नकेनवादी, प्रपद्यवादी कवि, आलोचक और चिंतक नलिन विलोचन शर्मा हिंदी में रहस्य की तरह हैं और उनके लेखन तथा व्यक्तित्व को लेकर रुचि अभी भी बनी हुई है जैसे मलयज के प्रति. ठीक मलयज की तरह उन्हें भी लिखने के लिए अधिक समय नहीं मिला.
वरिष्ठ लेखक शिवमंगल सिद्धांतकर का प्रगाढ़ सम्बन्ध नलिन जी से था. नलिन जी के व्यक्तित्व पर यह संस्मरण कथाकार ज्ञान चंद बागड़ी द्वारा शिवमंगल जी की बातचीत पर आधारित है.
यह संस्मरण महत्वपूर्ण है. नलिन जी के साथ वह पूरा परिदृश्य भी सामने आ जाता है.
ऐसे थे नलिन विलोचन शर्मा
शिवमंगल सिद्धांतकर
नलिन विलोचन शर्मा पर लिखना कठिन है और उन पर संस्मरण लिखना उससे भी कठिनतर. इसका कारण यह है कि वह हर समय, हर परिस्थिति में मुखर नहीं होते थे; अपने अंतरंग मित्रों के बीच वे कभी-कभी जरूर मुखर हो जाया करते थे और जब मुखर होते थे तो परिवार, परिवेश और मित्रों के साथ भी देश और दुनिया के जटिल से जटिलतर विषयों पर घंटों अपने विचार रखते थे. उनके कुछ अंतरंग मित्र उन विचारों की बानगी लेकर अपना विचार संसार रचते होते थे. वे अक्सर रात भर अपने अंतरंग मित्रों के साथ खुलकर बातें करते थे. जहां तक मुझे याद है उनके अंतरंग मित्रों में से कोई भी आज जीवित नहीं है. मैं उम्र में उनसे काफी छोटा था लेकिन उनके अंतरंग मित्रों में से एक-दो लोगों से मुझे बहुत सारी बातें नलिन विलोचन शर्मा के विषय में ज्ञात हुईं थी. मेरा स्वभाव जानते हुए वे बिना संकोच के कुछ अंतरंग बातें बताया करते थे जिन्हें मैं साझा करने जा रहा हूं.
नलिन विलोचन शर्मा के पिता महामहोपाध्याय पंडित राम अवतार शर्मा संस्कृत ही नहीं अंग्रेजी और जर्मन भाषा पर भी पूरा अधिकार रखते थे. जर्मनी में तो उनके पांडित्य और व्यवहार के बारे में तमाम तरह की किंवदंतियां चर्चा में तब हुआ करती थी. जर्मनी से जब भी कोई विद्वान भारत आता था तो वह पंडित राम अवतार शर्मा से जरूर मिलता था. उस समय नलिन विलोचन शर्मा उम्र में बहुत छोटे होने के बावजूद बुद्धि में प्रखर प्रकट होते थे और जो कोई विद्वान अपने देश लौटता था उसकी यादों में पिता-पुत्र की तस्वीर अमिट होती थीं. यद्यपि नलिन विलोचन शर्मा को अपने पिता का संरक्षण मात्र बारह वर्ष की आयु तक ही मिला लेकिन ज्ञान का भंडार उनके पिता ने उसी उम्र तक इतना भर दिया था कि सौ साल तक जीने वाला भी उतना ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता था.
उनके पिता केवल संस्कृत ही नहीं बल्कि भारतीय और पाश्चात्य दर्शन शास्त्र की जटिलताओं, तर्क पद्धतियों आदि के प्रति बहुत ही गहरी सूझ-बूझ रखते थे. वे अपने पुत्र के विपरीत सदैव मुखर रहने वाले व्यक्ति थे. उनकी तर्क पद्धति इतनी विलक्षण थी कि वे लोहे को लकड़ी और लकड़ी को लोहा तर्क के आधार पर साबित कर सकते थे, कर देते थे. इन सबका प्रभाव नलिन विलोचन शर्मा को सहज ही प्राप्त हो गया था. किंतु यह सहज प्राप्त हुआ ज्ञान भंडार और तर्क पद्धति उनके पिता के अथक प्रयास का परिणाम था.
एक प्रसंग यहां लिख देना जरूरी है कि काशी के अंग्रेज़ चारण संस्कृत पंडितों के विपरीत अंग्रेजों को चिढ़ाने के लिए पंडित राम अवतार शर्मा पटना कॉलेज में पढ़ाने के लिए बैलगाड़ी पर चढ़ कर जाते थे और अंग्रेजों की कार पार्किंग में अपनी बैलगाड़ी लगवा दिया करते थे और अपने चपरासी को हैट पहना कर अपना बैग थमा देते थे जो शर्मा जी के पीछे-पीछे विभाग तक जाता था. इससे अंग्रेज चिढ़ते रहते थे क्योंकि पटना कॉलेज अँग्रेज़ों द्वारा ही निर्मित किया हुआ था और उसका प्रिंसिपल भी अंग्रेज़ हुआ करता था और कुछ अंग्रेज़ अध्यापक भी पढ़ाते थे.
