प्रस्तुत है यह आलेख
कोरोना–काल में किताबें
आज पूरी दुनिया एक ऐसे महामारी से ग्रस्त है जिसका कारण मानव स्वयं है. उसकी आविष्कारी प्रवृत्तियों ने आज उसे ऐसी जगह पर लाकर खड़ा कर दिया है, जहां वह अपने आप को बंदी बनाने के लिए बाध्य है. फिर भी इस कठिन घड़ी में जहां मिलना-जुलना इस महामारी के फैलने का मुख्य कारण माना जा रहा है वहीं सामाजिक-दूरी ही इसकी मुख्य चिकित्सा है, ऐसा कहा जा रहा है. कोरोना के भय ने हमें अपने कमरों में कैद कर दिया है और इन शांत कमरों में महामारी का भय उतर आना लाज़मी है. आजकल मैं दिल्ली में हूँ जो देश का सबसे सुविधा-संपन्न इलाका माना जा सकता है लेकिन इसी के साथ यह कोरोना वायरस का हॉट-स्पॉट भी है, इसने हमारे भय को और बढ़ा दिया है. इस भय से निबटने का सबसे बेहतरीन उपाय मैंने यह चुना कि पुस्तकों को खूब बाँचा जाये.
प्रस्तुत लेख भय और किताबों के बीच बीत रही ज़िंदगी की कहानी है. मैं यह नहीं जानता कि मेरा यह लेख कितना राजनीतिक है, कितना नीतिगत, लेकिन इतना ज़रूर है कि यह मानव के भय को कम करने की रणनीति का आवश्यक साधन बन सकता है.
अध्ययन की गयी पहली पुस्तक ‘अवध का किसान विद्रोह’ है. यह पुस्तक सुभाषचन्द्र कुशवाहा ने लिखी है, जो पूरी तरह आर्काइव से ली गयी सामग्री की उपज है. इस किताब में तीन शैलियाँ हैं. एक, यह पुस्तक इतिहासकार की तरह हमसे बातें करती है जहाँ किसानों की आवाजें दबी पड़ी थीं. प्रतापगढ़, रायबरेली, फैज़ाबाद, बस्ती, बहराइच से कहानी शुरू होकर उन आयामों को सामने रखती है जो किसानों की स्वतंत्रता आंदोलन में भूमिका को रेखांकित करती है. दूसरी शैली, उपन्यासनुमा है, घटना और पात्र के माध्यम से समाज के दर्पण पर लगी धूल को साफ़ करती है. तीसरी शैली लोक संस्कृति से जुड़ी हुई है.
इस किताब की शैली के अलावा कुशवाहा साहब ने पुस्तक में कुछ ऐसी प्रथाओं का भी उल्लेख किया है जो शायद ही कभी मुख्यधारा माने जाने वाले इतिहास का हिस्सा रहीं हों. जैसे “सावक प्रथा” जिसके अंतर्गत ज़मीदार और उनके कारिन्दें मजदूर, किसानो को बिना मजदूरी दिए उनसे बेगार करवाते थे. अवध क्षेत्र की यह प्रथा बेगारी के नाम पर गुलामी थी. कर्जे में डूबी निम्न जातियाँ, जैसे चमार, कोइरी, कुर्मी और लोध साहूकार से लिए क़र्ज़ न चुका पाने के एवज़ में आजीवन बंधुआ मजदूर के रूप में जीवन व्यतीत करने के लिए बाध्य रहती थीं, इसके अलावा इन निम्न जातियों के वर्गों के पास कोई और बच निकलने का चारा भी नहीं था.
