उषा राय की लम्बी कविता ‘आग से गुज़रती हवाएं’ समकालीन भारत में स्त्रियों पर लगातार हो रहे हिंसक, बर्बर हमलों का सारांश है, अटूट सिलसिला सा बन गया है जैसे- एक जगह की आग बुझती नहीं कि दूसरी चिता तैयार हो जाती है.
कविता आग से गुज़रती है, तप्त है और आक्रोश से भरी भी. उषा राय के रंगमंच के अनुभव इसके शिल्प की तैयारी में काम आये हैं. इसका एक चाक्षुष बिम्ब भी बनता है और सघन प्रभाव यह कविता छोड़ती है.
प्रस्तुत है.
लंबी कविता
आग से गुज़रती हवाएँ
उषा राय
ये नदी अबूझ और हठीली मेरे लिए
पर है ये आम नदियों की ही तरह
पथरीली लिपि में लिखी, जिनमें
शिलालेख सी हैं बड़ी-बड़ी शिलाएँ
जो कभी जल से भीगी नहीं.
इन्हीं घाटों पर शिशुओं के वस्त्र धोते
एक सोची-समझी सुविधाओं की
हस्तलिखित कहानी जो
पहले कभी हस्तांतरित हुई थी
की बिगड़ी फाइल की प्रतिलिपि बाँचती
एकतरफा उलझे सिवारों से भरी
जिस पर जमती गई है काई पुरानी.
वहीं कहीं मौत का कुआँ लिए
शिकार की टोह में घूमता है भँवर
या खुले हैं मगरमच्छों के मुंह जहाँ-तहाँ
प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष डूब जाती है स्त्री जाति.
लहर छिपाती है बरबस हत्यारे भँवर को
घृणा, भेदभाव स्मृति पुस्तक से संचालित,
जाति, नस्ल, धर्म, लिंग-वर्ग भेद से
मगरमच्छों का मुंह कुछ बढ़ा, कि बढ़ता ही गया.
अब इसी नदी के दूसरे तट पर
स्तब्ध दिशाएँ हैं और मरघट में सन्नाटा
चिराइन-गंध भरी पीली-आँधी चल रही है
जीवित वस्तुओं को खा आग निरन्तर जल रही है
क्षुब्ध मन- और मरे तन की आग से गुज़रती हवाएँ
बिजली का गोला बन क्रुद्ध हो नाच रही हैं.
हवाओं का एक बड़ा गोला है घूमता
आकार बदलता, बेतरतीब सा झूमता
बड़े गोले से फूट निकलते छोटे गोले
फिर अनगिनत होकर जीवित हो जाते.
अनगिनत गोलों के ममत्व, प्रेम, विरह,
दर्द, तड़प, रुदन के अस्फुट राग,
अपमान क्रोध, क्षोभ और
घात की कहानियां मर के भी ना मरी
तो मरघट में भर गई उदासियाँ.
रह गई अतृप्त आग
एक से अनेक और अनेक से
एक होती गोलों की बेचैन हवाएँ
आग से गुजरती, आग को छूती
आग से खेलती, आग को उड़ाती
आग को चूमती, आग को रौंदती
राख उड़ाती धू धू उड़ जाती हैं.
भय सिहरन जूड़ी बुखार के गिरफ्त में
साफ देखती हूँ खुली आँखों से
अखबार की कतरनों से दबी मैं
हैरान करती हैं ठंडी प्रतिक्रियाएँ
एक तरफ नाउम्मीदी जगाते उनके बोल
कील से चुभते, हथौड़े बरसाते हैं.
दूसरी तरफ लगातार कानों में रेंगती है
वह पुकार जिसे कभी सुना नहीं गया
वह दर्द जिसे कभी समझा नहीं गया
स्त्री ही जानती उस थकी आह और कराह को.
अचानक हरहराता है कोई पुराना पेड़
गिरती हैं- बूँदें टप-टप पूरी देह से
रक्तमय विवस्त्र चली आ रही कोई
धरती पर घटित, आकाश में ध्वनित
हवा में ठहरी आसन्न-मृत्यु-गंध लिए
समय दर्ज कर रहा एक निर्मम आलेख.
