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Home » कथा- गाथा : सलीमा : अनवर सुहैल

कथा- गाथा : सलीमा : अनवर सुहैल

चित्र : Steve Mccurry हम अक्सर अपने पूर्वग्रहों के घर में रहते हैं. हालाँकि प्रत्येक पूर्वग्रह का भी सामाजिक आधार होता है और कई बार एक सतत राजनीतिक प्रतिक्रिया  के अंतर्गत इसे निर्मित किया जाता है. हिन्दुस्तानी समाज की बुनावट में कुछ इसी तरह के बदरंग धागे शामिल हैं जिन्हें बदलने की जरूरत है, और […]

by arun dev
February 14, 2014
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चित्र : Steve Mccurry

हम अक्सर अपने पूर्वग्रहों के घर में रहते हैं. हालाँकि प्रत्येक पूर्वग्रह का भी सामाजिक आधार होता है और कई बार एक सतत राजनीतिक प्रतिक्रिया  के अंतर्गत इसे निर्मित किया जाता है. हिन्दुस्तानी समाज की बुनावट में कुछ इसी तरह के बदरंग धागे शामिल हैं जिन्हें बदलने की जरूरत है, और इस आशय के साथ की सोच और व्यवहार की कट्टरता से बुरा कुछ भी नहीं.
अनवर सुहैल के उपन्यास ‘सलीमा’ का यह अंश ऐसे ही बदरंग माइंडसेट को सामने रखता है.
उपन्यास अंश
____________________________
सलीमा                       

अनवर सुहैल

नगर के जिस इलाके में सलीमा का घर है, उसे इब्राहीमपुरा के नाम से जाना जाता है. इब्राहीमपुरा यानी ‘मिनी पाकिस्तान’. ये तो सलीमा ने बाद में जाना कि हिन्दुस्तान में जहां-जहां मुसलमानों की आबादी ज़्यादा है उस जगह को ‘मिनी-पाकिस्तान’ का नाम दे दिया जाता है. मुख्य-नगर में बड़े बाज़ार हैं, दीगर महकमों के दफ्तर हैं, सिनेमा-घर हैं, पेट्रोल-टंकियां हैं, मंदिर हैं….राजनीतिक दलों के कार्यालय हैं, गांधी, नेहरू, अटल-चैक हैं. मुख्य-नगर जहां सामुदायिक भवन है, सब्जी-मंडियां हैं, कई मैरिज-हाल हैं, दशहरा-मैदान है, सरकारी-निजी विद्यालय हैं. मुख्य-नगर जहां भीड़ है, दुकानदार हैं, खरीददार हैं वो बहुसंख्यक हिन्दू आबादी है.

मुख्य-नगर की चकाचक सीमा जहां ख़त्म होती है वहां हर मौसम में गंधाता-बजबजाता नाला है. नाले पर संकरी पुलिया है और पुलिया के पार करिए तो इब्राहीमपुरा की बस्ती शुरू होती है. इब्राहीमपुरा यानी ‘मिनी पाकिस्तान’. सलीमा की आटा-चक्की एक तरह से नाले के बाद का पहला मकान है. उसकी चक्की के सामने जो सड़क निकलती है वह राम-मंदिर से आती है. नाले के किनारे बिकते हैं मुर्गे-मुर्गियां. तीन स्थाई दुकानें हैं बकरेके गोश्त की. दो दुकानें हैं मछली की. कुछ ठेले हैं जिनमें अण्डे बिकते हैं. मीट-मछली की बदबू से आग़ाज़ होता है इब्राहीमपुरा का. ये सड़क जाकर बड़ी मस्जिद तक जाती है. बड़ी मस्जिद के पीछे तालाब है. उस तालाब के पीछे मुसलमानों की एक नई आबादी बस गई है. ये मुसलमान बाद में इस नगर में आए और अमूमन टायर, डेंटिंग-पेंटिंग, प्लम्बर, दर्जी, कबाड़ आदि छोटे-मोटे धंधे वाले मुसलमान हैं. उत्तर-प्रदेश, झारखण्ड और बिहार से आकर बसे इन मुसलमानों ने अपने लिए नई मस्जिद तामीर कर ली है जिसका नाम रखा है ‘मदीना-मस्जिद’ और अपने मुहल्ले का नाम रख दिया है रसूलपुरा.

