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Home » परिप्रेक्ष्य : ओमप्रकाश वाल्मीकि

परिप्रेक्ष्य : ओमप्रकाश वाल्मीकि

:: श्रद्धांजलि ::  युवा लेखिका अनिता भारती की ओमप्रकाश वाल्मीकि पर टिप्पणी और वाल्मीकि जी की चर्चित कृति \’जूठन\’ का एक अंश. उनके होने को किसी भी तरह से धुंधला नहीं किया जा सकता, वह सदैव रहेंगे अपनी लेखनी में.  _________________________________________________________ दलित साहि्त्य के सशक्त हस्ताक्षर व वरिष्ठ लेखक ओमप्रकाश बाल्मीकि जी का आज सुबह […]

by arun dev
November 17, 2013
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:: श्रद्धांजलि :: 

युवा लेखिका अनिता भारती की ओमप्रकाश वाल्मीकि पर टिप्पणी और वाल्मीकि जी की चर्चित कृति \’जूठन\’ का एक अंश.
उनके होने को किसी भी तरह से धुंधला नहीं किया जा सकता, वह सदैव रहेंगे अपनी लेखनी में. 
_________________________________________________________
दलित साहि्त्य के सशक्त हस्ताक्षर व वरिष्ठ लेखक ओमप्रकाश बाल्मीकि जी का आज सुबह परिनिर्वाण हो गया. वे पिछले एक साल से \’बड़ी आंत की गंभीर बीमारी\’ से जूझ रहे थे. उनका हिन्दी साहित्य और दलित साहित्य में उनके अवदान और उनकी लोकप्रियता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि रोज उनसे मिलने वालों, फोन करने वालों और उनके स्वास्थ्य में शीघ्र सुधार होने की कामना करने वालों की संख्या हजारों में थी. ओमप्रकाश बाल्मीकिजी पिछले एक सप्ताह से देहरादून के एक प्राईवेट अस्पताल मैक्स में दाखिल थे. उनके स्वास्थ्य की हालत चिंताजनक थी, इसके बाबजूद वह वे बहुत बहादुरी से अपनी बीमारी से लड़ रहे थे.  पिछले साल 10अगस्त 2013 में उनकी बडी आंत का सफल आपरेशन हुआ था. आपरेशन सफल होने के बाबजूद वे इससे उभर नहीं पाएं.

ओमप्रकाश बाल्मीकि उन शीर्ष लेखकों में से एक रहे है जिन्होने अपने आक्रामक तेवर से साहित्य में अपनी सम्मानित जगह बनाई है. वे बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे. उन्होने कविता, कहानी, आ्त्मकथा से लेकर आलोचनात्मक लेखन भी किया है. अपनी आत्मकथा \”जूठन\” से उन्हें विशेष ख्याति मिली है. जूठन में उन्होने अपने और अपने समाज की दुख-पीडा-उत्पीडन-अत्याचार-अपमान का जिस सजीवता और सवेंदना से वर्णन किया वह अप्रतिम है. यह एक बहुत बडी उपलब्धी है कि आज जूठन का कई भाषाओं में अनुवाद हो चुका है. जूठन के अलावा उनकी प्रसिद्ध पुस्तकों में \”सदियों का संताप\”, \”बस! बहुत हो चुका\” (कविता संग्रह) तथा \”सलाम\” (कहानी संग्रह ) दलित साहित्य का सौन्दर्य शास्त्र (आलोचना) आदि है.  बाल्मीकि जी अब तक कई सम्मानों से नवाजे जा चुके है जिनमें प्रमुख रुप से 1993 में डॉ.अम्बेडकर राष्ट्रीय पुरस्कार तथा 1995 में परिवेश सम्मान है.

