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समालोचन

Home » अशोक अग्रवाल : कोरस

अशोक अग्रवाल : कोरस

किसी भी लेखक के लिए पांच दशकों का सक्रिय रचनात्मक जीवन आसन नहीं होता, ख़ासकर हिंदी का कथाकार जो आजीविका के लिए तमाम दूसरे कर्मो पर निर्भर रहता है. वरिष्ठ कथाकार अशोक अग्रवाल की पहली कहानी ‘अवमूल्यन’ 1968 के ‘धर्मयुग’ में छपी थी, ‘बाइसवाँ साल’ उनकी  आखिरी प्रकाशित कहानी है, जो ‘कथादेश’ में  2017 में […]

by arun dev
May 17, 2019
in कथा
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किसी भी लेखक के लिए पांच दशकों का सक्रिय रचनात्मक जीवन आसन नहीं होता, ख़ासकर हिंदी का कथाकार जो आजीविका के लिए तमाम दूसरे कर्मो पर निर्भर रहता है. वरिष्ठ कथाकार अशोक अग्रवाल की पहली कहानी ‘अवमूल्यन’ 1968 के ‘धर्मयुग’ में छपी थी, ‘बाइसवाँ साल’ उनकी  आखिरी प्रकाशित कहानी है, जो ‘कथादेश’ में  2017 में छपी है.  
पचास वर्षो में विस्तृत उनकी ४९ कहानियों का एक शानदार संकलन संभावना ने प्रकाशित किया है. ये कहानियां जहाँ लेखक का एक मुकम्मल पाठ एक ज़िल्द में प्रस्तुत करती हैं वहीँ इस आधी सदी में किस तरह समय, समाज और उसे देखने का लेखकीय नज़रिया बदला है, पर भी प्रकाश डालती हैं. एक तरह यह जिंदा आईना है अपने वक्त का.
अशोक अग्रवाल की अपनी टिप्पणी और कथाकार मित्रों की सम्मतियों के साथ उनकी एक कहानी कोरस प्रस्तुत है.
आधी सदी का कोरस
(अशोक अग्रवाल की सम्पूर्ण कहानियाँ)

                         धीरेन्द्र अस्थाना 
             (रविवार  पत्रिका से, 1982)
“अशोक अग्रवाल की कहानियाँ घर, परिवार और समाज के आपसी द्वंद्वात्मक और तनावपूर्ण सम्बन्धों से गुजरते हुए व्यवस्था के उस अंदरूनी इलाके में प्रवेश कर जाती हैं जहाँ तमाम-तमाम क्रूरताएँ और षड्यंत्र अपने चेहरे पर आक्रमण के लिए बाहर निकलने से पूर्व का चिकना, लुभावना, आत्मीय और आकर्षक, ‘मेकअप फाउंडेशन’ लगा रहे होते हैं. …जहाँ पहुँच और पहुँचा कर लेखक प्रस्थान कर जाता है और हमें प्रत्याक्रमण का समीकरण बनाने के लिए छोड़ देता है. यह ‘छोड़ जाना’ हमारे विवेक और संवेदना को तीव्र करता है और यही वह बिंदु है जहाँ हमें किसी समर्थ रचनाकार की ताकत और महत्त्व का पता चलता है.
   
इन कहानियों से गुजरना जहाँ एक ओर लेखकीय श्रम की उपलब्धियों को महसूस करना है, वहाँ मन की भीतरी पर्त तक में एक गहरी बेचैनी महसूस करना भी है. लेखक बनने के जनवादी शॉर्टकट के विरुद्ध ये कहानियाँ एक सृजनात्मक बयान हैं, ऐसा बयान जो समकालीन कहानी के इस दुखद माहौल में एक हलचल खड़ी कर सकता है.”
                            


