(केदार जी का चित्र कवि अनिल त्रिपाठी के फेसबुक दीवार से आभार सहित) |
आज कवि केदारनाथ सिंह (७ जुलाई १९३4 – १९ मार्च २०१८) के स्मरण का दिन है. उनकी पुण्यतिथि है. केदारजी भले ही दिल्ली में आ बसें हों, वह पूर्वांचल के शब्दों और सरोकारों से आजीवन जुड़े रहे. उनकी पूरी कविताई ही किसी पुरबिया की कविताई है और वे उसे कहते भी रहते थे. पूर्वांचल से उनके जुड़ाव का एक साधन पत्र थे जो वे अपने मित्रों को लिखते थे और उनसे पाते थे. इन पत्रों में किस तरह के केदार जी हैं?
आइये देखते हैं हरिमोहन शर्मा के इस सुंदर आलेख में.
केदारनाथ सिंह
पाया पत्र तुम्हारा
हरिमोहन शर्मा
केदारनाथ सिंह जितने बड़े कवि थे उतने ही बड़े इंसान थे. इस बात की ताकीद उनके मित्रों और विद्यार्थियों के लिखे संस्मरणों से तो होती ही है उनके लिखे पत्रों से भी उनका वही संवेदनशील व्यक्तित्व और कभी मुसकुराता कभी गंभीर होता चेहरा झलकता दिखाई देता है. केदार जी के पत्र अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए हैं. इनमें से कुछ पत्र संबंधियों को लिखे गये हैं जो रुटीन हैं तो कुछ मित्रों को लिखे गए हैं.
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय दिल्ली आ जाने के बाद उन्होंने अपने एक पुराने मित्र कैलाशपति निषाद से निरंतर संपर्क बनाए रखा है. इनके पत्रों को केंद्र में रखकर केदार जी के पत्रों की एक पुस्तक प्रो. सदानंद शाही ने संपादित की है. पर उनके इन प्रकाशित पत्रों पर लोगों का ध्यान प्रायः कम ही गया है. इन पत्रों से केदार जी के व्यक्तित्व के कुछ अनछुए पहलुओं पर प्रकाश पड़ता है.
केदार जी ने कुछ समय बनारस में पढ़ाने के बाद अपने विधिवत अध्यापकीय जीवन की शुरुआत गोरखपुर के एक पी जी कालेज से की थी. यहां आपने पंद्रह साल पढ़ाया और बाद में यहीं प्राचार्य हो गये थे. 1975-76 में जेएनयू आ जाने के बाद भी केदार जी का संपर्क अपने वहां के मित्रों से अंत तक बना रहा. वहां के एक प्राइमरी स्कूल में पढ़ाने वाले कैलाशपति निषाद और उनकी मित्र मंडली तो उनके हृदय में हमेशा बसी रही. ग्रामीण लोक से उनके जुड़ाव के वे लोग मजबूत स्तंभ थे. कैलाशपति निषाद अध्यापक, वामपंथी कार्यकर्ता, एक संवाददाता- पत्रकार थे. यानी एक में अनेक रूप. इनके विषय में सदानंद शाही लिखते हैं
\”मुझे याद है कि पडरौना कोतवाली के सामने वाली चाय की दुकान में निषाद जी से भेंट हुई थी. भेंट कराने वाले थे मेरे मित्र उदयभान सिंह और गोपाल उपाध्याय. खद्दर के मटमैले कुर्ते, धोती और गमछे में निषाद जी मेरे सामने थे. निषाद जी में पत्रकारों वाला रोब नहीं था. बेहद विनम्र, सहज, आत्मीय और आश्वस्तिदायक लगे.\”
निरीह और अपने को कुछ न समझने वाले– ऐसे थे केदार जी के मित्र निषाद जी- जो अंत- अंत तक केदार जी के आत्मीय और उनके हृदय के समीप बने रहे.
