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समालोचन

Home » \’क्या हुआ जो\’ : राहुल राजेश

\’क्या हुआ जो\’ : राहुल राजेश

राहुल राजेश का दूसरा कविता संग्रह \’क्या हुआ जो\’ इस वर्ष  ज्योतिपर्व प्रकाशन, दिल्ली से प्रकाशित हुआ है. इसी संग्रह से कुछ कविताएँ. राहुल राजेश कविता लिखते हुए अपने श्रोताओं को विस्मृत नहीं करते. उनकी कविता में  संवाद की सहजता और संप्रेषणीयता है. राहुल राजेश की कविताएँ                 […]

by arun dev
October 10, 2016
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राहुल राजेश का दूसरा कविता संग्रह \’क्या हुआ जो\’ इस वर्ष  ज्योतिपर्व प्रकाशन, दिल्ली से प्रकाशित हुआ है. इसी संग्रह से कुछ कविताएँ.

राहुल राजेश कविता लिखते हुए अपने श्रोताओं को विस्मृत नहीं करते. उनकी कविता में  संवाद की सहजता और संप्रेषणीयता है.

राहुल राजेश की कविताएँ                          


समय के साथ

समय के साथ भर जाते हैं घाव
समय के साथ मंद पड़ती हैं स्मृतियाँ
समय के साथ पकता है प्यार
समय के साथ कुंद पड़ती है धार.

पाठ

बूँद समंदर से ज्यादा चमकीली होती है
पत्ती पेड़ से ज्यादा पनीली होती है
फूल पत्ती से ज्यादा सुंदर होता है
घास जंगल से ज्यादा हरी होती है
मुस्कान हँसी से ज्यादा मोहक होती है
छुअन आलिंगन से ज्यादा मादक होती है
बूँद समंदर से पहले सूखती है
पत्ती पेड़ से पहले गिरती है
फूल पत्ती से पहले झरता है
घास जंगल से पहले कटती है
मुस्कान हँसी से पहले मिटती है
छुअन आलिंगन से पहले सिमटती है
प्यास में समंदर नहीं, बूँद ही टिकती है
पाँव में जंगल नहीं, घास ही लिपटती है
आँखों में पेड़ नहीं, फूल–पत्ती ही हँसती है
दिल में हँसी नहीं, मुस्कान ही उतरती है
देह में आलिंगन नहीं, छुअन ही ठहरती है !

आत्मा की कमीज

मेरी आत्मा की कमीज
वहीं छूट गई है
गाँव की खूँटी पर
मैं नंगे बदन
चला आया हूँ
इस शहर में
नौकरी की पतलून तो
है पास मेरे
जिसे पहनकर
ढँक लेता हूँ
अपनी टाँगें
और तसल्ली कर लेता हूँ
कि अपने पैरों पर
खड़ा हूँ
पर मेरी आत्मा की कमीज
वहीं छूट गई है
गाँव की खूँटी पर !

हँसी

बना बैठा था मैं
हिमशैल रूठकर
छिड़ा हुआ था
एक अनकहा महासमर
पसरा हुआ था
मौन का महासागर
हम दोनों के बीच…
जब नहीं रहा गया तनकर
वह आई
आँखों में अनुनय भरकर
और
छुआ मुझे
मुझसे भी
बना रहा गया नहीं पत्थर
मैं भी ढहा भरभराकर
पहले वह
फिर मैं
फिर हम दोनों
हँसे खिलखिलाकर !

