संतोष अर्श
हमारे समय के प्रमुख कवियों में से एक रहे केदारनाथ सिंह की एक मीठे गद्य की पुस्तक है ‘क़ब्रिस्तान में पंचायत’. लेकिन यह कोई हॉरर कथानक वाली कहानी या उपन्यास न होकर कुछ छोटे-छोटे लेखों और आत्मपरक व साहित्यिक निबंधों का एक संग्रह है. इस क़िताब के परिचय में यह उल्लिखित है कि ये लेख क्रमिक रूप से दैनिक ‘हिंदुस्तान’ में प्रकाशित हुए थे. इस तरह से ये अख़बारी लेख हुए. लेकिन क्या सचमुच ये अख़बारी लेख हैं ?
केदारनाथ सिंह के कवि से गुज़र कर कोई यह मान ही नहीं सकता कि वे किसी तरह का हॉरर रच सकते हैं. यदि यह शीर्षक ‘क़ब्रिस्तान में पंचायत’ न होकर ‘क़ब्रिस्तान पर’ या ‘क़ब्रिस्तान की’ पंचायत होता तो संभव था कि इसे सुनकर सामान्य पाठक के मन की सुई हॉरर की ओर न जाती. सुनने में यह शीर्षक किसी मनोरंजक कहानी अथवा गोपालराम गहमरी और आर्थर कानन डायल के दौर के उपन्यास जैसा लगता है. इसकी ज़रूरत पर वे लिखते हैं:
यह शीर्षक कुछ चौंकाने वाला लग सकता है. पर मेरी मजबूरी है कि जिस घटना का बयान करने जा रहा हूँ, उसके लिए इसके सिवा कोई शीर्षक हो ही नहीं सकता. क़ब्रिस्तान वह जगह है जहाँ सारी पंचायतें ख़त्म हो जाती हैं.
क़ब्रिस्तान की इस पंचायत पर वे रूसी कवयित्री अन्ना अख्मातोवा की एक पंक्ति उद्धृत करते हैं, जो कवयित्री ने बमबारी से ध्वस्त लेनिनग्राद शहर के विषय में लिखी थी- ‘इस शहर में अगर कहीं कोई ताजगी है तो सिर्फ क़ब्रिस्तान की उस मिट्टी में, जो अभी-अभी खोदी गई है.’ ख़ैर क़ब्रिस्तान में पंचायत शीर्षक लेख और किताब का नाम एक ही है. यह लेख कवि के जीवन की एक घटना पर आधारित है जिसमें क़ब्रिस्तान की ज़मीन पर कब्ज़े को लेकर दो संप्रदायों के लोगों के मध्य हुए विवाद में उसे समझौता कराने के लिए चुना गया था. समझौता कराने के इस घटनाक्रम में जो ख़ास बात है वह यह कि हिंदू-मुस्लिम दोनों ही पक्षों ने प्रशासनिक हस्तक्षेप के पश्चात जिस व्यक्ति पर विश्वास जताया था वे केदारनाथ सिंह थे. जो उन दिनों उस क्षेत्र के एक अध्यापक और हिंदी के कवि थे. यह कवि के लिए हैरानी की बात थी कि समझौते के लिए बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक दोनों ही पक्षों ने जो एक-एक पंच चुना, वे दो व्यक्ति और मस्तिष्क नहीं थे बल्कि एक अदद था. इस तरह केदारनाथ सिंह इस पूरे प्रकरण में सरपंच बन गए. यह घटना कवि को अभिभूत करने वाली थी. वास्तव में है भी. वे लिखते हैं:
मुझे जीवन में छोटे-बड़े कई सम्मान मिले हैं- हालाँकि मैं दावे के साथ नहीं कह सकता कि पुरस्कार को ठीक-ठीक ‘सम्मान’ कहा जा सकता है या नहीं. पर कैसी विडम्बना है कि मुझे जीवन का सबसे बड़ा ‘पुरस्कार’ एक क़ब्रिस्तान में मिला था, जिसके बारे में सोच कर मेरा माथा कृतज्ञता से झुक जाता है.
कवि का माथा कृतज्ञता से झुकता है तो किसके लिए ? उन अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक पक्षों के लिए जिन्होंने समझौता कराने के लिए कवि को चुना ? क़तई नहीं. कवि अपने लोकजीवन के गैर-सांप्रदायिक या राजनीतिक भाषा में सेकुलर सामाजिक विश्वास से अभिभूत है. वह विश्वास जो कभी था. जो अब शायद न रहा हो.