बहुत दिनों तक कोई नहीं जानता था कि केदार जी और निषाद जी का पत्र-व्यवहार चलता है. उनके नाम लिखे ये पत्र कैसे सामने आये इसकी भी एक कहानी है. सदानंद शाही जी को यह तो पता था कि निषाद जी केदारनाथ सिंह के परिचित या मित्र हैं. पर उनका आपस में पत्रों का लेन देन चलता है, यह नहीं पता था. शाही को यह हैरानी होती थी कि निषाद जी को कैसे पता चल जाता है कि केदार जी का कोई कार्यक्रम है या केदार जी गोरखपुर आनेवाले हैं. उनके अनुसार
\”अपनी मृत्यु से कुछ दिन पहले कभी निषाद जी ने बताया कि उनके पास डाक्टर साहब की चिट्ठियां हैं. मैंने उनसे अनुरोध किया कि चिट्ठियां मेरे पास भेज दें. इस बीच निषाद जी एक दो बार मिले पर चिट्ठियां लाना भूल गए थे. फिर मैंने पडरौना कालेज में अध्यापन कर रहे अपने छोटे भाई डाक्टर राधे गोविंद शाही को जिम्मेदारी सौंपी. वे निषाद जी के गांव गये. निषाद जी ने कुछ चिट्ठियां दीं और भाई से कहा कुछ और चिट्ठियां इधर-उधर हो गई हैं, खोज कर रखूंगा. फिर आएगा तो दे दूंगा. इसी बीच निषाद जी नहीं रहे.\”
निषाद जी की मृत्यु के बाद उन्होंने \’साखी\’ पत्रिका के एक अंक में केदार जी की टिप्पणी के साथ इनके कुछ पत्र प्रकाशित किए थे .
इन पत्रों को यदि आप पढ़ें तो उनको लिखे इन पत्रों से वहां की मिट्टी, वहां के लोग, गांव- घर की खोज- खबर जानने की केदार जी की उत्सुकता या कहें बेचैनी बार-बार दिखाई देती है. उत्तर पाने की ललक तो प्रायः प्रत्येक पत्र में है. 2004में कैलाशपति निषाद के निधन से उनके पत्रों का यह सिलसिला टूट जाता है. प्रोफेसर सदानंद साही ने 2008 में इन पत्रों को संपादित कर \’कुछ चिट्ठियां कैलाशपति निषाद के नाम\’ शीर्षक से केदार जी के पत्रों की यह पुस्तक प्रकाशित की. यह एक महत्वपूर्ण पुस्तक है. इसलिए भी कि ये पत्र एक बड़े कवि के साहित्यिक पत्र चाहे उतने न हों पर अपने आत्मीय जनों के हालचाल जानने के लिए एक कवि की बेचैनी और वहां की गंध से जुड़े रहने की छटपटाहट इन पत्रों में भरी हुई है. साथ ही इससे एक लेखक एक रचनाकार के उस अंतरंग संसार का पता चलता है जहां पर वह पढ़ा-लिखा, रचा-बसा है और जहां के लोक-संसार में उसकी आत्मा अंत तक बसी रही.
इन पत्रों में साहित्य-चर्चा का अभाव हो पर इनमें लेखक के सामाजिक-सामुदायिक सरोकार, समसामयिक जीवन, देश-विदेश में घटने वाली घटनाओं का जिक्र मिलता है- जिनसे लेखक जुड़ा रहा है. साथ ही उसे अपने इन मित्रों से बांटने की लालसा उनमें निरंतर बनी रही है. वह अपने पुराने घर-परिवार, गांव-देहात, मित्र-साथी और आसपास के लोगों के दुख-सुख का हाल जानने के लिए निरंतर व्यग्र रहा है. 2002 के एक पत्र में वे कहते हैं
\’शायद सत्ताईस साल हो गये मुझे पडरौना छोड़े. पर पडरौना है कि मुझे छोड़ता ही नहीं.\’
दरअसल दिल्ली की भागमभाग वाली जिंदगी की बजाय गांव की कच्ची गलियों में उनका मन कहीं अधिक सुकून पाता था. ठीक ही कहा गया है कि केदारनाथ सिंह के लिए कैलाशपति निषाद एक ऐसे आईने की तरह थे जिसमें उन्हें भारत का ठेठ चेहरा दिखाई पड़ता था. साधारण के प्रति केदारनाथ सिंह के प्रेम की कसौटी शायद कैलाशपति निषाद ही थे .इसलिए वे दिल्ली में अकादमिक-साहित्यिक व्यस्तताओं के बावजूद अंत तक उन्हें अपने दिल से दूर नहीं कर पाए. उनसे निरंतर संपर्क बनाए रखने का प्रयास करते रहे. निषाद जी के साथ-साथ वहां अध्यापकों की एक छोटी-सी मित्र मंडली भी थी जिनमें मोतीलाल यादव, शुभनारायण, बुन्नालाल और निजामुद्दीन जैसे सामान्य-साधारण व्यक्ति शामिल थे. केदार जी निषाद जी को लिखे सभी पत्रों में अपने इन मित्रों को बराबर याद करते हैं. बाद के दिनों में निषाद जी को हृदय रोग हो गया था और गांव में उनकी ठीक से जांच-पड़ताल तक नहीं हो पाई और केदार जी के अनुसार अंततः वही हुआ जिसका उन्हें डर था. इस की चिंता उन्होंने अपने कई पत्रों में व्यक्त की थी. उन्होंने एक पत्र लिखा
