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Home » परख : सृष्टि पर पहरा : केदारनाथ सिंह (कविता संग्रह)

परख : सृष्टि पर पहरा : केदारनाथ सिंह (कविता संग्रह)

समीक्षा : कुमार मुकुल सृष्टि पर पहरा :  केदारनाथ सिंह गजानन माधव मुक्तिबोध, शमशेर बहादुर सिंह, केदारनाथ अग्रवाल, नागार्जुन और त्रिलोचन के बाद जिन कवियों ने हिन्‍दी में नयी जमीन तोडी है उनमें रघुवीर सहाय, केदारनाथ सिंह और कुंअर नारायण प्रमुख हैं. इनमें रघुवीर सहाय जहां इस जनतंत्र में तंत्र की भूमिका को आलोचनात्‍मक ढंग […]

by arun dev
April 10, 2014
in Uncategorized
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समीक्षा : कुमार मुकुल
सृष्टि पर पहरा :  केदारनाथ सिंह

गजानन माधव मुक्तिबोध, शमशेर बहादुर सिंह, केदारनाथ अग्रवाल, नागार्जुन और त्रिलोचन के बाद जिन कवियों ने हिन्‍दी में नयी जमीन तोडी है उनमें रघुवीर सहाय, केदारनाथ सिंह और कुंअर नारायण प्रमुख हैं. इनमें रघुवीर सहाय जहां इस जनतंत्र में तंत्र की भूमिका को आलोचनात्‍मक ढंग से अपनी कविता के केन्‍द्र में रखते हैं वहीं केदारनाथ सिंह इस लोकतंत्र में लोक की चेतना को उसकी सादगी, स्‍फूर्ति और उसके विस्‍मयबोध के साथ पुनर्आविष्‍कृत करते हैं और कुंअर नारायण उसकी ऐतिहासिक स्‍मृतियों के सबल पक्ष को आलोचनात्‍मक पृष्‍ठभूमि में रचते हैं.
‘सृष्टि पर पहरा’ वरिष्‍ठ कवि केदारनाथ सिंह का आठवां कविता संग्रह है. केदार जी के बाकी संग्रहों की तरह यह भी जीवन के विविध रंगों, ध्‍वनियों और अनुभूतियों का जीवंत संग्रह है. जीवन में हर पल पैदा होते स्‍पंदनों को, राग-विरागों को केदार जी सहज ढंग से सामने रखते जाते हैं, अपनी ओर से बिना किसी रंग-रोगन के. यही उनकी ताकत है. यूं यह सहजता भाषा में अर्जित करना उतना ही कठिन है, उसके मुकाबले कि जिस सहजता से  पढते समय वे हमारी स्‍मृति का अंग बनती जाती हैं.
केदार जी भोजपुरी भाषी हैं और उनकी भोजपुरी बलिया, छपरा की वह मीठी भोजपुरी है जो अपनी मिठास में मैथिली का मुकाबला कर सकती है, यह मिठास केदार जी के व्‍यक्तित्‍व का भी एक हिस्‍सा है. एक सरल सी आत्‍मीयता जो उनकी कविताओं में भी बारहा मिलती है, आपको धीरे-धीरे अपने साथ लेती चलती है और फिर जीवन जगत के अपने अनुभवों को आपसे साझा करती है और आप बच्‍चों की तरह विस्मित आंखें फाडें उन्‍हें देखते जाते हैं और मजेदार यह कि कवि भी बच्‍चों की तरह विस्‍मय की भाषा में ही अपनी बात आपसे कहता है.
अपनी एक कविता ‘भोजपुरी’ में केदार जी लोकभाषा भोजपुरी के सकारात्‍मक पक्ष को जिस संवेदनशीलता के साथ सामने रखते हैं वह अनोखा है –
‘लोकतन्‍त्र के जन्‍म से बहुत पहले का
एक जिन्‍दा ध्‍वनि-लोकतन्‍त्र है यह
जिसके एक छोटे से ‘हम ’ में
तुम सुन सकते हो करोडों
‘मैं ’ की घडकनें

