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Home » परख : इसी से बचा जीवन (राकेशरेणु) : मीना बुद्धिराजा

परख : इसी से बचा जीवन (राकेशरेणु) : मीना बुद्धिराजा

इसी से बचा जीवन राकेशरेणु प्रथम संस्करण-  2019 प्रकाशक- लोकमित्र प्रकाशन,  दिल्ली- 110032 आवरण चित्र- अनुप्रिया मूल्य- रू- 250 \”वे जो महुये के फूल बीन रही थीं फूल हरसिंगार के प्रेम में निमग्न थीं वे जो गोबर पाथ रही थीं वे जो रोटी सेंक रही थीं वे जो बिटियों को स्कूल भेज रही थीं सब […]

by arun dev
February 3, 2019
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इसी से बचा जीवन
राकेशरेणु
प्रथम संस्करण-  2019
प्रकाशक- लोकमित्र प्रकाशन,  दिल्ली- 110032
आवरण चित्र- अनुप्रिया
मूल्य- रू- 250



\”वे जो महुये के फूल बीन रही थीं
फूल हरसिंगार के
प्रेम में निमग्न थीं
वे जो गोबर पाथ रही थीं
वे जो रोटी सेंक रही थीं
वे जो बिटियों को स्कूल भेज रही थीं
सब प्रेम में निमग्न थीं.

वे जो चुने हुए फूल एक-एक कर
पिरो रही थीं माला में
अर्पित कर रही थीं
उन्हें अपने आराध्य को
प्रेम में निमग्न थीं
स्त्रियाँ जो थीं, जहाँ थीं
प्रेम में निमग्न थीं.

उन्होंने जो किया-
जब भी जैसे भी
प्रेम में निमग्न रहकर किया
स्त्रियों से बचा रहा प्रेम पृथ्वी पर
प्रेममय जो है

स्त्रियों ने रचा.\”       

________________________

‘इसी से बचा जीवन’
जीवन वैभव की कविताएँ                               
मीना बुद्धिराजा







अपनी प्रकृति और संरचना के अनुसार संवेदनाओं की सबसे कोमल अभिव्यक्ति कविता में ही संभंव होती है वहीं दूसरी ओर कविता मानवीय मूल्यों के पक्ष में सशक्त प्रतिरोध की भी  पक्षधर है. अपने समय के तमाम अंतर्विरोधों और जोखिम के बीच वह धारा के विरुद्ध जीने का संघर्ष और साहस भी है. कविता मानवता का दीर्घ स्वप्न है और हमारे समय की बची हुई अंतिम विश्वसनीय आवाज़ है. बाज़ार और उपभोक्तावाद के बेतहाशा दबाव और चुनौतियों का सामना करते हुए आज भी कविता एक उम्मीद के रूप में हमेशा स्पंदित है क्योंकि नैतिक मूल्यों के संकंट के इस कठिन-निर्मम समय में भी बाज़ार की शक्तियाँ अभी इसे मलिन और गुमराह नहीं कर सकी हैं. मानवीय संस्कृति की समूची प्रक्रिया का विस्तार कविता में ही जीवंत होकर अनुभुति के स्तर पर घटित होता है.
समकालीन कविता के परिदृश्य में गहरी मानवीय आकांक्षा के ईमानदार फलक से सृजनात्मक संवेदना और बौद्धिक साहस के स्तर पर आज के सरोकारों को मार्मिकता से प्रस्तुत करने में  कवि ‘राकेशरेणु’ एक जरूरी और सार्थक रचनाकार के रूप में उपस्थित हैं. अपने समय, समाज, व्यवस्था, प्रकृति,  संस्कृति और मानवीय चेतना के के गहरे प्रभावों को समझने के लिए उनकी इन कविताओं से गुज़रना जरूरी है. स्मृतियों और बिम्बों में पारदर्शी होकर ये कविताएँ पाठकों के हृदय पर दस्तक देती हैं और काव्य में ढलकर चिरस्थायी बन जाती हैं.
राकेशरेणु  का नवीनतम कविता-संग्रह ‘इसी से बचा जीवन’ शीर्षक से इस वर्ष ‘लोकमित्र प्रकाशन’ दिल्ली से प्रकाशित हुआ है. इन कविताओं का विस्तार जीवन की तरह अपरिमित है और इनमें जीवन से भी कहीं आगे बढ़कर उसकी दूरगामी छाया और प्रभाव है. इसलिए यह कविता-संग्रह एक व्यैक्तिक इकाई की कृति न रहकर अपने समृद्ध राग-बोध और विचार- दृष्टि में सार्वभौमिक रूप ले लेता है. संवेदना-विचारों,  भावों और कला का यह संतुलन तभी संभव है जब कवि जीवन को समग्रता से देखता है और उस पर चिंतन मनन भी करता रहता है. समकालीन कविता के पूर्वनिर्मित दायरे का अतिक्रमण करके ये कविताएँ बेहतर जीवन की खोज करते हुए उसकी सहचर और प्रतिच्छवि की तरह साथ चलती हैं जो पाठकों से भी अनुभव के स्तर पर प्रत्यक्ष सबंध स्थापित करने में पूरी तरह समर्थ हैं. राकेशरेणु की कविताएँ उनकी समकालीन दृष्टि, सरोकारों  और जीवन मूल्यों से उस मानवीय चेतना के धरातल पर जुड़ी हैं जिसमें स्त्री-पुरुष के अस्तित्व में किसी गैर बराबरी और अन्याय के लिए कोई जगह नहीं है.  
एक दाना दो
वह अनेक दाने देगी
अन्न के
एक बीज दो
वह विशाल वृक्ष सिरजेगी
घनी छाया और फल के.
धरती को कुछ भी दो
दोहरा-तिहरा करके लौटाएगी
धरती ने बनाया जीवन सरस ,
रहने-सहने और प्रेम करने लायक
स्त्रियाँ क्या धरती जैसी होती हैं ?




