अफसर अहमद बांग्ला भाषा के मशहूर कथाकार हैं. मृणाल सेन की फ़िल्म ‘आमार भुबोन’ उनके ही उपन्यास ‘धानज्योत्स्ना’ पर आधारित है. अफसर अहमद के २७ उपन्यास और १४ कथेतर कृतियाँ प्रकाशित हैं. उन्हें कहानी के लिए ‘कथा अवार्ड’ तथा अनुवाद के लिए ‘साहित्य अकादेमी’पुरस्कार आदि मिले हैं.
अफसर अहमद की बांग्ला कहानी ‘रंग’ का हिंदी अनुवाद शिव किशोर तिवारी ने ‘तमाशा’ शीर्षक से आपके लिए किया है.
कबूतरबाजी कला है और नशा भी है, इस अछूते विषय पर इस कहानी को पढ़ना अपने आपमें एक अनुभव है. बहुत ही शानदार अनुवाद शिव किशोर तिवारी ने किया है कथा प्रवाह की रक्षा करते हुए.
अब आप हैं और यह कहानी.
तमाशा
(अफसर अहमद की बांग्ला कहानी ‘रंग’ का हिंदी अनुवाद)
शिव किशोर तिवारी
अभी जरूर खाना पका ही रहा होगी. वह पहले शायद रसोई की छत पर कूद-फाँद, तमाशा करेगा. वासंती भाभी दुआरे निकल आयेगी. फिर क्या होगा?
कबूतरों के झुंड में जिरिया मादा दिख नहीं रही थी. निशिकांत अंदर ही अंदर बड़ा बेचैन होने लगा. उसकी प्यारी कबूतरी ग़ायब हो गई? कल उड़ते-उड़ते खो गई? या किसी और की छत पर उतर गई? या कि आकाश में ही खो गई ? जिरिया आसमान में एक साथ पाँच-छ: घंटे तक उड़ सकती है. कभी-कभी आसमान में खो जाना भी चाहती है. तो क्या कल की उड़ान से जिरिया मादा नहीं लौटी?
आज की सुबह निशिकांत का जवान बेटा युगल कबूतरों को दाना खिला रहा था. लंबी-चौड़ी छत पर जहाँ दाना डाल रखा था वहाँ कबूतरों का झुंड आकर इकट्ठा हो गया था. एक को धकेलकर दूसरा घुस रहा था. झुंड में जैसे एक छंद का निर्माण हो रहा था. सब एक रंग के कबूतर नहीं थे, न एक नस्ल के. सभी नर नहीं थे. मादा भी थीं. अद्भुत चाल-ढाल, अद्भुत स्वभाव इनका! दाना खिलाने का काम पहले निशिकांत खुद करता था, बेटा बस देखता था. करीब साल भर से युगल ही खिला रहा है, निशिकांत सिर्फ देखता रहता है. बहू दोनों को राँधकर खिलाती है. उसका नाम वासंती है. वासंती दुतल्ले या तिनतल्ले की छत पर कम ही आती है. वह अपना समय नीचे के तल्ले पर चौके और शयनकक्ष के बीच बिताती है. कबूतरों के चक्कर में वह नहीं पड़ती. चक्कर में रहते हैं निशिकांत और युगल. युगल पक्का बाप का बेटा निकला है. कबूतरों का यह नशा निशिकांत को उसके पिता से मिला था और युगल को निशिकांत से. आजकल युगल इस नशे में मस्त है. निशिकांत अपने को अभिज्ञ कबूतर-नसेड़ी बताता है.
सुबह से लेकर शाम तक इन्हीं कबूतरों को लेकर बाप-बेटे का समय कटता है. सुबह उन्हें दाना खिलाना, पानी पिलाना, उसके बाद ताली बजाकर आसमान में उड़ाना. आसमान का रुख समझकर कबूतरों को उड़ाना होता है. सुबह दस बजे ही समझ लेना होगा कि आज आसमान क्या कह रहा है. आँधी-पानी की सम्भावना है? कबूतरों को तो पता नहीं चलेगा. ताली बजाने से आकाश में उड़ना है, बस इतना जानते हैं वे. और जिस किस्म का कबूतर जितनी देर तक आकाश में उड़ सकता है, उतनी देर तक खुलकर आनंदपूर्वक उड़ता है. वह सिर्फ़ ताली समझता है, बजते ही उड़ पड़ता है. और कुछ नहीं जानता. किस आकाश में बादल आने वाले हैं, किसमें आँधी – यह सब उसे नहीं पता. यह सब जानना होता है निशिकांत और युगल को. आसमान का हाल देखकर ताली बजानी है, कबूतरों को उड़ाना है. मौसम-विज्ञान का जानकार होना होगा. आसमान का रंग ही बता देगा कि किस समय कहाँ क्या होगा. उसे समझकर ताली बजाओ, कबूतर उड़ाओ.