अपने पिता के बाद वे परिवार के मुखिया बन गए. उनके पिता की अल्पायु मृत्यु हो गई थी लेकिन जब तक पिता जीवित रहे तब तक नलिन जी को कड़े अनुशासन में रहना पड़ता था. घर और स्कूल में ज्यादा से ज्यादा ज्ञान अर्जित करने का दबाव रहता था और थोड़ी सी भी ढिलाई होने पर पिता से उनकी पिटाई भी हो जाती थी. लोग बताते हैं कि जब वह बारह वर्ष के थे तो उनकी काया इतनी लंबी-चौड़ी हो गई थी कि वे तीस-पैंतीस वर्ष के लगने लगे थे. नलिन विलोचन शर्मा पढ़ाई-लिखाई के साथ ही तमाम तरह के खेलों में भाग लेते थे, जैसे क्रिकेट इत्यादि. क्रिकेट खेलने के दौरान ही पंजाबी परिवार की कुमुद शर्मा से उनका मिलना हुआ और कालांतर में कुमुद शर्मा से उनका विवाह हो गया जिन्हें वे सचिव और सखी के रूप में हमेशा याद करते रहे.
कुमुद शर्मा पेंटिंग करती थी और शादी के पश्चात परिवार का सारा कार्यभार उन्होंने संभाल लिया था. यहां तक कि नलिन विलोचन शर्मा के लिखने-पढ़ने में भी वह सहयोग करने लगी थी. नलिन विलोचन शर्मा प्राध्यापक और लेखक के रूप में किशोरावस्था से ही इतने प्रसिद्ध हो गए थे कि देश-विदेश से आने वाले पत्रों का जवाब देना मुश्किल हो रहा था. विवाह के बाद कुमुद शर्मा ने इस मोर्चे को भी संभाल लिया. चिट्ठी-पत्री लिखने या जवाब देने का काम नलिन विलोचन शर्मा खुद करने की कोशिश तो करते थे लेकिन इसे वे कुछ खास लोगों तक ही सीमित रख पाते थे. कुछ पत्रों का जवाब नहीं भी दे पाते थे. इस मोर्चे को संभालने के बाद कुमुद शर्मा ने पत्रों के जवाब उनसे पूछ कर खुद देना शुरू कर दिया, फिर भी कुछ लोगों के पत्र वे खुद ही लिखते थे जिसकी कॉपी कुमुद जी रख लेती थी. इस प्रकार उनके बहुत से पत्र कुमुद शर्मा के कारण सुरक्षित रहे. उनकी मृत्यु के पश्चात कुमुद शर्मा से वह पत्र उनके प्रखर शिष्य निशांत केतु को प्राप्त हुए जिन्हें उन्होंने कई वर्ष पहले एक प्रकाशक के यहां से प्रकाशित भी करवा लिया है.
नलिन विलोचन शर्मा पढ़ाकू तो बहुत थे लेकिन लिखने से हमेशा कतराते थे. इसलिए जो कुछ आलोचनात्मक अथवा सृजनात्मक लेखन उन्होंने किया उसका अधिक श्रेय वह संपादकों, प्रकाशकों और विभिन्न संस्थाओं के संचालकों के आग्रह को देते हैं जिन्होंने उन्हें लिखने को मजबूर किया था. जब तक वे जीवित रहे तब तक कुछ आग्रहों का सम्मान तो उन्होंने किया किंतु अफसोस के साथ बहुतों का सम्मान नहीं भी कर पाए. उनके लेखन और प्रकाशन की लगभग पूरी सूची निशांतकेतू ने रखी है और कहना जरूरी है कि नलिन विलोचन शर्मा समग्र का प्रकाशन यदि निशांतकेतु के सहयोग से कोई बड़ा प्रकाशक करना चाहे तो उनका समग्र लेखन हिंदी साहित्य के लिए धरोहर सिद्ध होगा.
नलिन विलोचन शर्मा अध्यापन, अनुसंधान, अनुसंधान निर्देश और दूसरों की पांडुलिपियों को जांचने और सहमति देने के दबाव में रहते थे. पढ़ाकू तो इतने अधिक थे कि पढ़ने योग्य जिस किसी भी भाषा की सामग्री हो उसे पढ़ कर ही दम लेते थे. चलते-फिरते किसी सवारी या रेल यात्रा में हमेशा पढ़ते हुए पाए जाते थे. उनकी पढ़ने की सीमा हिंदी तक सीमित नहीं थी बल्कि हिन्दीतर भारतीय भाषाओं और विदेशी भाषाओं के साहित्य भी हुआ करते थे जिसे वे जरूर हासिल करके पढ़ लेते थे. उपन्यास बहुत बड़े पैमाने पर उन्होंने पढ़े और कुछ उपन्यासों पर उन्होंने लिखा भी है. इस प्रसंग में संस्मरणीय इस घटना का जिक्र करना मैं जरूरी समझता हूं.
एक बार अमेरिकी आंचलिक उपन्यास के विशेषज्ञ एक सज्जन जो अमेरिका से आए हुए थे उनका भाषण नलिन जी ने पटना विश्वविद्यालय के \’दरभंगा हाउस\’ में रखा था जिन्होंने अमेरिकी आंचलिक उपन्यासों पर एक लंबा भाषण किया. फिर उन्हें धन्यवाद देने के लिए नलिन जी ने अपनी बात शुरू की और बहुत से अमेरिका आंचलिक उपन्यासों के माध्यम से अपनी बात रखी. उन्हें सुनकर वह विशेषज्ञ नलिन जी के आगे झुक कर बोले कि मैं यह सोच भी नहीं सकता था कि अमेरिकी आंचलिक उपन्यासों का इतना बड़ा जानकार भी भारत में कोई है. आपने बहुत से ऐसे उपन्यासों का हवाला दिया जिन्हें मैं भी नहीं जानता, जिनका संबंध बहुत बड़े लेखकों से है.
