• मुखपृष्ठ
  • समालोचन
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • वैधानिक
  • संपर्क और सहयोग
No Result
View All Result
समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • संस्मरण
    • आत्म
    • अन्यत्र
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फिल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • संस्मरण
    • आत्म
    • अन्यत्र
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फिल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
No Result
View All Result
समालोचन

Home » परख : छोटू उस्ताद (कहानी संग्रह) : स्वयं प्रकाश

परख : छोटू उस्ताद (कहानी संग्रह) : स्वयं प्रकाश

छोटू उस्ताद (कहानी संग्रह) स्वयं प्रकाश किताबघर प्रकाशन, दिल्ली मूल्य– 200/–  कहानीमें अपने समय की विडम्बनाएं पल्लव स्वयं प्रकाश ऐसे कथाकार हैं जो कहानी में कथ्य की सम्प्रेषणीयता के लिए लगातार प्रयोगशील रहे. प्रगतिशील–जनवादी कथाकारों में इस लिहाज से वे विशिष्ट हैं कि यथार्थवादी आग्रहों के बावजूद कहानी की कलाधर्मी जरूरतों पर वे कमजोर नहीं पड़ते. […]

by arun dev
November 1, 2015
in Uncategorized
A A
फेसबुक पर शेयर करेंट्वीटर पर शेयर करेंव्हाट्सएप्प पर भेजें




छोटू उस्ताद
(कहानी संग्रह)
स्वयं प्रकाश
किताबघर प्रकाशन, दिल्ली

मूल्य– 200/– 




कहानीमें अपने समय की विडम्बनाएं 
पल्लव

स्वयं प्रकाश ऐसे कथाकार हैं जो कहानी में कथ्य की सम्प्रेषणीयता के लिए लगातार प्रयोगशील रहे. प्रगतिशील–जनवादी कथाकारों में इस लिहाज से वे विशिष्ट हैं कि यथार्थवादी आग्रहों के बावजूद कहानी की कलाधर्मी जरूरतों पर वे कमजोर नहीं पड़ते. स्वयं प्रकाश ने आम तौर पर सामान्य लम्बाई की कहानियां लिखीं और कभी कभी कुछ लम्बी कहानियां भी लेकिन इधर आया उनका नया कहानी संग्रह ‘छोटू उस्ताद’ छोटी छोटी कहानियों का गुलदस्ता है. इस संग्रह में उनकी लिखी दो दर्जन से अधिक कहानियां हैं और अधिकांश असंकलित–अप्रकाशित. देखने की बात यह है कि एक समय प्रगतिशील उत्साह से भरे इस वामपक्षधर कथाकार का नये समय को देखने का नजरिया क्या है? संग्रह की शुरुआती कहानी है-‘आल द बेस्ट’, जिसमें कथावाचक एक युवा से संवाद कर रहा है जिसे झटपट कैरियर बनाना है, वाचक उसे नये जमाने के सम्भावित आसान कैरियर की चर्चा करता है जिनमें राजनीति, अपराध, सायबर हैकिंग, ज्योतिष और एनजीओबाजी के बाद वह अन्त में धर्म और अध्यात्म तक पहुंचता है तब देखिए– ‘जीवन में तनाव बहुत है. कुंठा है. असन्तोष है. कोई कन्धा नहीं जिस पर सिर रखकर दो घड़ी रो सकें. समाज के सदस्यों का खयाल समाज रखता है. नागरिकों का खयाल सरकार रखती है. जब कोई सामाजिक या नागरिक बचेगा ही नहीं, सब मात्र उपभोक्ता हो जाएंगे तो उपभोक्ता का खयाल कौन रखे? बाजार! तो तुम हो जाओगे ख्याल रखने की दुकान. तुम सिखाओगे जगत को आर्ट आफ़ फ़ूलिंग.’ 
स्वयं प्रकाश 