कबूतर तो कुछ समझते नहीं. ताली की आवाज मिलते ही उड़ जायेंगे. आकाश में खूब ऊँचाई पर जाकर उड़ेंगे. जिसकी जितनी देर उड़ने की सामर्थ्य होगी वह उतनी देर तक उड़ेगा ही. मर्जी मुताबिक उनको उतारा नहीं जा सकता. उनका आनंद उड़ने में ही है. जब दम खतम हो जाता है तभी उतरते हैं. नस्ल के हिसाब से कबूतरों की अलग-अलग उड़ने की मियाद होती है. जितनी अच्छी नस्ल होगी उतनी ही लंबी उड़ान की मियाद होगी. उसी अनुपात में उनका मूल्य होता है. किसी कबूतर का दाम हजार, किसी का पाँच हजार. कबूतर ज्यादा हो जायँ तो निशिकांत बेच भी लेता है. कबूतरों के नसेड़ी कबूतर की जाति पहचानते हैं. अच्छी नस्ल का कबूतर मिल जाय तो दाम देने से पीछे नहीं हटते.
फिर आती है कबूतरबाजी. कबूतरों के शौकीन अपने सर्वश्रेष्ठ कबूतरों को लेकर एक जगह इकट्ठा होते हैं. कबूतरों को उड़ाते हैं. एक रेफरी होता है. जिसका कबूतर सबसे अधिक देर तक उड़े उसे पुरस्कार मिलता है. ऐसे पाँच पुरस्कार पाने का अनुभव निशिकांत को है.
इन कबूतरों के साथ ही बाप-बेटे का सारा समय छत पर बीतता है. फिर रात को खा-पीकर वे दुतल्ले पर चढ़ जाते हैं और वहाँ बरामदे में लेटे-लेटे दोनों के बीच कबूतर-चर्चा होती है. निशिकांत बेटे को कबूतरों की तमाम कहानियाँ सुनाता है. किस गाँव में कौन कितना बड़ा कबूतरों का शौकीन था, उन सबके जीवन-वृत्त पर बात होती है. निशिकांत अपने अनेक अनुभव सुनाता है. फिर पास-पास पड़े-पड़े दोनों को नींद आ जाती है.
निशिकांत के पुरखे जमींदार थे. अब भी कोई तीस बीघे धनखड़ है. बटाईदार लोग खेती करते हैं. जितना धान उनसे मिलता है उससे ही तीन प्राणियों का काम आराम से चल जाता है. वह, युगल और वासंती यही तीन जनों का परिवार है. धान बेचकर किराने का सामान आता है; साड़ी, कुर्ता, गमछा आता है. निशिकांत इन चक्करों में ज्यादा नहीं पड़ता. काम चल जाय, बस.
लेकिन जिरिया मादा कहाँ गई ? युगल को पूछे क्या? युगल दाना छींट ही रहा है- चावल और मसूर की दाल. “जिरिया मादा नहीं है, तुझे पता नहीं चला ?”
युगल ने गर्दन मोड़ी. फिर दाने का बरतन लिये-लिये खड़ा हुआ. “पीछे छप्पर के नीचे कबूतरखाने में दुबकी रहती है.”‘ वह कबूतरखाने से बाहर खींच लाया कबूतरी को और झुंड में छोड़ दिया.
निशिकांत के चेहरे पर हँसी खिल गई. वह कबूतरों का खाना देखता रहा. सुरमा नर-मादा, कालदुमा नर-मादा, गलाधन्ना नर-मादा, खैरा नर-माता, पेशे, गुन्नर, जिरिया, दावाश नर और मादा – सभी दाना चुग रहे हैं. सबके जोड़े हैं. बच्चे भी हैं. जिरिया मादा निशिकांत की बड़ी प्रिय है. झुंड में पहले उसी को ढूँढ़ता है. उड़ान से जब तक वापस नहीं आती, निशिकांत को चैन नहीं मिलता. उसकी नींद कबूतरों की आवाज से खुलती है. इन पक्षियों की नींद थोड़ी है, खूब सवेरे उठकर आवाज करते हैं. इनकी बातें करते-करते बाप-बेटा सोते हैं और इन्हीं की आवाज से जगते हैं. फिर सारा दिन इन्हीं के पीछे पागल.
कबूतर जितनी देर आसमान में रहेंगे, उतनी देर तक वे उनका उड़ना देखेंगे. निशिकांत सिर उठाकर आकाश की और नहीं देखता. एक बरतन में पानी डालकर छत पर रख लेता है. उसमें आकाश का प्रतिबिम्ब बनता है और कबूतर उड़ते हुए साफ दिखते हैं. बाप-बेटा बर्तन के पानी में उड़ते कबूतरों को देखते रहते हैं. चार-पाँच घंटे किस तरह कट जाते हैं पता ही नहीं चलता. कैसा नशा-सा छाया रहता है. बारी-बारी वे नहा– धोकर, खा-पीकर वापस आते हैं. कोई कबूतर घंटे दो घंटे में आसमान से उतर आता है. कोई-कोई कबूतर पाँच-छ: घंटे तक उड़ते रहते हैं. दिन ढलकर जब धूसर हो चुका होता है, कुछ कबूतर तब लौटते हैं. उनको एक बार और दाना दिया जाता है, पानी पिलाया जाता है. फिर अँधेरा होने के पहले उन्हें कबूतरखाने में बंद करना होता है.