इस क़िताब के सभी लेखों में उसी लोक-संवेदना का सृजन है जिसके केदारनाथ सिंह कवि हैं. उस ज़मीन का घनत्व और गुरुत्व है जिस पर केदारनाथ सिंह का पूरा रचना-कर्म धरा हुआ है. उस जगह की उर्वरता है, जहाँ से वह उगा है और उसे काट-माँड़, चाल-ओसा कर उपज के रूप में जहाँ तरतीब से रखा हुआ देखा जाता है. ये लेख केदारनाथ सिंह के कवि से मुक्त नहीं है. एकाध को छोड़ दिया जाय तो राग सारा कविता का ही है. संवेदना सारी लोक ही की है. केदारनाथ सिंह का सारा काव्य अपनी देशजता और ओरिज़न के प्रति बेहद गंभीर है. यह देशजता एक सांस्कृतिक परिधि के भीतर न होकर वैश्विक विस्तार वाली है. इन लेखों में भी पाठक देखेंगे कि वे अपनी इंडिजेनिटी और आइडेंटिटी से विलग नहीं हो सकते. बल्कि वे उसे आजीवन सिरजना और बचाना चाहते हैं. एक प्रकार का नॉस्टेल्जिया (अतीतमोह) भी इनमें दिखता है किन्तु यह उस सांस्कृतिक अतीतजीविता का आग्रह नहीं है जो एक लिजलिजे क़िस्म के भूतजीवी सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का उत्पादन कर फ़ासीवाद की पालकी में कांधा लगाता है. यह साहित्य और लोकजीवन के प्रति एक राग पैदा करता है. अत्यंत डांवाडोल करने वाले समय में बड़े धैर्य और संयम के साथ अपनी देशी ज़मीन पर स्थिर खड़े होने का सामर्थ्य देता है.
इन लेखों में निबन्धों का सा लालित्य है. ये कहीं आत्मपरक हैं तो कहीं वस्तुनिष्ठ. इनमें कहीं स्मृति है तो कहीं सामयिकता. इनमें आपको बौद्ध संस्कृति मिलेगी, पर्यावरण की चिंता मिलेगी. साहित्य के वैश्विक संदर्भ मिलेंगे. नदियाँ, नाव, पुल, हल और खेत मिलेंगे. कुशीनगर मिलेगा और मिलेगी कुशीनारा नदी जिसके किनारे बुद्ध ने निर्वाण प्राप्त किया था और जिसे नदी के रूप में अब लोग भूल रहे हैं. जिसके लिए कवि लिखता है ‘बुद्ध की नदी मर रही है’. मिलेगा बलिया जनपद और पूर्वी उत्तर प्रदेश का लोकसौंदर्य. भिखारी ठाकुर और भारतेन्दु भी मिलेंगे. लोकसंगीत, यात्रा वृत्तांत और संस्मरण मिलेंगे और इन सब के साथ मिलेगी साहित्य की फ़िक्रमंदी और कविता का नैरंतर्य. साहित्यिक दृष्टि से दक्षिण भारतीय भाषाओं के मध्यकालीन और आधुनिक कवियों पर लिखे गए उनके लेख अत्यंत महत्वपूर्ण हैं. ये ‘क़ब्रिस्तान में पंचायत’ पुस्तक की पठनीयता को समूचे भारत की साहित्यिक आभा से दीप्त करते हैं. इनमें कन्नड़ कवयित्री अक्का महादेवी, कन्नड़ के ही भक्त कवि अल्लामा प्रभु और विद्रोही संत कवि वसवन्ना, मलयालम के कवि कुमारन आशान, तेलुगू की दलित कविता और भाषा के दलित कवि गुर्रम जाशुआ व कवि अजन्ता पर लिखी गईं समीक्षात्मक टिप्पणियाँ बेहद प्रभावी हैं, जो भारतीय साहित्य की पूर्णता से तुष्ट करने वाली हैं.
