नंदकिशोर आचार्य को सुनते हुए
ब्रज रत्न जोशी
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उनके काव्यपाठ को सुनते-सुनते ही उन्हीं की एक कविता से यह सामने आया कि कैसे स्वयं कविता उन्हें बनाती है. यह जो कविता से कवि का बनना है वह हिन्दी परिदृश्य में नंदकिशोर आचार्य की प्रेम व सृजन वेदना को एक नया आयाम प्रदान करता है. जिस प्रकार हम महादेवी वर्मा को आधुनिक युग की मीरां के रूप में याद करते हैं, उसी तरह नंदकिशोर आचार्य आधुनिक हिन्दी काव्य परम्परा में प्रेम की पीर के अनन्य कवि घनानन्द के रूप में याद रखा जाए, तो कोई अन्युक्ति नहीं होगी. उदाहरण –
घनानंद:
लोग है लागि कवित बनावत
मोहि तो मेरे कवित बनावत
नंद किशोर आचार्य:
छीलता जाता हूँ
हर शब्द
करने खुद को निश्शब्द
छिलने की हर कराह से पर
जनमता है और कोई
शब्द
मैं इसी जद्दोजहद में
होता जाता कविता
आचार्य यहाँ एक आधुनिक कवि की भूमिका बखूबी निभाते हैं. घनानन्दीय प्रेम की पीर को आधुनिक संवेदना से जोड़कर वे उसे नया आयाम देते हैं क्योंकि घनानंद की कविता जहाँ केवल यही प्रदर्शित करती है कि उसे उसकी कविता कैसे दूसरों कवियों से अलग करती है, वहीं आचार्य अपनी कविता में अपनी काव्य प्रतिभा का अनन्य प्रयोग करते हुए छिलने की कराह भरी प्रक्रिया से अपने कवि व्यक्तित्व को रचते है. यहाँ वे घनानंद के भाव से आगे बढकर आधुनिक समय को कविता ‘छीलने’ क्रियापद से प्रवेश करवाते हैं, जो कि घनानंद की कविता में नहीं है और उसके जरीये वेदना, पीड़ा, कराहना आदि भावों से अपने कवि व्यक्तित्व को खासकर आधुनिक कवि व्यक्तित्व को खड़ा कर हमारे समय की प्रेम, संवेदना को साकार कर हमें एक नए अनुभव जगत का नागरिक होने का एहसास देते हैं.
सहज ही सहृदय चित्त में घनानंद के इस भाव के साथ आचार्य का गहरा नाता और सर्जनात्मक विस्तार दिखाई पड़ने लगता है. साथ ही यह भी स्वयं उन्ही की लिखि ये पंक्तियां कि
‘‘एक कवि अपने काव्यालोक में अपनी काव्य परम्परा की जिन स्मृतियों को सहेजता-संजोता या उस की पुनर्रचना करता है वे उसकी अपनी संवेदना के रहस्यमय जंगल में ले जाने वाली पगडंडिया भी साबित होती है.” (साहित्य का स्वभाव नंदकिशोर आचार्य पृ.सं. 135)
इसीलिए यह कवि जिस मार्ग को अपने लिए चुनता है उसमें खलिश, वीरानियाँ, बस्ती, मृत्यु, अँधेरा और चाहत जैसे अनंत भाव व्यापारों का सैलाब साथ-साथ चलता है. नंदकिशोर आचार्य इन अर्थों में भी हिन्दी के उन थोड़े-से कवियों में हैं जो अपने पूर्वज कवियों से आत्मीय संवाद बजरीये कविता ही करते हैं. यह संवाद अपनी रचावट और बुनावट में इतना जीवट, अर्थपूर्ण एवं तार्किक विन्यास से विन्यस्त होता है कि श्रोता के जेहन पर उसका अनुभव एक विशिष्ट छाप छोड़ता हैं जैसे मीर के साथ कवि का एक संवाद देखिए. उदा. –
मीर :
चश्मे-दिल खोल उस भी आलम पर
यां की औकात ख़्वाब की -सी है.
नंदकिशोर आचार्य :
अपने ही ख़्वाब में
पड़े रहने से
बेहतर नहीं होता क्या
जनाबे- ‘मीर’
उसके ख्वाब में
विचरूँ.