बहू, वासंती, की कबूतरों में दिलचस्पी नहीं है. कोई मतलब नहीं रखती. खाना पकाती है, खाती-खिलाती है और सोती है. शादी को तीन साल हो गये पर बेटा-बेटी कुछ पैदा नहीं कर पाई. बाप-बेटे से प्राय: निपूती, बाँझ जैसे अपशब्द सुनती है वासंती. निशिकांत सोचता है, सच तो, तीन साल में माँ नहीं बन सकी !
युगल बोला, “बापू, आज उड़ाओगे क्या? तुम्हारा आसमान क्या कहता है?”
निशिकांत ने आकाश की और मुँह उठाकर देखा, “देखें”. किंतु तत्काल मौसम का अनुमान नहीं कर पाया. तब उसने पानी के बरतन को उठाकर छत के बीच में रखा. पानी में आकाश को बेहतर समझ पाता है निशिकांत. कबूतरों की जिन्दगी का सवाल है. आँधी-पानी की संभावना हो तो कबूतरों को उड़ाना ठीक नहीं होगा. आँधी-पानी आ गया तो एक नहीं बचेगा. पंद्रह साल पहले निशिकांत अपने कबूतर इसी तरह खो बैठा था. उसके बाद एक-एक करके बढ़ाने पड़े. नर, मादा, बच्चे सब मिलाकर इस समय सैंतीस कबूतर हैं. हर साल दो-चार बिक जाते हैं.
निशिकांत पानी में आसमान को देख रहा है. समझने की कोशिश कर रहा है. हवा-पानी की जानकारी कर रहा है. जेठ का सत्रहवाँ दिन है लेकिन पानी नहीं बरसा. सूखे में गाँव तप रहा है. तालाब-पोखर सूख गये हैं. किसान धान का बेहन नहीं डाल पाये. लोग बारिश के लिए तड़प रहे हैं. हालाँकि निशिकांत बारिश नहीं चाहता क्योंकि कबूतर उड़ाना बंद करना पड़ेगा. कबूतर न उड़ा पाया तो अच्छा नहीं लगता उसे. वह आकाश का रुख समझने की कोशिश जारी रखता है. जरा भी भूल की गुंजाइश नहीं है.
युगल ने पूछा, “क्या समझ में आया, बापू?”
“देख रहा हूँ”.
बाप मौसम का जानकार है. उसकी बात अच्छर-अच्छर सच होती है. युगल बाप पर भरोसा करता है. बावन साल की उम्र, इतने सालों से कबूतर उड़ाता आ रहा है, आकाश देखने का कितना अनुभव है, उससे गलती हो सकती है भला? युगल भी आकाश देखना सीख रहा है.
निशिकांत ने मुँह उठाया.
युगल ने पूछा, “आँधी-पानी आ सकता है?”
“ना, कोई लच्छन नहीं”.
“तो उड़ाया जाय”.
“उड़ा”.
दाना-पानी के बाद सभी कबूतर छत की कोर्निस, जिसके नीचे कबूतरखाना था, पर बैठे थे. युगल ने ताली बजा दी, निशिकांत ने भी बजाई. सारे कबूतर आसमान की और उड़ चले. सिर्फ बच्चे, जिनके डैने अभी तैयार नहीं हुए, नीचे रह गये. अच्छी नस्ल वाले कबूतर कुछ ही क्षणों में आसमान में पहुँच गये. बहुत ऊँचाई पर. बहुत दूर. डैनों पर धूप गिन्नी-सी चमकती है.
निशिकांत बरतन के पानी में कबूतरों का उड़ना देख रहा है. युगल भी आकर पास बैठ गया है, बरतन के पानी में कबूतरों का उड़ना देख रहा है. दोनों मगन हैं, पानी से आँख नहीं हटती. कबूतर जिस घर के होते हैं उसकी छत की सीध में उड़ते हैं. इससे उतरने में सुविधा होती है.
बाप-बेटा पसीने से तर-बतर हैं. बाप की उम्र हुई, लगातार देर तक धूप में नहीं बैठ पाता. बीच-बीच में छप्पर की छाँव में चला जाता है. थोड़ी देर आराम करके फिर पानी के बरतन के पास आ बैठता है. युगल भी दो- चार बार आराम करेगा. फिर पानी में देखते हुए समय बीतेगा.
निशिकांत नीचे उतरा. तमाखू की लत है. गुड़ाखू का मंजन करता है. बाप, बेटा, बहू सभी तमाखू वाला यह मंजन करते हैं. एक डिब्बा खरीदो तो पाँच-सात दिन चलता है बस. नीचे उतरकर निशिकांत को रसोई के आले पर गुड़ाखू का डिब्बा नहीं मिला. कहाँ रखा है यह बताने को युगल की बहू भी आसपास नहीं है. कोई सुनगुन भी नहीं मिल रहा है. ऐसे समय निशिकांत को बड़ा डर लगता है. कहीं वासंती अपने कमरे के भीतर गले में रस्सी लगाकर झूल तो नहीं गई ! निशिकांत की कल्पना में यह डरावना ख्याल कभी-कभी आता है. भय होता है. घबराहट होती है. क्यों गले में फाँसी लगायेगी, इसका कार्य-कारण संबंध निशिकांत नहीं बिठा पाता. लोग तो यूँ ही, बिला वजह भी फाँसी लगा लेते हैं. कोई कारण पता नहीं चलता. इसके अलावा वासंती को रात-दिन निपूती और बाँझ जैसी गालियाँ पड़ती हैं. इसी तरह एक दिन निशिकांत ने अपनी औरत को कमरे की धरन से झूलते देखा था. निशिकांत को उसके फाँसी लगाने का कारण भी समझ में नहीं आया. ऐसे ही एक दिन स्नान करके, खाना पकाने का काम बाकी रखकर फाँसी लगा ली. कोई पाँच साल पहले की बात है. किस कारण? निशिकांत को अब तक इस सवाल का जवाब नहीं मिला.