ब्रह्मणवादी परिवारों में छुआछूत एक बीमारी की तरह रही है. इस बीमारी का नलिन जी ने अपने घर से तो सफाया कर ही दिया था. अंग्रेजी में उन्होंने \”Jagjivan Ram A Biography\” पुस्तक लिखकर आछूत और जाति पात के खिलाफ देश व्यापी स्तर पर जबरदस्त संदेश दिया. किंतु अपने इस कार्य का व्यक्तिगत लाभ लेने से उन्होंने साफ इनकार कर दिया था. दरअसल इस पुस्तक के प्रकाशन के बाद जगजीवन राम खुद उनके घर पधारे थे और उनसे आग्रह किया था कि आप दिल्ली चलिए और रेलवे बोर्ड के चेयरमैन का पद भार मेरी ओर से आपका इंतजार कर रहा है. कहने का मतलब यह है कि विद्वान लेखक, कवि और अनुसंधान विशेषज्ञ नलिन विलोचन शर्मा का व्यक्तित्व पद और पैसे के लालच से हमेशा दूर रहा.
अनुसंधान का जुनून उन पर इस तरह सवार था कि ‘कुट्टनीमतम’ की हस्तलिखित पुस्तक हासिल करने के लिए पटना सिटी की एक प्रसिद्ध तवायफ के घर तक अपने दो-तीन अंतरंग मित्रों के साथ पहुंच गए थे. पहली बार इसे हासिल करने में सफल नहीं हुए और अपने मित्रों के साथ तब तक जाते रहे जब तक कि कुट्टनीमतम की हस्तलिखित प्रति प्राप्त नहीं कर ली. नलिन जी साहित्य के साथ ही संगीत के भी बहुत बड़े प्रेमी थे और अपने मित्रों के साथ कभी-कभार पटना सिटी वेश बदलकर जाया करते थे. उनके साथ के मित्र चाहे जो हरकतें करें वे खुद तवायफों को भी अपने घर की मां-बहनों जैसी ही इज्जत देते थे. यही वजह थी कि जब भी वह जाते थे तो तवायफें और उनके बच्चे उन्हें दादू-दादू कहकर पैर छूने लगते थे. उन्हें फर्श की चादर पर बिठाने के बजाय सफेद चादर बिछी तख्त पर बिठाकर चारों ओर से घेर लेते थे. वे उनसे इस तरह बातें करने लगते थे जैसे घर के लोग अपने बुजुर्ग से बातें किया करते हैं. वे सभी को आप कहकर ही संबोधित करते थे और बुजुर्गों की तरह स्नेह की बारिश करते थे. कभी-कभी उम्दा किस्म की गायिकाएं उनसे गाने का आग्रह भी करती थीं जिसके लिए वे विरल ही कभी सहमति देते थे. वे उस तबके की जिंदगी को जानने में अधिक रुचि रखते थे. लौटते समय कभी-कभी उनकी आंखों से आंसू बहते रहते थे जिन्हें उनके अंतरंग मित्रों ने देखा था. दशहरे के समय में रात-रात भर पटना स्टेशन के सामने के मैदान में आयोजित शास्त्रीय संगीत और वादन का भरपूर आनंद लेते थे. बनारस के शास्त्रीय संगीतकार और वादक पटना के समारोह में उपस्थित होना अधिक पसंद करते थे. कंठे महाराज और किशन महाराज के प्रदर्शन से नलिन जी पुलकित होते देखे जा सकते थे. ऐसे अवसरों पर उनके अनुजवत मित्र शिवचंद्र शर्मा अवश्य उनके साथ होते थे. कहा जा सकता है कि उन्हें वहां लाने और फिर उन्हें वापस भेजने की सारी जिम्मेदारी शिवचंद्र शर्मा के सहायकों द्वारा ही संपन्न होती थी.
नलिन विलोचन शर्मा जी से मेरी पहली मुलाकात मेरे बड़े भाई दीनानाथ राय द्वारा उनकी एग्जिबीशन रोड वाली कोठी पर कराई गई थी जिसका निर्माण उनके पिता द्वारा हुआ था. उस समय नलिन जी का संयुक्त परिवार वहां रहता था. यह मुलाकात 1950 के दशक में हुई थी जब मैं मिडिल स्कूल में पढ़ता था और महापंडित बनने के उन्माद में घर छोड़कर भाग गया था. अपने सहपाठी को यह कहते हुए कि जब मैं बहुत बड़ा विद्वान बन जाऊंगा तभी लौटूंगा, लेकिन परिस्थिति कुछ ऐसी हुई कि मुझे जल्दी ही लौटना पड़ा और मैं पटना में अपने बड़े भाई के पास पहुंचा. जब मैंने बड़े भाई को अपने घर से भागने का उद्देश्य बताया तब उन्होंने कहा, इस कार्य के लिए पटना क्या कम है. यहां तो महापंडितों के महापंडित हैं. चलो तुम्हें नलिन विलोचन शर्मा से मिलाता हूं. यह कहते हुए वे मुझे नलिन जी के पास ले गए और नलिन जी को उन्होंने मेरे घर छोड़कर भागने की बात बतलाई. इस पर उन्होंने कहा कि विद्वान बनने के लिए घर से भागे थे, अच्छा इरादा था और लौटकर आ गए यह उस से बेहतर इरादा है. फिर मुसकुराते हुए मेरे सर पर हाथ रखा और बोले कि आप तो विद्वान हैं हीं, कहीं जाने की क्या आवश्यकता है. यह सब कुछ मुझे बहुत अच्छा लगा. उसके बाद मैं भाई के साथ उनके आवास पर लौट आया. लौटते समय मेरे भाई ने कहा कि तुम्हें उनके पैर छूने चाहिए थे, तो मैंने कहा छूने तो चाहिए थे लेकिन नहीं छूने से श्रद्धा में कोई कमी नहीं हुई है.
