वरिष्ठ कथाकार बटरोही के आख्यान ‘हम तीन थोकदार’ की यह चौथी क़िस्त थोकदारों के पुरखों की प्रचलित किम्वदंतियों, लोक-विश्वासों, इतिहास तथा गाथाओं में प्रवेश कर गयी है. बटरोही की कथा शैली की यह विशेषता ही है कि इसकी जड़े भूत में फैली रहती हैं. वे केवल किस्सागो मात्र नहीं हैं, अपने स्थान और समुदाय के पुरातत्ववेत्ता भी बन जाते हैं. एक तरह से स्थानीयता के स्मारक में वर्तमान और वैश्विकता को गूंथते चलते हैं.
प्रस्तुत है.
हम तीन थोकदार (चार)
तुम्हें किस नाम से पुकारूँ मेरे पुरखों
(मैं कौन हूँ: खस, पैक, पैका या थोकदार)
ऐसा तो मैंने बिलकुल नहीं चाहा था. सुदूर अतीत की गहराइयों से उठाकर अपने प्रतिरूप इन तीन थोकदारों को क्या सोचकर तो मैं उठाकर लाया था; मगर जब तीन किस्तों में हाजिरी देने के बाद ये मेरी आँखों के ठीक सामने गर्दन झुकाए प्रश्न चिह्न की मुद्रा में खड़े हो गए, मेरी समझ में नहीं आया कि इन थोकदारों का मैं करूँ तो क्या करूँ?
इन्हें किस नाम से पुकारूँ? अब न तो ये मेरी भाषा समझते और न मैं इनकी. लगता यही है कि इनके साथ मुलाकात हुए जाने कितने तो प्रकाश-वर्ष बीत चुके हैं. इनका रूपाकार, भाषा, लहज़ा, खड़ा होने का तरीका सैकड़ों प्रकाशवर्ष पुराना है. नहीं, ये लोग गोल-गोल माथे-नुमा चेहरे पर उभरी हुई एंटीना-जैसी आँखों वाले अनजान ग्रह के प्रवासी एलियन नहीं हैं… थे तो ये मेरे ही बिरादर थोकदार लोग, मगर हमारी इस नई दुनिया में इनको आज कोई क्यों नहीं पहचान पा रहा है!
‘तुम हमको यहाँ लाये ही क्यों ठैरे, हो?… क्या तुम पहचानते भी हो कि हम लोग कौन ठैरे बल?’ वे तीनों एक स्वर में बोले.
मेरे अन्दर के किसी नाजुक कोने से आवाज आई, ‘क्या यार, आखिर ठैरे तो तुम लोग वही, हाँ, वही तो!…’
इतना सोचकर मैंने अपने भीतर बसे सारे ओने-कोनों के चक्कर लगाए, मगर पूरे ब्रह्माण्ड में मुझे वह संबोधन नहीं मिला, जिसका मैं उनके लिए इस्तेमाल कर सकता.
निराश होकर मैंने कहा, ‘मजबूरी है मितुरो, नाम तो चाहिए ही न! बिना नाम के हम लोग एक-दूसरे के साथ कैसे रिश्ते जोड़ सकते हैं?…’
वो तीनों मेरी ओर टुकुर-टुकुर ताकने लगे. मुझे उन पर दया आई, अपनी नई दुनिया के सदाबहार उपहार, तनाव की गठरी, के बगल में खड़े होकर खीझते हुए मैं बोला, ‘अगर तुम लोग मेरे बूबू-पड़बूबू के ज़माने के होते तो मैं इन्हीं नामों से काम चला लेता, लेकिन सैकड़ों प्रकाश-वर्ष पहले के तुम लोग मेरे क्या लगते होगे, मुझे क्या मालूम?’
फिर से वे लोग अपनी झप-झप एंटीना-आँखों से मुझे घूरने लगे. सैकड़ों साल पुरानी अपनी जंक लगी थोकदारी भाषा में बोले, ‘तुमने ही तो हमारा इतना बड़ा-बड़ा नाम रख दिया ठैरा बल हो! क्या कहते हैं वो, लेखक-हेखक, सीएम-फीएम, सुधारक-हुधारक. हम क्या जानने वाले हुए इनके मतलब. हम तो हुए वही पुराने ज़माने के थोकदार, तुम्हीं बताओ, हमारी कौन-सी पुश्त के थोकदार हुए तुम? सच्ची बताओ, तुमको याद है थोकदारों की? ’
मैं सोचता ही रह गया… उनसे मुलाक़ात की मुझे कोई तारीख याद नहीं आई…
एक फ्लैश की तरह मुझे याद आया, कैस्पियन सागर के किनारे सुदूर आल्प्स पहाड़ियों की गोद में बसे हूणों, मगरों, खसों और अवारों के बीच तो मैं कई बरस रह कर आया हूँ. वो लोग मुझे थोकदारों के जैसे ही भोले और मेहनतकश लोग लगे थे. उनके कितने ही बिरादरों के बारे में मैंने वहां के साहित्यकारों की कहानियों में पढ़ा… दागिस्तान का वह अवार-भाषी रसूल हमज़ातोव, उसके पड़ौसी आर्मीनिया, ज्योर्जिया, अज़र्बेजान, चेचन्या आदि देशों के पहाड़ी कथाकारों के अनगिनत भोले चेहरे क्या मैं कभी भूल सकता हूँ!…
‘सात संसार, एक मुनस्यार’ के हमशक्ल रूमानियाँ के पहाड़ी शहर चिकसेरदा की यात्रा के बाद, जहाँ मैंने दो रातें बिताईं थीं, मुझे लगा, मानो मैं बुदापैश्त से त्रांसिलवानियाँ की ओर न जाकर मुनस्यारी के खलिया टॉप की चढ़ाई चढ़ रहा हूँ…
मैंने उन्हें समझाने की कोशिश की कि मैं उन्हीं का अंश हूँ. उनके हमशक्ल थोकदारों को मैंने एक कथा-चरित्र के रूप में ही चुना था, इसी रूप में उनके साथ मैं आज भी जुड़ा हुआ हूँ. जरूर, आज सब कुछ बदल चुका है, वहां भी, यहाँ भी; मगर यकीन मानो, मैं नहीं बदला हूँ. दुनिया भर में प्रेम और दोस्ती का सन्देश फ़ैलाने के लिए मशहूर हमज़ातोव के देश को कितनी क्रूरता के साथ चेचन्या के रूप में दो-फाड़ कर दिया गया था, ठीक उसी तरह जैसे मेरे छोटे-से प्यारे राज्य उत्तराखंड में लॉकडाउन के कुछ ही दिनों के बाद कितने तो ‘बनभूलपुरा’ उगा दिए गए. मानो ‘चेचन्या’ और ‘बनभूलपुरा’ बन जाना हमारी नई सभ्यता की अनिवार्य नियति हो.
