डॉ. विजय शर्मा
कुछ कहानीकार अपनी पहलौटी कहानी से काफ़ी ऊँची अपेक्षाएँ खड़ी कर देते हैं. पाठक और समीक्षक उनसे काफ़ी उम्मीदें करने लगते हैं. पाठक और समीक्षक की बात छोड़ भी दें तो कहानीकार के सामने खुद उसकी कहानी चुनौती बन कर डट जाती है. यह आसान नहीं है कि हर बार वह पिछली कहानी से बेहतर कहानी लिखी जाए. बेहतर न सही पिछली कहानी के बराबर की कहानी लिखना भी हर बार नहीं हो पाता है. यह एक प्रकार का बंधन है, कलम पर लगी रोक. अगर यह बंधन आ गया तो कहानीकार के लिए लिखना मुश्किल हो जाएगा. मगर उसे रुकना नहीं चहिए. उसे लिखते जाना चाहिए हर बार ईमानदारी से खुद को व्यक्त करना चाहिए. इसी तरह किसी कहानीकर की सारी कहानियाँ उत्तम होंगी यह अपेक्षा करना ज्यादती होगी, गलत भी. बराबर लिखने वाला कभी बहुत अच्छी कहानियाँ देगा, कभी औसत और कभी-कभी औसत से नीचे की कहानियाँ उसकी कलम/कम्प्यूटर से आएँगी. अगर कोई कहानीकार पाँच-सात अच्छी कहानियाँ लिखता है तो उसे अवश्य अच्छे कहानीकारों में शुमार करना चाहिए ऐसा मेरा विचार है. खुशी की बात है कि आज हिन्दी में ऐसे कुछ कहानीकार सक्रिय हैं. सत्यनारायण उनमें से एक हैं.
सत्यनारायण पटेल को मैं काफ़ी समय से पढ़ रही हूँ. काफ़ी समय से कहने का तात्पर्य है जबसे उन्होंने लिखना प्रारंभ किया है वे मेरी नजर में हैं. ‘भेम का भेरू माँगता कुल्हाड़ी ईमान’, ‘लाल छींट वाली लुगड़ी का सपना’, ‘गम्मत’, ‘काफ़िर बिजूका उर्फ़ इब्लीस’ जैसी कहानियाँ उनकी कलम/कम्प्यूटर से निकली हैं, जिन्होंने पाठको से अधिक समीक्षकों का ध्यान खींचा है. कहानी की एक सबसे बड़ी, सार्वभौमिक और सार्वकालिक विशेषता उसका कहानीपन है. यदि उसकी तमाम अन्य विशेषताएँ हटा दी जाएँ तो भी चलेगा मगर कहानीपन नहीं है, कथारस नहीं है तो उसे कहानी कहना कठिन है. शायद यही उसकी एकमात्र कसौटी हो सकती है/ होनी चाहिए. कम-से-कम मेरी दृष्टि में यह कहानी का प्राणतत्व है. यदि यह नहीं है तो फ़िर चाहे जितनी भी पच्चीकारी की जाए, शैली और शिल्प का कितना भी कमाल दिखाने का प्रयास हो, उसे कहानी कहने में मुझे संकोच होगा.
कहानी की इस शर्त पर मेरे हिसाब से कहानीकार सत्यनारायण पटेल खरे उतरते हैं. उनकी कहानियों में भरपूर कथारस होता है और यह समीक्षकों को आकर्षित करता है. हाँ, इसी कथारस के बीच से वे समाज की अच्छाई-बुराई, राजनीति की उठा-पटक, सत्ता-शक्ति की खींचतान, गाँव-शहर के जीवन की विडम्बनाओं, ग्लोबलाइज़ेशन-उदारीकरण, समाज-परिवार की तस्वीर दिखाते चलते हैं. तस्वीर भी ऐसी मानो कोई फ़िल्म दिखाई जा रही हो. ‘गम्मत’ उनकी एक ऐसी ही कहानी है जिसमें वे सत्ता-शक्ति और जनशक्ति की जीवंत फ़िल्म दिखाते हैं. फ़िल्म के नाम से याद आया वे एक फ़िल्म सोसाइटी भी चलाते हैं, ‘बिजूका फ़िल्म सोसाइटी’. आज जब तकनीकि ने यह सुविधा दी है कि आठ-दस फ़िल्में आप अपनी जेब में रख कर चल सकते हैं. कहीं भी बैठ कर अपने लैपटॉप पर फ़िल्में देख सकते हैं तो भला फ़िल्म सोसाइटी में फ़िल्म दिखाने का क्या तुक है? है, जनाब, तुक है. खुद कहानीकार के मुँह से सुनिए, ‘असल काम जो वह करता, वह तो फ़िल्म क्लब के मार्फ़त किसी न किसी मुद्दे पर विमर्श के लिए लोगों को एक जगह इकट्ठा करने का ही था.’ तकनीकि ने हमें बहुत सुविधाएँ दी हैं मगर हमें अकेला कर दिया है, हमारा मिलना-जुलना समाप्त कर दिया है और मिले-जुले बिना विमर्श कैसे होगा? और विमर्श नहीं करेंगे तो हम विकास कैसे करेंगे? हमारे दिमाग के जाले कैसे साफ़ होंगे? संगठन कैसे बनेंगे? एकजुटता नहीं होगी तो असामाजिक अत्त्वों से कैसे लड़ा जाएगा? इसीलिए लोगों का एक स्थान पर जमा होना बातचीत करना अत्यावश्यक है. पटेल यह काम अपनी फ़िल्म क्लब के द्वारा करते हैं और इन मिल बैठने के दौरान जो कुछ घटित होता है उसे कहानी में पिरो कर एक खूबसूरत, मानीखेज रचना भी हमारे समक्ष प्रस्तुत करते हैं. उस कहानी पर कुछ देर बाद.
