शमशेर जन्म शताब्दी वर्ष में शमशेर को एक नया और स्थाई पता मिला है. पता है वर्धा का. यहाँ आप उनकी अप्रकाशित रचनाओं के पन्ने पलट सकते हैं. उनके बनाए पोट्रेट देख सकते हैं यहाँ तक कि उनके चश्में का फ्रेम और उनकी टूटी चप्पले भी देख सकते हैं. हिंदी के किसी कवि का कोई संग्रहालय हो ऐसी कामना साहित्यकारों के मन में बहुत दिनों से थी. यह ऐतिहासिक संयोग शमशेर बहादुर सिंह के साथ घटित हुआ है. काश कि भारतेंदु हरिश्चन्द्र, जयशंकर प्रसाद, प्रेमचंद और निराला जैसे साहित्यकारों के लिए ऐसी कोई जगह बनती जहां उनकी उपस्थिति को महसूस किया जा सकता.
राकेश श्रीमाल के इस आलेख में शमशेर के इस नए घर का अपनापन और सृजनात्मक समृद्धि है. बड़े ही मनोयोग से और लगाव से उन्होंने इस घर के देखा समझा है. वह इस पूरे आयोजन से जुड़े हुए हैं. इसके साथ ही यहाँ शमशेर के कुछ दुर्लभ अंतरंगता के साक्षी भी आप बन सकते हैं. यह ख़ास आयोजन समालोचन पर.
शमशेर बहादुर सिंह : पोस्ट मुकाम – वर्धा
राकेश श्रीमाल
‘प्रिय भाई, ट्रेन बहुत तड़के आई. मुसाफिरखाने में बैठकर तुम्हें याद कर रहा हूँ. कल या परसो फिर लिखूंगा’
पोस्टकार्ड पर 22 दिसंबर 82 को जयपुर से लिखा नागार्जुन का यह पत्र शमशेर के नए घर में, जो कि अब स्थायी रूप से अंतिम घर रहेगा, पढ़ने को मिल सकता है. प्रेमचंद सृजन पीठ, उज्जैन में रहने के दौरान घर के बाहर लगाने के लिए अपने नाम की जो नेमप्लेट शमशेर जी ने लगाई थी, वही नेमप्लेट उनके इस घर की एक दीवार पर लगी है, केवल यही जतलाने कि अब यही है शमशेर का नया और स्थायी घर.
शमशेर के इस नए घर में वही सब कुछ है जो बरसों-बरस कई शहरों के विभिन्न घरों में शमशेर जी के पास रहा करता था. आज इस नए घर में उन सब सामग्री की उपस्थिति मानो शमशेर की उपस्थिति का ही पर्याय बन गई है. इस सामग्री में न केवल उनकी व्यक्तिगत वस्तुएं हैं बल्कि दर्जनों अप्रकाशित कविताएँ, अधूरे गद्यखंड और डायरी के सैकड़ों पन्ने भी हैं. उर्दू में लिखी गई उनकी सभी रचनाएँ भी इस नए घर में मौजूद हैं, जिसका बहुत बड़ा हिस्सा अप्रकाशित है. पिछली सदी में लिखी गई हिन्दी और उर्दू की इन्हीं अप्रकाशित सामग्री में ‘एक और शमशेर’ की खोज होना इस सदी में शेष है.
शमशेर के इस घर ने कई शहर और मुकाम बदले हैं. अब यह हमेशा-हमेशा के लिए महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालयके स्वामी सहजानंद सरस्वती संग्रहालय में आ गया है. शमशेर की कविता के पाठकों के लिए, उन पर शोध करने वाले छात्रों के लिए तथा शमशेर को चाहने वाले लोगो के लिए शमशेर का यह नया घर सदैव खुला रहेगा. इस घर में टहलते हुए, ‘बात बोलेगी हम नहीं’ के इस कवि की घरेलू वस्तुओं से बेहद करीने से मौन संवाद भी किया जा सकता है. इस घर में शमशेर से मिलने आने वाले सहजता से या अचंभित होकर अनगिनत कागजों पर शमशेर द्वारा लिखे गए शब्दों के पीछे उसके रचना समय में झांक सकते हैं, जहॉं मौन के इस कवि की असल रचना-प्रक्रिया कईं गांठों में बंधी दिख सकती है.