रसूलपुरा की सीमा जहां समाप्त होती है वहां से शुरू होता है ईदगाह और कब्रिस्तान का इलाका. पहले उस इलाके में शाम ढले जाने में डर लगता था, लेकिन अब तो ऐसा लगता है कि लोग कब्रिस्तान के मुर्दों को भगा कर वहां भी मकान बना लेंगे. सलीमा की चक्की के पास ही बब्बन कस्साब की दुकान है. जहां सुबह सात बजे से रात आठ बजे तक बकरे का गोश्त मिल जाता है. बब्बन कस्साब के बगल में उसके छोटे भाई झब्बन की और सुल्तान भाई की बायलर मुर्गी और अण्डे की दुकान है. भरत कुर्मी और कुर्बान अली की मछली की गुमटियां भी उसी लाईन में है. सलीमा को याद है कि उसकी हिन्दू सहेलियां इब्राहीमपुरा आने से डरती थीं. उन्हें लगता था कि मांसाहारी मुसलमान लोग आदमख़ोर भी हुआ करते हैं. संस्कृत पढ़ाने वाले उपाध्याय सर तो क्लास-रूम में सरेआम कहा करते थे कि ये मुसल्ले बड़े गन्दे होते हैं. सप्ताह में एक बार नहाते हैं. इनके घरों में अण्डा, मछली, मांस पकता है. इनके मुहल्ले में बड़ी गंदगी होती है. इन मुसल्लों के घरों में बकरे-बकरियां बंधी होती हैं जो चैबीस घण्टे मिमियाती रहती हैं. मेंगनी करती और मूतती रहती हैं. मुर्गे-मुर्गियों की तो पूछो ही मत. इन सबके बीच ये मुसलमान अपने दिन-रात गुज़ारते हैं. इनके दिल में तनिक भी दया नहीं होती. ये जिस जानवर को बड़ी शान और प्यार से पालते हैं, फिर उसी जानवर की गर्दन काटते हैं. गर्दन काटते हैं तो वो भी बड़े इत्मीनान से जानवर के गले पर चक्कू-चापड़ घिसते हैं. राम-राम, कितने निर्दयी होते हैं ये मुसल्ले…

मुसलमानों के समाज में औरतों की कोई इज़्ज़त नहीं. औरतें अक्सर बीमार रहा करती हैं. हर साल बच्चे पैदा करना मुसलमानों का मज़हब है. इसीलिए मुसलमानों के मुहल्ले में बच्चों की बड़ी तादाद होती है. न जाने क्यों मुसलमान ज्यादा बच्चे पैदा करते हैं. नंगे-अधनंगे गंदे बच्चे गली-मुहल्ले में छितराए रहते हैं. बच्चों और औरतों के बदन में कपड़ा हो न हो, लेकिन इन मुसलमानों की रसोईयों में मांस ज़रूर पकना चाहिए. हद तो ये है कि जब इन मुसल्लों ने अपने लिए पाकिस्तान मांग ही लिया फिर यहां काहे जगह घेरने के लिए रूक गए! पहले कितनी कम आबादी थी इन मुसल्लों की यहां. नसबंदी का विरोध इन्होंने किया, क्योंकि इनके आका इन्हें बताते हैं कि आबादी बढ़ाकर अल्पसंख्यक से बहुसंख्यक कैसे बना जाता है? सलीमा को उसकी हिन्दू सहेलियां इन्हीं सब कारणों से चिढ़ाया करतीं.