सत्यनारायण पटेल के यहाँ में हमें भूमंडलीकृत आर्थिक उदारीकरण व्यवस्था के तहत होने वाली आम आदमी की विवशता के दर्शन होते हैं. व्यवस्था के समक्ष आदमी पंगु हो गया है. लेकिन पटेल के पात्र चुप हो कर बैठते नहीं हैं. वे संघर्ष करते हैं. जब तक संघर्ष जारी है हार मानने, निराश होने की जरूरत नहीं है. यही आशावाद उनकी कहानियों को सकारात्मक रुख देता है. उनकी कहानी के पात्र उल्लसित और ऊर्जा से भरपूर होते हैं. ‘लाल छींट…’ का डूंगा कहीं ‘पूस की रात’ के नायक की याद दिलाता है. दोनों अभावों के बावजूद खुश हैं. एक दूसरों के खेत (सत्ता) के नष्ट होने से, दूसरा कंपनी के डूब जाने से. दोनों खुश हैं क्योंकि अब उनका शोषण करने वाले कमजोर पड़ गए हैं. हालाँकि डूंगा मासूम है उसे शातिर खेल की जानकारी नहीं है.
गाँव से शहर पलायन, एक अन्य सत्य है, हमारे समाज का. इस विस्थापन में जीवन आमूल-चूल बदल जाता है. इस प्रक्रिया में स्त्री-पुरुष दोनों को समायोजन की प्रक्रिया से हो कर गुजरना पड़ता है. दोनों साथ शहर आते हैं लेकिन दोनों का जीवन अलग-अलग बदलता है. पुरुष पहले भी बाहर रहता था, अब भी बाहर रहता है. ‘वह नौकरी से समय से फ़ारिग हो जाता तो दोस्तों के साथ बैठ जाता. दोस्तों के साथ खाता-पीता और बहस करता. व्यवस्था को कोसता. उसे बदलने का सपना देखता.’ (एक था चिका, एक थी चिकी) मनमर्जी से घर आता है. लेकिन स्त्री का घर गाँव में बहुत फ़ैला हुआ होता है, उसका आँगन, उसका पनघट बहुत विस्तृत हुआ करता है. जहाँ वह चार लोगों के बीच रहती है, चार लोगों से हँसती-बोलती है, लड़ती-झगड़ती है, दु:ख-सुख साझा करती है. शहर उसका घर-आँगन, पनघट, पैर के नीचे की धरती और सर के ऊपर का खुला आकाश सब उससे छीन लेता है. उसका जीवन दो कमरों के घर में सिमट कर रह जाता है.
रूपा एक ऐसी ही स्त्री है जो पति के साथ गाँव से शहर आ बसी है. गनीमत है कि शहर में पढ़ने के लिए उसके साथ दो बच्चे भी हैं. ननद का बेटा रोहित और बहन की बेटी पूजा. बच्चे और रूपा डीडी के राष्ट्रीय चैनल पर कितना समाचार सुने? उस पर बहुत कम अच्छे-चटपटे धारावाहिक आते हैं और केबल कनेक्शन लेने की उनकी सामर्थ्य नहीं है. भले ही केबल कनेक्शन न ले पाना मजबूरी हो मगर इसका लाभ तो मिलता ही है. कैबल के अभाव में परिवार के छोटे-बड़े सदस्य मौका-बेमौका एक साथ बैठ हँस-बोल लेते हैं. समय काटने के लिए कथा-कहानी कह-सुन लेते हैं. बच्चे रूपा से कहानी सुना करते हैं, वह भी जब रिकामी (फ़ुरसत) में होती है उन्हें कोई लोककथा, किस्सा या मनगढ़ंत केणी (कहानी) सुनाती है. सत्यनारायण पटेल रूपा की केणी के बहाने हमें रूपा या यूँ कहें अपनी कहानी ‘एक था चिका एक थी चिकी’ के रूप में सुनाते चलते हैं.