इसी तरह मुर्दा-फ़रोशी की प्रथा ने तो मानवता के हर पहलू को झकझोर दिया था. यह प्रथा कोर्ट ऑफ़ वार्डस के द्वारा शासित प्रदेशों में लागू होती थी. कोर्ट ऑफ़ वार्ड्स का मतलब है कि वह क्षेत्र जहाँ तालुकेदार के उत्तराधिकारियों के नाबालिग होने पर वहाँ का प्रबन्धन सरकार देखती थी. मुर्दा-फ़रोशी एक ऐसी प्रथा थी जिसमें परिवार के मुखिया की मृत्यु के बाद उसके उत्तराधिकारी से नजराना वसूल किया जाता था. अवध क्षेत्र के रायबरेलीका इलाका इस प्रथा का सबसे ज्यादा शिकार रहा है.
इसी क्रम में सत्ता की चाहत किसानों का किस प्रकार उपयोग करती है, इस मुद्दे पर तसल्ली से एक पूरा अध्याय “संयुक्त प्रांत किसान सभा और अवध किसान सभा गठन की पूरी कहानी” नाम से लिखा गया है, जिसमें कांग्रेस के ऐसे दोहरे रवैये का खुलासा होता है जिसमें एक तरफ, कांग्रेस अपने राजनीतिक वर्चस्व को स्थापित करने के लिए संभ्रांत शहरी कांग्रेसियों के द्वारा किसान महासभा का इस्तेमाल करती थी वहीं दूसरी तरफ कांग्रेस में किसानों की आस्था को बनाये रखने की चालाकियों को भी देखा जा सकता है. जो इस किताब का सबसे रोचक हिस्सा है. पुस्तक से पाठक को वर्तमान की कुछ राजनीतिक परिदृश्य का भी पता चल सकता है. मसलन किस प्रकार राजनीतिक दल किसानों की बदहाली को नजरंदाज करके सत्ता का सुख साधने में लगे रहते थे, और चुनाव में इन्हीं किसानों के बड़े हिमायती बन कर कर्ज़ा माफ़, किसान नहीं अन्नदाता जैसे लोकलुभावन नारों को लेकर सामने आते थे.
कुछ लेखों को भी पढ़ा गया जिनमें दीपेश चक्रवर्ती के द्वारा लिखा गया लेख ‘ट्रेड यूनियन इन हेरारिकल कल्चर’ है जो सबाल्टर्न स्टडीज(3)’ में प्रकाशित है. यह लेख श्रमिकों के इतिहास के साथ-साथ उनकी जागरूकता का भी इतिहास बताता है. यह लेख मार्क्सवादी दलीलों से ऊपर उठते हुए औद्योगिक अनुशासन की समस्या को भी सामने रखता है. आज मज़दूरों के पैरो में पड़ने वाले छाले क्या हमें इतिहास और राजनीति के बीच के द्वंद्व की तरफ इशारा नहीं करते. यही नहीं मजदूरों के बीच जब आप खड़े होकर इन्हें पहचानने की कोशिश करते हैं तो पाते हैं कि इनमें ज्यादा संख्या पुरबियों की है. जिसे लेकर तमाम तरह की बहसों का चलना भी लाज़िमी है. यह बहस सरकार, विकास, समाज के बीच त्रिभुज खींचने लगती है.
ऐसे में फिर किताबों की तरफ बढ़ना मेरे जैसे मामूली आदमी के लिये जरूरी था. मैंने इन पुरबियों पर लिखी किताबें खोजनी शुरू की. नज़र मेरे दोस्त के रूम की एक इतिहासकार की नई किताब पर पड़ी, जिसका नाम ‘पुरबिया का लोकवृत वाया देस परदेश’ है जिसे धनंजय सिंह ने लिखी है जो उपन्यास के तर्ज पर दस्तावेजीकरण का आवरण ओढे हुये है. इस आवरण और आकर्षण का मैं भी शिकार हूँ.
