शिवमंगल सिद्धांतकार ने नामवर सिंह को उनके प्रारम्भिक संघर्ष के दिनों से ही देखा है, वह उन्हें लगातार परखते रहें हैं. ये संस्मरण भक्ति भाव से नहीं लिखे गयें हैं. ख़ामियाँ और कमजोरियां आदमी में होती ही हैं. बड़े व्यक्तित्वों के अन्तर-विरोध भी बड़े होते हैं.
प्रस्तुत है.
ऐसे थे नामवर सिंह
अंतर्विरोधों का सामंजस्य
शिवमंगल सिद्धांतकर
जब मैं शिवचंद्र शर्मा के चीना कोठी वाले किराए के मकान में रहने लगा था तो एक दिन धोती-कुर्ताधारी एक लंबे कद का व्यक्ति वहां पहुंचा और शिवचंद्र शर्मा से मिलने की इच्छा जाहिर की. मैंने कहा कि शर्मा जी तो एमएलए फ्लैट में चले गए हैं. आपको वहीं जाना पड़ेगा. मैं आपको पता दे देता हूं. इस पर उन्होंने कहा कि एमएलए फ्लैट का पता मेरे पास है इसलिए पता देने की जरूरत नहीं है, मैं चला जाऊंगा. इसके बाद वे लौटने लगे तो मैंने कहा कि अपना नाम तो बताते जाइए. लेकिन मेरा नाम पूछना उनको शायद बुरा लगा होगा. इसलिए यह कहते हुए कि नाम जानकर क्या कीजिएगा और चलते बने.
वे चले गए और मैं मकान के अंदर जाकर अपने काम में लग गया. शाम को जब मैं एमएलए फ्लैट पहुंचा तो पाता हूं कि वही व्यक्ति लुंगी और बनियान में फ्लैट के अंदर बैठा हुआ है और शिवचंद्र जी से बातें कर रहा था. मेरे पहुंचते ही मेरा परिचय कराते हुए शर्मा जी ने कहा कि आप नामवर सिंह हैं. मैंने उनको प्रणाम किया और बिना कुछ कैफियत दिए हुए कि यह व्यक्ति चीना कोठी आए थे, हॉल में ही बैठ गया. क्योंकि यदि मैं नामवर जी के चीना कोठी पहुंचने कि बात करता तो दोनों की बातचीत में हस्तक्षेप पड़ जाता.
आधे घंटे के बाद जब दोनों की बातचीत चाय के हस्तक्षेप के साथ रुकी तो मैंने यह बतला देना उचित समझा कि नामवर सिंह पहले चीना कोठी आये थे. मैं यदि पहचानता होता तो इन्हें साथ ही लेकर आता. फिर नामवर सिंह ने कहा की खैर कोई बात नहीं, मैंने ही तो अपना परिचय नहीं दिया था. शर्मा जी के नौकर नंदू को मैंने कहा कि खाली चाय क्यों दे रहे हो, कुछ और भी ले आओ. नंदू ने बिस्किट और नमकीन कि एक तश्तरी हम लोगों के बीच रख दी. उसके बाद शर्मा जी की बड़ी पुत्री मंजूश्री ने एक खादी का कुर्ता और धोती नंदू को देते हुए कहा कि जाओ अभी आयरन करा कर लाओ. कपड़े छोड़ कर मत आना. अपने सामने ही करवाना क्योंकि अंकल से मिलने कितने ही लोग आने वाले हैं. नंदू चला गया और आयरन कर के कपड़े ले आया. फिर मैंने शर्मा जी को एकांत में ले जाकर पूछा कि नामवर जी यहीं रहेंगे या खाना खाने के बाद उन्हें कार्यालय ले जाऊं ?
उन्होंने कहा कि नहीं यहीं खाना खाएंगे और यहीं ठहरने की व्यवस्था हो जाएगी. अगर असुविधा महसूस करेंगे तो आउट हाउस में सुला दूंगा. मैं चीना कोठी चला गया. मैं इसलिए भी जल्दी चला गया क्योंकि मेरे पहुंचने के बाद उन दोनों की बातचीत में नामवर जी की तरफ से कुछ असहजता दिख रही थी.
अगले दिन ग्यारह बजे के आसपास मैं दोबारा एमएलए फ्लैट आया तो पाया कि नामवर जी सहज हो चुके हैं और प्रणाम करते ही उन्होंने कहा कि मैंने भी आपको नहीं पहचाना था कि आप दृष्टिकोण में छपे रॉबर्ट फ्रास्ट वाले लेखक शिवमंगल जी हैं नहीं तो मैं वहीं रुक जाता और आपके साथ ही आ जाता. उसके बाद उन दोनों में खुलकर बातचीत हो रही थी और कुछ बातें दोहराई भी जा रही थी. अब बातचीत में मैं भी शामिल था.
मैंने नामवर जी को शिवचंद्र जी से कहते सुना कि यदि नलिन जी होते तो मुझे पटना यूनिवर्सिटी में रख लेते. शिवचंद्र जी ने कहा कि अगर वे होते तो कोई समस्या ही नहीं थी. फिर उन्होंने कहा कि मैं जल्द से जल्द प्राध्यापकी पा लेना चाहता हूं. उन्होंने शिवचंद्र जी से कहा कि आप कुछ कर सकते हैं तो बताइए. उन्होंने शिवचंद्र जी से यह भी कहा कि जो लोग आपको एमएलए बना सकते हैं, वह मुझे प्राध्यापक क्यों नहीं बना सकते? इसलिए मैं चाहता हूं कि आप प्रयास करें. आज मैं मुजफ्फरपुर चला जाऊंगा जब लौटूंगा तो फिर मिलूंगा. मुजफ्फरपुर विश्वविद्यालय में या बाहर मेरा एक व्याख्यान रखा है, इससे कुछ पैसे तो मिलेंगे ही फिर मुझे दौड़- धूप करने में आसानी हो जाएगी. मुजफ्फरपुर में राजेंद्र प्रसाद सिंह के यहां मुझे ठहरने का निमंत्रण है. वे भी शायद कोई गोष्ठी आयोजित कर रहे होंगे. जानकी वल्लभ शास्त्री जी से भी मिलूंगा और उनके सामने भी अपनी समस्या रखूंगा. वे शायद कुछ कर सकें.
