विश्व रंगमंच दिवसके. मंजरी श्रीवास्तव |
देश-दुनिया के बदले हुए हालात के मद्देनज़र आज मैं बात करूंगी उन नाटकों की जो वर्तमान में प्रासंगिक हैं, विशेष रूप से जापानी नाटक ‘सकुरा’. मेरा यह मानना है कि सकुरा का प्रदर्शन विश्व के हर कोने में होना चाहिए. पर सकुरा का ज़िक्र बाद में, अपनी बातचीत की शुरुआत करना चाहूंगी मैं बांग्लादेशी निर्देशक और नॉर्वे में इब्सन स्टडीज़ के प्रमुख विश्विख्यात नाट्य निर्देशक कमालुद्दीन नीलू की और उनके दो नाटकों की.
बचपन से सुनती आ रही हूँ कि कलाकार भविष्यद्रष्टा होते हैं और कमालुद्दीन नीलू के बारे में मुझे ऐसा कई बार महसूस हुआ है. कमालुद्दीन नीलू के नाटकों को देखने पर मुझे हमेशा यह महसूस होता रहा है कि उनके भीतर भविष्य को देखने की दिव्य दृष्टि है. आनेवाले खतरे का संकेत वह अपने नाटकों में २-४ साल पहले ही दे देते हैं. जैसे अपने नाटक ‘मैकाबरे’ में (2014 में ही) उन्होंने एक दृश्य चमगादड़ों को लेकर रचा है और दिखाया है कि भविष्य में चमगादड़ विश्व के लिए ख़तरनाक हो सकते हैं. यह नाटक देखते समय मुझे अनुमान भी नहीं था कि नीलू जी का यह दृश्य एक दिन सच साबित होगा और २०२० में कोविड जैसी महामारी आएगी जिसके उत्पन्न होने के मूल में चमगादड़ बताये जा रहे हैं. जब न्यूज़ चैनल्स इस बात को दिखाने लगे कि कोविड चमगादड़ से फैला है तो मुझे नीलू जी के नाटक मैकाबरे का यह दृश्य सहसा याद आ गया. मैंने तुरंत विश्व पर आये इस खतरे को नीलू जी के नाटक के इस दृश्य से जुड़ा हुआ पाया.
नेटिव पीयर
पहले बात उनके नाटक ‘नेटिव पीयर’ की. 2016 में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के अंतिम वर्ष के छात्रों ने मशहूर बांग्लादेशी निर्देशक कमालुद्दीन नीलू, जो हेनरिक इब्सन के नाटकों के अपरम्परागत व्याख्याकार और इब्सन विशेषज्ञ माने जाते हैं, के कुशल निर्देशन में नाटककार इब्सन द्वारा रचित नाटक ‘नेटिवपीयर’ की शानदार प्रस्तुति दी थी.
नाटक वैसे तो एक मामूली लड़के पीयर गिन्ट की कहानी लगता है लेकिन निर्देशक नीलू ने इसकी जो व्याख्या की है वह अद्भुत है. उन्होंने नाटक को इस अवधारणा के इर्द-गिर्द लाकर केन्द्रित कर दिया है कि सारे मुसीबतों की जड़ इंसानी दिमाग है और इसीलिए नाटक के अंत में वह मंच पर ऐसे लोगों की एक क़तार को गुज़रता दिखाते हैं जिनके सिर नहीं है. पूरा नाटक और उसके दृश्य इसी अवधारणा के इर्द-गिर्द बुने गए हैं. सिर्फ इतना ही नहीं, निर्देशक नीलू का यह नाटक वैश्विक राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक परिदृश्य को न सिर्फ ध्वनित करता है बल्कि जेंडर स्टडीज और उससे जुड़े आयामों, विशेष रूप से स्त्री-देह और उसे लेकर की जाने वाली राजनीति के नए अर्थ भी खोलता है.
नाटक एक झरने के किनारे बैठे पीयर और उसकी माँ के वार्तालाप से शुरू होता है जिसके बहाने निर्देशक नीलू नेहरु की डैम पॉलिटिक्स से अपनी बात शुरू करते हैं और नाटक के दूसरे-तीसरे दृश्य तक आते-आते वे न सिर्फ भारत की बल्कि पूरे विश्व की वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था को भी उजागर करके रख देते हैं. जब उनके नाटक का एक चरित्र पीयर से कहता है कि तुमने दानव राजा की बेटी से बलात्कार किया है तो तुम्हे गौमूत्र पीकर खुद को पवित्र करना होगा क्योंकि हमारा आबे ज़मज़म है गौमूत्र तो भारत में गाय को लेकर हो रही राजनीति की वे धज्जियां उड़ा देते हैं. साथ ही ख़त्म होती जा रही इंसानियत को वह इस दृश्य द्वारा दिखाते हैं जहाँ प्यार और बलात्कार में कोई फ़र्क नहीं रह गया है, मानव और दानव के बीच कोई फ़र्क नहीं रह गया है. हमारे समाज का सच यही है कि प्यार का मतलब बलात्कार और बलात्कार का मतलब प्यार. कितने संवेदनहीन होकर रह गए हैं हम जहाँ एहसासों के लिए कोई जगह नहीं बची और प्यार की अवधारणा केवल देह-केन्द्रित होकर रह गई है. इस दृश्य के अंत में दानव राजा कहता भी है–
‘तुम सब मानव एक जैसे हो! आवेग को कबूल करने में मुस्तैद रहोगे, लेकिन एहसासे जुर्म स्वीकार नहीं करोगे, जबतक कि वो अपराध जिस्मानी तौर पर घटित न हुआ हो. तुम्हारे मुताबिक़ कामातुर होना गुनाह नहीं.’