नई दिल्ली के बी-18 दयानंद कॉलोनी, लाजपतनगर के घर में 16 मई 1974 को शमशेर अपनी डायरी में लिखते हैं –
सफाई की : यानी धूल झाड़ी ड्राइंगरूम की. अपने कमरे की, इसके फर्श पर पानी भी फैलाया. देखा तो, चिडियों ने उर्दू वाले रैक पर टोस्टर मशीन के बीच में, बहुत ही सुरक्षित जगह घोंसला बना रखा है. अब 9 बजने में 20 मिनिट हैं. जमादार अभी तक नहीं आया. मगर ऐन अभी सुपर्तन आयी. बहुत बीमार पड़ गयी थी. उल्टियां, अब ठीक है, मगर दुबली कमजोर. तादम लग रही थी.
11 बजकर 30 मिनिट : वि.वा के डब्बे में गर्म दूध गर्म पानी मिला कर भरा और बैग में रखा. अभी ऑमलेट बनाकर दाल-भात, कल की रोटी के साथ खाकर और दूध पीकर उठा हूँ. दफ्तर जाने के लिए. देखता हूँ मेज ज्यों की त्यूं काग़ज-पत्तर से लदी पड़ी है. उसमें कहाँ होगी वह दिनकर वाली शोक कविता ? – निकालूँ ?…. नहीं. ….. अब अगर मैं लेटा, तो बस गया, दो घंटे के लिए….. हर्गिज नहीं. उर्दू गद्य के श्रेष्ठ नमूने ही क्यों न जमा करूँ, आरंभ से लेकर. एक ऐसा चयन ‘इशू’ कराना चाहिए. गालिब के खतों का एक चयन तो यहीं रक्खा है.
हिंदी के साहित्य फलक पर यह पहली बार संभव हुआ है कि किसी लेखक को या सीधे सीधे विजयदेव नारायण साही के शब्दों में कविता के प्रथम नागरिक को कुछ इस तरह से संयोजित किया गया है मानो हम उनके घर में आ गए हैं. शमशेर जी अमूमन कुरते पहनते थे. उनके कुरतों के रंगों के चयन में उनका अपना विशिष्ट रूझान देखा जा सकता है. उनके कुरतों के पसंदीदा रंग भी उनके मौन और उसमें अदृश्य सादगी का ही प्रतिबिंब लगते हैं. वे कभी कभी पेंट और टी शर्ट भी पहनते थे. शमशेर के इस नए घर में कवियों के कवि के ये परिधान देखते हुए यह सोचा जा सकता है कि वे अपनी अनुभूति को किस तरह उसी के समतुल्य शब्दों से अभिव्यक्त करते रहें होंगे. वे बहुत मोटी फ्रेम का चश्मा पहनते थे. उनके तीन चश्मे यहॉं देखे जा सकते हैं. अपने रेखांकनों को पूरा करने के लिए वे जिस कंपास के उपकरण इस्तेमाल करते थे, वे भी यहां मौजूद हैं. रंजना अरगड़े के पिता ने जो एक छड़ी उन्हें नैनीताल में भेंट की थी और जिसका इस्तेमाल वे करते थे, वह भी इस नए घर में रखी हुई है.
उनकी दो जोड़ी चप्पल, एक जोड़ी मौजे के अलावा उनकी कंघी, उनका टूथब्रश और ऐसी कई उनकी व्यक्तिगत वस्तुएं यहां देखी जा सकती हैं. शमशेर जी को मानचित्रों से बड़ा लगाव था. जब वे स्कूल में पढ़ते थे, तब उनके बनाए मानचित्र स्कूल की दीवारों पर होते थे. उनका एक प्रिय एटलस भी इस घर में देखा जा सकता है. उनकी चार पूर्व पीढियों के वंशवृक्ष के एक चार्ट के साथ बी.ए. की डिग्री, 1928 में हाईस्कूल परीक्षा का प्रमाण पत्र, समस्त मेडिकल रिपोर्ट, डाक्टर के प्रिस्किपशन इत्यादि भी हैं.