यहाँ यह बतला देना जरूरी लगता है कि नामवर सिंह को सागर विश्वविद्यालय से कुछ कारणों से विदा लेना पड़ गया था .
1967में पटना कॉमर्स कॉलेज की लेक्चरशिप को आगे बढ़ाने की बजाय दोस्तों के दबाव में और अपनी इच्छा से बिना किसी से राय मशवरा किए हुए मैंने दिल्ली प्रस्थान का इरादा बना लिया. दो-तीन बड़े ट्रंक में अपनी किताबें भर ली और होल्डॉल में पर्स वगैरह रखकर दिल्ली के लिए उस रात प्रस्थान किया जिस रात पटना का खादी भवन जल रहा था और पुलिस ने चप्पे-चप्पे पर तैनात होकर कर्फ़्यू की स्थिति बना दी थी. खुद को और सामान को दो रिक्शों पर रखकर पटना जंक्शन पहुंचा और दूसरे दिन दिल्ली स्टेशन बहुत बुरी परिस्थिति में पहुंचा. किसी तरह बिना बताए हुए मुरली प्रसाद सिंह के मॉडल टाउन वाले किराए के मकान पर चला आया. जब मैं स्टेशन पर इक्के पर सामान लदवा रहा था तो नामवर सिंह दिखलाई पड़े थे और यह कहते हुए आगे बढ़ गए थे कि मुझे ट्रेन पकड़नी है.
मुरली जी के यहां जब मैं ठहरा तो मुझे मुरली जी से ही पता चला कि नामवर सिंह भी इसी मोहल्ले में रहते हैं. दिवंगत देवीशंकर अवस्थी की पत्नी बगल में रहती हैं. अजित कुमार, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, शमशेर बहादुर सिंह, विश्वनाथ त्रिपाठी तथा रमेश गौड़ भी इसी मोहल्ले में रहते हैं जिनको आप जानते हैं तथा और भी बहुत से लोग हैं जिन्हें आप नहीं जानते. मुरली जी के यहां ठहर तो गया किंतु कुछ पैसे एकत्र कर स्वतंत्र किराए का मकान लेना चाहता था. इसलिए सोचा कि अपनी लिखी हुई सामग्री को प्रकाशकों और संपादकों को देना शुरू करूं. फिर इस योजना का मैंने स्थगित कर दिया. यह अनुमान करते हुए की कुछेक लेख छपने से आएगा ही क्या?
यहीं यह बतलाना चाहता हूँ कि काठमांडू से लौटने के बाद पटना में मैं एक फैंसी कंबल ओढ़ कर चलता-फिरता होता था तो उस यात्रा के दौरान लोगों ने उड़ा दिया था कि मैं चीनी दूतावास से एक रिवाल्वर लेकर आया हूं और उसे अपने साथ रखता हूँ और उसे छिपाए रखने के लिए कंबल ओढ़े रहता हूं.
आलोचना की ओर से 1974 में नामवर सिंह ने विष्णु खरे द्वारा प्रगतिशील आंदोलन पर लिखित परिसंवाद आयोजित करवाया जिसमें विचार रखने के लिए विष्णु खरे ने मुझे भी आमंत्रित किया था. इस परिसंवाद में मुरली मनोहर प्रसाद सिंह को विषय प्रवर्तन करना था जिसका परिपत्र जारी किया गया था. उस परिपत्र को पढ़ने के बाद अपना विचार मैंने लिखित तौर पर तैयार किया और नई दिल्ली के जिस हॉल में आयोजन किया गया था उसमें औरों के साथ मैंने भी अपना आलेख पढ़ा. उस आलेख में मैंने काफी तीखे तेवर के साथ अपने विचार रखे और कई नामी-गिरामी प्रगतिशीलों को निशाना बनाया. अक्सर बुद्धिजीवियों के गंभीर परिसंवादों में तालियां नहीं बजतीं लेकिन मेरे विचार ने कई बार तालियां बटोरी. आलेख के अंत में कुछ ऐसे विचार मैंने रखें जिससे नामवर सिंह केजीबी के एजेंट साबित संकेतित होते थे. इस पंक्ति को पढ़ने के साथ लगभग पूरे हाल में तालियां बजीं और नामवर सिंह की तरफ इशारा करते हुए विष्णु खरे जैसे कई बुद्धिजीवियों ने कहा कि लीजिये आपको भी एक उपहार मिल गया.
नामवर जी ने कोई झुंझलाहट या तिलमिलाहट नहीं दिखाई किंतु 1974के आलोचना के अंक में मुरली मनोहर प्रसाद सिंह के आधार पत्र के साथ ही मेरा विचार आलेख भी प्रकाशित हुआ जिसमें वह अंश जो परोक्ष रूप से ही सही नामवर सिंह को केजीबी एजेंट साबित संकेतित करता था उसे हटा दिया गया था.