उसकी पक्की सहेली मीरा ने एक दिन सलीमा से पूछा था कि तुम लोगों में लड़कों को मुसलमान बनाने के लिए खतना किया जाता है लेकिन लड़कियों को कैसे मुसलमान बनाते हैं? सलीमा क्या बताती. लड़कियों का तो कोई मज़हब नहीं होता, कोई जात नहीं होती, कोई पहचान नहीं होती, उनका कोई प्रान्त नहीं होता…..लड़कियां तो अपने-आप में एक मज़हब हैं. सलीमा कहां समझा पाती इतना सब. इसीलिए उसने मीरा से बात करना बंद कर दिया. क्या फ़ायदा ऐसी लड़कियों से दोस्ती करके. जब उन्हें उसका मज़ाक ही उड़ाना है. स्कूल में भी तो जब देखो तब पूजा-पाठ होता रहता है, क्या रखा है इस पूजा-पाठ में. क्या पत्थर के देवी-देवता या तस्वीरों को पूजने से इनका भला होगा? वह तो उनकी हरकतों पर कभी ऐतराज़ नहीं करती है. और ऐसा नहीं है कि सलीमा पूजा में शामिल नहीं होती थी. उसे सरस्वती वंदना याद है. गायत्री-मंत्र याद है. वह जानती है कि चरणामृत कैसे लिया जाता है, आरती के बाद दीपक की लौ की सेंक कैसे ली जाती है, प्रसाद कैसे दाहिने हाथ के नीचे बांई हथेली रखकर ग्रहण किया जाता है. वह सब जानती है. उसे देखकर कोई नहीं कह सकता कि वह एक मुसलमान लड़की है. फिर उसके मज़हब का ये लोग क्यों मज़ाक उड़ाते हैं, सलीमा समझ न पाती.

सलीमा जानती है कि लोग मुसलमानों से चाहे कितनी नफ़रत करें, लेकिन गाहे-बगाहे उन्हें अब्बू की शरण में आना ही पड़ता है. अब्बू के हाथ में जादू जो है. बड़ा हुनर दिया है अल्लाह-पाक ने उनके हाथों में. अपनी जवानी के दिनों में पहलवान हुआ करते थे अब्बू. उनका नाम था महमूद जो कि बिगड़कर बन गया था ‘मम्दू पहलवान’. अम्बिकापुर के नामी पहलवान बन्ने मियां की शागिर्दी की थी उन्होंने. बन्ने मियां हड्डी और नस के अच्छे जानकार थे. अब्बू ने पहलवानी से ज़्यादा बन्ने मियां से हड्डी और नस की डाक्टरी जान ली थी. हड्डियों के जोड़-जोड़ की जानकारी उन्हें है. जिस्म की तमाम नसों को अपने इशारे पर नचा सकते हैं वो. नगर के पुराने लोग अभी भी उनके पास हड्डियां बिठाने या फिर राह भटकी नसों को सीधी राह पर लाने के लिए आया करते हैं. ऐसे तमाम ज़रूरतमंद लोगों को अब्बू सुबह बुलाया करते.

चाहे मरीज़ कितना भी बड़ा आदमी क्यों न हो, कुसमय इलाज नहीं करते. ये कहकर लौटा देते-‘‘सुबह आओ…नसों की सही जानकारी सुबह ही मिलती है.’’ सलीमा की नींद सुबह फजिर की अज़ान की आवाज़ से न खुल पाई तो फिर अब्बू के मरीज़ों की आमद से खुलती है. अलस्सुबह लोग चक्की वाले कमरे से लगे बाहरी कमरे की सांकल बजाते हैं. ‘‘पहलवान‘च्चा!’’ या फिर ‘मम्दू पहलवान हैं क्या?’’
अब्बू बिस्तर से उठते नहीं.
बिस्तर पर लेटे हुए सलीमा को आवाज़ देते हैं- ‘‘देख तो बेटा, कौन आया है?’’

