वाणी प्रकाशन से इस वर्ष चर्चित कथाकार जयश्री रॉय का उपन्यास दर्दजा प्रकाशित हुआ है. इस उपन्यास का एक अंश और साथ में अभयकुमार दुबे (सीएसडीएस)) की टिप्पणी ख़ास आपके लिए.
“जयश्री रॉय की कृति ‘दर्दजा’ के पृष्ठों पर एक ऐसे संघर्ष की ख़ून और तकलीफ़ में डूबी हुई गाथा दर्ज है जो अफ़्रीका के 28 देशों के साथ-साथ मध्य-पूर्व के कुछ देशों और मध्य व दक्षिण अमेरिका के कुछ जातीय समुदायों की करोड़ों स्त्रियों द्वारा फ़ीमेल जेनिटल म्यूटिलेशन (एफ़जीएम या औरतों की सुन्नत) की कुप्रथा के ख़िलाफ़ किया जा रहा है. स्त्री की सुन्नत का मतलब है उसके यौनांग के बाहरी हिस्से (भगनासा समेत उसके बाहरी ओष्ठ) को काट कर सिल देना, ताकि उसकी नैसर्गिक कामेच्छा को पूरी तरह से नियंत्रित करके उसे महज़ बच्चा पैदा करने वाली मशीन में बदला जा सके. धर्म, परम्परा और सेक्शुअलिटी के जटिल धरातल पर चल रही इस लड़ाई में विश्व स्वास्थ्य संगठन और यूनेस्को जैसी विश्व-संस्थाओं की सक्रिय हिस्सेदारी तो है ही, सत्तर के दशक में प्रकाशित होस्किन रिपोर्ट के बाद से नारीवादी आंदोलन और उसके रैडिकल विमर्श ने भी इसमें अहम भूमिका निभाई है.
अपनी समाज-वैज्ञानिक विषय-वस्तु के बावजूद प्रथम पुरुष में रची गयी जयश्री रॉय की कलात्मक आख्यानधर्मिता ने स्त्री की इस जद्दोजहद को प्रकृति के ऊपर किये जा रहे अत्याचार के विरुद्ध विद्रोह का रूप दे दिया है. सुन्नत की भीषण यातना से गुज़र चुकी माहरा अपनी बेटी मासा को उसी तरह की त्रासदी से बचाने के लिये पितृसत्ता द्वारा थोपी गयी सभी सीमाओं का उल्लंघन करती है.
अफ़्रीका के जंगलों और रेगिस्तानों की बेरहम ज़मीन पर सदियों से दौड़ते हुए माहरा और मासा के अवज्ञाकारी क़दम अपने पीछे मुक्ति के निशान छोड़ते चले जाते हैं. माहरा की बग़ावती चीख़ एक बेलिबास रूह के क़लाम की तरह है. हमारे कानों में गूँजते हुए वह एक ऐसे समय तक पहुँचने का उपक्रम करती है जिसमें कैक्टस अपने खिलने के लिए माक़ूल मौसम का मोहताज़ नहीं रहता.”
अभय कुमार दुबे
निदेशक, भारतीय भाषा कार्यक्रम, विकासशील समाज अध्ययन पीठ (सीएसडीएस), दिल्ली
शादी के बाद मैं पहली बार अपने मायके गई थी. बहुत आवभगत हुई थी मेरी. घर की हालत इन कुछ दिनों में ही काफी बेहतर नज़र आ रही थी. मेरी कीमत शायद बहुत अच्छी मिली थी अब्बू को. सहन में बंधे बहुत सारे ऊंट, गाय, बकरियां, घर में नई चीज़ें, तारिक भाई की नई कमीज़, बजता हुआ ट्रांजिस्टर! मैं सबकुछ सूखी आंखों से देखती रही थी. मुझे पता था, इन चीज़ों के लिये कैसा मूल्य मैंने चुकाया था. अब भी ठीक से चल-फिर नहीं पा रही थी. हर क़दम के साथ भीतर कुछ चिलक उठता था. नसों में आग़ की नदी-सी बह रही थी.
दर्दजा
जयश्री रॉय
अपने नये घर में आज मेरा सुहाग रात था. हमारा ’बीशा मालाबका’ (मधु चंद्रिका) शुरु हो चुका था. एक बड़े कमरे में मैं नीम अंधेरे में बैठी थी. कोने में एक लैंप जल रहा था. दरवाज़े, खिडकियां बंद, गहरी ऊमस. बहुत गर्मी हो रही थी. ऊपर से इतने सारे कपड़े. देर से बहुत नींद भी आ रही थी. दो औरतों ने मुझे तैयार करके इस कमरे में बिठा दिया था. कई घंटे पहले. मुझे यहां का माहौल अजीब लगा था. मनहूसियत भरा. बड़े-बड़े कमरे, अनाज की बोरियों से भरे हुये. साथ में खेती-बाड़ी में काम आनेवाले औजार और कुछ मशीनें भी. आंगन के पार लम्बी कतार में बंधे हुये जानवर. हर तरफ गोबर-लीद की तेज़ गंध… शाम से जाने सारे लोग कहां चले गये थे. पड़ोस में कोई बच्चा लगातार रोये जा रहा था. सब कुछ मुझे बड़ा असह्य लग रहा था. साथ में डर तो था ही. पहली बार किसी अजनबी परिवेश में घरवालों से दूर- एकदम अकेली! प्यास से गला सूख रहा था. देर तक सतर्क मुद्रा में बैठी-बैठी मैं थकने लगी थी और जाने कब बिस्तर की पाटी से लगी-लगी ही सो गई थी.
रात का पता नहीं क्या बजा था जब ज़हीर कमरे में आया था. आते ही उसने कमरे का दरवाज़ा बंद किया था और बिस्तर पर आ बैठा था. दरवाज़े की आवाज़ सुनकर मैं अचकचा कर उठ बैठी थी. ज़हीर सामने बैठा मुझे घूरकर देखते हुये मुस्करा रहा था. मुस्कराते ही उसके सारे दांत मसूड़ा सहित बाहर निकल आते थे. उसका मसूड़ा बहुत लाल था और दांत हरे, पीले, कत्थे. उसके हंसने से उसके गाल ऊपर की ओर उठकर उसकी चुंधी हुई आंखों को पूरी तरह मूंद देते थे. बाल कच्चे-पक्के और सर के बीच से बिल्कुल नदारद. आज पहली बार उसे इतने क़रीब से देखा था. उसकी देह से वही सड़ी दही जैसी तेज़, खट्टी गंध उठ रही थी. मेरा जी एक बार फिर से घुलाने लगा था.
थोड़ी देर मेरी तरफ एक टक देख कर उसने अचानक मेरे कपड़ॊं में हाथ डाल कर मेरा शरीर टटोलना शुरु कर दिया था. यह बहुत अप्रत्याशित था मेरे लिये. इससे पहले ऐसा कोई अनुभव नहीं था मेरे जीवन में. हमें हमेशा मर्दों से दूर ही रहना सीखाया जाता है. मैं चिंहुक कर पीछे हटी थी, मगर ज़हीर ने बिस्तर पर चड़कर मुझे दबोच लिया था. उसकी उंगलियां हडियल थीं जिनसे वह मुझे मसल रहा था. मेरी देह की अविकसित रेखायें दर्द से टीस उठी थी. जाने वह क्या चहता था! किसी अंधे की तरह मुझे टटोले जा रहा था. लैंप की कांपती हुई पीली लौ में उसकी परछाई पूरी दीवार को घेर कर नाच रही थी. उसका तरबूज जैसा सर, चील-सी टेढ़ी नाक और लम्बी, सूखी सींक जैसी उंगलियां… जैसे कोई प्रेतात्मा ही मुझ पर झपट्टा मार रहा हो.