नाटक के एक दृश्य का यह संवाद गौरतलब है जब पीयर को दानव राजा अपनी बेटी से शादी करने के लिए मजबूर करता है और कहता है कि उसे कुछ दानवी तौर तरीके अपनाने होंगे और पीयर राजा से पूछता है कि क्या इंसान को जानवर बना दोगे तो राजा का जवाब आता है–
‘पुत्र, तुम्हें ग़लतफ़हमी हो रही है. मैं तुम्हें एक मुकम्मल दानव बनाना चाहता हूँ.’
यह व्यंग्य है हमारे समाज पर जहाँ एक व्यक्ति अगर इंसान बना रहना चाहे तो उसे मुकम्मल दानव बनने को मजबूर कर दिया जाता है. आज इंसान ऐसा दानव बन चुका है जो अपने ही दांतों से खुद को काट रहा है और उसका जिस्म ही ख़ून हो चुका है. इंसानियत के खात्मे को बहुत मुखरता से ध्वनित किया है अपने नाटक में निर्देशक ने.
नाटक के दूसरे भाग में यह दिखाया जाता है कि नाकारा और सिर्फ हवाई किले बनानेवाला पीयर गिन्ट बहुत अमीर हो चुका है और इस अमीरी को पाने के लिए उसने ऐसा कोई दुष्कर्म नहीं है जो न किया हो. हथियारों और ड्रग्स की तस्करी से लेकर औरतों की खरीद-फ़रोख्त और तस्करी भी. पीयर का यह कथन कि–
‘ख़ूबसूरती क्या है? एक ऐसा सिक्का जिसकी कीमत वक़्त और जगह के मुताबिक आंकी जाए’– औरतों के जिस्म को लेकर बाज़ार की सोच को दिखाता है. पीयर के लिए औरत का जिस्म गोश्त का एक लज़ीज़ टुकड़ा भर है जो पूरी दुनिया के पुरुषों की सोच को प्रदर्शित करता है. औरतों को आज भी एक जिस्म से ज़्यादा कुछ नहीं समझा जाता. उनके दिमाग की कोई कद्र नहीं इस पुरुषवादी समाज में. आज भी पूरे विश्व के पुरुष वर्ग का अधिसंख्य औरतों को सिर्फ जिस्म के तौर पर, उसके जिस्म को लज़ीज़ गोश्त के टुकड़े की तरह ही देखता है और इस एंगल से देखता है कि बाज़ार में इस जिस्म की कीमत कितनी ऊंची होगी. कहीं खुलेआम तो कहीं चोरी-छिपे औरत सिर्फ और सिर्फ एक जिस्म भर है. यही हमारे समाज की तल्ख़ सच्चाई है और उतनी ही तल्खी से निर्देशक नीलू इसे दिखाते भी हैं.
जब औरतों को सिर्फ जिस्म समझा जा रहा है उस हालत में अनित्रा नामक चरित्र द्वारा निर्देशक यह दिखाते हैं कि स्त्रियाँ भी अपनी कीमत वसूलने में पीछे नहीं रहती हैं इन दिनों. अनित्रा की नज़र पीयर के पैसे पर होती है और उसकी सारी दौलत लेकर वह उसे ठेंगा दिखाकर चली जाती है. आज धड़ल्ले से यही हो रहा है. औरतें अनित्रा की तरह स्मार्ट हो गयीं हैं. लेकिन गौर से देखें तो यह पूरे विश्व के लिए नैतिक अवमूल्यन का समय है.
अंतिम दो-तीन दृश्यों में जब पीयर गिन्ट दुनिया का बेताज बादशाह बनना चाहता है वह युद्ध की वकालत करता है यह कहते हुए कि टायकून बनने के लिए जंग ज़रूरी है. पीयर प्रतीक है उन लोगों का जो दुनिया पर राज करने के लिए, शक्तिशाली होने के लिए किसी भी हद तक गिरने और खुद को खोने को तैयार हैं, यहाँ तक कि हिंजड़ा बनने के लिए भी. ऐसे लोगों की यह सोच है कि खुद को खोकर ही इस दुनिया को पाया जा सकता है, उसपर राज किया जा सकता है.