इसलिए इस वक्त चुपचाप चारों और कहीं वासंती नहीं दिखी तो निशिकांत के मन में उसके फाँसी लगा लेने का ख्याल आया. ऊँची आवाज में बुलाने में डर लगता है. युगल को भी नहीं बुला सकता, वह उड़ते कबूतरों की निगरानी पर है. वासंती की ओर से कोई आवाज नहीं. रसोई में खाना बनाने की तैयारी करके रख गई है. थोड़ी दैर में खाना बनाने बैठेगी. पुकारने में डर लगता है, कहीं उत्तर न मिला तो? फाँसी लगाया आदमी उत्तर कैस देगा?
अतएव निशिकांत थोड़ी देर तक रसोई के दालान मं चुपचाप बैठा रहा. सुनगुन पाने की उम्मीद में इंतजार करता रहा. उसके बाद दबे पाँव दालान से उतरकर वासंती के कमरे की और बढ़ा. दरवाजा अधखुला था. निशिकांत आहिस्ता से कमरे में दाखिल होने लगा. साथ-साथ उसने अपनी जीभ काटी, क्योंकि उस वक्त वासंती नहाकर कपड़े बदल रही थी. नग्न अवस्था में साया पहन रही थी. तभी निशिकांत ने अंदर झाँका था.
युगल
बाप से मौसम जानने की विद्या कैसे सीखे युगल यही सोचता रहता है. आकाश के रंग मैं आते बदलाव पकड़ने लायक तो बनना पड़ेगा. कई घंटे पहले ही आँधी-पानी का अनुमान कर लिया करेगा.
गाँव के लोग बार-बार बापू के पास आ रहे हैं. सबकी यही जिज्ञासा है कि बरसात कब शुरू होगी. बापू सबको निराश करता रहा है. और सचमुच अभी तक पानी नहीं आया. आकाश मैं पानी नहीं होगा तो बापू कहाँ से ला देगा? लेकिन गाँव के लोगों को विश्वास दिलाना कठिन है. बापू झूठ तो नहीं बोल सकता, गो कि झूठ बोले देने से गाँव वालों को आश्वस्ति अनुभव होती. हृदय में आशा बनी रहती. लेकिन बापू को झूठ बोलना अच्छा नहीं लगता. आकाश कह रहा है इस समय बरसात नहीं होगी तो गाँववालों को यही बताना पड़ेगा. गाँव के लोग सूखे में भुन रहे हैं, खेती नहीं कर पा रहे. आकाश की और हाथ उठाकर वर्षा की भिक्षा माँगते हैं, पूजा करते हैं, मेढकों का ब्याह रचाते हैं.
कबूतरों का ज्ञान युगल को पिता से मिला है. और सीखना बाकी है. डरता है बाप कहीं अचानक मर न जाय. फिर तो पूरा ज्ञान नहीं मिल सकेगा. मौसम जाने की विद्या भी न सीखी जा सकेगी. कहते हैं आकाश का रंग आँधी-पानी की खबर देता है. और हवा की दिशा बताता है.
पिछले साल की बात है. कबूतर उड़ा दिये थे. बापू और वह खुद बरतन के पानी में कोई घंटै भर उनका उड़ना देखते रहे. पानी में कबूतरों का उड़ना और आसमान का हाल देखते देखते बापू को पता चल गया कि दो घंटे के अंदर ही आँधी-पानी आयेगा. तत्काल कबूतरों को उतारना पड़ेगा. लेकिन इतनी दूरी से उतारें कैसे? कबूतर पास हों तो दाना डालकर बुलाया जा सकता है. पर दूर के कबूतर तो दाना डालना देख नहीं पायेंगे. बापू कैसे उतारे इन कबूतरों को?
कबूतरखाने में कम दूर तक उड़ने वाले कबूतर थे. उनको निकालकर आसमान में उड़ा दिया. ये कबूतर दूर तक नहीं उड़ सकते, उड़कर आसपास चक्कर काटने लगे. अब उनको दिखाकर दाना डालना शुरू किया. दूर उड़ने वाले कबूतर पास उड़ने वालों को देख पा रहे थे. पास वाले कबूतर जब दाने के लोभ में उतरने लगेंगे तो दूर वाले भी चाहे कुछ भी समझकर उनके पीछे-पीछे उतर आये. इस तरह बापू ने समय रहते कबूतरों को उतार लिया. यह एक नई चीज युगल ने सीखी. परंतु मौसम की समझ न हो तो उतारने की विद्या किस काम की? कम से कम दो घंटे पहले हवा-पानी का अंदाजा हो जाना चाहिए. कभी-कभी तो पाँच मिनट पहले तक पता नहीं चलता, हवा-पानी पाँच मिनट बाद ही आ धमकते हैं. वृष्टि का अंदाजा बहुत पहले लगा पाने के लिए मौसम विशारद होना होगा. युगल बाप से यह विद्या सीखना चाहता है. कहीं अचानक मर न जाय. वैसे ही सींकिया और बीमार- सा है. ज्यादा खा-पी नहीं पाता. साँस का रोग है, आँव पड़ा रहता है. हड़ियल शरीर. डर लगता है, कब टें बोल जाय !
