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पेंटिग : Imran Hossain Piplu |
लंबी कविता
चौबारे पर ए का ला प
अनूप सेठी
मैं इस मचान पर खड़ा हूं
चीरें फाड़ें तो लकड़ी का फट्टा ठस्स
नट इतराए तो सीढ़ी
मैं बेलाग हो चाहता हूं नीचे उतरना
ज़मीन पर खड़े होकर बात करना
शुरू करते ही
कला की संवेदन की
ऐंठन होने लगती है
बाराखड़ी साधते ही
मजमे की चौहद्दी तय हो जाती है
बांस पर चढ़कर बाजीगर
सूद के साथ मूल का
मिर्च मसाला पीसता है
संयम में घोलकर
चिंतन के खरल में
कपड़छान कर मूल को
देखने सूंघने के फटीचर आयुर्विज्ञान में
अचानक वह सीढ़ी सी
निराकार से उद्भूत होती है
चीरें फाड़ें तो लकड़ी का फट्टा ठस्स
नट इतराए तो सीढ़ी
बस सीढ़ी ही दिखती है
मूल जो धूल की तरह
कण कण छाया हुआ है
नहीं दीखता
फेफड़ों में उल्ली
पेट में पथरी नहीं दीखती
घर में रक्त वाचालता
कपड़ों की टांकेदारी
संबंधों की छीछालेदर
गांव में आगज़नी
सूखे पानी में फसल तबाही
बाढ़ में बटमारी
शहर में दंगा खून खराबा
दफ्तर में घसियारी पलटन
मिल में चुसी हुई गन्ने की खेती
नहीं दीखती
सड़कों के नाकों पर मज़मा लगता है
शेर की मुहर की छांव तले
भव्य पंडालों में भाटगिरी का नर्तन चलता है
सांप नेवला सुस्ताते रहते
भीड़ जुटाते रहते
कितना आसान हो गया
खुले आम सपनों का व्यापार
नहीं दीखने सा ही दिखता
जो कोई देखो लफ्ज़ पीसता है
ले दे के आखिर
सीढ़ी पर ही मिट्टी गारा घिसता है
फुल्कारी नक्काशी साज सजावट
सूद मूल के सुंदर सपने
चौबारे पर बैठी शहनाई
कला निनाद
संस्कृति रेचन
अनहद में खुलती तृतीय दृष्टि
तीसरी दुनिया के पानी में
बंसी डाले इस सीढ़ी पर बैठे हैं
मिर्च मसाले के कुलीन संपादक
इतिहास के वायवीय कथावाचक
इसलिए हे गदराए हुए नटो
तुम्हारे ही चौबारे पर
आंखें फाड़कर
तमाम सुरंगों में
गूंजों में
कपोतों बाजों सा घुसता हूं
टुकड़ा एक धरती का तिड़क उठा
एक पेड़ का तना सुलगता
डालों में खून उतर आया
एक आंख में दहशत
एक भुजा उद्दंड
सजनता से घबराया
निर्जनता में सहमाहट
संवादों की अकुलाहट
पंजों में जकड़ी हुई
पंख भी नहीं फड़फड़ाता कपोत
डर के मारे चुप
निरीह नजरें दहकते डेलों से फिसल जातीं
सुरंगें सी बनती अपने आप
अंधियारी
उल्काएं सी गूंजतीं
चिरती जातीं शती की अंतिम सांसें
सपनों को अंधियारे सीले गलियारों से खींच
धूप में डालो
खेतों में फहराओ
ये बाड़ छांट कर रस्ते खोलो
जमीन खोदने के अस्त्र ले लो
ताकि सनद रहे
चौथाई शती की
मिली ही नहीं जमीन
बबूल पर टांग के अचकन
गुलाब कली
नौटंकी में ठुमकी थी
खेतिहर सड़कों को सरके
सड़कें शहरों में उतरीं
शहर गगन चूमते
गुलाब गंध के गिर्द घूमते
सम्मोहित करती
अंबर धरती रहे छिटकते
एक उचकते उक धसकते
भागो भागो आगे भागो
बांध बनाओ
रेल दौड़ाओ
उद्योग लगाओ
व्यापार बढ़ाओ
एक से उत्तम एक
नारे अनेक
आजादी बैठी सेती रही
चूजा कुनमुनाया
गांव का बच्चा निश्छल
बापू के आगे घुग्घू
खेत में मसें भिगोता