यकीन मानो, पाकिस्तान, बलूचिस्तान, अफगानिस्तान, तुर्किस्तान… ये शब्द जो आज लौट-लौट कर आ रहे हैं, मैंने या मेरे पुरखों ने नहीं गढ़े थे. अगर मेरा कथा-नायक तुम्हारी दुर्गत के लिए जिम्मेदार है तो उन सवालों के जवाब पूछने के लिए मुझे उसी के पास ही तो जाना पड़ेगा… तुम लाख लॉक-अनलॉक का खेल खेलते रहो, मैं तो आज की दुनिया का आदमी हूँ, यही मेरा रहवास है. इसे छोड़कर मैं कहाँ जाऊँ? इस नई दुनिया में घुसने के लिए किससे इजाजत लूँ?… मुझे हर हाल में वहां जाना है. ताला तोड़ो या दूसरी चाबी बनवाओ… प्लीज, मेरे चेहरे की पहचान मत बिगाड़ो.
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इस धारावाहिक आख्यान के छपते-छपते भी कुछ पाठकों ने गंभीर आपत्तियां दर्ज की हैं. पहली इसके कथा-संगठन को लेकर है कि अराजक ढंग से एक साथ कई कथाएं एक-दूसरे को ओवरटेक करती हुई मनमाने ढंग से आगे बढ़ती हैं, जिससे कथा का आस्वाद बार-बार भंग होता है. मेरी एक पुरानी मित्र और सहकर्मी ने लॉक-डाउन डायरी को कथा-प्रवाह के बीच में सिल दिये गए बेमेल रंग के टल्ले का नाम दे दिया: ‘पहाड़ी समाज और जीवन के रोचक वर्णन के बीच में कोरोना काल की टल्ली क्यों लगानी ठैरी?’
करीब पचास साल बाद मिले बचपन के एक दोस्त ने लिखा, ‘तीन कथाओं का बेतरतीब ढंग से बुनाव शिल्पगत प्रयोग के रूप में मान रहा हूँ… योगी आदित्यनाथ कैसे इस त्रिसूत्री यज्ञोपवीत में फ़िट होंगे, अभी ठीक अनुमान नहीं लग रहा है.’
अपने लेखकीय परिचय क्षेत्र में जिसे मैं सबसे विश्वसनीय आवाज मानता हूँ, उस युवा दोस्त ने शुरू में ही मुझे हतोत्साहित किया, ‘छोडिये गुरूजी, कहाँ चक्कर में पड़े हैं! आप उस आदमी का इतिहास जानते ही हैं. लोग आप पर सीधे अंगुली उठाएंगे, किस-किस को जवाब देते फिरेंगे!..’ यही शंका एक दिन अपने ढंग से इस आख्यान के मेरे संपादक दोस्त ने भी उठा डाली, ‘देख लीजिये सर, लेखक के रूप में आपको और संपादक के रूप में मुझे सवालों के घेरे में खड़ा तो किया ही जाएगा.’
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(पैकों का खंडहर हो चुका घर) |
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चलिए किस्सा आगे बढ़ाते हैं, किस्से को मुझे हर हाल में अपने पचहत्तरवें साल में ख़त्म करना है. कौन जाने, उसके बाद आपके साथ मुलाक़ात हो, न हो.
‘हम तीन थोकदार’ का चौथा किस्सा है मधिया पैक का, यानी मेरे गाँव की पड़ौसी पट्टी रंगोड़ के पैक माधो सिंह सौन का. आपको उसके साथ मिलाने से पहले बता दूँ कि ये ‘पैक’ कौन लोग थे? आप सोच रहे होंगे, ये भी कहीं थोकदारों की तरह का मिथकीय पात्र तो नहीं!… जी नहीं, पहले ही मैं बता चुका हूँ कि मेरे ये तीनों थोकदार मिथक नहीं, वास्तविक चरित्र हैं, तीन में से एक चरित्र आभासी और दूसरा अर्ध-आभासी जरूर है, मगर तीनों लोग आज के ही हैं. पुराने कुमाउनी समाज में इन वीर-मल्लों को ‘पैक’ कहा जाता था, जैसे उड़ीसा में इन्हें आज भी ‘पैका योद्धा’ कहा जाता है. मेरे कह देने-भर से तो आप लोग विश्वास नहीं करेंगे, इसलिए आपको भरोसा दिलाने के लिए मैं अपने इलाके के लोक-विश्वासों और गूगल पर उपलब्ध जानकारी को आपके साथ शेयर कर रहा हूँ.