इस कहानी में वे भारतीय समाज की वाचिक परंपरा को पुष्ट करते हैं. लोक विश्वास, लोक परम्परा से जोड़ते हुए गाँव के समंवित जीवन को उकेरते हैं, जहाँ सबकी पहचान जुदा हो कर भी एक-दूसरे से जुड़ी थी. रूपा के कहानी कहने में भरपूर कथा रस है. वह बच्चों को कहानी सुना रही है और इसी बीच पटेल हमें रूपा की कहानी सुनाते चलते हैं. कहानी का एक गुण होता है कहने वाले की कल्पनाशीलता. रूपा (पटेल) कल्पना की उड़ान उसे अतिश्योक्ति दूसरे शब्दों में सर्रियलिज्म तक ले जाती है. एक उदाहरण, ‘जब इस बबूल पर नया घोंसला बनाने की जगह नहीं बचती होगी, तब सभी पक्षी मिलकर बबूल की डगालों को खींच-तान कर लंबी कर लेते होंगे. कोई कहता – जब डगालों पर घोंसले ठसठस हो जाते होंगे, तब खुद बबूल अपनी विशाल बाँहों को और फ़ैला देता होगा ताकि उस पर जन्मा पक्षी घोंसले की तलाश में कहीं और न भटके.’ काश ऐसा ही हमारे गाँवों-शहरों में होता. बबूल काँटों वाला पेड़ है लेकिन यहाँ घोंसलों वाला बबूल है, आज के समय-समाज का पर्याय. यहाँ बबूल बरगद की तरह विशाल है जिसका तना खूब चौड़ा और ऊँचा…जैसे गाँव में बाखलें और बाखलों में घर. बबूल पर लंबी-लंबी असंख्य डगालें. यहाँ सब एक घाट पानी पीते हैं, अगड़े-पिछड़ों जैसा कोई मसला नहीं. वैसे कूँए की जगह तालाब ज्यादा जमता. फ़िल्मी अंदाज में आँखों देखा हाल सुनाती इस कहानी में हास्य, नई उपमाएँ और लिव-इन-रिलेशनशिप का छौंक भी है. मगर इसमें केवल कल्पना नहीं कटु यथार्थ भी है. इतनी सरस स्त्री का सारा रस पति के आने की आहट मात्र से सूख जाता है. यहीं कहानी लोककथा से अचानक आधुनिक संदर्भ पकड़ती है और स्त्री विमर्श के द्वार खोलती है. मार्मिक दृश्य है यहाँ, जहाँ मर्द पीकर घर आता है. पत्नी अत्याचार सहती है और बच्चे भयभीत हो कर सोने का नाटक करते हैं.
‘भेम का भेरू माँगता कुल्हाड़ी ईमान’, ‘लाल छींट वाली लुगड़ी का सपना’ के बाद ‘काफ़िर बिजूका उर्फ़ इब्लीस’ सत्यनारायण पटेल का तीसरा कहानी संग्रह मेरे सामने है. इस संग्रह में कई कहानियाँ कहानियाँ न हो कर किस्से हैं. वही किस्से जो लोक में मूल्यों और संवेदनाओं को स्थापित करते हैं. लोगों के संकल्प और मजबूत इरादे ऐसे-ऐसे बाँध बाँधते हैं जो सदियाँ बीतने के बाद भी लोगों को पुल पार कराते हैं. ये कहानियाँ बताती हैं कि समाज एक सतत बहती धारा है जिसका स्वरूप बदलता रहता है मगर दु:खद यह है कि विकास के नाम पर, परिवर्तन के नाम पर सब कुछ कल्याणकारी नहीं है, शुभ नहीं है. गाँवों का कस्बों में, कस्बों का शहरों में और शहरों का…शायद जंगल में बदलना जारी है. इस संग्रह की कहानियों में वे कई बार बताते हैं कि हाट-बाजार,व्यापारी, खरीद-फ़रोख्त पहले भी होती थी और आगे भी होगी. कहानियाँ कहती हैं कि हाट-बाजार पहले भी थे, व्यापारी पहले भी थे मगर पहले लोग पैसा-कौड़ी से ज्यादा ईमान और इंसानियत को तवज्जो देते थे. मूल्यों का क्षरण हुआ है, संवेदनाओं का ह्रास हुआ है. मगर निराश होने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि लोगों ने हार नहीं मानी है. असफ़लताओं के बावजूद लोग संघर्ष करना भूले नहीं हैं. जब तक संघर्ष का जज्बा है, तब तक चिंता की बात नहीं है.