तब तक मैं मिडिल स्कूल में रहते हुए माइकल मधुसूदन दत्त का \’मेघनाथ वध\’ पढ़ चुका था और नास्तिक हो गया था तथा मेरे लिए इन बातों का महत्व नहीं रह गया था. पैर छूने का प्रसंग आया है तो यह उल्लेख कर देना मैं जरूरी समझता हूं कि पटना कॉलेज में पढ़ते हुए उनके बुलाने पर अक्सर मैं उनके घर जाया करता था और उस समय भी पैर नहीं छूता था जबकि मुझे पढ़ाने वाले प्राध्यापक संयोग से वहां पहुंचते तो सभी नलिन जी के पैर छूते थे. लेकिन इससे भी मुझे कोई ग्लानि नहीं होती थी. चौवालिस साल की आयु में जब नलिन जी की मृत्यु की सूचना मिली तो उस समय मैं अपने हॉस्टल में सोया हुआ था. मेरे सहपाठी पी.एल.सिंह ने मुझे यह सूचना दी और कहा कि यूनिवर्सिटी बंद हो गई है और सभी लोग उनके दाह संस्कार में जा रहे हैं. फिर मैं दौड़ता-भागता रिक्शे से एग्जिबीशन रोड पहुंचा और रास्ते में एक पुष्पगुच्छ ले लिया और पहली बार उनके मृत शरीर के चरणों पर फूल चढ़ाते हुए चरण स्पर्श और प्रणाम कर इतनी शक्तिहीनता महसूस कर रहा था कि \”दीघा घाट\” जहाँ उनका दाह संस्कार होना था पहुंच नहीं पाया. जहाँ उनके संस्कार में शामिल होने के लिए सरकारी और गैर सरकारी तमाम सम्मानित नागरिक, अधिकारी, अध्यापक और छात्र हजारों की संख्या में पहुंचे हुए थे. चौवालिस साल की आयु में प्रोफेसर और हिंदी विभागाध्यक्ष की मृत्यु से लोग हतप्रभ थे. यह अलग बात है कि अपनी लंबी काया और विद्वता से गैर जानकारों के लिए वे अस्सी साल से ऊपर ही लगते थे. चेहरे की चमक किंतु चालीस-पचास वाली ही थी.
मुझे याद है पटना कॉलेज में साहित्य सभा की ओर से एक कवि गोष्ठी का आयोजन हुआ था जिसकी अध्यक्षता नलिन जी कर रहे थे और संचालन संयुक्त सभा का सचिव एक बंगाली छात्र कर रहा था. यहां पर अधिकतर छात्र अपनी कविताएं सुनाते थे और हस्तलिखित प्रति सचिव को देते और नलिन जी के चरण छू कर अपनी सीट पर जाकर बैठ जाते थे. मैंने भी दो-तीन कविताएं सुनाई तथा उसके पश्चात ना तो सभा के सचिव को प्रति दी और ना ही नलिन जी के पैर छुए और अपनी सीट पर जाकर बैठ गया. जब सब लोग जाने लगे तो नलिन जी बोले कि शिव मंगल जी आपने अपनी जो कविताएं सुनाई है और अन्य भी लेकर चेंबर में मिलियेगा. एक दिन जब मैं उनके चेंबर में कविताएं लेकर पहुंचा तो उनका चपरासी दरवाजे पर बैठा था. मैंने कहा कि मुझे मिलना है, अंदर से पूछ कर आओ.
नलिन जी ने आवाज सुन ली थी और कहा कि कौन है अंदर आ जाइए. जब मैं भीतर पहुंचा तो उन्होंने कहा कि मैं कोई अधिकारी हूं जो आपको पूछना पड़ेगा ? मैं तो शिक्षक हूं जब चाहें मिलने आ सकते हैं. आज के बाद कभी पूछने की आवश्यकता नहीं है. फिर कुछ कविताएं, कुछ आलोचनात्मक गद्य के अंश उन्हें दे दिए. उसके बाद मैंने कहा कि यह कविताएं और अन्य लेख ही देने आया था. उन्होंने कहा यह तो मैंने ही मंगवाई थी. मैंने प्रणाम करके निकलना उचित समझा. उन्होंने कहा कि तीन-चार दिन बाद आकर इन्हें ले जाइएगा. तीन दिन बाद जब मैं कविताएं और लेख लेने पहुंचा तो लौटाते हुए उन्होंने कहा इन्हें संभाल कर रखिएगा. जब मैं बाहर निकल रहा था तो उन्होंने पीछे से आवाज दी कि सप्ताह में एक बार मिल लिया कीजिए. आलोचनात्मक गद्य पर उन्होंने अपने हाथ से टिप्पणी लिखी थी,
\”एक सलाह है कि आलोचना में चित्र भाषा का प्रयोग नहीं होना चाहिए.”
