उजास की कविताएँ |
यतींद्र के कविता संकलन विभास की कविताओं के बाद इस संकलन में आए एक प्रस्थान बिन्दु में आसक्ति से अनासक्ति, राग में निहित विराग, अनुपस्थिति की उपस्थिति स्पष्ट दिखाई देती है. चाहे वह इस संकलन की पहली कविता बिना कलिंग विजय के हो या अनूठी कविता ‘कालिय दमन’ और इस संकलन की अंतिम कविता ‘मन की सारंगी’ हो. यह दर्शन पूरे संकलन को एक सूत्र में बांधता भी है और आसमान तक उड़ान को छोड़ भी देता है. शीर्षक कविता इशारा करती है कि महत्वाकांक्षा, आकांक्षा, राज्य विस्तार की आसक्ति, स्पर्धा से कलिंग विजय तो हो सकती है, लेकिन अन्ततः हासिल क्या होगा. अशांति ही न! ‘भीतर का कालिय दमन’ भी इसी भाव की कमाल की कविता है –
याद नहीं रहता ये द्वापर नहीं है
अन्यथा आत्ममुग्धता ताक़त और दर्प का सहस्रफण
नाथ सकते जमुना के जल से उतराते हुए
बजाते शांति की मधुर सुर-बाँसुरी
वे इस संकलन में इस विचार की पुष्टि करते प्रतीत होते हैं. वे लिखते हैं- एक अन्तराल के बाद मेरी सौ कविताओं का संग्रह प्रकाशित हो रहा है.
‘विगत अप्रैल माह में मेरे जीवन के सबसे कठिनतम क्षणों में से एक समय वह आया, जब मेरी माँ इस नश्वर संसार को छोड़कर चली गयीं. उस पीड़ा की घड़ी में खुद को उनसे जुड़े रहने का सबसे बेहतर तरीक़ा मैं यही ढूँढ़ सका कि कविताएँ लिखकर मैं अपनी माँ से संवाद करूँ. जो अनुपस्थिति है, उसकी उपस्थिति का बोध महसूस करने की छटपटाहट. इस तरह माँ पर कविताएँ लिखता रहा और उनके वात्सल्य की आँच को अपने भीतर बटोरता चला गया. इसी दौरान यह लगा कि अपनी शेष कविताएँ, जो पिछले लम्बे समयान्तराल में फैली हैं और कुछ सांस्कृतिक विषयों, शहरों, संगीत विषयक और ऐतिहासिक सन्दर्भों वाली इधर लिखी कविताएँ एकत्र की हैं, उनका एक संचयन तैयार करना चाहिए.’
कविता का संसार किसी कवि के बाहरी और आंतरिक जीवन का अनुभव संसार होता है, लेकिन यतीन्द्र की कविताएँ मानो कोई पुल हों भीतर से बाहर और बाहर से भीतरी संसार में आवाजाही का. वे छोटी से छोटी और सूक्ष्म चीजों को अपनी कविताओं का विषय बनाते हैं. ये कविताएँ अपनी वैचारिकी लिए हैं और व्यापक मानवता का कस कर हाथ पकड़े खड़ी मिलती हैं. ‘फाग बँधाओ’ कविता में वह लिखते हैं-
जलावतन हैं मुबारक़ के सारे मौके़
कोई भूल से भी अपने लिए फ़रियाद तक नहीं करता
ऐसे में कुछ लड़कियाँ खेल रही हैं
बसंत के पीले रंग
यतींद्र की कविताएँ जब गलियों में उतरती हैं तो बच्चों की दुनिया तक जा पहुंचती हैं और फिर अपनी बाल स्मृतियों में. फिर वे शहर नहीं चीन्हते कि यह गली कासिम जान है कि शम्स तबरेज़ की कोन्या की गलियों में भटकन. या यह हज़रत गंज है कि बुनकरों की गलियाँ. कहाँ-कहाँ से होकर नहीं गुज़रती हैं. इन कविताएँ के साथ पाठक भटकता सूफियाना आनंद में डूब जाता है. जनजीवन से जुड़े रहने की ललक कवि को कहाँ नहीं ले जाती, जहाँ जीवन का सरस आनंद बसता है- बुनकरों के हाथों में, अखाड़े की माटी में, जंगल की नदी में, सोने की बिछिया में, अम्मां की रसोई में. स्त्रियाँ इन कविताओं में बड़ी आत्मीयता से उपस्थित हैं चाहे वे पुराणों की स्त्रियाँ हों, नौटंकी-वालियाँ हों, सोहनी हो या अल्लाह जिलाई बाई हों. यहाँ विमर्श भी उतना ही कोमल और महीन है जितना स्त्रियों के प्रति भाव-सम्मान. ‘चूड़ामणि’ एक ऐसी ही कविता है.
‘एक जयकथा इस तरह भी जाती है इतिहास में
जहाँ पराक्रम और सत्य के सहोदर में
चूड़ामणि
स्त्री का एक आभूषण
युगों तक विमर्श में चला आता है.’