किताबें .
जरा देर से आईं..
इसलिए खो भी जाएं
तो डर नहीं इसे
क्‍योंकि जबान –
इसकी सबसे बडी लाइब्रेरी है आज भी

कभी आना मेरे घर
तुम्हें सुनाऊंगा
मेरे झरोखे पर रखा शंख है यह
जिसमें धीमे-धीमे बजते हैं
सातों समुद्र.‘
लोक की और लोकभाषा की, जिसे अक्‍सर बोली कहकर हम सीमित करने की कोशिशें करते हैं, ताकत और व्‍यापकता को यहां जिस तरह से केदार जी ने सामने रखा है वह महत्‍वपूर्ण है. यह कविता मात्र भोजपुरी की ही बात नहीं करती यह तमाम लोकभाषाओं की जरूरत की भी वकालत करती है जिसकी अंग्रेजी से लडने के तर्क से हम उपेक्षा करते हैं और भूल जाते हैं कि हिन्‍दी की सारी थाती इन्‍हीं लोकभाषाओं की देन है. जिस लोक की ताकत से यह तंत्र चलता है वह इन्‍हीं लोकभाषाओं और उसके धारकों की जबान से अपनी प्रासंगिकता को सिद्घ करता है. इस लोकजनसमुद्र की व्‍यापकता का भी बोध कराती है यह कविता, कि ये लोकभाषाएं ही वह शंख हैं जिसमें तमाम क्षेत्रों का जनसमुद्र धीमे-धीमे बजता है. इस लोकधुन की उपेक्षा कर कोई लोकतंत्र विकसित नहीं हो सकता.
देखा जाए तो केदारनाथ सिंह की तमाम कविताएं इन्‍हीं लोकभाषी जन की बातें करती हैं. ‘कपास के फूल’ ,’कवि कुम्‍भनदास के प्रति’, ’हिन्‍दी’ आदि कविताएं इसी लोकजन की ताकत और मिजाज को कई तरह से अभिव्‍यक्‍त करती हैं.
‘वह जो आपकी कमीज है
किसी खेत में खिला
एक कपास का फूल है’.‘
या
‘’संतन को कहा सीकरी सों काम ’
सदियों पुरानी एक छोटी-सी पंक्ति
और इसमें इतना ताप
कि लगभग पांच सौ वर्षों से हिला रही है हिन्‍दी को ’
या
‘कि राज नहीं-भाषा
भाषा-भाषा सिर्फ भाषा रहने दो मेरी भाषा को
अरबी-तुर्की बांग्‍ला तेलुगू
यहां तक कि एक पत्‍ती के हिलने की आवाज भी
मैं सब बोलता हूं जरा-जरा
जब बोलता हूं हिन्‍दी ‘ .
केदार जी की कविता लोक के जीवट को तमाम तरह से अभिव्‍यक्‍त करती है. यहां तक कि आधुनिक तकनीक के संदर्भ भी जब केदारजी की कविता में आते हैं तो वे भी लोक की संवेदना को ही इंगित करते हैं. जैसे ‘घास’ कविता में घास लोक जनों का ही प्रतीक है क्‍योंकि केदार जी के शब्‍दों में ‘ दुनिया के तमाम शहरों से खदेडी हुई, जिप्‍सी है वह ’ और वे उसके धुंधले ‘मिस्‍ड-काल’  मोबाइलों में देखने की बात करते हैं. हालांकि वे इस घास की कभी भी कहीं से भी उग आने की खूबसूरत जिद को भी जानते हैं. आम जन की इस ताकत और जिद को घास के माध्‍यम से अपनी अपनी तरह से अमेरिकी कवि कार्ल सैण्‍डूबर्ग, पोलिश  कवि ताद्युश रोज़ेविच  और पंजाबी कवि अवतार सिंह पाश ने भी अभिव्‍यक्‍त किया है.
केदारनाथ सिंह
‘कभी भी…
कहीं से भी उग आने की
एक जिद है वह’.
कार्ल सैण्डूबर्ग
‘इन सड़ती लाशों का ढेर ऑस्तेरलित्जो और वाटरलू में ले जाकर लगाओ.