मैंने और कई लोगों ने भी जब नामवर सिंह से शिकायत कि मेरे आलेख की आखिरी पत्तियां क्यों हटा दी गईं तो उन्होंने जवाब दिया कि मैंने तो कुछ नहीं किया मोहन गुप्त ने प्रूफ देखते समय उसे हटा दिया होगा या हट गया होगा. मैंने इस बात को आगे तूल नहीं दिया.
संयोग ऐसा बैठा कि नामवर सिंह जोधपुर विश्वविद्यालय की प्रोफेसरी से त्यागपत्र देकर हिंदी संस्थान आगरा आये. जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के भारतीय भाषा विभाग में प्रोफेसर की नियुक्ति के लिए बतौर विशेषज्ञ नामवर सिंह को बुलाया गया. पूर्व नियोजित योजना के तहत उन्होंने सावित्री चंद्रा की नियुक्ति कर दी जो यूजीसी के चेयरमैन सतीश चंद्रा की पत्नी थी. फिर सतीश चंद्रा ने निर्धारित प्रक्रिया अपनाते हुए नामवर सिंह को जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के भारतीय भाषा विभाग में प्रोफेसर नियुक्त कर दिया. उस समय से आज तक भारतीय भाषा विभाग का जो पाठ्यक्रम मार्क्सवादी नजरिए से बना हुआ है वह नामवर सिंह की देन है. इसलिए नियुक्ति में कुछ लोगों की निगाह में आपत्तिजनक प्रक्रिया अपनाए जाने के बावजूद मेरी निगाह में यह जरूरी कदम था.
जोधपुर विश्वविद्यालय में नामवर सिंह की नियुक्ति के खिलाफ कुछ लोग अदालत चले गए थे. ऐसे हालत में नामवर सिंह का जोधपुर विश्वविद्यालय से त्यागपत्र देना और आगरा हिंदी संस्थान का निदेशक पद पाना इसलिए भी जरूरी था कि नामवर सिंह को जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में आरंभिक वेतनमान में काम करना पड़ता जबकि संस्थान के निदेशक बन जाने के बाद जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के लिए नियमानुसार जरूरी हो गया था कि संस्थान में जितनी तनख्वाह मिलती थी उसे जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय कम नहीं कर सकता था. इस तरह से जोधपुर से आगरा संस्थान होते हुए नामवर सिंह का सतीश चंद्रा के सहयोग से जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में प्रोफेसर बनना मेरे लिए आलोच्य नहीं था.
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में प्रोफेसर का पद संभालने के बाद संयोग से नामवर जी ने सर्वोदय एनक्लेव में जो कोठी किराए पर ली उस मोहल्ले में बी-96 मकान में मैं पहले से ही रह रहा था जिससे होकर ही नामवर सिंह जी को जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय जाना होता था. जब उन्हें पता चला कि मैं अमुक मकान में रहता हूं तो जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय जाते समय अपनी कोठी की चाबी मेरे यहां रख जाते थे. वह इसलिए कि उनके पुत्र विजय मास्को से इंजीनियरिंग पढ़कर आ चुका था और फरीदाबाद में किसी कारखाने में काम करने लगा था. जो अपने काम से लौटकर मेरे यहां से चाबी ले लेता था और नामवर जी की कोठी में चला जाता था क्योंकि दोनों बाप-बेटे एक साथ ही रहते थे.
लोग बताते हैं कि नामवर सिंह जी बड़े कंजूस थे. यहां तक कि पान खाते समय भी जो लोग साथ होते थे वही पान का दाम भुगतान करते थे. डुप्लीकेट चाबी बनवा सकते थे,कंजूसी की वजह से ही वे शायद ऐसा नहीं कर पाए होंगे. उनका बेटा विजय चाबी ले जाते हुए या रखते हुए मेरे घर आने लगा था और थोड़ा बहुत घुल-मिल गया था. मेरी पत्नी और कवि शीला सिद्धांतकर को बतौर शिकायत उसने बताया था कि पिताजी मां को साथ में नहीं रखते. मेरे चाचा ही मेरी मां की देखभाल करते हैं. इस बात से स्त्री पक्षधरता की कवयित्री शीला सिद्धांतकर वैसे ही नाराज रहती थी, जैसे इस तरह की हरकत के लिए अपने अन्य बुजुर्गों पर नाराज रहती थी. शीला के अंदर नामवर जी के प्रति अव्यक्त आक्रोश इतना अधिक भर गया था कि उन्होंने नामवर सिंह जी को नमस्कार करना भी छोड़ दिया था.
एक दिन की घटना याद आती है कि मेरे यहां सर्वोदय वाले मकान के ड्राइंग रूम में बैठे हुए नीलाभ और पंकज सिंह घर का बना आंवले का मुरब्बा खा रहे थे कि इसी बीच नामवर सिंह जी चाबी के लिए पधारे. दरवाजा तो खुला ही था, अंदर आए तो उन्होंने कहा कि आप लोग सौभाग्यशाली हो मुझे तो कभी मुरब्बा मिला नहीं. ऐसी परिस्थिति में मेरी जगह कोई भी होता तो यही कहता है कि आप भी बैठिये और मुरब्बा खा लीजिए लेकिन मैंने बैठने के लिए कहे बिना ही चाबी थमा दी. कारण यह था कि शीला इस स्तर तक जा सकती थी कि अगर मैं उनसे आग्रह करता कि एक प्लेट नामवर सिंह जी को भी दे दो तो उन्हें इनकार करने में देर नहीं लगती. शीला सिद्धांतकर कविता में ही नहीं व्यवहार में भी इस बात की पक्षधर थी कि जो पति अपनी पत्नी और बच्चों को साथ रखकर उनका ख्याल नहीं करता वह कतई प्रगतिशील और मानवीय नहीं हो सकता.
