्थापना की. ‘मुक्ति-सदन’ और ‘कृपा सदन’ की भी स्थापना की. ब्राह्मण कुल की होने के बाद भी रमाबाई ने न्यायालय जाकर अंतरजातीय और अंतरक्षेत्रीय विवाह किया. 1882 में हंटर कमीशन के समक्ष उन्होंने साक्ष्य दे कर यह प्रमाणित किया कि सौ शिक्षित आदमियों में से निन्यानबे प्रतिशत स्त्री-शिक्षा के विरोधी हैं. महिला उत्थान के लिए किये गये उनके कार्य ऐतिहासिक हैं. पुणे में 1881 में उन्होंने ‘आर्य महिला समाज’ की स्थापना की. स्त्री स्कूल इंस्पेक्टर की नियुक्ति की बात सर्वप्रथम उन्होंने ही कही है. ऊँची डिग्री प्राप्त करने के लिए उन्होंने ईसाई धर्म अपनाया.
उन्नीसवीं सदी के भारतीय नवजागरण और स्त्री-जागरण से तत्कालीन शिक्षित स्त्रियों का अधिक प्रभावित होना स्वभाविक था. जिस समय पश्चिम में नारीवाद जन्म ले रहा था, लगभग उसी समय से भारतीय स्त्रियाँ आधुनिक काल में पहली बार स्त्री-जागरण को महत्व दे रही थीं. स्त्रियों द्वारा स्त्री शिक्षा और स्त्री-जागरण की दिशा में किये गये ये प्रयत्न ऐतिहासिक और अविस्मरणीय हैं, जिनसे आज की सक्रियतावादी स्त्रियाँ भी बहुत कुछ ग्रहण कर सकती हैं. 19वीं शताब्दी को कुछ अर्थ में ‘महिला-युग’ भी कहा गया है. इस समय अंग्रेजी, फ्रेंच और बांग्ला में उपन्यास और आत्मकथा की रचना हुई. 19वीं सदी के उत्तरार्द्ध में बंगाल की महिला लेखिकाओं ने तीन सौ से अधिक किताबें लिखीं. जिस युग में उपन्यास पढ़ने की मनाही थी, उस युग की स्त्रियों ने उपन्यास लिखे. तोरूदत्त (4.3.1856-30.8.1877) पहली भारतीय लेखक हैं, जिन्होंने फ्रेंच में उपन्यास लिखा. ‘ए शीफ ग्लीनड इन फील्डस’ (1877). बेगम रोकैया सखावत हुसैन (9.12.1880-9.12.1932) मुसलमान नारीवादी हैं. इनका उपन्यास ‘सुल्तानाज ड्रीम’ 1905 में प्रकाशित हुआ.
तसलीमा नसरीन इनसे अपने को प्रभावित कहती हैं. कृपाबाई सत्य नाथन (14.2.1862-8.8.1894) ने अंग्रेजी में लिखा. रवीन्द्रनाथ ठाकुर की बहन स्वर्ण कुमारी देवी (28.8.1855-3.7.1932) का पहला उपन्यास ‘दीप निर्वाण’ 1876 में प्रकाश में आया. बंगाली महिला रास सुन्दरी देवी (1810-1899) की आत्म कथा ‘आमार जीवोन’ (1876) किसी भी भारतीय महिला द्वारा लिखी गयी पहली आत्मकथा है. दो भागों में विभक्त इस आत्मकथा के पहले भाग की सोलह छोटी रचनाओं में उनकी आत्मकथा का वर्णन है. स्त्रियों की मातृ छवि उन्नीसवीं सदी में ही कुछ अंशों में स्त्री-छवि में बदलने लगी थी. इस सदी में महादेव गविन्द रानाडे, महर्षि कर्वे और गोखले आदि ने भी एक रचनात्मक माहौल तैयार किया था.
3.
नारीवादी लेखन के साथ ‘नारीवाद’ (फेमिनिज्म) पद का जन्म हुआ है. यूरोपियन समाजवादी फ्रेंच दार्शनिक चार्ल्स फूरियर (7.4.1772-10.10.1837) ने 1837 में पहली बार इस पद का प्रयोग किया. फ्रांस और नीदरलैंड में सर्वप्रथम ‘फेमिनिज्म’ (नारीवाद) और ‘फेमिनिस्ट’ (नारीवादी) पद चलन में आया. बाद में 1872 और 1890 के दशक में ग्रेट ब्रिटेन और 1910 में संयुक्त राज्य अमेरिका में यह पद प्रचलित हुआ. स्त्री-लेखन का इतिहास पुराना है, पर ‘नारीवाद’ का इतिहास दो-ढाई सौ वर्ष का है. ब्रिटिश लेखिका मैरी वॉल्स्टन क्रॉफ्ट (27.4.1759-10.9.1797) को ‘नारीवाद की जननी’ कहा जाता है. उनकी पुस्तक ‘ए विन्डिकेशन ऑफ द राइट्स ऑफ वूमेन’ 1772 में प्रकाशित हुई. इस पुस्तक में उन्होंने लैंगिक भूमिकाओं में समानता के तर्क दिए और महिलाओं के लिए नैतिक और बौद्धिक स्वायत्तता की बात की. इन्होंने एक स्कूल की भी स्थापना की और शिक्षा संबंधी एक पुस्तक लिखीं – ‘‘थॉट्स ऑन द एजुकेशन ऑफ डॉटर्स” (1787). इनका सुझाव था कि अगर महिलाएँ सामाजिक आभूषण न बन कर मूल्यवान कौशल प्राप्त करें, तो राष्ट्र के सामाजिक-राजनीतिक जीवन में बहुत सुधार होगा.
भारत में स्त्री-लेखन का इतिहास पुराना है और नारीवाद का इतिहास नया है, जिसकी शुरूआत 19वीं सदी के मध्य से होती है. इस पहले चरण में सुधारवादियों ने महिला अधिकारों की बात की, उनसे जुड़ी शिक्षा और रीति-रिवाजों में सुधार पर विशेष बल दिया. दूसरा चरण भारत में गांधी के आगमन से 1915 से आरंभ होकर 1947 तक है और तीसरा चरण स्वतंत्रता के बाद आरंभ होता है, जो 1990 के दशक से भिन्न और इक्कीसवीं सदी में कहीं अधिक सबल रूप में मौजूद है. इस दूसरे चरण में ही देश का पहला महिला विश्वविद्यालय खुला – ‘श्रीमती नाथी बाई दामोदर ठाकरसे महिला विश्वविद्यालय. इस विश्वविद्यालय की स्थापना 1916 में हुई.
पहली बार 1921 में यहाँ से पाँच महिलाएँ ग्रेजुएट हुईं. उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य में जब स्त्री-शिक्षा को सामाजिक समर्थन नहीं था, सावित्री बाई फुले ने अपने पति ज्योतिराव गोविन्द राव फुले के साथ पुणे में सितम्बर 1848 को कन्याओं के लिए एक स्कूल खोला. एक वर्ष के भीतर पति-पत्नी दोनों ने पाँच नये स्कूल खोले. स्त्री की परतन्त्रता स्त्री-शिक्षा के बिना दूर नहीं हो सकती. स्त्री-जागरण, स्त्री-स्वतंत्रता का शिक्षा से अभिन्न संबंध है. शिक्षा प्राप्त करने के बाद ही वह आर्थिक स्वतंत्रता प्राप्त करती है.
भारत में नारीवाद का जन्म उन्नीसवीं सदी से होता है. बीसवीं सदी के स्त्री-आन्दोलन का पहला समय 1917 से 1945 तक है, जो वोट अधिकार और पर्सनल लॉ में सुधार को लेकर था. सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक अधिकार-प्राप्ति के लिए स्त्रियों ने संघर्ष किया, आन्दोलन किया. पुरुष-स्त्री में शारीरिक अंगों (ऑर्गन) की दृष्टि से अधिक भिन्नता नहीं है. दो-चार ऑर्गन भिन्न हैं, जबकि समान ऑर्गन की संख्या कहीं अधिक है. कुदरती भेदभाव से कहीं अधिक सामाजिक भेदभाव है. पितृसत्तात्मक और सामन्ती समाज स्त्री-उत्थान में सदैव बाधक रहा है. उसे या तो देवी बनाया गया या दासी. परिवार एवं समाज ने उसे बंधन में रखा. शिक्षा ने उसे सभी प्रकार के बंधनों से मुक्त किया. आधुनिक शिक्षा के कारण स्वतंत्रता, समानता, बंधुत्व के यूरोपीय विचारों ने स्त्री-जागरण में बड़ी भूमिका का निर्वाह किया है. नारीवाद की पहली लहर में महिलाओं का मताधिकार है, दूसरी लहर में स्त्री-मुक्ति और यौन-स्वतंत्रता है और तीसरी लहर में पहचान की विविधता और अंतर्संबंध है.
पश्चिम में नारीवाद की पहली लहर शहरी उद्योगवाद और उदारवादी, समाजवादी राजनीति के माहौल से उन्नीसवीं सदी के अंत और बीसवीं सदी के आरंभ से उत्पन्न हुई थी. इस लहर का मुख्य लक्ष्य मताधिकार प्राप्त करना था. नए वामपंथी उभार के दौर में वहाँ 1960 के दशक से जो दूसरी लहर उठी, उसका मुख्य मुद्दा कामुकता और प्रजनन का अधिकार था. 1968-69 में इस लहर का आरंभ ‘मिस अमेरिका’ प्रतियोगिता से हुआ. ब्रा जलाने की भी घटना हुई. इसी समय कई पुस्तकें भी प्रकाशित हुईं. इसे ‘रैडिकल फेमिनिज़्म’ कहा गया है. अमेरिकी लेखिका एवं सक्रियतावादी (एक्टिविस्ट) बेट्टी फ्रीडन (4-2-1921-4-2-2006) की पुस्तक ‘द फेमिनिन मिस्टक’ (1963) को इस दूसरी लहर को भड़काने का श्रेय जाता है. फ्रीडन ने परिवार-संस्था नष्ट करने को स्त्री-स्वतंत्रता की सुरक्षा बताया था.
सत्तर के दशक और अस्सी के दशक के आरंभ में उग्र नारीवादी की यह लहर अमेरिका और पश्चिमी यूरोप में अधिक प्रमुख रही. 1970 में अमेरिकी नारीवादी लेखिका केट मिलेट (14-9-1934-6-9-2017) की पुस्तक ‘सेक्सुअल पॉलिटिक्स’ और कनाडाई मूल की अमेरिकी कट्टरपंथी नारीवादी एवं सक्रियतावादी शूलमिथ फायर स्टोन (4-1-1945-28-8-2012) की पुस्तक ‘द डायलेक्टिक ऑफ सेक्स : द केस फॉर फेमिनिस्ट रिवोल्यूशन’ प्रकाशित हुई थी. समलैंगिक नारीवाद (लेस्बिनियन फेमिनिज़्म) के उदय का भी यही समय है. समलैंगिक नारीवाद (फेमिनिज़्म) नारीवाद का एक उप समूह है. गंभीर युवा अध्येता एवं चिंतक मुदित मिश्र ने अपने एक लेख ‘पश्चिमी देशों में समाज की वैचारिक संरचना और स्त्री’ (‘आज की जन धारा’ की साहित्यिक वार्षिकी 2024′ ‘ग्लोबल गाँव में स्त्री’, संपादक भालचन्द्र जोशी) में ‘रैडिकल अमेरिकी नारीवाद’ को ठीक ही ‘ पितृसत्तात्मक व्यवस्था का ही एक शातिर प्रवर्धित पॉप संस्करण’ कहा है.
