शिव किशोर तिवारी
जीवनानंद-जैसे युगप्रवर्तक कवि का अनुवाद करना एक प्रकार की श्रद्धांजलि है. अनवधानता, गैरजिम्मेदारी और अगम्भीर ढंग से किया च्युतिपन्न अनुवाद अपराध है. यह अपराध हिन्दी अनुवादों में इतना अधिक हुआ है कि मैं कह सकता हूँ कि उत्पल बैनर्जी को छोड़कर (जिनका एक ही अनुवाद मेरी नज़र में आया है) प्राय: सभी अनुवादक अपराधी हैं. जीवनानंद से हिंदी पाठक का परिचय उनकी मृत्यु के साठ साल बाद भी नहीं हो पाया है. इस तथ्य को दरशाने के लिए एक ही कविता के दो अनुवाद प्रस्तुत कर रहा हूँ. दोनों अनुवादक स्थापित हैं और बांग्ला कविता के विश्वसनीय भाषान्तरकार माने जाते हैं.
जीवनानंद की मूल कविता देवनागरी में उच्चारण की वर्तनी में दे रहा हूँ ताकि पाठक दो- तीन बार पढ़कर उसके संगीत का आस्वाद प्राप्त कर सकें —
“आबार आशिबो फिरे धानशिड़िर तीरे – एइ बाङ्लाय
हयतो मानुष नय – हयतो बा शोङ्खचील शालिकेर बेशे;
हयतो भोरेर काक ह’ये एइ कार्तिकेर न’बान्नेर देशे
कूयाशार बूके भेशे एकदिन आशिबो ए काँठालछायाय;
हयतो बा हाँश ह’बो –किशोरीर- घुङुर रहिबे लाल पाय,
शारा दिन केटे जाबे कोलोमीर गन्धे भ’रा ज’ले भेशे भेशे;
आबार आशिबो आमि बांग्लार नदी माठ खेत भालोबेशे
जलाङ्गीर ढेउये भेजा बाङ्लार ए शबुज करून डाङाय;
हयतो देखिबे चेये सुदर्शन उड़ितेछे शोन्धार बाताशे;
हयतो शुनिबे एक लोक्खीपेंचा डाकितेछे शिमूलेर डाले;
हयतो खोइयेर धान छड़ाइतेछे शिशु एक उठानेर घाशे;
रूपोशार घोला ज’ले हय तो किशोर एक छेंड़ा शादा पाले
डिङा बाय – राङा मेघ शाँतराये अन्धोकारे आशितेछे नीड़े
देखिबे धब’ल ब’क : आमारेई पाबे तुमि ईहादेर भीड़े —
(जहां ’ का चिह्न है वहां दबाव देकर पढ़ें, जैसे धब’ल को धबS ल)
शिल्प
आप देख सकते हैं कि यह एक पेट्रार्कीय सॉनेट है. आठ और छ: पंक्तियों के दो भाग हैं. अंत की कपलेट में तुक है, शेष कविता में ए बी बी ए का तुकबन्ध है. जीवनानंद ने सॉनेट के फॉर्म को चुना क्योंकि यह एक प्रकार की प्रेम कविता है– अपनी जन्मभूमि के प्रति उत्कट आकर्षण का इजहार.
आदर्श अनुवाद वह होता जिसमें सॉनेट का फॉर्म कायम रहता. प्राय: यह काम दुष्कर होता है. फिर भी मूल के प्रवाह और लय को सुरक्षित रखने का प्रयास दिखना चाहिए.
मैंने सुकुमार राय की इस बाल कविता का अनुवाद छंद छोड़कर किया पर लय बनाये रखी –
‘की मुश्किल !
शोब लिखेछे एइ केताबे दुनियार श’ब खबोर जतो
शोरकारी श’ब अफिशखानार कोन् शाह’बेर क’दोर क’तो.
केमन क’रे चाट्नी बानाय केमन क’रे पोलाव् कोरे
ह’रेक रकम मुष्टिजोगेर बिधान् लिखछे फलाव् कोरे.
शाबान कालि दाँतेर माजोन ब’नाबार शब कायदा केता
पूजा पार्बन तिथिर हिशाब श्राद्धबिधि लिखछे हेथा.
शोब लिखेछे, केबोल देखे पाच्छिनेको लेखा कोथाय—
पाग्ला शाँड़े कोरले ताड़ा केमन क’रे ठेकाय तारे’.