हिन्दी साहित्य और दलित साहित्य के शीर्ष साहित्यकार का अचानक असमय चले जाना बेहद दुखद है. वे मात्र अभी 63 साल के ही थे. वो अभी दो-तीन साल पहले ही देहरादून की आर्डनेंस फैक्ट्ररी से रिटायर हुए थे.  उनका बचपन बहुत कष्ट-गरीब-अपमान में बीता. यही कष्ट-गरीबी और जातीय अपमान-पीडा और उत्पीडन उनके लेखन की प्रेरणा बने. उनकी कहानियों से लेकर आत्मकथा तक में ऐसे अऩेक मार्मिक चित्र और प्रसंगों का एक बहुत बड़ा कोलाज है. वह विचारों से अम्बेडकरवादी थे. बाल्मीकि जी हमेशा मानते थे कि दलित साहित्य में दलित ही दलित साहित्य लिख सकता है. क्योंकि उनका मानना था कि दलित ही दलित की पीडा़ और मर्म को बेहतर ढंग से समझ सकता है और वही उस अनुभव की प्रामाणिक अभिव्यक्ति कर सकता है. ओमप्रकाश बाल्मीकि जी के अचानक जाने से दलित साहित्य का एक स्तंम्भ ढह गया है. उनकी क्षति बेहद अपूर्णनीय है.
अनिता भारती

______________________________________________


हमारा घर चंद्रभान तगा के घेर से सटा हुआ था. उसके बाद कुछ परिवार मुसलमान जुलाहों के थे. चंद्रभान तगा के घेर के ठीक सामने एक छोटी-सी जोहड़ी (जोहड़ का स्त्रीलिंग) थी, जिसने चुहड़ों के बगड़ और गाँव के बीच एक फासला बना दिया था. जोहड़ी का नाम डब्बोवाली था. डब्बोवाली नाम कैसे पड़ा, कहना मुश्किल है. हाँ, इतना जरूर है कि इस डब्बोवाली जोहड़ी का रूप एक बड़े ग़्ढे के समान था. जिसके एक ओर तगाओं के पक्के मकानों की ऊँची दीवारें थीं. जिनसे समकोण बनाती हुई झींकरों के दो-तीन परिवारों के कच्चे मकानों की दीवारें थीं. उसके बाद फिर तगाओं के मकान थे.


जोहड़ी के किनारे पर चूहड़ों के मकान थे, जिनके पीछे गाँव भर की औरतें, जवान लड़कियाँ, बड़ी-बूढ़ी यहाँ तक कि नई नवेली दुल्हनें भी इसी डब्बोवाली के किनारे खुले में टट्टी-फरागत के लिए बैठ जाती थीं. रात के अँधेरे में ही नहीं, दिन के उजाले में भी पर्दों में रहनेवाली त्यागी महिलाएँ, घूँघटे काढ़े, दुशाले ओढ़े इस सार्वजनिक खुले शौचालय में निवृत्ति पाती थीं. तमाम शर्म-लिहाज छोड़कर वे डब्बोवाली के किनारे गोपनीय जिस्म उघाड़कर बैठ जाती थीं. इसी जगह गाँव भर के लड़ाई-झगड़े गोलमेल कॉन्फ्रेंस की शक्ल में चर्चित होते थे. चारों तरफ गंदगी भरी होती थी. ऐसी दुर्गंध कि मिनट भर में साँस घुट जाए. तंग गलियों में घूमते सूअर, नंग-धड़ंग बच्चे, कुत्ते रोजमर्रा के झगड़े, बस यह था वह वातावरण जिसमें बचपन बीता. इस माहौल में यदि वर्ण-व्यवस्था को आदर्श-व्यवस्था कहनेवालों को दो-चार दिन रहना पड़ जाए तो उनकी राय बदल जाएगी.

उसी बगड़ में हमारा परिवार रहता था. पाँच भाई, एक बहन, दो चाचा, एक ताऊ का

परिवार. चाचा और ताऊ अलग रहते थे. घर में सभी कोई न कोई काम करते थे. फिर भी दो जून की रोटी ठीक ढंग से नहीं चल पाती थी. तगाओं के घरों में साफ-सफाई से लेकर, खेती-बाड़ी, मेहनत-मजदूरी सभी काम होते थे. ऊपर रात-बेरात बेगार करनी पड़ती. बेगार के बदले में कोई पैसा या अनाज नहीं मिलता था. बेगार के बदले में कोई पैसा या आनाज नहीं मिलता था. बेगार के लिए ना कहने की हिम्मत किसी में नहीं थी. गाली-गलौज, प्रताड़ना अलग. नाम लेकर पुकारने की किसी को आदत नहीं थी. उम्र में बड़ा हो तो ‘ओ चूहड़े’, बराबर या उम्र में छोटा है तो ‘अबे चूहड़े के’ यही तरीका या संबोधन था.