कविताओं के पन्नों पर उन्होंने लिखा कि एक सलाह है-
\”एक युवक को जो सुंदर है, सजीव है क्या उसी पर ध्यान नहीं देना चाहिए, जीवन के वीभत्स पक्षों यदि वे सत्य हों भी तो पर दृष्टि नहीं ठहरने दें.\”
गद्य और पद्य पर उनकी टिप्पणियों को पढ़ने के बाद मुझे धक्का लगा क्योंकि उन्होंने आलोचनात्मक गद्य पर काफी काट-पीट की थी जबकि मैं अपने आप को तीसमार खां समझता था. तीसमार खाँ तो मैं खुद को समझता था क्योंकि नलिन जी ने जो संशोधन किए थे वह नए लिखने वाले के लिखे में संभव है. लेकिन मैंने जब मिडिल स्कूल में पढ़ते हुए माइकल मधुसूदन दत्त के \’
मेघनाथ वध’ को विषय और रूप विधान के रुप में आत्मसात करके गद्य और पद्य लिखना शुरू किया था तो दोनों ही भिन्न से भिन्न तर होते चले गए थे. इसलिए नलिन जी को जो गद्य का अंश मैंने दिया था वह उनके द्वारा हिंदी गद्य के मानकों के आधार पर संशोधित किया गया था जिसे उस नये लेखक पर लागू नहीं किया जा सकता था जो हिंदी के बजाए बांग्ला कवि की गद्य कविता से प्रभावित होकर अपनी शैली संस्कृति का विकास कर रहा था. फिर भी चित्र भाषा के विषय में उनके सुझाव को मानने मैं मुझे कोई आपत्ति नहीं थी लेकिन अन्य सुझावों से मैं सहमत नहीं था. यहीं पर मैं यह बताना चाहता हूं कि नलिन विलोचन शर्मा अकेले हिंदी लेखक थे जिन की आलोचना और कहानियों की रचना शैली उस ऊंचाई और गहराई तक पहुंच गई थी जहां तक अन्य किसी लेखक की रचना शैली अब तक नहीं पहुंच पाई है. वे कई पृष्ठों की विषय वस्तु को कुछ पंक्तियों में समेटने की क्षमता रखते थे जिसकी ओर आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने नलिन जी की मृत्यु के बाद लिखे अपने एक लेख में रेखांकित किया था. इससे मैं पूरी तरह सहमत हूं. संश्लिष्टीकरण और विश्लेषणात्मक विस्तार दोनों में वे इतने माहिर थे कि उनके शिष्यों ने पाया था कि किस तरह वे \’गोदान\’ के एक वाक्य का विश्लेषण एक पूरी क्लास की अवधि तक करने की क्षमता रखते थे, और करते थे. यह विलक्षण बात है. उनके एक शिष्य ने तो बतलाया कि \’गोदान\’ के एक ही वाक्य को वे कई क्लासों में लगातार समझाते हुए पाए गए. इस तरह ज्यादा से ज्यादा विषय को कम से कम शब्दों में व्यक्त कर देना और एक महत्वपूर्ण वाक्य को कई घंटों तक विश्लेषण और विस्तार देना उन्हीं की क्षमता का उदाहरण है जो अन्यत्र हम नहीं पाते है. यह बात उनके आलोचनात्मक लेखन, कहानी लेखन के साथ प्रयोगवादी कविताओं में हम देखते हैं कि किस तरह विशाल विषय-वस्तु को वे कम शब्दों में व्यक्त कर देते थे और इसके विपरीत भी.
कविताओं पर जो उनकी सलाह थी उसका प्रतिवाद तो मैंने नहीं किया किंतु उसके बाद उससे ज्यादा वीभत्स कविताएं लिखने लगा. मैं दोनों टिप्पणियां उनकी इस बात को ध्यान में रखते हुए कि इन्हें सुरक्षित रखिएगा संभाल कर रखी. उनकी मृत्यु के बाद उन्हें क्यों सुरक्षित रखनी चाहिए था का अर्थ मुझे समझ में आ गया था. फिर उन टिप्पणियों का मैंने ब्लॉक बनवा कर रख लिया जो आज भी सुरक्षित रखी हुई हैं क्योंकि वह जमाना आज की तरह डिजिटल तो था नहीं.
अपनी तीखी टिप्पणियों के बावजूद वे शायद मेरी योग्यता परख चुके थे क्योंकि हर सप्ताह जब मैं उनसे मिलने जाता था तो कुछ अज्ञात लेखकों की पांडुलिपियां वह मुझे थमा देते थे और कहते थे कि इन्हें देख लीजिएगा. इस बात से मेरा आत्मविश्वास कुलांचे मारता और उनके द्वारा दी गई पांडुलिपियों की पूरी मरम्मत कर डालता था. गद्य तो गद्य पद्य की छंद बद्ध पंक्तियों को भी आवश्यक अनुशासन में कस डालता था और विनम्रता के साथ उन्हें वापस करते हुए यह कहना नहीं भूलता था कि पता नहीं इन पांडुलिपियों के साथ मैं न्याय कर पाया हूं कि नहीं.