कर्मेन्दु शिशिर 
(कहानी के आसपास पुस्तक से, 2018 )

“उनकी प्रारम्भ से आज तक की कहानियों में जो बात पहली निगाह में आती है, वह है अंतर्वस्तु और शिल्प का वैविध्य. ऐसी बहुरेखीय रचनाशीलता उन रुढ़ियों से सम्भव नहीं थी, जो समांतर या आगे की कहानियों में मुखर रही. ऐसी बात नहीं कि उन्होंने अपने सहज बोध और संवेदना के सहारे ही ऐसा सम्भव किया. उनमें एक ऐसा नैतिक विज़न भी था, जो जीवन को उसकी अपनी स्वाभाविकता और सहज प्रवाहमयता में समझने को प्रेरित करता रहा.

अशोक अग्रवाल की मूल प्रकृति पर विचार करें तो उनके भीतर एक खास तरह की मासूमियत है. अपने चरित्रों से इस तरह निष्पक्ष, निष्कपट और खुला सलूक कम कथाकार कर पाते हैं. यह अकारण नहीं है कि अशोक अग्रवाल बच्चों, बूढ़ों और स्त्रियों के चरित्रों की बारीक पहचान में हमें गहरे प्रभावित करते हैं.”
                   

अपने  को  देखना               
अशोक अग्रवाल
“आधी सदी का कोरस मेरे पिछले पचास वर्ष के कहानी लेखन का दस्तावेज़ है. इसमें कुल उनचास कहानियाँ शामिल हैं. मेरी पहली कहानी ‘अवमूल्यन’ 1968 के ‘धर्मयुग’ के किसी अंक में प्रकाशित हुई थी और ‘बाइसवाँ साल’ आखिरी प्रकाशित कहानी है, जो ‘कथादेश’ के जनवरी 2017 अंक में छपी है. इस संग्रह में संकलित कहानियों के अलावा कोई दस-बारह कहानियाँ ऐसी हैं, जो समय-समय पर विभिन्न लघु पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई थीं, लेकिन उनकी कोई प्रति मेरे पास नहीं है, और वे पत्रिकाएँ भी काल-कवलित हो चुकी हैं. उन्हें ऐसे गुमशुदा व्यक्तियों की कतार में रखा जा सकता है, जो कभी वापिस लौट कर नहीं आते लेकिन जिनकी प्रतीक्षा हमेशा बनी रहती है. 


