हवा.
थिर है हवा.
फिर है हवा.
तेज़ तेज़ –
चंचल हैं पत्तियाँ
स्मृतियां, तितलियाँ
आओ बैठो
उड़े केश कुछ.
सरसराए वस्त्र.
आओ !
बैठें, इस बेंच पर.
हवा, आओ
दृश्य यह, किसी धूप-छांही राह का,
दोपहर का :
छतरी लिए घर से
निकलती स्त्री कोई,
खरीदती घर के सामने सब्जी
या फिर कुछ और.
जाती बाज़ार.
मिलने किसी को पड़ोस में.
जाने कब से,
जाने कब से,
दिख जाता सामने तो
करते उस पर क्षण भर तो
गौर !
स्मृति में रहा आता.
गहराता.
संग में उड़तीं, कुछ बोलतीं
चिड़ियाँ भी !
कितना अपूर्व!
क्या है फूलों के पास?
जो कहीं और नहीं.
रंग हजारों में, सुगन्धियाँ बहारों में.
तितलियाँ, चिड़िया भी इतनी.
कहीं और नहीं !
क्या है फूलों के पास ?
संकेत प्रेम के.
कुशल क्षेम के.
ढेर उपमाओं के
सज्जा शरीरों की,
कोमलतम अंगों की-
उनसे बढ़कर कहीं और नहीं.
जो है फूलों के पास,
कहीं और नहीं!
जाते हम बार-बार
लौट उन्हीं के पास.
पास में उनके जो,
कहीं और नहीं!
पलाश के वे लाल लाल,
बहुत लाल फूल !
दहकते, प्लेटफार्म के एक छोर पर,
डिब्बे से थोड़ा सा आगे–
एक दोपहर के.
गर्मियों की बिल्कुल शुरुआत के.
आते याद.
आते याद,
जाने किस बात के!
गया नहीं उन्हें भूल !
फूल पलाश के,
लाल लाल फूल !!
झर रहें हैं फूल,
फूल हरसिंगार के.
रहे झरते रात भर वे
झर रहें हैं प्रात भर वे-
झर रहें हैं फूल,
बे आवाज़.
झर रहे रह रह
हवा में बह बह
हरसिंगार के !
उठी सुंदर बहुत भीनी महक
चार चिड़ियाँ भी रहीं हैं चहक
झर रहें हैं फूल
फूल शिउली के !
फूल हरसिंगार के !!
झर रहें हैं.
(शिउली : असम, बंगाल में उनका यही नाम है.)
बहुमंजिली इमारतों के परिसर में-
एक से दूसरी के बीच,
दिन भर में,
कई बार वह आता-जाता
उड़न-रेखा बनाता है.
फर फर की ध्वनियां हैं
कुछ देर गूंजती.
वह उदग्र ग्रीवा से
सब कुछ निहारता-
सुबह से शाम तक,
कभी इधर
कभी उधर डोलता,
थोड़ा सुस्ताता है.
स्मृतियां उड़तीं हमारी भी,
सुस्तातीं!
दोनों के बीच,
कुछ अदृश्य, एक नाता है.
एक बहुत पुराने परिचित पीपल वृक्ष के नीचे एक दोपहर
कुछ पीपल पल हैं ये,
दौड़ रहीं उन पर गिलहरियाँ.
कुछ पीपल पल हैं ये !
हवा बहुत हल्की है
चमक रही धूप में,
चमक रही हैं उसमें
कितनी दुपहरियां-
अपने ही रूप में!
घना तना, सघन, लिए
भार कई डालों का.
स्थिर है, मौन!
कानों में गूंजा, पर,
“कौन, यह कौन?”
मुग्ध चकित चित्त .
पल हैं ये,
कुछ पीपल पल हैं ये .
जब भी खोली आंखें,
वह बोली
नहीं भी बोली तो
लगा बोली !
यह जाना आज
जब, खोलने के साथ ही दरवाज़ा
बोली वह !
आती वह बिजली चमकाती,
हहराती पेड़ों को, देती झकझोर.
बजते हैं बाजों से खिड़की दरवाज़े,
आती जब, छाती घनघोर
जितना बरसती है बाहर वह,
भीतर भी कभी-कभी उतना ही
उठता है शोर।
थम जाता, फिर उठता,
कैसी तो जल-बूंदें तेज तेज,
लगता है सूप लिये,
रहीं कुछ पद्दोर!
टटोलती हूँ, पा लेती हूं,
स्मृति में अटकी, ताक पर रखी कोई,
अपनी वह चीज !
थोड़ा भटकती, अटकती जरूर हूं,
पर, यह गई हूं जान
धुर पृथ्वी आकाश यह जो कुछ है,
उससे है मेरी कुछ तो पहचान!