अपराजेय योद्धाओं की धरती : काली कुमाऊँ
(कुमाऊँ की ‘पैक’ जाति की 200ई.पू. से 50 ई. तक की महापाषाण संस्कृति)
लोहाघाट, हल्द्वानी, नैनीताल और अल्मोड़ा को जाने वाले राष्ट्रीय राजमार्ग में पश्चिम दिशा की ओर लोहाघाट से 45 किलोमीटर की दूरी पर कुमाऊँ की अत्यंत प्रतिष्ठित और सुप्रसिद्ध बाराही देवी की शक्तिपीठ देवीधुरा नाम से प्रसिद्ध है. देवदार और बांज के घने पेड़ों से ढकी हुई यह पर्वत-शृंखला सीधे पश्चिम की ओर आगे की ओर चली गयी है. समुद्र सतह से 7000 फीट की ऊंचाई पर धरातलीय उभार पर स्थित देवीधुरा कुमाऊँ का सबसे आकर्षक और मनोरम स्थान है. खास बात यह है कि कुमाऊँ के ज्यादातर शाक्त पीठ इसी शिखर-मार्ग में हैं.
इसी राजमार्ग में देवीधुरा से कुछ पहले 7500 फीट की ऊँचाई पर मेरे गाँव का एक और गझिन वन-प्रांतर मोरनौला है, जहाँ से उत्तर-पूर्व के ढलान पर एक मार्ग जेंती (तल्ला सालम) की ओर चला गया है, जिसका जिक्र मैं दूसरी क़िस्त में कर चुका हूँ.
देवीधुरा की उत्तलवेदिका में सर्वत्र हलकी सफ़ेदी के बीच-बीच में काले टिप्पों वाले छींट की चादर ओढ़े हुए से विशाल बालुज शिलाखंड यत्र-तत्र कहीं समूह में तो कहीं एक-दो संख्या में बिखरे पड़े हैं. यद्यपि आस-पास की सभी पहाड़ियों, उपत्यकाओं, घाटियों में इनकी भरमार है, लेकिन यहाँ पर ये अधिक वृहदाकार और ठोस हैं, जो करोड़ों वर्षों से पूर्व के धरातलीय अपरदन या महान हिमयुगीन ग्लेशियरों की मोटी चादर के भीतर ढके अवसाद के रूप में अब तक विद्यमान हैं. इनकी आड़ में अटकी मिट्टी की सुलभता से वनस्पतियों के उगने लायक पर्याप्त जगह है. यह सारा क्षेत्र अतीत में विस्तृत चरागाहों का रहा होगा जिसमें भैंस पालकों के ग्रीष्म एवं वर्षाकालीन अस्थाई निवास भी होंगे. इन्हीं पशुपालक चरवाहों की आवाजाही से इस स्थान को दैवी स्वरूप दिया गया होगा. यहाँ पर प्राप्त पुरातात्विक अवशेषों से सभ्यता के विभिन्न चरणों के विकास की एक धुंधली तस्वीर देखी जा सकती है: (साभार: ‘राग-भाग काली कुमाऊँ’ : डॉ. राम सिंह)
‘आज भी देवीधुरा के कतिपय स्थानों में खेत बनाते या नए मकान की नींव खोदते समय मनुष्य की हड्डियों या कंकालों के अवशेष मिलते हैं. निश्चय ही पश्चिमी रामगंगा, गगास नदी की घाटियों में मिलने वाले शवाधानों की शृंखला यहाँ तक विस्तृत थी.’ (इतिहासकार डॉ. राम सिंह: ‘राग-भाग काली कुमाऊँ’, पृष्ठ 170) एक अन्य पुरावेत्ता केपी नौटियाल ने भी इस बात की पुष्टि की है : ‘उत्तराखंड से महापाषाणीय शवागार संस्कृति के अवशेष भी प्राप्त हुए हैं. हेनवुड ने 1858 ईस्वी में अल्मोड़ा के निकट देवीधुरा में इन शवागारों के होने का उल्लेख किया था. ह्वीलर ने भी इसका उल्लेख करते हुए इन्हें अल्मोड़ा से लेह तक विस्तृत बताया था…’
इस बात की ओर अनेक शोधकारों ने इशारा किया है कि वर्तमान वाराही देवी के प्रांगण तथा उसके परिसर में प्राचीन मंदिरों या भवनों के निर्माण में प्रयुक्त सामग्री का कुछ भाग अब भी खोदने पर मिलता है. इससे साफ है कि इस स्थान पर अतीत में कभी एक संपन्न बसासत रही होगी. मशहूर पुरावेत्ता डीडी कोसाम्बी ने अपनी किताब ‘मिथक और यथार्थ’ में इस प्रकार के स्थानों के बारे में लिखा, ‘तनिक अन्वेषण से ठहराव के अनेक स्थानों में उत्तर पाषाणकालीन उपकरणों के जमाव स्पष्ट परिलक्षित हो जाते हैं और साफ जाहिर होता है कि यह मार्ग प्रागैतिहासिक है.’
