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Home » प्रेमशंकर शुक्ल : राग अनुराग

प्रेमशंकर शुक्ल : राग अनुराग

मानव सभ्यता ने जीवन को सुगम बनाने के लिए भाषाओं का निर्माण किया. भाषा ने कविता लिखी. प्रेम, मृत्यु, भय, सूर्य, नदी, पहाड़, प्रकृति, ईश्वर ये सब कविता में आकर संस्कृति बन गए. मनुष्य अभी भी कविताएँ लिख रहा है, वह भाषा और मनुष्यता बचा रहा है.   प्रेम आरम्भ है जीवन का और सृजन […]

by arun dev
October 14, 2017
in Uncategorized
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मानव सभ्यता ने जीवन को सुगम बनाने के लिए भाषाओं का निर्माण किया. भाषा ने कविता लिखी. प्रेम, मृत्यु, भय, सूर्य, नदी, पहाड़, प्रकृति, ईश्वर ये सब कविता में आकर संस्कृति बन गए. मनुष्य अभी भी कविताएँ लिख रहा है, वह भाषा और मनुष्यता बचा रहा है.  
प्रेम आरम्भ है जीवन का और सृजन का भी. यह पूरी धरती से और उसके सबकुछ से लगाव का सबसे रचनात्मक और सशक्त प्रगटीकरण है. स्त्री- पुरुष का प्रेम किसी निर्वात में घटित नहीं होता है. इस प्रेम में इस सृष्टि का अधिकांश शामिल है.
प्रेमशंकर शुक्ल प्रेम इस अधिकांश के कवि हैं. वह प्रेम को स्वाभाविक ऊंचाई देते हैं. एक उदात्तता जो मनुष्य होने की गरिमा का बोध कराती है. यह प्रेम घटित और पुष्पित तो देह के बीच होता है पर इसकी  सुगंध की व्याप्ति दिगंत तक है. वह अनूठे और अनछुए बिम्ब लाते हैं, ये घर, जंगल और गुफा से उठाये गए हैं जो  प्रेम की ही तरह मुलायम और मादक हैं.   
प्रेमशंकर शुक्ल के शीघ्र प्रकाश्य  प्रेम कविताओं के संचयन ‘राग-अनुराग’ से १४ कविताएँ आपके लिए.
  

प्रेमशंकर शुक्ल की प्रेम कविताएँ                      




अनावरण

तुम मुझे चूमती हो
और मेरी प्रतिमा का अनावरण हो जाता है
देह में आत्मा झूलती है
और आत्मा में देह

चढ़ता-उतरता पालना
सुख है. नाभि के अँधेरे में
आनन्द का अतिरेक छलकता है.

तुम मुझे बरजती हो लाज से
लालित्य से मोह लेती हो
देह के जल से आत्मा भीज जाती है
आत्मा की आँच से देह

प्यार और पानी साथ ही आए हैं
पृथ्वी पर
आलोड़न, उमंग, तरंग तभी है दोनों में समतुल्य

हम भीगकर आए हैं जिससे थोड़ी देर पहले
पता नहीं धरती पर यह किस पीढ़ी की बारिश है

प्यार की भी पीढ़ियाँ होती हैं

हो सकता है किसी जन्म का छूटा हमारा प्यार
पूरे आवेग में उमड़ आया है अभी
और अपनी युगीन प्रतीक्षा को कर रहा है फलीभूत

प्रेम देह में
प्राण-प्रतिष्ठा है
प्यार की आवाजाही में हम
परस्पर का पुल रच रहे हैं
आत्मा और देह का कोरस
सुख के गीत में
नये रस
भरता चला जा रहा है!!

उँगलियाँ

उँगलियाँ और हृदय साथ बने हैं
इसीलिए हमारी उँगलियाँ बुनती हैं जब साथ
हृदय के सारे धागे जुड़ने लगते हैं

तुम्हारी मध्यमा की अँगूठी
मेरी साँस के कथा-जल में बह आयी है
जिसे तुम अपनी तर्जनी से निकाल लेना

याद है न तुम्हें!
अँगुलियों के पोर-पोर गिनकर ही
हमने अनगिनत किया अपना प्यार

तुम्हारी अनामिका का नाखून गड़ा
मैं अपने अँगूठे को प्यार की चुभन सिखाता रहा

बन्द मुट्ठी के खेल में
कनिष्ठिका को खोलता रहा सबसे पहले

महक मन से हमारी उँगलियाँ
साथ की सुगन्ध रचती रहती हैं
न खुली मुट्ठी में गुनगुनाती रहती हैं प्रेमगीत
प्यार का ताना-बाना उँगलियाँ ही सहेजती हैं

साथ रहने की संस्कृति
उँगलियों से ही हुई है शुरू
धरती के सारे तार
उँगलियों ने ही छेड़े हैं!


