हाफ़िज़ मुहम्मद अहमद खान उर्फ़ अहमद मियाँ जिस जगह क्रिकेट खेल रहे थे, वह उसी मदरसे का हाता था, जिसमें उन्होंने छह महीने पहले एडमिशन लिया था. मदरसा गाँव और शहर दोनों के ठीक बीच में था. एक तरफ़ निकल जाइए तो गाँव, दूसरी तरफ़ निकल जाइए तो शहर. उत्तर की तरफ़, सड़क से लगे हुए एक बड़े से गेट से मदरसे की शुरुआत होती थी. गेट से अंदर घुसते ही एक बड़ा सा खाली मैदान था जो हस्बे ज़रूरत कई तरह के कामों में इस्तेमाल होता था. अहमद मियाँ के लिए उसका मनपसंद इस्तेमाल था– शाम को क्रिकेट खेलना. मैदान के दूसरे किनारे पर, एक आलिशान बड़ी सी मस्जिद, मदीना के ‘मस्जिद-ए-नबुई’ के तर्ज़ पर बनी हुई. मस्जिद के दोनों किनारों पर शानदार ऊँची-ऊँची मीनारें.
चूँकि अल्लाह ऊपर रहता है, इसलिए जितनी ऊँची मीनार, उतनी ही अल्लाह की कुर्बत. मस्जिद और उस मैदान को चारों तरफ़ से घेर कर बनाये गए क्लासेस के लिए कुछ बड़े-बड़े हॉल, उस्ताद और बच्चों के रहने और सोने के लिए कुछ कमरे और कुछ कमरे दफ़्तरी कामों के लिए. एक किनारे पर सीमेंट के चबूतरों से घिरे हुए दो हैंडपम्प जहाँ वज़ू बनाने के लिए कुछ बधने हमेशा रखे रहते थे. कुछ दूरी पर छोटी-बड़ी ज़रूरतों के लिये बने हुए चार टायलेट, जिन्हें मदरसे के लोग ‘बैतुलखला’ कहते थे. मदरसे के मेन गेट से लगी हुई, अज्जू खान की टूटी-फूटी हवेली.
दरअसल, मदरसे की सारी ज़मीन अज्जू खान की ही थी जिसे मदरसे वालों ने अज्जू खान के बेटे बिस्मिल्लाह खान से, मजहब के नाम पर, बहुत सस्ते में ले लिया था, एक तरह से मुफ़्त में. कहते हैं कि अज्जू खान बहुत रोब-दाब वाले आदमी थे और जब तक ज़िंदा रहे, पूरी दबंगई के साथ ज़िंदा रहे. दरवाजे पर, उस ज़माने में दो-दो ट्रक और एक हाथी. ख़ूब पैसा कमाया और ख़ूब उड़ाया. शराब और रंडीबाजी, उनके दो प्रिय मश्गले रहे. और जब बाप ऐसा, तो बेटे…वे तो दो हाथ और आगे. न अज्जू खान को बेटों को कुछ बनाने की फ़िक्र, न बेटों को कुछ बनने की फ़िक्र. दौलत का नशा, जिसके सर चढ़ कर न बोले, वह इस दुनिया का आदमी नहीं. सो, अज्जू खान के मरने के बाद, सारी जायदाद-ज़मीन उनके दोनों बेटों- बिस्मिल्लाह खान और उस्मानुल्लाह खान के बीच बंटी. दोनों ट्रक बंटे, हाथी बेचकर उसका पैसा बंटा, सबसे बड़ी बात कि दिल भी बँट गया और उससे भी बड़ी बात कि माँ नहीं बंटी, क्योंकि दोनों बेटो ने उसे क़बूल करने से इंकार कर दिया. होती होगी माँ के पैरों के नीचे जन्नत, अभी तो बीवियों और रंडियों की जाँघो के बीच जन्नत बस रही थी.
बेचारी माँ, जब तक जीती रही, दोनों बेटों को असीसती रही, अपनी बहुओं को गरियाती रही और गाँव वालों के रहमोकरम पर पलती रही. तो, कमाई ढेले की और शौक नवाबों के. आखिर कितने दिन चलता. पहले ट्रक बिके, फिर ज़मीन से लेकर बर्तन-भांडे तक. कुछ लोग तो कहते हैं कि बाद में बहुएँ तक बिकी. खुदा जाने इसमें कितनी सच्चाई है. खैर…मदरसे की ज़मीन इसी बिस्मिल्लाह खान के हिस्से की थी. जवानी ढल जाने पर और पैसों की तंगी हो जाने पर, बिस्मिल्लाह खान, कुछ-कुछ अल्लाह वाले हो गए. नमाज़-रोज़ा तो कभी सीखा न था और करना भी थोड़ा मुशिकल था, इसलिए दाढ़ी बढ़ा ली और एक दो दाढ़ी वालों से सलाम-दुआ करने लगे और लोगों ने यह मान लिया कि बिस्मिल्लाह खान को अल्लाह ने नसीहत फरमा दी है और अब वे सुधर गए हैं. लेकिन गाँव का कल्लू, जिसके बारे में चर्चा थी कि बिस्मिल्लाह की जोरू का असल पति वही था, का कहना था कि बिस्मिल्लाह अपनी माँ का यार है, कुत्ते की पूँछ है, बारह साल नहीं, उसे क़यामत तक सीधा नहीं कर सकते.