निर्देशक नीलू पीयर के माध्यम से वक़्त को प्लेग जैसी महामारी के रूप में दिखाते हैं. वे यह दिखाते हैं कि दुनिया पर येन-केन प्रकारेण किसी भी तरह राज करनेवाला पीयर अंततः अपने दिमागी और अंतरात्मा के द्वंद्व में फंसकर एक फ़क़ीर बनकर रह जाता है और इसी द्वंद्व के साथ उसका अंत होता है. उसका अहम् ही उसे ले डूबता है.
नाटक यद्यपि थोडा लम्बा खिंच गया है और थोड़ी धीमी गति से आगे बढ़ता है इसलिए यह दर्शकों को कहीं-कहीं बहुत बोर भी करता है, थोड़ा उबाऊ भी लगता है. शुरुआती दो दृश्य दर्शकों को बांधकर रख पाने में अपेक्षाकृत कम सफल रहे हैं लेकिन इन दो दृश्यों के बाद पूरा नाटक अबाध गति से चलता है. पूरा नाटक एक चलती-फिरती पेंटिंग है जिसमें जादू की तरह फ्रेम दर फ्रेम दृश्य बदलते हैं और दर्शक मंत्रमुग्ध से रह जाते हैं.
रुदन, विलाप और मृत्यु के लिए जिन धुनों और गीतों का चयन और इस्तेमाल निर्देशक ने किया है वह बेहद कारुणिक और हृदयविदारक है जिसके लिए निर्देशक बधाई के पात्र हैं. शुरुआत से लेकर अंत तक नाटक को पहली नज़र में सिर्फ स्लाइड शो भी कहा जा सकता है लेकिन छिद्रान्वेषण करें तो हम पाते हैं कि यह एक मल्टीलेयर्ड नाटक है. प्याज़ के छिलके की तरह इसकी परतें उघडती चलती हैं, ज्यों-ज्यों नाटक आगे बढ़ता है.
अमिताभ श्रीवास्तव का अनुवाद लाजवाब है, एक-एक डायलाग सधा हुआ. कुर्ट हिमंसन की मंच परिकल्पना काबिले तारीफ़ है. तन्मय गुप्ता ने कॉस्टयूम पर बहुत अच्छा काम किया है. गौरव शर्मा को अभी अपनी प्रकाश व्यवस्था पर और काम करने की ज़रूरत है. प्रकाश चरित्र पर केन्द्रित न होकर कई जगहों पर बिखर-बिखर सा गया था. एहसान रज़ा खान का संगीत नाटक को और प्रभावशाली बना देता है. पीयर की भूमिका में चन्दन कुमार, महेंद्र सिंह पंवार और राहिल भारद्वाज ने शानदार अभिनय किया है. महेंद्र अपने अभिनय का लोहा इससे पहले भी रिचर्ड थर्ड सहित कई नाटकों में मनवा चुके है. राहिल ने मुर्गे बने पीयर की भूमिका के साथ पूरा न्याय किया है. दूल्हे के रूप में सिकंदर कुमार का अभिनय सराहनीय है. अनित्रा की भूमिका में बर्नाली बरुआ ने भी अच्छा अभिनय किया है. लेकिन सर्वाधिक सशक्त भूमिका में रही हैं दानव राजा की बेटी इंद्राणी की भूमिका में गुरिंदरजोत कौर. पीयर के साथ गुरिंदर मंच पर गुत्थमगुत्था होकर मंच के कोने से दूसरे कोने तक लुढ़कती हुई आती हैं और ये दोनों कलाकार बलात्कार के दृश्य को जीवंत करते हैं. यह एक बोल्ड दृश्य है जिसे करने के लिए ये दोनों कलाकार और करवाने के लिए निर्देशक बधाई के पात्र हैं. नाटक के अंतिम दृश्यों में अपने आत्म से जूझते पीयर की भूमिका को अपने सशक्त अभिनय से वाणी दी है चेतन परिहार और तसव्वेर अली ने. कुल मिलाकर यह पूरी टीम बधाई की पात्र है अपने उम्दा प्रदर्शन के लिए लेकिन नीलू जी के निर्देशन के साथ मुझे याद रह गया राहिल भारद्वाज का अभिनय. राहिल कमाल के अभिनेता हैं, उनमे अपार संभावनाएं हैं. हर बार की तरह एक बार फिर निर्देशक कमालुद्दीन नीलू इब्सन के अपरम्परागत व्याख्याकार के रूप में सफल रहे हैं.
मैकाबरे
अब बात नीलू जी के ही दूसरे नाटक ‘मैकाबरे’ की जिसे मैंने २०१४ में दिल्ली के कमानी ऑडिटोरियम में देखा था. यह नीलू जी के काम से मेरा पहला परिचय था. नाटक मैकाबरे मैंने २०१४-१५ के भारत रंग महोत्सव में कमानी ऑडिटोरियम में देखा था. उसके एक दृश्य में एक स्त्री को सफ़ेद कपड़ों में सफ़ेद बालों के साथ डांस ऑफ़ डेथ का प्रतीक बताया गया है.