उसने थोड़ी ही देर में मेरे शरीर से लगभग सारे ही कपड़े नोंच फेंके थे. अब वह मुझे बुरी तरह से नोंच-खसोट रहा था. ऐसा करते हुये उत्तेजना में उसके मुंह से सांप की तरह ’हिश-हिश’ आवाज़ निकलने लगी थी. लग रहा था जैसे उस पर कोई आसेब उतरा है. रोशनी की पृष्ठभूमि में उसका चेहरा बिल्कुल छिप गया था. कभी-कभी पीली आंखें चमक उठती थीं. गहरे आतंक और तकलीफ से अब मैं रोने लगी थी. ’रोना नहीं जान! देखो अभी तुम्हें बहुत मजा आयेगा’ कहते हुये अब वह मेरी जांघों के बीच हाथ डालने की क़ोशिश करने लगा था. मैंने दोनों हाथों से अपने नग्न शरीर को ढंकते हुये अपने दोनों पैर सख़्ती से आपस में जोड़ लिये थे. मगर थोड़ी ही देर में उसने उन्हें अलगा कर मेरी भीतर अपनी हडियल उंगली धंसा दी थी. ओह! तेज़ पीड़ा की लहर मेरे पूरे शरीर में दौड़ती चली गई थी. लगा था, किसी ने चाकू से चीर दिया है. मैं हलक फाड़कर चिल्लाई थी और फिर चिल्लाती ही चली गई थी. मगर ज़हीर ने अपनी उंगली बाहर नहीं निकाली थी, बल्कि और भी अंदर तक घुसाता चला गया था. सिलाई के बाद शायद मेरे शरीर के भीतर का हिस्सा लगभग पूरी तरह से मूंद गया था. घाव भी पुर आया था. मगर आज अपनी लम्बी नाखून सहित उंगली डालकर ज़हीर ने मेरे जख़्म को उधेड़ दिया था. उसने अपने मुंह से मेरे मुंह को बंद कर रखा था. मेरा मुंह पूरी तरह से उसके मुंह के भीतर था जिसे वह धीरे-धीरे चबा रहा था. उसकी सांसों की तेज़ दुर्गंध मेरे फेफड़ों में भर गई थी. इस समय उत्तेजना से हांफते हुये वह अपनी रोमस जांघों से मेरी दोनों टांगों को चांप कर मेरे भीतर प्रविष्ट करने का प्रयास कर रहा था. ओह मेरे ख़ुदा!! इतनी घुटन! इतनी पीड़ा! मुझे प्रतीत हो रहा था, कोई जलती हुई सलाख से मुझे छेद रहा है. ज़हीर किसी भूखे दरिंदे की तरह मुझ पर सवार होकर मुझे बेरहमी से भंभोरे जा रहा था. गहरा अंधेरा, गर्मी, घुटन और जानलेवा दर्द… मैं लगातार गोंगियाये जा रही थी.
बहुत देर क़ोशिश करने के बावजूद ज़हीर मेरे भीतर प्रवेश नहीं कर पाया था. बेरहमी से लगातार क़ोशिश कर-करके आखिर वह झल्ला कर उठा था और अपना तहमद लपेटकर कमरे से बाहर निकल गया था. उस समय कमरे में घुप अंधेरा था. मैं बिस्तर पर अपने जख़्मी शरीर को दोनों हाथों से दबाये पड़ी-पड़ी देर तक रोती रही थी.
उस समय मुझे जाने क्यों अपनी मां की बहुत याद आ रही थी. शायद इंसान जब खुद को बहुत अकेला, असहाय और भय से घिरा पाता है, उसे अपनी मां की ही याद आती है, फिर चाहे वह उम्र की किसी भी अवस्था में क्यों ना हो. मुझे लग रहा था, कहीं से इस समय मां आये और मुझे अपनी गोद में ले लें. मुझे बचपन में मिला उनका वात्सल्य भरा स्पर्श याद आ रहा था, मीठी लोरियां, ममता भरी चावनी… मां! कहां हो तुम? देखो तुम्हारी माहरा की क्या हालत कर दी है इस राक्षस ने… मां! मां! मैं कराह-कराहकर रोये जा रही थी जब कमरे में कोई लैम्प लेकर दाख़िल हुआ था. पूरे कमरे में रोशनी फैल गई थी. पहले जो लैम्प जल रहा था वह कब का बुझ चुका था. मैंने गहरे आश्चर्य से देखा था, मेरे सरहाने मां खड़ी थी. साथ में एक और औरत भी. मुझे यकीन नहीं हुआ था- ओह मेरे मालिक! तुमने आज पहली बार इतनी जल्दी मेरी दुआ कबूल कर ली! आज तो मैं शायद जो मांगती मुझे मिल जाता… मैं उठकर चीख-चीखकर रोते हुये मां से बेतहासा लिपट गई थी- \”मां! ओ मां! मुझे यहां से ले चलो. अपनी माहरा को, अपनी गुडिया को! वर्ना ये मुझे मार डालेगा मां…\” मैं मां से बुरी तरह चिपटकर बिलखे जा रही थी. मुझे प्रतीत हो रहा था, अब मेरा कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता, अब मैं सुरक्षित हूं, अपनी मां की गोद में हूं!
कुछ देर चुपचाप खड़ी रहकर मां ने मुझे अचानक धकेलकर खुद से परे किया था. उनके दिये धक्के से मैं बिस्तर पर चित्त गिर पड़ी थी. गिरते हुये मैंने आश्चर्य से मां के चेहरे की ओर देखा था और डर से शून्य पड़ गई थी. वो मेरी मां नहीं थीं- हो नहीं सकती थीं! मेरी मां का चेहरा तो कितना कोमल है, स्नेहिल, वात्सल्य से भरा… और ये जो मेरे सामने खड़ी है?… पत्थर-सा कठोर चेहरा, सख़्त, निर्मम, अजनबी आंखें, भींचा हुआ जबरा… इससे पहले की मैं कुछ सोच या समझ पाती, मैंने मां के हाथ में वह चाकू देखा था- जंग खाई, भोंथरी! मेरे भीतर आतंक का एक तेज़, घुमड़ता हुआ बवंडर उठा था- \”मां!\” मां ने बिना मेरी ओर देखे ठंडी आवाज़ में उस औरत से कहा था- \”पकड़ो इसे!\” और इसके साथ ही उस औरत ने जो किसी जंगली भैंसे की तरह मोटी थी, मुझे लपक कर पकड़ लिया था. मैंने स्तब्ध होकर देखा था, मेरी टांगों को चौड़ा कर मां मेरे ऊपर झुक गईं हैं. तेज़, भयानक पीड़ा के बीच मैंने इतना ही समझा था, मां मेरे जनानांग की लगभग बंद पड गयी छेद को उस भोंथरी चाकू से काट कर खोलने का प्रयास कर रही हैं. ओह मेरे अल्ला! मां ये मेरे साथ क्या कर रही हैं! इससे तो अच्छा था सब मिलकर मुझे एक ही बार में मार देते… ये दर्द… और नहीं सहा जाता… मां! अल्लाह! अब मैं किसे पुकारूं? मेरी आंखों के सामने स्याह धब्बे रुई के फाहे की तरह उड़ने लगे थे, कानों में जैसे हज़ारों झिंगुर एक साथ चिल्ला रहे थे, दिमाग़ के भीतर कुछ धपधपा रहा था, जैसे गीली मिट्टी को कोई हथौड़े से पीट रहा हो… भीतर सब मलीदा बनता जा रहा था- कीचड़ का दलदल…! मेरी जांघो के बीच कुछ गरम, चिपचिपा-सा फैल रहा था. खून होगा! मेरे गले से अब आवाज़ नहीं निकल रही थी.