दस-बारह कहानियाँ अपने पहले प्रारूप में मेरी पुरानी धूलखाई फाइलों में क़ैद हैं जिनके काग़ज़ जर्जर और अक्षर धूमिल हो चुके हैं जो यदा-कदा गुंगुआते अस्फुट स्वरों में कभी-कभी मेरी निद्रा भंग करते हैं. लेकिन फिर से उसी लगाव के साथ स्पर्श करने का साहस न बटोर पाने की ग्लानि उन्हें अनदेखा-अनसुना करना अधिक सुविधाप्रद प्रतीत होता है. कुछ आधे-अधूरे प्रारूप और फुटकर नोट्स एक उस ग़ैर-ज़िम्मेदार अभिभावक की तरह प्रतीत होते हैं जो उन्हें उनकी नियति के हवाले छोड़ आँखें मूँद अपनी आरामगाह में लौट गया हो. अतः आधी सदी का कोरस को मेरी सम्पूर्ण कहानियों का संग्रह मान लेना उपयुक्त होगा.
वर्ष 1968 के दिसम्बर का कोई एक दिन. वरिष्ठ कालजयी कथाकार जैनेन्द्र कुमार का हमारे महाविद्यालय के दीक्षांत समारोह में बतौर मुख्य अतिथि आगमन हुआ. मैं एम.ए. के अंतिम वर्ष का छात्र था. समारोह के उपरांत एक कहानी गोष्ठी का आयोजन छात्र समिति की ओर से मेरे निवास पर आयोजित किया गया. जैनेन्द्र कुमार की उपस्थिति मात्र हम सभी को बेहद रोमांचित और उत्साह से भर देने वाली थी. गोष्ठी के उपरांत अपनी कुछ अधकचरी कहानियों का पुलिंदा मैं उन्हें पकड़ा सब कुछ भूल गया. मेरे विस्मय की कोई सीमा न रही जब आठ-दस दिन बाद ही उनके हाथ का लिखा पोस्टकार्ड मिला. पोस्टकार्ड की एक पंक्ति ‘तुम्हारी कहानियाँ हाथ में लीं और सभी कहानियाँ एक-एक कर बिना किसी व्यवधान के मुझसे अनायास पढ़वाती चली गईं. इसे ही इन कहानियों की सफलता का प्रमाण मान लेना चाहिए’, मुझे आज भी स्मरण है. वे कहानियाँ खासी अधकचरी और भावातिरेक में लिखी गई अभिव्यक्तियाँ मात्रा थीं, जिन्हें स्वयं मैंने एक समय बाद खारिज़ कर दिया था और संभवतः उन कहानियों में से कोई भी इस संकलन में मौजूद नहीं है. यह उदार-हृदय वरिष्ठ कथाकार का अंकुरित होते कथाकार को उत्प्रेरित करने हेतु प्रोत्साहन भर था जिसके अभाव में प्रायः संभावनाशील प्रतिभाएँ अपनी उर्वर यात्रा पर असमय विराम लगा देती हैं.
आत्मश्लाघा, प्रवंचना, आडम्बर और भौतिक महत्वाकांक्षाओं से विलग एक लेखक कैसे अपने सृजन में वीतरागी संत की तरह ध्यानस्थ हो सकता है, इसका अहसास पहली दफा निर्मल वर्मा से मिलने पर हुआ. मेरे शिशु-सुलभ जिज्ञासा के उत्तर में कहा गया उनका एक वाक्य कि ‘यूरोप का लेखक अपना सब कुछ खोकर लेखन को पाना चाहता है और हमारे हिन्दी का लेखक लेखन के माध्यम से सब कुछ अर्जित करना चाहता है’, एक अमिट रेखा की तरह आज भी मन-मस्तिष्क पर अंकित है. करोल बाग के दुमंजिला घर की वह छोटी-सी बरसाती जिसके फर्श पर दरी बिछी थी, बिखरी किताबें और पत्रिकाएँ, पास रखे स्टूल पर कुछ अधलिखे कागज़, सिरहाने पुस्तकों-से भरी रैक और सबसे ऊपर एक प्यारी बच्ची ‘पुतुल’ (निर्मल जी की बेटी) का छोटा-सा फ्रेम मढ़ा फोटोग्रॉफ, इलेक्ट्रिक कैटिल, प्लास्टिक के छोटे-छोटे मर्तबानों में चाय पत्ती, चीनी, बिस्कुट और तीन-चार कॉफ़ी के मग. इन सबके बीच स्टूल पर कोहनियाँ टिकाए स्नेह और शिशु-सुलभ मुस्कराहट बिखेरते निर्मल वर्मा. डेढ़ दशक तक मेरे लिए वह बरसाती एक ऐसे तीर्थस्थल की तरह रही, जहाँ आप अनेक संशयों और अनसुलझे सवालों से भरे उद्विग्न स्थिति में जाते हैं और वापिस लौटते हुए स्वयं को बेहद हल्का और भारहीन महसूस करते हैं.
वह 1975 की सर्दियों का कोई दिन रहा होगा. अजय सिंह आग्रह के साथ रात्रि विश्राम के लिए अपने निवास पर ले गए. उन दिनों शमशेर बहादुर सिंह शोभा और अजय के साथ रह रहे थे. वे मुझे शमशेर जी के छोटे कमरे में पहुँचा वापिस लौट गए. मेरा परिचय पा शमशेर जी मुस्कराए और फिर किताबों के ढेर को खंगोलकर मेरा पहला कहानी संग्रह उसका खेल मुझे थमाते बोले ‘एक नज़र देख लें’. कोई भी पन्ना ऐसा न था जो लाल स्याही से न रंगा गया हो, कहीं-कहीं प्रश्नचिन्ह या कोई टीका-टिप्पणी. फिर देर तक वर्तनी और शब्दों के सही प्रयोग, अभिव्यक्ति के लिए मितव्ययता और फिजूलखर्ची से परहेज़, विषयों के चयन और अनगढ़ नैसर्गिक शब्दों के बारे में देर तक समझाते रहे, सहज और स्नेह भरे शब्दों में.
मध्य प्रदेश शासन के संस्कृति मंत्रालय द्वारा अखिल भारतीय मुक्तिबोध पुरस्कार के लिए मेरे इस संग्रह को शमशेरजी के पास भिजवाया गया था. उनके अलावा शेष दो निर्णायक थे निर्मल वर्मा और कुंवर नारायण. पुरस्कार मुझे मिल चुका था, लेकिन अब पुरस्कार प्राप्ति का सारा अहंकार जाता रहा था. ‘‘रचनाकार को विनम्र होना चाहिए, कुछ ऐसा लगे कि उसने नहीं बल्कि उसकी रचना ने ही उसे रचा हैं’’, शमशेरजी की यह सीख आज भी कुछ लिखते हुए एक लक्ष्मण रेखा की तरह खींची दिखाई देती है.
इन सभी वरिष्ठ रचनाकारों ने मेरी रचनात्मकता को सिंचित करने और उसमें खाद-पानी देने का काम किया. इन सभी कालजयी लेखकों को मेरी विनम्र स्मरणांजलि.
इसके साथ-साथ उन तमाम पात्रों, चरित्रों, दृश्यों और स्थलों से क्षमायाचना जो अपनी अनसुनी, अनदेखी, आपबीती के लिए बरसों-बरस मेरे इर्द-गिर्द मंडराते रहे इस प्रत्याशा में कि मैं कभी उनके गूंगे स्वरों और पीड़ा को अभिव्यक्ति दूँगा, लेकिन अंततः मुझसे निराश होकर किसी दूसरे ‘सुपात्र’ की तलाश में निकल गए और जो आज भी यदा-कदा मेरी वादा खिलाफ़ी के विरुद्ध अपनी खीज़ निकालने मेरी नींद में खलल डालने आ पहुँचते हैं.
इस संकलन में कहानियों के क्रम को मैंने पलट दिया है. सबसे बाद प्रकाशित कहानी संग्रह मसौदा गाँव का बूढ़ा से प्रारम्भ कर पीछे की ओर लौटा हूँ. यह एक प्रकार से वर्तमान के झरोखे से अतीत में झाँकना है.
———————-
कहानी
को र स
अशोक अग्रवाल