लोगों को कल्लू की बात में भी कुछ दम दिखाई देता था, क्योंकि दाढ़ी बढ़ा कर और सलाम-दुआ के बहाने बिस्मिल्लाह कुछ अल्लाह वालों से अल्लाह के नाम पर पैसे मांगने लगे थे और अल्लाह वालों को बिस्मिलाह की यही बात सबसे बुरी लगी. खैर, कुछ अल्लाह वालों के दिमाग में एक दीनी मदरसा खोलने की बात समायी और सड़क से लगी हुई बिस्मिल्लाह खान की यह ज़मीन उसके लिए सबसे मौजूँ जान पड़ी. फिर क्या था, बिस्मिल्लाह की थोड़ी मदद करके और कुछ दीन-दुनिया का डर दिखा के लोगों ने यह ज़मीन एक तरह से बिल्कुल मुफ़्त लिखवा ली. और मदरसा ज़ोर-शोर से शुरू हो गया और गाँव की इज्ज़त में चार चाँद लगाने लगा.
लेकिन बात तो हो रही थी हाफ़िज़ मुहम्मद अहमद खान उर्फ़ अहमद मियाँ की. पूरे गाँव में हाफी जी के नाम से मशहूर अहमद मियाँ इस मदरसे में दाखिला लेने वाले पहले छात्र थे. कुछ दूर के एक गाँव के अमीर प्रधान माजिद खान के सबसे बड़े सुपुत्र और बाप से भी बड़े बिगड़ैल. बाप का इरादा उन्हें किसी अंग्रेजी स्कूल में डालने का था लेकिन माँ कुछ धार्मिक प्रवृत्ति की थीं. उन्हें यकीन था कि बेटा अगर हाफ़िज़-ए-कुरान हो गया तो कयामत के दिन अल्लाह के सामने पूरे परिवार को माफ़ करवा देगा. पति ने अपनी प्रधानी के बल पर तो दुनिया बन ही दी थी, अब बेटा आखिरत भी बना दे तो चैन से मर सकें. इसलिए बेटे को दीनी तालीम हासिल करने और हाफ़िज़-ए-कुरान और अपना आखिरत बनाने के लिए उन्होंने गाँव के ही मदरसे में दाखिल करवा दिया. लेकिन जब पिछले चार साल में भी अहमद मियाँ कुरान याद नहीं कर पाए तो माँ को कुछ फिक्र हुई कि शायद गाँव के मदरसे में ठीक से पढ़ाई नहीं हो रही है. अत: उन्होंने अपने होनहार पुत्र को गाँव के मदरसे से निकाल कर शहर के किनारे इस नए और बड़े मदरसे में दाखिल करवा दिया.
अहमद मियाँ जब इस मदरसे में आये तो कुरान तो याद नहीं कर पाए थे लेकिन रंग-ढंग सब हाफिजों वाल ही था. लगभग उन्नीस वर्ष की आयु, नई-नई आई दाढ़ी, गोरे-चिट्टे, लंबे-छरहरे, कुर्ते-पाजामे से लैस अहमद मियाँ को गाँव वालों ने हाफी जी कहना शुरू कर दिया और कुछ दिनों के बाद तो अहमद मियाँ ने बाकायदा गाँव की मस्जिद में इमामत शुरू कर दी. पढ़ना-लिखना तो खैर चलता ही रहता है, लेकिन अहमद मियाँ को जिस चीज़ से हद से बढ़कर लगाव था वह चीज़ थी क्रिकेट. पढ़ाई और इमामत से फुर्सत मिलते ही वे मदरसे के खाली मैदान में अपनी टीम को लेकर पहुँच जाते थे और बताने वाले बताते हैं कि वे क्रिकेट के अच्छे खिलाड़ी थे.