स्त्री-लेखन और स्त्री-जागरण दोनों एक दूसरे से जुड़े हैं. दोनों ने एक दूसरे को प्रभावित किया है. नारीवादी साहित्य के बाद नारीवादी साहित्यिक आलोचना आई. नारीवादी साहित्यिक आलोचना के संस्थापकों में से एक अमेरिकी नारीवादी आलोचक एलेन शोवाल्टर (21.1.1941) ने अपनी पुस्तक ‘ए लिटरेचर ऑफ देयर ओन’ (1977) में स्त्रीवाद की सैद्धान्तिकी के तीन चरणों – फेमिनिस्ट क्रिटिक, गाएनो क्रिटिक और जेंडर थियरी की चर्चा की है. प्रमुख भारतीय नारीवादी सिद्धान्तकार वी. गीता स्त्री-प्रश्न को जीव-विज्ञान अथवा शरीर-शास्त्र से संबंधित नहीं मानतीं. पंत ने बहुत पहले लिखा था – ‘योनि नहीं है री नारी/वह भी मानवी प्रतिष्ठित’. नारी को हिन्दी में पहली बार ‘सहचरी’ उन्होंने ही कहा. लिंग-भेद को यथार्थ और सामाजिक वास्तविकता से अलग कर नहीं देखा जा सकता. स्त्री-विमर्श बाद में आरंभ हुआ.
हाईपेशिया (350-370-415) को विश्व की प्रमुख महिला दार्शनिक कहा जाता है, पर जो आधुनिक स्त्री दार्शनिक और विचारक के रूप में प्रतिष्ठित हैं, वे सब बीसवीं सदी की हैं. एक अंग विशेष ‘योनि’ पर भी पिछले पचीस वर्ष में कई किताबें प्रकाशित हुई हैं. अमेरिकी नाटककार और स्त्रीवादी एव एंसलर (25.5.1953) के नाटक ‘द वैजाइना मोनोलॉग्स’ का प्रकाशन 1996 में हुआ. अनेक समूहों, समुदायों की दो सौ से अधिक स्त्रियों के इंटरव्यू पर आधारित इस नाटक का 48 भाषाओं में अनुवाद हो चुका है. और 140 देशों में इसका मंचन भी हुआ है. एव एंसलर ने भूमिका में इस शब्द ‘वैजाइना’ पर विस्तार से विचार किया है. यह पोर्नोग्राफी (अश्लील) शब्द नहीं है, एक ‘मेडिकल’ शब्द है. हाथ, भौंह और पसली की तरह शरीर का एक अंग. लिंडियल लिप्सकॉम्ब की पुस्तक ‘इफ माई वैजाइना कुड टॉक’ (2020) में पाँच महिलाओं के जीवन, प्रेम और मातृत्व की सच्चाई है.
4.
हिन्दी के स्त्री-लेखन में कविता, कथा-साहित्य की विशेष चर्चा होती है, अन्य साहित्य-रूपों की कम. गरिमा श्रीवास्तव ने पिछले वर्ष ‘समालोचन’ (वेब पत्रिका 3 अप्रैल 2023) में हरदेवी की यात्रा’ पर पहली बार विस्तारपूर्वक विचार किया. स्त्री-विमर्श से संबंधित यह एक महत्वपूर्ण लेख है. उन्नीसवीं सदी के स्त्री-लेखन-चिंतन पर गहन शोध जारी है. ‘हरदेवी की यात्रा’, ‘शिक्षा के लिए 1887 में लन्दन जाने वाली पहली उत्तर भारतीय स्त्री की यात्रा-कथा’ है. एक स्त्री द्वारा हिन्दी में लिखा गया यह पहला यात्रा-वृत्तान्त है. बाल-विधवा होने के बाद हरदेवी ने बैरिस्टर रोशन लाल सक्सेना से प्रेम-विवाह किया था. वे भटनागर कायस्थ थीं और रोशन लाल सक्सेना सक्सेना कायस्थ थे. इन दोनों उपजातियों में विवाह उन्नीसवीं सदी के अंत में असंभव था. विवाह के बाद हरदेवी हरदेवी रोशन लाल नाम से अधिक जानी गयीं. वे बिहार के सच्चिदानन्द सिन्हा की पत्नी राधिका सिन्हा की बुआ थीं. ‘लंदन यात्रा’ (1887), ‘लंदन जुबली’ (1889) के बहुत पहले उन्होंने ‘स्त्री-विलाप’ (1881) लिखा. गरिमा श्रीवास्तव ने यात्रानुभव एवं यात्रा-वृत्तान्तों के ‘लिखे जाने से एक नई जेंडर संबंधी ताकत का उदय’ माना है. उन्होंने हरदेवी द्वारा एक ‘प्रतिरोधी विमर्श’ तैयार किये जाने की बात भी कही है. गरिमा श्रीवास्तव ने पिछले वर्ष अपनी प्रकाशित पुस्तक ‘हरदेवी की यात्रा’ (सेतु प्रकाशन, 2023) में केवल ‘लन्दन यात्रा’ और लंदन जुबली’ (परिशिष्ट में ‘स्त्रियों पर सामाजिक अन्याय’) पर विचार किया है. पण्डिता रमा बाई ने अपनी पुस्तक ‘द हाई कास्ट हिन्दू वूमेन’ (1887) में ‘सीमन्तनी उपदेश’ की लेखिका का आदर और श्रद्धा से स्मरण किया है. उसके नाम की किसी को कोई जानकारी नहीं थी.
रमाबाई ने ‘सीमंतनी उपदेश’ के एक अध्याय का अनुवाद (‘बाई ए विडो’) भी किया. धर्मवीर ने ‘सीमन्तनी उपदेश’ की खोज की और उसकी लेखिका ‘एक अज्ञात हिन्दू औरत’ को माना. ‘सीमंतनी उपदेश’ (1883) के पहले ‘स्त्री-विलाप’ (1881) की लेखिका भी ‘एक विधवा स्त्री’ ही थी. उनके नाम की किसी को जानकारी नहीं थी. गंभीर अध्येता और हिन्दी आलोचक रमण सिन्हा ने पहली बार दुर्लभ दस्तावेजों के आधार पर गोविन्द वल्लभ पंत संस्थान द्वारा आयोजित एक राष्ट्रीय संगोष्ठी (27-28 दिसम्बर 2022) में यह प्रमाणित किया कि ‘सीमंतनी उपदेश’ की लेखिका हरदेवी ही हैं. उन्होंने उनके द्वारा रचित ‘सीमंतनी संगीत’ का भी उल्लेख किया है, जो अनुपलब्ध है.
हरदेवी रचनावली रमण सिन्हा ने सम्पादित कर ली है, जो शीघ्र प्रकाश्य है. हरदेवी ने केवल किताबें ही नहीं लिखीं, स्त्री-जागरण और उन्नयन के लिए कई बड़े कार्य भी किये. बम्बई की सार्वजनिक सभा में इनके द्वारा दिया गया भाषण एक बड़ी घटना थी. लाहौर में पर्दा में रहने वाली लगभग डेढ़ सौ स्त्रियों की उन्होंने सभा की थी. ‘मनु स्मृति’ को ‘निर्दय शास्त्र’ और ‘अधर्मशास्त्र’ कहा और मनु को ‘मूर्ख विचारहीन पुरुष’ माना. ‘स्त्री-विलाप’ (1881), ‘सीमंतनी उपदेश’ (1883), ‘लंदन यात्रा’ (1888), ‘लंदन जुबली’ (1889), ‘स्त्रियों पर सामाजिक अन्याय’ (1892), ‘हुक्म देवी’ उपन्यास (1892) इनकी पुस्तकें हैं – अंग्रेजी में ‘पैम्फलेट ऑन फीमेल एजुकेशन एण्ड फीमेल राइट्स’ (1893) और उर्दू में ‘तालीम-ए-तिफलान’ (1888) अन्य पुस्तकें हैं.
सीमोन द बोउआ (9.1.1908-14.4.1986) के अनुसार “स्त्री पैदा नहीं होती, बनाई जाती है” उन्होंने क्रिस्टीन डी पिजान (1364-1431) को अपने ‘सेक्स की रक्षा के लिए कलम उठाने वाली पहली महिला’ कहा है. पिजान की दो प्रसिद्ध पुस्तकें हैं- ‘द बुक ऑफ द सिटी ऑफ लेडीज’ (1405) और ‘द ट्रेजर ऑफ द सिटी ऑफ लेडीज’ (1405). पिजान फ्रेंच कवयित्री और फ्रांस के छठे चार्ल्स की ‘कोर्ट राइटर’ थीं. स्त्री-चिन्तन के दौरान उन अनेक स्त्रियों को ढूँढा और खोजा जा रहा है, जो इतिहास के कुछ पन्नों में ही सिमटी रह गयीं. अमेरिकी विद्वान चैरिटी कैनन विलार्ड (9.8.1914-5.6.2005) ने पिजान का अनुवाद किया, उन पर पी-एच.डी. की. ‘द सेकेंड सेक्स’ का हिन्दी में केवल एक ही अनुवाद नहीं है. प्रभा खेतान ने ‘स्त्री उपेक्षिता’ शीर्षक से उसका अनुवाद किया और अब सीधे फ्रेंच से हिन्दी अनुवाद मोनिका सिंह ने किया है.
महादेवी वर्मा को लम्बे समय तक ‘हिन्दी की मीराँ’ कहा जाता था, उनके दुःख और दुःखवाद पर विचार कर उन्हें बौद्ध दर्शन-चिंतन से जोड़ा जाता था. रामविलास शर्मा ने पहली बार उनके ‘नारीत्व’ को ‘सामाजिक सीमाओं के अंदर विकास के लिए पंख फड़फड़ाने’ की बात कही है और मैनेजर पाण्डेय ने उन्हें एक ‘स्त्रीवादी दार्शनिक’ के रूप में देखा है. महादेवी के यहाँ दीपक और दीप-बिम्ब इतनी विपुल संख्या में इसलिए हैं कि वे अंधकार से संघर्ष करते हैं. उनका कथन है –
‘‘रात में हर झिलमिलाती लौ योद्धा की भूमिका में अवतरित होती है.’’
मैनेजर पाण्डेय ने अन्धकार से आलोक के इस संघर्ष को
‘‘भारतीय स्त्री के जीवन की पराधीनता के अंधकार से आलोक का संघर्ष’ कहा है. ‘रात के उरमें दिवस की चाह का स्वर’ स्वाधीनता की आकांक्षा है.
अपने लेखों में महादेवी वर्मा ने स्त्री-प्रश्नों पर अपने समय में सर्वाधिक विचार किया है. उन्होंने स्त्री को ‘परमुखापेक्षिणी’ न होने के लिए उसकी आर्थिक स्वतंत्रता को विशेष महत्व दिया. अपने एक लेख ‘स्त्री के अर्थ-स्वातंत्र्य का प्रश्न’ में उन्होंने आर्थिक पराधीनता का ‘व्यक्ति के मानसिक तथा अन्य विकास’ पर प्रभाव की बात कही है. ”स्त्री के जीवन की अनेक विवशताओं में प्रधान और कदाचित् उसे सबसे अधिक जड़ बनानेवाली अर्थ से संबंध रखती है और रखती रहेगी क्योंकि वह सामाजिक प्राणी की अनिवार्य आवश्यकता है”. महादेवी ने
“भारतीय स्त्री में आदिम युग की स्त्री की परवशता और पूर्ण विकसित समाज के नारीत्व की गरिमा का विचित्र सम्मिश्रण” देखा.