वासंती उसकी बहू होने के हक से इस घर में है. रहे, रहेगी ही. लेकिन दिल में इस बात का बड़ा मलाल है कि एक बच्चा नहीं जन पाई. एक बेटे की हसरत है. उसकी मृयु के बाद उसका बेटा कबूतरों के झुंड को पालेगा. कबूतर-नसेड़ी बनेगा. मौसम की विद्या सीखेगा. कबूतरों की देखभाल कर पायेगा. अंडों से बच्चे निकाल पायेगा. युगल के यही सब सपने हैं. उसके पिता के भी. तभी बाप-बेटा वासन्ती को निपूती, बाँझ आदि का ताना देते रहते हैं. वासंती मुँह बंद रखकर सुन लेती है, कुछ बोलती नहीं. बड़ी शात स्वभाव की स्त्री है. हजार बात सुनके भी चूँ नहीं करती. तरुणी है, सुंदर है. लेकिन कबूतरों के नशे से उसे लेना-देना नहीं है. पकाती है और खिलाती-खाती है. और सोती है, जबर्दस्त सोनेवाली है. काफी समय से युगल की बीवी के साथ कोई बात नहीं हुई. वासंती कबूतरों के बारे में कोई बात कर नहीं पाती, इसलिए युगल से उसकी कोई बात नहीं होती. कितने दिनों से युगल ने उसकी तरफ मुँह उठाकर देखा भी नहीं! देखने का समय नहीं युगल के पास, न इच्छा है. गमछा चाहिये तो खुद उठा लाता है, बीवी से नहीं माँगता. दाँत माजने के लिए गुड़ाखू का डब्बा आले से खुद उठा लाता. वैसे ही सिर में और बदन में खुद उठाकर तेल की मालिश करता.
वासंती को भी उससे कोई माँग या चाहना नहीं है. वह चुपचाप देखती रहती है बस. कबूतर के नशे में विघ्न न पड़े इसलिए युगल भी उसकी ओर खास ध्यान नहीं देता. वासंती जो चाहे करे.
युगल ने देखा कि पिता दाँतों में गुड़ाखू घिसने और मुँह धोने के बाद छत पर लौट आये हैं.
निशिकांत बोला, “जा, तंबाकू से दाँत माँज आ.“
पानी के बरतन के पास से हट आया युगल. फिर नीचे उतरने लगा. तब तक वासंती पाकघर के दालान में खाना बनाना शुरू कर चुकी है. नहा आई है, पीठ पर खुले, बिखरे बाल. पास में मुहल्ले का सुंदर बैठा है. वासंती ने उसे बैठने के लिए पीढ़ा दे दिया है. सुंदर वासंती के साथ बातें कर रहा है. प्राय: ऐसे ही गप करने आता है. मुहल्ले का रहनेवाला और युगल का हमउम्र है. बड़ा मिलनसार लड़का है. बीच-बीच में आता है. वासंती के साथ गप मार जाता है. सुंदर बहुरूपिया है. रोज अलग-अलग रूप बनाकर बाजार-बाजार घूमता है. भिक्षा माँगता है.
युगल ने सुंदर की बगल से निकलकर आले से गुड़ाखू का डब्बा उठाया. उसके बाद दुआरे की ओर उतरकर कोठार की छाँव में जा बैठा. गुड़ाखू निकालकर मंजन करने लगा.
सुंदर ने आवाज दी, “क्यों युगल, पानी बरसेगा ?”
युगल ने जवाब नहीं दिया.
सुंदर ही फिर बोला, “तो बारिश की उम्मीद नहीं है.“
युगल कुछ नहीं बोला.
वासंती और सुंदर अपने वार्तालाप की और लौटे. एक-दूसरों की बातों पर बीच-बीच में हँस रहे थे.
युगल बीच-बीच में आसमान की और सिर उठाकर कबूतरों का उड़ना देख रहा है.
दाँतों में गड़ाखू मलने से माथे में एक अजीब झिमझिम होती है. बड़ी अच्छी लगती है. नशे में डूबकर चुपचाप बैठे रहना और भी अच्छा लगता है. वासंती और सुंदर बातें कर रहे हैं पर उनके पास जाने का मन नहीं होता. सुंदर की बात का जवाब नहीं दिया, इसलिए सुंदर उससे और बात नहीं करना चाहेगा. जिन्हें बात करनी हैं करें. सुंदर और वासंती आपस में बातें कर रहे हैं, करें. बस उसे नहीं बात करनी. पानी नहीं बरसा, खेती नहीं हो पा रही है इससे उसे मतलब नहीं है. नइहाटी बाजार में किस चीज़ के भाव कम हो गये हैं इससे भी उसे कोई मतलब नहीं है.