तो पिछले महीने की बात. जुमे का दिन था. जुमे की नमाज़ के बाद अहमद मियाँ और उनकी पूरी टीम मैदान में जमा हो गयी. छुट्टी का दिन, न कोई पढ़ाई का झंझट न कोई और काम. सो, पूरे जोश-खरोश से क्रिकेट शुरू हो गया. अहमद मियाँ बैटिंग कर रहे थे. अचानक उन्होंने गेंद को इतनी तेजी से हिट किया कि गेंद पलक झपकते ही मदरसे की बाउंड्री से बाहर और बिस्मिल्लाह खान के मकान जो कि मदरसे से सटा हुआ था, के पीछे वाले हिस्स्से में जा गिरी. असल में उस पुरानी हवेली के इस पिछवाड़े वाले हिस्से में बिस्मिल्लाह खान के बड़े बेटे सब्बू मियाँ, उनसे अलग होकर अपनी बीवी और दो बेटियों के साथ रहते थे.
वे स्वभाव में बिस्मिल्लाह खान से थोड़ा अलग थे और खुद से कुछ पढ़-लिख कर, एक छोटी सी सरकारी नौकरी में लगकर किसी दूसरे शहर में रहते थे और घर पर उनकी बीवी और दो जवान होती बेटियाँ रहती थी. बड़ी लगभग सत्रह साल की और छोटी लगभग पन्द्रह साल की…तो गेंद अंदर गिरते ही दूसरे लड़को ने शोर मचाना शुरू कर दिया क्योंकि शर्त यह थी कि जो भी गेंद को मदरसे के बाहर मारेगा, वही उसे वापस लाएगा. अहमद मियाँ झल्लाते हुए, बैट पटक कर मदरसे से बाहर निकले और बिस्मिल्लाह खान के घर के उस हिस्से की तरफ बढ़े जिस हिस्से में बिस्मिल्लाह खान के बेटे का परिवार रहता था और जिसके पीछे वाले हिस्से में गेंद गिरी थी. लेकिन यह क्या, दरवाजे पर तो ताला लगा हुआ था. अब क्या करें? खेल और छुट्टी का सारा मज़ा ही किरकिरा हो गया. लेकिन अहमद मियाँ भी अहमद मियाँ ही थे. अपने गाँव में ना जाने इस तरह के कितने मैदान उन्होंने मारे थे.
वे मदरसे में वापस आये और उस दीवार के पीछे पहुँचे जो उस घर को मदरसे से अलग करती थी. उन्होंने बाहर की तरफ उखड़ी हुई ईंटों का जायजा लिया और फिर कुछ ही देर में वे दीवार की मुंडेर पर थे. मुंडेर से उन्होंने नीचे झाँक कर देखा. ज़मीन पर फैली हुई लौकी की बेलों के बीच उन्हें अपनी गेंद कहीं दिखाई नहीं दे रही थी. वे कुछ देर सोचते रहे और फिर दीवार के ही सहारे दूसरी और उतरने लगे. सावधानी से उतरने के बाद, जैसे ही वे मुड़े, तो देखा कि सब्बू मियाँ की बड़ी बेटी फरीदा, सामने खड़ी उन्हें टुकुर-टुकुर देख रही थी. वह अभी-अभी अंदर से नहा कर निकली थी. गोरी, सुडौल नव-यौवना, बालों से पानी टपक-टपक कर उसके गालों को भिगो रहा था. एक हाथ में अंगिया पकड़े जो वह सुखाने के लिए बाहर डालने आई थी, अहमद मियाँ को अपने घर के पिछले हिस्से में दीवार के सहारे उतरते देख कर हैरानी से पलकें झपका रही थी. उसे देखकर अहमद मियाँ के तो होश उड़ गए. वह घबराते हुए बोले-
“वो…वो…इधर बाल…”
घबराहट में फरीदा अहमद मियाँ की बात ठीक से नहीं सुन पायी. वह गाँव के हाफी जी को इस हालत में अपने घर के पिछवाड़े देखकर चकित थी. उसने सोचा कि लगता है हाफी जी लौकी चुराने के लिए अंदर घुसे हैं. यह सोचते ही और अहमद मियाँ को इस तरह से हकलाते देखकर वह हँस पड़ी और बोली-
“हाफी जी, लौकी ही लेनी थी तो अम्मी को बोल देते. इस तरह से चोरी करने क्यों आये?”
अहमद मियाँ तब तक संभल चुके थे. उन्होंने फरीदा को तनिक गुस्से से देखा और बोले-
“मैं तुम्हें लौकी चोर दिख रहा हूँ. हमारी गेंद इधर आकर गिर गयी है. उसी को लेने आया था, लेकिन तुम कब आई? बाहर तो अभी ताला बंद था.”
“अच्छा, वो…मैं नहा रही थी और अम्मी और वहीदा को थोड़ी देर के लिए बाहर जाना था इसीलिए उन्होंने बाहर से ताला लगा दिया था ताकि कोई आ न जाये. लेकिन उन्हें क्या पता कि ताला लगा होने के बाद भी कोई अंदर घुस सकता है.” यह कहते हुए फरीदा ने एक तिरछी नज़र से हाफी जी को देखा और फिर बोली-
“जल्दी से अपनी गेंद ढूँढिए और बाहर जाइए. अम्मी और वहीदा आती ही होंगी.”