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देवीधुरा का देवीपीठ एक ऐसे स्थान पर स्थित है, जहाँ पर चारों ओर से मार्गों का संगम होता है. यह लोहाघाट से अल्मोड़ा-नैनीताल, हल्द्वानी तथा इसी तरह के महत्वपूर्ण स्थानों को जोड़ता है. इसके अतिरिक्त इसका संपर्क चाल्सी-पनार होकर अन्य समीपस्थ स्थानों से है. दूसरी ओर रौ, चौभैंसी व अन्य पट्टियों को निकलने वाले मार्ग भी यहीं से आरम्भ होते हैं. यही एक ऐसा स्थान है जहाँ से किसी भी दिशा को निकलने के लिए मार्ग सुगम और बस्तियों से होकर निकलते हैं. इसी से स्पष्ट है कि विस्तृत चरागाहों की उपलब्धता के कारण यह स्थान प्रागैतिहासिक काल से ही मानव आकर्षण का केंद्र रहा होगा.
देवीधुरा में देवी की बाराही अर्थात पृथ्वी स्वरूपा मानकर उपासना की जाती है. उसे देवसेनानी माना जाता है. मंदिर में देवी की प्रतिमा न होकर दो विशाल शिलाओं के आपस में एक-दूसरे से प्राकृतिक रूप से सटे होने के कारण उनके मिलन स्थल पर स्वतः बने एक त्रिभुजाकार द्वार को देवी की योनि का प्रतीक मानकर पूजा जाता है. इन दोनों शिलाओं के बीच के खुले संकरे मार्ग के एक ओर उन्हीं के आच्छादन में बैठकर पुजारी लोग भक्तों से देवी के लिए भेंट, उपहार आदि प्राप्त करते हैं. यह माना जाता है कि जिस प्रकार शिशु माँ के गर्भ से निकलकर योनिद्वार से बाहर प्रकट होता है, उसी का यह प्रतीकात्मक स्वरूप है. इसे बहुत पवित्र माना जाता है. इसी प्रकार की अभिव्यक्ति असम में कामरूप कामाक्षा मंदिर में की गयी है. इन ग्रेनाईट की शिलाओं की बनावट श्रीलंका केंडी के पार्क में उपलब्ध शिलाओं से पूरी तरह मिलती है. आदिम मानव प्रजनन से सम्बंधित अंगों के प्रतीकों की पूजा किया करता था. इस रूप में इस स्थल की प्राकृतिक बनावट में देवी के स्वरूप की संकल्पना से देवीधुरा के आदिम युगीन मातृदेवी के मूल स्थल होने में कोई संदेह नहीं रह जाता.
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(ग्वाल्दे कोट (ग्वल्ल देवता का किला) : पैकों की बसाहट ऐसे ही \’किलों\’ की जड़ पर होती थी) |
कुमाऊँ के पैक बनाम उड़ीसा के पैका
हिमालय की गोद में बसे कुमाऊँ की पुरानी राजधानी चम्पावत के इर्द-गिर्द राजा के विश्वस्त और स्वामिभक्त क्षत्रिय वीरों का घेरा मौजूद रहता था, जिन्हें स्थानीय भाषा में ‘पैक’ कहा जाता था. इन योद्धाओं का काम राजा की सुरक्षा के साथ-साथ युद्ध की स्थिति में उसको हर हाल में विजयी बनाना होता था. कुमाऊँ के वर्तमान अल्मोड़ा, चम्पावत और पिथौरागढ़ जिलों में नेपाल-भारत के बीच बहने वाली काली नदी के किनारे बसे हुए इन लोगों का सदियों से सामरिक महत्व रहा है. कुमाऊँ के लोक जीवन में इन वीर पैकों की कथाएं आज भी लोक मानस में मौजूद हैं.
इस बात के ऐतिहासिक प्रमाण तो उपलब्ध नहीं हैं, लेकिन हिमालय के ‘पैक’ और उड़ीसा के ‘पैका’ योद्धाओं के बीच अनेक समानताएं मिलती हैं. नाम से लेकर इनकी चारित्रिक विशेषताओं तक. कुमाऊँ के इतिहास में इन्हें लेकर अभी कोई अध्ययन नहीं हुआ है, लेकिन उड़ीसा के लोगों ने इस पर खूब काम किया है. इनके युद्ध-कौशल को न केवल उड़ीसा में, पूरे देश में शारीरिक दक्षता के लिए अपनाया जा रहा है. उड़ीसा शासन ने तो इसे राजकीय संरक्षण प्रदान किया है.
खास बात यह है कि औपनिवेशिक शासन काल में अंग्रेजों ने इन दोनों जातियों (कुमाऊँ के ‘पैक’ और उड़ीसा के ‘पैका’) को जुझारू और युद्धप्रिय जातियों (मार्शल रेस) की मान्यता प्रदान की. प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम से चालीस साल पहले एक बड़े आदिवासी संघर्ष ‘पैका विद्रोह’ के बारे में जानना खासा रोचक होगा.
पैका विद्रोह https://roar.media/hindi/main/history/paika-rebel-first-war-of-independence/
‘पैका विद्रोह’ (1817 ई.) उड़ीसा में ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन के विरुद्ध एक सशस्त्र विद्रोह था. पैका लोगों ने भगवान जगन्नाथ को उड़िया एकता का प्रतीक मानकर बख्शी जगबंधु के नेतृत्व में 1817 ई. में यह विद्रोह शुरू किया था. शीघ्र ही यह आन्दोलन पूरे उड़ीसा में फैल गया किन्तु अंग्रेजों ने निर्दयतापूर्वक इस आन्दोलन को दबा दिया. बहुत से वीरों को पकड़ कर दूसरे द्वीपों पर भेज कर कारावास का दंड दे दिया गया. बहुत दिनों तक जंगल में छिपकर बख्शी जगबंधु ने संघर्ष किया किन्तु बाद में आत्मसमर्पण कर दिया.
