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Home » कथा- गाथा : गायब होता देश : रणेन्द्र

कथा- गाथा : गायब होता देश : रणेन्द्र

रणेन्द्र का पहला उपन्यास, ‘ग्लोबल गाँव के देवता’ भारत के आदिवासी समुदाय के समक्ष संकट और उनके संघर्ष का आख्यान है, इस उपन्यास में रणेन्द्र ने इतिहास से बाहर ही नहीं इतिहास में विद्रूप कर दिए गए ‘असुर’ आदिवासी समाज की संस्कृति और यातना का इतिहास लिखा है. उनका दूसरा उपन्यास ‘गायब होता देश’ झारखण्ड […]

by arun dev
June 13, 2014
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रणेन्द्र का पहला उपन्यास, ‘ग्लोबल गाँव के देवता’ भारत के आदिवासी समुदाय के समक्ष संकट और उनके संघर्ष का आख्यान है, इस उपन्यास में रणेन्द्र ने इतिहास से बाहर ही नहीं इतिहास में विद्रूप कर दिए गए ‘असुर’ आदिवासी समाज की संस्कृति और यातना का इतिहास लिखा है. उनका दूसरा उपन्यास ‘गायब होता देश’ झारखण्ड के मुंडा आदिवासियों को केंद्र में रख कर लिखा गया है, पूंजीवादी आधुनिकता ने कैसे एक पूरे समुदाय को ही अदृश्य कर दिया है इसे इस उपन्यास में देखा जा सकता है.


अं धे रे की या त्रा का प ड़ा व                               
(रणेन्द्र के नए उपन्यास गायब होता देश का एक अंश)

शुरू में संजय ही मोटरसाइकिल ड्राइव कर रहे थे. मैं बीच में, मेरे पीछे एतवा मुंडा. दो-चार

रणेन्द्र

किलोमीटर बाद ही सरजोम (सखुआ) का घना जंगल शुरू हो गया. सरजोम (साखू) के साथ पलाश, अमलतास, सेमल, जेकरांडा, शिरीष, आम, जामुन, इमली, गूलर, कटहल, फालसा, बड़हर, हर्रे, बहेड़ा, खैर, करंज, नीम, बेर, केंदू, फालसा, बांस, झरबेरी, कैर, खैर, पुटुस और न जाने क्या-क्या ! पांच-सात किलोमीटर के बाद गांव शुरू हो गए. हर गांव के लड़कों ने अपने सिवाने की सड़क पर बैरिकेडिंग कर रखी थी. शुरू में संजय को पहचान कर लड़कों ने बैरिकेड उठाया, लेकिन दस-पंद्रह किलोमीटर के बाद एतवा को आगे आना पड़ा. उसी ने ड्राइविंग शुरू की. एदलहातु के पहले पाहन टोली में एतवा ने मोटरसाइकिल रोक कर उन घरों को दिखाया जिनके लड़के उस दिन की फायरिंग में मारे गए या घायल हुए. आगे आधा किलोमीटर से कम पर ही अंधरा मोड़ था. पुराने घने पेड़ों के कारण वहां चारों तरफ दिन में भी अंधेरा लग रहा था. मोटरसाइकिल फिर रुकी. पेड़ों पर गोली के निशान ताज़ा थे. जिस जगह शहीद परमेश्वर गोली खा कर गिरे थे वहां की मिट्टी अभी भी लाल थी. लड़कों ने बांस की खपच्चियों से उस जगह को घेर दिया था. लेकिन एतवा ने किसी तरह अंदर हाथ डाल कर मिट्टी को उठाया और अपने ललाट में मलने लगा. फिर उसे हमारा ध्यान आया. हमारे ललाट पर भी उस मिट्टी का तिलक लगा. तभी न जाने क्या हुआ, वह संजय को पकड़ कर हुलस-हुलस कर रोने लगा. संजय की आंखों से भी आंसू की धार बह चली. मेरी आंखें भी डबडबा गईं. मन भर रोने के बाद वह थोड़ी देर वहां मिट्टी पर बैठा रहा, न जाने क्या सोचता? फिर ख़ुद ही उठा और मोटरसाइकिल स्टार्ट की.