अहमद मियाँ ने घबरा कर इधर-उधर गेंद ढूँढनी शुरू कर दी और अपने हाथ की अंगिया को वहाँ लगी हुई रस्सी पर फैला कर फरीदा भी उनकी इस मुहिम में शामिल हो गयी. अहमद मियाँ ने उसे अंगिया फैलाते हुए एक नज़र देखा और फिर अंगिया पर एक नज़र डाली और ऐसा करते हुए उनकी नज़र फरीदा की नज़र से टकरा गयी. उन्हें एक शर्म सी आई और फिर वे सर झुका कर गेंद ढूँढने में लग गए. फरीदा भी कुछ झिझक सी गयी और चुपचाप सिर झुका कर गेंद खोजने में अहमद मियाँ का साथ देने लगी.
लौकी की लतरें पूरे ज़मीन पर फैली हुई थीं और कहीं-कहीं उन लतरों के बीच थोड़ी सफेदी लिए हुए हरी हरी, छोटी-छोटी, गोल-गोल लौकियाँ दिखायी दे रहीं थीं. बिना दुपट्टे के, झुक कर लौकी की लतरों के बीच गेंद खोजती हुई फरीदा की तरफ अहमद मियाँ ने एक बार चोर नज़रों से देखा और उसकी कुर्ती के नीचे से झाँकती सफेद अंगिया के नीचे भी उन्हें दो छोटी-छोटी लौकियाँ दिखाई पड़ी और उन्हें लगा कि आज पूरी दुनिया ही छोटी-छोटी लौकियों में बदल गयी है.
उस रात सारी दुआएँ पढ़ने के बावजूद अहमद मियाँ को नींद नहीं आई. कभी उन्हें सफेद अंगिये दिखाई देते थे, तो कभी सफ़ेद और हरी छोटी-छोटी लौकियाँ. कभी टुकुर-टुकुर ताकती फरीदा उनके सामने आ खड़ी होती और तुरंत नहा कर निकलने की वजह से उसके गालों पर ताज़ा पानी चू रहा होता, तो कभी उन्हें तिरछी नज़र से देखती हुई फरीदा दिखाई देती. उनके पूरे शरीर में एक अजीब तरह की ऐंठन थी और ऐसा पहली बार हुआ कि उस सुबह वे मस्जिद में सुबह की नमाज़ पढ़ाने नहीं जा पाए. तबियत कुछ भारी-भारी सी लग रही थी, इसलिए मदरसे के संचालक के पास एक अर्जी भेज कर छुट्टी ले ली और दिन चढ़े तक सोते रहे. सोकर उठने के बाद, ज़रुरियात से फ़ारिग होकर वे टहलने के गर्ज़ से मदरसे से बाहर निकल आये और बाहर निकलते ही सामने उन्हें फरीदा दिखाई पड़ गयी. कल वाली ही ड्रेस में लेकिन इस बार दुपट्टा सर पर था और एक हाथ में छड़ी थी जिससे वह कुछ बकरियों को हाँक कर चराने के लिए ले जा रही थी. अहमद मियाँ जहाँ थे, वहीँ जम से गए. उनकी नज़रों में एक बार फिर से फरीदा का अंगिया और गोल-गोल लौकियाँ घूमने लगीं. उन्होंने एक बार चोर नज़रों से फरीदा की ओर देखा.
ठीक उसी वक़्त बकरियों को हाँक कर सड़क के किनारे करती हुई फरीदा की नज़र भी अहमद मियाँ पर पड़ी और वह शरमा कर पहले से ही ठीक से ओढे गये दुपट्टे को फिर से ठीक करने लगी और ऐसा करते हुए उसकी छड़ी दुपट्टे से उलझ गयी. अहमद मियाँ ने एक बार चारों ओर देखा और किसी को वहाँ न पाकर, आगे बढ़कर फरीदा के दुपट्टे से उलझी हुई छड़ी को अलग कर दिया और मुस्कुरा कर आगे बढ़ गए. फरीदा थोड़ी देर वहीँ शरमाई हुई, मुस्कुराती खड़ी रही और फिर अपनी बकरियों को घेर कर, उन्हें चराने ले जाने के बजाये, वापस लाकर घर में बाँध दिया.