कुछ इतिहासकार इसे \’भारत का प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम\’ की संज्ञा देते हैं. 1817 में उड़ीसा में हुए पैका विद्रोह ने पूर्वी भारत में कुछ समय के लिए ब्रिटिश राज की जड़ें हिला दी थीं. मूल रूप से पैका उड़ीसा के उन गजपति शासकों के किसानों का असंगठित सैन्य दल था, जो युद्ध के समय राजा को सैन्य सेवाएं मुहैया कराते थे और शांतिकाल में खेती करते थे. इन लोगों ने 1817 में बक्शी जगबंधु बिद्याधर के नेतृत्व में ब्रिटिश राज के विरुद्ध बगावत का झंडा उठा लिया.
खुर्दा के शासक परंपरागत रूप से जगन्नाथ मंदिर के संरक्षक थे और धरती पर उनके प्रतिनिधि के तौर पर शासन करते थे. वो उड़ीसा के लोगों की राजनीतिक और सांस्कृतिक स्वतंत्रता का प्रतीक थे. ब्रिटिश राज ने उड़ीसा के उत्तर में स्थित बंगाल प्रांत और दक्षिण में स्थित मद्रास प्रांत पर अधिकार करने के बाद 1803 में उड़ीसा को भी अपने अधिकार में ले लिया था. उस समय उड़ीसा के गजपति राजा मुकुंददेव द्वितीय अवयस्क थे और उनके संरक्षक जय राजगुरु द्वारा किए गए शुरुआती प्रतिरोध का क्रूरता पूर्वक दमन किया गया और जयगुरु के शरीर के जिंदा रहते हुए ही टुकड़े कर दिए गए.
कुछ सालों के बाद गजपति राजाओं के असंगठित सैन्य दल के वंशानुगत मुखिया बक्शी जगबंधु के नेतृत्व में पैका विद्रोहियों ने आदिवासियों और समाज के अन्य वर्गों का सहयोग लेकर बगावत कर दी. यह विद्रोह 1817 में आरंभ हुआ और बहुत ही तेजी से फैल गया. हालांकि ब्रिटिश राज के विरुद्ध विद्रोह में पैका लोगों ने अहम भूमिका निभाई थी, लेकिन किसी भी मायने में यह विद्रोह एक वर्ग विशेष के लोगों के छोटे समूह का विद्रोह भर नहीं था.
घुमसुर जो कि वर्तमान में गंजम और कंधमाल जिले (उड़ीसा) का हिस्सा है, वहां के आदिवासियों और अन्य वर्गों ने इस विद्रोह में सक्रिय भूमिका निभाई. पैका विद्रोह के विस्तार का सही अवसर तब आया, जब घुमसुर के 400 आदिवासियों ने ब्रिटिश राज के खिलाफ बगावत करते हुए खुर्दा में प्रवेश किया. खुर्दा, जहां से अंग्रेज भाग गए थे, वहां की तरफ कूच करते हुए पैका विद्रोहियों ने ब्रिटिश राज के प्रतीकों पर हमला करते हुए पुलिस थानों, प्रशासकीय कार्यालयों और राजकोष में आग लगा दी.
पैका विद्रोहियों को कनिका, कुजंग, नयागढ़ और घुमसुर के राजाओं, जमींदारों, ग्राम प्रधानों और आम किसानों का समर्थन प्राप्त था. यह विद्रोह बहुत तेजी से प्रांत के अन्य इलाकों जैसे पुर्ल, पीपली और कटक में फैल गया. विद्रोह से पहले तो अंग्रेज चकित रह गए, लेकिन बाद में उन्होंने आधिपत्य बनाए रखने की कोशिश की जिसमें उन्हें पैका विद्रोहियों के कड़े प्रतिरोध का सामना करना पड़ा. बाद में हुई कई लड़ाइयों में विद्रोहियों को विजय मिली, लेकिन तीन महीनों के अंदर ही अंग्रेज अंतत: उन्हें पराजित करने में सफल रहे.
इसके बाद दमन का व्यापक दौर चला जिसमें कई लोगों को जेल में डाला गया और अपनी जान भी गंवानी पड़ी. बहुत बड़ी संख्या में लोगों को अत्याचारों का सामना करना पड़ा. कई विद्रोहियों ने 1819 तक गुरिल्ला युद्ध लड़ा, लेकिन अंत में उन्हें पकड़ कर मार दिया गया. बक्शी जगबंधु को अंतत: 1825 में गिरफ्तार कर लिया गया और कैद में रहते हुए ही 1829 में उनकी मृत्यु हो गई.
हालांकि पैका विद्रोह को उड़ीसा में बहुत उच्च दर्जा प्राप्त है और बच्चे अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ाई में वीरता की कहानियां पढ़ते हुए बड़े होते हैं, लेकिन दुर्भाग्य से इस विद्रोह को राष्ट्रीय स्तर पर वैसा महत्व नहीं मिला जैसा कि मिलना चाहिए था. ऐसी महत्वपूर्ण घटना को इतना कम महत्व दिये जाने के पीछे कई कारण हो सकते हैं, लेकिन यह संतोष की बात है कि भारत सरकार ने इस विद्रोह को समुचित पहचान देने के लिये इस घटना की 200वीं वर्षगांठ को राष्ट्रीय स्तर पर मनाने का निर्णय लिया है.