समस्या
सब लिक्खा है इस पोथी में
दुनिया में जितनी खबरें हैं
सरकारी दफ्तरखानों में किस साहब का
कितना पावर, सब लिक्खा है.
कैसे बनते पुलाव-चटनी,
खाना-पीना, जादू- टोना
साबुन-स्याही अंजन-मंजन
सब लिक्खा है पढ़े औ करे.
पूजापाठ महूरत-साइत
श्राद्ध विधि और अंतर मंतर
सब लिक्खा है.
खोज रहा हूं नहीं मिल रहा
कैसे रोकें कैसे पकड़ें,
अगर किसी दिन
पगला सांड़ तुड़ा दौड़ाये.
नन्दी-कृत अनुवाद
जीवनानन्द की उद्धृत कविता का यह अनुवाद समीर वरण नन्दी ने किया था. वे जीवनानंद के जाने-माने अनुवादक थे. जहां तक याद है साहित्य अकादमी ने उनके द्वारा अनूदित जीवनानंद की कविताओं को प्रकाशित किया था.
फिर आऊँगा मैं धान सीढ़ी के तट पर लौटकर – इसी बंगाल में
हो सकता है मनुष्य बनकर नहीं– संभव है शंखचील या मैना के वेश में आऊँ
हो सकता है भोर का कौवा बनकर ऐसे ही कार्तिक के नवान्न के देश में
कुहासे के सीने पर तैरकर एक दिन आऊँ– इस कटहल की छाँव में,
हो सकता है बत्तख बनूँ– किशोरी की – घुँघरू होंगे लाल पाँव में
पूरा दिन कटेगा कलमी के गंध भरे जल में तैरते-तैरते
फिर आऊँगा मैं बंगाल क नदी खेत मैदान को प्यार करने
उठती लहर के जल से रसीले बंगाल के हरे करुणा-सिक्त कगार पर
हो सकता है गिद्ध उड़ते दिखें संध्या की हवा में
हो सकता है एक लक्ष्मी उल्लू पुकारे सेमल की डाल पर,
हो सकता है धान के खील बिखेरता कोई एक शिशु दिखाई दे आँगन की घास पर,
रुपहले गँदले जल में हो सकता है एक किशोर फटे पाल वाली नाव तैराये,
या मेड़ पार चाँदी-से मेघ में सफेद बगुले उड़ते दिखाई दें –
चुपचाप अंधकार में, पाओगे मुझे उन्हीं में कहीं न कहीं तुम.
(कविता कोश से साभार)
नंदी की अनुवाद-शैली सीधे मक्षिकास्थाने मक्षिका वाली है. कविता का अनुवाद उन्होंने १४ पंक्तियों में किया है पर उन्हें इस बात का इल्म शायद नहीं है कि फॉर्म सॉनेट का है. पंक्तियाँ ऊबड़-खाबड़ हैं. मूल के ध्वनि- सौंदर्य को शामिल करने का हलका प्रयास भी नहीं है. आश्चर्य है कि शाब्दिक अनुवाद का मार्ग अपना करके भी अनुवादक ने तमाम ग़लतियाँ की हैं. देखिये :
1. धान सीढ़ी– नदी का नाम धानसिड़ी है. उसका अनुवाद करने की आवश्यकता ?
2. धान के खील बिखेरता– मूल में ‘खीलों का धान बिखेरता’ है. तात्पर्य यह है कि बच्चा खीलों को हाथ में ले धान के बीजों की बुआई का खेल खेल रहा है.
3. रुपहले गंदले जल में– यह भूल पढ़ने वाले को भी असमंजस में डाल दे. रूपसा नदी का नाम है, रुपहला का पर्याय नहीं है.“रूपसा के गंदले जल में” होना चाहिए.
4. उठती लहर के जल से रसीले – मूल में है “जलांगी नदी के जल से भीगा”.
5. गिद्ध उड़ते दिखें– मूल में सुदर्शन (एक तरह का बाज) है.
6. चांदी-से मेघ में– मूल में ‘राङा मेघ’ है याने लाल मेघ.
7. चुपचाप अंधकार में– मूल में शाँतराये है जिसका अर्थ है ‘तैरकर’ न कि चुपचाप.