राष्ट्रीय स्वाधीनता आन्दोलन में स्त्री-स्वातन्त्र्य की आकांक्षा बीसवीं सदी के आरंभ से तीव्र रूप में प्रकट होने लगी थी. एक बातचीत में इतिहासकार मृदुला मुखर्जी ने अस्सी के दशक से स्त्री-संगठन बनने की बात कही है, पर भारत में स्त्री-संगठनों का जन्म उन्नीसवीं सदी में आरंभ हो चुका था. पंडिता रमाबाई ने स्त्री-शिक्षा और उनके सम्मानित जीवन जीने के लिए 30 नवम्बर 1882 को ‘आर्य महिला समाज’ की स्थापना की थी. बीसवीं सदी में 1910 में सरला देवी चौधुरानी ने इलाहाबाद में ‘भारत स्त्री महामंडल’ का गठन किया था जिसका लक्ष्य स्त्री-शिक्षा को बढ़ावा देना था. भारतीय नवजागरण और हिन्दी नवजागरण में स्त्री-नवजागरण भी है.
महादेवी वर्मा ने 1936-37 में महिला विद्यापीठ में एक पत्र स्त्री-साहित्य पर रखा था. अमेरिकी, ब्रिटिश और अफ्रीकी स्त्री-साहित्य से भारतीय स्त्री-साहित्य और हिन्दी स्त्री-साहित्य कुछ भिन्न है. गांधी के असहयोग आन्दोलन में लगभग पचीस हजार स्त्रियाँ जेल गयी थीं, सामाजिक-सांस्कृतिक और राजनीतिक क्षेत्रों में सक्रिय हुई थीं. पितृसत्तात्मक समाज कई देशों में है, पर भारत जैसी ब्राह्मणवादी वर्ण-व्यवस्था किसी अन्य देश में नहीं है. इस कारण भारतीय स्त्री की स्वतंत्रता का प्रश्न कहीं अधिक जटिल है. वह घर के भीतर और बाहर, दोनों ही जगहों पर कैद थी. वह सुलगती रही, पर कभी बुझी नहीं. स्त्री-लेखन में क्रमशः संघर्ष, आक्रोश और प्रतिरोध बढ़ता गया है.
पश्चिमी नारीवाद में भारतीय नारीवाद की तरह धर्म प्रमुख नहीं है. भारत में पितृसत्ता धर्म सत्ता से जुड़ी हैं. दोनों को अलग कर नहीं देखा जा सकता. भारतीय स्त्री-लेखन और यूरोपीय स्त्री-लेखन में अंतर है. यूरोपीय-अमेरिकी समाज और भारतीय समाज में भी अंतर है. हिन्दी में स्त्री-संबंधी पत्रिकाएँ कम प्रकाशित नहीं हुई हैं. भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने स्त्री-शिक्षा के समर्थन में ‘बाला बोधिनी’ पत्रिका प्रकाशित की, पर पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशन से वैसी लहर नहीं उठी, जैसी गांधी के नेतृत्व में हुए स्वाधीनता-आन्दोलन से उठी. यह आन्दोलन साम्राज्यवाद विरोधी था, सामंतवाद विरोधी नहीं. साम्राज्यवाद विरोधी आन्दोलन में नारी की स्थिति में परिवर्तन की माँग कहीं भी नहीं थी.
स्त्री-लेखन का अपना एक गौरवशाली इतिहास है, पर स्वतंत्रता के बाद का हिन्दी स्त्री-लेखन सदी के अंतिम दशक और इक्कीसवीं सदी की तुलना में बहुत कम है. स्त्री-विमर्श की शुरूआत हिन्दी में अस्सी के दशक से हुई. इतिहास में उसने स्त्री-स्वरों में स्त्री-प्रश्न ढूँढे. कवि विमल कुमार ने कुछ वर्ष पहले रामेश्वरी देवी नेहरू के सम्पादन में 1909 में प्रकाशित ‘स्त्री-दर्पण’ पत्रिका की स्मृति में ‘स्त्री-दर्पण’ वेबसाइट खोला, जिसका मकसद ‘डिजिटल प्लेटफॉर्म पर स्त्री-संबंधी सभी साहित्य’ उपलब्ध कराना है, जो अब ‘स्त्री लेखा’ शीर्षक से है. विश्वविद्यालयों में स्त्री-अध्ययन (वुमेन स्टडीज) विभाग बहुत बाद में खुले. समकालीन नारीवादी आन्दोलन की एक प्रमुख नेता, अमेरिकी लेखक और प्रकाशक फ्लोरेंस होवे (1929-12.9.2020) को ‘मदर ऑफ वुमेन स्टडीज’ कहा जाता है. समकालीन नारीवादी आन्दोलन की इस नेता ने नारीवाद के भीतर शिक्षा, नस्ल और राजनीति जैसे मुद्दे जोड़े. 1972 में ‘द फेमिनिस्ट प्रेस’ की स्थापना की और स्त्री-लेखकों की पुनर्खोज की. अपनी पुस्तक – ‘मिथ्स ऑफ को एजुकेशन’ (सह शिक्षा के मिथक) में ‘समाज की पितृसत्तात्मक सीमाओं की भीतर कार्यरत’ महिला-शिक्षा के संबंध में बताया.
भारत में महिला विश्वविद्यालय की स्थापना 1916 में हुई थी, पर विश्वविद्यालयों में स्त्री-अध्ययन (वूमेन स्टडीज) का स्वतंत्र विभाग बहुत बाद में खुला. स्त्री-अध्ययन विभाग की स्थापना पहली बार 1970 में सन डिएगो स्टेट कॉलेज, जो अब एक राज्य विश्वविद्यालय है में स्वतंत्र रूप में हुई. उस समय अमेरिका में स्त्री-स्वातन्त्र्य ग्रुप सक्रिय था. अकादमिक जगत में अस्सी के दशक में ही स्वतंत्र रूप से स्त्री-अध्ययन पर कार्य आरंभ हुआ. अस्सी के दशक में मृदुला मुखर्जी को आईसीएसएसआर में स्त्री-इतिहास के एक बड़े प्रोजेक्ट पर काम करने को कहा गया था. इसी दशक में, जब राजेन्द्र यादव ‘हंस’ के सम्पादक बने, उन्होंने हिन्दी के स्त्री-लेखन पर विशेष ध्यान दिया, उसे प्रतिष्ठित किया. हिन्दी में एक विमर्श के रूप में स्त्री-विमर्श इसी समय से आरंभ होता है.
अस्सी के दशक में ही उदार नारीवाद की प्रतिक्रिया में अंतर नारीवाद (डिफरेंस फेमिनिज्म) विकसित हुआ, जिसकी सिद्धान्तकार कैरल रल गिलिगन (1936) हैं. ‘हू स्टोल फेमिनिज्म? हाऊ वूमेन हैव बीट्रेड वूमेन’ (1994) में उनके विचार दर्ज हैं. इस अमेरिकी नारीवादी एवं मनोवैज्ञानिक ने पुरुष और महिलाओं के अलग-अलग प्रकार से समाजीकरण की बात कही है और महिलाओं को पुरुषों की तुलना में आपसी संबंधों पर ध्यान देने और दूसरों के हित का दायित्व लेने में सक्षम माना है. पुरुष और स्त्री के बीच के अंतर को वे ‘सामाजिक प्रभावों तथा लैंगिक अनुकूलन का उत्पाद’ मानती हैं. गिलिगन का सिद्धान्त ‘देखभाल की नैतिकता’ (एथिक्स ऑफ कैयर’) है. नैतिक विकास का सिद्धान्त ही ‘देखभाल की नैतिकता’ का सिद्धान्त है. महिलाएँ भी महिलाओं का उत्पीड़न करती हैं. व्यापक स्त्री-विमर्श और चिंतन में केवल पितृसत्तात्मक समाज का विरोध ही नहीं है. नारीवाद के विकास-इतिहास में क्रमशः कई सारे प्रश्न जुड़ते गए हैं. इसने स्त्री-लेखन और चिंतन को भी प्रभावित किया है.
5.
जहाँ तक ‘भारतीय नारीवाद’ का प्रश्न है, इसे कुछ लोग यूरोपीय एवं अमेरिकी नारीवाद से भिन्न नहीं मानते. उर्वशी बुटालिया ‘भारतीय नारीवाद’ जैसी अवधारणा को सही सिद्ध करती हैं. उन्होंने रितु मेनन के साथ पहला भारतीय नारीवादी प्रकाशन ‘काली फॉर वूमेन’ की स्थापना 1984 में की और एक अन्य नारीवादी प्रकाशन ‘जुबान’ का भी आरंभ किया. भारत में स्त्री-लेखन पहले से हो रहा था, पर उनका अपना कोई प्रकाशन संस्थान नहीं था. इन दोनों प्रकाशनों ने अनेक स्त्री रचनाकारों की कृतियाँ प्रकाशित कीं.
स्त्री-स्वतंत्रता केवल दैहिक और लैंगिक स्वतंत्रता नहीं है और न स्त्री-लेखन मात्र देह को केन्द्र में रखकर किया गया लेखन है. राजेन्द्र यादव ने स्त्री-विमर्श को देह-विमर्श में बदला. उनके अनुसार ‘‘स्त्री-मुक्ति का पहला पाठ देह-मुक्ति से ही शुरू होता है.” ‘इस पुरुष-कथन का विरोध कई स्त्री लेखिकाओं ने किया और उन्होंने स्त्री-मुक्ति को केवल देह-मुक्ति नहीं माना. मृदुला गर्ग ने देह को नहीं, मस्तिष्क को ‘सशक्तीकरण का स्रोत और आधार’ माना. पहले के स्त्री-लेखन से बाद के ऐसे स्त्री-लेखन का स्वर विकसित है. उलझी दृष्टि साफ हो जाती है. हिन्दी में अस्सी के दशक से स्त्री-लेखन की जो एक नयी और भिन्न लहर चली, वह बाद के वर्षों में कहीं अधिक तीव्र रूप से बढ़ती गयी है. सोशल मीडिया ने इसे एक बड़ा अवसर दिया है. सारे कपाट खुलने लगे. बन्द दरवाजों को ठेल कर ही नहीं, तोड़कर भी लड़कियाँ और स्त्रियाँ बाहर निकल पड़ीं. वे कहीं अधिक मुखर होकर बोलने-लिखने लगीं. आन्दोलन में भाग लेने लगीं.