मुझे अचेत-सी छोड़कर मां और वह औरत एक समय के बाद चली गई थी. जाते हुये शायद मां ने कहा था- \”अपने परिवार का सम्मान नष्ट मत होने देना!\” मैं बस अपनी धुंधली नज़रों से उन्हें चुपचाप जाते हुये देखती रही थी. बाहर कोई भेड़ियां पास के जंगल में रो रहा था. शायद बादल फट कर चांद भी निकल आया था. खिड़की के बाहर यकायक उजाला-सा हो गया था. कमरे में फीका अंधकार नीली स्याही की तरह फैला था. मैं सोच रही थी, सुबह कब होगी!
मै अचेत थी कि तंद्रालस पता नहीं. शायद भोर रात के क़रीब ज़हीर फिर कमरे में आया था. आते ही वह मुझ पर चढ़ाई कर बैठा था. मैंने चीखने की एक असफल क़ोशिश की थी, मगर गले से बस एक घरघराहट की-सी आवाज़ निकल कर रह गई थी. वैसे भी ज़हीर ने अपने पंजे से मेरा मुंह दबा रखा था. मैं अपने खून में लिथड़ी पड़ी थी और ज़हीर पूरी ताक़त से मेरे ताज़े कटे हुये जनानांग में प्रविष्ठ करने की क़ोशिश कर रहा था. मैं महसूस कर सकती थी, मेरी पुरती हुई त्वचा, घाव धीरे-धीरे फट रहा है, टांके उधड़ रहे हैं. दर्द.. इस चरम पीड़ा को मैं किसी शब्द में बयान नहीं कर सकती. मैं इस समय बस इतना ही चहती थी कि मैं मर जाऊं, बस मर जाऊं! रहम मेरे मालिक! करम मेरे मौला! गोंगियाते-गोंगियाते जाने मैं कब अचेत हो गई थी.
सुबह कई औरतों के सम्मिलित स्वर ने मुझे होश में लाया था. शायद मेरे चेहरे पर पानी भी छिड़का गया था. बड़ी मुश्क़िल से आंखें खोल कर मैंने देखा था, पूरा कमरा औरतों से भरा हुआ था. सभी ज़ोर-ज़ोर से जाने क्या बोले जा रही थीं! मुझे लगा था, मेरी आंखों के पपोटे में किसी ने मिर्च का बुरादा मल दिया है. कितनी बुरी तरह से वे जल रहे थे! दो-तीन बार पानी के छींटे मुंह पर डालने के बाद मेरा दिमाग़ थोड़ा साफ़ हुआ था. सभी औरतें मुझे घेर कर खड़ी थीं और उल्लास से फटी पड़ रही थीं. अब मैंने उनकी ख़ुशी का कारण समझा था. वे बिस्तर में पड़े खून के धब्बों को देख कर ख़ुश हो रही थी. इतना सारा खून! अब मेरी नज़र मां पर पड़ी थी. सभी उन्हें इस बात की बधाई दे रहे थे कि उन्होंने अपनी बेटी की बहुत बढ़िया परवरिश की है, उसे अच्छे संस्कार दिये हैं तभी तो सुहाग की सेज तक वह कुंवारी पहुंची है! बिस्तर पर पड़ा इतना सारा खून इसी बात की गवाही देता है. मां का चेहरा गर्व से दिप रहा है. यह क्षण उनके लिये- हमारे देश की किसी भी मां के लिये गौरव और अभिमान का क्षण है. इसी सम्मान और प्रशंसा के लिये वह सालों तक किस परिश्रम और अनुशासन के साथ अपनी बेटी का लालन-पालन करती है! उसकी माहवारी पर नज़र रखना, उसके जनानांग का सूक्ष्म मुआयना करना, सुन्ना करवाना… और भी जाने क्या-क्या… इसी शुभ दिन के लिये तो जब एक मर्द की अमानत उसे सही-सलामत सौंपी जा सके. ऊपरवाले की मेहरबानी से आज वह दिन उनके जीवन में आया है. मां वाकई बहुत ख़ुश थीं. उन्होंने ऊपरवाले का शुक्रिया अदा करने के लिये अपने दोनों हाथ ऊपर उठाये थे और बढ़ कर मुझे अपनी बांहों में भींच लिया था. मैं चुपचाप पड़ी रही थी. जाने क्यों उस समय मैं अंदर से बिल्कुल ठंडी और असम्पृक्त महसूस कर रही थी. मां के स्पर्श से अंदर वितृष्णा के अजनबी अहसास से घिरना मेरे लिये एक नया अनुभव था. ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था. ये सब कुछ असह्य लग रहा था मुझे. किसी तरह खुद को समेटे पड़ी रही थी. देर तक शोर-गुल मचाकर और मेरी तथा मेरी मां की प्रशंसा में काव्य पाठ करके औरतें एक-एककर चली गई थीं. उनके जाने के बाद मां मेरे बिस्तर पर बैठ गई थीं. मैंने उनकी तरफ नहीं देखा था. इच्छा नहीं हो रही थी. उन्होंने भी बहुत देर तक कुछ नहीं कहा था. मुझे लगा था, कुछ कहने के लिये वे मन ही मन तैयार हो रही हैं.
मैं चुपचाप उनके बोलने का इंतज़ार करती रही थी. एक समय बाद वे बोली थीं- \”आज सुबह-सुबह मेम और साहब घर आये थे. मासा को बहुत बुखार था उस समय. देख कर दोनों बहुत चिंता कर रहे थे. कह रहे थे, इसके लक्षण अच्छे नहीं. उसे अपने साथ मोगादेसु ले जाना चाहते हैं किसी बड़े डॉक्टर को दिखाने. इजाज़त मांग रहे थे. मेरा तो जी नहीं मानता. ’बाद में बताती हूं’ कह कर आई हूं. तुम क्या सोचती हो?\” उनकी बात सुन कर मैं जाग-सी गई थी. यही एक मौका था मासा के लिये. ऊपरवाले ने ही जैसे खुद मेम और साहब को मासा की जान बचाने के लिये भेजा था. मैंने उठ कर मां का हाथ थाम लिया था- \”उसे उनके साथ जाने दो मां! बहुत खराब हालत है उसकी. ख़ुदा ना करे उसे कुछ हो जाये. मुझे उसके लिये बहुत डर लगता है मां!\” मां ने मेरी बात सुन कर अपना चेहरा झुका लिया था. मुझे लगा था उनकी आंखों में आंसू हैं. कहते हुये मेरा गला भी भर्रा उठा था. इसके बाद मां उठकर चली गई थीं. उनके जाते ही मैंने महसूस किया था, मेरे शरीर का निचला हिस्सा अंदर से धप-धप कर रहा है और पूरी तरह दर्द से जम गया है. मैंने उठने की क़ोशिश की थी और कराह कर गिर पड़ी थी. पूरे घर में जैसे कोई नहीं था. बाहर सिर्फ़ कुछ ऊंटों के लगातार अरड़ाने की आवाज़ आ रही थी. मैं बिस्तर में पड़ी-पड़ी रोती रही थी. मगर दुख के इस क्षण में जाने क्यों आज मां याद नहीं आई थी. शायाद इसीलिये यह दुख और अझेल प्रतीत हो रहा था.