फिर हिलता है शहर का पुराना पुल
टुकड़ों-टुकड़ों में आते हैं अंग
मादा जाति का धड़, कटा सर और वह
जिसकी काटी गई जीभ, तोड़ी गई गर्दन
उखाड़े गए हाथ, कूचे गए अंग-अंग.
खूनी खेल के लिए अभूतपूर्व सहमति
कोई नहीं है आवाज उठाने वाला
दूर-दूर तक जीते गए साम्राज्य की तरह
अबाध-निर्बाध, निर्विघ्न-बेफिक्र खेल चलता
फिर ढाह जाते वे उसे मौत के कुएँ में
सो रहे हैं सभी- जीसस, अल्लाह
वाहे गुरु और तैंतीस करोड़ देवता.
मैं कहाँ हूँ घर में या बाहर
पसीने से लथपथ साँस धौंकनी सी
जरूर होंगे वे सींग, पूँछ, लाल आँखों वाले
या कोई असुर, रावण, कंस या दुर्योधन
नहीं ! नहीं ! देखकर फटी रह गई आँखें
ये तो हैं पिता, भाई, चाचा, पति, पड़ोसी, सहपाठी
घात में बैठे शराब के नशे में धुत पशु-जन.
ये कैसा परिवार ? कैसा विवाह ? कैसा विद्यालय ?
मुझे बताएँ-कानूनविद्,समाजशास्त्री
अर्थशास्त्री और धर्म के ठेकेदार
क्या उनके लिए ये सवाल मायने रखता है ?
या वे भी ठहरे लिंग विरोधी, नहीं करेंगे पुनर्विचार.
सजा मिली आँखों में ताकत नहीं
जैसे थप्पड़ खाती हों बार-बार
देखो पहचानो इस तिरंगे की यात्रा को
झप-झप जाती हैं, फिर देखने लगती हैं-
जब आवाज आती है एकदम साफ
मरघट अपना नया सन्नाटा बुन रहा है
बिल्ली जब पंजा मारती है
तब चूजे को डर नहीं लगता क्योंकि
वह शिकार है और शिकारी नहीं हो सकता.
नागिन की आँखों में
अपनी मौत का अक्स देखकर
भी हत्यारे को डर नहीं लगता
क्योंकि वह जानता है केवल इसी रास्ते को.
सवाल ये है कि
उसके कानों में कौन मंत्र फूँकता है
कि वह आजाद है, और वह आजाद
क्यों है? जो मौत बन कर घूमता है.
डर में जीती है वह
उसके लिए आजादी एक सपना है
दर्द का एक- बड़ा वक्फा उसकी
हलक फँसा ही रहता है- ताउम्र
कौन उकसाता है उसे कि- मौत ही मुक्ति है.
मौत ही मुक्ति है. मौत ही मुक्ति है.
अरे-अरे चुप कर छुटकी
ये क्या रट रही है बड़ी हवा ने
छोटी हवा को झिड़की दी.
छुटकी हँसी तो, हँसे ही जा रही
हँसते ही बोली- मेरा पाठ है दीदी
मैं अपना पाठ याद कर रही हूँ
देखो न हँसते-हँसते …बाथरुम जाना पड़ा
बाथरुम…..स्कूल का बाथरुम….
बाथरुम में लड़के, कहाँ से आए ?
लड़के सब जगह से आ सकते हैं.
देखो ! उसे देखो जो चली आ रही
लटक रही आँतें, इसके पैर कहाँ हैं ?
मैं बताऊँ, मैं बताऊँ…
छुटकी मझली तुम लोग चुप रहो
मुझे सब समझ में आ गया, मैं हूँ ना,
तुम ? तुम कौन हो ? बताओ ? बताओ ?
‘मैं डाक्टर हूँ और ये डाक्टर बनने वाली थी.’
