सत्यदेव त्रिपाठी
जबलपुर का ‘विवेचना रंगमण्डल’ पिछले 25 सालों से अरुण पाण्डेय के नेतृत्त्व में बिना किसी ख़ास सरकारी सहायता के लगातार अच्छे नाट्योत्सव करते आ रहा है. अपने समय में रंगमण्डल से जुडे रहे शीर्ष रचनाकार हरिशंकर परसाई के नाम से चलते उत्सव में पिछले दस सालों से प्रति वर्ष दिया जाने वाला ‘रंग परसाई सम्मान’ इस बार प्रतिबद्ध रंगकर्मी श्री कन्हैया कैथवासको मुख्य अतिथि श्री आलोक चटर्जी एवं श्री सत्यदेव त्रिपाठी के हाथों दिया गया.
दो से छह फरवरी के दौरान शहर के ‘तरंग प्रेक्षागृह’ में ‘रंग परसाई – 26’ के आयोजन में विषय व प्रस्तुति के वैविध्य से भरपूर पाँच नाटक मंचित हुए और इस तुला पर सर्वाधिक ख़रा उतरा ‘साइक्लोरामा’ रंगसमूह का ‘नेटुआ’, जो पूर्वी उत्तरप्रदेश व बिहार के लुप्त हो गये लोकनाट्य-रूप ‘लौण्डानाच” तथा उन नर्तकों के जीवन को लेकर रतन वर्मा की इसी नाम से 1991 में लिखी तीन पन्नों की कहानी से अब उपन्यास बन गये ‘नेटुआ’ पर आधारित है. चूंकि नेटुआ-जीवन का केन्द्रीय तत्त्व ही है नाच-गान, सो मंच के एक किनारे वादक मण्डली और पृष्ठ भाग में घर, नाच-स्थल व बैठक…आदि के सांकेतिक वितान के बाद मंच का बडा भाग खाली है नेटुआ-नाच के लिए…. और
‘नाच करम बा, नाच धरम बा
नाच ही जीवन, नाच मरन बा
नचते ही छूटे रामा देह से परनवाँ…’
को सार्थक करते हैं सुधांशु फिरदौस के लिखे व महेन्दर मिसिर एवं परम्परा से लिये आधे दर्जन व्यंजक गीत, जिनके गायन में सचिन व अमरजीत की भूमिका भी नाटक की निधि बनी है. आज लुप्त हो गयी इस कला को नये युग के नये अन्दाज़ में पुन: जीवित करने का मौजूँ विचार नाटक का प्रमुख सरोकार है. इस लोक कला के मरने के कारणों का निदर्शन ही नाटक है, जिसमें ज़मीन्दारों के आश्रय में जीने की उनकी विवशता तथा अस्मत लुटने व गाँव से बेदख़ल तक हो जाने का इतिहास भी उजागर होता है. समलिंगी यौन-शोषण जैसे कई संवेदनशील व जटिल दृश्यों को जिस तरह के विविध रंग-संकेतों एवं मुखर प्रतीकों से साधा गया है, वह गहन मंचकला व प्रखर सरोकारों से संवलित है.
विभिन्न गतियों व मंच-सामग्री से बनते रूपकों में छोटे-छोटे नाट्य आयामों को जिस करीने से पिरोया गया है, उनमें निहित सूझों को बूझने की चुनौती देता है नाटक. फिर उन्हें बूझ जाने की नाट्योपमता ही प्रस्तुति का शृंगार तथा दर्शकता का आगार बनती है. सभी कलाकारों के मँजे अभिनय के बीच निर्देशक-परिकल्पक व मुख्य भूमिका में नेटुआ बने दिलीप गुप्ता की जितनी तारीफ की जाये, कम है. कुल मिलाकर यह नाट्य-कर्म बार-बार देखने का आमंत्रण देता है और हर बार पुनर्नवा होने का आश्वासन भी….
इस खाँटी नाट्यमय अन्दाज़ के बाद व्यवस्था के सरोकारों को व्यंग्य-विद्रूप में पेश करता है – मुकेश नेमा लिखित व रसिका अगाशे निर्देशित नाटक ‘हारुस-मारुस’. इसमें चूहों की मनुष्यता के माध्यम से आज के मनुष्य की अमानुषिक वृत्ति पर नाटकीय कटाक्ष किया गया है. वेश से चूहे बने सभी कलाकार अपने अच्छे अभिनय के दौरान भूल जाते हैं कि वे चूहे हैं, लेकिन दर्शक ने तब तक मान लिया होता है कि वे चूहे ही हैं, फिर भी नाटक की नाटकीयता के चलते सब कुछ के नाटक होने का अहसास एक मिनट के लिए भी तिरोहित नहीं हो पाता!!
