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| फोटो संदीप नायक के कैमरे से |
चंद्रकांत देवताले
मध्यप्रदेश के विभिन्न राजकीय कालेजों में अध्यापन
जिन बड़े कवियों को पढ़कर हम बड़े होते हैं, उनके प्रति एक किस्म का श्रद्धा भाव हमेशा के लिए मन में बहुत गहरे पैबस्त हो जाता है. मेरे लिए चंद्रकांत देवताले ऐसे ही कवि हैं. जब आप उन्हें पढ़ते हैं तो बारंबार चकित होते हैं और कई बार श्रद्धा के साथ रश्क़ भी पैदा हो जाता है कि काश हम भी इस तरह सोच पाते, लिख सकते. देवताले ऐसे कवि हैं जिनसे मिलकर आप जिंदगी से भर जाते हैं. हिंदी में उन जैसा निश्छल और सरल कवि उनकी वय में मैंने नरेश सक्सेना को ही देखा है, हालांकिे दोनों में बहुत अंतर भी है, लेकिन मिलने पर प्रफुल्लता दोनों में बराबर देखने को मिलती है. करीब 25 बरस पहले देवताले जी की कविता से पहला परिचय हुआ था. तब तक मैं मुक्तिबोध जैसे अत्यंत कठिन कवि को पढ़ चुका था और सच कहूं तो उस वय में मुक्तिबोध को समझना तो क्या था, बस पाठ या कि पारायण करना था, जैसे अवधी जाने बिना भी देश भर में लोग तुलसी को पढ़ते रहते हैं. लेकिन मुक्तिबोध जैसी सघनता, बिंबों की लगातार आवाजाही और उस सबके बीच कवि की जिजीविषा के बावजूद देवताले जी की कविता में मेरे जैसे सामान्य कविता प्रेमी के लिए ऐसा बहुत कुछ था, जो सीखने, सोचने और समझने के लिए लगातार उनकी कविता को पढ़े जाने की मांग करता था.
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लकड़बग्घा हंस रहा है
मां पर नहीं लिख सकता कविता
यमराज की दिशा
कहना मुश्किल है
पर वह जताती थी जैसे ईश्वर से उसकी बातचीत होते रहती है
और उससे प्राप्त सलाहों के अनुसार
जिंदगी जीने और दुःख बर्दास्त करने का रास्ता खोज लेती है
दक्षिण की तरफ़ पैर कर के मत सोना
वह मृत्यु की दिशा है
और यमराज को क्रुद्ध करना
बुद्धिमानी की बात नही है
तब मैं छोटा था
और मैंने यमराज के घर का पता पूछा था
उसने बताया था
तुम जहाँ भी हो वहाँ से हमेशा दक्षिण में
माँ की समझाइश के बाद
दक्षिण दिशा में पैर करके मैं कभी नही सोया
और इससे इतना फायदा जरुर हुआ
दक्षिण दिशा पहचानने में
मुझे कभी मुश्किल का सामना नही करना पड़ा
मैं दक्षिण में दूर-दूर तक गया
और हमेशा मुझे माँ याद आई
दक्षिण को लाँघ लेना सम्भव नहीं था
होता छोर तक पहुँच पाना
तो यमराज का घर देख लेता
पर आज जिधर पैर करके सोओं
वही दक्षिण दिशा हो जाती है
सभी दिशाओं में यमराज के आलीशान महल हैं
और वे सभी में एक साथ
अपनी दहकती आखों सहित विराजते हैं
माँ अब नही है
और यमराज की दिशा भी अब वह नहीं रही
जो माँ जानती थी.
अंतिम प्रेम
जो बिना पछतावे के
पत्तियों को विदा कर चुका है
पानी की आवाज जिस विकलता के साथ
जीवन की याद दिलाती है
तुम इसी आवाज और इसी याद की तरह
मुझे उत्तेजित कर देती हो
कोई अन्तिम प्रेम के लिए तैयार खड़ा हो जाता है
मैं इस उजाड़ में इसी तरह खड़ा हूँ
मेरे शब्द मेरा साथ नहीं दे पा रहे
और तुम सूखे पेड़ की तरह सुन्दर
मेरे इस जनम का अंतिम प्रेम हो.