मैकाबरे मनुष्य के अंतर की गहराई में गुथी मुक्ति की आकांक्षा की कहानी है. इसमें मनुष्य के बंदी होने की उस दशा का चित्रण है, जो मनुष्य के शरीर और मानस पर अदृश्य और अप्रकाशित शक्ति के आधिपत्य को उद्घाटित करती है; एवं जो आधिपत्यशील शक्ति हमेशा एक अज्ञात सत्ता के रूप में रह जाती है. मैकाबरे राजनीति की हिंसा और हमारे आधुनिक राजनीतिक प्रतिमान में निहित व्यवस्थित हिंसा में व्यक्ति की बेबसी को दर्शाता है. नाटक का स्थान एक कारागार है, एक अनिर्दिष्ट देश है. यह एक क़ैदी के भ्रमण की कहानी है; एक ऐसे भ्रमण की कहानी जिसका गंतव्य मृत्यु है. पूरा नाटक एक रात की कहानी है, जिसमें क़ैदी की पीड़ा, नियंत्रण, दमन, अधीनता को दर्शाया गया है और अंततः यह नाटक राजनीतिक तंत्र के हाथों उसकी अनिवार्य मृत्यु को उजागर करता है. क़ैदी अंत में समाज के अदृश्य कारागार में बंदी मनुष्यों का प्रतीक बन जाता है.
नाटक मैकाबरे के पीछे नाट्यकार की सोच के बारे में बात करते हुए निर्देशक कमालुद्दीन नीलू कहते हैं कि नाटककार इस नाटक में बताना चाहता है कि –
“जवाब ढूंढ़ने के लिये व्यस्त न होकर सटीक प्रश्न करना ज़्यादा ज़रूरी है.”
जहां तक नाटक के कथानक या कहानी की बात है, मैकाबरे नाटक में कोई सुनिर्दिष्ट कथानक या कहानी नहीं है. जहां तक नैरेटिव की बात है, नाटक किसी भी पारंपरिक कथन की पुष्टि नहीं करता है. यह ग्रैंड नैरेटिव के विपरीत खड़ा मेटानैरेटिव के माध्यम से ख़ुद को स्थापित करता है. यह नाटक एक अभिव्यक्ति है, अस्तित्व से मुक्ति की आकांक्षा की अभिव्यक्ति. अस्तित्व की यात्रा, शून्य की ओर.
जो वास्तविक शक्ति या क्षमता अस्तित्व को प्रतिबंधित करती है, उस पर हावी होती है और वश में करती है, वो अंततः अज्ञात और अनदेखी है. लेकिन इसके बाद भी जो कुछ अज्ञात रह जाता है उसे ‘आंखें’ अपनी सतर्क निगरानी में प्रत्यक्ष करती हैं.
अस्तित्व कभी विद्रोह नहीं करता, यहां तक कि उसके सामने यदि विद्रोह की पांडुलिपि पेश कर दी जाये, तब भी. वह निष्ठा को स्वीकार कर लेता है, लेकिन अप्रत्यक्ष चलता रहता है मृत्यु का नाच, ‘द डांस मैकाबरे’.
उसका प्रतिरोध उसके सपने में है, उसकी मुक्ति की आकांक्षा में है, “मेरा स्वप्न ही हो मेरा अस्तित्व”. तभी से वो सपना हो उठता है, “मेरा विद्रोह, मेरी मुक्ति, मेरा अनुराग”.
मैकाबरे का प्रस्थान बिंदु आइंस्टीन के सापेक्षता के सिद्धांत को संगी बनाकर अग्रसर होता है हेरल्ड पिंटर के साहित्यकर्म के बीच से. नीलू कहते हैं – “इस परफ़ॉर्मेंस में मैंने अपने परिभ्रमण के लिये पाटाफ़िज़िक्स Pataphysics (French: Pataphysique) को चुना है. अल्फ़्रेड जेरी (1873-1907) ने Pataphysics के संबंध में बताते हुये जिस बात का उल्लेख किया है, वो है, “यह एक काल्पनिक समाधानों का विज्ञान है, जो प्रतीकात्मक रूप से वस्तु के अवयवों के वास्तविक गुणों को प्रकाशित करता है”.
आनिका माहीन द्वारा लिखे इस परफ़ॉर्मेंस की मूल भावना यह है कि यह विषयवस्तु के अंतर-संबंधों को सूत्रबद्ध करता है. भौगोलिक सीमा से परे इसका विषय स्वतंत्रता का, मुक्ति का है– ज़ाति गोष्ठी और सामाजिक स्थिति निर्विशेष सभी मनुष्य एक हैं, एवं सबको सम्मान के साथ जीवन जीने का अधिकार है. मूल विषयवस्तु सार्वभौमिक है एवं हमारी वर्तमान समाज-व्यवस्था के लिये अत्यंत प्रासंगिक. इस परफ़ॉर्मेंस का मूल विषय मृत्यु का अनुप्रवेश है, जो कि डिस्टोपिया का एक अंश है, जहां की समाज व्यवस्था मनुष्यों की दुर्दशा, पीड़ा, उत्पीड़न, व्याधि एवं गंदे परिवेश में बहुत से लोगों का एकसाथ रहने को चिन्हित करता है.