दक्षिण भारत की दलित कविता पर लिखते हुए केदारनाथ सिंह से ने जो टिप्पणियाँ की हैं वे इस बात से अवगत कराती हैं कि अपनी कविताओं में लोक-संवेदना को रचते हुए जो कवि दलित समस्याओं से विमुख होता या एस्केप करता हुआ नज़र आता है, वह इस समस्या पर बहुत गंभीर है. इस अंदेशे के साथ कि इन मसलों पर मुखर न होने की उसकी अपनी सामयिक, जाति-वर्णगत या अन्य प्रकार की विवशताएँ हो सकती हैं. कवि केदारनाथ सिंह का यह ‘थोड़ा सा दलित विमर्श’ उनके अपने गाँव के बचपन के मित्र जगन्नाथ की मृत्यु पर लिखे गए संस्मरणात्मक आलेख में भी मिलता है, किन्तु आधुनिक भावबोध की सहानुभूति के साथ. उसमें उत्तर-आधुनिक मुखरता नहीं है, वह भी तब जब विपन्न मृतक दलित उनके बचपन का मित्र है. वे उसे अंत्यज और भारत की भीड़ का अंतिम नागरिक कहते हैं. अपने बचपन के दलित मित्र की मृत्यु पर वे लिखते हैं:
पर यहाँ मैं छोटी सी भूल-सुधार कर लूँ. मैं जिसे जगन्नाथ कह रहा हूँ, वह गाँव के लोगों की ज़बान पर असल में ‘जगरनाथ’ था- यानी तत्सम से गिरा हुआ एक धूल सना तद्भव. आगे मैं उसे इसी नाम से पुकारूँगा. हमारी भाषा में वर्ण-व्यवस्था की जड़ें किस तरह घुसी हुई हैं, इस पर प्रायः विचार नहीं किया गया है. कभी किया जाएगा तो ‘जगरनाथ’ जैसे असंख्य मामूली जनों के नामों के भीतर से एक ऐसी दुनिया दिखाई पड़ेगी, जिसका सामना करने के लिए अतिरिक्त साहस की ज़रूरत होगी.
उनकी यह सहानुभूति उनके अपने कवि मित्र देवेन्द्र कुमार उर्फ बंगाली जी पर लिखे गए लेख में भी मिलती है. यह ‘सहानुभूति’ उत्तर-आधुनिक दलित विमर्शकारों के द्वारा किस दृष्टि से देखी जाती है, इसे अपने दलित कवि मित्र के बारे में लिखते हुए वे स्वयं बता जाते हैं, किंतु इस विकराल और जटिल सामाजिक समस्या पर वे कोई साहित्यिक चोट करने का ख़तरा जिसे अभिव्यक्ति का भी ख़तरा कहा जा सकता है, नहीं उठाते हैं. लेकिन इस मुद्दे पर उन्हें पढ़ते हुए ऐसा अनुभव होता है, कि जैसे वे कहना चाहते हैं कि दलित की समस्या दलित होना नहीं बल्कि समाज के एक हिस्से का सवर्ण होना है. वे अपने दलित कवि मित्र देवेंद्र कुमार बंगाली जी के विषय में लिखते हैं:
असल में, अपने शहर के जिस समाज में रह रहे थे, उसमें वर्ण-आधिपत्य का बोलबाला था. उनका प्रत्यक्ष टकराव किसी से नहीं था, उल्टे उन्हें सबसे गहरी सहानुभूति मिलती थी. पर मुझे लगता है कि यह संभ्रांत नेत्रों से टपकती हुई सहानुभूति ही थी, जो उन्हें सबसे अधिक बेचैन करती थी. एक अंत्यज कुल में पैदा होने वाले अति संवेदनशील कवि को यदि सड़क पर चलते हुए लगता हो कि कोई उसका पीछा कर रहा है, तो इसे उसकी विक्षिप्तता कह कर टाला नहीं जा सकता है. कई बार तथाकथित ‘बड़ों’ से मिलने वाली सहानुभूति भी एक स्वाभिमानी मन को इस तरह लगती है, जैसे कोई पीछा कर रहा हो.