स्त्री-अस्मिता और जीवन के सभी संदर्भों को आज के निर्मम समय में ये विशिष्ट कविताएँ उसकी स्वंतत्र पहचान को स्थापित करने का संवेदनशील प्रयास हैं. स्त्री ही सृष्टि और जीवन का आधार है वह प्रकृति की समरूप है और अपनी सृजनात्मकता में प्रेम और जीवन-राग का आधार है इसमें कोई आश्चर्य नहीं. घर-परिवार से लेकर खेत खलिहानों में मेहनतकश स्त्रियाँ, चींटियों, चिड़ियों तथा शावकों को सुरक्षित और प्रेम से स्पर्श करने वाली शेरनियाँ ये सभी स्त्री के अदम्य साझे संघर्ष और प्रेम का ही प्रतीक हैं. 

स्त्री की गहन-जटिल शक्ति के साथ ही उसके दु:ख की तरलता और त्रासद अनुभवों को भी इन कविताओं में आवाज़ मिली है. ‘अप्सरा’ और ‘संताप’ जैसी कविताओं में परंपरा से लेकर वर्तमान में स्त्री-अस्तित्व के सभी आयाम और दैहिक-मानसिक शोषण की पीड़ा, यौन हिंसा और अत्याचार का दंश झेलने वाली आज की स्त्री भी कवि की व्यापक और सजग दृष्टि के दायरे में हैं. इस पौरूषपूर्ण समाज में कवि उसकी त्रासद विडंबना और व्यथाको स्वयं अनुभव करना चाहता है जो आज के क्रूर समय का भयावह सच है. इस मन:स्थिति के साथपुरुष के अपराधबोध, आत्मग्लानि और कवि की वेदना यहाँ शब्दाकार हो उठती है-