‘हे हे हे….तुम लोग भी …. हे हे हे हे. ’
‘मैं इसे उठाकर बाहर फेंक दूँगी. ’
उठाकर ? एक हाथ से दूसरे हाथ
एक के बाद दुसरा लडके, लड़के आदमी, आदमी,
डाक्टर ! इसे छोड़ दो
आओ, उसे देखते हैं, हाँ-हाँ उसके पैर कहाँ है ?
भाग रही थी.. .भाग रही थी……
चुप रहो उसकी बात सुनने दो.
‘हाँ मैं निकल भागी थी …पर
उन्होंने पकड़ लिए और पैर काट दिए. ’
तो क्या वे हथियार लेकर चले थे ?
इसमें क्या हैरत ??
समूह है उनका, वे हैं ताकतवर .
मेरे पास तो हथियार था, डयूटी पर थी
जिस महकमें में थी, वर्दी देखो, फिर भी
‘सुविधा शुल्क’ जानती हो क्या होता है ?
शांत हो जाओ देखो…
सभी तो हैं यहाँ- दादी, चाची, भाभी,
ये नन्ही जिसे ठीक से चलना नहीं आता
कई -छुटकी, कई-मझली, कई-बड़की,
कई पत्रकार, इजीनियर, मैनेजर और कलाकार.
सभी लोग सुनो, ध्यान से सुनो,
कवि लोग कविता सुना रहे हैं-
धन्यवाद साथियों,
‘‘मैं सरकार से यह पूछना चाहता हूँ
कि महिलाएँ असुरक्षित क्यों हैं
हिंसा बलात्कार की घटनाएँ क्यों हो रहीं हैं ?
सरकार अपराधियों को पनाह क्यों दे रही है ?
मैं पूछना चाहता हूँ कि ….
देखिए, आपको थोड़ा समय मिला है
पूछिए मत, कविता सुनाइए –
वह चिड़िया नहीं फिर भी बेची गई
वह कूड़ा नहीं फिर भी फेंकी गई
वह पराली नहीं फिर भी जलाई गई
वह मिट्टी नहीं फिर भी रौंदी गई
कहाँ है कानून ? ये कैसी नागरिकता ?
ये कैसी आजादी ? ये कैसी सरकार ?
क्या भारत माता- कुछ लोग और बेटों की,
और बेटियाँ हैं अनाथ
क्यों रोए वह माता जिसने बेटी जन्मा
कब सुधरेंगे राजनीति और धर्मनीति-
गठजोड़ के ये साँपनाथ और नागनाथ.
गली-गली नगर-नगर में लिख दो
आये न कोई विदेशी स्त्री यहाँ
है असुरक्षित महिलाओं के लिए यह देश
हर जगह बलात्कारी हैं, घूमते बदल-बदल कर भेष.
यहाँ के शहर अब जाने नहीं जाते
साहित्य, पर्यटन, कला और उद्योग के लिए
अब ये जाने जाते हैं ठंढी क्रूरता और निर्मम हत्या के लिए.
मार्गों से हटा दो महापुरुषों के नाम
वहाँ लिख दो वरदहस्त पाये बदमाशों के नाम.
ये दिल्ली है यहाँ निर्भया ‘एक’ हुआ
यदि यह केवल दुर्योग मात्र था तो वह क्या था ?
जो पूरे देश में दुहराया और अनेक हुआ.
यह उन्नाव साहित्यिक भूमि
यहाँ तो गजब हुआ
सरकारी छतरी तनी रही
हर जोर जुल्म पर चढ़े झूठ का रंग
पर आखिर में बेनूर हुआ.
यह दर्ज हुआ अखबारों में
धरना, प्रदर्शन, पोस्टर, बैनर
सड़कों पर नारे, हुजूम हुआ, जुलूस हुआ
क्या-क्या कहें, कैसे बताएँ
बस इतना समझ लीजिए कि
यह अलवर है यह हापुड़ है
यह रोहतक है यह ललितपुर
यह बाँदा है और बदायूँ है यहाँ
पेड़ों की डालियों में लटकते है
फल नहीं, लड़कियों के शव.
यह खैरालांजी महाराष्ट्र है
यह मध्यप्रदेश का मंदसौर
यह शहर सूरत डायमंड सिटी
यह राजकोट है राजस्थान का
कि गुजरात का साँबरकाठा है.