विभिन्न काल क्रमों में बनाए गए शमशेर जी के लगभग 30 चित्र भी इस घर में हैं. उन्हें चित्रकारी करना बेहद अच्छा लगता था. उनके कुछ चित्रों में आकृतिमूलक काम के साथ-साथ कुछ अमूर्त, कुछ लैंडस्केप और कुछ सैल्फ पौट्रेट हैं. उन्हें पेस्टल चाक बेहद अच्छे लगते थे. शायद शेड्स के हिसाब से पेस्टल को वापरने का तरीका उन्हें अपने लिए सुविधाजनक लगता रहा होगा. चित्रकला की अपनी रूचि को परिपूर्ण करने के लिए उन्होंने कभी जलरंगो का इस्तेमाल नहीं किया. वे बखूबी जानते होंगे कि जलरंगो का इस्तेमाल करना उनके वश में नहीं है. लेकिन पेस्टल रंगो से वे रंग-रेखा के आकार ओर आकृति को आसानी से अपने अनुसार ढ़ाल सकते थे. एक कवि रंग-माध्यम में जाकर अपना आत्मचित्र किस तरह बना सकता है, यह उनके चित्रों में देखना-परखना एक विशिष्ट किस्म का रसास्वादन देता है.
उनकी डायरियों से यह स्पष्ट हो जाता है कि उन्हें विभिन्न रंगो के पेन का इस्तेमाल करना अच्छा लगता था. वे लाल, हरे और अन्य रंग के स्केच पेन से अपनी डायरियों में लिखा करते थे. स्पष्ट है कि रंगो के प्रति उनका प्रेम मात्र चित्रकारी तक सीमित नहीं था.
शमशेर का 21 अप्रैल 1952 में बनाया एक सेल्फ पौट्रेट कत्थई, नीले ओर काले रंग से बना है. जिसे देखकर यह अनुभूत किया जा सकता है कि वे बाहर देखते हुए अंतत: अपने भीतर को ही देख रहे हैं. यह अदभूत शबीह है. समकालीन भारतीय कला में पौट्रेट को लेकर अगर इतिहास बना तो शमशेर का यह आत्मचित्र इस इतिहास के कुछ श्रेष्ठ चित्रों में शामिल किया जाएगा. इसे शमशेर की शब्दों की रचनाशीलता में डूबकी लगाते हुए बनाया गया चित्र की तरह देखें तो इसकी रचना-प्रक्रिया की कुछ परतें हम अपने-अपने हिसाब से उधेड़ सकते हैं. इसके ठीक 2 महीने पहले उन्होंने अपना एक आत्मचित्र बनाया था जो केवल काले रंग के पेस्टल से बना है. सेल्फ पोट्रेट बनाना किसी भी चित्रकार के लिए अत्यंत धैर्य का काम होता है. दरअसल इस बहाने वह अपने आप को देखने और उससे परिचित होने को नितांत निजी उपक्रम की तरह लेता है. एक कवि जब अपना आत्मचित्र बनाता है तो सोचा जा सकता है कि वह अपने ही लिखे शब्दों से बने चेहरे को फिर से एक दूसरे माध्यम में उकेर रहा है. एक तरह से वे अपने जीवन की उदासी या मौन को उसी भाव के समानांतर लाकर अपना आत्म चित्र बनाते रहते थे.
शमशेर के उपलब्ध चित्रों को देखते हुए एक तटस्थ उदासी ओर अकेलेपन का भाव जागृत होता है. जहां सब कुछ, व्यक्ति भी, खुद कवि चित्रकार भी, उसके द्वारा उकेरे गए स्त्री चेहरे भी, उसकी अमूर्त संरचनाए, उसके लैंडस्केप, और यहां तक कि सेल्फ पौट्रेट भी शमशेर के चिर-परिचित मौन को अपने रूपाकारों में रंगो के जरिए दिखाते हैं. वे चटख रंग का इस्तेमाल कम करते थे. उनके लिए अपनी चित्रकला की दुनिया उनके अंतस के मनोभावों को शायद उनकी अपनी कविता से अधिक मुखर होकर बात करती रहना चाहती है.
शमशेर खुद अपनी कविता में मौन को लेकर क्या कहते हैं, यह जानना दिलचस्प है. 1974 की लिखी डायरी से एक अंश –
‘मौन’ मेरे यहां सन 37-38 से ही विशिष्ट अनुभूति के रूप में आने लगता है. यह मेरी कविता में एक विशिष्ट ‘तत्व है. बाद में शिल्प रूप में भी पदों के बीच में अंतराल, या एक पद के अंदर भी अनेक मात्राओं का व्यवधान – जिसके लिए कभी ‘‘……………..’’ का प्रयोग, कभी स्पेस का, कभी … का, या / / का. इस मौन का आरंभ या स्त्रोत या कारण उस स्थिति की अकथ्यता, उस विफलता की पीड़ा, जिसे मौन-रूपेण सहन करना ही अनिवार्यता थी … या अलम् था. इसके पीछे (तथ्यपरक विश्लेषण रूप में तो नहीं, पर) अपने काव्य-कला के उदेश्यों के परिप्रेक्ष्य में, या यों कहें कि, आदर्शो से दूरी या व्यवधानों के एहसास के साथ अंदर ही अंदर ‘सब्र’ बनती हुई, एक ‘अभाव’ को संज्ञापित करती हुई अनुभूति थी, जिसके लिए ‘मौन’ एक व्यापक सा प्रतीक बनता गया. मौन की अनुभूति को आरंभ से (लगभग सन 37 से) अब तक की रचनाओं में टटोला, परखा और मूल्यांकित किया जा सकता है.