पहले भी पाजेब न भींगने वाले बाँध और पुलिया बनाने वाले एकाध ही होते थे, आज भी एकाध ही हैं. हाँ, उनकी संख्या बढ़ने के बजाए घटी है. आज भी दशरथ माँझी का जीता-जागता उदाहरण हमारे सामने है. पत्नी इलाज के अभाव में मर गई क्योंकि बीच में पहाड़ था लेकिन दूसरे न मरे इसलिए उसने पहाड़ ही काट दिया. पहले भी एक प्रेमी ने प्रेमिका से मिलने के लिए पहाड़ काटा था मगर वह निजी स्वार्थ का उपक्रम था. दशरथ माँझी और सत्यनारायण की कहानी ‘घट्टी वाली माई की पुलिया’ की मनकामना सार्वजनिक हित के लिए काम करते हैं. वे व्यष्टि से समष्टि की ओर जाते हैं. सरकार के भरोसे सब कुछ नहीं छोड़ा जा सकता है/ नहीं छोड़ा जाना चाहिए. सत्ता से हाथ जोड़ कर, गिड़गिड़ा कर प्रार्थना करने से अच्छा परिश्रम करना है. मनकामना का पति कासीराम सर्पदंश से मर जाता है. बाढ़ के कारण उसका समय पर इलाज नहीं हो पाता है. इलाज के लिए जाते हुए वह डूब कर मर जाता है.
मनकामना पर कठिनाइयों का पहाड़ टूट पड़ता है. सरकारी अत्याचार बढ़ता जाता है. गाँव के युवकों की अपनी सुरक्षा समिति सरकारी अमलों की जेब भरने नहीं देती है तो उसे ही अवैधनिक करार कर देना सरकारी अधिकारियों के लिए कौन बड़ी बात है. पति के जाने के बाद मनकामना का सब कुछ चुला लिया गया. लेकिन वह हिम्मत नहीं हारती है समाज में अपना स्थान बनाती है. लोग उसका आदर करते हैं वह जो कहती है करने को तत्पर हो जाते हैं. और एक दिन वह लोगों के सहयोग से खाल पर पुलिया बनवाती है. सरकारी अमलों ने यह कैसे करने दिया? शायद लोगों की एकजुटता के सामने डर गई, परास्त हो गई. मनकामना मजदूरों की चिंता करती है, खुद उनके साथ मिल कर काम करती है. उनको मजदूरी देती है, उनकी सुख-सुविधा का ध्यान रखती है. अभी कुछ दिन पहले यहूदी जीवन पर आधारित एक फ़िल्म देखी थी ‘विटनेस’ उसमें भी गाँव के सारे पुरुष मिल कर एक दिन में एक पूरा घर बना कर खड़ा कर देते हैं. औरतें सहायता करती हैं. वे उनके खाने-पीने का ध्यान रखती हैं. घट्टी वाली माई भी यही करती है. इस तरह सार्वजनिक उपक्रम से पुलिया बनती है. राजा-महाराजाओं के इतिहास में इस पुलिया या इसको बनाने की प्रेरणा का कहीं जिक्र नहीं है. ऐसी कथाएँ लोक में जीवित रहती हैं और पटेल जैसे कहानीकार उसे पीढ़ी-दर-पीढ़ी पहुँचाने का महती काम करते हैं.
धूर्तता आज के सत्ताधारियों की बपौती नहीं है. घट्टी वाली माई का राजा भी जमाने के हिसाब से बड़ा धूर्त था और उसके मंत्री बड़े घाघ थे. न तब बिजली थी न आज मिलती है. मंद-मंद मुस्काते और हर हाल में गर्दन हिला कर समर्थन देते राजा को पहचानना कठिन नहीं है. पटेल हास्य और व्यंग्य की चौंक लगाते चलते हैं. यही सार्थकता होती है किस्सा-कहानियों कि वे कभी पुराने नहीं पड़ते हैं. जिन किस्सों-कथाओं को हम पूरी तरह से जानते हैं जिनकी कहानी हमें कंठस्थ होती है उन्हें देखने-सुनने-पढ़ने में हमे ज्यादा मजा आता है. यह तो कथा रस है जो हमें बाँधे रखता है. इन कहानियों में भरपूर कथारस है, लय है, जीवन स्पंदन है. ‘नमक भीगेगा नहीं, तो गलेगा नहीं. गलेगा नहीं, तो बहेगा नहीं. बहेगा नहीं, तो वाजिब दाम पर बेच सकेगा! वाजिब दाम पर बेचेगा तो कोई बद्दुआ नहीं देगा.’ कितनी सीधी-सी बात है. और इस सीधी-सी बात के लिए बनवाना होगा बाँध. सो बनता है बंजारा बाँध. ऐसा बाँध जिस पर चलने से पाजेब नहीं भींगती है. किस्सा वाचिक परंपरा का हिस्सा है अत: उसमें विभिन्नता, वैरिएशन होता ही है. किस्सों के कई वर्सन, कई संस्करण मिलते हैं. यहाँ भी दो तरह की कथाएँ प्रचलित हैं.
