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Home » परिप्रेक्ष्य : साहित्य की मुक्ति

परिप्रेक्ष्य : साहित्य की मुक्ति

आलोचक कवि गणेश पाण्डेय अपने बेलौस लेखन के लिए जाने जाते हैं, सीधे कहते हैं और नब्ज पकड़ लेते हैं. साहित्य के खलकर्मों पर उनकी नज़र है. प्रस्तुत आलेख क्षोभ और दुःख के  साथ लिखा गया है. आखिर हिंदी साहित्य की दुर्दशा का कारण क्या है ? संवाद की शैली में  एक जरूरी हस्तक्षेप  साहित्यिक मुक्ति […]

by arun dev
August 26, 2012
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आलोचक कवि गणेश पाण्डेय अपने बेलौस लेखन के लिए जाने जाते हैं, सीधे कहते हैं और नब्ज पकड़ लेते हैं. साहित्य के खलकर्मों पर उनकी नज़र है. प्रस्तुत आलेख क्षोभ और दुःख के  साथ लिखा गया है. आखिर हिंदी साहित्य की दुर्दशा का कारण क्या है ? संवाद की शैली में  एक जरूरी हस्तक्षेप 


साहित्यिक मुक्ति का होगा क्या उर्फ ये तो कोई रंजिश थी अतिप्रचीन        
गणेश पाण्डेय