चेतावनी के तौर पर मैं यह भी मानता हूँ की उधार मांगी गई किताब को रफ्तार से पढ़ना पड़ता है. जब मैंने इस किताब को शुरू किया तो एक सवाल मेरे ज़ेहन में हिलोरे मार रहा था कि ये कैसे हुआ होगा कि भोजपुरी की पट्टी के लोगों की संख्या मज़दूर की शृंखला में ज्यादा बढती चली गयी? इन सवालों के ज़ज़्बात को लेके जब मैं किताब के अध्याय पाँच पर पहुँचा तो मेरी नज़र इसके ऐतिहासिक कारणों\’ पर गयी.
पहला कारक है औपनिवेशिक दौर का विऔद्योगिकीकरण जिसके फलस्वरूप हिंदुस्तानी शिल्पकारों की बेरोजगारी से कृषि पर बोझ का बढ़ना.
दूसरा औपनिवेशिक शासन द्वारा अफ़ीम और नील की खेती, इस फ़सल के लिए उन्हें बाध्य किया जाना भी उनके पलायन का कारण बना
तीसरा समाज की सामंतवादी प्रवृत्ति जिसमें कृषि की उत्तम कोटि की भूमि पर समाज के उच्च वर्गों का कब्ज़ा था और निम्न वर्ग के पास निम्न स्तर की भूमि थी.
चौथा सामंतो की चौधराहट का था, जिसने इस समाज के भरण पोषण को ही दयनीय बना दिया था.
पाँचवा भोजपुरी क्षेत्र की जनसंख्या का है
यह प्रसंग ज़रूर हमें इतिहास के तर्ज पर प्रमाण देता है लेकिन वर्तमान स्थिति के विश्लेषण का भी अवसर देता है. इस वार्ता में जो अटक जाने वाली बात मेरे ज़ेहन में थी वो जन और जनार्दन के संधि-विच्छेद पर आधारित थी. क्यों हम जन है और वे जनार्दन.
इस उलझन में मैंने एक और पुस्तक को हाथ लगाया लेकिन इस पुस्तक को चालाकी से पढ़ गया, मतलब पूरी किताब तो नहीं लेकिन उतना ज़रूर की मेरी उलझन सुलझ सके. पुस्तक का नाम है ‘इन्वेंटिग द पीपुल’ जिसके लेखक एडमंड मार्गन है. जिन्हें अकादमिक जगत में संवैधानिक इतिहासकार के रूप में जाना जाता है.
लेख को आखरी अल्फाज़ में ढालने से पहले मैं एक चर्चा को भी शामिल करना चाहूँगा. बात उन दिनों की है जब लॉकडाउन होने की घटना शुरू नहीं हुई थी. हम csds के अड्डे पर बैठके अकसर राजनीति, समाज और उनके बीच के संबंध पर विमर्श करते रहते थे. एक दिन मजदूरों को लेकर विमर्श शुरू हुआ, मैं इन्हें इतिहास के पन्नों में टटोलने लगा और नरेश भाई समकालीनता से सवाल उठाने लगे, इसी बहस के बीच नरेश भाई ने एक बात कही कि मजदूर तो है लेकिन मतदाता भी हैं. इनके प्रति लोकतंत्र की ज़बाबदेही बनती है. इनके लिए लोकतंत्र क्या करता है इस पर अलग से विचार करने की आवश्यकता है. देखते-देखते कुछ ही दिनों के बाद लॉकडाउन हो गया. कामगारों का हुजूम मानो बेबस और लाचार नंगें पाँव सुकून पाने की चाहत में निकल पड़ा. यह प्रक्रिया मुझे दो चीजों की याद दिलाती है.
एक तो नरेश भाई के सवाल की प्रासंगिकता बढ़ जाती है कि हमें इन मजदूरों को मतदाता, नागरिक तथा मजदूर के कोण पर रख कर मापा जाना चाहिए. दूसरा यशपाल के उपन्यास ‘झूठा सच: वतन और देश’ भाग एक पर छपी तस्वीर की हकीकत. जो गठ्ठर उठाये जाते हुए नज़र आते हैं.
pranjal695@gmail.com