मैं चुपचाप उनके बोलने का इंतज़ार करती रही थी. एक समय बाद वे बोली थीं- \”आज सुबह-सुबह मेम और साहब घर आये थे. मासा को बहुत बुखार था उस समय. देख कर दोनों बहुत चिंता कर रहे थे. कह रहे थे, इसके लक्षण अच्छे नहीं. उसे अपने साथ मोगादेसु ले जाना चाहते हैं किसी बड़े डॉक्टर को दिखाने. इजाज़त मांग रहे थे. मेरा तो जी नहीं मानता. ’बाद में बताती हूं’ कह कर आई हूं. तुम क्या सोचती हो?\” उनकी बात सुन कर मैं जाग-सी गई थी. यही एक मौका था मासा के लिये. ऊपरवाले ने ही जैसे खुद मेम और साहब को मासा की जान बचाने के लिये भेजा था. मैंने उठ कर मां का हाथ थाम लिया था- \”उसे उनके साथ जाने दो मां! बहुत खराब हालत है उसकी. ख़ुदा ना करे उसे कुछ हो जाये. मुझे उसके लिये बहुत डर लगता है मां!\” मां ने मेरी बात सुन कर अपना चेहरा झुका लिया था. मुझे लगा था उनकी आंखों में आंसू हैं. कहते हुये मेरा गला भी भर्रा उठा था. इसके बाद मां उठकर चली गई थीं. उनके जाते ही मैंने महसूस किया था, मेरे शरीर का निचला हिस्सा अंदर से धप-धप कर रहा है और पूरी तरह दर्द से जम गया है. मैंने उठने की क़ोशिश की थी और कराह कर गिर पड़ी थी. पूरे घर में जैसे कोई नहीं था. बाहर सिर्फ़ कुछ ऊंटों के लगातार अरड़ाने की आवाज़ आ रही थी. मैं बिस्तर में पड़ी-पड़ी रोती रही थी. मगर दुख के इस क्षण में जाने क्यों आज मां याद नहीं आई थी. शायाद इसीलिये यह दुख और अझेल प्रतीत हो रहा था.
इसके बाद मैं तीन दिन तक तेज़ बुखार में पड़ी रही थी. इस बीच मुझे कुछ होश नहीं रहा था. जब भी कभी आंख खुलती थी, कुछ अजनबी चेहरों को अपने आसपास पाती थी. जाने वे कौन थे. शरीर में इतना तेज़ दर्द था कि मैं हिल-डुल भी नहीं पाती थी. कभी थोड़ा होश आता और मैं फिर तंद्रा के एक काले सागर में डूब जाती. इस दौरान मुझे अजीब-अजीब सपने आते, डरावने और अस्पष्ट.
शादी के शायद सात दिनों बाद मैं अपने कमरे से बाहर निकली थी. इस बीच ज़हीर मुझे कहीं नहीं दिखा था. शायद कहीं बाहर गया हुआ हो. एक मोटी और निहायत काली औरत जिसने सुहाग रात के दिन मुझे पकड़ने में मां की मदद की थी, मुझे पूरा घर घूमाकर दिखलाई थी. वह रिश्ते में ज़हीर की खाला लगती थी, मगर उमर में उससे कम थी. ज़हीर का घर बड़ा था. वे किसान लोग थे. ढेर सारी मवेशियां, ज़मीन, कुयें और कुछ व्यापार. उसकी पहले की तीन बीवियां थीं. दो मर चुकी थी जिससे तीन बच्चे थे और तीसरी लकवा मारकर बिस्तर में पड़ी थी. उसके चार बच्चे थे. तीन बेटे, एक बेटी. बेटी की शादी अभी-अभी हुई थी. खाला ने मुझे बताया था, मेरा मुख्य काम है ज़हीर की अपंग बीवी की देखभाल करना. मैंने अंधेरे कमरे में पड़ी उस औरत को देखा था- आधा चेहरा टेढ़ा और आधा शरीर भी निर्जीव. एक पैर और एक हाथ बेजान होकर झुलता हुआ! उसकी आंखें अजीब थीं. कोटर में गहरे धंसी और सुलगती हुईं. कितनी हिकारत थी उन आंखों में. मुझे घूरकर देख रही थी. उसे देखकर मेरे शरीर में झुरझुरी-सी दौर गई थी. वह औरत थी कि कोई चुड़ैल! मेरे क़रीब जाते ही वह गोंगियाने लगी थी और फिर अचानक मेरे झुके हुये चेहरे पर थूक दिया था. उसकी इस हरकत पर आसपास खड़े बच्चे ज़ोर-ज़ोर से हंसने लगे थे- \”थूकने वाली गंदी अम्मा! थूकने वाली गंदी अम्मा!\” खाला भी मुंह फेरकर अपनी हंसी दबाने का प्रयत्न कर रही थी. यानी सबको पता था ये ऐसी हरकत करनेवाली हैं और तमासा देखने के इंतज़ार में थे. खाला भी इनकी साजिश में शामिल. मुझे ज़ोर से रोना आया था. अपना चेहरा पोंछती हुई मैं कमरे से बाहर निकल आई थी. इन बीते कई दिनों में मैंने ज़हीर को नहीं देखा था. अल्ला करे कभी देखना भी ना पड़े.
शादी के बाद मैं पहली बार अपने मायके गई थी. बहुत आवभगत हुई थी मेरी. घर की हालत इन कुछ दिनों में ही काफी बेहतर नज़र आ रही थी. मेरी कीमत शायद बहुत अच्छी मिली थी अब्बू को. सहन में बंधे बहुत सारे ऊंट, गाय, बकरियां, घर में नई चीज़ें, तारिक भाई की नई कमीज़, बजता हुआ ट्रांजिस्टर! मैं सबकुछ सूखी आंखों से देखती रही थी. मुझे पता था, इन चीज़ों के लिये कैसा मूल्य मैंने चुकाया था. अब भी ठीक से चल-फिर नहीं पा रही थी. हर क़दम के साथ भीतर कुछ चिलक उठता था. नसों में आग़ की नदी-सी बह रही थी.
मां ने बताया था, मेम मासा को शहर ले गई हैं. जल्दी लौटेंगी. मैंने मन ही मन अपने ऊपर वाले का धन्यवाद किया था. चलो इन्हें इतनी तो सदबुद्धि हुई! मां ने बताया था, थोड़े ही दिनों के बाद वे चारागाह की तलाश में दूसरी जगह चले जायेंगे. सुनकर मेरी आंखों के कोने जल उठे थे. मगर फिर सब शांत हो गया था. अपने भीतर की एक आवेग भरी नदी को धीरे-धीरे रेत की ढूह में तब्दील होते हुये महसूस कर रही थी, मगर यही तक… बस! और कुछ नहीं. इस देश की सूखी धरती पर जाने कितनी नदियां इसी तरह खो गई हैं- नमालूम… आज उनका कोई निशान तक बाक़ी नहीं! बची हैं तो कुछ रेखायें और स्मृतियां… पता नहीं, मै इस स्तर पर भी कहीं रहूंगी कि नहीं! मुझे तो लग रहा था, इस घर के लोगों ने मुझे अभी से भुला दिया है.
मायके से लौट आई थी एक अजीब-सी मन:स्थिति के साथ. वहां रुकना नहीं चाहती थी, यहां लौटना नहीं चाहती थी. मगर और कोई विकल्प भी नहीं था मेरे पास. सो लौट आई थी.