इस तरह चाबी रखने अथवा वापस लेने के लिए लगभग रोजाना उनका आना होने लगा. बाहर से या दिल्ली का कोई बड़ा लेखक उनके पास आता तो अक्सर उसे लेकर मेरे पास आते और इस बात का जिक्र करते थे कि शिवमंगल जी ने \”निराला और मुक्त छंद\” नाम की पुस्तक लिखी है जिसे मैकमिलन ने छापा है. इसके अतिरिक्त नामवर जी ने कोशिश की कि मैं एकेडमिक गतिविधियों में सक्रिय भूमिका की तरफ ध्यान दूं. मैंने नामवर जी को साफ-साफ बता दिया कि मैं साहित्येतर राजनीतिक गतिविधियों में सक्रिय रहता हूं इसलिए क्लास लेने के अलावा कोई एकेडमिक काम नहीं करता. समय मिलने पर कुछ ना कुछ लिखने का काम जरूर करता हूं. कभी-कभी विश्वविद्यालय जाने के पहले नामवर जी मेरे यहां रुक कर निराला की कविताओं के विषय में विचार-विमर्श करते होते थे.
एक दिन निराला के एक शब्द प्रयोग पर मेरी राय जानने की इच्छा जाहिर की तो मैंने कहा कि इस शब्द के बारे में आप मुझसे बेहतर समझ रखते होंगे. उन्होंने कहा कि मैं बनारस की परंपरा से आता हूं जहां विचार-विमर्श को महत्व दिया जाता है. इसलिए ही आपसे विचार-विमर्श कर जान लेने में मैं संकोच नहीं करता. हमारे बीच इस तरह की बातें हुआ करती थी. जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के कैंपस में कभी-कभी मैं जाया करता था जहां मेरे विचारों से जुड़े हुए बहुतेरे छात्र नामवर सिंह जी के शिष्य थे और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के कैंपस में बहुत से एक्टिविस्ट होते थे जिनसे मिलना-जुलना बनता था.
उस समय आलोचना के एक अंक के संपादकीय में नामवर सिंह जी ने रेखांकित किया था कि नक्सलबाड़ी आंदोलन और संविदा सरकारों का गठन हमारे साहित्य में एक प्रस्थान बिंदु की तरह देखा जा सकता है. इस बात से भी मेरा लगाव उनसे बढ़ता जा रहा था. नामवर सिंह जी लगातार आग्रह करते थे कि मैं आलोचना में लिखूं. हम दोनों के बीच तय हुआ कि मौजूदा प्रस्थान बिंदु को ध्यान में रखते हुए आज की कविता का चरित्र मैं आलोचना के कई अंकों में उद्घाटित करूं. किसी तरह से समय निकालकर मैंने आज की कविता का चरित्र की पहली किस्त उन्हें दी .
\’आज की कविता का चरित्र\’ नामक मेरा लेख 1974के आलोचना के जिस अंक में छपा था और जिसमें मैंने आलोक धन्वा की एक कविता पर टिप्पणी की थी. उस को रेखांकित करते हुए नामवर सिंह ने उस अंक के अपने संपादकीय में लिखा था कि शिवमंगल सिद्धांतकर अपने पक्ष के कवियों पर भी टिप्पणी करते हुए नहीं चूकते जैसा कि मैं शिवमंगल सिद्धांतकर के लेख \’आज की कविता का चरित्र\’ का अवलोकन करते हुए पा रहा हूं.
किंतु इसके बाद कुछ ऐसी समस्या खड़ी हो गई कि उन्होंने अगली किस्त के लिए आग्रह करना छोड़ दिया. हुआ यह था कि \’हिरावल\’ के पहले अंक में मैंने एक संपादकीय टिप्पणी लिखी जिसका शीर्षक था \’नामवर सिंह का अंध कलावाद\’[i].
इस छोटी टिप्पणी में जो कुछ मैंने लिखा था उससे नामवर सिंह जी तिलमिला गए जबकि लोग कहा करते थे कि किसी भी आलोचना से नामवर जी तिलमिलाते नहीं है. उनकी तिलमिलाहट का पता मुझे तब चला जब किसी शाम के वक्त मैं सर्वोदय एनक्लेव से बाहर निकल रहा था और नामवर सिंह भी निकल रहे थे . हम दोनों संयोगवश अगल-बगल हो गए फिर उन्होंने कहा कि शिवमंगल जी हम लोग भी धारदार हुआ करते थे किंतु गुरुवर ने हमें कुंद कर दिया और इसे लंबी यात्रा के लिए जरूरी बता दिया.
मैं समझ तो गया लेकिन इस बात को आगे बढ़ाने की बजाय दूसरी बातें हम लोग करने लगे. बात करते-करते कमलेश जी के आवास पर पहुंचे. मेरे पहुंचते ही कमलेश जी ने कहा कि \’निराला और मुक्तछंद\’ आपकी पुस्तक मैंने पढ़ी. मैं तो चाहता हूं कि आंदोलनों को ज्यादा से ज्यादा समय देने के बजाय आप अपने लेखन को समय दें तो बड़ा काम हो सकता है. मैं खामोश रहा फिर और कई बातें होती रही जिनमें मैं लगभग खामोश ही था. नामवर जी ने कहा कि शिवमंगल जी कुछ बोलेंगे नहीं बस लिख देंगे. इस बात पर भी मैं कुछ नहीं बोला. थोड़ी देर कुछ बातें चलती रही. मैंने कहा कि एक आवश्यक काम से मुझे घर वापस जाना जरूरी है इसलिए मैं जाना चाहूंगा और नमस्कार करके चला गया.