अब तो लगभग यह उसूल ही बन गया था. इधर फरीदा अपनी बकरियाँ लेकर निकलती, उधर अहमद मियाँ किसी न किसी बहाने से मदरसे से बाहर. अहमद मियाँ को अब तक पता चल चुका था कि फरीदा बकरियों को चराने के लिए रोड के किनारे उगे मूँज और उसके आस-पास के घास वाले मैदान में ले जाती है. उन्हें यह भी पता था कि फरीदा बकरियों को लेकर कितने बजे निकलती है और कब वापस आती है. तो अहमद मियाँ कभी फरीदा और उसकी बकरियों से पहले तो कभी बाद में मदरसे से निकलते और सड़क पर टहलते हुए उसे एक-दो बार देखकर वापस आ जाते. फरीदा जब भी उन्हें देखती, शरमा कर कभी अपने दुपट्टे से खेलने लगती और कभी हाथ में पकड़ी छड़ी को ज़मीन पर टिका कर उसे निहारने लगती.
इस तरह से एक दूसरे को देखते हुए कई दिन हो चुके थे. अहमद मियाँ को फरीदा से बात करने का कोई मौक़ा ही नहीं मिल पा रहा था क्योंकि सड़क पर हमेशा ही कोई न कोई होता और चूँकि वे हाफी जी थे और गाँव की मस्जिद में इमामत भी करते थे, इलाके के लगभग सभी लोग उनको पहचानते भी थे. और अक्सर फरीदा की छोटी बहन वहीदा भी उसके साथ होती. अहमद मियाँ बहुत देर तक सड़क पर टहल भी नहीं सकते थे क्योंकि अक्सर कोई न कोई मिल ही जाता और सलाम-दुआ के बाद उनसे सड़क पर टहलने के बारे में पूछ लेता और अहमद मियाँ झुंझला कर रह जाते. फिर उन्होंने एक नई तरकीब खोज निकाली और सड़क के किनारे पर स्थित पान की दुकान वाले छोकरे से दोस्ती कर ली. पान की उस दुकान से मूँज वाला घास का मैदान साफ़ दिखाई देता था.
अहमद मियाँ पान वाले से कुछ बात-चीत करने के बहाने दस-बीस मिनट तक वहाँ बैठे रहते और फरीदा को अपनी बकरियों के पीछे इधर से उधर भागते देखते रहते. फरीदा भी उन्हें देखती और ज़्यादा बदहवास होकर अपनी बकरियों के पीछे भागने लगती.
लेकिन जहाँ चाह वहाँ राह…जल्द ही नसीब ने अहमद मियाँ का साथ दिया. उस दिन सुबह से ही बादलों ने अपने पूरे लाव-लश्कर के साथ आसमान में डेरा डाल रखा था लेकिन अभी ज़मीन पर हमला करने की योजना ही बना रहे थे, हमला किया नहीं था. फरीदा अपने तय समय से बकरियाँ लेकर निकली. वहीदा को पिछली रात से बुखार था, इसलिए वह साथ में नहीं थी.
अहमद मियाँ भी, मदरसे में कुरान की तिलावत छोड़ कर जल्दी से बाहर निकले और फरीदा से थोड़ी दूरी बना कर चलने लगे. फरीदा जब अपनी बकरियों के साथ मूँज वाले मैदान में चली गयी, अहमद मियाँ पान वाली दुकान के पास पहुँचे.
लेकिन आज दुकान बंद थी और पान वाला छोकरा न जाने कहाँ गायब था. इसलिए अहमद मियाँ वहाँ न रुक कर टहलते हुए आगे बढ़ गए. लेकिन वापसी में जैसे ही वे पान की गुमटी के सामने पहुँचे, ठीक उसी वक़्त बादलों ने पूरे ज़ोर-शोर से धरती पर यलगार कर दिया.
बारिश इतनी तेज़ी से और अचानक आई कि कुछ सोचने-समझने का वक़्त ही नहीं मिला. अहमद मियाँ हडबड़ा कर पान की गुमटी के आगे निकले छज्जे तले भागे. वहाँ पहुँच कर अभी उन्होंने साँस लिया ही था कि फिर साँस जहाँ की तहाँ रुकने लगी. सामने से फरीदा और उसकी बकरियाँ छज्जे के नीचे घुसी चली आ रहीं थीं. बारिश काफी तेज थी और सड़क पर जो इक्के-दुक्के लोग थे, वे भी अब कहीं नज़र नहीं आ रहे थे.