उस रात फिर ज़हीर ने मुझ पर आक्रमण कर दिया था. मर्दों को इस मामले में सब्र से काम लेने की नसीहत दी जाती है मगर ज़हीर में कोई सब्र नहीं. पहली रात वह मुझमें पूरी तरह से प्रविष्ट नहीं कर पाया था. इस बार वह क़सम खाकर आया था शायद कि अपनी क़ोशिश में ज़रुर सफल होकर रहेगा. मुझे बुरी तरह रौंदते हुये उसने हिसहिसा कर कहा था- अबतक मैंने चौदह बच्चे पैदा किये हैं, तीन औरतों को मां बनाया है! तू क्या चाहती है, तेरी वजह से लोग मुझे बूढ़ा और नामर्द समझने लगे? मेरा भी नाम ज़हीर है… तुझे महीने भर के अंदर गर्भवती ना किया तो एक बाप की औलाद नहीं!\”
मैं रोई थी, गिड़गिड़ाई थी और अंत में अचेत हो गई थी. मेरे इख़्तियार में बस इतना ही था, मैं यही कर सकती थी! इसके बाद के दिन किसी दु:स्पप्न की तरह बीते थे. हर दूसरे दिन ज़हीर मेरे साथ एकसार होने की क़ोशिश करता और नाकामयाब रहता. मेरा जख़्म अंदर तक भर गया था. एक माचिश की तीली के बराबर छेद के सिवा कुछ भी ना बचा था. योनी का भीतरी हिस्सा भी एक तरह से बंद ही हो गया था. चाकू से काट-काटकर योनी के द्वार को खोलने का प्रयत्न तो किया गया था मगर यह पूरी तरह से खुल नहीं पाया था. ज़हीर की समस्या अलग तरह की थी. हमारे समाज में जो शादी के बाद कुछ दिनों के भीतर अपनी स्त्री के साथ सफलता पूर्वक संभोग नहीं कर पाता उसे एक समर्थ पुरुष नहीं माना जाता. ज़हीर को मुझे जल्द से जल्द गर्भवती करना था, वर्ना उसका मज़ाक उड़ाया जाता. इसलिये ज़हीर की बेसब्री हर गुज़रते हुये दिन के साथ बढ़ती ही जा रही थी. वह अक़्सर कोई ना कोई नयी तरकीब ढूंढ़ता मुझ पर काबू पाने के लिये. सारा दिन मैं उसकी अपंग बीवी फातिमा की सेवा-सुश्रुषा करती और रातों को उसके अत्याचार सहती. मेरा जीवन नरक से बदतर हो चुका था. अथक परिश्रम, पीड़ा तथा आतंक… बस यही और इतना ही! ज़हीर कभी मुझसे ठीक से बात भी नहीं करता था. एक इंसान या उसकी जीवन संगिनी के रुप में मुझे जानने की शायद उसमें ज़रा भी दिलचस्पी नहीं थी. वह बस मुझसे ढेर सारे काम लेना चाहता था और किसी तरह मुझे भोग कर मुझसे बच्चे पैदा करना चाहता था. जब तक वह घर से बाहर रहता, मैं निश्चिंत रहती. हालांकि उस समय मुझे बहुत काम रहता. खाना बनाना, अन्न कूटना, फातिमा बीवी की देखभाल करना.
फातिमा बीवी का स्वभाव बहुत अजीब था. सारा दिन अकेली पड़ी-पड़ी गोंगियाती रहती थी, मगर किसी के पास आते ही थूकना शुरु कर देती थी. जाने उसके भीतर कितनी घृणा और वितृष्णा भरी हुई थी. मुझे खा जानेवाली नज़रों से घूरती और गुर्राती रहती. लकवे के कारण उसकी जीभ भी ऐंठ चुकी थी. एक करवट पड़े रहने के कारण मुंह से लार बहती रहती थी. कपड़ों से तेज़ दुर्गंध आती थी. नाक पर कपड़ा रखकर ही उसके पास जाया जा सकता था. बावजूद इन सबके जाने क्यों मुझे उस पर दया आती थी. बहुत दयनीय थी उसकी हालत. देखी नहीं जाती थी.
वह लगभग रोज़ थूकती थी मेरे ऊपर और रोज़ बिना कुछ कहे मैं उसकी साफ-सफाई करके उठ आती थी. एक दिन खाला के सामने उसने मुझ पर थूका था और खाला ने इस बात पर उसे कई थप्पड़ जड़ दिये थे. मैंने ही बीच-बचाव कर उन्हें रोका था. थप्पड़ खा कर फातिमा बी बेसुरी आवाज़ में देरतक रोती रही थी. खाला के जाने के बाद जब मैं अपना काम ख़त्म कर वहां से उठने लगी थी, उसने एक हाथ बढ़ाकर मुझे रोक लिया था. मेरे मुड़कर देखने पर वह कुछ कहने कि क़ोशिश किये बग़ैर बस रोती रही थी. उस समय उसके गले से बस एक घरघराहट-सी निकल रही थी. कितना भयावह लग रहा था उस समय उसका चेहरा ! मगर साथ ही बहुत कातर भी. उसकी हर वक़्त की धधकने वाली आंखें बुझकर राख हो गई थीं, बही जा रही थीं आसुंओं के साथ. मैंने बिना कुछ कहे उसे रो लेने दिया था. वह देर तक रोती रही थी खूब हिलक-हिलककर. जब वह कुछ शांत हुई थी, मैंने उसका गीला चेहरा पोंछकर साफ कर दिया था और उसे पानी पिलाकर वहां से चली आई थी. आते समय मैंने देखा था, अजीब करुणा-विगलित आंखों से वह मुझे देख रही है. उस दिन कुछ अदृश्य-सा बंधा था हमारे बीच. एक रिश्ता, बग़ैर किसी नाम, संबोधन के. दर्द जोड़ता है, ठीक जैसे सुख तोड़ता है, दूर करता है. उसके पास दुनिया का दिया ज़हर था जो वह रात दिन दूसरों पर उढ़ेलती रहती थी. उसी में शायद उसने अपना सुख ढूंढ़ लिया था.
मगर मेरे चुपचाप सहन करने ने उसे हरा दिया था. मुझे सता कर, प्रताड़ित करके उसे कोई मजा नहीं आ रहा था. अपने दग्ध हृदय को ढंकने, छिपाने के लिये उसने प्रतिरक्षा में जो घृणा का मुखौटा ओढ़ा था वह एकदम से उतर गया था और उसके पीछे से निकल आई थी वह औरत जो बहुत दुखी थी, पीड़ित और असहाय थी. जिसे इस निर्मम दुनिया ने बहुत सताया था. अपनी सारी नफ़रत, गुस्सा और अहंकार त्यागकर उस दिन वह मेरे सामने रोई थी. उसके इस रुदन में उस दिन मैंने अपने लिये स्वीकार देखा था. अच्छा लगा था. जानती थी, वह मुझे कुछ नहीं दे सकती. हथेली भर ओट भी नहीं. मगर थोड़ा-सा अपनापन, छांह… यह भी क्या कम था मेरे लिये. घर से छुटकर, विशेषकर मां से, एकदम यतीम हो गई थी. लग रहा था, अकेली हूं इस दुनिया में. ना मेरी कोई ज़मीन है, जड़ है, ना आकाश… एक डाल से टूटा पत्ता, बाढ़ में बहते खर-पतवार… रातों के अंधकार में डर लगता था, लगता था ये मुझे निगल जायेगा. मां की गोद याद आती थी, अपना निश्चिंत बचपन याद आता था. इच्छा होती थी कि काश फिर से अपने बचपन में लौट सकती! उन दिनों में जब सब कुछ सुंदर, सहज हुआ करता था, जब रिश्तों की एक भरी-पूरी दुनिया के बीच मैं खुद को सुरक्षित पाती थी. कितनी बार जन्म लेना पड़ता है औरत को, कितनी-कितनी बार ज़िंदगी से समझौता करना पड़ता है! एक घर से दूसरा घर, एक दुनिया से दूसरी दुनिया का सफर- अपने सारे सीखे को, विगत जीवन को, परिबेश को पीछे छोड़कर फिर से नई होना, एक नई, अंजान ज़मीन पर खुद को रोपना, उसपर परवान चढ़ना… सहज नहीं होता. अपनी एक उम्र को उसके सारे सीखे-जीये के साथ अनहुआ करना, एक तरह से नकार कर लगभग नये सिरे से सब कुछ शुरु करना… समय लगता है! ढेर सारी ऊर्जा भी… खर्च हो जाती है औरत बहुत सारा. छीजती रहती है हर एक अनुभव के साथ. उसका पुरना भी जैसे खोह-खंदकों को रेत से भरा जाता है. भरकर भी उसका खोखलापन नहीं जाता. भीतर बना रहता है आजीवन खाली सुरंगों की तरह!