इक्कीसवीं सदी में उनकी रचनाओं में जैसा प्रतिरोध है वैसा पहले नहीं था. सामाजिक-राजनीतिक आन्दोलनों में उनकी सक्रियता और भागीदारी-हिस्सेदारी दिखाई पड़ने लगी है, लेखन और कर्म दोनों ही स्तरों पर. अकादमिक और गैर अकादमिक दोनों ही क्षेत्रों में वे कहीं अधिक सक्रिय हुईं. उन्होंने अपनी कई पत्रिकाएँ निकालीं. मुख्य धारा की पत्रिकाओं ने स्त्री-लेखन पर अपने अंक केन्द्रित किए.नयी दृष्टियों से भी स्त्री-लेखन पर बातें हुई. कुंकुम सेंगारी की पुस्तक ‘री कास्टिंग वूमेन : एसेज इन कॉलोनियल हिस्ट्री’ के दस संस्करण आ चुके हैं. उन्होंने ‘मीराँ बाई और भक्ति की आध्यात्मिक अर्थनीति’ पर विचार किया है. अर्थव्यवस्था की एक नयी श्रेणी ‘आध्यात्मिक’ बनी.
स्त्री-लेखन अब प्रचुर मात्रा में है और स्त्री-मुक्ति-संघर्ष का अपना एक समृद्ध शास्त्र भी है. कहा जा सकता है कि यह स्त्री-समय है. हिन्दी साहित्य के इतिहास में स्त्रियों को अधिक स्थान नहीं मिला था. हिन्दी साहित्य के इतिहास पर पुनर्विचार करने को आमंत्रित करती है- सुमन राजे की पुस्तक ‘हिन्दी साहित्य का आधा इतिहास’ (2003). इस इतिहास का अब ऐतिहासिक महत्व है. नीरज माधव ने ‘हिन्दी साहित्य का ओझल नारी इतिहास’ लिखा. अब ‘आधी दुनिया की पत्रकारिता’ (डॉ. मंजुला अनुजा) भी सबके सामने है. सूचना-माध्यमों ने केवल स्त्रियों को ही नहीं, उनके लेखन-चिंतन पर विचार करने वालों को भी जैसे अवसर प्रदान किये हैं, वैसे पहले नहीं थे.
स्त्री-लेखन का विषय-विस्तार अब कहीं अधिक है. प्रायः प्रत्येक साहित्य-रूप में उनका लेखन है और अब उन्हें स्वीकृति मिल चुकी है. भारतीय स्त्री-लेखन एवं स्त्री-दशा आदि पर पश्चिम में भी लिखा जा रहा है. ऑस्ट्रेयाआई-अमेरिकी इतिहासकार गोरडा लरनर (गोर्डा लर्नर) (30.4.1920-2.1.2013) की किताब ‘पितृसत्ता की रचना’ (द क्रिएशन ऑफ पैट्रिआकी, 1986) है. वे अपने लेख ‘बाह्मणवादी पितृसत्ता की सैद्धान्तिकी’ में पितृसत्ता पर विचार करने को एक नयी दृष्टि देती हैं. एक समय एंगेल्स (28.11.1820-5.8.1895) ने उत्पादन में स्त्रियों की भागीदारी के बाद उसकी पराधीनता के समाप्त होने की बात कही थी, जिससे ब्रिटिश मनोविश्लेषक एवं समाजवादी नारीवादी जूलियट मिशेल (4.10.1940) असहमत हैं. स्त्री-संबंधी विचार समयानुसार बदलते गये हैं, उनमें संशोधन और परिवर्तन-परिवर्द्धन होता रहा है. सन फ्रांसिस्को में जब पहली बार एक युवा स्त्री ने ‘ब्रा’ पहनने के विरोध में प्रदर्शन किया था उसी के बाद ‘ब्रा’ जलाने की बातें भी हुई. ‘ब्रा’ आन्दोलन नहीं चला, पर आज भी उसकी चर्चा की जाती है.
स्त्री की अलग कोई स्वतंत्र कोटि ‘वर्ग’ और जाति’ की तरह नहीं है. स्त्री प्रश्न कई हैं. वे निजी, पारिवारिक और सामाजिक होने के साथ ही वर्गीय और यौनिक भी है. वहाँ समलैंगिकता का भी प्रश्न है, जो एक छोटे स्त्री-समूह का प्रश्न है. अंग्रेजी कवि और उपन्यासकार रेडक्लिफ हॉल (12.8.1880-7.10.1943) ने जब पहला समलैंगिक उपन्यास ‘द वेल ऑफ लोनलीनेस’, (1928) (‘अकेलेपन का कुआँ’) लिखा, इसकी समालोचना प्रसिद्ध फ्रांसीसी चिकित्सक और मानव-कामुकता के गंभीर अध्येता हैवलॉक एलिस (2.2.1859-8.7.1939) ने लिखी थी. हिन्दी में पहला लेस्बियन उपन्यास ‘एकाकिनी’ 1948 में बिहार की आशा सहाय ने लिखा, जिसकी भूमिका शिवपूजन सहाय ने लिखी. अब सुधा सिंह के सम्पादन और जगदीश्वर चतुर्वेदी की लम्बी भूमिका के साथ यह नये रूप में प्रकाशित है. प्रश्न यह है कि स्त्री-लेखन के नाम पर हम समस्त साहित्य को एक साथ रखें अथवा विषयानुसार उसका चयन भी करें. स्त्री-साहित्य विपुल है और यह शुभ लक्षण है कि पुरुष भी इस क्षेत्र में वैचारिक रूप से सक्रिय हैं. अभी ‘पुस्तकनामा’ 2024 आहटें आसपास (संपादक राकेश बिहारी) में रोहिणी अग्रवाल ने ‘समकालीन पुरुष कथा-लेखन में स्त्री संवेदनशीलता की पड़ताल’ में शिवमूर्ति के ‘कुच्ची का कानून’, शिवेन्दु के ‘चंचला चोर’ और अमित ओहलाण के ‘मेरा यार मरजिया’ पर विचार किया है. रोहिणी के लिए ‘स्त्री आलोचना की जरूरत ‘साँस लेने जितनी अपरिहार्य’ है. सभी स्त्री-लेखन मुक्तिकामी नहीं है. मुक्ति सीमित अर्थ में या व्यापक रूप में? एकांगी रूप में या समग्र रूप में? स्त्री-संबंधी सवाल और समस्याएँ हिन्दी के स्त्री-लेखन में मौजूद हैं, जिस पर एक सामान्य नजर ही डाली जा सकती है.
6.
स्त्रियों ने कहानियाँ, उपन्यास, कविताएँ आत्मकथाएँ अधिक संख्या में लिखी हैं. वे विविध रूपों और शैलियों में अपने को अब व्यक्त कर रही हैं. हिन्दी की स्त्री-आलोचना भी ध्यान आकृष्ट कर रही है. मृणाल पाण्डे की ‘परिधि पर स्त्री’, ‘देह की राजनीति से देश की राजनीति तक’, और ‘स्त्री विमर्श’ अर्चना वर्मा की ‘अस्मिता विमर्श का स्त्री स्वर’, रोहिणी अग्रवाल की ‘हिन्दी उपन्यास का स्त्री पाठ’, ‘हिन्दी उपन्यास में कामकाजी महिला’, ‘स्त्री लेखन : स्वप्न और संकल्प’, ‘कहानी का स्त्री-समय’, ‘साहित्य का स्त्री-स्वर’, ‘साहित्य की जमीन और स्त्री मन के उच्छ्वास’ आदि पुस्तकें हैं. रोहिणी प्रमुख स्त्री आलोचक और स्त्री विमर्शकार हैं. ‘थेरिगाथा’ पर उन्होंने नई दृष्टि से विचार किया है.
अनामिका ने स्त्रीवादी काव्य शास्त्र पर विचार के साथ ही अमेरिकी स्त्री कवियों पर लिखा और 20वीं सदी के अंत में ही ‘स्त्रीत्व का मानचित्र’ प्रस्तुत किया. वे प्रमुख स्त्रीवादी चिंतक हैं. जो यह मानती हैं की ‘कैनोनिकल’ और ‘कोलोनियल’ दोनों पर पहला प्रहार स्त्रीवाद ने किया. अनामिका ने ‘ज्ञान-प्रत्याख्यान में वैकल्पिक स्रोतों की तलाश का श्रेय’ एलिस वाकर और कुंकुम सेंगारी जैसी स्त्रीवादियों को दिया है.
स्त्री-लेखन में स्त्री-मन, स्त्री-यथार्थ, स्त्री-स्वप्न, स्त्री-देह, स्त्री-विचार, स्त्री-मुक्ति, स्त्री-आकांक्षा, स्त्री-संघर्ष, स्त्री-प्रतिरोध, स्त्री-आन्दोलन, स्त्री-अधिकार, स्त्री राजनीति, स्त्री-भाषा, स्त्री-संस्कृति, स्त्री-शब्द, स्त्री-भय, स्त्री-दुःख, स्त्री-करुणा, स्त्री-भाव, स्त्री-चिन्ता, स्त्री-अनुभव, स्त्री-जागरण, स्त्री-चेतना, स्त्री-विश्वास, स्त्री-प्रेम, स्त्री-सेक्स, स्त्री-न्याय सब है. यह विषय सूची और बढ़ सकती है. इन सब पर विस्तार से विचार जरूरी है पर स्त्री आलोचना में स्त्री रचनाकार और उनकी कृतियाँ विशेष प्रमुख हैं. स्त्री-जीवन को किसी एक दृष्टि और विचार से देखना-समझना उपयुक्त नहीं है. हिन्दी में पितृसत्ता की बात जितनी की जाती है, उससे बहुत कम, राज्य-सत्ता (स्टेट पावर) पर ध्यान दिया जाता है. पितृसत्ता, धर्म सत्ता, राज्यसत्ता और अब बाजार सत्ता भी, कम प्रभावशाली नहीं है. बहुत कम लेखिकाओं के यहाँ हम बाजार (मार्केट, और राज्य (स्टेट) का विरोध देखते हैं. इन सब पर दृष्टि डालने के बाद ही स्त्री-लेखन अधिक व्यापक होगा. विगत तीन-चार दशक से भारतीय समाज के समक्ष, जितने प्रश्न हैं, उन सबको देख-समझ कर ही, अपने समय के यथार्थ को संश्लिष्ट रूप में प्रस्तुत कर ही साहित्य अपनी सामाजिक-सांस्कृतिक भूमिका का निर्वाह कर सकता है.
आज स्त्री-प्रश्न विविध रूपों में उपस्थित है. लैंगिक प्रश्न और यौनिक शुचिता से कहीं आगे बढ़कर पूंजीवाद के इस चरम विकृत दौर में जब स्त्री को ‘पण्य-वस्तु’ में बदला जा रहा है, वैसी खूंखार शक्तियों की पहचान और उस पर ‘अटैक’ आवश्यक है. इस समय अनेक स्त्रियाँ सामाजिक-सांस्कृतिक रूप से भी अधिक सक्रिय हैं. देवी प्रसाद मिश्र ने अभी अपने एक इंटरव्यू में स्त्री-लेखन को ‘किसी अपरायजिंग की तरह’ देख कर यह कहा है – ‘‘मेरे लिए हर स्त्री की यह संभाव्यता है कि वह सड़क पर उतरने वाली है.’’ स्त्री कथाकारों की तुलना में इस समय स्त्री कवियों की संख्या सर्वाधिक है. मृणाल पाण्डे ने वर्षों पहले ‘परिधि पर स्त्री’ को देखा था. अब केन्द्र में स्त्री है. कई राजनीतिक दलों के नेता भी बलात्कारी हैं, जिन्हें राज्य (स्टेट) का संरक्षण प्राप्त है. ‘कैथरकला की औरतें’ (गोरख पाण्डेय) जैसी कविता हिन्दी में बहुत कम है. पहली बार सविता सिंह ने ‘प्रतिरोध का स्त्री-स्वर’ (राजकमल, 2023) में प्रतिरोध करती स्त्री कविताओं को केंद्र में रखा है. “प्रतिरोध की स्त्री-कविता का सरोकार समाज में हर प्रकार के दमन के प्रतिरोध से जुड़ा है. स्त्री का जीवन समाज के हर वर्ग, धर्म, जाति, आदि-जीवन जहाँ भी वे हैं, वही पितृसत्ता के विष में डूबा हुआ है… हम स्त्रीवादी सोच के लोग पितृसत्ता से छुटकारा चाहते हैं.’’ भूमिका में वे केवल ‘पितृसत्ता’ पर ही बात नहीं करतीं, अन्य सत्ताओं का भी जिक्र करती हैं. वहाँ पूंजीवादी व्यवस्था का विरोध भी है. सविता सिंह ‘स्त्रीवादी समाजवाद’ की पक्षधर हैं.