सामने सिर्फ़ बकरियाँ थीं, बारिश थी और फरीदा थी जो बारिश में कुछ-कुछ भीग गयी थी और उसके कपड़े कई जगह से उसके जिस्म से चिपक गए थे. फरीदा ने भी अहमद मियाँ को देखा और देखकर कुछ देर के लिए ठिठक गयी. फिर जैसा कि अक्सर ऐसे अवसरों पर वह करती थी, अपने दुपट्टे के एक सिरे को अपनी उँगलियों से लपेटना शुरू कर दिया. दुपट्टा भी बारिश में भीग चुका था और उससे रह रह कर पानी नीचे टपक रहा रहा था. फरीदा ने एक बार उलझी हुई निगाह से अहमद मियाँ की तरफ़ देखा और फिर अपना दुपट्टा उतारकर उसे निचोड़ना शुरू कर दिया. दुपट्टे को निचोड़ने के क्रम में जैसे ही फरीदा थोड़ी सी झुकी, उसकी अंगिया की सफेद पट्टियाँ और उनके बीच कसे हुए उरोजों की हल्की सी झलक ने अहमद मियाँ को फिर से लौकियों की दुनिया में पहुँचा दिया. अब उन्हें एक बार फिर से चारों ओर गोल-गोल छोटी-छोटी लौकियाँ ही दिखाई दे रही थीं. यहाँ तक कि बारिश की बूंदे भी उन्हीं गोल-गोल, छोटी-छोटी लौकियों में बदल गयीं और ऐसा लगता था जैसे आसमान से मुसलाधार लौकियाँ बरस रही हों.
यह तो पता नहीं कि उस दिन अहमद मियाँ ने फरीदा से कैसे बात-चीत शुरू की, इसके लिए उनको कितनी हिम्मत जुटानी पड़ी, फरीदा ने उसका क्या जवाब दिया, जवाब देते हुए उसने दुपट्टा ओढ़ लिया था या नहीं, अगर ओढ़ लिया था तो उसके सिरे को अपनी उँगलियों में लपेट रही थी या नहीं, कितनी देर बात-चीत हुई, कितनी देर बारिश हुई, जब अहमद मियाँ और फरीदा बात-चीत कर रहे थे तो फरीदा की बकरियाँ क्या कर रही थीं, उनकी बात-चीत के दौरान कोई राहगीर उधर से गुज़रा या नहीं, कोई गाड़ी उधर से गयी या नहीं, बादल कितनी बार और कितने तेज़ी से गरजे, बिजली कितनी बार चमकी, बिजली के चमकने से दोनों को या उनमें से किसी एक को कुछ डर लगा या नहीं, ये सब तो पता नहीं, पता है तो सिर्फ़ इतना कि उसके बाद अहमद मियाँ और फरीदा ने अपने मिलने के कई मौके बनाये, दो बार फरीदा के घर में जब कोई नहीं था, एक बार मूँज वाले घास के मैदान में लंबी-लंबी उगी हुई मूँजों के दरमियाँ गरचे इस बार जितना मज़ा आया, उससे ज़्यादा कष्ट हुआ क्योंकि मूँजें बहुत तीखी थीं और दोनों के शरीर पर जो चीरें आयीं, वह कई दिनों तक उन्हें सिसकाती रहीं. एक-दो बार, मदरसे के पीछे जो जंगल जैसा इलाका था, दोनों चोरी-छिपे रात में वहाँ मिले और इस तरह चोरी-चोरी मिलते-मिलाते शबेबारात का दिन आ पहुँचा.
शबेबारात…यानी मुसलमानों के पवित्र महीने रमजान से ठीक पन्द्रह दिन पहले आने वाली वह पवित्र रात, जिसमें मुसलमान रात भर जागकर इबादत करते हैं. इस रात अल्लाह सातवें आसमान से उतर कर पहले आसमान पर आ जाता है और देखता है कि उसके बंदे किस तरह इबादत में मश्गूल हैं. इस रात जो भी अल्लाह का बंदा अल्लाह से अपने गुनाहों की माफ़ी माँगता है, अल्लाह उसको माफ़ कर देता है. मुसलमान इस रात को बहुत अकीदत के साथ मनाते हैं.
बहुत सारे घरों में तरह तरह के हलवे बनते हैं – सूजी के हलवे, चने के हलवे, गाजर के हलवे, तिल के हलवे, बादाम के हलवे, पिश्ते और दूसरे सूखे मेवों के हलवे आदि-आदि. नज़र व नियाज़ होता है, सौगात के रूप में लोग एक दूसरे के घर हलवे भेजते हैं, खुद भी खाते हैं, आतिशबाजी करते हैं, अपने घरों, मस्जिदों और कब्रिस्तानों को अपनी औकात भर सजाते-संवारते हैं, पूरी रात जागकर इबादत करते हैं और अपने और अपने पूर्वजों के गुनाहों की माफ़ी मांगते हैं.
लेकिन कुछ मुसलमान और उनके धर्मगुरु इस रवायत को नहीं मानते. उनके अनुसार यह रात सिर्फ़ इबादत की रात है, खा-पीकर रतजगा करने की नहीं. उनका आरोप है कि बहुत से मुसलमान पेट भर कर हलवे वगैरह खा लेते हैं और फिर लंबी तान कर सो जाते है. इत्तफ़ाक की बात थी कि अहमद मियाँ जिस मदरसे में पढ़ते थे, वह मदरसा इसी ख़याल का था और खुद अहमद मियाँ भी हलवे वगैरह बनाने और नज़र व नियाज़ कराने के सख्त खिलाफ थे.