फूं… फूं… की हल्की ध्वनि के बीच चूल्हे से धुआँ उठा. छिपट्टियों के ढेर के नीचे सुगबुगा रही आग की लपटों को चितसिंह पूरी ताकत से सतह पर खींचने में जुट गया.

उसकी पीठ के पीछे आसमान में तैरता लाल गोला धीरे-धीरे पानी में डूबता हुआ ठहर गया. ऊँचाई से कतारों में उतरते सफ़ेद बगुलों के छोटे-छोटे समूह टापुओं पर छितरा गए. कुछ बगुले पानी की सतह के ऊपर पंख फड़फड़ाते, कुछ डुबकियाँ लगाते और फिर गोलाई में उड़ान भरते दूसरे टापू पर पहुँच रहे थे.

चितसिंह पीठ घुमाता तो भी उसे यह सब दिखाई नहीं देता. उसकी आँखें तो दस गज की दूरी पर स्थित उस दरख्त से अटकी थीं, जिसकी गाढ़ी परछाई के नीचे मेहरदीन उकडूँ बैठा था. तीन दिन से वह इसी तरह बिना हिले-डुले दो ईंटों के आसन पर टिका है. सात-आठ गायें एक-दूसरे से सटी उसके आगे स्थिर खड़ी हैं. जुगलाने या रम्भाने की कोई आवाज़ नहीं. बड़ी-बड़ी आँखें मेहरदीन के ऊपर टिकाए हुए… देर तक ऐसे ही उसे ताकती रहेंगी, फिर उनमें हल्की-सी हलचल होगी… एक-एक कर चलना शुरू करेंगी… कोई आधा-एक घड़ी बाद सौ गज के दायरे में चक्कर लगा
फिर वहीं आकर खड़ी हो जाएँगी.