अपने उस दलित कवि मित्र के विषय में लिखते हुए, जिसके बारे में उनका स्वयं मानना है कि अनेक कृतियों के बावजूद जिसकी बहुत कम चर्चा हुई, वे दलित (सह)-अनुभूतियों से राब्ता क़ायम करने की कोशिश करते हैं. उनकी यह कोशिश दक्षिण भारतीय दलित कविता की समीक्षा में और अपने दलित कवि मित्र देवेंद्र कुमार बंगाली जी को निराला के बाद हिंदी का सबसे संभावनाशील और मौलिक गीतकार बताने में भी दिखाई देती है. तेलुगू दलित कविता पर चर्चा करते हुए वे यह भी लिखते हैं कि, ‘दलित लेखन स्वाधीनता के बाद की शायद सबसे चर्चित सांस्कृतिक परिघटना है’. और सबसे अहम है दक्षिण के काव्य पर बात करते हुए काव्य-पंक्तियों का उनका चुनाव. जिन्हें वे उद्धृत करते हुए चलते हैं. निश्चय ही इसमें हिंदी के एक बड़े प्रौढ़ कवि की संवेदनात्मक रुचि है. तेलुगू दलित कविता पर बात करने के क्रम में उन्होंने जो पंक्तियाँ उद्धृत की, वे इस तरह की हैं-
इस देह के साथ
इस देश में जीना भयानक है
इन चांडाल देहों के लिए
एक चांडाल देश चाहिए
ताकि कम से कम सिर के बालों को तो
बचाया जा सके.
और इन पंक्तियों के ठीक नीचे वे लिखते हैं कि, ‘क्या इस पर टिप्पणी करना ज़रूरी है ? ये पूरे स्नायुतंत्र को झकझोर देने वाली पंक्तियाँ हैं जो अपनी कहानी आप कहती हैं.’ इस चुनाव में हम केदारनाथ सिंह के कवि का एक अकृत्रिम सिरा उस छोर पर जुड़ा देखते हैं, जहाँ भारतीय समाज और संस्कृति की जाति और वर्णगत असंगतियाँ हैं. इस तरह केदारनाथ सिंह एक बड़ी तोहमत से भी बच गए हैं कि लोकजीवन को देखने की सूक्ष्म दृष्टि रखने के बावजूद वे इन असंगतियों से अछूते कैसे रह गए ? लिहाज़ा उनकी दृष्टि उधर भी गई है, लेकिन अपनी सीमाओं के साथ. सीमाएँ ये हैं कि लोकजीवन में दलित भी है और उनकी कविताओं में वह कहीं नज़र नहीं आता. अपनी कविताओं में केदारनाथ सिंह जिस गाँव के राग और अतीत व्यामोह में छटपटाते हैं, उसी गाँव को अंबेडकर ने ‘जातीय भेदभाव का नर्क’ कहा था.
बुद्ध के प्रति उनका आकर्षण उनके कुशीनगर को लेकर लिखे गए संस्मरणों में बड़ी प्रगाढ़ता के साथ दिखाई देता है. वे कुशीनगर में बसना चाहते थे, क्योंकि उन्हें बुद्ध से प्रेम था. इसके लिए उन्होंने कुशीनगर में एक ज़मीन का टुकड़ा भी देख रखा था. लेकिन कुशीनगर उनकी आँखों के सामने देखते ही देखते बदल गया था. वे उस पुराने कुशीनगर में बसना चाहते थे जहाँ शाल वन थे महँगे होटल नहीं. महँगे हो गए कुशीनगर के बहाने से वे लिखते हैं, ‘आधुनिकता इतनी महँगी क्यों होती है ? क्या इसीलिए वह भारतीय जीवन की जो सामान्य धारा है, उसका हिस्सा आज तक नहीं बन पाई है ? ऐसे में उत्तर-आधुनिकता की चर्चा विडंबनापूर्ण लगती है- मानो एक पूरा समाज छलाँग मारकर किसी नए दौर में पहुँच गया हो.’ कुशीनगर के विषय में ही वे ‘चीना बाबा’ का क़िस्सा याद दिलाते हैं. चीना बाबा चीन से अपनी किशोरावस्था में कुशीनगर एक पर्यटक के रूप में आए थे और कुशीनगर में बुद्ध के पास ही रह गए थे. उनका कोई घर नहीं था और वे वहीं एक विशाल बरगद के पेड़ पर मचान बना कर रहते थे. जिस पर कवि कहता है, ‘मुझे कई बार लगता है कि पेड़ शायद आदमी का पहला घर है. इसीलिए जब उसे कहीं जगह नहीं मिलती, तो वह उसी घर में चला जाता है और यह कितना अद्भुत है कि उसका दरवाज़ा हमेशा खुला मिलता है.’ इन्हीं चीना बाबा को याद करते हुए कवि ने कवि-कथाकार उदय प्रकाश को समर्पित ‘मंच और मचान’ शीर्षक एक कुछ लंबी कविता रची है. 1960 में जब नेहरू कुशीनगर का स्तूप देखने आए थे तब उस वटवृक्ष को काटने की क़वायद हुई थी. कवि बताता है कि स्तूप को बचाने के लिए जब बरगद को काटने का निर्णय हुआ तो चीना बाबा उस पेड़ को छोड़ने के लिए तैयार नहीं हो रहे थे क्योंकि वह उनका घर था. इस तरह कुशीनगर की विलक्षण बौद्ध संस्कृति और परिवेश को वे पुराने क़िस्सों को याद करते हुए प्रस्तुत करते हैं. इन सब बातों में उनका बुद्ध-प्रेम ध्वनित है.