मदरसे के संचालक व सबसे बड़े मौलाना ने आज की रात, लोगों को शबेबारात की अहमियत और इस रात को क्या करना चाहिये और क्या नहीं, यह बताने के लिए एक जलसे का आयोजन कर रखा था. इस जलसे में औरतों के बैठने के लिए एक पर्दा लगाकर अलग से इंतजाम किया गया था.
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पेंटिग:Salman Toor |
फरीदा की माँ ने फरीदा और वहीदा की मदद से कुछ हलवे तैयार किये और अड़ोस-पड़ोस में उसे बंटवाने के बाद जलसे में जाने के लिए वे अपनी बेटियों सहित जल्दी-जल्दी तैयार हो गयीं. मौलाना की तकरीर और इस जलसे जैसे पवित्र कार्य में शामिल होकर पुण्य कमाने के अलावा, आस-पास और पूरे मोहल्ले से आने वाली औरतों के साथ गपियाने का महा आकर्षण उनको जल्दी से जल्दी जलसे में पहुँचने के लिए बेकरार कर रहा था. लेकिन अचानक उनको याद आया कि मुहल्ले में ही रहने वाली फरीदा की खाला के घर तो उन्होंने हलवा भिजवाया ही नहीं. उन्होंने तुरंत एक कटोरे में हलवे रखे और उसे फरीदा को देती हुई बोलीं –
“इसे जैनुन खाला को देकर जल्दी से जलसे में आ जाओ. अगर जैनुन तैयार हो तो उसे भी साथ में लेती आना.”
फरीदा का कहीं जाने का मन न था. दिन भर घर की साफ़-सफ़ाई, लिपाई-पुताई करने और फिर हलवे बनाने और उसे घर-घर पहुँचाने में वह हलकान हो चुकी थी. वह तो जलसे में भी जाने की इच्छुक नहीं थी लेकिन वहाँ अहमद मियाँ की एक झलक मिल जाने की उम्मीद थी. लेकिन माँ की बात से इंकार भी नहीं कर सकती थी. थोड़ा झुंझला कर बोली,
“ठीक है वहाँ रख दीजिए और आप लोग जलसे में जाइए. मैं थोड़ी देर में उन्हें दे आऊँगी.”
फरीदा की माँ ने हलवे वाला कटोरा वहीं चूल्हे के पास रख दिया और वहीदा के साथ जलसे में शामिल होने चली गयी. अहमद मियाँ जो मदरसे के गेट पर खड़े होकर हर आने-जाने वाले को देख रहे थे और फरीदा का इंतज़ार कर रहे थे, फरीदा की माँ को वहीदा के साथ आते देखकर निराश हो गए. उन्हें लगा शायद फरीदा जलसे में नहीं आएगी. थोड़ी देर तक वे खड़े सोचते रहे और फिर एक फैसला करके मुस्कुरा उठे.
फरीदा कुछ देर तक चुपचाप चूल्हे के पास रखे हलवे से भरे कटोरे को देखती रही जिसे उसको जैनुन खाला के घर पहुँचाना था. कुछ देर बाद उसने शीशे में अपने को देखा, मेकअप को एक बार निहारा, दुपट्टे को ठीक किया और हलवे वाले कटोरे को लेकर बाहर निकलने को हुई कि सामने अहमद मियाँ को देखकर गड़बड़ा गयी. न जाने कब, बहुत ही चुपके से अहमद मियाँ फरीदा के घर में घुस चुके थे और उसे एक हाथ में हलवे से भरा कटोरा थामे कहीं जाने को तैयार देख रहे थे. हलके से मेकअप में वह उन्हें आज बहुत ही खूबसूरत दिखाई दे रही थी. थोड़ी देर को दोनों चुपचाप एक दूसरे को देखते रहे फिर अहमद मियाँ ने आगे बढ़कर हमीदा के दोनों हाथों को पकड़ लिया और सरगोशी के अंदाज़ में पूछा-
“कहाँ बिजली गिराने जा रही हो?”
“खाला के घर, हलवा देने”
“जलसे में नहीं जाना?”
“अब आप आ गए तो वहाँ जाकर क्या होगा?” फरीदा के होंठों पर मुस्कुराहट थी.
“क्यों, मौलाना की तकरीर नहीं सुननी? तुम्हारी अम्मा और बहन तो वहाँ गयीं हैं?”