\”मैं इस चिंता को भ्रमवश निर्मूल मानता था और एक मेरे भीतर की जिद कि ग्रामीण परिवेश की आबोहवा और निषाद जी का कर्ममय जीवन उन्हें हमेशा स्वस्थ रखेगा. उनके निधन से मेरा यह भ्रम हमेशा के लिए टूट गया कि स्वच्छ आबोहवा ही काफी होती है.\”
जैसा कि कहा गया कि राजनीति के स्तर पर निषाद जी वामपंथी थे और कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य भी. पर कुछ समय बाद उन्होंने पार्टी की सदस्यता छोड़ दी थी. कारण उन्होंने केदार जी को एक पत्र में बताया था
\”डॉक्टर साहब जो परिवर्तन लाने वाला उस का दम भरने वाला दल है उसका जिला सेक्रेटरी पिछले25 वर्षों से उसी पद पर अबाध बना हुआ है. जो दल 25 साल में अपना सेक्रेटरी नहीं बदल सकता वह देश क्या बदलेगा?\”
इसमें हमारे प्रगतिशील दलों पर टिप्पणी भी है. इसके बाद वे दलित राजनीति से प्रभावित हुए और उसकी ओर थोड़ा झुके. मायावती के मुख्यमंत्री बनने के बाद उनमें इस विश्वास का संचार हुआ कि समाज में अब सवर्ण वर्चस्व के टूटने का संकेत मिल रहा है जिसके वे हामी थे. पर थोड़े ही दिनों में वह मायावती के प्रति भी क्रिटिकल हो गए. अंतिम दिनों में उनकी राजनीतिक सक्रियता लगभग समाप्त हो गई थी पर अपने समय की नब्ज़ पर वह बराबर नजर बनाए रखते थे. ऐसे सच्चे मित्र और सेकुलर व्यक्ति का जीवन केदार जी को आकृष्ट करता था. वे कैलाशपति निषाद को अपना सबसे विश्वसनीय और परम हितैषी मानते थे. परंतु उनके निधन से गांव से जुड़ा उनका यह तार अकस्मात टूट गया. हालांकि उनसे जुड़ कर उन्हें हमेशा यह भी अहसास रहता था कि वे देश की सच्चाई के सबसे निचले पायदान से जुड़े हुए हैं.
निस्संदेह दिल्ली उन्हें बीहड़ लगती थी. उनका मन उमड़-घुमड़ कर गांव के खेत-खलिहान, पेड़- पौधों, पशु-पक्षियों, वहां की गलियों में रमता था. उन लोगों की सरलता, उनका स्नेह और सहज आत्मीयता बहुत याद आती. भले ही गांव अब वह गांव नहीं रह गये थे. फिर भी वे लिखते-
\”दिल्ली में इतने वर्ष तक रहने के बाद भी कोई इतना सहज रूप से आत्मीय नहीं बन पाया है कि उससे अपना सुख-दुख कहकर जी हल्का कर लूं. ये कुछ लाइनें आपको लिखते हुए एक अजीब-सी शांति और संतोष का अनुभव कर रहा हूं.\”
ऐसा वे शायद इसलिए कहते थे क्योंकि महानगर में रहते हुए भी वे उस महानगर के हो नहीं पाए थे. उनका मानना था कि मैं वहां का होना भी नहीं चाहता. बस पूर्वांचल की मिट्टी से मेरा रिश्ता अटूट बना रहे. उनका मानना था कि उन लोगों से जुड़े रहना वस्तुतः उस मिट्टी से जुड़े रहना है जिससे उनकी पुरानी पहचान है. उनकी मान्यता थी कि दिल्ली में भारत के विकास का जड़ शरीर मात्र है. उसकी आत्मा तो छोटे शहरों और गांवों में बसती है. इसलिए उनके साहित्य में गांव की गंध और उसकी ललक के चित्र अंत तक अंकित होते रहे. उनकी देह भले ही दिल्ली या देश दुनिया में भ्रमण करे पर आत्मा गांव में बसी रही है. उनकी मां भी उनके पास दिल्ली में रहने की बजाय गांव में रहना अधिक पसंद करती थी. पर समस्या यही थी कि वहां कोई उनका अपना नहीं रह गया था. ऐसे में गांव से जुड़े रहने का एकमात्र माध्यम यह मित्र मंडली ही थी. इसलिए वे निषाद जी के पत्रों का बड़ी बेसब्री से इंतजार करते थे. एक पत्र में वे लिखते हैं
\”आपका पत्र आने से कितना सुकून मिलता है. लगता है, पूर्वांचल की मिट्टी से अब भी जुड़ा हुआ हूं. इस जुड़ाव के एहसास से बल मिलता है.\”
इससे उन्हें शांति मिलती और सबसे बड़ी बात इन पत्रों से उन्हें अपनी मिट्टी की गंध मिलती थी जो दिल्ली में दुर्लभ थी. दिल्ली तो उनके अनुसार एक जंगल है, आदमियों का जंगल.