यह है कथाकार की साफ़ नजर जो पाठक को महज उपभोक्ता हो जाने से सावधान करना जानती है. एक और कहानी ‘सुलझा हुआ आदमी’ में स्वयं प्रकाश एकल संवाद की शैलीमें हैं – ‘कहता है भीतर जाकर मैंने क्या देखा? कि दुनिया के मजदूरों को एक होने का आवाहन करने वाले खुद एक नहीं हैं. संगठित नहीं हैं. …… मैं कहता कि धर्म? दहेज? शिक्षा? आबादी? भाषा? तो कहते क्रान्ति के बाद सब ठीक हो जाएगा. आप क्या उम्मीद करते थे? आप मेरे प्रश्नों के उत्तर नहीं देंगे फ़िर भी मैं आपका वफ़ादार सिपाही बना रहूंगा और आपके इशारे पर नाचता रहूंगा?’ आगे जहां कहानी खत्म हो रही है वहां का संवाद है–
‘जरा किताबों से बाहर निकलो यार! जमाना कितना बदल गया है! तुम्हें मेरे टाई लगाने पर एतराज है,एसी कार पर एतराज है,फ़ाइव स्टार होटल में जाने पर एतराज है,हवाई जहाज से यात्रा करने पर एतराज है. समझ में नहीं आता तुम लोगों ने गरीबी को इतना ग्लैमराइज क्यों कर रखा है? क्या वह कोई गले लगाने लायक चीज़ है? साइंस और टेक्नोलाजी हमारी दुश्मन कैसे हो सकती हैं जी?’ यह कहानी ‘बहुत कहने’ वालों और कुछ भी न करने वालों पर बारीक व्यंग्य है. सोवियत पराभव के बाद साहित्य के प्रगतिशील मोर्चे में पस्ती जरूर आई लेकिन कुछ रचनाकारों ने भीतर और बाहर के मनुष्य विरोधी उपक्रमों की पहचान करने का रास्ता चुना. विमर्शों को फ़ैशन और आरक्षण – दोनों अतिवादों से देखा गया लेकिन स्वयं प्रकाश विमर्शवाद की सीमा दर्शाते हैं. 

यहां वे चुहल और अपने ठेठ अन्दाज़ में कहानी रचते हैं कि पाठक कथा के आनन्द से वंचित न हो. ‘बाबूलाल तेली की नाक’ में वे अस्मिताई आग्रहों की खबर लेते हैं. लोककथा के अन्दाज से कहानी चलती है. एक मामूली आदमी बाबूलाल तेली किसी झगड़े में खामख्वाह उलझ जाते हैं और एक शक्तिशाली आदमी उनकी नाक पर घूंसा मार देता है. जाहिर है ‘समाज’ उनकी चिन्ता करता है और अन्तत: स्थिति यह आ जाती है-‘तुम चिन्ता मत करो. तुम्हारी नाक अब तुम्हारी नाक नहीं,समाज की नाक है. चाहे जितना खर्च आए,समाज उसकी व्यवस्था करेगा. हम तुम्हारा अच्छे से अच्छा इलाज करवाएंगे. पर एक बात बताओ. हो तो तेली ही न? कोई और तो नहीं हो?’ यह है हमारे समय की मानव सूचकांक की प्रगति. जिस महान स्वतन्त्रता आन्दोलन के मूल्यों से हमारा राष्ट्र बना था उसे इस तरह तिरोहित होते जाना भयानक विफ़लता है और यह विडम्बना है कि अस्मिताई आग्रह इसमें साझीदार हैं. एक रचनाकार जिस मर्म के साथ ऐसे संकुचनों से आगाह कर सकता है समाज विज्ञानी नहीं. इन्तिहा तो देखिए –‘कोई महीने भर बाद बाबूलाल तेली मुम्बई से लौटे तो एकदम चंगे होकर,बल्कि कुछ हट्टे–कट्टे भी होकर्. चलते–फ़िरते,खाते–पीते. बस, एक जरा सी बात थी. सूखी–सड़ी, बासी पकौड़े जैसी,कैसी भी सही,जाते समय चेहरे पर एक नाक थी,आते समय नहीं थी. उसे काटकर फ़ेंक देना पड़ा था. नाक की जगह सिर्फ़ दो सूराख रह गए थे.’

कहानी का लोककथा बन जाना किसी भी कथाकार के लिए उपलब्धि है. यहां एक कहानी ऐसा ही स्वाद देती है जिसमें खेत और पगडंडी आपस में बात करते हैं. ‘बिछुड़ने से पहले’ शीर्षक से लिखी यह कहानी विकास की महानता का प्रत्याख्यान रचती है. खेत और पगडंडी की बातें चल रही है और खेत उन दिनों की कल्पना कर रहा है जब पगडंडी की जगह सड़क बन जाएगी – जमीन के भाव बढ जाएंगे. दुकानें निकल जाएगी. गरम गरम जलेबी छनेगी. पगडंडी का जवाब है-‘जलेबी खाएगा मरजाना. हवस देखो इसकी. पता पड़ेगी जब होएगा.’ हवस शब्द दिनों बाद कहानी में आया है और देखिए तो खाने के प्रसंग में. ध्यान से देखें तो यह बात मामूली नहीं है विकास की हवस से जो निकल रहा है वह क्या है? विस्थापन. गरीबी. विनाश. कथाकार इशारे में सब कह दे रहा है.