मगर मेरे चुपचाप सहन करने ने उसे हरा दिया था. मुझे सता कर, प्रताड़ित करके उसे कोई मजा नहीं आ रहा था. अपने दग्ध हृदय को ढंकने, छिपाने के लिये उसने प्रतिरक्षा में जो घृणा का मुखौटा ओढ़ा था वह एकदम से उतर गया था और उसके पीछे से निकल आई थी वह औरत जो बहुत दुखी थी, पीड़ित और असहाय थी. जिसे इस निर्मम दुनिया ने बहुत सताया था. अपनी सारी नफ़रत, गुस्सा और अहंकार त्यागकर उस दिन वह मेरे सामने रोई थी. उसके इस रुदन में उस दिन मैंने अपने लिये स्वीकार देखा था. अच्छा लगा था. जानती थी, वह मुझे कुछ नहीं दे सकती. हथेली भर ओट भी नहीं. मगर थोड़ा-सा अपनापन, छांह… यह भी क्या कम था मेरे लिये. घर से छुटकर, विशेषकर मां से, एकदम यतीम हो गई थी. लग रहा था, अकेली हूं इस दुनिया में. ना मेरी कोई ज़मीन है, जड़ है, ना आकाश… एक डाल से टूटा पत्ता, बाढ़ में बहते खर-पतवार… रातों के अंधकार में डर लगता था, लगता था ये मुझे निगल जायेगा. मां की गोद याद आती थी, अपना निश्चिंत बचपन याद आता था. इच्छा होती थी कि काश फिर से अपने बचपन में लौट सकती! उन दिनों में जब सब कुछ सुंदर, सहज हुआ करता था, जब रिश्तों की एक भरी-पूरी दुनिया के बीच मैं खुद को सुरक्षित पाती थी. कितनी बार जन्म लेना पड़ता है औरत को, कितनी-कितनी बार ज़िंदगी से समझौता करना पड़ता है! एक घर से दूसरा घर, एक दुनिया से दूसरी दुनिया का सफर- अपने सारे सीखे को, विगत जीवन को, परिबेश को पीछे छोड़कर फिर से नई होना, एक नई, अंजान ज़मीन पर खुद को रोपना, उसपर परवान चढ़ना… सहज नहीं होता. अपनी एक उम्र को उसके सारे सीखे-जीये के साथ अनहुआ करना, एक तरह से नकार कर लगभग नये सिरे से सब कुछ शुरु करना… समय लगता है! ढेर सारी ऊर्जा भी… खर्च हो जाती है औरत बहुत सारा. छीजती रहती है हर एक अनुभव के साथ. उसका पुरना भी जैसे खोह-खंदकों को रेत से भरा जाता है. भरकर भी उसका खोखलापन नहीं जाता. भीतर बना रहता है आजीवन खाली सुरंगों की तरह!
यहां आस-पड़ोस के ढेर-से बच्चे थे जो इस घर के आंगन में दिन भर उधम मचाते रहते थे. विधवा खाला बोलती बहुत है, पेड़-पौधों से लेकर चिड़ियों तक से. उसे पूरी दुनिया से शिकायत है. सबको कोसती रहती है, गाली देती है. जाने किस बात की दुश्मनी थी उन्हें सब से. मगर धीरे-धीरे मैंने समझा था, ये और कुछ नहीं, उनका अकेलापन है. दुश्मनी किसी से नहीं, बस दोस्ती ना होने का मलाल है. वह रिश्ता ढूंढ़ती हैं, स्नेह का नहीं तो दुश्मनी का सही. कोई उसकी नहीं सुनता, इसलिये वह गाली देती है. इसी तरह सही, कोई तो उसे सुने! वे दूसरों के अबोले में संबंध तलाशती हैं, अवज्ञा में शब्द तलाशती हैं. जीने के कितने सारे और कैसे-कैसे बहाने खोज लेते हैं लोग! अपनी कोठरी में एक गिलहरी पाल रखी हैं उन्होंने. रोज़ दोपहर को फुरसत के समय उससे बैठ-बैठकर बतियाती रहती हैं. जाने क्या-क्या! शुरु-शुरु के दिनों में मुझे भी सताने के नित नये तरीके ढूंढ़ निकालती थीं, मगर मुझसे कोई प्रतिक्रिया ना पाकर धीरे-धीरे पस्त होने लगी थीं. बारह साल की उमर में इनकी शादी एक बूढ़े से हो गई थी. चौदह साल में ही बेवा भी हो गई थी. इस बीच दो बच्चे पैदा हुये, मगर मरे हुये. तब से इस घर में आश्रित बनकर हैं. रात दिन खटती हैं और फिर थक कर एक कोने में पड़ी रहती हैं.
धीरे-धीरे मैं उनके क़रीब गई थी. पहले-पहल उन्होंने मुझे परे कर देने की क़ोशिश की थी. उनकी आंखों में पूरी दुनिया के लिये संदेह है. विश्वास करना सीखा ही नहीं उन्होंने ! या किसी ने उन्हें विश्वास में लिया ही नहीं. हमेशा सतर्क रहती हैं, जाने कब किधर से कौन हमला बोल दे. जीवन भर की प्रताड़ना ने उसे ऐसी बना दिया था शायद- हमेशा प्रतिरक्षा में- सशंकित, सतर्क ! लगता था, उन्हें मेरे सहृदय व्यवहार ने परेशान किया था. यह नया था उनके लिये. काफी समय लग गया था उन्हें सहज होने में. जब खुली तो लगा चट्टानों के भीतर से कैसे जल का सोता फूटता है… एकदम तटबंध टूटी नदी की तरह उद्दाम वेग में बह आई थी! कितना कुछ जमा था उनके अंदर, कितनी भरी हुई थीं वे ! कभी रोना, कभी हंसना, कभी निरंतर बोलते चले जाना… मेरा उनको सुनना ही उनके लिये एक बहुत बड़ी बात थी. कहती भी थीं –
\”सालों दीवारों से बात करती रही, बेजुबान जानवरों से, पेड़-पौधों से… कभी-कभी सोचती थी, पागल होती जा रही हूं! अकेलेपन से बड़ी कोई सज़ा नहीं माहरा!\”
मैं जानती थी. मेरे अंदर भी तो एक अर्से से यह कसकता रहता है. जिस्म के भीतर भी एक खाली मकान होता है, हर खाली मकान की तरह उसमें एक भूत भी रहता है जो समय-असमय हमें धर दबोचता है, उत्पात मचाता है. मेरा फातिमा बी से जुड़ना, खाला के क़रीब आना भी तो उसी अकेलेपन से छुटने की एक क़बायत है. ये अकेलापन जिस्मानी से ज़्यादा रुहानी है. अकेली तो पहले भी खूब रहती थी. मवेशियों को चढ़ाते हुये रेगिस्तान के वीराने में दूर तक भटकती थी. तब अपना अकेला होना इस तरह दंश नहीं देता था. तब मेरे साथ रिश्तों के साथ-साथ यकीन की एक पूरी दुनिया हुआ करती थी. सूखी रेत के बीच मेरे भीतर नमी थी, सजलता थी. अब जो जिस्म की भीड़ में खो गई हूं, अकेली हो गई हूं! ठीक जैसे सैकड़ों नदियां खो जाती हैं इस मरुभूमि में! पत्थरों की तरह मटमैली, काही आंखों में उन प्रांजल धाराओं की सूखी चमक के सिवा और कोई चिन्ह नहीं बचा. रेत और हवा की साजिश में पड़कर इस ज़मीन के सारे घाव, सारे निशान मिट जाते हैं. साथ ही स्मृतियां भी. बेजुबान, मजलूम लड़कियों के आसुंओं को रेत में दबाकर बेरहम समय चल देता है, अपनी धार में फंसे किसी और तिनके को स्वयं के साथ नामालूम बहा ले जाने के लिये. मैं भी बह रही हूं, यह जानते हुये कि मेरा अब कोई कूल-किनारा नहीं होना है. एक अजीब-सा परिवर्तन हुआ है मुझमें- अब मैं रो नहीं पाती ! अंदर आंवा की तरह कुछ धधकता रहता है, मगर आंखें रेत की तरह सूखी रहती है. एक बूंद पानी नहीं उतरता. सारा दिन मुझे रात का डर सताता है, मगर जब रात आती है, जैसे कोई बीमार पशु अपनी मृत्यु का वरण करने स्वयं कहीं एकांत में जाकर बैठ जाता है, मैं चुपचाप अपनी कोठरी में घुसकर ज़हीर के इंतज़ार में जागकर बैठी रहती हूं.