बात करते-करते सुंदर और वासंती हँसते हैं. हँसें.
वासंती
दूसरे दिन सुबह वासंती को ख्याल आया कि बहुत दिनों से बारिश नहीं हुई. आज होगी क्या? वासंती को कैसे पता होगा? वह क्या मौसम-विशारद है? वह तो उसका ससुर है. लेकिन उसका बदन जल रहा है. देह में अशान्ति है, आराम नहीं मालूम होता. हवा तप रही है. पेड़-पौधे झुलस रहे हैं. बारिश की बड़ी जरूरत है. वासंती मन ही मन वर्षा के लिए प्रार्थना करती है.
सुबह उसने बाप-बेटे के लिए चाय-रोटी तैयार कर दी थी. खाकर दोनों छत पर चले गये. वासंती स्नान करने के लिए आकुल है, बदन ठंडा होगा. सारी रात पसीने से तरबतर शरीर को पानी की ठंडक की हसरत है. देह का हाल देह ही जानती है. बाप-बेटा सारा वक्त एक साथ काटते हैं. रात दुतल्ले के बरामदे में एक साथ रहते हैं. वासंती अकेली नीचे वाले कमरे में रहती है. उसे निपूती, बाँझ क्यों कहते हैं? उसका मर्द कभी साथ सोता है? बीवी के साथ सोना तो भूल ही चुका है. कबूतरबाजी के नशे में रहता है. इसी नशे में बहुत कुछ भूला रह सकता है. पर वासंती? उसका तो नहीं चलता! उसके अंदर का लय-ताल तो बिगड़ता जा रहा है! दिन, रात, महीने, साल बीत रहे हैं. जीवन की लय नहीं मिलती.
पुखरी में पानी कम हो गया है. वासंती उसमें उतरती है. पानी कम है, पूरा बदन भीग जाय इसके लिए सिकुड़कर बैठना होता है. इस समय शरीर पानी की ढंडक से जुड़ा रहा है. हाट-बाजार जाना नहीं, मेला घूमना होता नहीं. उसका काम है दो कबूतर-नसेड़ियों को राँधकर खिलाना. दिन-महीने बीतते हैं, वासंती निपूती वगैरह की गालियाँ सुनती रहती है. उसका क्या दोष है? कोई भी दोष नहीं! मर्द गबरू जवान है, फिर भी सब कुछ भूला रहता है.
वासंती की एक सलेही तक नहीं है जिसके साथ बातें करके समय काटे. उनके घर से लगी कई पोखरियाँ, बगीचे, पेड़-पौधे हैं, पर कोई घर नहीं है. इसलिए लोगों का आना-जाना कम है. फेरीवाले ढूँढ़-ढाँढ़कर आते हैं कभी. दो महीने पहले ‘गाजन’ (शिव की चैत्र पूजा) के बाजों की आवाज सुनी थी, पर शिवभक्तों के जुलूस का रास्ता घर से काफी दूर था.
पर सुंदर आता है. आज भी जरूर आयेगा. आम तौर से तीसरे पहर बहुरूपिया सजकर भिक्षाटन के लिए निकलता था. सुबह के वक्त आता है, आयेगा आज भी. आयेगा? आ भी सकता है.
स्नान करके घर के सहन पर पहुँची तो सुंदर वहाँ नहीं दिखा. तो और थोड़ी देर बाद आयेगा. इस वक्त कोठार की छाँव में बैठे बाप-बेटा बातें कर रहे थे. कबूतरों की बातें. आज कबूतर नहीं उड़ाये इन लोगों ने? क्यों? वासंती नहीं जानती. वह कपड़े बदलने घर के अंदर चली गई.
वासंती रस्सी पर गीले कपड़े डालने बाहर आई तो उसने देखा कि एक झुंड कबूतर सहन में दाना चुग रहे हैं. ससुर और पति उन्हें दाना डाल रहे हैं. इसका मतलब आज कबूतर नहीं उड़ायेंगे. बल्कि कबूतरों को छत से उतार लाए हैं ताकि आदतन उड़ न जायँ. कबूतर क्यों नहीं उड़ाये? आसमान तो साफ है. तो क्या आज बारिश आने वाली है? ससुर को पूछे क्या? वे जानकार हैं, पहले पता चल गया होगा. किंतु ससुर को पूछ सके ऐसा व्यवहार दोनों के बीच कभी रहा नहीं. पूछने से ससुर ही पूछते हैं और वह जवाब देती है. कभी पति हुक्म करते हैं वह तामील करती है. ऐसे ही चले, ठीक है. अपने आप में मगन रहना. इसी मग्नता में वासंती ने कल्पना कर डाली कि युगल की पत्नी रहकर भी यदि वह सुंदर के पुत्र की माँ बने ? अत्यंत कल्पनिक एक गोपन भाव. बात सोचकर वासंती मन ही मन हँसती है. लेकिन अभी कोई आकर हँसने का कारण पूछे तो बता नहीं पायेगी. किसी हाल मैं नहीं. कोई काट डाले तब भी नहीं. यह तो बस कल्पना है, कल्पना ही रहेगी.