मैकाबरे एक अपारंपरिक थियेटर परफ़ॉर्मेंस है जिसमें विभिन्न तकनीकों का प्रयोग हुआ है, विशेषकर वीडियोग्राफ़ी, मल्टी स्क्रीन प्रोजेक्शन टेक्नोलॉजी, ऐनिमेशन, 3 डी प्रोजेक्शन मैपिंग, स्थापना शिल्प (इंस्टालेशन आर्ट) और साथ में पूर्व और पश्चिम का लिविंग आर्ट. यह अंतर-सांस्कृतिक(इंटरकल्चरल) एवं अंतर-सांस्कृतिक थिएटर परफ़ॉर्मेंस के लिए एक नए दृष्टिकोण का प्रतिनिधित्व करता है, एवं हमारे समकालीन वैश्विक समय और काल में यह एक परिपूर्ण कलात्मक अभिव्यक्ति है. इस परफ़ॉर्मेंस का समग्र कलात्मक प्रयोग यह है कि किस तरह एक कल्पनाश्रित जगत, उपलब्धि के रूप में प्राप्त किये हुए जगत एवं आभासी जगत के बीच परिवर्तन प्रक्रिया के माध्यम से ‘आत्मप्रेरित छंदमय प्रतिक्रिया’ संघटित हो सकती है. मैकाबरे का उद्देश्य दर्शकों के लिये एक ऐसी रंगभूमि तैयार करना है जहां सांस्कृतिक आदान-प्रदान (क्रॉस-कल्चरल) के दृष्टिकोण के माध्यम से समकालीन थिएटर के अभ्यास का अनुभव करने का अवसर मिले.
3 डिअर चिल्ड्रन सिंसियरली
एक और नाटक जिसका मैं ज़िक्र करना चाहूंगी वह है – ‘डिअर चिल्ड्रन सिंसियरली’ जिसे मैंने अठारहवें रंग महोत्सव में देखा था. ‘डियर चिल्ड्रन, सिंसियरली’ की नाटककार और निर्देशक हैं रुवान्थी दे चिकेरा. उनका यह नाटक तीन चरणों में मानवीय बर्बरता और संवेदनाओं का सूक्ष्म रेखांकन दर्शकों के सामने प्रस्तुत करता है. पहला चरण ‘सेवन डेकैड्स डीप’ १९३० से ९० के दशकों के दौरान दो देशों में घटी विशिष्ट घटनाओं पर आधारित है. दूसरा चरण ‘लव, सेक्स एंड मैरिज’ अनिवार्यतः एक सूक्ष्म अंतर्दृष्टि है कि किस तरह हमारे वरिष्ठों ने जीवन के इन पहलुओं का अवलोकन किया और इनका अनुभव किया. तीसरा चरण ‘अपसाइड डाउन लैंड’ रवांडा और श्रीलंका की सबसे बड़ी समानता, नृशंसता और आतंकवाद के कलंकित काल की मंचीय व्याख्या प्रस्तुत करता है. रवांडा ने १०० दिनों का जनसंहार देखा है और श्रीलंका ने जे.वी.पी. की देशद्रोही बगावतें और १९८३ के दंगे. अपसाइड डाउन लैंड वो भूमि है जहाँ लूटपाट और बर्बरता आम जीवन के तरीके हैं.
यह पूरा नाटक संवादों, साक्षात्कारों, शोध और बहसों पर आधारित है. निर्देशक और अभिनेताओं ने मिलकर बर्बरता और नृशंसता का जो चित्रण किया है वह न सिर्फ क़ाबिल-ए-तारीफ़ है बल्कि हृदय-विदारक और रोंगटे खड़े कर देनेवाला है, विशेषकर वह दृश्य जिसमें यह दिखाया गया है कि विरोधी पक्ष की स्त्रियों का बलात्कार करने के लिए दूसरे पक्ष के पुरुषों की एक लम्बी कतार खड़ी रहती थी और वे अपनी प्रतीक्षा करते रहते थे और बारी-बारी से एक महिला का बलात्कार करते थे. इतना दारुण दृश्य है यह कि बरबस आँखों से आंसू बह निकालते है.