मैं स्त्री होना चाहता हूँ.
वह दुख समझना चाहता हूँ
जो उठाती हैं स्त्रियाँ
जनम से लेकर मृत्यु तक हलाहल पीना चाहता हूँ
मरते हुए जीना चाहता हूँ
जीते हुए मरना
मैं स्त्री होना चाहता हूँ.
बाज़ार और उपभोक्तावाद ने ने स्त्री का इस्तेमाल जिस रूप में किया है उसकी विसंगति यह है कि वह समाज के लिए  स्त्री-देह को मात्र एक विज्ञापन, भौतिक साधन और वस्तु के रूप में प्रस्तुत कर रहा है. मीडिया और टेलिविजन स्क्रीन पर स्त्री की अस्मिता सिर्फ एक यौन सापेक्ष उत्पाद और दैहिक सौंदर्य का प्रतीक है जो युवा पीढी के लिए अनुकरणीय होने के कारण कवि की गंभीरमानवीय चिंता के रूप में व्यक्त होता है. यह अनुभव और यथार्थ का ऐसा वर्तमान सच है जिसमें इस स्त्री विरोधी मानसिकता के विरुद्ध स्त्रियों की बौद्धिक भागीदारी और दखल का होना जरूरी है. घर-परिवार की स्त्री की आत्मगरिमा और स्वाभिमान के प्रति कवि की दृष्टि गहरी और सजग है तथा   स्त्री स्वतंत्रता को व्यापक संदर्भों में देखने का प्रयास है-

हम देखना चाहते हैं जो वहाँ नहीं होता

हम समझना चाहते हैं चीज़ें
गतिविधियाँ समझ नहीं पाते
हम अपने बच्चों को देखते हैं चुंधियाई आँखों से
उनकी माँएं बदले में निर्निमेष देखती हैं हमारा चेहरा.
अचानक उठती है हमारे घर की सबसे छोटी मछली
कैटवाक करती है बीच-बीच में सेल्फी लेती
हमने ही रची है यह दुनिया उनके लिए
उनके लिए 
समकालीन बदलते वक्त में जहाँ हमारी पंरपराएँ, स्मृतियाँ और विश्वास बदले हैं  और मानवीय मूल्य विश्रृंखलित हुए हैं तब ये कविताएँ उस भरोसे और आत्मीय संबंधों को फिर से स्थापित करना चाहती हैं जिनकी आज सबसे अधिक क्षति हुई है. ‘दशरथ माँझी’ कविता में पहाड़ जैसे संकल्प और जीवट के साथ अदम्य संघर्ष, रमजान चचा, नज़ीर अकबराबादी के लिए जैसी  कविताओं में गहरी अंतर्दृष्टि में उभरने वाली कवि की मानवीय उदात्तता  और सामाजिक संबंधो की अर्थ सघनता पाठको से भी संवेदना के स्तर पर भावात्मक रिश्ता कायम कर लेती हैं. अपने समय के हादसों को पहचानते हुए खामोशी और चीख के बीच भयावह अनुभवों और आंतरिक शून्य को समेटते  हुए विनाश के कगार पर खड़ी दुनिया के माध्यम से ‘बदलते विश्व के बारे में \’भय\’ और ‘पढ़ने निकले बच्चे’ शीर्षक कविताएँ अपने भीतर के मानवीय दुख को उघाड़ देती हैं जिसमें बाज़ार मानों हमारे सामने ही इस सुंदर सृष्टि को बिल्कुलबदल देगा और भविष्य एक दु:स्वप्न की तरह आता दिखेगा-
एक दिन सब संगीत थम जाएगा
सभागारों के द्वार होंगे बंद
वीथियाँ सब सूनी होंगी
सारे संगीतज्ञ हतप्रभ और चुप
कवियों की धरी रह जाएंगी सारी कविताएँ
उस दिन पूरी सभ्यता बदल दी जाएगी दुनिया की.
      