अस्पृश्यता का ऐसा माहौल कि कुत्ते-बिल्ली, गाय-भैंस को छूना बुरा नहीं था लेकिन यदि चूहड़े का स्पर्श हो जाए तो पाप लग जाता था. सामाजिक स्तर पर इनसानी दर्जा नहीं था. वे सिर्फ जरूरत की वस्तु थे. काम पूरा होते ही उपयोग खत्म. इस्तेमाल करो, दूर फेंको.
हमारे मोहल्ले में एक ईसाई आते थे. नाम था सेवक राम मसीही. चूहड़ों के बच्चों को घेरकर बैठे रहते थे. पढ़ना-लिखना सिखाते थे. सरकारी स्कूलों में तो कोई घुसने नहीं देता था. सेवक राम मसीही के पास सिर्फ मुझे ही भेजा गया था. भाई तो काम करते थे. बहन को स्कूल भेजने का सवाल ही नहीं था.
मास्टर सेवक राम मसीही के खुले, बिना कमरों, बिना टाट-चटाईवाले स्कूल में अक्षर ज्ञान शुरू किया था. एक दिन सेवक राम मसीही और मेरे पिताजी में कुछ खटपट हो गई थी. पिताजी मुझे लेकर बेसिक प्राइमरी विद्यालय गए थे जो कक्षा पाँच तक था. वहाँ मास्टर हरफूल सिंह थे. उनके सामने मेरे पिताजी ने गिड़गिड़ाकर कहा था, ‘‘मास्टरजी, थारी मेहरबान्नी हो जागी जो म्हारे इस जाकत (बच्चा) कू बी दो अक्षर सिखा दोगे.’’
मास्टर हरफूल सिंह ने अगले दिन आने को कहा था. पिताजी अगले रोज फिर गए. कई दिन तक स्कूल के चक्कर काटते रहे. आखिर एक रोज स्कूल में दाखिला मिल गया. उन दिनों देश को आजादी मिले आठ साल हो गए थे. गाँधी जी के अछूतोद्धार की प्रतिध्वनि सुनाई पड़ती थी. सरकारी स्कूलों के द्वार अछूतों के लिए खुलने शुरू तो हो गए थे, लेकिन जनसामान्य की मानसिकता में कोई विशेष बदलाव नहीं आया था. स्कूल में दूसरों से दूर बैठना पड़ता था, वह भी जमीन पर. अपने बैठने की जगह तक आते-आते चटाई छोटी पड़ जाती थी. कभी-कभी तो एकदम पीछे दरवाजे के पास बैठना पड़ता था. जहाँ से बोर्ड पर लिखे अक्षर धुँधले दिखते थे.
त्यागियों के बच्चे ‘चुहड़े का’ कहकर चिढ़ाते थे. कभी-कभी बिना कारण पिटाई भी कर देते थे. एक अजीब-सी यातनापूर्ण जिंदगी थी, जिसने मुझे अंतर्मुखी और चिड़चिड़ा, तुनकमिजाजी बना दिया था. स्कूल में प्यास लगे तो हैंडपंप के पास खड़े रहकर किसी के आने का इंतजार करना पड़ता था. हैंडपंप छूने पर बवेला हो जाता था. लड़के तो पीटते ही थे. मास्टर लोग भी हैंडपंप छूने पर सजा देते थे. तरह-तरह के हथकंडे अपनाए जाते थे ताकि मैं स्कूल छोड़कर भाग जाऊँ, और मैं भी उन्हीं कामों में लग जाऊँ, जिनके लिए मेरा जन्म हुआ था. उनके अनुसार, स्कूल आना मेरी अनधिकार चेष्टा थी.
मेरी ही कक्षा में राम सिंह और सुक्खन सिंह भी थे. राम सिंह जाति में चमार था और सुक्खन सिंह झींवर राम सिंह के पिताजी और माँ खेतों में मजदूरी करते थे. सुक्खन सिंह के पिताजी इंटर कॉलेज में चपरासी थे. हम तीनों साथ-साथ पढ़े, बड़े हुए बचपन के खट्टे-मीठे अनुभव समेटे थे. तीनों पढ़ने में हमेशा आगे रहे. लेकिन जाति का छोटापन कदम-कदम पर छलता रहा.