पहले-पहल सो जाती थी. ज़हीर आता था और मुझे जगाने की ज़हमत उठाये बिना मुझ पर टूट पड़ता था. नींद में मैं बहुत डर जाती थी, रोने-चिल्लाने लगती थी. इसलिये अब मैं सोती नहीं हूं. जगकर अपनी यातना की प्रतीक्षा करती हूं. ज़हीर रोज़ आता है और मुझे पूरी तरह से पाने की क़ोशिश करता है. मेरा सुन्ना, जैसा कि हमारे देश में अधिकतर किया जाता है, बहुत ही भयंकर तरीके से किया गया है अब समझ में आ रहा था. पहली रात मां के द्वारा काटे जाने के बावजूद ज़हीर मुझमें पूरी तरह प्रविष्ट नहीं कर पाया था. मेरा ताज़ा कटा घाव ज़रा भरता नहीं कि ज़हीर के मुझ पर पूरा कब्ज़ा करने के प्रयत्न से पुरता जख़्म फिर से खुल जाता. इस तकलीफ का वर्णन शब्दों में किया नहीं जा सकता ! नरक यंत्रणा ! मैं चिल्लाती रहती और ज़हीर क़ोशिश करता रहता. मुझे ऐसे में बकरीद में हलाल किये जाते जानवरों की याद आती थी- फर्श पर यहां से वहां तक छटपटाते हुये, अपने ही खून में सने हुये, उबली हुई आंखें, बाहर निकली हुई जीभ… मेरी दशा भी कुछ-कुछ वैसी ही थी. ज़हीर जब चला जाता, मैं बिस्तर पर पड़ी-पड़ी गोंगियाती रहती. मेरे कपड़े खून से लिथड़ जाते. ऐसे में बहुत बार खाला चुपचाप आकर मेरे सरहाने बैठ जाती थी. बिना मुंह से एक शब्द उच्चारे देर तक मेरा सर अपनी गोद में लेकर बैठी रहतीं. मैं रोती और फिर रोते-रोते ही कई बार थककर सो जाती. ज़हीर बीतते दिनों के साथ बेहद उतावला होता जा रहा था. उसे डर था कि अगर सही समय पर वह मुझे गर्भवती नहीं कर पाया तो समाज के लोग उसकी खिल्ली उड़ाने लगेंगे. अक्तूबर के महीने में इस बार उसे बड़ी ईद के लिये काबा जाना था हज़ पर. उससे पहले उसे हर हाल में मुझे गर्भवती करना था.
\”सालों दीवारों से बात करती रही, बेजुबान जानवरों से, पेड़-पौधों से… कभी-कभी सोचती थी, पागल होती जा रही हूं! अकेलेपन से बड़ी कोई सज़ा नहीं माहरा!\”
मैं जानती थी. मेरे अंदर भी तो एक अर्से से यह कसकता रहता है. जिस्म के भीतर भी एक खाली मकान होता है, हर खाली मकान की तरह उसमें एक भूत भी रहता है जो समय-असमय हमें धर दबोचता है, उत्पात मचाता है. मेरा फातिमा बी से जुड़ना, खाला के क़रीब आना भी तो उसी अकेलेपन से छुटने की एक क़बायत है. ये अकेलापन जिस्मानी से ज़्यादा रुहानी है. अकेली तो पहले भी खूब रहती थी. मवेशियों को चढ़ाते हुये रेगिस्तान के वीराने में दूर तक भटकती थी. तब अपना अकेला होना इस तरह दंश नहीं देता था. तब मेरे साथ रिश्तों के साथ-साथ यकीन की एक पूरी दुनिया हुआ करती थी. सूखी रेत के बीच मेरे भीतर नमी थी, सजलता थी. अब जो जिस्म की भीड़ में खो गई हूं, अकेली हो गई हूं! ठीक जैसे सैकड़ों नदियां खो जाती हैं इस मरुभूमि में! पत्थरों की तरह मटमैली, काही आंखों में उन प्रांजल धाराओं की सूखी चमक के सिवा और कोई चिन्ह नहीं बचा. रेत और हवा की साजिश में पड़कर इस ज़मीन के सारे घाव, सारे निशान मिट जाते हैं. साथ ही स्मृतियां भी. बेजुबान, मजलूम लड़कियों के आसुंओं को रेत में दबाकर बेरहम समय चल देता है, अपनी धार में फंसे किसी और तिनके को स्वयं के साथ नामालूम बहा ले जाने के लिये. मैं भी बह रही हूं, यह जानते हुये कि मेरा अब कोई कूल-किनारा नहीं होना है. एक अजीब-सा परिवर्तन हुआ है मुझमें- अब मैं रो नहीं पाती ! अंदर आंवा की तरह कुछ धधकता रहता है, मगर आंखें रेत की तरह सूखी रहती है. एक बूंद पानी नहीं उतरता. सारा दिन मुझे रात का डर सताता है, मगर जब रात आती है, जैसे कोई बीमार पशु अपनी मृत्यु का वरण करने स्वयं कहीं एकांत में जाकर बैठ जाता है, मैं चुपचाप अपनी कोठरी में घुसकर ज़हीर के इंतज़ार में जागकर बैठी रहती हूं.
पहले-पहल सो जाती थी. ज़हीर आता था और मुझे जगाने की ज़हमत उठाये बिना मुझ पर टूट पड़ता था. नींद में मैं बहुत डर जाती थी, रोने-चिल्लाने लगती थी. इसलिये अब मैं सोती नहीं हूं. जगकर अपनी यातना की प्रतीक्षा करती हूं. ज़हीर रोज़ आता है और मुझे पूरी तरह से पाने की क़ोशिश करता है. मेरा सुन्ना, जैसा कि हमारे देश में अधिकतर किया जाता है, बहुत ही भयंकर तरीके से किया गया है अब समझ में आ रहा था. पहली रात मां के द्वारा काटे जाने के बावजूद ज़हीर मुझमें पूरी तरह प्रविष्ट नहीं कर पाया था. मेरा ताज़ा कटा घाव ज़रा भरता नहीं कि ज़हीर के मुझ पर पूरा कब्ज़ा करने के प्रयत्न से पुरता जख़्म फिर से खुल जाता. इस तकलीफ का वर्णन शब्दों में किया नहीं जा सकता ! नरक यंत्रणा ! मैं चिल्लाती रहती और ज़हीर क़ोशिश करता रहता. मुझे ऐसे में बकरीद में हलाल किये जाते जानवरों की याद आती थी- फर्श पर यहां से वहां तक छटपटाते हुये, अपने ही खून में सने हुये, उबली हुई आंखें, बाहर निकली हुई जीभ… मेरी दशा भी कुछ-कुछ वैसी ही थी. ज़हीर जब चला जाता, मैं बिस्तर पर पड़ी-पड़ी गोंगियाती रहती. मेरे कपड़े खून से लिथड़ जाते. ऐसे में बहुत बार खाला चुपचाप आकर मेरे सरहाने बैठ जाती थी. बिना मुंह से एक शब्द उच्चारे देर तक मेरा सर अपनी गोद में लेकर बैठी रहतीं. मैं रोती और फिर रोते-रोते ही कई बार थककर सो जाती. ज़हीर बीतते दिनों के साथ बेहद उतावला होता जा रहा था. उसे डर था कि अगर सही समय पर वह मुझे गर्भवती नहीं कर पाया तो समाज के लोग उसकी खिल्ली उड़ाने लगेंगे. अक्तूबर के महीने में इस बार उसे बड़ी ईद के लिये काबा जाना था हज़ पर. उससे पहले उसे हर हाल में मुझे गर्भवती करना था.