इन सरोकारजन्य नाटकों से अलग मनुष्य की प्रवृत्तियों पर आधारित दो नाटक खेले गये. पहला है कंजूसी की प्रवृत्ति पर मोलियर का बहुप्रसिद्ध ‘द माइज़र’, जिसे बंसी कौल के ‘रंग विदूषक’ समूह के लिए कन्हैया कैथवास ने ‘अपना रख, पराया चख़’ नाम से विदूषक शैली में मसखरेपन (क्लाउन) के माध्यम से पेश किया. जिस बात को लोकोक्ति महज चार शब्दों ‘मरि जैहौं, भजैहौं नाहीं’ (मर जायेंगे, खर्चेंगे नहीं) में कह के निकल जाती है, उसी को गज़ब के खिलन्दडेपन के साथ कहता हुआ डेढ घण्टे का यह रंगारंग प्रयोग नाटक के ‘खेल’ रूप को सच ही सार्थक कर देता है. जो मानते हैं कि हर खेल (नाटक) का मक़सद होता है, वे भी इसे देखकर यूँ मात जायेंगे कि मान लेंगे – खेल ही नाटक का मक़सद होता है. पूरा अभिनय अपने लगातार चलते मसखरेपन में जीवन जैसा बिल्कुल नहीं है, पर जिस तरह ध्यान में क़तई आता नहीं, उसी तरह हर क्षण व हर कदम पर मौजूद निर्देशन की मजबूत पकड भी दिखती बिल्कुल नहीं – असंल्क्ष्यक्रम (पंच के दौरान क्रमश: एक-एक कागज़ में होते छिद्र) हो जाती है.
दूसरा नाटक प्रेम की सनातन वृत्ति पर है – कनुप्रिया. जी हाँ, भारतीजी की आधुनिक क्लासिक बन गयी वही कृति, जो बार-बार कई-कई रूपों में मंचित हो चुकी है, पर ललित कला व कविता में रचे-बसे अपेक्षाकृत युवा निर्देशक सौरभ अनंत ने ‘विहान’ के लिए इसे यूँ साधा है – गोया मालकंस पर वीणा. अधखुले-अधढँके वाले कला-मानक के साथ शालीनता से धारण किये हुए श्वेत परिधान में पाँच नर्तकियां देहयष्टि की अङडाई लेती लास्यमयी भंगिमाओं में थिरकती-विलसती और बहुरूपी लोच-लचक, गति-थिराव में मोहकता के विधान बनाती ऐसे वितान रचती हैं कि 80 मिनटों तक दर्शक ‘पलकिन्हहूँ परिहरिय निमेषे’ (बिन पलक झपकाये) रह जाते हैं.
इस चाक्षुषता की मानो अनुहारि बनती हुई ‘कनुप्रिया’ की भावाकुल काव्य-पंक्तियां तदनुकूल आरोह-अवरोह, राग-लय में ऐसा निनाद सिरजती रहीं कि जिसे अनकने में दर्शक कान पारे ही रह जाता है…. इनके साथ की समक्षता-विमुखता में मौन रचते एकमात्र नर्तक के हाव-भाव, लुका-छिपी, गति-ठहराव…आदि क्रिया-कलाप प्रस्तुति में बहुत कुछ जोडते व एकरसता को तोडते हुए प्रदर्शन की समृद्धि बनते रहे.
‘हारुस-मारुस’ में चूहे, ‘अपना रख, पराया चख’, में क्लाउन व ‘कनुप्रिया’ में धवल वेश के चलते रूप की समानता तो है ही, तीनो में सभी पात्रों की संवाद अदायगी व गति-अंदाज़ भी एक जैसे हैं. इस तरह नाट्य के तीनो आयामों – दिखने-बोलने-करने – में ख़ासी एकरूपता है, जो कलाकारों के अभिनय में सहज ही उतर आयी है, पर शुक्र है कि तीनो ही टेनीसन के ‘य़ूनिफॉर्मिटी इज़ अ डेंजर’ से बिल्कुल मुक्त व अपनी-अपनी तरह से आह्लादकारी हैं, लेकिन इसीलिए अभिनय का वैविध्य एक हद तक क्षतिग्रस्त हुए बिना नहीं रहता एवं हर कलाकार ‘को बड-छोट कहत अपराधू’ सिद्ध होता है. और फिर नयनाभिराम ’कनुप्रिया’ व आँखों के गुले-गुलज़ार ‘अपना रख, पराया चख’ को देखकर घर गये दर्शक सोचें कि देखने के दौरान मिले आह्लाद-हहास के बाद हाथ क्या लगा?