एक किस्से में स्वयंवर भी है, जहाँ लड़की विवाह की शर्त रखती है और पिता को पूरा विश्वास है कि छोरी होशियार है, उसे जो सही लगेगा, वही जवाब देगी. बेटी का निर्णय पिता को स्वीकार्य है. क्योंकि वह दकियानूसी नहीं था. काश हर पिता अपनी बेटी पर इतना भरोसा, इतना गर्व करता. कहानी आज की खाप पंचायतों के मुँह पर तमाचा है. प्रेम व्यक्ति को शक्ति देता है, इस अवस्था में व्यक्ति कठिन-से-कठिन काम करने को तत्पर रहता है. समाज में प्रचलित है, प्राण जाएँ पर वचन न जाए. इसी चक्कर में महाभारत के भीष्म अपनी भीष्म प्रतिज्ञा में सर्वनाश कर बैठे, लेकिन कोई बंजारे को सलाह देता है, न हो पूरा पर्ण तो न हो, प्रण के पीछे प्राण देने की जरूरत नहीं.
मगर बंजारन की शर्त लोगों के मन में कैसी-कैसी तस्वीर उत्पन्न करती है. जितने लोग उतनी बातें. हास्य और जनमानस की उत्सुकता से सराबोर है यह हिस्सा. कोई बंजारन की पाजेब देखना चाहता है तो कोई खुद बंजारन को. बड़ा रसदार चित्रण है. सारे पुरुष हैं जो इस बहाने बंजारन को देखने की आस लगाए बैठे हैं. यहाँ भी बंजारा खुद मजदूरों के साथ मिल कर बाँध बनाने का काम करता है. और जब बाँध बन कर तैयार है बंजारन के दुल्हन रूप का बड़ा सुंदर शब्द चित्र खींचता है कहानीकार. और पाजेब भींजेगी या नहीं इस पर होने वाली सट्टेबाजी का चित्र भी बड़ा मनोरम बन पड़ा है. सट्टेबाज तो लहरों पर बाजी लगाते हैं. जिसकी जैसी क्षमता थी, वैसी आपस में शर्तें लगने लगी थीं. बंजारन जब बाँध पर रखने को पहला कदम उठाती है तब तो धरती-आकाश, पशु-पक्षी सबकी सांसें रुक गई. अग-जग सब थम गया. पूरी कहानी में दो बातें खलीं. पहली मीन या मछली के स्थान पर मत्स्य शब्द का प्रयोग. दूसरा कहानी का अंतिम पैराग्राफ़. अंतिम अनुच्छेद में कहानीकार कहानी कहना छोड़ कर उपदेशक बन गया है. मेरे ख्याल से यहाँ उससे चूक हो गई है. इस अंत के बिना कहानी अधिक मार्मिक, अधिक रसदार, अधिक मानीखेज होती. यही चूक अगली कहानी ‘घट्टी वाली माई की पुलिया’ में भी हुई है. कहानी भाषण या निबंध नहीं होती है. कहानी का अंत कहानी की तरह होना चाहिए ऐसा मुझे लगता है.
इस संग्रह की ‘ठग’ कहानी भी लोककथा है. विजयदान देथा लोककथाओं का बड़ा सुंदर और सटीक प्रयोग करते हैं, उसे आधुनिक संदर्भ भी देते हैं. सत्यनारायण पटेल भी लोककथाओं का अपनी कहानियों के लिए उपयोग करते हैं. यहाँ वे ठग को ठग से मिलाते हैं और एक मजेदार किस्सा गढ़ते हैं. दोनों खूब राइम्स में बात करते हैं. व्यापारियों के लालच का अंत नहीं है. इस लोककथा का पाठक अचानक खुद को आज के बाजार में खड़ा पता है. आज का बाजार खुद एक बहुत बड़ा ठग है वह ठगने से किसी को नहीं छोड़ता है. पहले के ठग आज के दलाल में परिवर्तित हो गए हैं और आज व्यापारी राजा से साठ-गाँठ करके जल, जंगल, जमीन, खेत-पहाड़ सबको दूह रहे हैं. लोक कथा बताती है कि व्यापारियों के मन में पनपते लालची कीड़ों को मारना मुश्किल है. आज तरक्की का पहिया देश की गर्दन पर से गुजर रहा है और न जाने कब तक गुजरता रहेगा. ‘ठग’ लंबी कहानी होते हुए भी उबाऊ नहीं है, न ही कहीं रसभंग होता है.