यह इन्टरेक्शच्युएलिटी (अन्तरपाठीय संवाद) स्वयं कवि को तो समृद्ध करता ही है, पर श्रोता को भी साथ-साथ दीक्षित करता चलता है. इस संग्रह में गालिब, मीर, रघुवीर सहाय, सर्वेश्वर आदि के साथ ऐसे अन्तरपाठीय रचनात्मक संवादों की अनुभूतियों का अहसास जगह-जगह बोलता है. प्यास, मौन, प्रेम और एकान्त की बस्ती में रमा उनका कविमन तभी तो कह उठता है-
सूनापन हो तो क्या
कृतज्ञ हूँ मैं
बस कर मुझ में
तुम ने
बस्ती जो किया
मुझे
शब्दों के परस्पर विरोध को टकराकर नई अर्थ ध्वनियों को जन्म देना आचार्य की खूबी रही है. आचार्य का कवि नागरिक कुएँ की – सी प्यास को लेकर अपनी बस्ती में सपने के सच को दीवानगी तक ही नहीं लाता वरन् हवा के इस राग के साथ कि हवा की मंज़िल नहीं कोई का सफर घर से करते-करते सुख-दुख से अभिषिक्त होकर कवि के साथ श्रोता को भी पुनर्नवा करता चलता है. पुनर्नवा इस संग्रह का बीज शब्द है. ध्यान रहे पुनर्नवा स्त्रीलिंग शब्द है जो कि बरसाती पौधे के लिए भी प्रयुक्त होता है. जैसे पुनर्नवा का पौधा बरसात में फिर-फिर नया रूप धारण कर स्वयं का अस्तित्व हरा रखता है वैसे ही विरह एवं प्रेम की वेदना कवि को सदैव पुनर्नवा रखती है. हरा रखती है.
एक अन्य विशिष्टता जो पाठक/श्रोता को इस कवि से संवेदनात्मक रिश्ता बनाने के लिए पहल करती दीखती है वह है कवियोचित अहंकार से परे विनम्र भाव. आचार्य का कवि विनम्र भाव का कवि है. जगह-जगह वे अपनी क्षमाप्रार्थिता को न केवल शब्द से ज्ञापित ही करते हैं वरन् यह एहसास भी देते चलते हैं कि जीवन के अनंत व्यापार में हम सब इतना बौरा गए हैं कि विनयशीलता, कृतज्ञता जैसे भाव, शब्द पदों का कोई अर्थ ही नहीं रह गया. वे लिखते हैं
कब तक और लिखता रहूँ
कविता के नाम पर
कविताएँ बदल जो नहीं पायीं
औरों की क्या बोलूँ
खुद मुझको ही
गो बदल-बदल कर लिखा
मैं ने उन्हें
कभी भाषा कभी भाव
कभी प्रतीक और बिम्ब
लय विधान भी कभी
स्थापत्य कभी उनका:
कितना भी बदला चाहे उन्हें
बदल नहीं पाया खुद को कभी
डूबता-उतरता ही रहता हूँ
अपनी तृष्णा या अवसाद में
सब वक्त
किया जो कुछ मैं ने
अब तक कविता
क्षमाप्रार्थी हूँ उस के लिए.
घर-सफर, पलायन-भटकन, सूखा-हरा, खिला-मुरझाया, आकाश-धरती, मौन-आवाज, याद-भूल, कल और आज, सांय-सांय एवं भांय-भांय से लकदक शब्द युग्मों में सजी उनकी कविता अपने अर्थ संस्कारों एवं बहुअर्थी ध्वनियों के चलते श्रोता के स्व को अपने आत्म से जोड़ती है और सहृदय श्रोता कवि के साथ-साथ स्वयं का स्वयं से संवाद करने स्थिति में निरन्तर अग्रसर होता जाता है.
इसका व्यावहारिक उदाहरण है कि कवि ने एक घण्टे और लगभग पाँच मिनट तक काव्यपाठ किया, पर कोई भी श्रोता वातावरण की उमस को अपने अन्दर की उमस तक ले जाने से नहीं चूका और जब कवि ने आन्तरिक की उमस की छटपटाहट से निजात दिलाने के लिए गहरी डुबकी लगवाई, तो बाहरी उमस तो जस की तस रही, पर आन्तरिक उमस काव्य सलिल के प्रक्षालन से लहरा उठी. एक ऐसी अनुभूति का उदय हुआ जिसमें अनंत जीवनानुभूतियों के साथ काल के निरवधि विस्तार में आत्मालाप होने लगा. आत्मज्ञान का आलापमयी माहौल मन के तपियाए, सूखियाए संसार में शीतलता एवं हरापन भरता गया और एक नई चेतना, नई ऊर्जा और नया प्रवाह नयी लय के साथ हमें किनारे तक ले आया. जहाँ आकर थकान या विश्राम से परे केवल होने की अनुभूति थी. इसीलिए श्रोता का मन भी जब कवि इनकी पंक्तियों को सुन रहा था कि –
पेड़ अब प्रतीक्षा में है
हरे की नहीं
अपनी मृत्यु को भी
सार्थक करने.
श्रोता की प्रतीक्षा भी यों समाप्त हुई कि अब उसे स्वयं को स्वयं से संवाद की जो अनुभूति हुई है वह उसके प्रवाह में बहे नहीं, ठिठके, ठहरे, विचारे और अब तो श्रोता तय कर चुका है कि उसे हारना नहीं हरा होना है. हरा होकर अपने को सार्थक करना ही है.
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ब्रज रत्न जोशी
drjoshibr@gmail.com
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ब्रज रत्न जोशी
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