फिर भी, भूल जाती हूं ना मौसमों-ऋतुओं
के भी
आते वे लाते फल-फूल कुछ,
कुछ आते, मुझ तक भी.
चखती हूं, हूँ बुदबुदाती कुछ
कुछ को सुन पाती हूं,
कुछ को नहीं पाती हूं सुन!
आई छिपकली दीवार पर,
लग जाते कुछ को हटाने-भगाने में
मैं उसको देखती, चलती दीवार पर,
इधर फिर उधर!
झुकी हुईं डालें झुक आतीं और
नीचे को, देतीं छाया सघन !
चाहें तो बना लें उन्हें झूला.
नीचे, इतना नीचे,झुक आतीं,
चाहे तो अपना बना ले उन्हें,
कोई राह भूला.
कर ले स्पर्श छाँह उनकी.
झुक आतीं,पत्तियां, टहनियाँ कुछ,
आतीं उतर नीचे ज़मीन पर,
चीटियाँ, गिलहरियाँ,पत्ते कुछ सूखे हुए,
छू लेते उनको !
झुकी हुईं डालें
झुक आतीं
देती झलका
फूले फल फूल.
देखो,प्रसन्न कितनी,
रहीं हैं हवा में
वे झूल !
सिर्फ़ सूर्य ही जानता है,
कि कितने वर्षों तक लगती रही है मुझे धूप.
सिर्फ नदी ही जानती है कि कि
कितने वर्षों तक सका हूँ तैर उसमें.
सिर्फ़ पहाड़ ही जानता है, कि
कब तक चढ़ना उसमें संभव हुआ
मेरे लिए !
(या देखना उसे ऊपर, तलहटी से.)
सिर्फ वृक्ष ही जानता है, कि किन
किन बारिशों में, कब, मैंने
ली उसकी छाया.
सिर्फ़ धरती ही जानती है ,
कि कब तक संभाली उसने मेरी पदचाप!
सिर्फ वायु ही जानती है कि
कब तक बही उसमें मेरी भी श्वांस
सिर्फ आकाश ही जानता है,
कि कब तक उसे देखा मैंने,
जैसे कोई देखता है,
सुबह शाम दोपहर,
आकाश!!
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‘कवि, कथाकार, निबंधकार, कला समीक्षक और अनुवादक प्रयाग शुक्ल का जन्म 1940 में कोलकाता में हुआ था. उनके \’यह जो हरा है\’, \’इस पृष्ठ पर\’, \’सुनयना फिर न कहना\’ समेत दस कविता संग्रह प्रकाशित हैं. उनके तीन उपन्यास, पाँच कहानी संग्रह और यात्रा-वर्णनों की कई पुस्तकें भी हैं. कला पुस्तकों में \’आज की कला\’, \’हेलेन गैनली की नोटबुक\’ और \’कला की दुनिया में\’ उल्लेखनीय हैं. उनकी यात्रा पुस्तकों में \’सम पर सूर्यास्त\’, \’सुरगांव बंजारी\’ और \’ग्लोब और गुब्बारे\’ महत्वपूर्ण हैं.
उन्होंने बांग्ला से कई अनुवाद किए हैं. जिनमें रवींद्रनाथ ठाकुर की \’गीतांजलि\’ सहित जीवनानन्द दास, शंख घोष और तसलीमा नसरीन की कविताएं शामिल हैं. बंकिमचंद्र के प्रतिनिधि निबन्धों के अनुवाद पर साहित्य अकादमी का अनुवाद पुरस्कार प्राप्त हुआ. उनकी अन्य पुस्तकों में \’अर्धविराम\’ (आलोचना) और \’हाट और समाज\’ (निबंध संकलन) हैं. \’कल्पना: काशी अंक\’, \’कविता नदी\’, \’कला और कविता\’, \’रंग तेंदुलकर\’ और \’अंकयात्रा\’ उनकी संपादित पुस्तकें हैं.
उन्होंने बच्चों के लिए रुचि लेकर बहुत लिखा है. \’हक्का बक्का\’, \’धम्मक धम्मक\’, \’उड़ना आसमान में उड़ना\’, \’धूप खिली है हवा चली है\’, \’ऊंट चला भाई ऊंट चला\’ और \’कहां नाव के पांव\’ चर्चित बाल कविता संग्रह हैं. साहित्यिक और सांस्कृतिक आयोजनों के सिलसिले में उन्होंने देश-विदेश की बहुतेरी यात्राएं की हैं. वे राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की पत्रिका \’रंग प्रसंग\’ और संगीत नाटक अकादमी की \’संगना\’ के संपादक रह चुके हैं.’
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