निर्देशक का इस नाटक के बारे में कहना है कि– १९९० के दशक का जगत, आज के जगत से अलग संसारों का है. हमारे बुजुर्गों का सम्बन्ध एक ऐसे युग से रहा जिसके मूल्य और अनुभवों ने उस दुनिया का निर्माण किया जो हमारी आज की दुनिया है. वे जातीय संघर्षों, जनसंहार की दहशत के बीच जिए – उन्होंने विवाह, यौनाचार और प्रेम के क़ानून गढ़े, जिनमें हम आज भी बंधे हुए हैं. अपने समाज को फूट, अन्याय, हिंसा, बग़ावत, विद्वेष के हाथों, उन्होंने औंधे मुंह गिरते देखा. उनमें से कुछ ने बदलाव की सीमाओं को परे धकेला, दूसरों ने इसका प्रतिरोध किया, बाक़ी इससे दूरी बनाए निर्लिप्त खड़े रहे. आठ दशक इस जगत के, परिवर्तन के, अनुभव के, खोने और कुछ पाने के, क्या सीखा उन्होंने? किस बात का अफ़सोस है उन्हें? क्या कहना चाहते हैं हमसे? इससे पहले कि वे विदा हों? – इन्हीं बातों का सूक्ष्म विश्लेषण और उनकी व्याख्या करता है यह नाटक.
जब जब युद्ध हुए हैं उन युद्धों का सबसे ज़्यादा खामियाज़ा औरतों और बच्चों को भुगतना पड़ा है. यह नाटक आज इसलिए प्रासंगिक है आज यूक्रेन और रूस के बीच युद्ध छिड़ा है, चीन ने ताईवान पर आक्रमण कर दिया है, पूरे विश्व की जो स्थिति है उससे विश्वयुद्ध की स्थिति उत्पन्न होने ही संभावना नज़र आ रही है. यदि यह बर्बरता और नृशंसता जारी रही तो फिर इसका खामियाज़ा औरतों और बच्चों को ही सबसे ज़्यादा भुगतना पड़ेगा. जब तक दुनिया में युद्ध की स्थिति बनी रहेगी यह नाटक ‘डिअर चिल्ड्रन सिंसियरली’ प्रासंगिक रहेगा.
नाटक की कोरियोग्राफी और नृत्य-संरचना कमाल की थी जिसे स्टेज थिएटर ग्रुप, श्रीलंका और माकेरेरे विश्वविद्यालय, कपाला के नृत्य और संगीत के विद्यार्थियों ने कुशलता से अंजाम दिया था. आदिम और जनजातीय संगीतात्मक धुनों और वाद्ययंत्रों के कुशल प्रयोग से उस समय की नृशंसता और बर्बरता को मंच पर कुशलता से उकेरा गया था. जयमपति गुरगे की प्रकाश परिकल्पना और पेमान्थी फेर्नेंडो के ध्वनि सञ्चालन ने इस नृत्य आधारित प्रस्तुति को और प्रभावशाली बना दिया था. सभी अभिनेताओं और नर्तक-नर्तकियों के बीच अद्भुत समन्वय था.
4 सकुरा
और अंत में जिस सबसे महत्वपूर्ण नाटक का मैं ज़िक्र करना चाहूंगी वह है जापान का नाटक ‘सकुरा’. जापानी नाटक ‘सकुरा’ मैंने भारत में हुए आठवें थिएटर ओलंपिक्स में देखा था. जापान के नाट्य समूह कमिगातामेई- तोमोनोकेई द्वारा प्रस्तुत किया गया था नाटक ‘सकुरा’ (हिरोशिमा-नागासाकी का शोक गीत). इस नाटक की निर्देशक, नर्तकी और अभिनेत्री थीं कीइन योशिमुरा. नाटक जापानी कवि संगिची तोगे की छह कविताओं पर आधारित था जिसका शीर्षक है “जेनबाकू शीशू”. इन कविताओं का पाठ भी स्वयं कीइन ने किया था.
इन कविताओं के साथ निर्देशक और अभिनेत्री कीइन कहती हैं विश्व शान्ति मेरा मिशन है और मैं चाहूंगी, प्रार्थना करूंगी कि इस धरती पर कभी हिरोशिमा और नागासाकी जैसी दुर्घटना दुबारा न हो. मैं विश्व भर के सभी मनुष्यों के सच्चे सुख की आशा और प्रार्थना के साथ अंतर्राष्ट्रीय सहभागिता करना पसंद करूंगी.
इस नाटक का निर्माण हिरोशिमा और नागासाकी के ७०वीं वर्षगाँठ पर किया गया है. निर्देशक कहती हैं कि जापान के हिरोशिमा और नागासाकी पर बरसे परमाणु-बम के हृदयविदारक अनुभव से हम जापानी अभी भी गुज़र रहे हैं और पूरे विश्व में शान्ति चाहते हैं. शान्ति की इसी प्रेरणा ने मेरे इस नाटक की पृष्ठभूमि तैयार की.