अब्बू की एक आवाज़ पर सलीमा झटके से बिस्तर छोड़ती है. चेहरे पर दोनों हथेलियां फिराकर अंदाज़ बाल दुरस्त करती है. फिर जल्दी से कपड़े की सलवटें ठीक करती, दुपट्टा गले पर डालते हुए चक्की के मेन-गेट पर लगे ताले को खोलने चली जाती है. बाहर खड़े लोगों के चेहरे पर दर्द की लकीरें देख वह उन्हें अंदर आने का इशारा करती. चक्की का अंधेरा गलियारा पार कर आंगन के बाद रसोई से लगा कमरा अब्बू का है. अब्बू की चारपाई के बगल में एक स्टूल रखा है. मरीज़ उस पर बैठ कर अपना दुख बताता.
‘‘बहुत दर्द कर रहा है ये वाला पैर,  इसे ज़मीन पर रखूं तो जैसे जान निकल जाती है.’’
मरीज़ ज़मीन पर पैर जमा कर खड़ा होने की कोशिश करता और उसके मुंह से कराह निकल जाती.अब्बू बिस्तर पर पड़े टुकुर-टुकुर उस मरीज़ को निहारते, कुछ नहीं कहते.फिर लिहाफ़ हटा कर उठ बैठते.तकिए के नीचे से बीड़ी का कट्टा और माचिस निकालते. एक बीड़ी सुलगाते और फिर मरीज़ को स्टूल पर बैठने का इशारा करते.

इत्मीनान से बीड़ी फूंक कर चारपाई से उठते और ज़मीन पर उकड़ू बैठ कर मरीज़ की एडि़यों को इधर-उधर घुमाते. मरीज़ दर्द से कराहने लगता. अब्बू के पतले-पतले हाथ उसके घुटने के पीछे जाकर जाने क्या करतब करते कि मरीज़ एक गहरी आह भर कर चुप हो जाता. अब्बू वापस अपनी चारपाई पर बैठ जाते और मरीज़ से कहते कि एक-दो बार पैर झटको. वह ऐसा ही करता. आश्चर्य! मरीज़ के चेहरे पर छाई दर्द की लकीरें अब नहीं दीखतीं. मरीज़ अब्बू को बड़े आदर से देखता तो अब्बू कहते कि नस चढ़ गई थी. गरम पानी में नमक डाल कर पैरों को दो-तीन बार धो लेना. मरीज़ इलाज से संतुष्ट होकर अपनी जेब टटोलता. अब्बू की फीस मात्र दस रूपए है. चाहे उन्हें उस हड्डी को बिठाने में एक घण्टे लग जाएं या फिर एक पल…

अब्बू पैसा अपने हाथ से नहीं छूते. तकिया उठाकर इशारे से कहते कि तकिए के नीचे पैसा रख दो. मरीज़ तकिए के नीचे रूपए डाल कर बड़ी श्रद्धा से उन्हें देखता. आज के ज़माने में इतना सस्ता इलाज!
कस्बे मे अब तो कई लोग हैं जो इस हुनर के जानकार हैं, लेकिन मम्दू पहलवान की बात ही और है.

भूले-भटके एक-दो मरीज़ हर दिन अब्बू को मिल ही जाते हैं, जिससे उनकी शाम की दारू का खर्च निकल आता है. सलमा के ख़ानदान की मुहल्ले में कोई क़द्रो-क़ीमत नहीं है. इसका कारण सलीमा जानती है. जैसे कि अब्बू की पियक्कड़ी, अम्मी और मौलाना के कि़स्से, सलीमा का घिनौना अतीत… वैसे इस ज़माने में दूध का धुला कोई नहीं. हरेक चादर दाग़दार है आजकल, लेकिन धन-दौलत का पर्दा बदनामियों को ढंक लेता है और ग़रीबों की बदनामियां जंगल की आग बन कर फैल जाती हैं.
सलीमा जानती है कि इस हमाम में सभी नंगे हैं….कौन सा दिल है जिसमें दाग़ नहीं! बस, ज़माने का दस्तूर यही है कि जो पकड़ाए वही चोर….
_______

अनवर सुहैल
09 अक्टूबर 1964 /जांजगीर, छत्तीसगढ़
उपन्यास: पहचान
कहानी संग्रह:  कुंजड़-कसाई, ग्यारह सितम्बर के बाद, चहल्लुम, गहरी जड़ें
कविता संग्रह:  और थोड़ी सी शर्म दे मौला, संतों काहे की बेचैनी
सम्पादन: कविता केंद्रित लघुपत्रिका ‘संकेत’
सम्प्रति : कोल इंडिया लिमिटेड में सीनियर मैनेजर
सम्पर्क : टाईप 4/3, आफीसर्स कालोनी, पोस्ट बिजुरी
जिला अनूपपुर मप्र 484440
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