7.
‘विलियम ओ’नील ने 1969 में इस पद (स्त्रीवादी समाजवाद) का प्रयोग किया था. नारीवाद की दूसरी लहर में ‘स्त्रीवादी समाजवाद’ पद प्रयुक्त हुआ, जब ‘व्यक्तिगत राजनीतिक है’ (‘पर्सनल इज पॉलिटिकल’) का सिद्धान्त आया. 1969 में कट्टरपंथी नारीवादी विचारों की प्रतिक्रिया हो रही थी. कैरल हनीस्क ने ‘गेन्सविले फ़्लोरिडा’ में फरवरी 1969 में ‘व्यक्ति राजनीतिक है’ पेपर लिखा था, जो 1970 में ‘द्वितीय वर्ष : महिला मुक्ति के नोट्स’ में प्रकाशित हुआ. यह नारीवाद महिलाओं के उत्पीड़न में पूंजीवाद की भूमिका देखता है और आज के वैश्विक पूंजीवाद के दौर में केवल पितृ-सत्ता का विरोध पर्याप्त नहीं है. राज्य-सत्ता आज धर्म सत्ता और पूंजी-सत्ता के साथ है.
हिन्दी में स्त्री कवियों की संख्या काफी है. अभी ‘लमही’ के अक्टूबर-दिसम्बर 2023 और जनवरी-मार्च 2024 का संयुक्त अंक ‘स्त्री कविता की जमीन और कविता का वर्तमान’ पर केन्द्रित है. इस अंक में कुल 125 स्त्री-कवि हैं, जिनकी कविताओं पर लेख लिखे गये हैं. स्त्री-कवियों के यहाँ अब केवल स्त्री-प्रश्न नहीं हैं. स्त्री-प्रश्न अब केवल स्वतंत्र प्रश्न न रह कर विविध प्रश्नों से जुड़ गया है. प्रतिरोध का कोई एक स्त्री-स्वर नहीं है. यह प्रतिरोध दूसरे स्तर पर भी है. जसिंता केरकेट्टा ने ‘आज तक’ (इंडिया टुडे ग्रुप) द्वारा दिया जाने वाला 50 हजार रुपयों का ‘उदयमान प्रतिभा सम्मान’ अस्वीकार किया क्योंकि मुख्य धारा का मीडिया देश में घट रही मणिपुर सहित विविध घटनाओं पर चुप है.
तमिल कवयित्री सुकीरथ रणी ने न्यू इंडियन एक्स्प्रेस ग्रुप द्वारा प्रति वर्ष दिया जाने वाला ‘देवि सम्मान’ अस्वीकार किया क्योंकि इसके प्रमुख स्पॉन्सर में अदानी ग्रुप था. यह प्रतिरोध वास्तविक प्रतिरोध है. हिन्दी स्त्री कवियों में शुभा जैसी कवि कम हैं, जो कविता के अतिरिक्त अन्य मोर्चों पर भी सक्रिय हैं. उन्होंने अपने साथियों के साथ मिल कर ‘ऑल इंडिया डेमोक्रेटिक विमेन्स एसोसिएशन’ (‘एडवा’) की स्थापना की. वे ‘पूँजी और सर्वसत्ताओं के मेल’ को तोड़ने की कोशिश में भी हैं. ‘गैंग रेप’, ‘आदमखोर’ (शुभा), ‘औरत बीड़ी मजदूर’, ‘मिसाल : बिलकिस बानो’, ‘शाहीन बाग’, गौरी लंकेश’ (शोभा सिंह), ‘तानाशाह’, ‘युद्ध’, ‘आस्था का कारोबार’, ह्यूगो शावेज’ (निर्मला गर्ग), ‘इस स्त्री से डरो’, ‘गार्गी’, ‘आस्था का प्रश्न’, ‘गुजरात-2002’ (तीन) (कात्यायनी), ‘प्रतिरोध (प्रज्ञा रावत), ‘मैं किसकी औरत हूँ’, ‘स्वप्न के ये राग’, ‘अधिनायक तंत्र’, ‘जहाँ मेरा देश था’ (सविता सिंह), ‘योनि है क्या औरत’, ‘बुद्ध चाहिए, युद्ध नहीं’, (रजनी तिलक), ‘मजदूरों के नाम’ (निवेदिता झा), ‘शिक्षा शेरनी का दूध है’, ‘संविधान और सपने’, ‘किसान’ (हेमलता महिश्वर), ‘पत्थलगड़ी की औरतें’, ‘राष्ट्रपति को लेटर’, ‘यह कलिंग काल नहीं’, ‘हर बिहान है उलगुलान’ (वंदना टेटे), ‘समाज में स्त्री-पुरुष’, ‘देश बदल रहा है’ (रीता दास राम), ‘इस लोकतंत्र में’, ‘अंधेरे में अंधेरे से’, ‘हत्यारे’ (नीलेश रघुवंशी), ‘अपने घर की तलाश में’, ‘ये वे लोग हैं जो…’, ‘मेरा सब कुछ अप्रिय है उनकी नजर में’, ‘आओ, मिलकर बचाएँ’ (निर्मला पुतुल), ‘जेल’, ‘आई कांट ब्रीद’, ‘फिलीस्तीन के बच्चे’, ‘वरवर राव के लिए’, ‘चुनाव’, ‘अगर तुम औरत हो’ (सीमा आजाद), ‘मजदूर’, ‘भयभीत लोग’, ‘आज का सत्य’, ‘हमारा राष्ट्रीय स्वर’ (सुशीला टाकभौरे), ‘स्त्रियों की प्रेम कविताओं के बारे में एक अप्रिय, कटु यथार्थवादी कविता’ ‘गाज़ा के एक बच्चे की कविता’, ‘इक्कीसवीं सदी के उजाड़ में प्यार’ (कविता कृष्ण पल्लवी), ‘पहाड़ और प्यार’, ‘स्त्रियों का ईश्वर’, ‘आदिवासी लड़कियाँ’, ‘मेरा आदिवासी होना’, ‘आदिवासी क्यों प्रतिरोध करता है?’, ‘मारे जाने के लिए’, ‘मैं देशहित में क्या सोचता हूँ’ (जसिंता केरकेट्टा), जैसी कविताएँ (‘प्रतिरोध का स्त्री-स्वर’ में संकलित) इसका प्रमाण है कि अब स्त्री कविता का आकाश कहीं बड़ा है, जिसमें असंख्य तारे हैं.
स्त्री कवियों में तेजी ग्रोवर, अनीता वर्मा, अजन्ता देव, सुमन केशरी, लीना मल्होत्रा, मनीषा झा, मीता दास, रश्मि रेखा, विपिन चौधरी, मोनिका कुमार, अनुराधा सिंह, सपना भट्ट, वाजदा खान, रूपम मिश्र, शुभम श्री, सिनीवाली शर्मा और अब पार्वती तिर्की सहित अनेक ऐसी स्त्री कवि हैं जिनका काव्य संसार व्यापक है. इन तारों की संख्या बढ़ रही है. ये कब तक टिमटिमायेंगी, रौशनी देंगी या बुझ जायेंगी, कोई नहीं कह सकता. यह स्वयं उन पर निर्भर करता है कि वे अपनी कविताओं में भाषा, भूगोल और देश की कितनी दूरियाँ लाँघती हैं, अपने समय से कितना रू-ब-रू हैं. वे स्वबद्ध हैं या समयबद्ध–जनबद्ध?
अब हिन्दी स्त्री-कवियों की अपनी विशिष्ठ पहचान है. जिनके यहाँ स्त्री-स्वरों, स्त्री-जीवन की विविध चिंताओं के अतिरिक्त अन्य अनेक चिंताएं भी शामिल हैं. स्त्री कवियों में इस समय अनामिका और सविता सिंह की अधिक प्रसिद्धि है. कात्यायनी की प्रसिद्धि भिन्न है. वे कविता में एक बड़ी लड़ाई लड़ रही हैं. वे सर्वाधिक सक्रिय हैं, अपने समय और उसके सवालों से अधिक जुड़ी हैं. उनके जैसा ‘स्टैन्ड’ अन्य किसी स्त्री कवि में नहीं है. ‘हत्याओं के समय में प्रणय-विकल कविताएं’ में वे अपना विरोध दर्ज करती हैं. स्त्री कवियों की नाम-सूची और कविता-संग्रहों की सूची प्रस्तुत करने से कहीं अधिक महत्व उनके विषय-क्षेत्र और चिन्ता-स्वरों का है, जिन पर यहाँ अधिक विचार संभव नहीं है.
अनामिका की पहचान केवल कवयित्री के रूप में ही नहीं हैं. वे उपन्यासकार और स्त्री-विमर्शकार भी हैं. एक साथ स्त्री-लेखन और चिंतन में निरन्तर सक्रिय. उनके यहाँ गाँव-जवार की बोली है और विलुप्त हो रहे शब्दों की सार्थक उपस्थिति भी. वहाँ ‘स्वाधीनता का स्त्री-पक्ष’ है. स्त्री कवियों की कविताओं का अपना कला-पक्ष और सौन्दर्य पक्ष है. वे कलाग्रही न होकर जीवनाग्रही हैं. पहाड़ और मैदान में रहने वाली स्त्रियों की कविताओं में अंतर भी है. स्त्री कविता उन स्त्रीपरक कविताओं से अलग है, जो पुरुषों ने लिखी है. स्त्री कविता स्त्रियों द्वारा लिखित है और स्त्री-चिंतन भी स्त्रियों द्वारा है. अनामिका ने केवल स्त्री-कविता ही नहीं लिखी, स्त्री-जीवन और प्रश्नों से संबंधित उनकी कुछ कृतियाँ भी हैं. जेंडर के मुद्दों के अलावा उन्होंने ‘नारीवादी काव्यशास्त्र’ भी लिखा है, अमेरिकी स्त्री कवियों पर लिखा है.