चितसिंह ने गालों को फुलाते हुए तिरछी नज़र से मेहरदीन के चूल्हे की तरफ़ देखा. राख की ढेर के ऊपर खाली पतीला लुढ़का पड़ा था… कोई पशु रात में अपना मुँह मारने आया होगा. पतीला उसकी आँखों से बचा रह गया. छोटे-छोटे बर्तनों को उसने पेड़ से लटकी मेहरदीन की पोटली में ठूँस दिया था. तेज़ आवाज़ के साथ उसने मुँह से हवा बाहर निकाली… छिपट्टियों के नीचे दुबकी लपट भभकने लगी. अपने अलावा चार बाटी तो मेहरदीन की भी सेंकनी होंगी… फिर दाल रांधेगा… फिर मेहरदीन के पास जाएगा.

चूल्हे के आग पकड़ने और लाल गोले के नहर में डूबने की क्रियाएँ एक साथ हुईं. चितसिंह पानी लाने के लिए उठा. दोनों घड़े बाईखान और मानसिंह के चूल्हों के पास रखे थे. लुढ़के पतीले ने फिर उसका ध्यान अपनी तरफ़ खींचा. पतीले को उसने पास पड़े कपड़े से झाड़-पोंछ पेड़ की डाल से अटका दिया. राख के ढेर और कोयलों को एक जगह इकट्ठा किया और चूल्हे की ईंट को फिर से जमाया. मानसिंह का घड़ा खाली था. चूल्हे ने मुश्किल से आग पकड़ी थी. नहर से पानी लाने गया तो चूल्हा ठंडा हो गया. बाईखान के घड़े के पास चितसिंह कुछ देर ठिठका खड़ा रहा. दूर सुलग रहे चूल्हे की आग उसे मद्धिम होती सी लगी. बाईखान के घडे़ में कामचलाऊ पानी हिलडुल रहा था.

चितसिंह ‘किता’, मेहरदीन ‘जाउंद’, मानसिंह ‘म्याजलरा’ और बाईखान ‘पोखरण’ के ‘गुडी’ गाँव से अलग-अलग जत्थों में चार दिन आगे-पीछे यहाँ पहुँचे थे. बावड़ियों और कुंओं में गाद बची थी. धरती दरक गई थी. मवेशियों की कौन कहे, मानुख के लिए भी पानी की बूँद नहीं…. सभी गाँवों और ढाणियों की हालात एक सी. ढोर-डंगरो की सलामती के लिए गाँव-ढाणी त्याजने ही हुए.

‘सदाराऊ’ पहुँच सभी की सूखी आँखें हरी हो आईं. चितसिंह की सारी गायें बेकाबू हो रम्भाती हुई दौड़ चलीं. चौड़े पाट वाली नहर और उसकी ढेरों शाखाएँ… पानी से लबालब. इतना पानी! चितसिंह जिधर नज़र दौड़ाए… पानी ही पानी. पानी की सूंघ पा थार के सारे पक्षी और मवेशी यहीं चले आए हैं.

संध्या होने तक चितसिंह ने अपनी गृहस्थी बसा ली. मजबूत खेजड़े की फैली हुई जड़ों के आसपास की ज़मीन को उसने अच्छी तरह बुहारा. सेवण की बड़ी-बड़ी गठरियों को जमाया. बर्तन और कपड़ों की पोटलियों को शाखों के ऊपर टाँग ईंटों को इकट्ठा कर चूल्हा बनाया. मानसिंह का चूल्हा उसी खेजड़े के नीचे पीछे की ओर बना था.

बाईखान और मेहरदीन की गृहस्थियाँ एक सीध में सात-आठ हाथ आगे दूसरे खेजड़े के नीचे बसी थीं. सूरज के छिपते-छिपते चार चूल्हों ने लगभग एक साथ आग पकड़ी.

दिन बीतते-बीतते चितसिंह की समझ में आ गया. सारा मामला इतना आसान नहीं. यहाँ पानी का दरिया बह रहा है तो सेवण का एक तिनका भी आसपास नहीं. डांगरों के दाना-पानी में कितनी भी कटौती कर ले, साथ लाई सेवण की गठिरयाँ बाइस गायों का पेट कब तक भर सकेंगी?