हेमंत शेष जी, आपका प्रश्न महत्वपूर्ण है. आपका प्रस्थानबिंदु भी संभवतः संदेह से परे है. यह एक संयोग है कि आपके प्रश्न से कोई दो-तीन पहले मेरे एक प्राध्यापक शिष्य ने मुझे गुरुज्ञान दिया-सर दुनिया बदलेगी नहीं. शिष्य को मेरे बारे में काफी कुछ पता है. यह भी पता है कि बहुत से गुरुओं से प्रश्न करता रहता हूँ. पर देखिए मेरा शिष्य मुझसे कितना अधिक योग्य है कि वह प्रश्न नहीं करता है, सीधे उत्तर देता है. कह सकते हैं कि अब ऐसे शिष्य आते हैं जो उत्तरीय युग के हैं. आप भोले हैं शेष जी जो आप यह प्रश्न कर रहे हैं कि भाई आप कहते तो ठीक हैं, पर यह तो बताइए कि यह होगा कैसे ?
दरअसल तीन तरह के लोग इस समय साहित्य के परिसर में कुछ कर-धर रहे हैं. यहाँ कर के साथ धर भी है, ध्यान दीजिएगा. पहले तरह के लोग तत्वज्ञानी और सर्वज्ञ हैं. हालाकि जिस अर्थ में कवि को सर्वज्ञ कहा जाता है, मैं उस अर्थ में इन्हें सर्वज्ञ नहीं कह रहा हूँ. इनकी सर्वज्ञता आकाश की तरह नहीं, बल्कि कहना चाहिए कि ये साहित्य के सुरंग की गतिविधयों के सर्वाधिक जानकार हैं. ये जानते हैं कि यह दुनिया नहीं बदलेगी, कोई क्रांति अब इस भारत धरा पर नहीं होगी. कोई सिरफिरा अँधेरे के इस साम्राज्य को छिन्नभिन्न नहीं कर सकता. ये जानते तो यहाँ तक भी हैं कि शिखर को ऐसे सिरफिरे छू भी नहीं सकते, उन्हें हटाना तो बहुत बड़ी बात है. कुछ लोग कह भी सकते हैं कि ये ठीक भी सोचते हैं, आज राजनीति के घोटाले बाजों के सरदार को हटाया जा सका है ? कौन है माई का लाल जो यह कारनामा कर सकता है ? जाहिर है कि ऐसे लोग सत्ता के इर्द-गिर्द रहने में ही मनुष्य मात्र का कल्याण समझते है. अपना तो खैर सबसे अधिक समझते ही हैं. हो सकता है कि मेरे प्राध्यापक शिष्य के मन में मेरे कल्याण की भी बात रही हो कि सर आप कहाँ फँस गये हैं, निकलिए अपने घटाटोप से. देखिए कामयाबी की सीढ़ी आपका इंतजार कर रही है.
साहित्य के आकाश का सबसे बड़ा दफ्तर तो अपने शहर में ही है. आप कहाँ देख रहे है, अंट-शंट ? आपके सिद्धार्थ नगर जनपद के ही महान आलोचक इस समय आलोचना के हेड आफिस का सारा काम-धाम देखते हैं. क्यों नहीं उन्हें प्रसन्न कर लेते हैं ? आप भी पंडित और उसी जनपद के पंडित फिर भला अनाथ क्यों हैं साहित्य में ? जब एक नहीं दो-दो विश्वनाथ आपके सन्निकट हैं. हाथ भर की दूरी पर. बस हाथ फैलाने भर की देर है. अपने शिष्य से क्या कहूँ भला कि मैं अपने जनपद के गद्दार या अपने मौजूदा शहर के साहित्य के डान के आगे हाथ कैसे फेला सकता हूँ, मेरा तो हाथ ही मेरे वश में नहीं है. मेरे दूसरे संग्रह ‘ जल में ’ में की दूसरी कविता है-‘‘मुश्किल काम’’. इसे यहाँ देना जरूरी है-
यह कोई मुश्किल काम न था
मैं भी मिला सकता था हाथ उस खबीस से
ये तो हाथ थे जो मेरे साथ तो थे पर आजाद थे.
मैं भी जा सकता था वहाँ-वहाँ
जहाँ-जहाँ जाता था अक्सर वह धड़ल्ले से
ये तो मेरे पैर थे जो मेरे साथ तो थे
पर किसी के गुलाम न थे.
मैं भी उन-उन जगहों पर मत्था टेक सकता था
ये तो कोई रंजिश थी अतिप्रचीन
वैसी जगहों और ऐसे मत्थों के बीच.
मैं भी छपवा सकता था पत्रों में नाम
ये तो मेरा नाम था कमबख्त जिसने इन्कार किया
उस खबीस के साथ छपने से
और फिर इसमें उस अखबार का क्या
जिसे छपना था सबके लिए और बिकना था सबसे.
मैं भी उसके साथ थोड़ी-सी पी सकता था
ये तो मेरी तबीअत थी जो आगे-आगे चलती थी
अक्सर उसी ने टोका मुझे-
‘पीना और शैतान के संग ?’
यों यह सब कतई कोई मुश्किल काम न था.
पर मेरी बात को मेरे शिष्य ही नहीं, कोई क्यों समझे ? कोई जोर-जबरदस्ती है क्या ? कि मेरे शिष्य मेरी तरह सोचें, कोई किसी चलतापुर्जा गुरु की तरह सोचने के लिए भी उतने ही स्वतंत्र हैं, जितना मैं. गुरुओं पर भी मेरी गुरु सीरीज तो है ही. हमारे समय का विद्या और साहित्य का संसार उसमें मौजूद है ही. खैर शेष जी, ये तो पहले तरह के लोगों की बात हुई जिन्हें पक्का पता है कि साहित्य की दुनिया हरगिज-हरगिज नहीं बदलेगी. सिरफिरे कुछ भी कहते रहें. असल में ऐसे लोगों के साथ दिक्कत ये है कि ये लोग स्टेशन पर रुकने वाली या बदलने वाली गाड़ियों पर नहीं बल्कि नित्य कामयाबी की पटरी पर दौड़ती हुई गाड़ियों पर दौड़कर चढ़ने वाले दु्रतगामी लोग हैं. इन्हें न तो जान की परवाह है न किसी राक्षस से डर लगता है, ये डरते हैं तो बस विफलता के मामूली काँटे से. ऐसे लोग साहित्य में आए ही इसलिए हैं कि अमर हो जाएँ. मरने के लिए तो बेवकूफ लोग हैं ही. मैं भी सोचता हूँ चलो ठीक ही है, यदि एक मुझ नाचीज के मरने से बाकी  लोग अमर हो जाएँ तो भी कुछ बुरा नहीं. यह कोई जरूरी नहीं सिद्धार्थ नगर में या गोरखपुर में कई अमर लेखक हों.