एदलहातु के बैरिकेड पर भारी झंझट. लड़के किसी तरह से मान ही नहीं रहे थे. एतवा तो उसी गांव का, एक ही किलि का, उसके लिए क्या आपत्ति हो सकती थी? संजय तो दादा के सहिया का बेटा, गांव भर का मेहमान. लेकिन मैं बाहरी था. अनजाना. जिस पर विश्वास को कोई तैयार नहीं. वैसे भी आज ‘उंबुल अदेर‘ की रस्म थी. इस रस्म में बाहरी आदमी तो एकदम नहीं. सख्त मनाही. एतवा पर सब पिले हुए. वह तो सब जानता था फिर क्यों ले कर आया?
शायद संपादक जी को इस बात की आशंका थी या बूढ़े जायसवाल जी ने बताई हो. नीरज के पोलिटेक्निक कालेज के प्रिंसिपल का नंबर दिया गया था. मैंने उनका ही नंबर मिलाया. सारी बात बताई. संभवतः संपादक जी से भी उनकी बात हुई थी. उन्होंने नीरज से बात करने की इच्छा व्यक्त की. मैंने मोबाइल एतवा को थमा दिया. थोड़ी ही देर में नीरज आता दिखा. मुंडित सिर. आधी धोती पहने, आधा ओढ़े. पीछे-पीछे एतवा. ‘गलत दिन चुना गया है सर!’ आते ही नीरज ने अफसोस जताने के लहजे में कहा. ‘आज ‘छाया-भितराने‘ का करम है. भैयाद लोग जुटने लगे हैं. नदी नहाने निकल रहे हैं. अब एतवा दा और गांव का लोग ही उस दिन का बात बताएगा. आज तो दुआर पर भी नहीं ले जा सकता. एतवा दा, सब व्यवस्था कर देगा.’
‘बड़ा मीठा बोल रहा था….परमेश्वर जी…परमेश्वर जी…हवलदार साब…. तभी शक हो गया था. ई आग मूतने वाला दरोगा वीरेंद्र प्रताप ऐतना मीठ कैसे? लेकिन बहाना बड़ा ठोस था. सीनियर एस.पी., डी.सी., ग्रीन एनर्जी का मैनेजर सब थाना पर. बातचीत के लिए बुलाया गया…अब कैसे नहीं जाएं. ख़ुद दरोगा जी लेने आए थे. दुआर पर ढेर देर बैठा. पानी चाय भी पी. वो तो भाभी जबरन जीप में बैठ गईं नहीं तो लाश का पता नहीं चलने देता.’
‘ई सब चाल था राक्षस का!’
‘छांट-छांट कर अपनी जाति के सिपाही जीप में लाया था ताकि गवाह नहीं टूटे….’
‘अंधरा मोड़ पर फायरिंग की आवाज़ और भाभी की चीख सुन पाहन टोला के जवानों ने जीप घेर ली. उनपर भी एकाएक फायरिंग शुरू कर दी.’
‘.दो जवानों का तो स्पाट डेथ हो गया…तीन अभी तक हास्पिटल में हैं…’
‘गांव से भी दो मोटर साइकिल से लड़कों ने पीछा किया था. उन्होंने ही दादा की मिट्टी उठा कर लाई.’
‘उन्होंने ही उस राकस को भाभी को जीप में जबरन दबाए ले जाते देखा…’
‘कभी कहता है कि अंधरा मोड़ से ही नक्सलियों के साथ भागी…कभी कहता है थाना से भागी…कभी हल्ला उठता है कि थाना के पीछे की कोठरी से गायब है. दस मुंह से दस बात करता है राकस सब…’
लगा, गांव के सब लड़के-बूढ़े एक साथ ही छाती फाड़ कर उस दिन की काली तस्वीर दिखाना चाहते हों.
एक-एक बात रिकार्ड हो रही थी. एक-एक तस्वीर कैमरे ने कैद की थी. एफ.आई.आर., फाइल, कागज़, अख़बारों-चैनलों की सुर्खियों की धज्जियां उड़ गई थीं. चिकने-चुपड़े चेहरों के पीछे की गहरी कालिख पूरे आकाश पर छा गई थी. धरती उनकी ही धौंस से सहमी जा रही थी.