सूरज छिपने से पहले मानसिंह और बाईखान ने डांगरों को हाँका लगाया. सेवण का मैदान आठ कोस पार करने के बाद आएगा. अभी चलना शुरू करेंगे तब जाकर कहीं सुबह वहाँ पहुँच पाएंगे. देर हुई तो चिलचिलाती धूप में डांगर बीच रास्ते में मुँह फाड़ देंगे. अपने आधे डांगरों को उन्होंने चितसिंह और मेहरदीन के हवाले किया और उनके आधे डांगर अपने रेवड़ में समेट सेवण के मैदान की दिशा में चल दिए.

चितसिंह के यहाँ आने के बाद पहली बार सिर्फ़ दो चूल्हे सुगबगाए और बाकी दोनों उसी तरह सोए रहे. बाजरे की रोटियाँ हथेली में थाम उसे अटपटा सा लगा. सांगरे का ढेर सारा अचार उसने रोटियों पर रखा और मेहरदीन के पास जा पहुँचा.

चितसिंह कुल्ला-दातुन निपटा नहर में गोता लगाने की सोच रहा था कि मेहरदीन हाँफता-दौड़ता दिखाई दिया. मुट्ठी में दबी रोटी और घास. चितसिंह उसके पीछे लपका. उसने देखा कि मेहरदीन घुटनों के बल झुका ज़मीन पर गिरी गाय के मुँह में रोटी का टुकड़ा ठूंसने की भरपूर कोशिश में जुटा है. गाय का पेट गुब्बारा बन गया है, बड़ी-बड़ी आँखें फाड़े वह निष्पंद पड़ी है. उसके देखते-देखते गाय के मुँह से एक हिचकी के साथ पानी बाहर निकला… कोरों से लार बहनी शुरू हुई और गर्दन एक तरफ़ लुढ़क गई.

मेहरदीन की रुंधी और टुकड़ों में धचकती रोने की आवाज़ कुछ देर हवा में गूँजते रहने के बाद खामोश हो गई. वह बाईखान की सबसे प्यारी सोना थी. बाईखान लौटेगा तो वह उसे अपना मुँह कैसे दिखाएगा? दो दिन से लगातार पानी ही पानी पी रही थी… घास का एक तिनका नहीं… भूख लगती तो फिर नहर में मुँह मारने पहुँच जाती… सोना के खुले मुँह से पानी अभी भी लार की तरह रिस रहा था. कुछ गायें चलती हुई सोना के पास आयीं और वहीं खड़ी हो गईंकृ बिना हिले-डुले पत्थर की बड़ी-बड़ी मूर्तियों की तरह, सोना की ओर टकटकी लगाए.
चितसिंह वहीं ज़मीन पर बैठ गया.

बाईखान मुँह अँधेरे वापिस लौटा. मेहरदीन पूरी रात खांसते हुए बलगम उगलता रहा था और इस वक़्त उकडूँ बैठा धीमी-धीमी आवाज़ में कराह रहा था. चितसिंह चित्त लेटा आकाश की ओर टकटकी लगाए कुछ सोच रहा था.

बाईखान को देखते ही चितसिंह उठ बैठा. उसका जी धक्क से रह गया. बाईखान अकेला लौटा था. दाढ़ी के बड़े-बड़े बाल धूल में अटे थे और सिर का पग्गड़ अधखुला गर्दन पर झूल रहा था. दूर तक नज़रें दौड़ायीं… मानसिंह का कोई चिन्ह नहीं. डांगरों का एक रेवड़ मरी चाल से नहर की ओर रेंग रहा था. बाईखान ने गर्दन नीची कर ली. वह इन्हें कैसे बताए
, सेवण चरने के बाद डांगरों को पानी भी चाहिए! वहाँ सेवण के मैदान में कोई बावड़ी या कुइयां नहीं. छागलों का पानी उनकी अपनी प्यास बुझाए या डांगरों की. सेवण पेट में उतरते ही डांगरों का जत्था चारों 
दिशाओं में कैसे पगलाया हुआ अपना मत्था ज़मीन से पटकता है!