आज के समय में स्त्री-लेखन का विस्फोट है. राजेन्द्र यादव (28.8.1929-28.10.2013) ने 1986 से अपने निधन तक, 27 वर्ष ‘हंस’ का सम्पादन किया. उनके साथ बाईस वर्ष तक अर्चना वर्मा (6.4.1940-16.2.2019) ‘हंस’ से जुड़ी रही थीं. हिन्दी में राजेन्द्र यादव ने ‘हंस’ को स्त्री-मंच बनाकर स्त्री-विमर्श की शुरूआत की. ‘हंस’ के कई अंक स्त्री-लेखन, चिंतन और विमर्श पर केन्द्रित किए. अब स्वतंत्र पुस्तक-रूप में ये ‘अतीत होती सदी और स्त्री का भविष्य’, ‘स्त्री-विमर्श : अगला दौर’ ‘हंस की औरत : उत्तर कथा’ शीर्षक से कई खण्डों में प्रकाशित है. मैनेजर पाण्डेय, सुधीश पचौरी, अभय कुमार दुबे, राजकिशोर आदि ने भी स्त्री लेखन और चिन्तन पर कई लेख लिखे. राजेन्द्र यादव के साथ अर्चना वर्मा की कई सम्पादित पुस्तकें हैं. मृदुला गर्ग, अर्चना वर्मा, प्रभा खेतान, अनामिका, सुधा अरोड़ा सहित कई लेखिकाओं और मीनाक्षी मुखर्जी सहित विविध ज्ञानानुशासनों में सक्रिय अन्य स्त्रियों ने कला, साहित्य, इतिहास, दर्शन, शरीर-शास्त्र आदि के स्त्री-पक्ष पर विचार किया. साहित्य के बाहर की स्त्रियों ने भी स्त्री विमर्श में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया है.
8.
1980-90 के बाद, विशेषतः इक्कीसवीं सदी के स्त्री-लेखन-चिंतन पर सरसरी दृष्टि भर डाली जा सकती है, जिसमें अनेक नामों और अनेक सवालों का छूट जाना स्वाभाविक है. स्त्री-दृष्टि, स्त्री-आलोचना, स्त्री-चिंतन, स्त्री-दर्शन, स्त्री समाजशास्त्र, स्त्री-भाषा आदि का अपना महत्व है, पर यह विचार करना भी आवश्यक है कि यह दृष्टि सम्यक है या खंडित? हिन्दी में स्त्रीवादी आलोचना अब अपने विकसित रूप में है. सुधा सिंह, रूपा गुप्ता, गरिमा श्रीवास्तव ने कुछ अच्छे कार्य किये हैं. उन्नीसवीं सदी के नवजागरण में स्त्री की भूमिकाओं पर ध्यान जाना इतिहास के क्षेत्र में बंद दरवाजों को खोलना है.
महादेवी वर्मा ने ‘चाँद’ पत्रिका के नारी-आन्दोलन अंक (नवम्बर, 1934) के सम्पादकीय में लिखा था –
‘‘इस समय हमारे सामने सामाजिक परिवर्तन की जितनी समस्याएँ मौजूद हैं, उनमें सबसे महत्वपूर्ण है नारियों की स्थिति का प्रश्न.’’
क्या आज 90 वर्ष बाद यह प्रश्न महत्वपूर्ण नहीं है? ये प्रश्न साहित्य में मौजूद हैं, पर समस्याओं के समाधान के लिए साहित्य से बाहर निकलना जरूरी है. आवश्यक है आन्दोलनों-जनान्दोलनों में सक्रिय भागीदारी. जितने परिमाण में स्त्री-साहित्य की रचना हो रही है, उससे बहुत कम उनकी सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक सक्रियता है. सुभद्रा कुमारी चौहान, शकुन्त माथुर, कीर्ति चौधरी, स्नेहमयी चौधरी, मणिका मोहिनी और मोना गुलाटी से लेकर बिल्कुल आज के नये स्त्री-कवियों को देखें, तो उनकी काव्य रचनाओं में विविध रंग दिखाई देंगे और समय की आवाजें भी सुनाई पड़ेगी. यह सक्रियता लेखन में ही है.
‘बंग महिला’ (राजेन्द्र बाला घोष) से लेकर आज तक के लगभग सवा सौ वर्ष में अनेक ऐसी स्त्री कथाकार हैं, जिन्होंने अपनी कथा कृतियों से हिन्दी के कथा संसार को कहीं अधिक समृद्ध किया हैं. नयी कहानी के दौर की स्त्री-त्रयी (कृष्णा सोबती, मन्नू भंडारी, उषा प्रियम्वदा) में कृष्णा सोबती के यहाँ आरंभ से ही हम जिस स्त्री-चेतना को देखते हैं, ‘ऐ लड़की’ में उसका विस्तार है. उनकी जन्मशती के अवसर पर यह बेकार की बहस है कि उन्हें स्त्री कथाकार कहा जाय या नहीं. सोबती ने सेक्स को ‘जीवन और साहित्य का महाभाव’ कहा है. उन्होंने कृष्ण बलदेव वैद से अपनी बातचीत में ‘स्त्री-अभिव्यक्ति में सैक्सुअल मनोवृत्तियों’ को व्यक्त करने, ‘अपने आंतरिक प्रकरणों को प्रस्तुत’ करने और उसके ‘मात्र स्त्री नहीं’ होने की बात कही है.
“अब वह अपने अधिकार और कर्तव्य से लैस नागरिक भी है. नागरिक अधिकारों से अलंकृत”.
वे ‘स्त्री के सामाजिक पक्ष को मजबूत’ करने के लिए ‘शिक्षा और आर्थिक स्वतंत्रता’ को प्रमुख मानती हैं. सोबती के जन्मशती वर्ष में स्त्री-संबंधी उनकी विचार दृष्टि पर सम्यक ढंग से विचार की जरूरत है. कृष्णा सोबती और मृदुला गर्ग सहित कई ऐसी कथाकार हैं जो लैंगिक आधार पर विभाजन को सही नहीं मानतीं. ‘मित्रो मरजानी’ जैसी पात्र हिन्दी कथा-संसार में अधिक नहीं हैं.
स्त्री-लेखन स्त्री का मुक्तिकामी लेखन है. स्त्री आत्मकथा में भी किंचित् ही सही, परिवार-कथा, समाज-कथा और समय-कथा भी है, विस्तार में न सही. स्फुरना देवी की ‘अबलाओं का इंसाफ’ (1927), कौसल्या बैसन्त्री की ‘दोहरा इंसाफ’ (1999) मैत्रेयी पुष्पा की ‘कस्तूरी कुंडल बसै’ (2002), रमणिका गुप्ता की ‘हादसे’ (2005), प्रभा खेतान की ‘अन्या से अनन्या’ (2007), मन्नू भंडारी की ‘एक कहानी यह भी’ (2007), चंद्र किरण सौनरेक्सा की ‘पिंजड़े की मैना’ (2010), कृष्णा अग्निहोत्री की ‘लगता नहीं है दिल मेरा’ (2010), निर्मला जैन की ‘जमाने में हम’ (2015) आत्मकथाओं से इन लेखिकाओं के निजी जीवन को जाना जा सकता है. स्त्री आत्मकथा में स्वयं लेखिका केन्द्र में है, पर कहानी और उपन्यास के केंद्र में स्त्रियाँ ही नहीं होतीं. मन्नू भंडारी के उपन्यास ‘आपका बंटी’ में केन्द्र में बंटी है. वस्तुतः स्त्री के बिना न कोई घर, न परिवार और न समाज है. स्त्री की उपस्थिति के साथ सामाजिक स्थितियों की अनदेखी नहीं की जा सकती. इन सामाजिक स्थितियों को बदले बिना स्त्री मुक्ति असंभव है. स्त्री-लेखन एक हस्तक्षेप है, जिसे अब कहीं अधिक व्यापक दृष्टि से देखा जाना चाहिए.
बंग महिला से अब तक शताधिक स्त्री कथाकार हैं. उषा देवी मित्र, सुभद्रा कुमारी चौहान, शिवरानी देवी, होमवती देवी, सत्यवती मलिक, कमला देवी चौधरी, शिवानी, चन्द्र किरण सौनरेक्सा, कृष्णा सोबती, उषा प्रियम्वदा, मन्नू भंडारी, कृष्णा अग्निहोत्री, मुदृला गर्ग, ममता कालिया, नासिरा शर्मा, नमिता सिंह, चन्द्रकान्ता, मंजुल भगत, कुसुम अंसल, चित्रा मुद्गल, मृणाल पाण्डे, प्रभा खेतान, मेहरून्निसा परवेज, शशि प्रभा शास्त्री, राजी सेठ, सूर्य बाला, उषा किरण खान, मैत्रेयी पुष्पा, सुनीता जैन, सुधा अरोड़ा, गीतांजलि श्री, सुषम बेदी, क्षमा शर्मा, लवलीन, अनीता गोपेश, मधु कांकरिया, अलका सरावगी, सुषमा मुनीन्द्र, सारा राय, मनीषा कुलश्रेष्ठ, जया जादवानी, उर्मिला शिरीष, अल्पना मिश्र, नीलाक्षी सिंह, वंदना राग, किरण सिंह, प्रत्यक्षा, गीता श्री, पूनम सिंह, रजनी गुप्त, जयश्री राय, शर्मिला बोहरा जालान, पंखुरी सिन्हा, आकांक्षा पारे काशिव, प्रज्ञा, दिव्या माथुर, जमुना बीनी, निर्मला तोदी, सिनीवाली शर्मा, रश्मि शर्मा आदि अनेक स्त्री-कथाकारों का कथा-साहित्य क्या एक समान है? क्या रचनात्मक दृष्टि से सभी स्त्री कथाकारों की कहानियाँ एक कोटि की हैं?
‘लमही’ ने 2019 में ‘हमारा कथा समय’ का एक अंक स्त्री कथाकार पर केंद्रित किया था, जिसमें दलित और आदिवासी स्त्री कथाकार की एक भिन्न श्रेणी थी. पिछले वर्ष ममता कालिया के अतिथि सम्पादन में ‘वर्तमान साहित्य’ का ‘समकालीन महिला लेखन महा विशेषांक’ (मार्च-मई 2023) प्रकाशित हुआ, जिसमें मृदुला गर्ग ने ‘आधे सच की पूरक सच्चाइयां’ लिखीं और सीमा आजाद ने ‘औरतें, आन्दोलन और संस्कृति’ पर विचार किया. हिन्दी की कई पत्र-पत्रिकाओं ने स्त्री कथाकारों पर अंक केंद्रित किए हैं और इस समय सभी तरह के स्त्री कथाकारों की संख्या 100 से कम नहीं होगी. स्त्री कथाकारों की इस भीड़ में यह तय करना कठिन है कि कलात्मकता और गुणवत्ता की दृष्टि से कितने और कौन-कौन स्त्री कथाकार हैं. किसी भी आलोचक के हाथ में सूप नहीं है. वह तो पहले के कथालोचकों में भी बहुत कम समय तक था. सैकड़ों उपन्यास, हजारों कहानियाँ और कविताओं के साथ सभी पत्रिकाओं को एक साथ रख कर देखना न तो संभव है और न आवश्यक. अब स्वतंत्र ढंग से हंस और स्त्री विमर्श पर लेख लिखे जा रहे हैं. राजेन्द्र यादव के सम्पादन में हंस के कई अंक स्त्री लेखन और स्त्री विमर्श पर केंद्रित थे. किसी भी संपादक और आलोचक के हाथ में इस समय सूप का न होना चिंताजनक है.
9.