७० वर्ष पूर्व, द्वितीय विश्वयुद्ध में जापान ने हार और महाविनाश का सामना किया. तब से हम जापानियों ने दिल की गहराइयों से वैश्विक शांति लाने का प्रयास किया है. युगों से जापानियों के मन-मस्तिष्क की शक्ति प्रकृति की संगति में जी रही है, जो कि हमारे चार मौसमों की बानगी है. हमारे लिए प्रकृति ईश्वर का जन्म है. जापानी संस्कृति, ब्रह्मांड के सर्वस्व शुद्धिकरण के लिए ईश्वर से प्रार्थना है और हमारी पारंपरिक संस्कृति, जो कि हमारे जीवन का मर्म है, प्रकृति को ‘वा नो कोकोरो’ के रूप में प्रतिबिंबित करती है, जिसका अर्थ है, सद्भाव की आत्मा. अपने इस कार्य ‘सकुरा’ के साथ मैं विश्व भर में सौन्दर्य, सद्भाव और शान्ति की आधारशिलाओं में से एक होने की आशा करती हूँ.
कीइन योशिमुरा जापान की परंपरागत कमिगातामेई नृत्यशैली की सर्वश्रेष्ठ जापानी कलाकार हैं और कीइन का जादू दर्शक पहले ही इतालवी निर्देशक पीनो द बुदुओ के नाटक ‘द सस्पेंडेड थ्रेड’ में देख चुके थे, इसलिए सकुरा के दिन कीइन के नाम पर ही एलटीजी प्रेक्षागृह दर्शकों से खचाखच भरा हुआ था. हमेशा की तरह ही अपनी इस नाट्य-नृत्य संरचना से एक घंटे तक उन्होंने हिरोशिमा और नागासाकी के उस दारुण दुःख से दर्शकों को रूबरू कराया जिससे जापानी आज भी गुज़र रहे हैं. नाटक की शुरुआत से अंत तक मंच सज्जा ऐसी थी जिसने दर्शकों को सर्वप्रथम जैसे बम विस्फ़ोट के बाद के वीरान हिरोशिमा और नागासाकी में ले जाकर खड़ा कर दिया था, फिर धीरे-धीरे उसी वीरानी से उद्भूत होती शान्ति में दर्शक अंत तक डूबते-उतराते रहे, इस शान्ति को आप नर्तकी और अभिनेत्री कीइन के साथ चलते हुए बिलकुल वैसे ही महसूस कर सकते थे जैसे कलिंग विजय के बाद चक्रवर्ती सम्राट अशोक युद्ध से विरक्त हुआ हो और उसके चारों ओर शांति का प्रभामंडल बन रहा हो और वह अपने साथ-साथ आपको भी उसी अपूर्व शान्ति में लपेटे युद्धभूमि से निकल रहा हो. कीइन की यह विशेषता है कि वे दर्शकों को अपने साथ मंच पर लिए चलती हैं. दर्शक शरीर से प्रेक्षागृह में बैठे होते हैं पर उनका मन कीइन के साथ विचरण कर रहा होता है. कीइन की भाव-भंगिमाओं और नृत्य के साथ दर्शक भी उसी सुर-लय-ताल में थिरकते हैं. यही हुआ इस नाटक के दिन ९ मार्च २०१८ को एलटीजी प्रेक्षागृह में. कीइन दर्शकों को युद्ध और वीरानी से शान्ति की ओर लेती चली गईं और दर्शक भी मंत्रमुग्ध से खिंचे चले गए उनके पीछे-पीछे.
पर, अफसोसजनक बात यह है कि भारतीय दर्शकों ने कीइन के उस निवेदन पर ध्यान नहीं दिया जो उन्होंने नाटक की शुरुआत में दर्शकों से किया था. उन्होंने निवेदन किया था कि नाटक की समाप्ति पर ताली न बजाएं और प्रकाश ख़त्म होने पर न सिर्फ हिरोशिमा और नागासाकी के पीड़ितों के लिए बल्कि वैश्विक शांति के लिए आँखें बंद करके तबतक प्रार्थना करें जबतक दुबारा मंच पर प्रकाश वापस न आये और नाटक ख़त्म होने पर अपने दिल की गहराइयों में सकुरा की एक पंखुड़ी (जापानी भाषा में चेरी ब्लॉसम के फूल को सकुरा कहते हैं) समेटकर शांत मन से अपनी जगह पर वापस जाकर बैठ जाएँ और सकुरा की उसी पंखुड़ी को मन में लेकर वैश्विक शांति की कामना के साथ घर लौटें. पर अफसोसजनक था यह देखना कि नाटक ख़त्म होने और मंच पर दुबारा प्रकाश आने के बीच पूरा प्रेक्षागृह खाली हो चुका था. गिनकर चार-पांच दर्शक बचे थे. एक भारतीय होने के नाते यह देखकर मेरा सिर शर्म से झुक गया. हिरोशिमा-नागासाकी के पीड़ितों के प्रति हृदय से श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए, विश्व-शान्ति और विश्वबंधुत्व की कामना करते हुए मैं यह भी कहना चाहूंगी कि भारतीय जनमानस में अभी भी नाटक देखने की तमीज का विकास होना बाक़ी है.