बरला गाँव में कुछ मुसलमान त्यागी भी थे. त्यागियों को भी तगा कहते थे. मुसलमान तगाओं का व्यवहार भी हिंदुओं जैसा ही था. कभी कोई अच्छा साफ-सुथरा कपड़ा पहनकर यदि निकले तो फब्तियाँ सुननी पड़ती थीं. ऐसी फब्तियाँ जो बुझे तीर की तरह भीतर तक उतर जाती थीं. ऐसा हमेशा होता था. साफ-सुथरे कपड़े पहनकर कक्षा में जाओ तो साथ के लड़के कहते, ‘‘अबे चूहड़े का, नए कपड़े पहनकर आया है.’’ मैले-पुराने कपड़े पहनकर स्कूल जाओ तो कहते, ‘‘अबे चूहड़े के, दूर हट, बदबू आ रही है.’’

अजीब हालात थे. दोनों ही स्थितियों में अपमानित होना पड़ता था.
चौथी कक्षा में थे. हेडमास्टर बिशम्बर सिंह की जगह कलीराम आ गए थे. उनके साथ एक और मास्टर आए थे. उनके आते ही हम तीनों के बहुत बुरे दिन आ गए थे. बात-बेबात पर पिटाई हो जाती थी. राम सिंह तो कभी-कभी बच भी जाता था, लेकिन सुक्खन सिंह और मेरी पिटाई तो आम बात थी. मैं वैसे भी काफी कमजोर और दुबला-पतला था उन दिनों.
सुक्खन के पेट पर पसलियों के ठीक ऊपर एक फोड़ा हो गया था, जिससे हर वक्त पीप बहती रहती थी. कक्षा में वह अपनी कमीज ऊपर की तरफ इस तरह मोड़कर रखता था, ताकि फोड़ा खुला रहे. एक तो कमीज पर पीप लगने का डर था, दूसरे मास्टर की पिटाई के समय फोड़े को बचाया जा सकता था.

एक दिन मास्टर ने सुक्खन सिंह को पीटते समय उस फोड़े पर ही एक घूँसा जड़ दिया. सुक्खन की दर्दनाक चीख निकली. फोड़ा फूट गया था. उसे तड़पता देखकर मुझे भी रोना आ गया था. मास्टर हम लोगों को रोता देखकर लगातार गालियाँ बक रहा था. ऐसी गालियाँ जिन्हें यदि शब्दबद्ध कर दूँ तो हिंदी की अभिजात्यता पर धब्बा लग जाएगा. क्योंकि मेरी एक कहानी ‘बैल की खाल’ में एक पात्र के मुँह से गाली दिलवा देने पर हिंदी के कई बड़े लेखकों ने नाक-भौं सिकोड़ी थी. संयोग से गाली देनेवाला पात्र ब्राह्मण था. ब्राह्मण यानी ब्रह्म का ज्ञाता और गाली…!
अध्यापकों का आदर्श रूप जो मैंने देखा वह अभी तक मेरी स्मृति से मिटा नहीं है. जब भी कोई आदर्श गुरु की बात करता है तो मुझे वे तमाम शिक्षक याद आ जाते हैं जो माँ-बहन की गालियाँ देते थे. सुंदर लड़कों के गाल सहलाते थे और उन्हें अपने घर बुलाकर उनसे वाहियातपन करते थे.
एक रोज हेडमास्टर कलीराम ने अपने कमरे में बुलाकर पूछा, ‘‘क्या नाम है बे तेरा ?’’
‘‘ओमप्रकाश,’’ मैंने डरते-डरते धीमे स्वर में अपना नाम बताया. हेडमास्टर को देखते ही बच्चे सहम जाते थे. पूरे स्कूल में उनकी दहशत थी.
‘‘चूहड़े का है ?’’ हेडमास्टर का दूसरा सवाल उछला.
‘‘जी .’’
‘‘ठीक है…वह जो सामने शीशम का पेड़ खड़ा है, उस पर चढ़ जा और टहनियाँ तोड़के झाड़ू बणा ले. पत्तों वाली झाड़ू बणाना. और पूरे स्कूल कू ऐसा चमका दे जैसा सीसा. तेरा तो यो खानदानी काम है. जा…फटाफट लग जा काम पे.’’
हेडमास्टर के आदेश पर मैं स्कूल के कमरे, बरामदे साफ कर दिए. तभी वे खुद चलकर आए और बोले, ‘‘इसके बाद मैदान भी साफ कर दे.’’