शायद उनमें कुछ हाथ लग भी जाये, पर स्वयं आयोजक ‘विवेचना रंग मण्डल’ के नाटक ‘मोको कहाँ ढूँढे बन्दे’ तो शायद ‘ढूँढते रह जाओगे’ ही सिद्ध हो. कबीर के जीवन पर आधे दर्जन से अधिक नाटक हिन्दी में ही प्रकाशित हैं, जिनमें दो तो काफी मक़बूल भी हैं. फिर भी रमेश खत्री इतना कमज़ोर व गलबल तथ्य वाला आलेख कैसे तैयार कर सकते हैं? लेकिन इससे बडा सवाल यह कि अरुण पाण्डेय जैसा ज़हीन व मँजा हुआ निर्देशक उसे उठाता ही कैसे है – और बिना माँजे-सँवारे. इसका अरुणजी के पास कोई जवाब नहीं – सिवाय अपने किसी मानिन्द की आज्ञा जैसे निपट भोंदे उल्लेख के, जो उनके प्रस्तुति-कौशल में भी उतरा है.
सिर्फ़ दीन-हीनों की सेवा-रक्षा के एकसूत्री धागे से जोडे-गँठियाये पूरे आलेख में कबीर के जीवन सभी महत्त्वपूर्ण आयाम नदारद रह जाते हैं – उनका जुझारूपन, संघर्ष की अगुआई, भिन्न मतावलम्बियों व सत्तासीनों से टकराहट व इनसे बनते संवादों के कौशल, भक्ति व काव्यत्त्व…आदि बहुर-बहुत कुछ. इस तरह कबीर व नाट्य विधा की न्यूनतम माँगें भी इसमें पूरी नहीं होतीं. लेकिन बिल्कुल नये बच्चों के दल को लेकर अरुणजी ने बहुत मेहनत की है और बिल्कुल कच्चे बच्चे एक हद तक पक्के काम को अंजाम दे पाये हैं.
\\मूलत: दक्षिण भारतीय एस. श्रीधर के अपने पहले नाटक में मुख्य भूमिका का निर्वाह इसका प्रमाण है. सुयोग पाठक के निर्देशन में बैठी संगीत मण्डली का काम अच्छा ज़रूर है, पर उसमें विविधता कम, एकरसता ज्यादा है. अमीर खुशरो के ‘छाप-तिलक…’ वाले के समावेश का बेतुकापन व कमाली के नाम पर विश्रुत ‘सइंया निकसि गये..’ के साथ उसके नाम तक का उल्लेख न होने के तुक-तार कैसे समझे जायें…!! और कितना गिनायें…ऐसा बहुत कुछ हैं…!!
उत्सव के दूसरे-तीसरे-चौथे दिनों 11 से 2 बजे के दौरान क्रमश: ‘कस्बाई रंगकर्म’, ‘रंगमंच और मीडिया’ तथा ‘अनुदान और रंगमंच’ विषयों पर सुपरिचित रंग समीक्षक सत्यदेव त्रिपाठी की अध्यक्षता में परिचर्चा के आयोजन हुए, जिसमें हनुमंत किशोर, विनय अम्बर, दिनेश चौधरी, रमाकांत शर्मा ‘उद्भ्रांत’, नवीन चौबे, सीताराम सोनी, विवेक पाण्डेय, पूजा केवट...आदि शहर के कई प्रबुद्धजनों व रंगकर्मियों ने शिरकत की. इसकी उपयोगिता को देखते हुए अगले साल से परिचर्चा को और बडे स्तर पर आयोजित करने का निशचय हुआ.
इन सभी उपक्रमों से शहर में विकसित होता सांस्कृतिक माहौल प्रत्यक्ष होता रहा, जिसकी अगली पंक्ति में संस्कृति-कर्मियों व शहर के सम्भ्रांत नागरिकों के अलावा सरकारी महकमों के उच्च अधिकारी भी शामिल दिखे, जो रंगकर्म की सार्थकता के सुबूत हैं.
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