स्त्री-लेखन, चिन्तन और विमर्श केवल साहित्य तक सीमित नहीं रहा. ज्ञान के प्रत्येक क्षेत्र में अब स्त्री-वैचारिकी मौजूद है. समाजशास्त्र, राजनीति, अर्थ शास्त्र, मनोविज्ञान, शरीर शास्त्र, दर्शन शास्त्र, इतिहास, भूगोल, तकनीक, सर्वत्र. सब कुछ को स्त्री-दृष्टि से देखने की दृष्टि विकसित हुई है. अनेक प्रश्न उठे. स्त्री-सैद्धान्तिकी और वैचारिकी से, स्त्री-चिन्तन और विमर्श से ज्ञान की शायद ही कोई शाखा वंचित हो. अब स्त्री विचारधारा है, स्त्री-दर्शन है, स्त्री समाज शास्त्र और राजनीति है, स्त्री इतिहास और स्त्री साहित्येतिहास है, स्त्री शब्द, स्त्री भाषा और स्त्री-संस्कृति है, स्त्री मनोविज्ञान और देहशास्त्र है, स्त्री-काम और अध्यात्म भी है. अब उसकी एक अलग सत्ता है. स्त्री अब केवल बोल और लिख ही नहीं रही है, वह विविध मोर्चों पर और आन्दोलनों में सक्रिय है, वह आन्दोलनरत और संघर्षरत है. उसका अपना संगठन है, आन्दोलन है, स्त्री-प्रतिरोध और संघर्ष है. वह केवल ‘बोलने वाली औरत’ नहीं, संघर्ष करने वाली औरत है. यह संघर्ष विविध स्तरों पर है. धरना देकर और प्रदर्शन कर उसने अपने को सशक्त और समर्थ बनाया है. यह समय हलचलों का समय है.
स्त्री-प्रश्न अब केवल स्त्री-प्रश्न नहीं है. वह जल, जंगल और जमीन के सवाल के साथ आतंकवाद और फासीवाद के विरोध का और राजनीति, धर्म, बाजारवाद, साम्प्रदायिकता, हिन्दुत्व, युद्ध, विस्थापन, पर्यावरण, विकास, लोकतंत्र और संविधान से भी जुड़ा प्रश्न है. आधी आबादी के सवाल अब पृथ्वी के भी सवाल हैं. निजी सवालों से आगे बढ़कर अब उसके सवाल सामाजिक-राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक सवाल भी है. स्त्री-लेखन और चिंतन का आकाश बहुत बड़ा है, जिसमें असंख्य तारे जगमगा रहे हैं, टिमटिमा रहे हैं.
हिन्दी का स्त्री-लेखन और चिंतन विशाल है. स्त्री-आलोचना अधिकांशतः स्त्री रचनाकार या कृति-विशेष के साथ विधा-विशेष पर केन्द्रित है. कई पत्र-पत्रिकाओं के स्त्री-लेखन विशेषांकों में गंभीर और सम्यक दृष्टि का अभाव है. इस समय हिन्दी समाज की जो दशा-दुर्दशा है, इस समाज में तेजी से फैल चुकी जो साम्प्रदायिकता-धर्मान्धता है, जो हिन्दुत्व- कॉरपोरेट फासीवाद है, स्त्रियों के साथ हो रहे जो जघन्य अपराध और बलात्कार है और जो राजनीतिक दुष्चक्र है, उसे इस समय सभी स्त्री लेखकों को ध्यान में रखना होगा. धर्म सत्ता, पितृसत्ता और कॉरपोरेट सत्ता के साथ इस समय जो संघ-सत्ता है, वह स्त्री लेखन, चिन्तन और विमर्श में नहीं के बराबर है. ये सब मिलकर स्त्री को पुनः गुलाम बनाने और उसे दोयम दर्जे में रखने की जिस कोशिश में है, उसका विरोध अत्यावश्यक है.
17 दिसम्बर 1946 को बिहार प्रान्त के मुज़फ्फ़रपुर जिले के गाँव चैनपुर-धरहरवा के एक सामान्य परिवार में जन्मे रविभूषण की प्रारम्भिक शिक्षा गाँव के आसपास हुई. बिहार विश्वविद्यालय के लंगट सिंह कॉलेज से हिन्दी ऑनर्स (1965) और हिन्दी भाषा-साहित्य में एम.ए. (1967-68) किया. भागलपुर विश्वविद्यालय से डॉ. बच्चन सिंह के निर्देशन में छायावाद में रंग-तत्व पर पी-एच.डी. (1985) की. नवम्बर अक्टूबर 2008 में राँची विश्वविद्यालय के हिन्दी विभागाध्यक्ष पद से सेवानिवृत्त. विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में नियमित लेखन. समय और समाज को केन्द्र में रखकर साहित्य एवं साहित्येतर विषयों पर विपुल लेखन. ‘फ़ासीवाद की दस्तक’, ‘बुद्धिजीवियों की जिम्मेदारी’ ‘वैकल्पिक भारत की तलाश’, ‘कहाँ आ गये हम ओट देते-देते’ और ‘रामविलास शर्मा का महत्व’ पुस्तकें प्रकाशित. |
इसे पढने में कुल चालीस मिनट लगे… यह बेहद महत्त्वपूर्ण लेख है.. इस पर तुरंत प्रतिक्रिया देना वाज़िब नहीं है… लेकिन यह कहना लाज़िमी है कि इतना श्रमसाध्य काम रवि भूषण जी ही कर सकते हैं… मैं तो इसका प्रिंट निकाल फिर से पढूंगा…
लंबा आलेख है। सुचिंतित है।प्रमाण कथनों के लिए वृहत्तर स्रोतों तक जा रहा है।
आज़ादी को एक बड़े मूल्य के रुप में इस आलेख की धुरी के रुप में लिया है। स्त्री मुक्ति पर बात करना मनुष्य की मुक्ति पर बात करना है। इन स्त्री रचनाकारों का दुःख एक है और वह बेदखली के अनंत की रचना करता है इसलिए हर जगह वह नया है और पृथ्वी पर व्याप्त है।
आलेख में आए उल्लेख इसे परख रहे हैं।
इतने कम शब्दों में हिन्दुस्तानी स्त्री लेखन की प्रामाणिक जानकारी आसान कार्य नहीं। ये एक रेफरेंस लेख के तौर पर संग्रहणीय है। लेखक ने अमरीकी स्त्रीवाद पर एक टिप्पणी की है जो थोड़ी डिडेक्टिक है। उसको और खोला जाना चाहिए। दूसरे इस लेखन परम्परा को जानना अभी लिख पढ रही स्त्रियों के लिए ही जरूरी नहीं बल्कि सभी को पढना-जानना चाहिए, क्यों कि अंगुल भर बुद्धि मानने वाले लोग बहुतेरे हैं।वर्तमान समय में लिख रही भारतीय स्त्री रचनाकारों में हिन्दी भाषी क्षेत्र ही प्रमुखता से उभरता है जबकि अतीत में लेखक सभी भाषाओं की पूर्वजाओं पर समेकित नजर डालते हैं। स्त्री लेखन की जिन चुनौतियों को अंत में रेखांकित किया गया है वो एकदम सामने है। महादेवी वर्मा की महत्वपूर्ण पुस्तक शृंखला की कड़ियाँ महिलाओं के सामने एक आधुनिक प्रस्थापना रखती है। उस पर चर्चा जरूरी लगी जो सम्भवतः छूटी है।
यह जरूरी लेख है जिस पर विस्तृत चर्चा होनी चाहिए ।
काफी कुछ एक साथ एक लेख में मिलने से सब कुछ को दोहराने की सुविधा हो गई। अलग अलग इसमें शामिल सामग्री कमोबेश पढ़ी थी। पर एकसूत्रता में उसे पढ़ना और हिंदी में इस चेतना का विकास होते देखना सुखद है कि स्त्री मुक्ति मानव मुक्ति है और यह पूरे समाज का सरोकार है। इसलिए आलेख में आए ’चाहिए’ सबको संबोधित हुए होंगे।।आलेखकार और सभी पाठकों को।
शुक्रिया
सारी सूचनाएं एक जगह एकत्र हो गईं।मिहनत से लिखा गया लेख है।नेट पर भी बहुत जानकारियां है।सामालोचन को और रविभूषण जी को बधाई।
रूपा गुप्ता सुधा सिंह प्रज्ञा पाठकचारु गुप्ता सुजाता आदि ने भी इधर महत्वपूर्ण कार्य किया है।सविता सिंह ने भी शमशेर पर एक नई दृष्टि से लिखा भले आप सहमत न हों।प्रभा खेतान का भी जिक्र जरूर होना चाहिए था।
फिर भी काफी कुछ उन्होंने समेट लिया है
1960 में प्रकाशित बिहार की महिलाएं किताब में भी बहुत जानकारियां थीं ।सुजीत कुमार सिंह और राज कुमार ने भी महत्वपूर्ण कार्य किया।मल्लिका पर वसुधा डालमिया के काम का उल्लेख होता तो और बेहतर होता। फिर भी काफी कुछ आ गया है इसमें।
इस लेख की लंबाई देख कर पहले तो लगा – इतना लंबा। बाद में लगा, अरे अभी तो छू कर निकल भर पाया हूँ। एक लेख में इतना सब साध पाना कठिन था। किसी बड़ी पुस्तक का महत्वपूर्ण सार लगता है या कहें तो बहुत से कामों के लिए एक आधार तैयार किया गया है। दो बैठक में पढ़ गया। यह संग्रहणीय आलेख है।
अत्यंत महत्वपूर्ण एवं सारगर्भित आलेख. एक वाक्य में कहें तो संपूर्णता को समेटे हुए तथ्यों और ज्ञान से लबालब लेख है यह . लेखक को हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएँ. आपकी सृजनशीलता बनी रहे. मैं लाभांवित हुई. हृदय से आभार और आपको साधुवाद.🙏🙏
अपनी समग्रता में यह आलेख स्त्री लेखन और नारीवादी साहित्य की एक मुकम्मल पड़ताल है. इसमें इतिहास की छोर पकड़ कर वर्तमान तक का एक सुव्यवस्थित और सुविचारित चिंतन है . एक बड़े आलोचक की तर्जनी भी इसमें स्त्री लेखन के सामने वर्तमान की चुनौतियों को दिखा रही है इस महत्वपूर्ण आलेख के लिए सर को बहुत बहुत बधाई और साधुवाद🌹🌹 🙏
बहुत शोध और चिन्तन के बाद तैयार किया गया महत्वपूर्ण शोधपत्र है यह। संभाल कर रखने योग्य ताकि भविष्य में संदर्भित किया जा सके। यह आलेख स्त्री-लेखन की न केवल ऐतिहासिक दृष्टि से कालक्रमानुसार पड़ताल करता है, बल्कि तर्कपूर्ण समालोचना करने के साथ ही एक दृष्टिकोण विकसित करते हुए आने वाली चुनौतियों के प्रति भी सजग करता है। इस आलेख के लिए रविभूषण सर का बहुत आभार। “समालोचन” और अरुण जी को बहुत धन्यवाद।