मैं तो इतना बुद्धू हूँ कि जानता ही नहीं कि लेखक अमर होने के लिए हुआ जाता है. क्या रेल या जहाज का पायलट अमर होने के लिए हुआ जाता है ? किसी मल्लाह को अमर होते देखा है आपने ? जैसे झाड़ू लगाने का काम अमर होने के लिए नहीं, उसी तरह मेरे लिए भी साहित्य में ईंट-गारा ढ़ोने का काम अमर होने के लिए नहीं है. बस एक सड़क बन जाय. अपने हिस्से का काम कर जाऊँ. बस. कबीर अमर होने के लिए कविता लिख रहे थे कि सूरदास या जायसी या तुलसी ? या मीरा या रैदास या……..  अमर होने के लिए कोई लिखता है, तो चलो उसे भी अच्छा काम मान लेता हूँ, पर अकादमी पुरस्कार अमर होने का प्रमाणपत्र है. साहित्य के स्वर्ग का टिकट साहित्य अकादमी की खिड़की से मिलता है क्या ? कोई आरक्षण काउंटर है वहाँ ? कुछ लोगों को लगता है कि साहित्य में अमर होने के लिए विदेश यात्राएँ बहुत जरूरी हैं, वे मिनट-मिनट पर विदेश का दौरा करते रहते हैं और अखबार के दफ्तरों में फोटो सहित विवरण छपवाते रहते हैं.
मैं तो समझ ही नहीं पाया कि चीन में हिंदी कविता पढ़ने या हिंदी साहित्य पर बात करने का क्या मतलब है. इस काम के लिए अपना सिद्धार्थनगर, गोरखपुर, महराजगंज, देवरिया, पड़रौना…खराब है क्या ? यहाँ हिंदी मर रही है और आप हिंदी का अमृत बाँटने चीन जा रहे हैं, इससे बड़ी बेवकूफी की बात मेरी दृष्टि में दूसरी नहीं. हिंदी के बाऊ साहब को पता है कि उनके पडरौना या बलिया या जीयनपुर में हिंदी मर रही है ? सवाल आज बाऊ साहबों का नहीं है कि वे क्या कर रहे हैं. उन्हें जितना करना था या कह सकते हैं कि हिंदी की दुनिया में जितना जापानी बुखार फैलाना था, फैला दिया है. हिंदी के लाड़ले और सच्चे सपूत क्या कर रहे हैं, जिन्हे अभी पुरस्कारों का राजरोग नहीं लगा है. आजादी की लड़ाई क्या सिर्फ बूढ़ों न लड़ी है ? नौजवानों की हिस्सेदारी क्या कम है ? बहरहाल, आपके प्रश्न के उत्तर में मुझे न जाने कहाँ-कहाँ भटकना पड़ रहा है. असल में आपका प्रश्न असाधारण है. मैं आप पर तनिक भी संदेह नहीं करूँगा कि आपने मजाक में या संदेह में या भय में यह प्रश्न किया है. मैं तो मानता हूँ कि आप के भीतर यह इच्छा है कि साहित्य की सत्ता में भी बदलाव हो भ्रष्ट लोग साहित्य की सत्ता से बेदखल हों.
पर सवाल यह है कि यह होगा कैसे ? लेकिन इसके उत्तर की खोज में मुझे फिर एक चक्कर दूसरे तरह के लोगों का लगाना पड़ेगा. पहले तरह के लोगों की बात कर चुका हूँ. दूसरे तरह के लोग क्रांति के गीत गाते हुए ही इस धरती पर अवतरित हुए हैं. इंकलाब जिंदाबाद और माक्र्सवाद जिंदावाद जैसे कई मशहूर नारे मिनट-मिनट पर इनकी जीभ पर होते हैं. चलिए यह भी साहित्य में बुरा नहीं है, बल्कि साहित्य को उद्देश्य को सुंदर बनाने का एक जरूरी विकल्प है. लेकिन यह विकल्प उस वक्त दम तोड़ देता है, जब साहित्य की भ्रष्ट सत्ता के सामने ऐसे लोग हथियार डाल देते हैं. आज की तारीख में इनकी सबसे बड़ी मुश्किल यह है कि ये चाहते हैं कि अमेरिका तो ध्वस्त हो लेकिन साहित्य की दिल्ली या बनारस बना रहे. साहित्य की सत्ता की क्रूरताएँ, हर प्रकार का शोषण और बर्बर दमन और कत्लेआम इन्हें नहीं दिखता है. ये सिर्फ सुरक्षित महान साहित्य का काम करना चाहते हैं.
ये लाल कविताएँ तो लिखना चाहते हैं पर साहित्य के अन्यायी के सामने लाल नहीं होना चाहते हैं. ये भी दुनिया भर में घूमते या वहाँ के साहित्य के अच्छे अंशों का पाठ करते नहीं थकते हैं, पर अपने साहित्यिक जीवन में निडरता और मुखरता से परहेज करते हैं. ये बहुत बड़े रिसर्चर तो बनते हैं पर साहित्य की सत्ता के सामने एक छींक भी नहीं निकाल सकते हैं. अरे भाई आप सत्रहवीं शती के बारे में क्या सोचते हैं, इसमें कोई जोखिम नहीं है, इस पर कोई आपसे नासराज नहीं होगा. आप वाह-वाह लूट सकते हैं पर आपने समय के बारे में कितना सच कहते हैं. कबीर ने बपने समय के सच को कितना फटकार कर कहा है, पर आप अपने समय के बारे में चुप क्यों हैं ? जाहिर है, बोलते ही सतता और सफलता का समीकरण बिगड़ जायेगा. इस डर से चुप रहते हैं. यहाँ मैं कहना चाहता हूँ कि मैं भी प्रगतिशील विचारधारासे उतना ही प्रेम करता हूँ, पर भीतरी निष्ठा के साथ. दिखावे के तौर मिनट-मिनट पर सुकविधाजनक छींक, छींक कर नहीं.
एक बऔर जरूरी बात यह कि मैं  मार्क्सवादी  लेखकों में गैरमार्क्सवादी लेखकों से अधिक ईमान और साहस चाहता हूँ. मेरी यह माँग किसी को गलत लगे तो लगे. अरे भाई जब सिपाही ही बेईमान हो जाएगा तो फिर होगा क्या…. साहित्य में विचारधारा के साथ विश्वविद्यालयों के हिंदी विभागों का चोलीदामन का साथ है. दुर्भाग्य से ऐसे ही कुछ विभागों को मैं हिंदी की लंका के रूप में देखता हूँ. जाहिर है जहाँ लंका होगी, वहाँ कोई रावण होगा, कोई कुभकरण, कोई मेधनाद वगैरह…हरण और युद्ध भी होगा ही. पर आज का बाहर का लेखक भी जब हिंदी की लंका के राक्षसों का रिश्तेदार बनने लगता है ….तो लेखक नाम की संस्था का अंत निकट दिखने लगता है. तृतीय कोटि के लेखक वे हैं जो साहित्य कर दुनिया में भी क्रांति का स्वप्न देखते हैं. हैं न ये बेवकूफ नम्बर एक ? ये सोचते हैं कि ये क्रांति का बिगुल बजायेंगे और प्रगतिशील दोस्त दौड़े चले आयेंगे. उलट-पलट देंगे साहित्य की दुनिया. नहीं दोस्तो,  ऐसी बात शायद नहीं है. इन्हें पता है कि इनके चाहने से दुनिया नहीं बदलेगी. पर ये बदल गये तो इन्हें पता है कि फिर दुनिया कभी नहीं बदलेगी. ये अभी थोड़े क्रांति की हड़बड़ी में हैं. इन्हें पता है कि बाँस लेकर तोप का मुकाबला नहीं किया जा सकता है. ये तो बात को जिंदी रखना चाहते हैं. ये तो बस एक उम्मीद को जिंदा रखना चाहते हैं.