फिर उन पांडुलिपियों को वे उलट-पलट कर देखते थे और धीमे-धीमे कहते जाते थे कि अन्याय तो शायद आपने नहीं किया है. फिर अंदर-अंदर खुश होते हुए मैं लौटने की इजाजत मांगता तो कहते थे कि अभी दो मिनट बैठिये. सिगरेट का कश लेते हुए उसे एसट्रे के हवाले करने के बाद वे अपने चमड़े के बैग से दो-तीन पांडुलिपियां निकाल कर मुझे देते हुए कहते थे कि इन्हें भी देख लीजिए. यह सिलसिला कुछ दिन साप्ताहिक चला बाद में महीने भर में दो-तीन पांडुलिपियां देने लगे और मैं पूरी सतर्कता के साथ पांडुलिपियों का अवलोकन करता रहता था. इस तरह नलिन जी मेरे अंदर एक आलोचक और कवि की प्रतिभा की पहचान करने लगे थे, लेकिन कभी भी मेरे मुंह पर उन्होंने मेरी प्रशंसा नहीं की. हां, अपने दोस्तों के बीच वे मेरी चर्चा करने लगे थे जिनके द्वारा मैं जान गया था कि नलिन जी मुझे एक आलोचक और कवि के रूप में देखने लगे हैं.
कभी-कभार ऐसा भी होता था कि जब वे अपने निवास पर जा रहे होते थे तो उसी रिक्शे पर मुझे भी बिठा लेते थे. रिक्शे में तो उनका समाना ही मुश्किल होता था लेकिन फिर भी मैं किसी तरह से रिक्शे के डंडे पर अपने आपको एडजस्ट करके उनके निवास पर जाता था जहां वे मुझे कुछ पांडुलिपियों देकर कहते थे कि इन्हें कल ही वापस करना है. मैं रात भर उनका अवलोकन कर दूसरे दिन उन्हें विभाग में जाकर लौटा देता था. वे अक्सर मुझे सलाह देते रहते थे की हिंदीतर भाषाओं और विषयों का अध्ययन भी मुझे करते रहना चाहिए. वे हमेशा कहते थे कि अंग्रेजी के रोमांटिक कवियों को जरूर पढ़ लीजिए और आलोचना के हिंदी तथा संस्कृत के आलोचनाशास्त्र के साथ ही मुझे अंग्रेजी, फ्रेंच और जर्मन आलोचनाशास्त्र और दर्शन का भी अध्ययन करते रहना चाहिए.
मार्क्स और एंगेल्स के साहित्य और कला के विषय में विचारों के साथ ही दर्शनशास्त्र का अध्ययन किए बिना साहित्य, संस्कृति और किसी समाज की समझ हासिल नहीं की जा सकती और ना ही उचित विचार व्यक्त किये जा सकते हैं. इस विषय में मैं थोड़ा बहुत पहले से ही सक्रिय था और पटना कॉलेज की लाइब्रेरी में जैसे ही कोई किताब आती थी उसे मैं लपक लेता था. लाइब्रेरी में नलिन जी के प्रभाव के कारण मैं अधिक से अधिक समय बिताता था और अंग्रेजी में लिखित साहित्य और साहित्येतर विषयों की किताबें पढ़ता रहता था.
एक बार नलिन जी ने मुझे सुझाव दिया कि साहित्य सम्मेलन में बद्रीनाथ सर्व भाषा महाविद्यालय में फ्रेंच और कई भारतीय भाषाओं की पढ़ाई होती है और मुझे वहां प्रवेश ले लेना चाहिए. वहां मैंने फ्रेंच, तेलुगु और उर्दू पढ़ना शुरू किया. वहाँ बहुत बार देखा कि जिस दिन फ्रेंच के शिक्षक वाजपेई जी अनुपस्थित होते थे नलिन जी खुद क्लास में आकर हम विद्यार्थियों को फ्रेंच पढ़ाते थे. उर्दू और तेलुगु की पढ़ाई तो मैंने पूरी नहीं की किंतु फ्रेंच में सर्टिफिकेट कोर्स जरूर पूरा कर लिया था. जिसकी वजह नलिन जी का प्रभाव ही था.
फ्रेंच और अन्य भाषाओं की पढ़ाई करने जब मैं बद्रीनाथ सर्व भाषा महाविद्यालय जाता था तो मैं नलिन जी और शिवपूजन सहाय जी को एक कमरे में एक ही मेज पर आमने-सामने बैठे हुए देखता था. अन्य कार्यों के साथ यह दोनों विलक्षण व्यक्तित्व साहित्य सम्मेलन की ओर से प्रकाशित \”साहित्य\” नामक पत्रिका के संपादन में लगे होते थे. नलिन जी अपनी संपादक की टिप्पणियां शिवपूजन सहाय जी को देखने के लिए देते थे इसी प्रकार शिवपूजन सहाय अपने टिप्पणियां नलिन जी को देखने को देते थे. इस तरह अक्सर मैं साहित्य सम्मेलन के आयोजनों में नलिन विलोचन शर्मा की भूमिका देखता था.
साहित्य सम्मेलन के मंच पर दरी, उसके ऊपर सफेद चादर और मसनद लगे होते थे. उन पर नलिन विलोचन शर्मा और अन्य सम्माननीय गणमान्य लोग बैठे होते थे. एक- दो बार मैंने एक व्याख्यान माला के अंतर्गत \’साहित्य का इतिहास दर्शन\’ के कुछ अध्याय सुने थे. नलिन जी को सुनने के बाद लगता था कि वह अकेले ऐसे विद्वान हैं जो सही उच्चारण के साथ हिंदी बोलते थे.