मेरी किस्मत में यही अच्छा रहा
दुनिया का सबसे ग़रीब आदमी
दुनिया का सबसे गरीब आदमी
दुनिया का सबसे गैब इनसान
कौन होगा
सोच रहा हूँ उसकी माली हालत के बारे में
नहीं! नहीं!! सोच नहीं
कल्पना कर रहा हूँ
मुझे चक्कर आने लगे हैं
गरीब दुनिया के गंदगी से पटे
विशाल दरिद्र मीना बाजार का सर्वे करते हुए
देवियों और सज्जनों
\’चक्कर आने लगे हैं\’
यह कविता की पंक्ति नहीं
जीवनकंप है जिससे जूझ रहा इस वक्त
झनझना रही है रीढ़ की हड्डी
टूट रहे हैं वाक्य
शब्दों के मलबे में दबी-फँसी मनुजता को
बचा नहीं पा रहा
और वह अभिशप्त, पथरी छायाओं की भीड़ में
सबसे पीछे गुमसुम धब्बे-जैसा
कौन-सा नंबर बताऊँ उसका
मुझे तो विश्व जनसंख्या के आँकड़े भी
याद नही आ रहे फिलवक्त
फेहरिस्तसाजों को
दुनिया के कम-से-कम एक लाख एक
सबसे अंतिम गरीबों की
अपटुडेट सूची बनाना चाहिए
नाम, उम्र, गाँव, मुल्क और उनकी
डूबी-गहरी कुछ नहीं-जैसी संपति के तमाम ब्यौरों सहित
हमारे मुल्क के एक कवि के बेटे के पास
ग्यारह गाड़ियाँ जिसमें एक देसी भी
जिसके सिर्फ चारों पहियों के दाम दस लाख
बताए थे उसके ऐश्वर्य-शानो-शौकत के एक
शोधकर्ता ने
तब भी विश्व के धन्नासेठों में शायद ही
जगह मिले
और दमड़ीबाई को जानता हूँ मैं
गरीबी के साम्राज्य के विरत रूप का दर्शन
उसके पास कह नहीं पाऊँगा जुबान गल जाएगी
पर इतना तो कह सकता हूँ वह दुनिया की
सबसे गरीब नहीं
दुनिया के सत्यापित सबसे धनी बिल गेट्स
का फोटो
अखबारों के पहले पन्ने पर
उसी के बगल में जो होता
दुनिया का सबसे गरीब का फोटू
तो सूरज टूट कर बरस पड़ता भूमंडलीकरण
की तुलनात्मक हकीकत पर रोशनी डालने के
लिए
पर कौन खींचकर लाएगा
उस निर्धनतम आदमी का फोटू
सातों समुंदरों के कंकड़ों के बीच से
सबसे छोटा-घिसा-पिटा-चपटा कंकड़
यानी वह जिसे बापू ने अंतिम आदमी कहा था
हैरत होती है
क्या सोचकर कहा होगा
उसके आँसू पोंछने के बारे में
और वे आँसू जो अदृश्य सूखने पर भी बहते
ही रहते हैं
क्या कोई देख सकेगा उन्हें
और मेरी स्थिति कितनी शर्मनाक
न अमीरों की न गरीबों की गिनती में
और मेरी स्थिति कितनी शर्मनाक
न अमीरों की न गरीबों की गिनती में
मैं धोबी का कुत्ता प्रगतिशील
नीचे नहीं जा सका जिसके लिए
लगातार संघर्षरत रहे मुक्तिबोध
पाँच रुपए महीने की ट्यूशन से चलकर
आज सत्तर की उमर में
नौ हजार पाँच सौ वाली पेंशन तक
ऊपर आ गया
फिर क्यों यह जीवनकंप
क्यों यह अग्निकांड
की दुनिया का सबसे गरीब आदमी
किस मुल्क में मिलेगा
क्या होगी उसकी देह-संपदा
उसकी रोशनी, उसकी आवाज-जुबान और
हड्डियाँ उसकी
उसके कुचले सपनों की मुट्ठीभर राख
किस हंडिया में होगी या अथवा
और रोजमर्रा की चीजें
लता होगा कितना जर्जर पारदर्शी शरीर पर
पेट में होंगे कितने दाने
या घास-पत्तियाँ
उसके इर्द-गिर्द कितना घुप्प होगा
कितना जंगल में छिपा हुआ जंगल
मृत्यु से कितनी दुरी पर या नजदीक होगी