उसके मुँह से मुश्किल से इतना बोल फूटा— ‘‘दो मवेशी रास्ते में लुढ़क लिए. आखिरी साँस टूटने तक मानसिंह को वहीं बैठना होगा.’’

नहर की ओर बढ़ते चितसिंह सिर्फ़ एक ही बात सोच रहा था सेवण का मैदान उड़ता हुआ इस नहर की ओर क्यों नहीं चला आता!

पखवाड़ा बीतते-बीतते किसी को एक दूसरे से कुछ पूछने, बताने या कहने की ज़रूरत नहीं रह गई. डांगरों को अब हाँकना नहीं पड़ता… उनके पीछे-पीछे चलने की कोई आवश्यकता नहीं. अपने पथ को उन्होंने अच्छी तरह बूझ लिया है. सेवण के मैदान से नहर तक और नहर से सेवण तक. एक निश्चित रास्ता… एक ही परिक्रमा. पानी पीते-पीते पेट फूलने लगता तो मुँह से लार बहाते कोई गाय सेवण के मैदान से आती हवा को सूंघती… खुरों को पटकती उस दिशा की ओर चलना शुरू करती, उसके आस-पास खड़ी उसकी बांधवियाँ मिचमिची आँखों से मुँह बाए कुछ देर तक देखती रहतीं, फिर धीरे-धीरे उसके पीछे एक कतार में कदम बढ़ाने लगतीं. दूसरी ओर, सेवण के मैदान में सेवण के सूखे तिनके जब मुँह और पेट में सुलगने लगते तो नहर की दिशा से पानी की फुहारें उन्हें अपने पास बुलाने लगतीं. …रात और दिन, धूप और छांह, पानी और सेवण… के बीच भेद करने की सारी इन्द्रियाँ शिथिल हो चुकी थीं.

उनकी यह यात्रा किसी भी घड़ी प्रारंभ हो जाती. …चलते-चलते मुँह से फेन बाहर निकलने लगता या आँतें खिंचने लगतीं तो किसी पेड़ के नीचे खड़ी हो जातीं… घड़ी दो घड़ी बाद फिर घिसटने लगतीं. यकायक उनमें से कोई पछाड़ा खा ज़मीन पर बिछ जाती तो सभी ठहर जातीं. मूक खड़ी ऐंठनियाँ खाते उसके शरीर को देखती रहतीं… खुले मुँह के ऊपर जब मक्खियाँ भिनभिनाने लगतीं और पूँछ ऐंठी रस्सी की तरह खामोश पड़ी रहती… देर तक, तब उनमें हरकत होती. नहर की धाराओं का चुम्बक उन्हें अपनी दिशा में और सेवण की हरियाली पीछे की ओर खींचने लगती. दो विपरीत दिशाओं में एक साथ न चल पाने से हकबकायी सी फिर वहीं ठिठककर खड़ी हो जातीं.

चितसिंह अपनी बाटियाँ सेंक चुका था. चूल्हे की आग मद्धिम होने लगी. आस-पास के खेजड़ों की डगालें और सूखी झाड़ियों की जड़ें चूल्हों की भेंट चढ़ चुकी थीं.

वह चिंतित हो आया… अभी चूल्हे में और आग चाहिए. …मेहरदीन की पीठ हिलडुल नहीं रही. वह उसी तरह बैठा है. कई बार वह उसके नज़दीक जा वापिस मुड़ लिया था. मेहरदीन की दुलारी कजरी सुबह से लुढ़की पड़ी है. …आज उसका चूल्हा खामोश रहेगा. बाईखान का दोपहरी से कुछ पता नहीं… आखिरी बार नहर की ओर जाता दिखाई दिया था. मानसिंह दो दिन हुए सेवण के मैदान की ओर गया था… अभी तक नहीं लौटा. संभव है आज चला आए. थके-हारे उसकी देह में इतना बल बचा होगा कि चूल्हा फूँक सके…?