चिट्ठियाँ

बचपन में चिट्ठी का मतलब
स्कूल में हिंदी की परीक्षा में
पिता या मित्र को पत्र लिखना भर था
चंद अंकों का हर बार पूछा जाने वाला सवाल
आदरणीय पिताजी से शुरू होकर अंत में
सादर चरण–स्पर्श पर समाप्त हो जाता हमारा उत्तर
कागज की दाहिनी तरफ दिनांक और स्थान लिखकर
मुफ्त में दो अंक झटक लेने का अभ्यास मात्र
गर्मी की छुट्टियों में हॉस्टल से घर आते वक्त
हमें चिट्ठियों से बतियाने की सूझी एकबारगी
सुंदर लिखावटों में पहली–पहली बार हमने संजोए पते
फोन–नंबर कौन कहे, पिनकोड याद रखना भी तब मुश्किल
न्यू ईयर के ग्रीटिंग कार्डों से बढ़ते हुए
पोस्टकार्डों, लिफाफों, अंतरदेशियों का
शुरू हुआ जो सिलसिला
चढ़ा परवान हमारे पहले–पहले प्यारका हरकारा बन
मां–बाबूजी या दोस्तों के ख़तों के
इंतजार से ज्यादा गाढ़ा होता गया प्रेम–पत्रों का इंतजार
यह इंतजार इतना मादक कि
हम रोज बाट जोहते डाकिए की
दुनिया में प्रेमिका के बाद वही लगता सबसे प्यारा
मैं ठीक हूँ से शुरू होकर
आशा है आपसब सकुशल होंगे पर
खत्म हो जाती चिट्ठियों से शुरू होकर
बीस–बीस पन्नोंतक में न समाने वाले प्रेम–पत्रों तक
चिट्ठियों ने बना ली हमारे जीवन में
सबसे अहम, सबसे आत्मीय जगह
जितनी बेसब्री से इंतजार रहता चिट्ठियों के आने का
उससे कहीं अधिक जतन और प्यार से संजोकर
हम रखते चिट्ठियाँ,
अपने घर, अपने कमरे में सबसे सुरक्षित,
सबसे गोपनीय जगह उनके लिए ढूँढ़ निकालते
बाकी ख़तों को बार–बार पढ़ेंन पढ़ें
प्रेम–पत्रों को छिप–छिपकर बार–बार, कई–कई बार पढ़ते
हमारे जवां होते प्यार की गवाह बनती ये चिट्ठियाँ
पहुँची वहाँ–वहाँ, जहाँ–जहाँ हम पहुँचे भविष्य की तलाश में
नगर–नगर, डगर–डगर भटकेहम
और नगर–नगर, डगर–डगर हमेंढूँढ़ती आईं चिट्ठियाँ
बदलते पतों के संग–संग दर्जहोती गईं उनमें
दरकते घर की दरारें, बहनों के ब्याह की चिंताएँ
और अभी–अभी बियायी गाय की खुशखबरी भी
संघर्ष की तपिश में कुम्हलाते सपनीलेहर्फ़
जिंदगी का ककहरा कहने लगे
सिर्फ हिम्मत न हारने की दुहाई नहीं,
विद्रोह का बिगुल भी बनीं चिट्ठियाँ
इंदिरा–नेहरू के पत्र ही ऐतिहासिक नहीं केवल
हम बाप–बेटे के संवाद भी नायाब इन चिट्ठियों में
जिसमें बीस बरस के बेटे ने लिखा पचास पार के पिता को–
आप तनिक भी बूढ़े नहीं हुए हैं
अस्सी पार का आदमी भी शून्य से उठकर
चूम सकता है ऊँचाइयाँ
आज जब बरसों बाद उलट–पुलट रहा हूँ इन चिट्ठियों को
मानो, छू रहा हूँ जादू की पोटली कोई
गुजरा वक्त लौट आया है
खर्च हो गई जिंदगी लौट आई है
भूले–बिसरे चेहरेलौट आए हैं
बाहें बरबस फैल गई हैं
गला भर आया है
ऐसा लग रहा, ये पोटली ही मेरे जीवन की असली कमाई
इसे संभालना मुझे आखिरी दम तक
इनमें बंद मेरे जीवन के क्षण जितने दुर्लभ
दुर्लभ उतनी ही इन हर्फ़ों की खुशबू
जैसे दादी की संदूक में अब भी सुरक्षित दादाकी चिट्ठियाँ
मैं भी बचाऊंगा इन चिट्ठियों को वक्त की मार से
एसएमएस–ईमेल, फेसबुक–ट्वीटर–वाट्सऐप के इस मायावी दौर में
सब एक–दूसरे के टच में, पर इन चिट्ठियों के स्पर्श से
महसूस हो रहा कुछ अलग ही रोमांच, अलग ही अपनापा
की–बोर्ड पर नाचने की आदी हो गई ऊंगलियों की ही नहीं,
टूट रही यांत्रिक जड़ता जीवन की भी.