\”मगर आदमियत का नहीं. रहते-रहते यहां रहने की आदत बन गई है- सो रहता हूं.\”
निषाद जी की मृत्यु के बाद वह अपने आप को बेहद अकेला महसूस करने लगे थे और कुछ उदासी भी उनके जीवन में घर करने लगी थी. पेट के तो वे पुराने रोगी थे ही. उन्होंने अपने एक पत्र में लिखा था
\”कुछ दिनों से पेट कुछ ज्यादा ही गड़बड़ हो गया है.….. दुर्बलता बहुत बढ़ गई है. वह दिनों दिन बढ़ती ही जा रही है. आंव का रोग मेरा नया तो नहीं है, पर इधर कुछ ज्यादा बढ़ गया है. लगता है, अब जितने दिन चलेगा, ऐसे ही चलेगा. दवा करते-करते थक गया हूं. दो दिन ठीक रहता है फिर गड़बड़ा जाता है. शायद अंग्रेजी चिकित्सा के पास इस रोग की दवा है भी नहीं. कई बार देसी दवायें इस रोग में बहुत कारगर होती हैं. पर अब न तो वैसे वैद्य रहे, न वैसे जड़ी- बूटी के जानकार. हार कर बार-बार अंग्रेजी दवाओं की शरण में ही जाना पड़ता है.\”
हालांकि केदार जी अपने खानपान में बहुत संयमित और अल्प भोजी थे. फिर भी उनका यह रोग उन्हें परेशान किए रहता था. वैसे भी यात्राओं के कारण हर जगह उन्हें भोजन सात्विक और मनचाहा मिले यह संभव नहीं होता. फिर थोड़ी-बहुत बदपरहेजी भी. इसलिए उनका यह रोग उन्हें परेशान किये रहता था.
केदार जी बहुत धार्मिक या आस्थावान व्यक्ति कभी नहीं रहे. पर कोई और हो तो उन्हें इससे परहेज भी नहीं रहा. बल्कि वे मानते थे कि जो आस्थावान लोग हैं वे शायद अधिक बेहतर हैं. उन्होंने निषाद जी को एक पत्र में लिखा
\”मुझे कभी-कभी लगता है कि जो लोग सुबह-शाम किसी परोक्ष सत्ता के सामने झुक कर प्रार्थना करते हैं, वह हमसे और आपसे अधिक भाग्यशाली हैं. प्रार्थना शायद आत्मा की एक बुनियादी जरूरत है– इधर इसको गहराई से महसूस करने लगा हूं.\”
इन सबके बावजूद वह किसी एक देवी देवता पर आस्था रखने के स्थान पर आध्यात्मिकता पर अधिक विश्वास करने लगे थे वैसे भी जो व्यक्ति जितना अधिक मानवीय होगा उसमें एक प्रकार की आध्यात्मिकता आ ही जाती है. इसलिए जब निषाद जी ने उन्हें सलाह दी कि उन्हें थोड़ा आध्यात्मिक भी होना चाहिए तो उन्होंने उत्तर देते हुए लिखा-
\”आपने आध्यात्मिकता की जो सलाह दी है, वह मुझे कई बार बहुत आकृष्ट करती है. हर संवेदनशील व्यक्ति- वह भौतिकता का चाहे जितना मजबूत कवच पहने हो–भीतर से कहीं आध्यात्मिक होता है. मुझे सामाजिक जीवन में भौतिकवाद अच्छा लगता है, एक हद तक आवश्यक भी (हिंदुस्तान जैसे घोर आध्यात्मिक देश में खासतौर से)- पर मैं आध्यात्मिक ही हूं. वरना शायद आपसे यह संबंध भी न बन पाता, जो कि है. यह अंदर जो एक झंझावात की तरह उमड़-घुमड़ रहा है, वह आध्यात्मिक नहीं तो और क्या है? कई बार इस आध्यात्मिकता का कारण नितांत भौतिक चीजें होती हैं. हां, यह जरूर है कि आपके पास आस्था की जो दृढ भित्ति है, वह मेरे पास नहीं है. वह लगातार होने वाली बारिश में ढह चुकी है.\”