मालवा एवं मालवी जीवन उकेरने के कारण पटेल पाठकों को कई नए शब्द, नए मुहावरे, नई उपमाएँ थमाते चलते हैं. वे स्थानीय मुहावरों और प्रतीकों का प्रयोग बड़ी सरलता से करते हैं और कहीं खटकते नहीं हैं, कथारस कहीं भंग नहीं होता है. ‘चिकी की चोंच सोयाबीन के दाने की तरह पीली’ इसके पहले शायद ही किसी को नजर आई हो. इसी तरह गाड़ीगरवट, रिकामी, केणी, तीस, अटाटूट, नए-नए शब्द हिन्दी की शब्द संपदा की वृद्धि करते हैं. पटेल की कहानियाँ कथा-प्रवाह से जीवंत हैं.
‘काफ़िर बिजूका उर्फ़ इब्लीस’ संग्रह की कहानियाँ अलग-अलग पत्रिकाओं, यानि शुक्रवार’, पाखी’, बया, उद्भावना’ आदि पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं. मगर इन्हें एक साथ संग्रह में फ़िर से पढ़ना अच्छा लग रहा है. इन कहानियों की प्रकाशन तिथि भी दी हुई है इससे सत्यनारायण पटेल के लेखन का ग्राफ़ बनाया जा सकता है, साथ ही यह शोधार्थियों के लिए भी सहायक होगी. संग्रह की अंतिम कहानी के नाम पर ही संग्रह का शीर्षक है. ‘काफ़िर बिजूका उर्फ़ इबलीस’ तथा ‘न्याय’ कहानी संग्रह में अन्य कहानियों से भिन्न मिजाज की कहानियाँ हैं. ये लोक कथाएँ नहीं हैं, न ही इनमें कल्पना की उड़ान है, ये हमारे समाज का आज का चेहरा दिखाती हैं और आज के यथार्थ का चेहरा बड़ा भयावह है. ‘न्याय’ कहानी के अपने मंतव्य के लिए वह पाठक को कहानी के प्रारंभ में ही तैयार कर लेता है. आज की सत्ता-प्रशासन की पहचान कराता यह यथार्थ हमारे समाज का यथार्थ है. यह एक बहुत असंवेदनशील लेकिन राजनैतिक कहानी है.
हम बात करेंगे ‘काफ़िर बिजूका उर्फ़ इब्लीस’ की. यह कहानी लिख कर सत्यनारायण पटेल प्रेमचंद के पंच परमेश्वर की बात पर खड़े नजर आते हैं. वे बिगाड़ के भय से ईमान की बात कहने से नहीं डरते हैं. इस कहानी को लिखने के अपने खतरे हैं. पोलिटिकली करेक्ट होने के चक्कर में इन बातों को जानते-समझते हुए भी कहानीकार अपनी कलम का हिस्सा बनाने से अक्सर कतराते हैं. मगर पटेल ने यह जोखिम उठाया है. यह एक काफ़ी लंबी कहानी है, सत्यनारायण पटेल लंबी कहानी भली-भाँति साधने की क्षमता रखते हैं. अभी-अभी मैंने एक बहुत महत्वपूर्ण स्पेनिश फ़िल्म देखी जो इतिहास पर आधारित है. फ़िल्म का नाम है, ‘अगोरा’. इस फ़िल्म को देखते हुए मुझे बार-बार यह कहानी याद आ रही थी. धर्म का इतना अधिक दुरपयोग हुआ है कि धर्म का नाम लेना भी गुनाह हो गया है. सत्ताधारी सदा से धर्म का मनचाहा अर्थ बताते और करते रहे हैं. चाहे वह कोई भी धर्म हो.