विस्तार

तुम मुझे प्यार नहीं करती हो
मेरे प्यार का विस्तार करती हो
मैं भी तुम्हें प्यार नहीं करता
तुम्हारे प्यार का विस्तार करता हूँ

(परस्पर के प्यार में ही
विस्तृत है प्यार
प्यार का फैलाव भी
जुड़ाव का ही अलंकार है !)

तुम हँसती हो और मेरे उजले आकाश का
विस्तार हो जाता है
तुम साथ चलती हो और फैलती जाती है मेरी पृथ्वी

तुम्हारा भीगना
मेरी बारिश का विस्तार है
तुम्हारा कहना मेरी कविता के दिगन्त का

ऐसे विस्तार में ही हम अपने प्रेम की
पृथ्वी बड़ी करते रहते हैं

यह भी एक विस्तार ही है
कि हम साथ – साथ साँस लेते हैं

और भूखी हवा का पेट
भरता चला जाता है !

दही-चीनी

दही और चीनी से बनी है
तुम्हारी हँसी

इसीलिए जब तुम हँसती हो
मेरा सुख तुम्हारी हँसी से
अपना खयाल मीठा कर लेता है
हँसी में इतनी कोमलता
कि मेरी निगाह में
जरा-सी लापरवाही भरी कठोरता होने पर
पहुँचती है हँसी को चोट

मुश्किलों को लाँघती-
दुखों को धकेलती
तुम्हारी हँसी की लरज भरी उजास
मेरी पृथ्वी को परिक्रमा में बल देती है

तुम्हारी हँसी से मुझे प्रेम है बहुत
मेरे प्यार का स्मारक इसीलिए
तुम्हारी हँसी में तब्दील हुआ जाता है !

मुस्कान

मुस्कान उम्र में
आसमान से बड़ी है
इसीलिए मुस्कान जहाँ तक फैलती है
आसमान भी वहीं तक फैलता है

दोनों में इतना तादात्म्य
कि जहाँ मुस्कान नहीं
वहाँ आसमान भी नहीं
प्यार की मुस्कान
आत्माकाश को उपहार देने में ही
खर्च होती है

जिन्दगी में जब आसमान कम लगने लगे
समझना चाहिए मुस्कान कम हो रही है

मुस्कान और आसमान सहोदर हैं
पृथ्वी कविता के कान में यही बात कह
अपनी परिक्रमा में लग गयी है !

उच्चारण

मेरे उच्चारण में
अशुद्धियाँ ही अशुद्धियाँ हैं.
प्रेम का व्याकरण तो सधा ही नहीं मुझसे
चुम्बन का उच्चारण इतना अशुद्ध किया कि
तुम्हारे गाल पर होंठ के साथ लगा दिया
लार भी. तुम्हारे बालों को सहलाते
उलझा लिया उँगलियाँ और यह तो हद ही हुई
कि निगाह में भर ही रहा था तुम्हारी हँसी
कि छलका दिया सहेजने से अधिक.

हथेलियों के स्पर्श में भी
मुझे रह गया स्पर्श अधिक लगता रहा. मेरी साँसों ने
हमारे प्रेम का जो संगीत रचा
उसमें आलाप का आकाश फैलना था और
लेकिन हर बार साँसों का उच्चारण द्रुत हो गया
जिसकी वजह से ही पीठ की पृथ्वी पर
उँगलियों की छाप बाँचने के लिए
हथेलियों को दौड़ाना पड़ता है बार-बार

मुझसे नहीं सधा प्रेम का व्याकरण
प्यार के उच्चारण में थरथराहट ने
सारा सुख दिगम्बर कर दिया है!