उन्हें जमीन में गाड़ दो और मुझे अपना काम करने दो.
मैं घास हूं
सब कुछ को ढक लेती हूं.‘
ताद्युश रोज़ेविच
‘मैं प्रतीक्षा करती हूं दीवारों के ढहने की
और उनके धरती पर लौट आने की
और तब
मैं सारे नामों और चेहरों को
ढांक लूंगी.‘
अवतारसिंह पाश 
‘मैं घास हूँ
मैं आपके हर किए-धरे पर उग आऊँगा’.
किसानों की आत्‍महत्‍या को लेकर केदार जी की एक मार्मिक कविता है ‘ फसल ‘. इसमें वे उनकी लगातार बिगडती हालत को बयां करते हैं. कवि की  निगाह में आज भी किसान ‘सूर्योदय और सूर्यास्‍त के विशाल पहियों वाली‘ गाडी से चलता है पर विकास के इस मोड पर उसकी यह गाडी अटक जा रही है और किंकर्तव्‍यविमूढ वह नयी द्रुतगामी अंधी सभ्‍यता के चक्‍कों तले कुचल दिया जाता है. पर कवि यहां इस हत्‍यारी सभ्‍यता की परिभाषाओं से सहमत नहीं है इसलिए वह तय नहीं कर पाता कि यह ‘हत्‍या थी या आत्‍महत्‍या’. नयी सभ्‍यता के आत्‍मघाती चकाचौंध और गति की इस मार को आलोक धन्‍वा ने भी अपनी एक कविता में अभिव्‍यक्‍त किया है. आलोक कहते हैं कि हत्‍या और आत्‍महत्‍या को एक साथ रख दिया गया है तुम फर्क कर लेना साथी. ‘फसल’ कविता में केदार जी भी कहते हैं –
‘अब यह हत्‍या थी
या आत्‍म-हत्‍या
यह आप पर छोडता हूं’.
नया तकनीक समय कई मामलों में निराश करता है तो उसके गर्भ में संभावनाएं भी ढेरों हैं, पर इस तरह की संभावना के बारे में तो कोई कवि ही सोच सकता है-
‘यह क्‍लोन-समय है
कहीं ऐसा न हो
कोई चुपके से रच दे
एक क्‍लोन पृथ्‍वी.‘
कविता और कवि के स्‍वभाव और बनावट पर भी कुछ कविताएं हैं संग्रह में. ‘जहां न पहुंचे रवि, वहां पहुंचे कवि’ कहा जाता रहा है अरसे से पर कवि की अन्‍य भी सच्‍चाईयां है. कविता को वे ऐसी बनैली लतर की संज्ञा देते हैं जो ‘किसी राष्‍ट्रीय उद्यान में खिलती ही नहीं’.  
कुम्‍भनदास को संबोधित एक कविता में वे कवि की सत्‍ता से स्‍थायी अनबन को रेखांकित करते कहते हैं –
‘कि सदियां गुजर गयीं
और दोनों में आज तक पटी ही नहीं’.
भारत-पाक-बांग्‍लादेश के महासंघ की बातें लोहिया करते थे. सरहद पर शांति हो और भारत और पाक के नागरिक भाइयों की तरह मिल सकें यह एक सपना ही रहा है अब तक. चाहे शासक सरहद को लेकर आतंक की नीति पर चलते रहें पर कवि इसके खिलाफ अपना प्रतिरोध दर्ज करने से क्‍यों बाज आएगा –
‘अगर सरहद जरूरी है
पडी रहने दो उसे
पर हाथों को हक दो
कि मिलते रहें हाथों से’.