सुंदर आता है, बोलता-बतियाता है, बस इतना ही. उसे सुंदर का आना भला लगता है. सुंदर के आने-जाने और बोलने-बतियाने के दौरान यह ख्याल मन में आ गया. किंतु सुंदर को कभी नहीं बोल पायेगी. वह स्त्री है, उसके लिए मुँह खोलकर यह सब बोलना संभव है? कहते हैं औरतों की चाहे छाती फट जाय, पर बोल नहीं फूटते.
वासंती रसोई के लिए बैठी. बाप-बेटा कबूतरों को खिला रहे हैं, उनकी देखभाल कर रहे हैं. उन दोनों की आपसी बातचीत से वासंती को पता चला कि वृष्टि की संभावना है, इसलिए आज कबूतर नहीं उड़ा रहे हैं. सुनकर उमंग से भर उठी वासंती. कोई जेठानी-देवरानी है नहीं जिसे चिल्लाकर यह खुशखबरी दे. अड़ोस-पड़ोस भी नहीं. लेकिन उसका मन हुलास से भर गया. बारिश होगी, उसके ससुर का अंदाजा कभी गलत नहीं होता. आहा! जान में जान आयेगी. धरती शीतल होगी. यह बात वह पहले जान चुकी है तो दूसरों को बता पाने से जी ठंडा होता. ससुर आसमान तकते रहते हैं, उनका बारिश का अंदाजा पक्का होता है. उस दिन गाँववाले पूछने आये थे तो ससुर नहीं कहा था बारिश नहीं होगी. आज आते तो खुशखबरी मिलती.
सुंदर को तो बहुत पहले आना था, अभी तक आया क्यों नहीं? या आज आयेगा ही नहीं? भेस बनाकर कहीं दूर तो नहीं जा रहा है आज? हो सकता है. तब तो वासंती से मिले बिना ही चला जाय शायद. यह सोचकर वासंती को कष्ट हुआ, मन खराब हो गया. लगता है आज नहीं आयेगा. नहीं आयेगा माने आज न उसके साथ मुलाकात होगी न बातचीत. कभी-कभी सुबह नहीं आ पाता तो सजकर निकलते समय मिलकर जाता है. तब उसके बदन पर बहुरुपिये की सज्जा होती है. सजकर अलग ही दिखता है. किन्तु पोशाक के नीचे वही सुंदर होता है, बात करता है, हँसी-मजाक करता है. वासंती भी हँसते हुए उसे विदा करती है. कभी आँचल की खूँट खोलकर एक अठन्नी उसके भिक्षापात्र में डाल देती है. कभी देवी-देवता का भेस बनाकर आता है तो पाँव छूकर प्रणाम करती है.
आज सुंदर कहीं जाने वाला है ? जाने के पहले उससे मिलकर जायेगा? आज क्या भेस बनाया है वह भी देखती. सुंदर कुँवारा है. बहुरूपिया है, इसलिए कोई अपनी बेटी उसे देना नहीं चाहता. सुंदर को शादी की चाहना है परंतु वह कलाकार है, भाँति-भाँति के भेस बनाना भी छोड़ नहीं सकता.
सहन में कबूतर चर रहे हैं. बाप-बेटा कोठार की छाँव में खुसुर-पुसुर कर रहे हैं. बीच में दाँतों में गुड़ाखू लगाते हैं. सूरज तप रहा है. धूप मानो आग की लपटें फेंक रही है. कोई सोच भी सकता है कि आज बारिश होगी? लेकिन ससुर ने कहा है बारिश होगी तो जरूर होगी.
दोनों को देखकर वासंती को हँसी आती है. मानो मुर्दा आदमी हों. संसार से कोई संबंध नहीं. गाँव से, मुहल्ले से, किसी से मतलब नहीं, मेलजोल नहीं. हाट-बाजार या कहीं और जाना नहीं. जबकि वासंती को हाट-बाजार घूमने का खूब मन होता है. पर जा नहीं सकती है, घर के भीतर रहने वाली बहू है. गरीब घर की बहू होती तो आम तोड़कर बाजार में बेचने जाती, दस-पाँच रुपये आते, बाजार घूमने का मौका अलग. जामुन तोड़कर बाजार में बिक्री करने जाती, घूमना-फिरना होता. या चावल उधार माँगने किसी पड़ोसन के यहाँ जाती तो कहीं किसी घर में उसकी एक सखी होती. वह सखी कभी-कभी उसको मिलने आती, अच्छा समय कट जाता.
उसकी शादी के दो साल पहले उसकी सास गले में फंदा लगाकर मरी थी. उसे भी तकलीफें हैं, दु:ख हैं, अकेलापन है, लेकिन वह मरना नहीं चाहती. जीने की बड़ी इच्छा है.
उपसंहार
आज सुंदर को रूप साजकर शहर की तरफ जाना है, इसलिए सुबह वासंती भाभी के साथ गपशप करना नहीं हो पाया. आज उसने हनुमान का रूप धरा है. भेस बनाने में समय लगा. सजने में समय लगेगा इसलिए समय से पहले सजना शुरू कर दिया था. हनुमान का भेस उसने वासंती भाभी को अभी तक नहीं दिखाया है. उसे लालसा हुई निकलते वक्त एक बार वासंती को यह रूप दिखाता जाय. कूद-फाँदकर, तमाशा करके दिखाये. उससे वासंती जरूर खुश होगी. और फिर भाभी की वह हँसी ! खिलखिलाकर, लोट-लोटकर हँसती है. उस हँसी के लालच में ही जाने का मन होता है. वासंती भाभी के सामने तमाशा करना उसे भाता है, उसे हँसाना अच्छा लगता है. वासंती को भी अच्छा लगता होगा. हँसते हुए वासंती बड़ी अच्छी लगती है, उसका सौंदर्य मानो खुल जाता है. और भी सुंदर लगने लगती है.