एक बार की घटना याद आती है कि प्रसिद्ध कथाकार उपेंद्र नाथ अश्क को साहित्य सम्मेलन में किसी विषय पर बोलने के लिए आमंत्रित किया गया था. नलिन जी उनके व्याख्यान के बीच में ही किसी आवश्यक कार्य से अन्यत्र कहीं चले गए थे. उनके जाने के कुछ समय बाद हिन्दी के युवा लेखकों ने अश्क जी से तीखे प्रश्न करने शुरू कर दिए. बड़ी देर तक वे जवाब देते रहे फिर एकदम तमतमा गए और अनाप-शनाप बोलते हुए कहने लगे कि मैं जानता हूं कि नलिन जी चले गए हैं और इशारा कर गए हैं कि दूसरे लोग मेरी धुलाई करें. उनको तमतमाया हुआ देखकर उनकी पत्नी कौशल्या अश्क भी परेशान हो गई और उनको शांत कराने के लिए गिलास में पानी लेकर उनके पास बैठ गई. पानी तो उन्होंने पी लिया लेकिन उनका क्रोध शांत नहीं हुआ. वे खड़े हुए और कहा कि मैं यहाँ से जाता हूं.
हालांकि सभी जानते थे कि इसमें नलिन जी की कोई भूमिका नहीं थी. पटना के नए साहित्यकार बड़े साहित्यकारों को निशाने पर लेते ही रहते थे. लेकिन अश्क जी उखड़ गए तो उखड़ ही गए. दोनों पति-पत्नी नलिन जी के यहाँ ही ठहरे हुए थे. अश्क जी नाराज होकर कहने लगे कि मैं होटल जाऊंगा. दूसरे साहित्यकारों ने उन्हें मनाया कि नलिन जी को दूसरे अकादमिक कार्यों के कारण जाना पड़ा होगा. उसके बाद ही वे नलिन जी के यहाँ गए.
एक और घटना की याद आती है कि साहित्य सम्मेलन की कुछ गतिविधियों से नाराज पटना के युवा लेखकों ने साहित्य सम्मेलन के विरुद्ध प्रदर्शन किया था. नलिन जी सम्मेलन के महा सचिव हुआ करते थे इसलिए जाहिर सी बात है कि निशाने पर वे ही थे. लेकिन नलिन जी ने इसका बिल्कुल बुरा नहीं माना. उनमें से कुछ विश्वविद्यालय के छात्र नेता भी थे जिनमें मेरे मित्र मुरली मनोहर प्रसाद सिंह भी थे जो एम.ए. के छात्र हुआ करते थे. उन्हें यह चिंता हो गई कि अब मेरा परीक्षा परिणाम तो बुरा ही आयेगा, लेकिन हुआ ठीक इसके विपरीत. नलिन जी के पेपर में मुरली जी को सर्वाधिक अंक मिले और वे गोल्ड मेडलिस्ट भी बने. इससे लगता है कि नलिन जी छोटी-छोटी बातों से नाराज होकर अपने छात्रों के जीवन से खिलवाड़ नहीं करते थे.
एक बार शिवचंद्र शर्मा और कुछ अन्य लोगों ने मिलकर पटना जिला साहित्य सम्मेलन गठित किया और हिंदी को राजभाषा बनाने के पक्ष में माहौल बनाने के लिए एक जुलूस का आयोजन किया था. इस अवसर पर एक बुकलेट भी छापी गयी थी जो प्रोफेसर केसरी कुमार का अभिभाषण था. उस पर्चे की प्रूफ रीडिंग केसरी कुमार जी, नलिन जी और शिवचंद्र शर्मा तो देख ही रहे थे, मैं भी वहां पहुंच गया था. नलिन जी ने शिव चंद्र जी से कहा कि शिवचंद्र जी एक बार शिवमंगल जी को भी दिखा लीजिए, नए लोगों की नज़र तो तेज होती है. उस समय केसरी जी कुछ बोले तो नहीं लेकिन उनके चेहरे पर गुस्सा जरूर था. वे अक्सर कहते थे कि नलिन जी ने इस लड़के को सर पर चढ़ा रखा है.
शिवचंद्र शर्मा ने इस आयोजन के लिए दो हाथियों को बुक कर रखा था. हाथियों के पीलवान पहुंच गए तो मैंने शिवचंद्र शर्मा से पूछ कर उन्हें पटना कॉलेज का पता दे दिया. वे नलिन जी को पूछते हुए उनके पास पहुंच गए. नलिन जी इस बात से बहुत नाराज हो गए थे. उन्होंने कहा कि कैंपस में हाथी किसी को नुकसान पहुंचा सकते हैं. उन्होंने गुस्से में शिवचंद्र शर्मा को फोन किया तो उन्होंने मेरा नाम लेकर अपनी जान बचाई. नलिन जी छोटों पर नाराज नहीं होते थे और किसी तरह उनकी नाराजगी दूर हुई थी.
जीवन के आखिरी दिनों में अस्वस्थता के कारण उन्होंने एक विंटेज कार खरीद ली थी जिसे वे खुद ही चलाते थे. अपने अध्ययन के आरंभ में कौटिल्य के अर्थशास्त्र पर उन्होंने अनुसंधान का कार्य किया था जो पूरा नहीं हो सका. हिंदी के प्रोफेसर होने के बावजूद वे अर्थशास्त्र, विज्ञान और पाश्चात्य चिकित्सा शास्त्र का भी गहन अध्ययन करते थे. जब पेनिसिलिन का आविष्कार हुआ था तो इस विषय पर उन्होंने ढेर सारा साहित्य इकट्ठा कर लिया था.