एतवा बगल के खटिया पर बैठा रोए जा रहा था. संजय लौट गए थे. अंधेरा होने के पहले घर पहुंचना चाह रहे थे. सारी बातें आइने की तरह साफ थीं. अब कुछ-पूछने की ज़रूरत ही नहीं थी. मैंने एक किनारे जा कर संपादक जी को सभी बातें धीरे-धीरे नोट करवा दीं. सब सुना-लिखा कर मन थोड़ा हल्का हुआ.
मैंने और एतवा के आबा (पिता) ने मिलकर उसे चुप करवाया. पानी-वानी पिलवाया. आंख-मुंह धोने के बाद जब उसे ठीक से होश आया तब उसे लगा कि मुझे तो चाय-वाय के लिए भी नहीं पूछा गया. सब व्यवस्था उसे ही तो करनी थी. नीरज तो यही कह कर गया था.
उधर मेरे मन में ‘उंबुल-अदेर‘ घुमेड़ ले रहा था. यह ‘उंबुल-अदेर‘ क्या है भाई? जवाब एतवा के आबा ने दिया. देह, जियु (आत्मा) और रोवा (छाया) तीनों मिलकर होड़ो (इंसान) बनते हैं. हर होड़ो एक निश्चित उम्र लेकर आता है, उसे ‘जोम-सकम‘ कहते हैं. पत्तल पर रखा भोजन. भोजन खत्म, यानी इंसान को जितनी उम्र मिली उतना जी लिया. सांस रुकने पर जियु परोमपुर चली जाती है सिड्;गबोंगा के पास. लेकिन इंसान का रोवा (छाया) यहीं रह जाता है. यह वही रोवा है जो इंसान जब सोया रहता है तो बाहर निकल कर घूमता है. रोवा जो देखता है, इंसान उसे ही सपने में देखता है. यह जियु की तरह नहीं. इसकी भी अपनी ज़रूरत है, इसलिए गाड़ते समय चावल-पैसा सब रखा जाता है ताकि रोवा की ज़रूरत पूरी होती रहे. अंतिम क्रिया के छठे-आठवें या दसवें दिन उस छाया को घर के भीतर के खास कोने को जिसे अदिंग कहते हैं, वहां ले जाने की विधि ही छाया-भितराना ‘उंबुल-अदेर‘ कहलाती है.“
‘सर! जियु तो परोमपुर में सिंड़्गबोंगा के पास से हमें निहारता रहता है,’ एतवा ने बात बढ़ाई, ’लेकिन रोवा कहीं नहीं जाता. हमारे पास रहता है, बोंगा (देवता) बन कर, अदिंग-बोंगको (पूर्वज-देवता) बन कर. हमारे सुख-दुख का साझीदार, हमारा रक्षक, हमारा कवच, मुंडाओं को अमर बनाता. चलिए सर! दूर से ही देखेंगे. अंधेरे में जितना दिखेगा.’
गांव से बाहर निकलने पर सिवाने पर कुछ जलता हुआ दिखा.
‘केंदु टहनियों का एक कुंबा झोंपड़ी जैसा बनाया जाता है. फिर उसमें आग लगा दी जाती है. रोवा को कहा जाता है कि तुम्हारा नया घर जल गया, अपने पुराने घर में चलिए. घर में दरवाज़े से अदिंग तक राख या आटा छितरा दिया जाता है. अदिंग में दोने में ढंक कर भात और बिना हल्दी की उड़द दाल रखा जाता है. रोवा जिस जानवर की आकृति में घर में घुसता है उसके पंजों की छाप पड़ जाती है और दोना में भी खाना घटा-छितराया रहता है. तब जान लिया जाता है कि रोवा भितरा गया है.’
थोड़ी देर बाद नीरज के घर के आंगन से पूजा की आवाज़ आने लगी. एतवा ने अनुवाद सुनाया.