नफरत जब परवान चढ़ती है
काठ मार जाए ऐसी कठुआ की बेदर्दी है
तब दर्द ठहर जाता है कश्मीर में
बूटों के कीलों के नीचे, मत याद दिलाओ,
कुनानपोशपोरा गांव की वह वहशी रात
क्या हम भी हैं खड़े मनोरमा थांगजांग के साथ ?
मुजफ्फरपुर और मुजफ्फरपुरनगर में
धर्मभेद और वर्गभेद के रहते पनियल सांप.
ये बक्सर है किशनगंज बिहार
यह छपरा है गया है मधुबनी
यह गोंडा है बलरामपुर है
और यह हाथरस है जहाँ
नसीब नहीं बिटिया को अंतिम संस्कार
और रोज नई कहानियां नए मोड़
हर अखबार हर चैनल पर
सच को खाकर रहे एक दूसरे को पछाड़.
अरे, अरे यहाँ तो कविता हो रही है
पुलिस क्यों आई है ?
हाँ हाँ पुलिस यहाँ क्यों आई है ?
पुलिस कवियों को उठाने के लिए आई है
जो सच बोलेगा जेल में ठूँसा जाएगा
जो सच बोलेगा वही मारा ही जाएगा.
‘‘ए.., अजिफा सुनो, सुनो ना’
‘सोने दो. मुझे सोने दो.’
‘तुम्हारे घोड़े कहाँ गए ? घोड़े कहाँ गए ?
‘कहाँ हैं ? मेरे घोड़े कहाँ हैं ?’
‘हे, हे, जगा दिया, जगा दिया
अजिफा को जगा दिया.’
‘ए अजिफा तुम्हें घोड़े याद आते हैं ?’
‘नहीं. मुझे कुछ याद नहीं. सोने दो.
‘हाँ, मरने के बाद सब भूल जाता है.
मरने के बाद सब खतम हो जाता है.’
‘‘नहीं !!
कभी कुछ खतम नहीं होता
मरना धुँध की यात्रा मात्र है
कुछ नहीं भूलता न छल न धोखा.
कितना बेचैन था मेरे पेट में बच्चा
जब मुझे जलाया जा रहा था
चारपाई से बाँधकर वे कह रहे थे
कि जल्दी मरती नहीं, सख्त जान है.
छोड़ूँगी नहीं !मौत बनकर टूट पड़ुगी !
दहेजलोभी सास, ससुर, देवर, पति पर
अम्बालिका बन तपस्या करूँगी ईश्वर की.
ईश्वर ? कौन ईश्वर, किस ईश्वर की
हाँ याद आई मंदिर में वे जो पुतले बैठे थे
वे भी तो चुप थे, बंधक थे मेरी तरह
सुनी थी मैंने भी उनकी कहानियाँ-
ईश्वर अन्याय नहीं देखता, दण्ड देता है
आसमान में गड़गड़ाहट होती है
आग लग जाती है, बारिश होती है
पुकार सुनकर वह दौड़ा चला आता है.
घरवालों ने ही सुनाई थी,
इसीलिए तो सब जगह ढूँढा मुझ आसिफा को
सब जगह डर, खतरा और शक था
सिवाय मंदिर के …कि मंदिर में तो ईश्वर है न .
बहनों ! अब हम हवायें हैं
मौत ने हमें आजाद कर दिया है
हम आपस में लड़ाई झगड़ा ना करें
इससे पहले कि चली आ रही हो
कोई हमारी ही तरह खून से लथपथ,
उसकी बातों से हम फिर से दुखी हो जाएँ
चलो घूम के आते हैं खेत-खलिहान
झीलें, बाग बगीचे और, ताल तलैया.
मेरी आँखें झपती हैं….
लेकिन इस टूटे हुए बेचैन पल में
याद आती है वह पत्थर लिपि
में लिखी शिलाओं भरी नदी.
जो किसी ऋषि के नाम पर थी
आज मगरमच्छों से भर गई है.