पैका अखाड़े आज भी, उड़ीसा के प्रसिद्ध अखाड़े हैं जो प्राचीन काल में किसानों को सैन्य प्रशिक्षण देने का काम करते थे. आजकल इन अखाड़ों में परम्परागत व्यायाम और पैका नृत्य आदि किये जाते हैं.
उड़िया योद्धाओँ की जाति पैका
(यह सामग्री क्रियेटिव कॉमन्स ऍट्रीब्यूशन/शेयर-अलाइक लाइसेंस के तहत उपलब्ध है; अन्य शर्ते लागू हो सकती हैं. विस्तार से जानकारी हेतु देखें उपयोग की शर्तें) लेखक का इन स्थापनाओं से सहमत होना जरूरी नहीं है.
पैका उड़ीसा की एक जाति है जो वर्तमान समय मेँ मुख्य रूप से तीन अलग-अलग उपजातियों मेँ बँट गए हैं.
1.खंडायत
2.बेणायत
3.पहरी – काळिँजि
इसके अलावा वाणुआ और ढेंकिया भी ‘पैक’ कहलाते हैं. ये है:
1. युद्धक्षेत्र मेँ तलवार चलानेवाले सैनिक,
2. बेणायत: घोड़े व हाथी पर लड़नेवाले,
3. कोतवाल और पहरा देनेवाले प्रहरी,
4. युद्धक्षेत्रों में तीरंदाजी करनेवाले ‘बाणुआ’ और
5. ढाल-बर्छे से हमला करने वाले ढेंकिया.
पैका/Paika शब्द मूलतः संस्कृत से आया है जिसका अर्थ है पदातिक/Padatika meaning [the infantry, and hence the name of the dance is battle (paika) dance (nrutya)] .
उड़ीसा मेँ गंग साम्राज्य और गजपति राजत्व काल को वहां का स्वर्णयुग कहा जाता है. तब उड़ीसा का विस्तार गंगा से गोदावरी तक था. साम्राज्य को बचाने की जिम्मेदारी पैका वीरोँ की होती थी. पैका नियमित योद्धा नहीँ थे परंतु वे नियमित अभ्यास करते थे. आज भी गाँव के पैका अखाड़ों मेँ युद्धाभ्यास होता है परंतु आज यह केवल कुछ एक क्षेत्रोँ मेँ देखने को मिलता है खासकर उन गाँवों मेँ जहाँ क्षत्रिय कुल बहुतायत मेँ पाए जाते हैं. ये पैका शान्तिकाल मेँ राजा द्वारा प्राप्त भूमि पर खेती करते थे और युद्ध की घोषणा होने पर युद्धभूमि मेँ जाकर लड़ते थे. पैकों ने लम्बे समय तक मुगलों, तुर्क तथा मराठों से लोहा लिया परंतु 16वीँ सदी के बाद
महाप्रभु चैतन्य आदि द्वारा भक्तिवाद के प्रचार की वजह से लोग आलसी व अंधभक्त बन गए.
पुरी, खोर्दा, कटक, ढेकानाल, गंजाम पारलाखेमुंडी, अनगुल आदि क्षेत्र के राजघरानों मेँ आपसी कलह भी पैकों मेँ आपसी मतभेद का कारण बना.
अठारहवीं सदी तक पैकों का पूरा-का-पूरा संगठन अलग-अलग उपजातियों में बँट चुका था परंतु 1803 में अंग्रेजों की उड़ीसा पर चढ़ाई से स्वाभिमानी उड़िया जाति, खासकर पैकों में पुनः एकता आने लगी. 1803 से 1819 तक उड़िया जाति अंग्रेजों के खिलाफ लड़ती रही. 1857 से 40 साल पूर्व हुए इस विद्रोह को ‘पैक’ या ‘पैका’ विद्रोह कहा जाता है.
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(भारत-नैपाल सीमा पर बसे खस) |
आर्यों की पहली खेप में पहुंचे थे पैकों के पुरखे ‘खस’
इतिहासकार डीडी कोसंबी खसों को भारत में आई आर्यों की पहली खेप मानते हैं. ‘ईसा-पूर्व दूसरी सहस्राब्दी में मध्य एशिया से आर्यों की दो लहरें आयीं– पहली लहर इस सहस्राब्दी की शुरुआत में आई और दूसरी अंत समय में. इन दोनों ने भारत को प्रभावित किया और संभवतः यूरोप को भी. उनकी अपनी मातृभूमि (मोटे तौर पर आधुनिक उजबेकिस्तान) के चारागाह, संभवतः लम्बे सूखे के कारण, मवेशियों और उनके मालिकों के भरण-पोषण के लिए पर्याप्त नहीं थे. भारत में पहुंचे लोगों में से कुछ या तो खदेड़ दिए जाने के कारण अथवा नए प्रदेश की परिस्थितियां संतोषजनक न होने के कारण वापस लौट गए. यह बात ईसा-पूर्व दूसरी सहस्राब्दी के उत्तरार्ध की कुछ हित्ती मुहरों पर उत्कीर्ण कूबड़ वाले विशिष्ट भारतीय बैल को देखने से स्पष्ट हो जाती है. हित्ती भाषा का मूल भी आर्य भाषा में है. ‘खत्ती’ शब्द, जो हित्ती का ही पर्याय है, संस्कृत के ‘क्षत्रिय’ और पालि के ‘खत्तिय’ शब्द से सम्बंधित जान पड़ता है… परन्तु जो संपर्क था, चाहे वह कितना ही खंडित और अल्पकालीन क्यों न रहा हो, वह इस दृष्टि से महत्वपूर्ण था कि लोहे का ज्ञान, जिससे हम हित्तियों को पहली बार परिचित देखते हैं (फिर उन्होंने यह रहस्य चाहे किसी भी पुराने जन-समुदाय से प्राप्त किया हो), आर्यों की दूसरी लहर के साथ भारत पहुँच सका. (प्राचीन भारतीय संस्कृति और सभ्यता, पृष्ठ १०३)
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समुद्र सतह से तीन हजार मीटर की ऊंचाई पर स्थित देवीधुरा पर्वत शृंखला पर मौजूद महा-पाषाण युग की ‘रणशिला’ के शिखर पर खड़ा हूँ. मेरे माथे पर उल्टे कटोरे के आकार में अनंत तक गहरा आकाश और उसकी मुंडेर के रूप में विशालकाय देवदार-वृक्षों से भरी अर्ध-चंद्राकार पर्वत-शृंखलाओं की झालर पर्त-दर-पर्त दूर तक फैली हुई है.