“मौलाना की तकरीर मुझे तो समझ में आती नहीं. न जाने कौन सी भाषा बोलते हैं. और अम्मा को तो वहाँ गप्प लड़ाना है, तकरीर थोड़े सुननी है.”
फरीदा भूल गयी थी कि अहमद मियाँ उसके घर के अंदर खड़े हैं, कि उन्होंने उसके दोनों हाथों को पकड़ रखा है, कि उसके एक हाथ में अभी भी हलवे का वह कटोरा है जिसे उसको जैनुन खाला के वहाँ पहुँचाना है, कि उसे खाला के घर हलवा पहुँचा कर जलसे में अपनी माँ के पास जाना था. उसे तो बस अहमद मियाँ नज़र आ रहे थे और उनके कुर्ते से निकल कर आने वाली इत्र की महक उसे किसी और दुनिया में पहुँचा रही थी. बाहर जलसा शुरू हो चुका था और मौलाना की तकरीर लाउडस्पीकर पर गूंज रही थी और अहमद मियाँ और फरीदा के कानों तक पहुँच रही थीं –
“आज की नौजवान नस्ल कहाँ जा रही है, हमें इसकी कोई फिक्र नहीं है. लड़के-लड़कियाँ सरे आम एक दूसरे के साथ बदफेलियाँ कर रहे हैं और कोई उनको रोकने वाला नहीं है. हम नौजवान नस्ल को कुफ्र के कुँए में गिरता हुआ देख रहे हैं और बजाए उनको बचाने के, अपनी-अपनी आँखें बंद कर ले रहे हैं.”
अहमद मियाँ ने एक हाथ से फरीदा की आँखों को बंद कर दिया और दूसरे हाथ से हलवे के कटोरे को लेकर नीचे रख दिया. सूजी और चने के ताज़ा बने हुए हलवे और उन पर मेवों की कतरनें. फरीदा ने एक शर्माती हुई मुस्कुराहट के साथ अहमद मियाँ की ओर देखने की कोशिश की और धीरे से बोली-
“क्या कर रहे हैं?”
अहमद मियाँ भी मुस्कराए और धीरे से बोले-
“वही जो करना चाहिए”
“लेकिन आज शबेबरात है और सुन नहीं रहे हैं, मौलाना क्या कह रहे हैं?”
“मौलाना की मौलाना जाने. मैं तो अपनी जानता हूँ.”
“क्या अपनी जानते हैं?”
“शायद हम अब जल्दी न मिल पाए”
“क्यों?”
“रमज़ान शुरू होते ही छुट्टियाँ हो जाएँगी और मुझे घर जाना पड़ेगा, पूरे डेढ़ महीने.”
“अच्छा तो मैं अपनी बकरियाँ लेकर आपके गाँव के पास आ जाऊँगी.” वह इतने भोलेपन से बोली कि अहमद मियाँ हँस पड़े.
“तुम अपनी बकरियाँ लेकर जब चाहे आना, लेकिन आज शबेबरात है और मुझे शबेबरात मनाना है. हलवा नहीं खिलाओगी?”
“अरे, अभी तक मैंने आपको हलवा भी नहीं खिलाया.” यह कहते हुए फरीदा हलवे के कटोरे की और झुकी कि अहमद मियाँ ने उसे बाँहों से पकड़ कर उठा दिया. फरीदा ने सवालिया नज़रों से उनकी और देखा और इससे पहले कि वह कुछ समझ पाती, अहमद मियाँ ने नीचे से पकड़ कर उसके कुर्ते को उलट दिया. कुर्ते के साथ-साथ झटके से अंगियाँ भी ऊपर को उठ गयी. एक पल के लिए लगा, जैसे सूजी और चने के मिश्रण से बने शबेबारत के हलवे के दो कटोरे, फरीदा के जिस्म से बाहर निकल आये हो. अहमद मियाँ ने इबादत की नज़रों से उनकी और देखा. लाउडस्पीकर पर मौलाना की तकरीर गूँज रही थी-
“यह शबेबारत की मुकद्दस रात है. आज की रात, इबादत के लिए है, न कि हलवा खाने और मज़े लेने के लिए. असल में आज की रात हलवा खाना और खिलाना दोनों हराम है.”
अहमद मियां ने मौलाना की तकरीर सुनी, फरीदा की और देखकर शरारत से मुस्कुराए और फरीदा की नजरों में रजामंदी देखकर उन्हें लगा कि अलाह ने उनकी दुआएँ क़ुबूल कर ली हैं.
बाहर से मौलाना की तकरीर की आवाज़ अभी भी आ रही थी और अहमद मियाँ और फरीदा हलवा खाने और खिलाने में व्यस्त थे. अल्लाह पहले आसमान पर आ चुका था और शायद उन्हें देखकर मुस्कुरा रहा था.