इस समय में लोकतंत्र के नाम पर सत्ता संरचनाओं के कुटिल छदम और व्यवस्था के विरोधाभासों पर तीव्र प्रहार करती ‘उत्तर सत्य’ शीर्षक कविताऔर समकालीन अवसरवादी- विसंगत राजनीति के विकल्पहीन परिवेश पर गहरा व्यंग्य करते हुए ‘विध्वंस’ ‘राजनेता’, ’फैसला’ और ‘अँधेरे समय की कविता’ जैसी कविताएँ कवि की प्रखर टिप्पणी के रूप में उनकी सजग-गंभीर दृष्टि का प्रमाण हैं. ’चुपचाप’ और ‘प्रतीक्षा’जैसी सघन कविताएँ पृथ्वी, प्रकृति और प्रेम के लिए कवि की संवेदनाओं के कोमल उदगार हैं जिनमें सौंदर्य और उम्मीद दोनो हैं-
यह ध्यान की सबसे जरूरी स्थिति है
पर उतनी ही उपेक्षित
निज के तिरोहन
और समपर्ण के उत्कर्ष की स्थिति
कुछ भी उतना  महत्वपूर्ण  नहीं
जितनी प्रतीक्षा
प्रियतम के संवाद की, संस्पर्श की
मुस्कान की प्रतीक्षा.
आधुनिकता के अहंकार में प्रकृति और पर्यावरण के आगे जूझने वाली मानवीय संवेदना राकेश रेणु की कविताओं की विशिष्टता है. ‘शुभकामनाएँ’ शीर्षक चार कविताएँ इसी की संवेदनशील अभिव्यक्ति हैं जिनमें मानवीय संबंधों औरप्रकृति के प्रति आदर और कृतज्ञता बोध है तथा उसमें मनुष्य के अनैतिक दखल का अपराध बोध भी. कवि उसके मूल-सुंदरतम रूप और मानवता के लिए अपनी भावनाएँ \’जड़ें’ कविता में पूरी सृष्टि को जो प्रेम की नमी से सिंचित है उसे सभ्यता की श्रेष्ठतम उपलब्धि के रूप में स्वीकार करता है. जीवन के मार्मिक प्रसंगों और संबंधों पर कवि की गहरी नज़र है जिसमें माँ के साथ स्नेह-सिक्त आत्मीयता को एक उज्ज्वल जातीय परंपरा के रूप में देखते हुए उसका होना जैसे एक सांत्वना, संरक्षण और दुख-निराशा के क्षणों में गहन आश्वस्ति के समान है. इस दृष्टि से \’अबजब कि तुम चली गई हो माँ’ और ‘माँ का अकेलापन’ शीर्षक सघन सांद्र बिम्बों की उत्कृष्ट कविताएँ हैं जहां कवि की शब्द- संपदा दृश्यों और संवेदनाओं के एक व्यापक फलक पर पाठकों को खड़ा कर देती हैं.
प्रकृति और मानवीय जीवन के अटूट संबंध और विस्तार के विविध सुख-दु:ख,  हर्ष- विषाद, प्रेम और पीड़ा के अनेक चित्र ‘लहरें’ कविता में खूबसूरती से आते हैं जिनमें प्रेम में उठती-गिरती,  टूटती लहरें जीवन का प्रतीक बनकर नश्वरता में ही अनश्वर की खोज करती हैं –
ये शोर कैसा
कैसा ये हाहाकार
कहाँ से फूटती है चीत्कार?
उस अगम क्षितिज से फूटती लहरें
लहरों की बेचैनी से क्या समझा जा सकता है
संगम की अतृप्ति का दुख
मिलन के बोध में बिछोह का क्षोभ ?
वस्तुत: इन सभी कविताओं का आधारभूत तत्व जीवन के प्रति उत्कट प्रेम है जिसे एक विस्तृत कैनवास पर विविध रूपों में अभिव्यक्त किया गया है. सृजन की बेचैनी ने प्रेम की गहरी संवेदना को कवि ने मानवीय जीवन,  प्रकृति और संस्कृति के साथ जिस रागात्मक संबंध में जोड़ा है वह यहाँ अतुलनीय है. प्रेम अपने व्यापक रूप में जैसे दो विरुद्धों का सामंजस्य और असंभव में भी संभव की खोज है. क्षितिज के इंद्रधनुष से लेकर छोटे-छोटे सुखों और अनुभवों में भी यह जीवन की उष्मा की तलाश है जिनसे अतंत: बचा रहेगा जीवन. इसलिए कवि का मानना है कि लौटना बुरा नहीं है यदि लौटा जाए जीवन की तरफ जिसमें गति हो,  प्रवाह हो और जिसमेंनया रचने की अनंत संभावनाएँ हैं. उसके लिए कविता में बार-बार वापस आना जैसे अपने घर में और सुरक्षित पनाह में लौटना है. वह अथाह प्रेम जिसने स्त्री, प्रकृति और  मानव- संस्कृति की रचना की,जो सभ्यता,कला- संगीत,  सौंदर्य का स्त्रोत है कवि को उस अद्भुत सृजन शक्ति में ही कविता की उर्वर संवेदना की प्रतिछवि दिखाई देती है –