केदारनाथ सिंह को अपनी ‘पुरबिहा’ आइडेंटिटी और भोजपुरी भाषा से जितना अनुराग है, उतना ही भिखारी ठाकुर और लोकसंगीत से भी है. भिखारी ठाकुर को लेकर एक घटना का उल्लेख भी कवि ने अपने एक संस्मरणात्मक आलेख में किया है. उन्होंने भोजपुरी के इस अनूठे लोकगायक को आयोजकों की ना-नुकुर के बावजूद नई कविता पर आयोजित एक संगोष्ठी के मंच पर बुला लिया था. इस संगोष्ठी में उनके साथ राजकमल चौधरी भी थे. कवि की ऐसी लोकानुरागी चित्तवृत्तियों की झलक उसके लेखों में यत्र-तत्र दिखाई देती है. रामनरेश त्रिपाठी के लोक-गीत संग्रहण कार्य का स्मरण करते हुए उन्होंने अपने पूरब की कई लोक-कलाओं का उल्लेख किया है जो लोकसंगीत पर आधारित हैं. इनके पीछे कवि के लोकानुरागी चित्त की वह बेचैनी है जो लोक कलाओं के धीरे-धीरे समाप्त होते जाने से उत्पन्न हुई है. इस संदर्भ में उन्होंने अपने क्षेत्र की समूहगायन की एक शैली ‘झिंझरी’ का ज़िक्र छेड़ा है, जो नदी में बाढ़ आने पर नावों पर रात में आयोजित होती थी. ऐसी लोक-शैलियों के विलुप्त होने की चिंता में वे लिखते हैं:
मनुष्य द्वारा आविष्कृत एक कलारूप का खो जाना और हमेशा के लिए खो जाना एक ऐसी गहरी क्षति है, जिसकी कोई भरपाई नहीं. कभी-कभी सोचता हूँ, क्या प्रकृति और कलारूपों के सर्जन का कोई अनिवार्य संबंध है ? क्या ऐसा नहीं लगता कि औद्योगिक क्रान्ति के बाद से अब तक कलारूपों का यदि कोई इतिहास लिखा जाए (ऐसी कोशिशें थोड़ी बहुत की भी गई हैं) तो पाया जाएगा कि अर्जित कलारूपों का विलयन अधिक हुआ है और उसकी तुलना में नए कलारूपों का सर्जन शायद कम ? इस मान्यता के सत्यापन के लिए मेरे पास तथ्यों के आँकड़े नहीं हैं.
लोक-कलाओं के साथ-साथ कवि के मन में भाषा और साहित्य की चिंताएँ भी हैं. अपने कवि मित्र सूर्यप्रताप को याद करते हुए कवि ने भाषा पर अपने अगाध विश्वास को बताने के लिए कहा है कि, ‘भाषा किसी अदृश्य फिल्टर से छानकर उस चीज़ को ज़रूर बचा लेती है, जो बचाने लायक होती है’. भाषा की भाँति उसके शब्दों में भी उनकी बड़ी आस्था है. यह विचार उनकी कविताओं में काव्यात्मक गठन के साथ अभिव्यक्त हुए हैं. भारतीय भाषाओं में शब्दों के चक्रीय संतुलन और उनकी व्युत्पत्ति के विषय में वे उनका विचार है:
भारतीय जीवन में शब्द जिस टकसाल में ढलते हैं, उसकी नींव की गहराइयाँ खेतों-खलिहानों और सुदूर वनांचलों तक फैली हुई हैं. यदि मरे हुए शब्दों और नवजातक शब्दों की कोई बृहत सूची बनाई जाये तो हम पाएंगे कि शहर में यदि एक शब्द मर गया (यानी अपने अर्थ से च्युत हो गया) तो उसके भूगोल के सुदूर किन्हीं कोनों में- किसी पुराने शब्द में कोई सर्वथा नई ध्वनि से पैदा हो गई या एक मृत शब्द ने किसी अज्ञात जिह्वा पर फिर से जन्म ग्रहण कर लिया. मनुष्य का पुनर्जन्म होता है या नहीं, मैं नहीं जानता पर, शब्दों का जीवन-चक्र ऐसे ही चलता है और इस चक्र का संबंध मनुष्य के जीवन-चक्र से है, जो वस्तुतः जीवन की निरंतरता का दूसरा नाम है.