बाप की नजर टालता
सूखी आंखें मां की ताकता
नहीं मिला मौका तो बेहतर
जब मिला तो मास्टर के आगे बुद्धू
सरपंच की दुकान का मुस्टुंडा
आजाद देश का भविष्य उजड्ड
सरपंच की कोठरी और
जंगल-मंडी का हरकारा
जय हो जीवन
जय तरक्की माता
यह कहां से आ रही
गदराए नट की तनवंगी
देखो कुम्हलाई बदरंगी
चली है मीलों पैदल
पस्त-त्रस्त
पता नहीं कबसे
तिड़क चुका है मौसम
मां थी या मर गई या होगी कोई
परंपरा उजड़ने की तुरही बजी
बाप या मर्द
क्या है सरहद
बदल के बाने
आता रहा
नोच-चोंथ खाता रहा
गदराए नट की तन्वंगी
जुती रही है
कनक हो या बरसीम
फसल कहो या घास
उगेगा कटेगा
अपनी हो या रेहन
धरती है फैलेगी बेल
पूछो तन्वंगी से
अपनी कह के जिंदगी
नहीं ही मिली आखिर
उदास थी पहले
सपनों को देखा
बीहड़ तय करके आई है
कहां से आई
चली जा रही कहां
पुल की शुरुआत पर खत्म होती परंपरा
जंगल में खुदी हुई अधूरी सड़क
मजमे के लच्छेदार जुमलों की पटकन में देखो
भव्य पंडाल की
मदमाती रोशनी में देखो
बलखाती पगडंडी के सारे रतिस्वप्न
उजाड़
खौफजदा
इंद्रजाल भयानक
पुल की शुरुआत पर खत्म होती परंपरा
बाढ़ और सूखे से टूटी नदी
एक उदासीन परंपरा की शुरुआत
जितना कपोत गर्दन झुकाता है
सुरंगों में
बाज चोंच भिड़ाता है
हाथों में फिसलता है ठंडा पसीना
कहां से आ खड़ा हुआ यह प्रीतम
सूखे हुए डोडे
तपते कपाल पर परना
आज फिर तुम देर से आए
शाम को पूरा करके जाना काम
दिहाड़ी अभी क्यों बाद में ले जाना
लकड़ी का कोठा बना कर रखो
कब तक एक ही क्यारी खोदते रहोगे
फिर मांगोगे रोटी भिगोने को चाय दे दो
एक बाबू ने मांगा था
कुल्हाड़ी का बींडा
प्रीतम बींडा नहीं ढूंढ पाया
लुहार कुल्हाड़ी सेक कर धार नहीं दे पाया
कैसे कटेगा जंगल
घुटनों में सिर दिए बैठा है प्रीतम
नहीं है किस्मत
किस्मत सिर्फ निचोड़ती है
प्रीतम हार बैठा है दांव
नहीं ही मिला बींडा
कुल्हाड़ी बाबू की है
वह नहीं काट सकता
सिर या किस्मत
उसका बेटा
दराती से खेलता है
प्रीतम की आंखों के सामने है
कामरेड की कोठी
खेत ही खेत
आमों संतरों सेबों के बाग-बगीचे
कामरेड हंसिए की रोटी खाता है
मोर्चे निकालता है
मजदूरों खेतिहरों का नेता है
प्रीतम ने जब भी उसकी मजदूरी की
दिहाड़ी पूरी नहीं मिली है
प्रीतम कटता रहा है
दराती ऊंची उठती रही है
कामरेड छिंज का टमक बजाता रहा है
प्रीतम बच्चे को दराती से खेलते देख
पस्त हो जाता है
उसे नहीं ही मिलता है बींडा
दीखती है खाली
सिर्फ कुल्हाड़ी
कपोत पर मारता है
बाज सीढ़ी पर चोंच
परत दर परत पिघलती हैं दीवारें
तमाम खुशगवार बरस
मेजों कुर्सियों के बीच
फाइलों को धिसते रहने के बाद
रिसते हुए खुरों वाले जानवर ने
मुंह में रख कर
उगल दिया है
अट्ठावन साल की देसी आम की गुठली
बरसात की गीली बेरहम जमीन पर
आरामदेह सेवानिवृत्ति की
तिन पत्ती नई सिर उठान
भ्रम भटकाव तने की गुठली को
बच्चे
उखाड़
बची हुई मिट्टी को झाड़
पत्थर पर घिस कर
पीपनी सा बजाएंगे
नंगधड़ग बारिश में नाचेंगे