ये जानते हैं कि इनके चाहने भर से यश और पुरस्कार की घुड़दौड़ खत्म नहीं होने को है. ये बस बता भर रहे हैं कि पार्टनर तुम्हारे पैर मुड़े हुए हैं. तुम्हें जाना सीधे है और भाग रहे हो पीछे. खुद को अमर करने की होड़ क्यों ? अपनी बात को दूसरों तक पहुँचाने की चिंता क्यों नही ? यह क्यों नहीं चाहते कि तुम्हारे न रहने के बाद तुम्हारी कोई एक कविता किसी को याद रहे ? सिर्फ कविता ? आज कविता में भी अंधी दौड़ हैं. कोई  केदारनाथ अग्रवाल या नागार्जुन या त्रिलोचन या केदारनाथ सिंह इत्यादि…का क्लोन बनना चाहता है तो कोई कविता को उलटा लटका कर कविता का जादूगर ? अकादमी विजेताओं की बात कर ही चुका हूँ. ऐसे में शेष जी, साहित्यिक मुक्ति फौरन से पेश्तर संभव हो जाएगी, ऐसा कोई मुगालता मेरे भीतर नहीं है. बस आप जैसे लेखक इसे एक जरूरी बात के रूप में याद रखें इतना ही बहुत है. मैं सिद्धार्थ नगर से जे.एन.यू. या दिल्ली पहुँचने का भाग्य लेकर साहित्य में नहीं आया हूँ. कबीर भी काशी को तज कर मगहर पहुँचे थे. मैं भी आज की काशी दिल्ली से दूर हूँ. मगहर के पास. गोरखपुर में. गोरख के मुहल्ले में मेरा छोटा-सा घर है. जहाँ बैठ कर हिंदी साहित्य के बारे में कुछ सोचता रहता हूँ. उलटा-सीधा. शेष जी, इत्मीनान से लिखना चाहता था, पर प्रश्न सामने हो तो रुकना वश में कहाँ है ? हाँ, आपके प्रश्न का क्या हुआ, कह नहीं सकता…..
 _________________________________________
प्रोफेसर, हिंदी विभाग, दी.द.उ. गोरखपुर विश्वविद्यालय, गोरखपुर

संपादक: यात्रा साहित्यिक पत्रिका/ ई पता: yatra.ganeshpandey@gmail.com

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