इस नये दौर में बूढों और लड़कियों की भी खबर इन कहानियों में है. एक बड़ा भ्रम ग्लोबलाइजेशन से निकली सम्पन्नता के साथ फ़ैलाया गया है कि यह नया पूंजीवाद अपनी सम्भावनाओं को विकसित करने के अवसर देता है क्योंकि उत्पादन में सबकी भागीदारी आवश्यक है. स्वयं प्रकाश इस भ्रम को तोड़ते हैं ‘लड़कियां क्या बातें कर रहीथीं?’ और ‘अकाल मत्यु’ इसकी गवाही देती हैं. ऐसे ही कुछ और सरलीकरणों से स्वयं प्रकाश लड़ते हैं जैसे साम्प्रदायिकता. दंगे और हिंसा रोज की बात नहीं है लेकिन रोज़मर्रा के जीवन में साम्प्रदायिकता कैसे घुसी हुई है और वह किस तरह एक सामान्य मनुष्य की सम्भावनाओं को कुन्द करती है इसका उदाहरण ‘चौथा हादसा’ है. यहां हबीब का कह देना कि ‘एलान कर दो कि हिन्दुस्तान सिर्फ़ तुम्हारे बाप का नहीं है. वह हमारे बाप का भी है.’ अब जैसे केवल कहानी में ही मुमकिन है. ‘हत्या-2’ में भी साम्प्रदायिकता केभीतरी कलुष का चित्र आया है. बहुत दिनों बाद किसी कहानी संग्रह में बच्चों और बचपन पर कहानियां आई हैं जैसी इस संग्रह में हैं. ‘हत्या-1’, ‘हत्या-2’, ‘द ग्रेट इंडियन कुश्ती’, ‘अमीर नेहरू– गरीब नेहरू’, ‘सांत्वना पुरस्कार’, ‘अकाल मत्यु’, ‘गणित का भूत’, ‘आखिर चुक्कू कहां गया?’ स्वयं प्रकाश की अपनी शैली में लिखी गई वे कहानियां हैं जिनमें बचपन के मीठे प्रसंग हैं. 

अभावपूर्ण जीवन के बीच रोमांच की जगह बनाती इन कहानियों में भारतीय मध्य वर्ग के हार्दिक चित्र भी हैं जब समाज से समूहिकता और पारस्परिकता के लिए पर्याप्त सम्मान और स्थान बचा हुआ था. हत्या-1 में कथावाचक का शेर के स्वभाव की हत्या पर एक बच्चे का रोना ट्रेजडी की रचना करने में सफ़ल है. ‘द ग्रेट इंडियन कुश्ती’ प्रेमचन्द के बालक चरित्रों की याद दिलाने वाली है. दो बच्चे अपने से कहीं मजबूत एक दूसरे बच्चे की छाती पर सवार हैं और मदद के लिए पुकार रहे हैं कि यह उठ गया तो हमें मारेगा. ‘सांत्वना पुरस्कार’ किशोरावस्था के आकर्षण का चित्र है तो ‘अमीर नेहरू– गरीब नेहरू’ जैसे बीते दौर की विलुप्त सामूहिकता का गीत. ‘गणित का भूत’ और ‘आखिर चुक्कू कहां गया?’ भी ऐसे ही प्रसंगों से बनी हैं. इन कहानियों के बीच ‘अकाल मत्यु’ को पढना एक अनूठी कहानी को पढना है जो एक तरफ़ बचपन की हत्या का मर्सिया है तो दूसरी तरफ़ इम्मी के बहाने हमारी व्यवस्था पर टिप्पणी. अच्छी बात यह है कि कहानी अपनी तरफ़ से एक शब्द भी नहीं कहती और पाठक व्यवस्था की विफ़लता की सटीक व्याख्या कर लेता है.