हे आकाश के परमेश्वर सिंडबोगा
हे देवीमाता-धरती माता
दूध की तरह उगनेवाले
दही की तरह थिरने वाले
तुम ही आदि हो
तुम ही अंत हो

चारो कोण, चारो दिशाएं
तुम्हारी ही सृष्टि
तुम्हारी ही उत्त्पति
पहाड़ के मारंग बुरू बोंगा
दह के इकिर बोंगा
गांव के दसउली बोंगा
सीमा कर चंडी देवी
घर के अदिंग बोंगको
हमारे पुरखे-पूर्वज
हम सबको बुलाते हैं
सबको न्योता देते हैं

हमारे बीच से अदृश्य हुए
हमारे बीच से बोंगा बने
हमारे खून का परमेश्वर
हमारे वंश का परमेश्वर
जो रास्ता भूल गया था
डहर विसुर गया था
उसके पहले घर में
उसकी पुरानी झोपड़ी में
अपने पूर्वजों के संग
रहने को हम बुलाते हैं
बसने को हम ले चलते हैं
इसकी वापसी की राह में
लौटने के डहर में
कोई बाधा न रहे
कोई विघ्न न रहे
एतवा का घर छोटा ही था. संभवतः खेती कम थी. घर में चावल भी नहीं था, ऐसा मुझे लगा क्योंकि देर से लौटने पर चावल की व्यवस्था इधर-उधर से एतवा ने ही की. तब तक बच्चे थाली में महुए का लट्ठा खा रहे थे. वे लट्ठा खा कर ही सो गए. खाना बहुत देर से बना. धान की रोपनी के बाद कुछ मजबूत घरों को छोड़कर धनकटनी तक यही हालत. एतवा ने बताया, थोड़ा खर्चा की कमी. कोठी का धान सब बिचड़ा में ही लग जाता है.
खाते-पीते गप्प करते ढेर रात हो गई. नींद लगी. लेकिन बहुत सबेरे ही न जाने क्यों आंखें खुल गईं. कुछ खटका सा लगा. कुछ भय सा. बगल में एतवा भी नहीं था. थोड़ी देर बाद लगा, घर में कोई है ही नहीं. पास सो रहे बच्चे भी नहीं. बाहर निकल कर देखा तो लगा, पूरा गांव ही भांय-भांय कर रहा है. एक सन्नाटा गूंजता हुआ. बाहर गली में सावधानी से टहलता इधर-उधर झांकने लगा. कोई दिख ही नहीं रहा. दरवाज़े के पशु भी नहीं. क्या हो गया? मन घबड़ाने लगा. धड़कन एकाएक तेज़ हो गई. भोर की ठंडी हवा में भी पसीने आ रहे थे. एतवा का मोबाइल पहुंच से बाहर बता रहा था. जायसवाल जी का नंबर लगाया. दो बार रिंग हो कर कट गया. तीसरी बार संजय था. घबराया हुआ. फुसफुसाहट जैसी आवाज़ ‘सर! आप तुरंत वहां से निकल जाइए. लेकिन इस तरफ नहीं आइएगा. उल्टी दिशा में बढि़ए. सामने टुंगरी दिख रही है, किसी तरह उसे घंटे भर में पार कर जाइए. हो सकता है, एतवा लोग उधरे मिल जाएं. यहां थाना पर रात में शायद हमला हुआ था, वीरेंद्र प्रताप की लाश नहीं मिल रही है. अब फोन काट रहे हैं. आप भी नंबर डिलीट कर दीजिएगा.’

मेरे होशोहवास गुम हो गए. लगा तुरंत ही फोर्स पहुंचने वाली है बिना कुछ पूछे एनकाउटंर होने वाला है. मैंने अपना झोला-झंटा उठाया और टुंगरी की ओर दौड़ पड़ा. तभी सरना के सरजोम पर नज़र पड़ी…एक फटी हुई खाकी वर्दी…खून से सनी उसकी टहनियों में फंसी फड़फड़ा रही थी….
__________________

(रणेन्द्र के नए उपन्यास गायब होता देश का यह अंश. 
किताब के प्रकाशक पेंगुइन बुक्स इंडिया की अनुमति से प्रकाशित)
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