तीनों चूल्हों और उसके आस-पास की खाली ज़मीन को खंगोलती चितसिंह की आँखें बार-बार अपने चूल्हे की धीमी होती लपटों से चिपक जातीं. यह नई बात नहीं… एक पखवाड़े से कोई रात ऐसी नहीं आई जब चारों चूल्हे एक साथ हँसे-खिलखिलाये हों. उनके सोने और जागने का कोई क्रम नहीं….

चितसिंह उठा और दोनों खेजड़ों के चारों ओर घूम गया. मोटी डगालों से लटक रही अपनी पोटलियां को उतार एक गठरी बनायी और उसे मानसिंह की बोरी के ऊपर टिका दिया. चट-चट की तीखी आवाज़ के साथ खेजड़े के दो मजबूत बाजू उखड़कर उसके हाथ में चले आए.
चूल्हे ने एक बार फिर आग पकड़ ली.

चितसिंह ने मेहरदीन के हिस्से की बाटियाँ सेंकी. पतीले को चूल्हे पर टिकाते उसे पीछे धप्प-धप्प की आवाज़ सुनाई दी. कनखियों से देखाकृ बाईखान उसकी ओर न आकर अपने ठिए की ओर बढ़ गया है.

पतीली खुदबुदाने लगी थी. चितसिंह ने दो मुट्ठी उड़द उसमें डाली. लकड़ी को चूल्हे से इतना बाहर खींचा कि आग बुझने न पाए… फिर धीरे-धीरे चलता बाईखान के पास पहुँचा.
बाईखान की हिलती हुई लाल-सफ़ेद दाढ़ी खेजड़े के नीचे फैली परछाई का हिस्सा बनी थी.
चितसिंह धीरे से खंकाराकृ ‘‘चूल्हे में काफी आग हैगी. अपनी और मानसिंह की रोटी सेंक लिजो. मैं पाणी भरने जा रहा.’’
चितसिंह खाली घड़े को बगल में दबाए नहर की ओर चल दिया.
सूरज कभी का नहर में गोता लगा चुका था. उसके डूबने के आखिरी चिन्ह और रंग आकाश और पानी में घुलमिल एकाकार हो गए थे. चितसिंह के देखते-देखते बगुलों की आखिरी कतार टिड्डियों और फिर चींटियों में बदलती अँधेरे में खो गई.
____________________
अशोक अग्रवाल
जन्म : सन् 1948, पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जनपद हापुड़ में.
शिक्षा : एम. ए. हिन्दी साहित्य.
पुरस्कार तथा सम्मान : कहानी संग्रह उसका खेल संस्कृति मंत्रालय, मध्य प्रदेश शासन द्वारा अखिल भारतीय मुक्तिबोध पुरस्कार से सम्मानित (1975). वायदा माफ गवाह उत्तरप्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा पुरस्कृत (1977). संस्कृति मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा सीनियर फैलोशिप (1994).
प्रकाशित कृतियाँ : उसका खेल (1973), संकरी गली में(1979), उसके हिस्से की नींद (1988), मामूली बात (1993), दस प्रतिनिधि कहानियाँ (2003), मसौदा गाँव का बूढ़ा (2005), आधी सदी का कोरस (सम्पूर्ण कहानियाँ, 2019)— कहानी संग्रह ; वायदा माफ गवाह (1975), काली और कलन्दर (2002)— उपन्यास ; किसी वक्त किसी जगह (2003)— यात्रा वृत्तान्त; दस कहानीकार (1971)— सम्पादन.
अनेक भारतीय तथा विदेशी भाषाओं में कहानियों के अनुवाद. वायदा माफ गवाह मराठी तथा मलयालम में प्रकाशित. अनेक महत्वपूर्ण संकलनों में कहानियाँ सम्मिलित.
सम्पर्क : 8265874186 (मो.)
_________________________

कहानी संग्रह के लिए संभावना प्रकाशन से सम्पर्क किया जा सकता है
६४, रेवती कुंज, हापुड़ -२४५१०१
मोब. 7017437410 
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