यह सभी जानते हैं कि हिंदी कविता की आलोचना की जमीन पर शमशेर की उपस्थिति जितनी होनी चाहिए, उतनी नहीं है. आलोचना के पर्याप्त प्रतिमानों का अभाव संभवतया: इसका प्रमुख कारण रहा है. शमशेर की डायरी का उपरोक्त अंश यह स्पष्ट रूप से बतलाता है कि शमशेर अपने ‘मौन’ का व्यापक मूल्यांकन अपनी लेखकीय उम्र के ठीक बीच में चाहते थे. वरना इस डायरी को लिखे जाते समय अड़तीस वर्षो से मौन को रचने वाले इस कवि को उस समय तक इस तरह से देखा-परखा नहीं गया था. आलोचना के नए प्रतिमान क्या अभी तक इतने अक्षम है ?
मार्च 74 की एक डायरी में शमशेर लिखते हैं –
नि. जी के छंदो की ओजस्वी झनकार प्रभावित करती थी. उनकी अद्वैत भावना भी कम नहीं.
‘नाच नाच तू श्याम’
यह रवीन्द्र की भावनाओं से मेल खाती थी. नि. जी. का रवीन्द्र कविता कानन मैंने काफी तल्लीनता से उन दिनों पढ़ा. ‘परिमल’ से विशेष प्रभाव ग्रहण किया.
मसलन, मिलाइये ये कविताएं
सावन (सरस्वती)
मिलो अधरों पर धर अधर (सरस्वती)
न बोल, न बतला (अप्रकाशित)
बाद में निराला जी की स्पिरिट, उनकी आजाद तबियत का प्रभाव, अधिक स्थायी रहा. हां, और निराला जी के यहां ‘प्रेम’ की भावना, प्रेम का आदर्श, जिसमें मैं इकबाल के प्रेम की भावना को जोड लेता था और कहीं शायद रवीन्द्र को भी. पंत जी की वह ‘प्रेम चाहिए सत्य सरल’ पंक्ति… पर पंत जी प्रेम के नहीं, सौंदर्य के ही कवि अधिक हैं, निराला प्रेम की शक्ति के, इकबाल विश्वव्यापी अलौकिक-लौकिक प्रेम की शक्ति के कवि थे.
प्रोफेसर रंजना अरगड़े को पूरे हिंदी समाज को धन्यवाद देना चाहिए जिनकी इच्छा शक्ति और दृढ़ संकल्प ने बीस वर्षो तक शमशेर के इस नए घर में उपलब्ध सामग्री को बचाकर ओर संजोकर रखा. महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के कुलपति विभूति नारायण राय ने जिस तरह से विश्वविद्यालय की मूल अवधारणाओं को सकारात्मक विकास की तरफ न केवल मोड़ा है, बल्कि मात्र वैचारिकी में न टहलते हुए उसे यथार्थ के धरातल पर सक्रिय रूप से जीवंत किया है. उनके अपने मन में संग्रहालय के विस्तार की सुदढ़ योजना है. जिसे समय-समय पर क्रियान्वित होते देखने की इच्छा निसन्देह वृहत्तर हिंदी समाज को रहेगी. महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय में स्वामी सहजानंद सरस्वती संग्रहालय की स्थापना करने वाले विभूति नारायण राय की यह दृढ़ कोशिश है कि वे इस संग्रहालय को हिंदी साहित्य का सबसे बड़ा संग्रहालय बनाएं.
हिंदी के लेखक समाज को अपनी तमाम वाद भिन्नता से परे रहकर इस बड़ी पहल का स्वागत करना चाहिए. न सिर्फ इसलिए कि इस बहाने एक लेखक को व्यापक हिंदी समाज में एक प्रतिष्टित स्थायी जगह मिली है बल्कि इसलिए भी कि किसी भी लेखक की शाश्वत उपस्थिति का मूल्यांकन, उसके जीवन जीने के ढंग, उसके पहनावे, उसकी रूचियों ओर उसकी आदतों के साक्ष्य प्रस्तुत करके भी किया जा सकता है.