पटना से एक पत्रिका निकलती थी शायद उसका नाम \’पाटल\’ था. एक दिन उस पत्रिका का मालिक साहित्य सम्मेलन में पहुंचा और उसने नलिन जी से अनुरोध किया कि आप मेरी पत्रिका पर एक नजर डाल लें तो उसकी प्रतिष्ठा बढ़ जाएगी. इसके एवज में मैं आपको थोड़ा बहुत पारिश्रमिक भी दूंगा लेकिन मैं अधिक नहीं दे पाऊंगा. नलिन जी ने उससे कहा कि अगर अधिक नहीं दे सकते तो जितने दिन मैं साहित्य सम्मेलन में रहूंगा आप मेरे सिगरेट के बिल दे दीजिए. पनवाड़ी को बोल दीजिए कि मुझे प्रतिदिन सिगरेट पहुंचा दिया करें. वह खुशी-खुशी चला गया. नलिन जी महंगी और बहुत अधिक मात्रा में सिगरेट पीते थे. उसका खर्च देखकर दो-तीन महीने में ही पत्रिका के मालिक ने हाथ खड़े कर दिए थे.
फणीश्वर नाथ रेणु के \’मैला आंचल\’ को बहुत सारे साहित्यकारों ने ढोड़ाय चरितमानस (सतीनाथ भाढुड़ी) की नकल करार देकर उपेक्षित करार दे दिया था. इस उपन्यास को रेणु जी ने खुद छापा था और कुछ लोगों के पास भेजा. नलिन जी ने जब उसे पढ़ा तो सभी लोगों की उपेक्षाओं को दरकिनार करते हुए इस पुस्तक को महत्वपूर्ण आंचलिक उपन्यास के रूप में उपलब्धि करार देते हुए उन्होंने कई पत्र-पत्रिकाओं में इसकी समीक्षा लिखी. राधाकृष्ण प्रकाशन के मालिक ओम प्रकाश जब नलिन जी से पटना में मिले तो उन्होंने कहा कि यह महत्वपूर्ण उपन्यास है, इसे आप छापिये. इस उपन्यास का हिंदी साहित्य में एक महत्वपूर्ण स्थान बनेगा. ओम प्रकाश जी ने इसे छापा जिसकी वजह से उपन्यास को प्रचारित, प्रसारित होने का अवसर प्राप्त हुआ तथा जिसके बहुत सारे संस्करण आज भी निकलते ही जा रहे हैं. कहने का मतलब है कि नलिन विलोचन शर्मा बिना किसी भेदभाव के प्रतिभाशाली लोगों का निस्वार्थ भाव से उत्साह वर्धन करते थे और किसी से कोई अपेक्षा नहीं रखते थे.
एक बार नलिन जी शिव चंद्र शर्मा के साथ बनारस गए थे. वहां एक रिक्शे पर नलिन जी बैठे थे तथा दूसरे पर शिवचंद्र शर्मा. शिवचंद्र शर्मा ने अपने रिक्शा वाले को पैसे देकर उतने ही पैसे नलिन जी के रिक्शा वाले को देने लगे तो रिक्शे वाले ने नलिन जी को देखते हुए हाथ जोड़कर शिवचंद्र जी से कहा कि \”इनका भी इतना ही ?\” इसके के बाद नलिन जी के कहने से उसे दुगुना पैसा दिया गया.
अध्यापन शुरू करने से पहले नलिन विलोचन शर्मा ने आईसीएस की परीक्षा में बैठने का फैसला लिया और प्रसिद्ध कथाकार जैनेंद्र कुमार को इस संदर्भ में एक पत्र लिखा कि अमुक तारीख को अमुक रेलगाड़ी से मैं दिल्ली पहुंच रहा हूं तथा आपके घर पर ही रहूंगा. मुझे ले जाने के लिए दिल्ली रेलवे स्टेशन पर किसी को भेज दीजिएगा. इस पर जैनेंद्र जी ने उन्हें लिखा कि मैं ही आपको नहीं पहचानता हूं तो दूसरे को क्या बताऊंगा ? इस पर नलिन जी का जवाब आया कि उस गाड़ी से स्टेशन पर काला कोट पहने हुए सबसे लंबा जो व्यक्ति दिखाई पड़े आपका आदमी उसे नलिन विलोचन शर्मा समझ लेगा.
कुछ अपने और कुछ दूसरों के संस्मरण से इस साझा संस्मरण को लिखते समय मैं यह बतलाना नहीं भूल सकता कि देश-विदेश से आने वाले उनके मित्र उनके साथ उनकी कोठी में ठहरना पसंद करते थे. विदेशियों का नाम तो मैं नहीं बदला सकता लेकिन देश के विद्वानों में चाहे आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी हों, राहुल सांकृत्यायन हों, या रामविलास शर्मा तथा अन्य इनके जैसे तमाम विद्वान पटना आने पर उनके यहाँ ही ठहरते थे. दरअसल वे ऐसे प्रकांड विद्वान थे जिनके यहां विचारधाराओं के आधार पर मिलने और ना मिलने का प्रश्न नहीं उठता था. तमाम तरह के विद्वान और अनुसन्धानवेत्ता उनसे मिलते थे और वे सबकी यथासंभव सभी प्रकार से सहायता करते थे जिसके विषय में और विस्तार से लिखने की आवश्यकता शायद नहीं है.
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(ज्ञान चंद बागड़ी के साथ शिवमंगल जी ) |
शिवमंगल सिद्धांतकर