आज की रात वह अपने साथ एक चाकू ले आया था. चाकू देखते ही मेरे हाथ-पैर ठंडे हो गये थे. हम बिस्तर न हो पाने की स्थिति में हमारे यहां मर्दों को अधिकार होता है कि वह अपनी स्त्री का जनानांग खुद काटकर उसे संभोग के योग्य बनाये. ज़हीर के मेरी तरफ बढ़ते ही मैंने बिलखते हुये उसके पांव पकड़ लिये थे. पीड़ा और भय के चरम क्षणों में मैं आज भी उसे पहले की तरह ’नाना’ कहकर सम्बोधित करने लगती थी. मगर मेरी मिन्नतों का उसपर कोई भी असर नहीं हुआ था. उसने मुझे अपनी भोंथरी चाकू से बेरहमी से काटा था और फिर जब मैं हलाल होते हुये जानवर की तरह डकार रही थी, उसने मेरे साथ फिर संभोग करने की क़ोशिश की थी. कटे हुये घाव को चीरता हुआ उसका कठोर अंग… यह अथाह दर्द सहने की सारी सीमाओं के पार था! मैं चिल्लाती रही थी, चिल्लाती रही थी, यह जानकर भी कि कोई मुझे बचाने नहीं आयेगा. पूरा गांव चुप पड़ा था. मेरी चीखें हर घर, हर दरवाज़ें पर जाकर अपना सर धुनती रही थी, सांकल खटखटाती रही थीं, मगर कहीं से कोई आवाज़ नहीं आई थी. पूरा गांव चुप होकर तमासा देख रहा था. ज़हीर के साथ सबको इंतज़ार था कि किस तरह से मुझमें बलात प्रविष्ट करके मुझे औरत बनाया जाय, गर्भ धारण करवाया जाय. ऐसा हुये बिना हव्वा की बेटियों का जन्म लेना निरर्थक था. चीखते-चीखते एक समय मैं अचेत हो गई थी.
इसके बाद मैं फिर सात दिनों तक बिस्तर पर तेज़ बुखार लेकर पड़ी रही थी. जब भी आंख खुली थी, खाला को अपने सरहाने बैठी हुई पाया था. उनकी तरफ देखते हुये मेरी आंखों से अविरल आंसू बहते रहते मगर वे एक भी शब्द उच्चारे बिना चुपचाप बैठी रहतीं. जब मैं मां के पास जाने के लिये उनसे विनती करती तो वे जाने कैसी नज़रों से मुझे देखतीं. बरसने-बरसने को हो आई मेघिल आकाश-सी आंखें,.. भाषा के शोर-गुल से परे ! मेरे बिलखने पर सर पर हाथ फेरती या फिर दूसरी तरफ देखकर आंखें पोंछती. मैंने समझा था, इस ज़मीन पर कोई ऐसा नहीं जो मुझे बचा सके. मुझे दर्द की उन नीली नदी और अंधेरी सुरंगों से गुज़रना ही पड़ेगा जिनमें से होकर इस देश की अनगिनत औरतों को जाने कब से गुज़रना पड़ता है ! ये बेरहम रिवाज़ें जाने कब ख़त्म होंगी! होंगी भी या नहीं! एकबार मैं खाला की गोद में सर रखकर फूट-फूटकर रोई थी – \”ऐसा क्यों किया जाता है हमारे साथ ! इतने दुख हमें हमारे अपने लोग क्यों देते हैं?\” उन्होंने मेरा सर सहलाया था- \”ऐसा ही चलन है… औरत का जन्म मिला है तो इन सब चीज़ों से गुज़रना ही पड़ेगा… ऊपरवाले का फरमान है!\”
\”ऊपरवाले का फरमान ! ऊपरवाला हमें इतने दुख क्यों देना चाहता है खाला? वो तो बड़ा रहम-ओ-क़रीम है ना!\” मुझे उनकी बातों पर यकीन नहीं आता था. \”बस चुप रहो ! नेक औरतें इतने सवाल नहीं करतीं ! जो हमारे बड़े-बुजुर्ग कहते हैं उसे ऊपरवाले की फरमान समझ कर हमें कबूल कर लेना चाहिये!\” मुझे यह सब नसीहत देते हुये जाने उनका अपना चेहरा कैसा हो आता था. मैं सोचती थी वे जो कह रही हैं क्या उस पर उन्हें खुद भी यकीन आता है ! एक झूठ को दोहरा-दोहराकर उसे सच कर दिया गया है, लोगों के मानस में बैठा दिया गया है. दिमाग़ कुछ और सोचता है और दिल कुछ और महसूस करता है. मेरा मन करता कि मैं उन पाक क़िताबों को अपनी आंखों से देखूं जिनमें ऐसी बातें लिखी हुई हैं. ना जाने क्यों मुझे इस बात पर यकीन नहीं आता था कि ये वाहियात रिवाज़ें ऊपरवाले की मर्ज़ी है. जिसने हमें बनाया है वही हमें इस तरह से मिटाना क्यों चाहेगा ! कोई अपनी सरजना को नष्ट होते हुये नहीं देख सकता. इतनी खूबसूरत दुनिया बनाने वाले का दिल इतना कठोर नहीं हो सकता!
दो-चार बार चाकू से काटकर संभोग करने के प्रयास में असफल होकर एक दिन ज़हीर एक दाई को पकड़ लाया था. खाला ने किंचित विरोध करने की क़ोशिश की थी मगर उन्हें धकेलकर बाहर कर दिया गया था. एक गुसल के फिसलन भरे गंदे फर्श पर चित्त गिराकर मुझे गहरे तक चीरा गया था. ऐसा करते हुये मेरा मुंह सख़्ती से दबाकर रखा गया था. यह काम काफी छिपाकर किया गया था. किसी को पता नहीं चलना चाहिये था वर्ना समाज में ज़हीर का मज़ाक उड़ता. जो अपनी औरत के साथ सफलता पूर्वक संभोग नहीं कर पाता उसे हमारे समाज में असली मर्द नहीं माना जाता है. यह बहुत शर्म की बात होती है. इसलिये संभोग न कर पाने की स्थिति में मर्दों के पास यही आख़िरी उपाय रह जाता है कि वह दाई या बंजारन को बुलाकर औरत के बंद पड़े जनानांग को फिर से काटकर खुलवाये.
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जयश्री रॉय
18 मई, हजारीबाग (बिहार)
अनकही, …तुम्हें छू लूं जरा, खारा पानी (कहानी संग्रह), औरत जो नदी है, साथ चलते हुये, इक़बाल (उपन्यास), तुम्हारे लिये (कविता संग्रह) प्रकाशित
युवा कथा सम्मान (सोनभद्र), 2012 प्राप्त
पता : तीन माड, मायना, शिवोली, गोवा – 403 517
09822581137/jaishreeroykathakar@rediffmail.com