मर चुकी मछलियों वाली नदी
तब और डराने लगती है
जब अपना तर्क, ज्ञान, कानून ,लिए
धूप सेंकने मुंह खोले
बाहर आता है कोई वयस्क मगर.
लोग घरों में कैद हो जाते
सरकार से गुहार लगाते
पर सरकार का स्पष्ट आदेश आता-
यह नदी विश्वामित्री घड़ियालों वाली
है पुरातन हम कुछ नहीं कर सकते-
ये रहेगी ऐसी ही जन अपनी रक्षा आप करें.
‘‘नहीं मैं नहीं जाऊँगी. सोऊँगी गहरी नींद.
मुझे लगता है डर. हर जगह, हर किसी से.’’
ओ मेरी प्यारी छुटकी,
मरने के बाद किसका डर
अब तो लोग हमसे डरेंगे और हम
ऐसे उड़ेंगे देखो- जूं जूं जूं.
अच्छा ! दीदी वो खेत में क्या है
अरे , वह तो बिजूका है बिजूका
खेत की रखवाली करता है
तू इतने गौर से क्या देख रही-
नहीं, नहीं वह बिजूका नहीं-
मैं हूँ ! देखो मेरा सिर है झुका हुआ !
बिना अपराध क्यों निकाली गई और मारी गई.
मेरी साथी बहनों !
हमारा समाज बढ़ता ही जा रहा है
हर चौदह मिनट में होता है एक बलात्कार
हर चार घंटे में होता है एक गैंग रेप
गोया कि हम मछलियाँ हैं
विश्वामित्री नदी की मारी जाती हैं
और उधर पूरी नदी मगरमच्छों की अनुचर.
अरे हम तो पहुँच गए गाँधी प्रतिमा पर
चलो गाँधी से पूछते हैं कि क्या करें,
कैसे ढाढस बंधाएँ अपने दुखी मन को
वे भी तो रक्तरंजित, दुखी, अपमानित
गाँधी के बैठते ही सब बैठ गईं बड़ी बूढ़ी
शैशवी सो गई और छोटी बच्चियाँ खेलने लगी
कहा था फिर कहता हूँ कि कायरता
और हिंसा में से चुनना हो तो हिंसा को चुनना.
हाँ ये सही है. चलो- चलो अब आगे चलते हैं
ये कौन हैं अम्बेडकर ?
हाँ इन्होंने ही तो मनु स्मृति जलाई और बताया
कि पढ़ो इसे, इसमें ही लिखा है कि
स्त्री को कभी स्वतंत्र मत होने देना
उन पर नजर रखना, इतनी तेज नजर कि जब
वे काजल भी लगाएँ तो उनकी इच्छा समझ लेना.
और ये कौन हैं ?
सबसे प्यारे भगत सिंह
हर जोर जुल्म के खिलाफ जो अड़े रहे
कहना था उनका कि अंग्रेज इसलिए जुल्म नहीं करते
कि उन पर ईश्वर की कृपा है, आए हैं अवतार लेकर
वे इसलिए जुल्म करते हैं क्योंकि उनके पास ताकत है.
ताकत यानी ‘बल’ बलात्कार केवल बल से ?
नहीं ! नहीं !
अहंकार मिला जो पितरों से !!
जो छीनते हैं स्त्री की अस्मिता को
दो मुट्ठी चावल, एक साड़ी,
मीठी बोली और थोड़ी सुविधाएँ
बदले की भावना से छल से,
हक से, गुस्से से, दबाव से, सौदे से,
सारे हथियार उनके ! अपनी केवल देह !
ओ माँ हमें आज्ञाकारी औरत बनाना बाद में पहले
इस पथरीली लिपि को पढ़ना और पढ़ाना सिखाओ
ओ पिता ! हमें भगत सिंह की तरह साहसी बनाओ
अम्बेडकर गाँधी की तरह जुल्म के तम्बू को चीरकर
धूर्त बातों की सच्चाई को देखना और लड़ना सिखाओ
हम आग से गुजरती हवाओं के लिए जागो समाज को जगाओ.
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