तुम्हें प्यार करता हूँ
क्योंकि तुम पृथ्वी से प्यार करती हो
मैं तुम में बसता हूँ
क्योंकि तुम सभ्यताएँ सिरजती हो.
एक ऐसे समय में जहाँ संवेदना और वैचारिकता का आकाश और आपसी संबंधों का स्थान निंरतर सिकुड़ता जा रहा है इसी को बचाना-बनाना ही आज कविता की चुनौती है. कविता हमेशा कवि की आत्मीय दुनिया का विस्तार करके एक ज्यादा बृहत्तर जीवन की खोज करती है. बाज़ार के इस नये दौर में जब उपभोग के लिए प्रत्येक सर्जना और कला को आत्मकेंद्रित कर उसके वास्तविक संदर्भों से अपदस्थ करकेसिर्फ एक उत्पाद के रूप में बदल देने के कुटिल प्रयास चल रहे हैं. तब कविता अन्याय के खिलाफ नैतिक प्रतिरोध की भूमिका को बचाए रखती है जहाँ मनुष्य होना ही पहली शर्त है. ‘राकेशरेणु’  का यह कविता-संग्रह भी तमाम निराशा,  हताशा,  शून्यता, अंधेरे और विस्मृति के विरुद्ध प्रतिबद्धता के दायित्व, संघर्ष और जीवन को बचाए रखने की नयी संभावनाओं के साथ समकालीन कविता में एक सार्थक-सशक्त उपस्थिति है जिसमें भविष्य के लिए प्रेम, उम्मीद और स्वप्न हैं. हिंदी के प्रसिद्ध और वरिष्ठ कवि ‘भारत यायावर’ ने इस पुस्तक की भूमिका में अपनी भावनाओं को इस प्रकार शब्दबद्ध किया है-
“राकेशरेणु एक जरूरी कवि हैं. धरती, हवा और जल की तरह उनकी कविताएँ जीवन के आधार और आवश्यकता की उन तमाम शिराओं को अवलंब देती है जिनकी चेतना से समकालीन जीवन का वैभव वंचित है. उनकी कविताएँ सहजता के छंद में संवेदनाओं और विचारों की सजीव और प्रासंगिक अभिव्यक्ति का प्रमाण हैं. ‘इसी से बचा जीवन’ में कवि की अनुभवपगी आँखे नये अन्वेषण की प्रेरणा देती हैं. इस परिपक्व कवि की भाषा-संरचना में अंतर्निहित शब्दकौशल की व्यंजना चमत्कृत करती है.”
इस संग्रह की कविताएँ एक साथ जीवन मूल्यों और कला का स्तर निश्चित करती हैं. जिसमें नये सवालों के प्रति जिज्ञासा और परख में कवि की अभिव्यक्ति का साहस और विवेक भी नये सौन्दर्य बोध के साथ प्रस्तुत हुआ है. पुस्तक का आवरण चित्र युवा कवि-चित्रकार अनुप्रिया ने बहुत कलात्मक रूप से तैयार किया है. आज कविता के पाठकों के लिए सच्ची कविता एक गहरी साँस की तरह जरूरी है जिसमें जीवन और मनुष्यता के सरोकार हों. इस दृष्टि से राकेशरेणु का यह कविता- संग्रह अपने शब्दों के आत्मीय, स्वाभाविक आकार-रूप में खुद ढलता है जिसमें उन्होनें अकारण बीच में अपने को न लाते हुए स्वंय कविता को ही बोलने दिया है. कविता में कृत्रिमता और शाब्दिक-छल से दूर रहकर पाठकों तक उन्हें अनायास पहुंचने दिया है. 

इन कविताओं की अंत:संरचना जीवन की उदात्तता और प्रकृति की उर्वरता से स्पंदित है जिनमें एक स्पष्ट मानवीय आग्रह है. समकालीन कविता की यात्रा में अपनी अलग पहचान और मुकाम बनाते हुए यह कविता संग्रह बेहद पठनीय और सार्थक-सृजन का हस्तक्षेप है.
 ________________

मीना बुद्धिराजा
प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ, लेख तथा समीक्षाएँ प्रकाशित.
संपर्क- 9873806557
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