हिंदी के मुहावरे का लेखक ने एकदम ख्याल नहीं रखा. देखें:
1. पूरा दिन कटेगा कलमी के गंध भरे जल में – कलमी ( करमी साग जो पोखरों के पानी में होता है) की गंध जल में बसी है, पानी गंधैला नहीं है.
2. एक किशोर फटे पाल वाली नाव तैराये– मुहावरा नाव खेना है और यही मूल में लिखा है. नाव तैराना बच्चों का खेल है. कविता में उसका कोई इंगित नहीं है.
और भी बहुत सी गलतियाँ हैं– शब्दार्थ की भी और हिंदी के मुहावरे की भी. अर्थात् यह अनुवाद बच्चों को पढ़ाने लायक भी नहीं है, जीवनानंद की कविता का भाव वहन करना तो दूर की बात.
आऊँगा फिर लौट के धान सीढ़ी के तट पे– इसी बंगाल में
या तो मैं मनुष्य या शंख चील या मैना के वेश में;
या तो भोर का काग बनकर आऊँगा एक दिन कटहल की छाँव में;
या तो मैं हंस बनूँ या किशोरी के घूंघर बन रहूंगा लाल पैरों में
सारा दिन कट जायेगा कलमी की सुगंध भरे जल में तैरते हुए
मैं लौट आऊँगा फिर बांग्ला की मिट्टी नदी मैदान खेत के मोह में
जलांगी नदी की लहरों से भीगे बांग्ला और हरे-भरे करुण कगार में;
दिखेगी जब शाम के आकाश में सुंदर उड़ान लिए हवा;
सुनाई देगा तब एक लक्ष्मी का उल्लू बोल रहा है सेमल की डाल में;
शायद धान की लाई उड़ा रहा एक शिशु आँगन के घास में;
रुपसा के गंदे जल में हो सकता है
एक किशोर फटे सफेद पाल की डोंगी बहाता तो
…लालिमा लिए मेघ भी तैरता हुआ अँधेरे में ही लौटता हो नीड़ में
देखोगे जब एक धवल बगुले को; पाओगे तुम मुझे उन्हीं की भीड़ में….
(पहल, जन 2019)
मिता दास ( पहल के अनुसार मीता दास) को सॉनेट वाली बात सूझी भी नहीं. उन्होंने सात-सात पंक्तियों के दो भागों में कविता को बाँट दिया है. जैसा यह विभाजन मनमाना है वैसे ही अनुवाद भी. 14 पंक्तियों में ग्यारह शब्दार्थ की दृष्टि से ही गलत हैं. बाकी कुछ तलाशना समय की बरबादी होगी. बानगी देखें :
1. दूसरी पंक्ति में “हयतो मानुष नय” (शायद आदमी नहीं) आता है. मिता जी ने उसे दरकिनार कर दिया.
2. मूल की तीसरी और चौथी पंक्तियों में “एइ कार्तिकेर नबान्नेर देशे” ( कार्तकीय नवान्न के देश में) और “ कूयाशार बूके भेशे” (कुहासे के वक्ष पर तैरकर) ये दो वाक्यांश आते हैं जिनका अनुवाद नहीं हुआ है.
3. “या तो मैं हंस बनूँ या किशोरी के घूंघर बन रहूंगा लाल पैरों में” पूरी तरह से और शर्मनाक रूप से गलत है. नंदी का अनुवाद सही है.
4. “दिखेगी जब शाम के आकाश में सुंदर उड़ान लिए हवा” – यह भी गलत है नंदी ने कम से कम गिद्ध का उड़ना दिखाया. ये आदरणीया तो पक्षी को खा ही गईं और हवा को बहाने लगीं. सुदर्शन यहां पक्षी है मिता जी, ‘सुंदर’ नहीं.
5. लालिमा लिए मेघ भी तैरता हुआ अँधेरे में ही लौटता हो नीड़ में – मेघ नीड़ में नहीं लौटता, बगुले लौटते हैं.
इस अनुवाद की और चर्चा निरर्थक है. यह अनुवाद कवि का अपमान है. पहल के ज्ञान जी का यश भी इस तरह का कूड़ा छापने से घटेगा.
__________________________
२००७ में भारतीय प्रशासनिक सेवा से निवृत्त.
हिंदी, असमिया, बंगला, संस्कृत, अंग्रेजी, सिलहटी और भोजपुरी आदि भाषाओँ से अनुवाद और लेखन.
tewarisk@yahoocom