हवा में उछाल कर
कीचड़ में धकियाएंगे
रिटायर होने के बाद बाबू
पांच साल पेंशन के लिए चक्कर लगाएगा
पांच साल अपने बेटे की
उसी गले हुए जानवर की सुरंग जैसी आंतों में
सिरका बनने की संभावना देखेगा
चश्मे को साफ करते हुए
यादों की गठड़ी खोलेगा
संभाल संभाल रखेगा
आतंकित होकर समाचार पढ़ेगा
कान खड़े रखेगा
कब समधी की सलाखों जड़ी खिड़की से
चिरायंध का भक् भक् धुंआ उठने लगे
एक उम्र तक उसके हाथ बंधी सील गाय के
गोडे दुखने लगें
कान खड़े रखेगा
आंख चुराएगा
आखिर बच भी तो नहीं पाएगा
धुंधिया आंखों का प्रपंच
तीन दशक पहले एक जमीन छोड़ी
सुरक्षा की उम्मीद में गलियारा फांदा था
तीन दशक
अंधेरी रिसती हुई सुरंग खोदी
बीमार जानवर ने जुगाली करके
उगल दिया पंगु
ढलान पर मंडी चलते का सट्टा
गुठली किस बैंक में खोले खाता
कंपनी बेचेगी शेयर
लूटेगी दोनों हाथ
बैंक का ब्याज
मोतियाबिंद का सहारा
मुड़ तुड़ कर पंच साला योजना का गणित
देश हित में जाएगी पूंजी
टटपूंजिया खुद फांकेगा फेफड़े की घड़घड़ाहट
बुढ़ापे के रग रेशे में
लोकतंत्र के ढोल की ताल पर
डालेगा वोट
गुठली गिनेगी दिन
नेता संवारेगा टोपी की नोक
बिगड़े हुए जानवर पर बैठकर
गुंजाएगा खगोल
काटेगा भूगोल
पूंछ से झाड़ेगा मिट्टी
कमान हुई पीठ और अपान पेट वाला जानवर
खुरों के मवाद से भरेगा बस्ती रेगिस्तान
जानवर आंखें चढ़ाए रेंगता रहेगा
नेता अफसरशाह सवारी पर इठलाता रहेगा
बाज बरगद से उखड़ कर
सीधा खुर पर झपट्टा मारने को धमकता है
झन्नाता है तूफान
तपती धूप में कपोत
दूसरे तल्ले की खिड़की पर
बीट करने जा घुसता है
दुंदुभी बजती दिन में तीन बार
गन्ने की खेती
झोंपड़ों छप्पड़ों से निकलती बाहर
दंदों में फंसे
चक्कों पर चक्कों से
विकास ह्रास का
घूमता नवपुराण दिन रात
बनियापंती का नूतन मिथ
सहस्र फनों की फुंफकार क्रूर
रंगीन मदमस्त विज्ञापन का इंद्रजाल
पृथ्वी आकाश को लीलता प्रस्तर ज्वार
चुसी हुई गन्ने की खेती
शून्य में
सड़कों में गटरों पर
शरण ढूंढती फैल रही
सब मालिक
फिर भी निराश्रित (तभी निरस्त)
निरीह डरे हुए
स्वतंत्र देश से उपजे हुए शरणार्थी
मरे हुए
बस्ती पर आंख गड़ाता बाज
आग धधकती अंगार बरसते
टकराते सूखी अंतड़ियों से
धू धू जलते सपने हजार
बनियापंती का यह नूतन मिथ
धू धू जलते सपनों में हाथ सेकता चिकना दैत्य
उसमें समिधा सा अर्पित
एक पूर पंजर
झुलसा कर पर बाहर आया बाज
उलटा देगा सीढ़ी विलास
बेहाल फड़फड़ाता कपोत
कोई मेहराब ढूंढ़ता है
मैं अभी भी नीचे उतर कर
जमीन पर
बात करना चाहता हूं.
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अनूप सेठी (10 जून, 1958) का एक कविता संग्रह ‘जगत में मेला’, अनुवाद की पुस्तक ‘नोम चॉम्स्की सत्ता के सामने’ दो मूल और एक अनूदित नाटक प्रकाशित हैं. कुछ रचनाओं के मराठी और पंजाबी में अनुवाद भी हुए हैं. मुंबई में रहते हैं.
anupsethi@gmail.com /9820696684
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