यह कहानी बताती है कि प्रोफ़ेसर होने से ही किसी के दकियानूसी विचार नहीं बदल जाते हैं. सांप्रादायिक ताकतें छद्म के साथ समाज में फ़ैली हुई हैं. इस कहानी में कहानीकार कई मानीखेज प्रश्न उठाता है. वह पूछता है ‘क्यों नहीं हो सकती बात? जब ब्रह्मांड में प्रकट-अप्रकट हर चीज पर की जा सकती है बात, तो फ़िर कोई फ़िल्म, किताब, बाइबिल, गुरुग्रंथ साहिब, गीता, रामायण (सबको मालूम है इन सब पर बात हो सकती है, होती है. शायद भविष्य में न हो सके. वह अंधकारपूर्ण समय होगा.) या फ़िर हो तथाकथित पवित्र पुस्तक… उस पर क्यों नहीं की जा सकती बात? जिस पर बात न हो, फ़िर उसका जीवन में दखल भी क्यों हो?’, ‘अब कोई हिन्दू को तरक्कीपसंद हिन्दू, ईसाई को तरक्कीपसंद ईसाई और मुस्लिम को तरक्कीपसंद मुस्लिम समझता रहे, तो किसी का क्या दोष?’ आगे वह बात क्लीयर भी कर देता है, ‘भई फ़ंडा क्लीयर होना चाहिए – इंसान या तो तरक्कीपसंद है या नहीं.’ बहुत सारे लोगों के गले यह बात नहीं उतरेगी. इसके आगे का वाक्य और अधिक मानीखेज है. ‘अगर तरक्कीपसंद है तो सिक्ख, ईसाई, हिन्दू और मुस्लिम जैसा कुछ नहीं.’
अक्सर व्यक्ति के पहनावे-उढ़ावे से लोगों को गलतफ़हमी हो जाती है जैसा कि उर्दू-अरबी के प्रोफ़ेसर हमजा कुरैशी को देख-सुन कर लोगों को हो जाती थी. उनको देख कर कहीं से वे कट्टरपंथी नहीं लगते हैं. ऊपर से आधुनिक वेश-भूषा का होने के बावजूद भीतर से वे बड़े कट्टर विचारों वाले हैं. हर समुदाय में ऐसे लोग मिलते हैं. यह केवल मुस्लिम समुदाय की बपौती नहीं है. प्रोफ़ेसर एक लड़के द्वारा लड़की के ऊपर तेजाब फ़ेंकने में गोरवान्वित अनुभव करते हैं, वे खुद को धर्म और संस्कृति का संरक्षक समझते-मानते हैं. वे शहर की तमाम गतिविधियों में शिरकत करते हैं लेकिन अपने इर्द-गिर्द गाढ़े और अबूझ रहस्य का जाल ताने रखते हैं. उनकी बातें लोगों को चमत्कृत करतीं. लेकिन कोई भी व्यक्ति बहुत दिन तक मुखौटा नहीं लगाए रख सकता है. वे बुद्धिमान हैं इसमें कोई दो राय नहीं है. बिजूका उन्हें बिजूका फ़िल्म क्लब की स्क्रीनिंग के समय बुलाता. फ़िल्म देखने के बाद वे बड़ी साफ़-सुलझी बातें करते दुनिया भार की राजनीति पर बोलते. लेकिन अफ़सोस ऐसे अक्लमंद लोग भी धर्म भीरू होते हैं, धर्म के नाम पर आँख मूँद कर जीवन व्यतीत करते हैं, वे अपनी जिद के सामने कोई तर्क नहीं सुनते हैं. ‘ओसामा’ और ‘स्टोनिंग’ फ़िल्म देख कर प्रोफ़ेसर और उनके शागिर्द भड़क जाते हैं. सांप्रादायिक सदभाव सब हवा हो जाता है. बिजूका भी डर जाता है क्योंकि हमारे यहाँ संप्रदाय की आग पेट्रोल की आग की तरह भभकती है. और जब ‘स्टोनिंग’ दिखाई जा रही बगल के शहर में सांप्रादायिक तनाव फ़ैला हुआ था.
यह कहानी जनसंचार माध्यमों का सकारात्मक उपयोग दिखाती है. फ़िल्में लोगों में जागरुकता लाने, उनमें विचार शक्ति भरने का बहुत अच्छा माध्यम हो सकती हैं. आज के समय में भी ये मिल बैठने, विचार-विमर्श का अवसर प्रदान करती हैं. आवश्यकता है इसका उचित उपयोग करने की. इसी तरह बिजूका फ़ेसबुक, ब्लॉग, एसएमएस, मोबाइल आदि आधुनिक सोशल नेटवर्किंग का प्रयोग क्लब की गतिविधियों को बढ़ाने और उनकी सूचना देने के लिए करता है. फ़िल्म क्लब में दिखाई गई अंतरराष्ट्रीय फ़िल्में कहानी को वैश्विक परिप्रेक्ष्य देती हैं.