वरिष्ठ आलोचक रविभूषण जी का आलेख ‘लेखन और चिंतन का स्त्री-अध्याय’ निःसन्देह एक सूचनासमृद्ध और सर्वेक्षणपरक आलेख है। आज के गतिशील समय में इतना श्रमसाध्य, धैर्यपूर्ण और तथ्यपरक सर्वेक्षण संभवतःसिर्फ रविभूषण जी ही कर सकते हैं। उनके अध्ययन की गहराई और विश्लेषण की क्षमता मुझे हमेशा चकित करती रही है। लेकिन इस आलेख में सिर्फ सूचना और सर्वेक्षण ही है, विश्लेषण लगभग नहीं। यही कारण है कि दस हजार शब्दों के इस सुदीर्घ आलेख से यह तो पता चलता है कि स्त्री लेखन और स्त्रीवादी लेखन को लेकर भारत और दुनिया के अन्य देशों में कब किसने क्या कहा, या कौन सी किताब लिखी गई, लेकिन उस पर पर रविभूषण जी की राय का कोई खास पता नहीं चलता। हाँ, कुछ प्रश्न, जो अलग-अलग तरह से स्त्री लेखन को लेकर पहले भी किए जाते रहे हैं, इस आलेख में भी उठाए गए हैं, जिस पर व्यापक बहस की गुंजाइश है।
तमाम सूचनाओं और प्रामाणिक सर्वेक्षण तथ्यों से समृद्ध होने के बावजूद इस आलेख से मेरी असहमति के दो कारण हैं। पहला कारण है- सूचना की अतिशयता। इक्कीसवीं सदी में लिखी जा रही कहानियों में सूचनाओं की बहुलता पर अक्सर चर्चा होती है। इस आलेख को पढ़ने के बाद मुझे यह चिंता होने लगी है कि क्या अब आलोचना भी सूचनाओं के दबाव में है? सूचना और विश्लेषण दोनों ही आलोचना के लिए जरूरी हैं। मैं बहुत ही आदरपूर्वक यह कहने की इजाजत चाहता हूँ कि इस आलेख में सूचना और विश्लेषण का संतुलित अनुपातबोध नहीं दिखाई पड़ता। विश्लेषण से लगभग विमुख इस सुदीर्घ आलेख में सूचनाओं का अत्याधिक्य कई बार पाठक को आतंकित भी करता है। इस आलेख पर आई प्रतिक्रियाओं में जिस तरह सूचना को ज्ञान और चिंतन की तरह रेखांकित किया गया है, वह भी सूचना-समय का एक बड़ा लक्षण है। सूचनाएँ थोड़े परिश्रम के बाद गूगल से भी एकत्र की जा सकती हैं। लेकिन रविभूषण जी के आलेखों और वक्तव्यों में विश्लेषण की जो गहराई हम देखते रहे हैं, इस आलेख में उसका घोर अभाव है। मेरी दूसरी चिंता इस चिंता से कहीं ज्यादा बड़ी और गंभीर है। स्त्री लेखन और स्त्रीवादी लेखन के अंतर को समझने के बावजूद कुछ विद्वान स्त्रीलेखन की सराहना करते हुये एक सुचिन्तित और सुनियोजित तरीके से स्त्रीवादी लेखन को नकारते रहे हैं। अंत तक आते-आते इस आलेख का भी लगभग उसी दिशा में बढ़ता दिखना, मेरी चिंता का दूसरा कारण है।
कुछेक अपवादों को छोड़कर मुख्यधारा की हिन्दी आलोचना ने प्रायः जाति और जेंडर की चिंताओं को उचित स्थान नहीं दिया है। यदि ऐसा हुआ होता तो अस्मिता विमर्शों की जरूरत ही नहीं होती। रविभूषण जी अपने इस आलेख के आरंभ में थेरी गाथाओं (73 थेरियों की 522 गाथाएँ) की चर्चा करते हुये कहते हैं –“थेरियों की कोई एक जाति नहीं है. इनमें ब्राह्मण, क्षत्रिय,वैश्य, शूद्र सब हैं. अस्सी वर्ष ईसा पूर्व त्रिपिटक में इसका लिखित रूप है. इन गीतों में स्त्री-स्वरों का वैविध्य है. उनके साहस और संघर्ष के कारण इनका आज विशेष महत्व है. अधिकांश स्त्रियाँ ब्राह्मण हैं .दंतिका, सोमा, मैत्रिका आदि कुल 18 थेरियाँ ब्राह्मण वर्ण की हैं. आतरा और सिंहा क्षत्रिय कुल की हैं.” प्रश्न उठता है कि 18 ब्राह्मण और 2 क्षत्रिय वर्ण या कुल की थेरियों के बाद बची 53 थेरियाँ किन वर्णों की थीं? यदि अठारह और दो की गणना सही है तो ये सबकी सब वैश्य या शूद्र वर्ण की होंगी। इस सूचनासमृद्धआलेख में उनका नाम क्यों नहीं दर्ज हो पाया? 72.60% (73 में53) थेरियों के अनाम और अज्ञात छूट जाने की चिंता किए बिना 33.96% (73 में 18) को ही अधिकांश मान लेने के क्या कारण हो सकते हैं? ध्यान दिया जाना चाहिए कि सर्वेक्षण की उपादेयता उसके विश्लेषण से ही तय होती है। इसलिए उसका अभाव यहाँ खटकनेवाला है।
इस लेख के आखिरी हिस्से के एक अनुच्छेद में बंग महिला (राजेंद्र बाला घोष) से अबतक की कुल 60 स्त्री कथाकारों के नामों का उल्लेख है, जिनमें लगभग एक तिहाई इक्कीसवीं सदी या पिछले सदी के आखिरी दशक के उत्तरार्द्ध की कथाकार हैं। आखिर क्या कारण है कि एक आदिवासी कथाकार को छोड़ दें तो पच्चीस-तीस वर्षों के कालखंड की इन बीस कथाकारों में एक भी दलित या अल्पसंख्यक स्त्री कथाकार का नाम शामिल नहीं है? कोई सूची कभी मुकम्मल नहीं होती, इसलिए किसी सूची में छूट जाने या छोड़ दिये जाने की बहस में मेरी कभी रुचि नहीं रही है। लेकिन एक महत्त्वपूर्ण आलोचक की सूची में हाशिये के दो वर्गों की अनुपस्थिति को यूं ही नहीं छोड़ा जा सकता। इस पर चर्चा जरूरी है।
60 स्त्री कथाकारों के नामों की चर्चा करते हुये रविभूषण जी प्रश्न करते हैं कि “इन कथाकारों का कथा-साहित्य क्या एक समान है? क्या रचनात्मक दृष्टि से सभी स्त्री कथाकारों की कहानियाँ एक कोटि की हैं?” कहने की जरूरत नहीं कि किसी भी समय या श्रेणी के सभी रचनाकारों की रचनाएँ एक समान या एक कोटि की नहीं होती हैं; हो भी नहीं सकतीं। लेकिन यहाँ एक प्रतिप्रश्न मेरे मन में उठता है कि क्या इन और यहां छूट गई अन्य स्त्री कथाकारों के कथा-साहित्य में कुछ भी कॉमन या साझा नहीं है? निश्चित तौर पर इस प्रश्न का उत्तर ‘नहीं’ नहीं हो सकता। वही कॉमन या साझा जमीन ‘स्त्रीवादी रचना’ को अलग से समझे जाने की जरूरत को रेखांकित करती है। इन कॉमन या साझा तत्त्वों की अनदेखी कर “इनकथाकारों का कथा-साहित्य क्या एक समान है?” का प्रश्न खड़ा करना स्त्री लेखन की सराहना करने की आड़ में स्त्रीवादी रचना को नकारने का उपक्रम है। रविभूषण जी आगे लिखते हैं- “किसी भी संपादक और आलोचक के हाथमें इस समय सूप का न होना चिंताजनक है.” यह एक वाजिब चिंता है, लेकिन इस चिंता के आलोक में यदि इसआलेख को पढ़ें तो यह आलेख भी प्रायः उसी दोष का शिकार मालूम पड़ता है। यदि आलेख की उक्त सूची, जिसमें दलित और अल्पसंख्यक स्त्री कथाकारों के नाम शामिल नहीं हैं, को सूप से फटक कर निकाले गए नाम की तरह देखा जाय तोयहाँ सूप की गुणवत्ता पर ही प्रश्नचिह्न खड़ा हो उठता है। स्त्री लेखन बनाम स्त्रीवादी लेखन के संदर्भ में यह भी देखा जाना चाहिए कि रविभूषण जी यह तो रेखांकित करते हैं कि “कृष्णा सोबती और मृदुला गर्ग सहित कई ऐसी कथाकार हैं जो लैंगिक आधार पर विभाजन को सही नहीं मानतीं”, लेकिन स्त्रीवादी लेखन (खासकर कथा के क्षेत्र में) के पक्ष में बात करनेवाली कथाकारों का यहाँ कोई उल्लेख नहीं करते। रोहणी अग्रवाल के बाद आईं स्त्रीवादी व्यावहारिक आलोचकों यथा सुजाता, रश्मि रावत आदि का उल्लेख नहीं होना भी शायद इसी दृष्टि के कारण है।
रविभूषण जी कहते हैं –“हिन्दी में पितृसत्ता की बात जितनी की जाती है, उससे बहुत कम, राज्य-सत्ता (स्टेट पावर) पर ध्यान दिया जाता है. पितृसत्ता, धर्म सत्ता,राज्य सत्ता और अब बाजार सत्ता भी, कम प्रभावशाली नहीं है.” यहाँ यह भी पूछा जाना चाहिए कि क्या राज्य सत्ता, धर्म सत्ता और बाज़ार सत्ता की संरचना में में पितृ सत्ता के रेशे प्रमुखता से शामिल नहीं हैं? इन तमाम सत्ताओं की संरचना में पितृसत्ता की व्यापक मौजूदगी भी स्त्रीवादी लेखन की जरूरत को ही रेखांकित करती है। इसलिए बिना पितृसता की बात किए बाकी सत्ता संरचनाओं पर बात करना अंततः पितृसत्ता को मजबूत करनाही होगा।
एक आखिरी बात। संरचना और प्रकृति में मूलतः सूचनापरक और सर्वेक्षणपरक यह आलेख अंत तक आते आते-जिस तरह लगभग निर्णयात्मक हो जाता है, वह भी एक सरलीकृत निष्कर्ष जैसा ही है– “धर्म सत्ता, पितृ सत्ता और कॉरपोरेट सत्ता के साथ इस समय जो संघ-सत्ता है, वह स्त्रीलेखन, चिन्तन और विमर्श में नहीं के बराबर है.” बिना समकालीन साहित्य का वस्तुपरक विश्लेषण किए, रविभूषण जी के शब्दों में कहूँ तो बिना हाथ में सूप लिए इस तरह के निष्कर्ष पर पहुंचना कैसे तर्कसंगत हो सकता है? सूचना और विश्लेषण के समुचित अनुपातबोध के अभाव के कारण ही ऐसा हुआ है।
रविभूषण जी मूलतः एक संवादधर्मी आलोचक हैं। वे सहमतों के लोकतन्त्र में विश्वास नहीं करते, इसीलिए यह टिप्पणी दर्ज कर पा रहा हूँ। उम्मीद करताहूँ कि उनके आगामी लेखों में हमें इन प्रश्नों के उत्तर भी मिलेंगे। आखिर हम उम्मीद भी तो उसी से करते हैं, जो काम करता है। स्त्रीवादी लेखकों -आलोचकों का हस्तक्षेप इस बहस को बेहतर और जरूरी दिशा प्रदान कर सकता है।