यहां यह आस्था की भित्ति उनके निरंतर चलने वाले जीवन के संघर्ष हैं और उन पर आई भयंकर आपदाओं के कारण वह कमजोर हुई है. ऐसे में उनका ईश्वर पर से विश्वास उठ गया हो-तो आश्चर्य नहीं. पर वे साहित्य के सहारे जीवन में अपने को निरंतर मानवीय बनाए रहे. जीवन में उदासी आई पर वे अध्ययन-अध्यापन, पारिवारिक उत्तरदायित्व, साहित्य-लेखन और भ्रमण के सहारे उसे ठेलते रहे. कहना होगा कि पच्चीस वर्ष साथ रहने के बाद उनकी पत्नी का निधन 1975 में हो गया था. ऐसे में छह बच्चों का अकेले भरण-पोषण, देखभाल करना, शादी-ब्याह कितना मुश्किल और कष्टकर रहा होगा- इसका अनुमान किया जा सकता है. इसलिए उनके इन पत्रों में अवसाद का क्षीण सा सूत्र लगातार मिलता रहा है. 24 अक्टूबर 1994 को लिखे पत्र में वे लिखते हैं
\”यहां भी सब पूर्ववत ही है. ज़िन्दगी जैसे चल रही थी, अब भी चल रही है. नया कुछ भी नहीं-वैसे भी अब नया क्या होना है? कभी-कभी आपका पत्र आ जाता था तो बल मिलता था- लगता था, अपनी जमीन से जुड़ा हुआ हूं.\”
यह सही है कि अपनी जमीन से उनका जुड़ाव, अपने लोग अपनी बोली-बानी से उनकी आत्मा का तार एकदम मिल जाता था. वे खिल जाते थे. पर धीरे-धीरे जैसे जैसे उम्र दराज हो रहे थे, उनका स्वास्थ्य नरम-गरम हो रहा था. अंदरूनी तौर पर एक प्रकार का उचाटपन भी आ रहा था. इसका प्रभाव उनके मानसिक स्वास्थ्य पर पड़ना स्वाभाविक था. 1998 में लिखे गये पत्र में उन्होंने लिखा
\”समाचार कोई खास नहीं है. बस, वही सुख-दुख, जो पहले था, अब भी है. हां, उम्र के साथ एक गहरी उदासी जरूर बढ़ती जा रही है. यह पत्र लिखते समय उसका गहराई से अनुभव कर रहा हूं. जब भी इस अवसाद की अनुभूति तीव्र होती है तो आप मित्रों की याद आती है.\”
कहना न होगा कि निषाद जी के निधन के बाद उनके जीवन में उदासी और निचाटपन और बढ़ जाता है.
कह सकते हैं कि केदारनाथ सिंह के निषाद जी को लिखे इन पत्रों में उनके जीवन के ऊंचे- नीचे रास्तों के संकेत हैं. आंतरिक कशमकश और खलबलाती एक दुनिया है. शारीरिक और मानसिक व्याधियों की चर्चा है तो साथ ही \’राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय वैचारिक-सांस्कृतिक परिवर्तनों\’ का कुछ हीला- हवाला भी. इन पत्रों को पढ़ कर केदार जी के जीवन-व्यक्तित्व और उनके युग की अनेकानेक झलकियां पाठक को सहज ही मिल जाती हैं और अनायास ही उसे समृद्ध कर जाती हैं.
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