संग्रह में परिवार और पारिवारिकता से सम्बन्धित कुछ कहानियां हैं. जानना रोचक होगा कि नये समय में प्रगतिशील कथाकार इस संस्था को किस तरह देख रहे हैं. ‘एक खूबसूरत घर’ कहानी थोड़े पुराने दिनों की लगती है जब मोबाइल नहीं आया था. एक दिन घर के मुखिया के दफ़्तर से लौटने में अधिक देर हो जाने पर एकल परिवार की चिन्ताएं पाठक को दिलासा देती लगती हैं कि इस क्रूर और स्वार्थी समय में मनुष्य के पास अगर इस एक संस्था का सहारा भी है तो यह छोटा सम्बल नहीं. ऐसे ही नये जमाने के परिवार का चित्र ‘लाइलाज’ में आया है जब कथावाचक परिवार के सदस्यों की अनुपस्थिति में अपने घर को देखता है और वहां फ़ैली अव्यवस्था से कुढता है. यहां एक टिप्पणी है-‘शायद विक्टोरिया युग के अदब–लिहाज और औपचारिकता का इसी तरह सत्यानाश किया जा सकता है. पर मैं कहता हूं उसकी जगह भारतीय संयम और सादगी को बिठाने की बजाय अमरीकी अय्याशी और उज्जडपन को बिठाने का क्या तुक है?’ बुजुर्ग दम्पत्ति पर लिखी कहानी ‘लड़ोकन’ वैश्विक व्यवस्था के सुनहरे दौर में समाज के इस बड़े हिस्से की बात करती है. विचारणीय है कि जिस युवा भारत पर हम इठला रहे हैं बीस–पच्चीस साल बाद जब यह बुजुर्ग भारत में बदलेगा तो उसके लिए हमारी क्या तैयारी है? आज भी ओल्ड हाउस हमा्री सामाजिक व्यवस्था में कोई स्थान नहीं बना पाए. ये बूढे और बीमार लोग क्या मौत का इन्तजार करने के लिए अभिशप्त हैं? समाज के लिए इनका कोई महत्त्व नहीं? ‘आदरबाजी’ इस व्यथा को बहुविध देख सकी है– ‘धीरे धीरे तुम्हें इन कन्सेशंस की आदत पड़ जाएगी और काम करने की बची–खुची आदत भी छूटती जाएगी. तुम रह–रहकर जवानों से ईर्ष्या करोगे और हर नई चीज़ को घटिया और स्तरहीन कहकर कोसोगे.’

एक संग्रह में आधी कहानियां भी ऐसी मिल जाएं जिन्हें पढकर पाठकीय सन्तोष का अनुभव होता हो तो यह संग्रह इस कसौटी पर कहीं आगे है. स्वयं प्रकाश इन कहानियों को बुनते हुए जिस तरह समाज–देश–काल की व्याख्या करते जाते हैं वह एक ऐसे कथाकार का ही कौशल है जो रचना और विचारधारा के सम्बन्ध को भलीभांति जानता हो. ये कहानियां अगर कोरे राजनीतिक बयान बनकर रह जाने से बची हैं तो इसका कारण है बतकही की चुहल और गपबाजी के अन्दाज के साथ बीच बीच में कथाकार ऐसे वाक्य लिख जाते हैं जो देर तक स्मति में बने रह सकें– ‘दिल को कौन पूछता है मितवा! विकास तो होके रहेगा.’ 
________

पल्लव 
393 डी.डी.ए., ब्लाक सी एंड डी
कनिष्क अपार्टमेन्ट, शालीमार बाग़
नई दिल्ली-110088
08130072004/ pallavkidak@gmail.com
ShareTweetSend
Previous Post

विष्णु खरे : एक जन्मशती की भ्रूणहत्या

Next Post

बोली हमरी पूरबी : प्रफुल्ल शिलेदार (मराठी कविताएँ )

Related Posts

गांधीजी का पुन: पदार्पण: जयप्रकाश चौकसे
विशेष

गांधीजी का पुन: पदार्पण: जयप्रकाश चौकसे

गांधी और ब्रह्मचर्य: रुबल से के. मंजरी श्रीवास्तव की बातचीत
विशेष

गांधी और ब्रह्मचर्य: रुबल से के. मंजरी श्रीवास्तव की बातचीत

गांधी में कौन से गांधी को हमें तलाशना है: राजेंद्र कुमार
विशेष

गांधी में कौन से गांधी को हमें तलाशना है: राजेंद्र कुमार

अपनी टिप्पणी दर्ज करें Cancel reply

समालोचन

समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

  • Privacy Policy
  • Disclaimer

सर्वाधिकार सुरक्षित © 2010-2022 समालोचन | powered by zwantum

No Result
View All Result
  • समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • आलोचना
    • आलेख
    • अनुवाद
    • समीक्षा
    • आत्म
  • कला
    • पेंटिंग
    • फिल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • शिल्प
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • संपर्क और सहयोग
  • वैधानिक