वरिष्ठ कवि और शमशेर के निकट रहे चंद्रकांत देवतालेका कहना है कि महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय की शमशेर जैसे कवि की कृतियों को संजोने की जीवंत कोशिश के लिए रंजना अरगड़े ने जो आत्मीय सहयोग प्रदान किया है वह साहित्य जगत में एक दुर्लभ दृष्टांत है. उन्होंने नासिक मे मराठी के अग्रज कवि कुसुमाग्रज का संग्रहालय देखा है जो उनके ही घर में उनकी हर चीज को सहेजकर संजोकर रचा गया है. उनकी किताबें, प्रकाशित-अप्रकाशित रचनाएं, उनकी व्यक्तिगत वस्तुएं इत्यादि हैं. वहां हर किसी को आने-जाने की सहज स्वतंत्रता है. इसकी देखरेख के लिए वहां तीन-चार कर्मचारी भी नियुक्त हैं.
शमशेर जी से जुड़ी एक आत्मीय स्मृति को देवताले जी ने बताया कि एक बार उज्जैन में देवताले जी अपनी पत्नी के साथ खाने का कुछ सामान लेकर शमशेर के पास गए. उन्हें एक कार्यक्रम में शासकीय महाविद्यालय में बुलाया गया था. वह जाडे के दिनों की रविवार की सुबह थी. शमशेर जी धूप में कुर्सी पर बैठे थे. तब श्रीमती देवताले ने उनसे सहमति लेकर उनके सिर में तेल लगाया था. वे बेहद संकोच और शर्म के साथ इस बात के लिए माने थे. उस समय पक्षी उड़ रहे थे और चहक रहे थे. तब शमशेर जी ने कहा था कि वे भी इस दुनिया से सुबह के वक्त जाना पसंद करेंगे. उसी दिन उन्होंने रंजना से उनकी अटैची में से एक पैकेट मंगाया. वह पैकेट उन्होंने श्रीमती देवताले जी को यह कहते दिया कि आज मेरी बहू ने मेरी सेवा की है, उसके लिए उसे यह साडी दे रहा हूं. तब देवताले दंपति की आँखो मे आंसू भर आए थे.
हिंदी के ही कवि और गद्यकार कुमार अंबुज ने यह समाचार जानकर कहा कि शमशेर की प्रकाशित और अप्रकाशित रचनाओं का, उनसे जुड़ी तमाम चीजों का विशिष्ट संग्रहालय में उपलब्ध होना एक ऐसी प्रशंसनीय पहल है जो हिंदी के इस अप्रतिम रचनाकार के प्रति आदरांजलि तो है ही, उस तमाम लोगो के लिए भी एक उपहार है जो शमशेर की कविता को बहुत ललक के साथ देखते हैं, उनके उत्तराधिकार से खुद को जोड़ने की कोशिश करते हैं. हमारे देश में, खास तौर पर हिंदी में लेखकों की पांडुलिपियों और उनके द्वारा वापरी गई चीजों के प्रति वैसा भाव और आत्मीय संरक्षण प्रबल नहीं हो पाया जो सृजनात्मक प्रेरणा का विषय भी हो. इस पहल से इस दिशा में कुछ बेहतर वातावरण भी बनेगा.
कुमार अंबुज 1983 में शमशेर से पहली बार उज्जैन में मिले थे. उस समय तक कुमार अंबुज ने विधिवत लेखन शुरू नहीं किया था. वे जब मिले तो अंबुज को उनसे बात करने का साहस नहीं हुआ था. अंबुज को मोटे-मोटे लैंस के चश्मे मे उनकी आँखें बडी ही रहस्यमय अकेलापन लिए लगी थी.
उपन्यासकार तेजिंदर की पोस्टिंग 84-85 के दौरान उज्जैन में ही थी. तब शमशेर प्रेमचंद सृजन पीठ पर थे. उनकी रायपुर से प्रतिक्रिया थी कि शमशेर जैसे लेखक जो अपनी रचनाओं में काल से होड़ करते हैं, की सामग्री को जीवित रखने के लिए हिंदी विश्वविद्यालय जैसी संस्था ने जो काम किया है, वह बहुत महत्वपूर्ण है. लोकतांत्रिक व्यवस्था के इतने दशकों बाद भी ऐसी कोई संस्था नहीं थी जो लेखक की स्मृति को इस तरह से संजोकर देखे.