शायद

नहीं बचे बिना ग्रेजुएट वाले गाँव
नहीं बचे बिना शॉपिंग मॉल वाले शहर
नहीं बचे साझा आँगन वाले घर
नहीं बचे साझा चूल्हे वाले परिवार
नहीं बचे सच बोलते बाज़ार
नहीं बची सच सुनती सरकार…

सरोगेसी

कहीं नेमत
कहीं सुविधा
कहीं संजोग है
कहीं विज्ञान
कहीं निदान
कहीं प्रयोग है
कहीं मजबूरी
कहीं धंधा
कहीं उद्योग है
यह किराए की कोख है !

मैंने कब कहा

मैंने कब कहा
मेरे कविता लिखने से
कहीं कुछ बदल जाएगा !
कहीं कुछ नहीं बदल रहा
तो क्या इसलिए
कविता लिखना छोड़ दूँ ?
तो क्या इसलिए
अपने आप से मुँह मोड़ लूँ ?
तो क्या इसलिए
आप सब से
जग से
जीवन से

नाता तोड़ लूँ ?
____________________

हिंदी के युवा कवि और अंग्रेजी-हिंदी के परस्पर अनुवादक. नौ दिसंबर, 1976 को दुमका, झारखंड के एक छोटे–से गाँव अगोइयाबाँध में जन्म. पटना विश्वविद्यालय से अंग्रेजी साहित्य में स्नातकोत्तर. कविता के साथ-साथ यात्रा-वृतांत, संस्मरण, कथा–रिपोतार्ज, समीक्षा एवं आलोचनात्मक निबंध लेखन. इसके अलावा, सामाजिक सरोकारों और शिक्षा संबंधी विषयों से भी सक्रिय जुड़ाव. देश की लगभग सभी प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रमुखता से प्रकाशित. कुछ रचनाएँ अंग्रेजी, उर्दू, मराठी आदि भाषाओं में अनूदित. भाषा एवं संस्कृति विभाग, हिमाचल प्रदेश की द्विमासिक पत्रिका विपाशा द्वारा आयोजित अखिल भारतीय कविता प्रतियोगिता-2009 में द्वितीय पुरस्कार. पहला कविता–संग्रह \’सिर्फ़ घास नहीं\’ जनवरी, 2013 में साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली से प्रकाशित. पहला गद्य-संग्रह \’गाँधी, चरखा और चित्तोभूषण दासगुप्त\’ (यात्रा-वृत्तान्त, अनुभव-वृत्त और डायरी-अंश) फरवरी, 2015 में ज्योतिपर्व प्रकाशन, दिल्ली से प्रकाशित. दूसरा कविता–संग्रह \’क्या हुआ जो\’ जनवरी, 2016 में ज्योतिपर्व प्रकाशन, दिल्ली से प्रकाशित. कन्नड़ और अंग्रेजी के युवा कवि अंकुर बेटगेरि की अंग्रेजी कविताओं का हिंदी अनुवाद \’बसंत बदल देता है मुहावरे\’ अगस्त, 2011 में यश पब्लिकेशंस, दिल्ली से प्रकाशित. राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली से वर्ष 1996 में प्रकाशित जवाहर नवोदय विद्यालयों के बच्चों की कविताओं के संग्रह \’बोलने दो\’ में कुछ कविताएँ संकलित.
संप्रति भारतीय रिज़र्व बैंक में सहायक प्रबंधक (राजभाषा). इससे पहले भारतीय संसद के राज्यसभा सचिवालय और कोयला खान भविष्य निधि संगठन (कोयला मंत्रालय, भारत सरकार) में भी अनुवादक के पद पर कार्यरत रहे.
संपर्क:  राहुल राजेश, फ्लैट नंबर– बी-37, आरबीआई स्टाफ क्वार्टर्स, 16/5, डोवर लेन, गड़ियाहट, कलकत्ता-700029 (प.बं.)

मो.: 09429608159   ई-मेल:  rahulrajesh2006@gmail.com
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