इस तरह मेरी टिप्पणी पर नामवर जी की प्रतिक्रिया मुझे प्राप्त हो गई और आलोचना में लिखने का आग्रह भी समाप्त हो गया. लेकिन हम दोनों के संबंधों में कड़वाहट नहीं आई और हम जब भी कहीं मिलते थे तो असहजता के लक्षण नहीं दिखते थे. अकसर मैं अपने साहित्यिक आयोजनों में नामवर जी को बुलाता था और वे खुशी-खुशी आते भी थे. मुझे याद है कि गोरख पांडे की मृत्यु के बाद जेएनयू सिटी सेंटर में लगभग सभी छोटे बड़े लेखक गोरख पांडे की शोक सभा में आए थे उस सभा में नामवर सिंह ने कहा था की आत्महत्या बड़ी बहादुरी का काम है. गोरख पांडे एक बहादुर कवि थे इत्यादि इत्यादि.
नामवर सिंह ने जब राष्ट्रीय सहारा का पदभार संभाला तो मुझे बहुत बुरा लगा. इससे भी ज्यादा बुरा मुझे तब महसूस हुआ जब सुब्रत राय के पुत्र और उनकी बहू के राष्ट्रीय सहारा के कार्यालय में पहुंचे और नामवर सिंह जी के मेज पर पहुंच कर उनके प्रति मुखातिब हुए तो उन्होंने कुर्सी से उठकर करबद्ध उन्हें प्रणाम किया. मैं इस बात से काफी आहत था कि नामवर सिंह जैसा व्यक्ति सेठों के पास सेवक भाव से नजर आए. इसी समय नामवर सिंह ने विश्व सामाजिक संगठन पर भी एक बयान दे दिया था. इनकी इन दोनों हरकतों से मैं इतना परेशान था कि कर्ण सिंह चौहान ने जब हाउस ऑफ कल्चर की तरफ से राजेंद्र भवन ऑडिटोरियम में एक बैठक बुलाई और मुझे भी वक्ता के तौर पर आमंत्रित किया गया तो मैं विषय पर तो ज्यादा नहीं बोला लेकिन साहित्यकारों के सेठाश्रयी होने और विश्व सामाजिक संगठन की तरफदारी के लिए नामवर सिंह की कड़ी आलोचना की.
नामवर सिंह की सांकेतिक हरकतों से मैं इतना परेशान हो गया था जितना मुझे नहीं होना चाहिए था. उस समय वह चित्र भी मेरे आंखों के सामने नाच रहा था जब अपनी पत्नी के दाह संस्कार के अवसर पर सुब्रत राय के पहुंचने की आशा में वे आवभगत की मुद्रा में खड़े थे. उनके पहुंचते ही उन्हें लेकर वे पुष्पांजलि देने के लिए एस्कॉर्ट करते हुए निश्चित स्थान पर ले गए. नामवर सिंह की अकसर मैं आलोचना किया करता था लेकिन इसका वे बुरा नहीं मानते थे. मिलने पर प्रेम भाव से ही मिलते थे. राजा राममोहन राय नेशनल लाइब्रेरी परचेज कमेटी के चेयरमैन की हैसियत से जो भूमिका वे अदा कर रहे थे वह भी आलोच्य थी. दुनिया का हर बड़ा लेखक किसी ना किसी सीमा तक सत्ता विरोधी, व्यवस्था विरोधी, विचार रखता होता है किंतु नामवर सिंह इसके अपवाद लगते हैं जिसकी हम शिकायत करते होते हैं. इस मुद्दे को ध्यान में रखते हुए दो कविताएँ भी मैंने लिख दी थी जो \’काल नदी\’[ii] कविता संग्रह में प्रकाशित है.
दिल्ली पुस्तक मेले के समय राजकमल प्रकाशन के यहां नामवर सिंह जी का दरबार लगता था और दिल्ली के बहुत से छोटे-बड़े लेखक वहां विराजमान मिलते थे. मैं कभी इसमें नहीं गया. एक प्रतिष्ठित साहित्यकार को नामवर सिंह से मिलने जाना था तो मैंने उनका साथ देने के लिए जब आनाकानी की तो उन्होंने कहा कि चलिए नामवर सिंह जी तो आपका बहुत सम्मान करते हैं. उनके आग्रह पर बेमन से ही सही मुझे जाना पड़ा तो नामवर सिंह ने पहुंचते ही कहा आइये सिद्धांतकर जी बैठिये. मैंने उनको नमस्कार करके बैठने के बजाए सेल्फ में तब तक किताबें देखता रहा जब तक कि जिन साहित्यकार के साथ मैं आया था उन्होंने नामवर सिंह जी से अपनी बात पूरी नहीं कर ली. उस दिन मैंने देखा हिंदी के लेखक नामवर सिंह के सामने और राजकमल प्रकाशन के दरबार में कितने दयनीय लगते हैं. दरअसल मैं किसी भी लेखक को बड़े से बड़े प्रकाशक से बड़ा मानता हूं. इसलिए पुस्तक प्रकाशन के लोभ-लालच में प्रकाशक के सामने जब उन्हें अवनत देखता हूं तो मुझे ग्लानि का अनुभव होता है. निश्चित तौर पर लेखक के स्वाभिमान को बनाए रखने के लिए एक समय में सहकारी प्रकाशन लेखकों द्वारा लेखकों के लिए और पाठकों के लिए गठित किए जाने का मित्रों के सामने प्रस्ताव मैंने रखा था. मुझे याद आता है कि एक बार हिरावल की एक संपादकीय टिप्पणी में मैंने लिखा था कि हमारे लेखक शराब पीने, बच्चों की शादी-विवाह और अन्य पारिवारिक उत्सवों में जमकर पैसे खर्च करते हैं किंतु अपनी रचनाओं को पुस्तकाकार प्रकाशन के लिए प्रकाशकों के पास गिड़गिड़ाते हैं.