लंबा-चौड़ा मैदान मेरे वजूद से कई गुना बड़ा था, जिसे साफ करने से मेरी कमर दर्द करने लगी थी. धूल से चेहरा, सिर अँट गया था. मुँह के भीतर धूल घुस गई थी. मेरी कक्षा में बाकी बच्चे पढ़ रहे थे और मैं झाड़ू लगा रहा था. हेडमास्टर अपने कमरे में बैठे थे लेकिन निगाह मुझ पर टिकी थी. पाना पीने तक की इजाजत नहीं थी. पूरा दिन मैं झाड़ू लगाता रहा. तमाम अनुभवों के बीच कभी इतना काम नहीं किया था. वैसे भी घर में भाइयों का मैं लाड़ला था.

दूसरे दिन स्कूल पहुँचा. जाते ही हेडमास्टर ने फिर झाड़ू के काम पर लगा दिया. पूरे दिन झाड़ू देता रहा. मन में एक तसल्ली थी कि कल से कक्षा में बैठ जाऊँगा.
तीसरे दिन कक्षा में जाकर चुपचाप बैठ गया. थोड़ी देर बाद उनकी दहाड़ सुनाई पड़ी, ‘‘अबे, ओ चूहड़े के, मादरचोद कहाँ घुस गया…अपनी माँ…’’
उनकी दहाड़ सुनकर मैं थर-थर काँपने लगा था. एक त्यागी लड़के ने चिल्लाकर कहा, ‘‘मास्साब, वो बैट्ठा है कोणे में.’’

हेडमास्टर ने लपककर मेरी गर्दन दबोच ली थी. उनकी उँगलियों का दबाव मेरी गर्दन पर बढ़ रहा था. जैसे कोई भेड़िया बकरी के बच्चे को दबोचकर उठा लेता है. कक्षा से बाहर खींचकर उसने मुझे बरामदे में ला पटका. चीखकर बोले, ‘‘जा लगा पूरे मैदान में झाड़ू…नहीं तो गांड में मिर्ची डालके स्कूल से बाहर काढ़ (निकाल) दूँगा.’’
भयभीत होकर मैंने तीन दिन पुरानी वही शीशम की झाड़ू उठा ली. मेरी तरह ही उसके पत्ते सूखकर झरने लगे थे. सिर्फ बची थीं पतली-पतली टहनियाँ. मेरी आँखों से आँसू बहने लगे थे. रोते-रोते मैदान में झाड़ू लगाने लगा. स्कूल के कमरों की खिड़की, दरवाजों से मास्टरों और लड़कों की आँखें छिपकर तमाशा देख रही थीं. मेरा रोम-रोम यातना की गहरी खाई में लगातार गिर रहा था.
मेरे पिताजी अचानक स्कूल के पास से गुजरे. मुझे स्कूल के मैदान में झाड़ू लगाता देखकर ठिठक गए. बाहर से ही आवाज देकर बोले, ‘‘मुंशी जी, यो क्या कर रा है ?’’ वे प्यार से मुझे मुंशी जी ही कहा करते थे. उन्हें देखकर मैं फफक पड़ा. वे स्कूल के मैदान में मेरे पास आ गए. मुझे रोता देखकर बोले, ‘‘मुंशी जी..रोते क्यों हो ? ठीक से बोल, क्या हुआ है ?’’
मेरी हिचकियाँ बँध गई थीं. हिचक-हिचककर पूरी बात पिताजी को बता दी कि तीन दिन से रोज झाड़ू लगवा रहे हैं. कक्षा में पढ़ने भी नहीं देते.
पिताजी ने मेरे हाथ से झाड़ू छीनकर दूर फेंक दी. उनकी आँखों में आग की गर्मी उतर आई थी. हमेशा दूसरों के सामने तीर-कमान बने रहनेवाले पिताजी की लंबी-लंबी घनी मूछें गुस्से में फड़फड़ाने लगी थीं. चीखने लगे, ‘‘कौण-सा मास्टर है वो द्रोणाचार्य की औलाद, जो मेरे लड़के से झाड़ू लगवावे है…’’
पिताजी की आवाज पूरे स्कूल में गूँज गई थी, जिसे सुनकर हेडमास्टर के साथ सभी मास्टर बाहर आ गए थे. कलीराम हेडमास्टर ने गाली देकर मेरे पिताजी को धमकाया. लेकिन पिताजी पर धमकी का कोई असर नहीं हुआ. उस रोज जिस साहस और हौसले से पिताजी ने हेडमास्टर का सामना किया, मैं उसे कभी भूल नहीं पाया. कई तरह की कमजोरियाँ थीं पिताजी में लेकिन मेरे भविष्य को जो मोड़ उस रोज उन्होंने दिया, उसका प्रभाव मेरी शख्सियत पर पड़ा.