ओढ़नी


धरती घास के धागे बनाती है
और बुनती है
अपने लिए ओढ़नी

अपनी ओढ़नी में धरती
रखती है
अपने आकाश के लिए खूबसूरत जगह
घास में भी आकाश

अपनी आत्मा के सूरज से
देता रहता है धरती को आँच
पृथ्वी के प्रेम में आकाश अधिक है
कि आकाश के प्रेम में पृथ्वी
जिज्ञासा से भर निहारता हूँ
कविता की तरफ

और कविता है कि
दोनों के प्रेम के
राग-अनुराग में
पागल हुई जाती है !!

सावन के बिरह में


बड़ी माँ के किस्से में था कि –
गौरा की याद में
शिव के आँसुओं से
चम्पा के फूल बने

शिव की याद में
गौरा की आँसुओं से तारे

दोनों में इतनी एका, इतना अपनापा
इतनी समानता
कि दिन के चम्पा के फूल
रात के तारे हो जाते हैं
रात के तारे दिन के चम्पा के फूल

तभी से एकदम तभी से
प्रेमियों के कलेजे में
तारे फूल की तरह गड़ते हैं
और फूल तारे की तरह
इनकी सुगन्ध और उजास भी
सावन के बिरह में
प्रेमियों की साँस पर दर्द की तरह
लिखी मिलती है!

सुन्दर कवि

सुन्दर कवि
पंक्तियों के पंख खोल-खोल कर
उन्हें उड़ने का आकाश देता रहता है
शब्दों को माँज-माँज कर
चमकाता रहता है
उनकी धातु
प्रेम सुन्दर कवि की सबसे जरूरी कमजोरी है
और सबसे बड़ी ताकत
जीवन में सुन्दरता की
तरफदारी करते-करते सुन्दर कवि
अपनी निगाहों से
आसमान धोता रहता है
और अपनी साँसों से हवा
जीवन-मरण से जूझता सुन्दर कवि
पीली पत्तियों के साथ
टहनी से टूटता है
और कोपलों में फिर
पुनर्जन्म लेता रहता है!

अंगराग

नाभि पृथ्वी की
अंतिम गहराई है
योनि सुख-रन्ध्र

उरोज सबसे ऊँचे पहाड़
जिनके भीतर साँसों के
झरने बजते हैं

होंठ पंख हैं
शब्दों को बैठाकर रतिरीति रचते हैं

प्रीति आँखों में बस
बाँझ होने से बचाती है
आत्मा की घाटी

हिचकी यादों की नागरिकता है
हथेलियाँ फिर लौटकर आने का वादा

प्यार ऐसी पूँजी है
जिसे मासूमियत से खर्च करने पर ही

आत्मा की आय बढ़ती है !





कायनात की

गलियाँ पाँव की बुनी हुई रस्सियाँ हैं
जो प्रेम के पुल बनाने के काम आती हैं

आत्मा में बसन्त भरने के लिए
देह के सारे दरवाजे खोलना
प्रेम की हाजिर -जवाबी है

नाभि में एकत्र सारे स्पर्श
आत्म-तरु के पात बन
हवा में अहरह काँपते हैं

प्रेम आत्मा का निर्भार सुख है
नसाव-बिगाड़ पर दुख भी
(सूखी चट्टान के वजन जितना)
नींद-नसानी रातें
प्रेम के बिगड़ाव से ही बनती हैं

दिन की पीठ पर
जब हम एक-दूसरे में अपनी धूप गूँथ रहे थे
कोई था ताड़ता हुआ हमें
जिसने \’ बिछड़ना\’ नामक क्रिया का इस्तेमाल कर
हम दो संज्ञाओं से अपना बदला निकाल लिया
छूटते समय का
तुम्हारी आँख में डबडबाया आँसू
मेरी आँख में छलछला आया है

आदिकाल से ही बहेलिए का तीर
प्रेम के पाखी के कलेजे में ही धँसता है

आदि कवि के पाखी की चीख
कायनात की हर कविता का
आँसू निकाल देती है !