नामवर सिंह हिंदी साहित्य के आदिकाल से लेकर उत्तर आधुनिकता तक की गंभीर यात्रा करते होते थे और कला वादियों, रसवादियों की बखिया उखड़ते हुए प्रगतिवादी मानववाद की स्थापना के लिए आजीवन काम करते रहे. यह अलग बात है कि मार्क्सवाद की गहरी जानकारी के अभाव के बावजूद गैर मार्क्सवादी समाज में कभी ऐसी तस्वीर नहीं पेश की कि सोवियत यूनियन के विघटन के बाद मार्क्सवाद से उनका मोह भंग हुआ क्योंकि वह जानते थे कि सत्तर साल के महा काव्यात्मक सोवियत यात्रा ने रूस और अन्य गणराज्यों को कमियों के बावजूद उतना अधिक वर्चस्वशाली बना दिया था कि सोवियत यूनियन के विघटन के बाद दुनिया के लगभग सौ से ऊपर शिखर के वैज्ञानिकों, अर्थशास्त्रियों, कलाविदों ने यह स्वीकार किया कि कम से कम न्यूक्लियर और अंतरिक्ष विज्ञान के क्षेत्र में सोवियत यूनियन की ऊंचाइयों को अमेरिका भी नहीं छू पाया.
सोवियत संघ के विघटन के बाद अमेरिका का विघटन भी 2001से अफगानिस्तान पर हमले के साथ ही शुरू हो गया था. जैसा कि सोवियत यूनियन का अफगानिस्तान पर हमला उसके विघटन के अनेक कारणों में से एक जरूर था. इसलिए नामवर सिंह जी की मृत्यु के बाद अपने शोक संदेश वाले बयान पर मैं अब भी कायम हूं कि नामवर सिंह की स्थापना से गुजरे बिना हिंदी की कोई महत्वपूर्ण आलोचना, अनुसंधान या विचार लेख समग्रता हासिल नहीं कर पाएगा.
आपातकाल लगने के बाद हम लोग मार्क्सवाद लेनिनवाद के सरकारी दृष्टि में आपत्तिजनक दस्तावेज और पुस्तकें अपने मित्रों के यहां पहुंचाते रहे थे. उस समय मैं सर्वोदय एनक्लेव वाली नामवर सिंह की कोठी पर गया और उनसे अनुरोध किया कि कुछ दस्तावेज और पुस्तकें मैं फिलहाल आपके घर में रख देना चाहता हूं. इस पर वे बहुत मायूस हो गए और बहुत घबराहट के स्वर में कहा कि शिव मंगल जी यदि रात में ठहरना हो तो मेरे यहां आ सकते हैं लेकिन सामग्री रखने के लिए मत कहिए. फिर मैंने ठहरने का प्रस्ताव भी बिना कुछ बोले हुए अपने मन में अस्वीकार कर लिया. प्रत्येक रात मैं कहीं ना कहीं आश्रय ले लेता था. अकसर मैं आई आईटी में अपने प्रोफेसर मित्रों के यहाँ सो जाया करता था. यहीं यह लिख देना भी जरूरी है कि नामवर सिंह की पार्टी के वरिष्ठ अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त इतिहासकार रामशरण शर्मा ने खबर भिजवाई थी कि शिवमंगल जी कोई समस्या हो तो आप मेरे यहाँ ठहर सकते हैं. प्रोफेसर रणधीर सिंह ने भी ऐसा ही संदेश मेरे लिए भेजा था.
अपभ्रंश से शुरुआत कर कविता के नए प्रतिमान तक और दूसरी परंपरा की खोज से लेकर तमाम उनके साक्षात्कार और भाषण उनकी जानकारी की व्यापकता को तो बतलाते हैं किंतु मार्क्सवादी समग्रता और सामाजिक तथा राजनीतिक गहराई और राजनीतिक अर्थव्यवस्था की समझ को परिलक्षित नहीं करती. इसलिए कभी-कभी उनकी आलोचना के विषय में चलते फिरते ही सही विपरीत टिप्पणियां करता रहा हूं जिससे जाहिर होता है कि नामवर सिंह जी और हमारे समय के जो मार्क्सवादी आलोचक कहे जाते हैं वे मार्क्सवादी आलोचक की परिभाषा पर खरे नहीं उतरते. इसलिए कि मार्क्सवादी अध्येता से आगे बढे हुए इन्हीं मैं नहीं पाता. मार्क्सवादी आलोचक नामवर सिंह या अन्य लोगों को मैं तभी मानता यदि वे सिद्धांत और व्यवहार दोनों के उदाहरण पेश करते होते.
अपभ्रंश का हिंदी के विकास में योग, पृथ्वीराज रासो की भाषा, आज की कविता के नए प्रतिमान तथा अन्य उनके ग्रंथ और भाषण आदि से गुजरते हुए मैं इस नतीजे पर पहुंचा हूं कि नामवर सिंह की आलोचना की यात्रा लंबी तो बनती है किंतु विशेषज्ञता दांव पर लग जाती है.
कविता के नए प्रतिमान उनका एक महत्वपूर्ण योगदान है जो उनके लिए आधुनिक कविता की समझ के इतिहास में स्थान सुरक्षित करता होता है. इस पुस्तक की तमाम महत्वपूर्ण और महत्वहीन कतरनों की ओर आलोचना की तीसरी आंख की मुठभेड़ मैं पेश करना नहीं चाहता क्योंकि यहां इस आलेख को मैं मुख्यतः संस्मरण तक ही सीमित रखना चाहता हूं.