शहर पहुँचने में देर हो जायेगी, फिर भी सुंदर वासंती को तमाशा दिखाने का लोभ संवरण नहीं कर पाया. हनुमान का भेस बनाने में कपड़े कम लगते हैं पर कालिख-वालिख बहुत लगानी पड़ती है. इसके अलावा पूँछ को लेकर हमेशा मुश्किल होती है. पूँछ को कमर से कसकर बाँधना होता है और याद रखना होता है कि वह भी शरीर का अंग है. इस सज्जा के ऊपर कंधे पर झोला लेकर चलना है, हाथ में भिक्षापात्र. जो कुछ मिल जाता है उससे माँ-बटे का परिवार चल जाता है. बहू लाने से उसका भी खर्चा चल जायेगा.
चुपके-चुपके सुंदर वासंती भाभी के बगीचे में घुसा. पिछवाड़े से दाखिल होगा, क्योंकि भाभी को चौंकाना है. हू हू की आवाज के साथ उछल-कूद करेगा, वासंती भाभी हँस-हँसकर दुहरी हो जायेगा. सुंदर के लिए यह दृश्य बड़ा आनंददायक होगा.
अभी जरूर खाना पका ही रहा होगी. वह पहले शायद रसोई की छत पर कूद-फाँद, तमाशा करेगा. वासंती भाभी दुआरे निकल आयेगी. फिर क्या होगा?
रसोई की दीवार से लगा एक नारियल का पेड़ था. हनुमान बना सुंदर उस पर चढ़ गया. वहाँ से टिन की छत पर कूद गया. जोर की आवाज हुई. फिर टिन की छत पर कूदने लगा. साथ-साथ मुँह से हू-हू की आवाज निकालने लगा. वहाँ से सहन में कूद आया जहाँ कबूतरों का झुंड था.
डरकर कबूतर उड़ गये और देखते-देखते आकाश में बहुत ऊँचाई तक पहुँच गये.
रसोई छोड़कर वासंती बाहर आ गई. और ही ही हँसती दुहरी हो गई. साड़ी का आँचल धूल में लोटने लगा.
उधर बाप-बेटा छाती पीट रहे थे. उनके सारे कबूतर उड़ गये, अभी पानी आयेगा, तेज हवा चलेगी. उनका छाती पीटना और रोना-धोना सुंदर और वासंती के कानों में नहीं गया. वासंती ने न कुछ देखा न सुना. रंग जम रहा है तो सच्चे कलाकार की तरह सुंदर अपने तमाशे में लीन हो रहा, कहीं और उसका ध्यान ही नहीं गया. गुणग्राही दर्शक की तरह वासंती आनंद-विभोर है. कबूतर उड़ गये, अभी आँधीपानी आयेगा और वे नष्ट हो जायेंगे, इस यथार्थ की चेतना से वे दूर थे. सुंदर हँस रहा है, वासंती हँसकर लोट-पोट हो रही है.
सुंदर हनुमान की तरह कूद रहा है, वासंती हँसते-हँसते लोट रही है, यह दृश्य देर तक चला. देर तक माने जब तक बादल नहीं आ गये और बारिश के पूरे आसार नहीं हुए. हवा रुक-सी गई. निशिकांत और युगल छत की और भागे. वहाँ कबूतरों को उतारने की नाकाम कोशिश करने लगे.
दोनों रो रहे हैं, छाती पीट रहे हैं.
जैसे ही वासंती को समझ में आया कि कबूतर उड़ गये, बाप-बेटा छत पर छाती कूट रहे हैं, कबूतरों को उतारने के असफल प्रयास कर रहे हैं और आसमान में बादल छा रहे हैं, वैसे ही उसकी हँसी बंद हो गई. उसकी हँसी क्यों थम गई यह समझने के क्रम में सुंदर को समझ में आया कि उसने तमाशा करके कबूतरों को उड़ा दिया है. कबूतर नीचे थे इसका मतलब आज उड़ाने की बात नहीं थी, निशिकांत को आँधी-पानी के आने का अनुमान रहा होगा. उसकी वजह से यह घटना घटी है. सुंदर को जैसे ही यह सब समझ में आया, वह तेजी से कूँदते-फाँदते सहन से छूटा.
वासंती हनुमान को रोककर प्रणाम करना चाहती थी, पर इसका मौका नहीं मिला.
तभी आँधी-पानी आ गया और वासंती मगन होकर बारिश में भीगने लगी.
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शिव किशोर तिवारी
२००७ में भारतीय प्रशासनिक सेवा से निवृत्त.
हिंदी, असमिया, बांग्ला, संस्कृत, अंग्रेजी, सिलहटी और भोजपुरी आदि भाषाओँ से अनुवाद और लेखन.
tewarisk@yahoocom