पाँव-महावर

महावर पाँव पर बसन्त है
तुम्हारे पाँव का महावर
धरती पर छप गया
और रँग गया आँगन का लिलार

दुनियादारी में बिंधा, दौड़ते-भागते
महावर की छाप जितना ही आया
अपने जीवन में प्रेम

भाव से भरा हुआ महावर
अभाव का आभूषण है
नहीं होता जेवर-गहना
तो हमारे छोटे-छोटे घरों की औरतें
महावर से ही कर लेती हैं
अपना साज-सिंगार

सुन्दरता के अचरज से भर
आँख गड़ाकर देखते हैं जब हम
पाँव का महावर
महावर लजा कर लाल हो जाता है

काज-बिआह उत्सव-प्रयोजन में
महावर लगाती हैं जब औरतें
बंजर होने से बच जाता है
हमारी धरती का पाँव

स्त्री और धरती जुड़वा हैं
फूल-पत्ती बेलें धरती के महावर-मन से ही फूटते हैं

लोक के उत्सव मुश्किलों से जूझने के
सच्चे औजार हैं
मन की ऊर्जा के समूह

महावर रंग-रसायन है
पाँव-पाँव चलकर
पृथ्वी की उमर तक जाएगा
काम-धाम मेहनत-मुश्किल के बाद
महावर लगाने साथ बैठती हैं जब स्त्रियाँ
सुन्दर किस्सों और हँसी-मजाक को पंख लग जाते हैं

उत्सव के कल्पवृक्ष को अपने पसीने से सींचते
हमारे जनपदों की देहरी में बहुत रंग हैं
तंग हैं जिनकी निगाहें
पाँव के महावर के फूल की महक
उनके फेफड़े में उतारती नहीं अपना रंग

सुन्दरता के लिए वाक्य-व्यय करते
मुझे हमेशा लगता है कि-
प्रेम कविताएँ
भाषा के पाँव के महावर से ही
अपना होना शुरू करती हैं !

कच्चा प्रेम

आम पृथ्वी के तन
और सूरज के मन से बना फल है
पृथ्वी आम में मीठे रस भरती है
और सूरज उसे पकाता है

आम ऐसा मीठा फल है
पककर जिसके टपकने में भी मिठास होती है
सुनकर जिसका टपकना
दौड़ पड़ता है हमारा बचपन

सिंदुरिया, सुआपंखी, शंखा, मालदह,
चपटिया, मिठौंहा आदि होते हैं
हमारे जनपदों में आमों के नाम

पके आम खाते हुए
पेड़ में लदे आम देखकर ललचाए राहगीरों का मन भी
चख लेते हैं हम

गिलहरी-खाए आम में
चली आती है गिलहरी के दाँत की शक्कर
सुग्गे आम को इतनी कलाकारी से खाते हैं कि
याद कर उसे पेड़ के मन में
दौड़ती रहती है हरियाली

अमराइयों में कोयल के गीत की मिठास
पकाती रहती है आम
इसीलिए आम खाते हुए बचाकर चलना होता है हमें
कि कोयल की गीत में गड़ नहीं जाएँ कहीं
हमारे दाँत

बसन्त-मन लिए
आम सूरज के मन का फल है
पके मीठे आम में
जो थोड़ा-सा खट्टापन है
वही बिरहिन का कच्चा प्रेम है
आम की छाँव में प्रतीक्षारत है बिरहिन
दूरदेश से उसके साथी की
अभी तक कोई खबर नहीं आयी है !

कबूतर भी


बहुत दिनों बाद आज एक कविता लिखी
तुम्हारे लिए
रोया तुम्हारी खिलखिलाहट को याद कर

इतना चुप रहा
कि आँखों ने भी नहीं की कहीं कोई बात
(चुप रहना तुम्हारी चुप्पी में शामिल रहना है
लेकिन बोलना
तुम्हारे बोलने को खोलना है )

बोल-बोल कर
तुम्हारे शब्दों को लौटाता रहा अपने होंठ पर
जगाता रहा उनकी आग

बहुत दिनों का जमा अँधेरा उलीचता रहा
ताकता रहा नीला आसमान
जिसकी तरफ दोपहरों में हमने
उड़ाए थे अपने लिखे हुए पन्ने

अपने हर अंत पर
एक इंदीवर रख करता रहा हर अंत का अभिषेक

उम्र की पगडण्डियों में गिनता रहा तुम्हारे पाँव की छाप
तफ्तीश करता रहा भीतर की
बरामद करता रहा अपने से ही छुपायी
अपनी सोनहर साँस

लिख तो रहा हूँ तुम्हें
चिट्ठी में तरतीब से
लेकिन पहुँचेगा तुम तक कैसे यह

कबूतर भी
अपने प्रेम में
टूटा पड़ा है !

_______________
1967premshankarshukla@gmail.com

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