एक बात मैं और कह देना चाहता हूं कि मुक्तिबोध की कविता अंधेरे में द्वारा मुक्तिबोध को प्रगतिशील कवि के रूप में स्थापित करने का उन्होंने ऐतिहासिक काम किया है और हर आलोचक से मैं अपेक्षा करता हूं की एक-दो आवश्यक कवियों और लेखकों को विशेष तौर पर स्थापित करें. जंगल तो बहुत लोग खड़ा करते ही हैं लेकिन जंगल के राजा की खोज के साथ ही जंगलराज बिखेरे बिना नहीं मानते. जिस खाते में लाखों आलोचनात्मक पुस्तकें अनछुई रह जाती हैं और अंततः दीमक को उन्हें निशाना बनाना पड़ता है.
सभी जानते हैं कि रामविलास शर्मा सर्वहारा तानाशाही को ध्यान में रखकर सर्वहारा जनवाद की समझ अभिव्यक्त करते रहते थे और अस्तित्ववाद को गैर मार्क्सवादी अथवा यूं कहें की मानव विरोधी मानते थे. मुक्तिबोध की कविता \’अंधेरे में\’ को नामवर सिंह ने जिस तरह से स्थापित किया था उसके विपरीत इस कविता को अस्तित्ववादी बताते हुए रामविलास शर्मा ने एक लंबा लेख लिखा था जो आलोचना में ही छपा था. लोग बताते हैं कि अपने आसपास के लेखकों से रामविलास शर्मा अक्सर कहा करते थे कि नामवर सिंह कुछ पढ़ता-वढ़ता तो है नहीं जो कुछ मैं लिखता हूं उसे ही इधर-उधर करके अपना बना लेता है.
नामवर सिंह से एक समय वे इतने नाराज थे कि उन्होंने नामवर सिंह से बातचीत बंद कर दी थी. फिर नामवर सिंह जी के गुरु आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने समझौता कराने का इस तरह प्रयास किया कि नामवर सिंह को लेकर आगरा रामविलास जी के आवास पर पहुंचे. दरवाजा खटखटाने पर रामविलास जी ने दरवाजा खोला तो गुरु-शिष्य खड़े मिले. नामवर सिंह को देखते ही वे इतने भड़क गए कि दरवाजा बंद करते हुए कहा कि इनको लेकर आये हैं. फिर दरवाजे के बाहर से ही गुरु- शिष्य वापस हो गए.
उल्लेखनीय है कि बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में जब वे प्राध्यापक बने थे तो उस समय उनकी क्लास में हिंदी ही नहीं बल्कि दूसरे विषयों के छात्र भी बड़ी संख्या में जा कर बैठते थे और जगह नहीं मिलने की स्थिति में खड़े भी रहते और उनका व्याख्यान सुनते होते थे. यह योग्यता उनके अंदर अंत तक बनी रही. उनके बड़े से बड़े आलोचक भी उनकी व्याख्यान शैली की प्रशंसा जरूर करते थे.
जब मैं सत्यवती कॉलेज में पढाता था तो आरंभ में वह तिमारपुर के एक हाई स्कूल बिल्डिंग में चल रहा था. उस समय छात्रों की निगाहों में मैं ही एकमात्र प्रोफ़ेसर था, जिससे मज़ाक-मजाक में सहकर्मी कहते होते थे कि हम लोग पढ़ा-पढ़ा कर जान देते हैं और विद्यार्थी कहते होते हैं कि इस कॉलेज में तो एक ही प्रोफेसर है यानी शिवमंगल सिद्धांतकर. जब भी कॉलेज में वार्षिक उत्सव होता था तो उसकी जिम्मेदारी छात्र नेताओं की होती थी जो मुझ से आग्रह करते थे कि किसी नामी-गिरामी हस्ती को इस अवसर पर आमंत्रित कर दीजिए. एक बार नामवर सिंह को भी मैंने मुख्य अतिथि के रूप में वार्षिक उत्सव के अवसर पर बुलाया था. नामवर सिंह के नाम से बहुतेरे प्रगतिशील और कम्युनिस्ट कहे जाने वाले प्राध्यापक उनको सुनने के लिए पहुंचे हुए थे. नामवर सिंह ने प्रगतिशील चेतना और संस्कृति पर लगभग एक घंटे का भाषण किया और सब मंत्रमुग्ध होकर सुनते रहे. कॉलेज के प्रिंसिपल डॉक्टर एम.के. हालदार ने अपने स्वागत भाषण में वी वी जॉन जैसों से जोड़कर नामवर सिंह की प्रशंसा की. डॉ .हालदार को यह पता नहीं था कि वह नामवर सिंह की निंदा कर रहे हैं क्योंकि वी. वी. जॉन सी आई ए के एजेंट माने जाते थे जैसे सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन \’अज्ञेय\’ जैसे लेखक इत्यादि.
2012 में नवसर्वहारा सांस्कृतिक मंच का जब मैंने पुनर्गठन किया तो उसने नीलाभ को अध्यक्ष और शिव शंकर मिश्र को उपाध्यक्ष का पद दिया था. महासचिव की खोज थी जिसके लिए लोग आगे आना नहीं चाहते थे लेकिन आनंद स्वरूप वर्मा ने बिना किसी पद के साथ-साथ काम करने की सहमति यह कहते हुए दे दी थी कि पता नहीं यहां कब तक टिक पाता हूं क्योंकि जहां-जाता हूं विवाद और विवाद के बाद विदाई ले लेता हूं. मुकेश मानस और अन्य उनके दोस्त स्वयं सेवा तो दे रहे थे किंतु पद लेने के लिए मैं उनसे आग्रह नहीं कर सकता था क्योंकि अनचाहे यदि वे पद ले लेते तो कालांतर में मेरा साथ उनके खिलाफ जा सकता था.