कहानी बिजूका अर्थात कहानीकार का जीवन मकसद भी विस्तार से बताता है. वह भले ही बिजूका कहलाता हो मगर वह बिजूका से उलट स्वभाव का है, कभी भी सोचना शुरु कर सकता है/ कर देता है. वह अपनी शक्ति भूला हुआ हनुमान है, इतना ही नहीं उसका जामवंत भी उसी के भीतर है. वह भ्रष्ट व्यवस्था में आग लगाएगा. इसी उधेड़-बुन में उसे रातों को नींद नहीं आती है. उसके बिस्तर-पलंग में रखी किताबों के पात्र उससे बातें करते हैं. खुद वह व्यक्ति से समष्टि की बात करता है, संगठन की बात सोचता है. करोड़ों-अरबों बिजूका मिल कर देश-दुनिया की आत्मा बचाने की बात सोचता है और अपने तई लोगों को एकजुट करने का प्रयास करता है. उसके भीतर सदैव कोई धुन बजती रहती है, सामूहिक मुक्ति की धुन बजती रहती है. उसे यह भी मालूम है कि सत्ताधारी और स्वार्थी लोग चाहते हैं कि लोग बिजूका ही बने रहें वे हाड़-मांस के लोगों की तरह सोचने-समझने का काम न करें. लेकिन वह खुद ऐसा करता है उसका दिमाग दिन-रात सपने बुनता रहता है.
शुरुआत में ही कहानी ‘ग्लोबल गाँव के उन प्रेमी-युगलों को समर्पित (है), जो भ्रष्ट और हत्यारी व्यवस्था के जातीय शुद्धतावादियों और धार्मिक इब्लीसों द्वारा मारे गए, और अभी मारे जाने बाकी हैं.’ कहानी बीच में काजी साहब का अपनी बेटी को विधर्मी से प्रेम करने और गर्भवती होने पर मार डालने की बात भी करती है. अपने अतीत से कोई नहीं भाग सकता है काजी भी चाह कर भी इससे आउट ऑफ़ रीच नहीं हो पाते हैं. न जाने आए दिन हम ऐसी कितनी घटनाओं की बात सुनते-देखते-पढ़ते हैं. खाप पंचायत केवल हरियाणा में नहीं हैं. अरुंधति राय का एकमात्र उपन्यास इसको चित्रित करता है. यहाँ भी काजी, डॉक्टर अंसारी और प्रोफ़ेसर सब मिल कर एक मासूम की जान ले लेते हैं. उसका गुनाह इतना ही था कि उसने प्रेम किया था. यह सब जगह होता है, सब धर्मों, सब समुदायों में हो रहा है. ममता का पिता इसी अपराध (?) के लिए ममता का गला दबा कर उसे समाप्त कर देता है.
कहानी कई बार लार्जार दैन लाइफ़ सीन दिखाती है. पढ़ कर कभी नागालैंड की सत्ता के दमन का विरोध करती नंगी स्त्रियों की याद आती है, कभी निराला की शक्ति पूजा की. यह मनुष्य मन के दु:ख-दर्द की, सघन पीड़ा की, संवेदनाओं की कहानी है, मनुष्य के असंवेदनशील होते जाने की कहानी है, उसकी जिजीविषा, उसके संघर्ष की, उसके हार न मानने की कहानी है. जिद से अपनी अतार्किक बातों पर अड़े रहने और तर्क से अपनी बात रखने वालों की कहानी है. ‘काफ़िर बिजूका उर्फ़ इब्लीस’ समाज का आईना है, मूल्यों-संघर्षों को जीवंत करने का प्रयास है. कहानी पूछती है कि जब प्रोफ़ेसर और उनकी हाँ-में-हाँ मिलाने वाले एक साथ मिल कर गलत बात के लिए खड़े हो सकते हैं, तो बेताल के तरक्कीपसंद साथी बहस के दौरान क्यों खिसक लेते हैं? बेताल फ़िर अपनी कॉलोनी में फ़िल्म दिखाने की हिम्मत क्यों नहीं जुटा पाता है? कौन देगा शबनम, प्रकृति, ईशा, सोराया, अजीज को न्याय? कौन देगा इनके प्रश्नों के सटीक उत्तर? जहाँ दानवता के पैशाचिक अत्याचारों से मानवता कराह रही है वहाँ एक नहीं अनेक जीते-जागते, सोचने-विचारने वाले बिजूकाओं की जरूरत है. इन्हें एकजुट करने का प्रयास कहानी करती है.
सत्यनारायण पटेल की कहानियाँ समय-समाज में व्याप्तियों का चित्रण हैं. ये कहानियाँ कथा-किस्सों के माध्यम से सोचने-समझने, विचार-विमर्श का आमंत्रण देती हैं. वैचारिक हस्तक्षेप का आग्रह करती हैं. आगे भी पाठक को कहानीकार सत्यनाराण पटेल से बहुत अपेक्षाएँ हैं. पटेल ने अपेक्षाएँ जगाई हैं, उन पर इस दायित्व निर्वाह का गुरुतर भार है.____विजय शर्मा, ३२६, न्यू सीताराम डेरा, एग्रीको, जमशेदपुर ८३१००मो. ०९९५५०५४२७१, ईमेल: vijshain@gmail.com