के. मंजरी श्रीवास्तव कला समीक्षक हैं. एनएसडी, जामिया और जनसत्ता जैसे संस्थानों के साथ काम कर चुकी हैं. ‘कलावीथी’ नामक साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्था की संस्थापक हैं जो ललित कलाओं के विकास एवं संरक्षण के साथ-साथ भारत के बुनकरों के विकास एवं संरक्षण का कार्य भी कर रही है. मंजरी जी ‘SAVE OUR WEAVERS’ नामक कैम्पेन भी चला रही हैं. कविताएँ भी लिखती हैं. प्रसिद्ध नाटककार रतन थियाम पर शोध कार्य किया है. |
Much before that a strong tradition of drama had developed in Khari boli, in early nineteenth century. Urdu had a long tradition of Indra Sabha. Among them Indra Sabha written by Amanat is still taught in the educational institutions. Indra Sabha had got impatous in court of Wajid Ali Shah. It was followed by Parsi Theatre the language of which was predominantly Urdu. Therefore, drama in Khari boli based language had developed much before Bhartendu Harishchandra.
I wish to congratulate Dr Manjari Srivastava as well as thank her for her heartening appraisal of the Bangla Desh born,Dr Kamaaludin Neelu,settled in Norway,the theater Director.
All the four plays that she has selected for her discussion speak of our modern/ contemporary world in a most profound manner.
The reference to a bat as a potential progenitor of a pandemic in the play Macabre (staged by Neelu in 2014)startles one.
The detailed discussion of the other three plays by Dr Manjari Srivastava too make one sit up.
Thank you Arun Deb ji for presenting Manjari ji’s article on Dr Kamaaludin Neelu to your readers on this World Theatre Day.
Deepak Sharma
एक भिन्न सामाजिक संस्कृति भी किस तरह मानवीयता के सार्वभौम मूल्यों से जुड़ सकती है, इसका बेहतरीन प्रस्तुतीकरण है यहां… बहुत बधाई
पुत्र, तुम्हें ग़लतफ़हमी हो रही है. मैं तुम्हें एक मुकम्मल दानव बनाना चाहता हूँ.’- क्या ही कटाक्ष है।
रुवान्थी दे चिकेरा या कमालुद्दीन नीलू मैं किसी से परिचित नहीं था। शुक्रिया इस ओर मेरा और हम जैसों का ध्यान जाएगा।
सकुरा’ (हिरोशिमा-नागासाकी का शोक गीत) के अंत में जो निर्देशक वाली बात लिखी गयी यह यह उनकी संवेदनाओं की गहराई को समझने के लिए काफी है और फिर भी हम न समझें तो यह लिखना लाजिमी है कि भारतीय जनमानस में अभी भी नाटक देखने की तमीज का विकास होना बाक़ी है.
बधाई आप दोनों को इस पोस्ट के लिए
बहुत बढ़िया आलेख। सच कहूं तो रंगमंच और नाटकों की दुनिया से इतनी गहनता के साथ पहली बार परिचित हुआ। प्रस्तुत करने का शुक्रिया।
बढ़िया और rich आलेख. “नेटिव पीयर” के तीनों चरणों को जिस तरह बताया गया है, वह बहुत अच्छा लगा. “डियर चिल्ड्रन सिंसियरली” का भी पता मिल गया, बहुत खूब.
यदि तीन-चार पैरा दिल्ली, मुंबई, कोलकाता शहरों के साथ पटना, खंडवा, चंडीगढ़, रीवा और अजमेर में रंगमंच व नाटक के इतिहास, संघर्ष और झलक पर भी होते तो मज़ा आ जाता.
आपको बधाई और अरुण जी का आभार.
यह सोचकर आश्चर्य होता है कि हमारे यहाँ प्राचीन भारत में कभी संस्कृत नाटकों की इतनी समृद्ध परंपरा भी थी । क्या सिनेमा की विकसित तकनीक ने नाटकों की जगह छीन ली? जबकि नाटक एक सजीव अभिनय की विधा है।इसलिए इसका प्रभाव भी सिनेमा से अधिक जीवंत (गहरा) है।यह आलेख मौजूदा समय में नाटक की प्रासंगिकता और उसकी संभावनाओ पर अच्छा प्रकाश डालता है।वह विधा जो पूरे समाज के बीच अपने को पाकर सार्थकता पाती हो,आज अगर वह मुख्य धारा में नहीं है तो यह उस समाज और उसके साहित्य का एक सांस्कृतिक संकट है ।
बहुत ही डूब कर विस्तार से रंगमंच के एक एक तत्व के आधार पर सभी नाटकों की प्रस्तुति पर लिखते हुए उसकी वर्तमान समय में प्रसंगीकता से जोड़ते हुए एक विस्तृत पाठ से जोड़ने की कोशिश. बहुत बढियाँ गंभीर व सार्थक लेख