शब्दों के इस चक्रीय जीवन में आशा रखने के पीछे भाषा के प्रति कवि का विश्वास है. केदारनाथ सिंह की कविताओं में भाषा और शब्द को लेकर उनकी निष्ठा, उनके आशाजन्य विश्वास को देखा जाता है, जब वे कभी अपनी भाषा में लौटते हैं या शब्द और मनुष्य के टकराने से हुए धमाके को सुनने की आकांक्षा व्यक्त करते हैं. शब्द और भाषा के प्रति लेखक का यह विश्वास ही साहित्य को गौरव प्रदान करता है. गंभीर साहित्य रचने के लिए भाषा के प्रति न केवल गंभीर होना पड़ता है, बल्कि शब्दों से निरंतर, पूर्व से अधिक नज़दीकी बरतनी पड़ती है.
साहित्य सदैव शब्द और भाषा में ही बचता है. क़ब्रिस्तान में पंचायत का जो अंतिम लेख है वह इसी प्रश्न को लेकर है कि क्या साहित्य बचेगा ? इस प्रश्न के उत्तर में कवि ने बड़े धैर्य से बताया है कि साहित्य बचेगा और उसे छोटे शहर बचाएंगे. आज जब साहित्य के केंद्र केवल बड़े शहर रह गए हैं और उच्च-आधुनिक सूचना तकनीक व दृश्य-श्रव्य माध्यमों के आतंकित करने वाले शोर में साहित्य को फालतू की वस्तु कहा-समझा जाने लगा है, ऐसे समय में कवि की एक बात साहित्य में निष्ठा रखने वालों को आश्वस्त करती है. वह यह कि, ‘वे यह नहीं समझते कि इस ऊपरी तौर पर दिखने वाले फालतूपन में ही साहित्य की ताकत छिपी होती है’. साहित्य में यह विश्वास भाषा की शक्ति के बोध से फलित होता है.
क़ब्रिस्तान में पंचायत में भारतीय भाषाओं के कवियों के साथ ही विदेशी कवियों या विश्व कविता पर भी सुगठित बातें की गई हैं. ब्रिटेन की हिंदी कविता पर एक पूरा लेख है. पुश्किन और एव्तुशेंको पर लेख हैं. जापानी कवि तोगे संकिची पर एक लेख है जिनकी कविताएँ हिरोशिमा और नागासाकी पर गिराए गए परमाणु बम की घटना से संबंधित हैं. ये लेख हमें सिखाते हैं कि विश्व कविता को पढ़ने के लिए दृष्टि को कैसा विस्तार चाहिए. कवि में कविता पढ़ने की और उसमें भरी अनुभूतियों को अपनी ही तरह दूसरे को महसूस कराने की जो तड़प है वह इन लेखों में दिखती है. कविता को बेहद गंभीर रचनात्मक और भाषिक कला माध्यम मानने वाले कवि के विचार भी कहीं-कहीं मिलते हैं. जैसे कि ‘कविता आदमी और व्यवसाय के बीच की खाली जगहों का निर्माण करती है और इसीलिए ज़रूरी है’. कविता के प्रति यह विश्वास उसे अपरिहार्यता में बदलता है. उनका यह विश्वास कि, कवि मृत्यु पर विजय अपनी कविताओं की बदौलत पाता है, उनके एक वाक्य से पता चलता है जो उन्होंने तेलुगू कवि अजंता के विषय में बात करते हुए लिखा है. और वह यह कि:
‘मृत्यु के बाद आखिर अपनी कविताओं से बेहतर कौन-सी जगह होती है एक कवि के लिए’
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संतोष अर्श
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