स्‍वत: सहजस्‍फूर्त दृश्‍यों की रचना केदार जी की पहचान है तो जहां तहां चमत्‍कारी ढंग से बातों को रखना भी उनका एक तरीका है. बातचीत में अग्रज कवि मदन कश्‍यप इसे ट्रिक या शैली लाघव पुकारते हैं. कविता में इस तरह के प्रयोग ध्‍यान तो खींचते हैं पर सहज प्रभावी चित्रों के असर का मुकाबला कोई चमत्‍कारी पंक्ति कैसे कर सकती है. इस तरह के चमत्‍कारी कथन पढने में तो बडे प्रभावी लगते हैं पर अक्‍सरहां उनका चमत्‍कार उनके कथ्‍य पर भारी पडता है और उसके प्रभाव को कम करता है –
‘रास्‍ते वे पंक्तियां हैं
जिन्‍हें लिखकर
भूल गए हैं पांव’.
उपरोक्‍त चमत्‍कारी पंक्तियां के मुकाबले नीचे की पंक्तियों का सादा सच कम असरकारक तो नहीं है –  
‘भीख मांगते बच्‍चे
देखो अपनी दिल्‍ली
हम हैं कितने सच्‍चे.‘
या
‘लिबर्टी स्‍टेच्‍यू-
यानी एक बूढी चिडिया की
चूं…चूं…चूं…चूं ‘.
कहने का यह बेलाग ढंग ज्‍यादा प्रभावी होता है, यह केदारजी भी जानते हैं तभी तो कवि देवेन्‍द्र कुमार को याद करते वे लिखते हैं –
‘एक ऐसा कवि जो एकदम बेलाग
कह सकता था दुनिया से –
‘पैरों को चाट गये जूते
जिंदा हैं हम अपने बूते’.‘
हालांकि देवेन्‍द्र कुमार की इन पंक्तियों में भी बेलागी से ज्‍यादा उनका शैली लाघव ही अभिव्‍यक्‍त हुआ दिखता है. ट्रिक या शैली लाघव का यह प्रयोग कभी-कभी एक कविता को कितना खराब कर देता है इसका उदाहरण संग्रह की ही एक कविता ‘कृतज्ञ कीचड’ है. इसे पढते हुए लगता है कि जैसे यह जबरदस्‍ती की या भर्ती की कविता है.
संग्रह की ‘काली सदरी’ कविता आजकल विकसित हो रही मॉल संस्‍कृति की त्रासदी को सामने लाती है. यह विकास की त्रासदी ही है कि उसके मॉल में उन अविकसित गांवों के लिए ऐसा कुछ नहीं जिसे वे समझ सकें, पा सकें और अपनी खुशी का परचम लहरा सकें. ‘एक ठेठ किसान के सुख’ कविता भी नये पुराने के इसी विडंबनापूर्ण अलगाव को अभिव्‍यक्‍त करती है. इसमें एक सादे कागज पर दस्‍तखत करने से इनकार कर एक किसान खुद को जिन्‍दा महसूस करता है. इस कविता में एक साथ पुराने और नये कवि को उपस्थित देखा जा सकता है. पर इस नये कवि की सीमाएं भी यहां झलकती हैं कि वह दस्‍तखत से इनकार के बाद संताप को नहीं देख पाता और जिंदगी का पुराना गीत सुनाकर अपनी बात समाप्‍त करता है.
संग्रह की एकाध कविता से गुजरते हुए उनके बाद के कवियों आलोक धन्‍वा, अरुण कमल और निलय उपाध्‍याय की कविताई याद आती है. ये तीनों ही भोजपुरी भाषी हैं और इसे एक सकारात्‍मक तथ्‍या माना जाना चाहिए, कि नया कवि आंरभ में पुराने की तरह कई बार लिखता ही है पुराना कवि भी कभी कभी नये की तरह लिख कर आश्‍वस्‍त होता है.
____________

कुमार मुकुल


Kalptaru Express \’Hindi Dainik\’,
7 & 8, IInd Floor, Bhawna Multiplex,
Sikandra-Bodla Road, Near Kargil Petrol Pump,/ Agra-282007.
ई पता ; kumarmukul07@gmail.com
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