हमारी धरती के रूप में बचपन से पोषित एक-के-बाद-एक बिछी हुई अर्ध-चंद्राकार पर्वत-शृंखलाएं. पश्चिमोत्तर हिस्से की पहाड़ी पट्टी में अपेक्षाकृत कम घने वनांचल के बीच मेरे बचपन का गाँव ‘छानगों’ और पहला स्कूल ‘द्यौवमें’ यहाँ से साफ दिखाई दे रहा है.
होश सम्भालने के बाद से ही अपने घर की खिड़की से मैं इन ऊँची-नीची रहस्यमय शृंखलाओं को देखता आ रहा हूँ और उन्हीं के बीच मेरी कल्पनाओं के घरोंदे आकार ग्रहण करते रहे. इन काल्पनिक घरोंदों का आधार बुजुर्गों के द्वारा सुनाई गयी वो मायावी कथाएँ और किस्से होते थे, जिनके सहारे मेरी सारी उम्र कटी थी.
ऊंचे-नीचे शिखरों और तलहटी की घाटियों के बीच बसे थे हमारे परिजनों के गाँव, जिनका सम्मिलित नाम था, ‘पैकों’ यानी मल्लों का देश. नहीं मालूम कि हम लोग कब से इन पर्वत-घाटियों में रहते चले आ रहे थे… लाख कल्पना करते रहने के बावजूद समय का कोई छोर पकड़ में नहीं आता. आकाश, उसकी मुंडेर के रूप में सजे हुए देवदार के विशाल वृक्ष, उनके पांवों को चूमती भीमकाय शिलाएं और यहाँ से वहां तक कभी लरजते, कभी गरजते बादलों के झुण्ड…
यही हमारी कल्पनाओं का सागर था, काली कुमाऊँ के रहस्यमय गुमदेश के बीच तैरता हमारा अपना मल्ल-देश. यहाँ के निवासियों से लेकर वनस्पतियों, नदी-झरनों और हवा-पत्थरों तक सभी कुछ मल्लों की तरह भीमकाय था. युवा लोग ‘पैक’ कहलाते थे जो अपराजेय योद्धा के रूप में पूरे इलाके में मशहूर थे.
लोक जीवन में फैले हुए इन मल्लों के असंख्य किस्से थे, जिन्हें एक-दूसरे के अनुभवों के साथ जोड़ते हुए हम लोग बड़े हुए थे. पुरखों की दिनचर्या के बारे में हमें बताया गया था कि सुदूर अतीत में उनके दिन की शुरुआत घाटी में फैले अलग-अलग आकार के पत्थरों के गोले लाकर ऊपर पहाड़ी पर बसे गाँव तक पहुँचाने से होती थी. शिलाओं को पीठ या कंधे में लादकर खड़ी चढ़ाई चढ़ते हुए बाराही देवी के मंदिर तक लाना और फिर उन्हें वहां मौजूद शिल्पियों को सौंपना… हमारे पुरखे शिल्पी उन पत्थरों को तराशकर आकार प्रदान करते… बीरखम्ब का आकार! वे बताते कि ये विजय-स्तंभ थे, जिन्हें विजय-पताका के रूप में थोकदार लोग अपने इलाके में गाड़ते थे. हमें यह तो नहीं बताया जाता था कि इन शिखरों के विजेता कौन थे और विजित कौन, फिर भी उन दोनों में हमें अपनी ही छवि दिखाई देती थी. इन अविश्वसनीय लगने वाली बातों में कितनी सच्चाई है, इसे लेकर हमने कभी सवाल खड़े नहीं किये क्योंकि जब से हमने होश सम्हाला, दैवी प्रतिमाओं के रूप में तराशी गयी ये शिलाएं हमारे गाँवों से जुड़े हर कोट (किले) में मौजूद थीं.
…शिलाओं का आकार युवाओं की उम्र के साथ बढ़ता चला जाता. जो जितने बड़े पत्थर ढो कर लाता, उतनी ही प्रशंसा का भागीदार बनता; इसलिए जीवन की पहली साँस लेने के क्षण से ही जिंदगी का एकमात्र उद्देश्य वीरता के अपराजेय सोपानों को छूना और शरीर के एक-एक पोर में शक्ति का संचार करना होता. घाटी से शिलाओं को लाना और शिखर तक पहुँचाना, यही जीवन की एकमात्र इच्छा और सार्थकता लगती थी.