हेडमास्टर ने तेज आवाज में कहा था, ‘‘ले जा इसे यहाँ से..चूहड़ा होके पढ़ने चला है…जा चला जा…नहीं तो हाड़-गोड़ तुड़वा दूँगा.’’
पिताजी ने मेरा हाथ पकड़ा और लेकर घर की तरफ चल दिए. जाते-जाते हेडमास्टर को सुनाकर बोले, ‘‘मास्टर हो…इसलिए जा रहा हूँ…पर इतना याद रखिए मास्टर…यो चूहड़े का यहीं पढ़ेगा…इसी मदरसे में. और यो ही नहीं, इसके बाद और भी आवेंगे पढ़ने कू.’’
पिताजी को विश्वास था, गाँव के त्यागी मास्टर कलीराम की इस हरकत पर उसे शर्मिदा करेंगे. लेकिन हुआ ठीक उल्टा. जिसका दरवाजा खटखटाया यही उत्तर मिला, ‘‘क्या करोगे स्कूल भेजके’’ या ‘‘कौवा बी कबी हंस बण सके’’, ‘‘तुम अनपढ़ गँवार लोग क्या जाणो, विद्या ऐसे हासिल ना होती.’’, ‘‘अरे ! चूहड़े के जाकत कू झाड़ू लगाने कू कह दिया तो कोण-सा जुल्म हो गया’’, ‘‘या फिर झाड़ू ही तो लगवाई है, द्रोणाचार्य की तरियों गुरु-दक्षिणा में अँगूठा तो नहीं माँगा’’ आदि-आदि.

पिताजी थक-हार निराश लौट आए, बिना खाए-पिए रात भर बैठ रहे. पता नहीं किस गहन पीड़ा को भोग रहे थे मेरे पिताजी. सुबह होते ही उन्होंने मुझे साथ लिया और प्रधान सगवा सिंग त्यागी की बैठक में पहुँच गए.

पिताजी को देखते ही प्रधान बोले, ‘‘अबे, छोटन…क्या बात है ? तड़के ही तड़के आ लिया !’’
‘‘चौधरी साहब, तुम तो कहो ते सरकार ने चूहड़े –चमारों के जाकतों (बच्चों) के लिए मरदसों के दरवाजे खोल दिए हैं. और यहाँ वो हेडमास्टर मेरे इस जाकत कू पढ़ाने के बजाए क्लास से बाहर लाके दिन भर झाड़ू लगवावे है. जिब यो दिन भर मदरसे में झाड़ू लगावेगा तो इब तम ही बताओ पढ़ेगा कब ?’’ पिताजी प्रधान के सामने गिड़गिड़ा रहे थे. उनकी आँखों में आँसू थे. मैं पास खड़ा पिताजी को देख रहा था.
प्रधान ने मुझे अपने पास बुलाकर पूछा, ‘‘कोण-सी किलास में पढ़े हैं ?’’
‘‘जी चौथी में.’’
‘‘म्हारे महेन्द्र की किलास में ही हो ?’’
‘‘जी.’’
प्रधान जी ने पिताजी से कहा, ‘‘फिकर ना कर, कल मदरसे में इसे भेज देणा.’’
_______________
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