यतीन्द्र ने इस संकलन को चार भागों में बांटा है– ‘क्या सुर की कोई स्थायी वेदना होती है’, हजारों तरीकों से होकर गुज़रता रौशनाई का रास्ता…’, ‘दो युगों की संधि प्रकाश बेला में’, ‘हम सब में टूट-टूट कर बिखरा तुम्हारा होना’.
पहले सर्ग में कुछ प्राचीन ऐतिहासिक शहरों से संबोधित कविताएँ भी हैं तो संगीत और सुरों का आह्वान करती कविताएँ भी. तो पुराणों की नायिकाओं से संवादरत कविताएँ भी हैं. भारत के नक्शे के वे शहर जहाँ-जहाँ से अध्यात्म की रोशनी फूटी, या इतिहास ने करवट ली- वे पुरातन छोटे शहर पंढरपुर, चिदंबरम, हम्पी, पट्ट चित्रों के लिए प्रसिद्ध रघुराजपुर, माँडू इन कविताओं में ऐसे उकेरे गये हैं कि मानो ये इतिहास की परतों से निकल जीवित हो उठे हों. ये कविताएँ आपको विह्वल करती हैं कि इनकी रोशनी में भारत के नक्शों पर लगभग सुप्त विलुप्त इन जगहों पर एक बार हो ही आया जाए. इन छोटे शहरों से आत्मीयता वही रख सकता है जो अपने शहर से बंधा है, अपने शहर की हर बात से प्रेम करता है.
गरुड़ लुप्त हुआ पुराणों को सुनते-गुनते
वैसे ही नष्ट हो गयी
एक नगर की जीवन्त सुरम्यता
जैसे अंतरिक्ष के मनके से टूटकर बिखर जाए शुक्रतारा (हम्पी)
संगीत यतींद्र के व्यक्तित्व का एक बड़ा हिस्सा घेरता है, उनके संगीत से लगाव और गहन ज्ञान से कौन अपरिचित है? संगीत को संबोधित कविताओं का आना लाजमी है. वे शब्दों में उकेर देते हैं आत्मा से जुड़ी उन रागों को, संगीत की तमाम लोक विधाओं को. मसलन गुर्जरी तोड़ी को यूँ कहते हैं-
इस राग का निर्मल पानी बचाता रहता है
हमेशा प्यास में दर-ब-दर भटकने से हमें
अनिश्चय की अंतहीन बावड़ी की ओर
जाने से रोकती है इसकी अति कोमल आवाज़
ऐसी ही अनूठी कविताएँ हैं- टप्पा और पाकिस्तान, राग बसंत के लिए, कोमल गान्धार की सीढ़ियों पर मालगूंजी, साज़ों से बतकही, सहगल का हारमोनियम सीरीज़ तथा ‘माँड और अल्लाह जिलाईबाई’.
क्या सुर की कोई वेदना होती है?
जिसे सुनकर रेत में चलने वाले क़दम
भारी हो जाते हैं उस क्षण
कुरजां पक्षी की पीड़ा और उसका गायन
किस गली में जाकर थमता है ?
यहाँ सिर्फ़ साज और संगीत ही नहीं है, बुनकरी और पेंटिंग संग अखाड़े भी हैं. वह कुश्ती के अखाड़े का संधान करते हुए बताते हैं कि ताकत का सही इस्तेमाल कब और कैसे किया जाता है. गीत-संगीत की प्रधानता लिए इन कविताओं के माध्यम से कहीं सुर की वेदना कहते हैं, तो कहीं रौशनाई की तरफ़ जाते रास्तों की ओर पाठक का ध्यान आकृष्ट करते हैं. सूफ़ी, संत परम्परा तो कहीं प्रेममय जीवन की बातें.
यह संकलन अपनी परंपराओं से एक वीथिका निकालता है वहाँ से एक रास्ता मॉनेस्ट्री में भी जाता है, पियानोवादिका और चार युवा बीटल्स से मिलता है और फिर चार्ली चैपलिन से मिलकर लौटता है. ये कविताएँ अपना वैश्विक वितान रचती हैं. इस किताब में मुझे ‘पियानोवादिका और चार नौजवान’ ने बहुत मोहा. क्योंकि कुछ महीनों पहले ही मैं लिवरपूल बीटल्स म्यूज़ियम गयी थी, अगर नहीं गई होती तो इस कविता के मर्म को नहीं पकड़ पाती कि–
ग़ौर से देखें तो हाथ आता
यही सच सामने
संगीत बदल देता है परिस्थितियाँ
संकलन की इन कविताओं में इतनी विविध मनस्थितियाँ हैं कि लगता है कवि के आस-पास के सांस्कृतिक शहरों बनारस, लखनऊ फैज़ाबाद का अतीत सामने आ खड़ा हुआ हो, मसलन माँझे के गीत, साज़ों की बतकही, नौटंकी वालियाँ, बुनकर कथा, कुश्ती का अखाड़ा. कवि अतीत में गुम दृश्यों को आकार दे देता है. सोहनी के बहाने यतीन्द्र प्रेम की नितांत मौलिक व्याख्याएँ प्रस्तुत करते हैं.