उसकी पता नहीं कौन-सी साँस
किन-किन की फटी आँखों और
बुझे चेहरों के बीच वह
बुदबुदा या चुगला रहा होगा
पता नहीं कौन-सा दृश्य, किसका नाम
कोई कैसे जान पाएगा कहाँ
किस अक्षांश-देशांश पर
क्या सोच रहा है अभी इस वक्त
क्या बेहोशी में लिख रहा होगा गूँगी वसीयत
दुनिया का सबसे गरीब आदमी
यानि बिल गेट्स की जात का नही
उसके ठीक विपरीत छोर के
अंतिम बिंदु पर खासता हुआ
महाश्वेता दीदी के पास भी
असंभव होगा उसका फोटू
जिसे छपवा देते दुनिया के सबसे बड़े
धन्नासेठ के साथ
और उसका नाम
मेरी क्या बिसात जो सोच पाऊँ
जो होते अपने निराला-प्रेमचंद-नागार्जुन-मुक्तिबोध
या नेरुदा तो संभव है बता पाते
उसका सटीक कोई काल्पनिक नाम
वैसे मुझे पता है आग का दरिया है गरीबी
ज्वालामुखी है
आँधियों की आँधी
उसके झपट्टे-थपेड़े और बवंडर
ढहा सकते हैं
नए-से-नए साम्राज्यवाद और पाखंड को
बड़े-से-बड़े गढ़-शिखर
उडा सकते पूँजी बाजार के
सोने-चाँदी-इस्पात के पुख्ता टीन-टप्पर
पर इस वक्त इतना उजाला
इतनी आँख-फोड़ चकाचौंध
दुश्मनों के फरेबों में फँसी पत्थर भूख
उन्हीं की जय-जयकार में शामिल
धड़ंग जुबानें
गाफिल गफलत में
गुणगान-कीर्तन में गूँगी
और मैं तरक्की की आकाशगंगा में
जगमगाती इक्कीसवीं सदी की छाती पर
एक हास्यास्पद दृश्य
हलकान दुनिया के सबसे गरीब आदमी के वास्ते.
बाई दरद ले
तेरे पास और नसीब में जो नहीं था
और थे जो पत्थर तोड़ने वाले दिन
उस सबके बाद
इस वक्त तेरे बदन में धरती की हलचल है
घास की जमीन पर लेटी,
तू एक भरी पूरी औरत
आँखों को मींच कर
काया को चट्टान क्यों बना रही है
बाई! तुझे दरद लेना है
जिंदगी भर पहाड़ ढोए तूने
मुश्किल नहीं है तेरे लिए
दरद लेना
जल्दी कर होश में आ
वरना उसके सिर पर जोर पड़ेगा
पता नहीं कितनी देर बाद रोए
या ना भी रोए
फटी आँख से मत देख
भूल जा जोर जबरदस्ती की रात
अँधेरे के हमले को भूल जा बाई
याद कर खेत और पानी का रिश्ता
सब कुछ सहते रहने के बाद भी
कितना दरद लेती है धरती
किस किस हिस्से में कहाँ कहाँ
तभी तो जनम लेती हैं फसलें
नहीं लेती तो सूख जाती सारी हरियाली
कोयला हो जाते जंगल
पत्थर हो जाता कोख तक का पानी
याद मत कर अपने दुःखों को
आने को बेचैन है धरती पर जीव
आकाश पाताल में भी अट नहीं सकता
इतना है औरत जात का दुःख
धरती का सारा पानी भी
धो नहीं सकता
इतने हैं आँसुओं के सूखे धब्बे
सीता ने कहा था – फट जा धरती
ना जाने कब से चल रही है ये कहानी
फिर भी रुकी नहीं है दुनिया
बाई दरद ले!
सुन बहते पानी की आवाज
हाँ! ऐसे ही देख ऊपर हरी पत्तियाँ
सुन ले उसके रोने की आवाज
जो अभी होने को है
जिंदा हो जाएगी तेरी देह
झरने लगेगा दूध दो नन्हें होठों के लिए
बुद्ध के देश में बुश
कविता संग्रह : इस सिंफनी में
दो बार पाकिस्तान की सांस्कृतिक यात्रा.


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