नीलाभ स्वतंत्र और प्रतिबद्ध साहित्यकार थे और जन संस्कृति मंच में मेरे साथ काम कर चुके थे. इसलिए मैंने अध्यक्ष पद के लिए उनसे अनुरोध किया और वे तैयार हो गए. ऐसे में मैंने सोचा की प्रगतिशील लेखक संघ, जनवादी लेखक संघ और जन संस्कृति मंच को नव सर्वहारा, नव सर्वहारा संस्कृति जैसी अवधारणाओं पर बातचीत के लिए एक सम्मेलन बुलाते हैं. जिसमें नामवर सिंह को मैंने मुख्य अतिथि के रुप में आमंत्रित किया था. उन्हें आमंत्रित करने के लिए ओखला के अपने साथियों नरेंद्र और उदय को उनके आवास पर भेजा था. उन्हें नामवर सिंह ने तहे दिल से स्वागत दिया था. बताते हैं कि नामवर सिंह बहुत नजदीकी लोगों को भी चाय से ज्यादा कुछ नहीं खिलाते-पिलाते लेकिन हमारे साथियों को उन्होंने मिष्ठान खिलाया और मुख्य अतिथि के रूप में आने की स्वीकृति दे दी.
इस सम्मेलन में शिव शंकर मिश्र की पुस्तक \’बोलो कोयल बोलो\’ और बलदेव शर्मा की कविता पुस्तक \’घोड़े की आंखें\’ का लोकार्पण करना था. अध्यक्ष मंडल में नित्यानंद तिवारी, नीलाभ और बलदेव शर्मा की बड़ी बहन शामिल थी. मुकेश मानस ने कुछ कविताओं का पाठ किया अपने भाषण में आनंद स्वरूप वर्मा ने नव सर्वहारा की अवधारणा पर अपनी सहमति जताई और जन संस्कृति मंच की ओर से भाषा सिंह ने भी शिरकत की. प्रगतिशील लेखक संघ के सबसे बड़े स्तंभ नामवर सिंह तो मुख्य अतिथि थे ही. जनवादी लेखक संघ की ओर से भी कुछ लोगों ने भाग लिया था जिसमें भगवान सिंह, कांति मोहन इत्यादि उल्लेखनीय हैं.
हॉल खचाखच भरा था और बहुत से लोगों को खड़ा होना पड़ा था. उपस्थिति और व्याख्यान के लिहाज से सम्मेलन सफल रहा किंतु खाने-पीने का इंतजाम कैंटीन वालों ने जितने लोगों के लिए कर रखा था उससे दुगने-तिगुने लोग आ गए थे और खाना तैयार होने में थोड़ी देर भी हो गई थी. नामवर सिंह को जब साथियों ने कहा कि खाना खाकर जाइए तो बोले थे कि हां सिद्धांत कर जी के साथ रोटी जरूर तोडूंगा लेकिन नीचे कैंटीन के पास पहुंचने पर उन्हें इरादा बदलना पड़ा और जिस व्यक्ति को उन्हें घर से लाने और वापस पहुंचाने की जिम्मेदारी थी उससे उन्होंने आग्रह किया कि मुझे घर छोड़ दो. वहां खाने वालों की संख्या देखते हुए शिव शंकर मिश्र जी के पुत्र सुशील मिश्र ने अपनी कार से उन्हें घर पहुंचा दिया. जीवित नामवर सिंह से यह मेरी अंतिम मुलाकात थी और उनकी मृत्यु के बाद लोधी रोड के श्मशान घाट पर उन्हें फूल चढ़ाने में जरूर गया था.
सन्दर्भ
[i]नामवर सिंह का अंध कलावाद
सन्दर्भ
शिवमंगल सिद्धांतकर
शिवमंगल सिद्धांतकर के साथ ज्ञान चंद बागड़ी |
कविता संग्रह : आग के अक्षर, वसंत के बादल, धूल और धुआं, काल नदी, दंड की अग्नि और मार्च करती हुई मेरी कविताएं समेत 15 काव्य संग्रह.
आलोचना : \’अलोचना से आलोचना और अनुसंधान से अनुसंधान\’, निराला और मुक्तछंद, निराला और अज्ञेय: नई शैली संस्कृति, आलोचना की तीसरी आंख आदि
वैचारिक : \’विचार और व्यवहार का आरंभिक पाठ\’, परमाणु करार का सच, New Era Of Imperialism and New Proletarian Revolution, New Proletarian Thought, Few First Lessons in Practice इत्यादि
संपादन : गोरख पांडेय लिखित स्वर्ग से विदाई, पाश के आसपास, आंनद पटवर्धन लिखित गुरिल्ला सिनेमा, लू शुन की विरासत, नाजिम हिकमत की कविता तुम्हारे हाथ, भगत सिंह के दस्तावेज, जेल कविताएं आदि तथा पत्रिकाओं में दृष्टिकोण, अधिकरण, हिरावल, देशज समकालीन और New Proletarian Quarterly आदि उल्लेखनीय हैं.
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ज्ञान चंद बागड़ी
वाणी प्रकाशन से \’आखिरी गाँव\’ उपन्यास प्रकाशित
मोबाइल : ९३५११५९५४०