इसमें कोई संदेह नहीं कि यतीन्द्र की कविताई इस दुनिया से अटूट रिश्ता बनाती चलती है, इसके लिए एक विनम्र दृष्टि चाहिए. आज जबकि कवि दुनिया से कुछ इंच ऊपर उठकर चलते हैं, ये कविताएँ ज़मीन नहीं छोड़तीं. इस विनम्रता का स्रोत कवि की वह संवेदनशील और जिज्ञासु दृष्टि है जो एक चिड़िया के फुदकने में भी जीवन पाती है. संक्रमण के इस दौर में लगभग अलक्षित जीवन और उसकी निजी स्मृतियों की दुनिया में वापसी का संसार है. जहाँ सहगल का हारमोनियम है, मिनिएचर पेंटिंग है, मेले हैं, नदी है दरवाज़े–झरोखे हैं, अतीत के नये अर्थ और स्मृतियों के व्यामोह में डोलती भाषा है. स्थितियों, परिवेशों, विवरणों में ‘मैं’ कहीं नहीं मिलता. यह अनुपस्थित है. मैं पाठक में लुप्त संवेदनात्मक संरचना का हिस्सा बनने लगता है.
स्याही बनाने का नुस्खा, टप्पा और पाकिस्तान, हज़रतगंज में वाजिद अली शाह, अवध की सुध, फूल वालों की सैर् कविताओं में अपने समय का खामोश सामाजिक तनाव है जिनमें बीती सदी में छूट गए और टूट रहे मूल्यों के बरक्स इस संवेदना से खाली समय की जरूरी समीक्षा है. समकालीन कविता वही है जो जिए जा रहे जीवन, विविध दृष्टियों, समकालीन कलाओं से स्वयं जुड़े और पाठक को जोड़े. यतीन्द्र यह सरोकार पूरी मौलिकता और हर शब्द के प्रति बरती जिम्मेदारी से निभाते हैं.
और फिर माँ. यह किताब आखिर में सबको माँ की ऊष्म गोद, गोल बड़ी बिंदी और उनकी अनुपस्थिति के निर्वात में पहुंचा देती है. इस संकलन की मेरी प्रिय कविता है जामुन और अमरूद जहाँ कवि माँ की उस भोली तृप्ति के संदेशे की राह तकता है. ‘काया के उदास संगीत में’ कविता का यह अंश किसे नहीं रुला देगा – इस सब के साथ जब भी
काया के उदास संगीत में लिपटा
अकेला होता हूं मैं
मेरी इकलौती माँ
कहाँ रहती हो तुम उस वक्त?
माँ की कितनी-कितनी छवियाँ इन कविताओं में आई हैं. हर छवि से जुड़ी कविता में वात्सल्यमयी जननी को पुकारती इन कविताओं में मैं एक पैटर्न देख रही हूँ. एक घनीभूत पीड़ा है, फिर पुकार है, ‘एक गाढ़ा नीला समुद्र’ कविता में अनुपस्थिति का स्वीकार है. फिर संकलन की अंतिम कविता ताकत है-
भीतर के दु:ख का घराना बनाओ
हो सके तो पीड़ा को ठुमरी में गाओ.
कुल मिलाकर इन कविताओं को पढ़ना, समृद्ध भारतीय परम्परा, सभ्यता, संस्कृति, साज-संगीत का रसा-स्वादन करने जैसा है. लंबे समय से लिखी जा रहीं इस संग्रह की ये कविताएँ कहीं-कहीं हताशा से घिरी होने के बावजूद भी पारदर्शी, रोशन, सरल और निर्मल हैं. इस संग्रह की कविताओं के केंद्र में जीवन की वे आम छवियाँ हैं, जिन्हें यतीन्द्र की भाषा एक नए आलोक में ले आती हैं, अनूठे शब्द-रूप और समयातीत आशयों से उद्दीप्त करते हुए. एक बात जो हम सभी को यतींद्र की कविताओं से जोड़ती रही है वह है अभिव्यक्ति के लिए मीठी राग भरी भाषा को बरतना जो सीधे भारतीय वाङ्मय से जुड़ती है. वे ज़माने के चलन के दबाव में कोई प्रयोग या विचलन का रास्ता नहीं लेते. उनके अनूठे विषय और केसर पगी, सरल स्निग्ध भाषा यह काम कर लेती है. ‘बिना कलिंग विजय के’ एक उम्दा संकलन है यह कविताओं का जिसकी कविताएँ स्थायी असर छोड़ती हैं.
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प्रसिद्ध कथाकार मनीषा कुलश्रेष्ठ के कई कहानी संग्रह और उपन्यास प्रकाशित हैं, उन्होंने अनुवाद भी किया है. वह कथक में विशारद हैं. manishakuls@gmail.com |