कहानीकार और उपन्यासकार धीरेन्द्र अस्थाना ने मुंबई से बतलाया कि मेरी जानकारी में यह एक अविस्मरणीय और दुर्लभ घटना है. हिंदी समाज ने इससे पहले अपने किसी लेखक को इतना दुलार और मान-सम्मान नहीं दिया कि उनके द्वारा अपनाई गई रोजमर्रा की चीजों को तड़फ के साथ बतौर धरोहर संभाल लिया. शमशेर की रचनाओं और जीवन से जुड़ी चीजों की जो साज सम्हाल हिंदी विश्वविद्यालय ने की है वह अपने आप में एक कीमती ओर रोमांचित करने वाली बात है. हिंदी लेखक के हिस्से में अभी तक दुर्भाग्य, उपेक्षा और वंचना ही खड़े मिले हैं, यह पहली बार है जब एक हिंदी लेखक को उसके समूचे मान और ठाठ के साथ क्षितिज पर रेखांकित किया गया है.
कवि राजकुमार कुंभज को जब यह जानकारी मिली तब उन्होंने कहा कि मुझे विस्मयकारी आनंद आ रहा है कि मेरे वरिष्ठतम कवि को ऐसे संभाल कर रखा जा रहा है. हिंदी विश्वविद्यालय ने शमशेर को कविता का घर दिया है किसी भी कवि के लिए कविता का घर बहुत बड़ा होता है, वैसे तो कवि का कोई घर नहीं होता. कुंभज ने कहा कि रंजना शमशेर की मानस-पुत्री थी. यह अनूठा रिश्ता था जो इतने लंबे समय तक चला और अब उसी मानस-पुत्री ने शमशेर को विश्वविद्यालय के घर में हमेशा के लिए समूचे हिंदी समाज को सौंप दिया है.
कहानीकार ओर ‘साक्षात्कार’ के पूर्व संपादक हरि भटनागर ने भोपाल से अपनी प्रतिक्रिया देते हुए बताया कि हिंदी के लिए यह गौरव की बात है कि किसी लेखक को ऐसा सम्मान दिया गया है. यह अभी तक के सभी सम्मानों से बहुत बड़ा सम्मान है. इसके लिए मैं कुलपति विभूति नारायण राय की सराहना करता हूं कि यह पहला विश्वविद्यालय है जिसने इस तरह का काम करने का बीड़ा उठाया है.
साक्षात्कार का एक अंक शमशेर, नागार्जुन और केदारनाथ अग्रवाल पर केंद्रित होकर निकला था. उसमें शमशेर की बच्चों के लिए एक कविता थी, जिसे पोरस की विजय पर बच्चे नाचते हुए गाते हैं.
वाह सिकंदर वाह वाह
यह कविता हरि भटनागर की बेटी को याद थी. जब शमशेर हरि भटनागर के घर गए तो बेटी को मालूम पड़ा कि यह वही दादाजी हैं जिन्होंने वह कविता लिखी है. फिर तो शमशेर केवल उसी से बात करते रहे थे.
तो शमशेर के पाठकों, शमशेर अपने एक और व्यापक अपरिचय के साथ वर्धा में स्वामी सहजानंद सरस्वती संग्रहालय में आपसे मिलना चाह रहे हैं. हिंदी के साहित्य संसार और उसकी तमाम अकादमिक और गैर अकादमिक समारोही गतिविधियों को शमशेर के इस नए घर से, और इस बहाने शमशेर के एक नए चेहरे से मुखातिक होना चाहिए. यह बहुत महत्वपूर्ण है कि शमशेर का अप्रकाशित जिम्मेदारी से प्रकाशित हो और उस पर चर्चाओं और टीकाओं का सिलसिला शुरू हो. एक कवि के सशरीर अनुपस्थिति के ठीक दो दशक बाद शमशेर के शब्दों से ही बना, शमशेर का अपना एक और चेहरा पुर्नस्थापित हो.
शमशेर के इस नए घर मे शमशेर की अप्रकाशित रखी कविताओ से 28 अप्रैल 1953 में लिखी एक कविता :
रोशनी की लहर
आईना सजीव
दूर तक जिनमें खड़े हैं स्पष्ट
मौन चक्राकार जीने
व्योम तक झिलमिल
मैं खुले आकाश के मस्तिष्क में हूं
एक स्वर का मौन
जिसका अर्थ सागर
दूर तक है-
दूर तक है