देवीधुरा की देवी ‘बाराही’ हमारी कुलदेवी थी. वह सिर्फ एक देवी नहीं, हमारी जीती-जागती सांस्कृतिक परंपरा की संभ्रांत पुरखिन थी. संकट और असमंजस के क्षणों में हमारे बड़े-बूढ़े अपनी इस पुरखिन का आह्वान करते थे और ढोल-नगाड़ों, दाबुक-हुड़कों की आकाश-भेदी ध्वनियों के बीच वह पुरखिन तत्काल हमारे बीच आकर हमारा सारा मानसिक ऊहापोह ख़त्म कर जाती. सैकड़ों सालों से यह परंपरा चली आ रही थी, जिसे लेकर किसी के मन में कभी कोई संशय नहीं था. कुलदेवी और उसकी शक्ति को लेकर मन में कभी सवाल नहीं उठे. शायद उसी ने हमारे पुरखों के शरीर को अतिमानवीय व्यक्तित्व प्रदान किया था. यह जानते हुए कि इतने विशाल पाषाणों को कोई एक आदमी नहीं उठा सकता, अनंत में फैली देवी-शक्ति के प्रताप और उनके द्वारा हमें प्रदान किये वरदान को लेकर हमारे मन में अविश्वास की भावना नहीं पनपी. जीवन का बड़ा हिस्सा उसी अतार्किक और भोले विश्वासों के सहारे बीत गया, संभव और असंभव की सीमारेखा की परवाह किये बिना.
अपने अग्रजों के द्वारा दिए गए ज्ञान को आत्मसात करने के बाद लगा, दुनिया बदलने लगी है; रहस्य अब पहले जैसे अबूझ नहीं रहे और दुनिया सिमटकर हमारा ही हिस्सा बनती चली गयी है. ज्ञान और जानकारी ने हमारी सूचनाओं और कल्पनाओं का परिदृश्य ही मानो उलट कर रख दिया. बचपन में आकाश का क्षितिज बनाती पर्वत-शृंखलाओं में छिपे जो गाँव पूरी जिंदगी रहस्यमय बने रहे, आज पड़ौसी की तरह बतियाने लगते हैं.
उन्हीं दिनों पढ़ी थी मशहूर पुरावेत्ता दामोदर धर्मानंद कोसंबी की किताब ‘मिथक और यथार्थ’ और इतिहासकार डॉ. राम सिंह की किताब ‘राग-भाग काली-कुमाऊँ’. इनमें लिखी बातों ने गाँव-इलाके के बारे में हमारा कौतूहल बढ़ा दिया था:
‘देवीधुरा का स्थल प्रागैतिहासिक काल से ही मानव सभ्यता के विकास के कई महत्वपूर्ण सोपानों के बीच से गुजरा है. यहाँ यत्र-तत्र बिखरे विशाल शिलाखण्डों (बोल्डरों) में आदिम मानव द्वारा बनाए गए ऊखल मौजूद हैं. पुरातत्वविद इस प्रकार के अभिप्रायों को ‘चषक’ या ‘कपमार्क्स’ कहते हैं.’
कोसंबी ने महाराष्ट्र के अपने गृह-क्षेत्र – पुणे-शोलापुर के बीच पड़ने वाले कार्ले की चैत्य गुफाओं से जुड़े यात्रा पथ और वहां मौजूद मातृदेवियों का व्यापक अध्ययन किया है. इन देवियों में उन्होंने देवीधुरा की बाराही देवी के साथ उसके साथ नाम-साम्य वाली एक देवी का जिक्र किया है, ‘बोल्हाई देवी’ का. ‘सबसे दिलचस्प देवी वार्डे-घोडें स्थित ‘बोल्हाई’ है जिसकी जीवंत पूजा-परंपरा सीधे प्रागैतिहास से सम्बन्ध जोड़ती प्रतीत होती है और प्रागैतिहासिक गतिविधियों का जटिल स्वरूप निर्देशित करती है.’
इतिहासकार ने लिखा है, ‘देवी के मंदिर से कुछ हटकर पश्चिमी पार्श्व में हिमयुग के अवशेष के रूप में विद्यमान कुछ विशाल शिलाखंडों (बोल्डरों) का एक समूह है. इन शिलाखंडों के परिसर के मध्य एक लम्बी शिला उससे कुछ बड़ी शिला के ऊपर स्थित है, इसको ‘रणशिला’ कहा जाता है. मंदिर से इस स्थल की दूरी लगभग सौ मीटर है. रणशिला की आधारभूत महाशिला दक्षिण-पश्चिम से उत्तर-पूर्वाभिमुख है. रणशिला समानांतर लम्बवत उसके ऊपर स्थित है. इसकी लम्बाई आठ मीटर और चौड़ाई छह मीटर तथा चार मीटर ऊँचाई है. दोनों शिलाएं लगभग एक ही माप की हैं…
‘लोक-मानस में रणशिला नाम से प्रसिद्ध इस महापाषण की सबसे बड़ी विशेषता लम्बाई में बनी या पड़ी दरार है. यह दरार रणशिला की लम्बाई में वार-पार तो है ही, आरपार भी है. दरार की चौड़ाई लगभग चार अंगुल तक है. इस दरार का कारण कुछ लोग भौगोलिक हलचलों को मानते हैं. उनका कहना है कि जब पहली बार धरती ने सिकुड़ना प्रारंभ किया, ये ग्रेनाईट के शिलाखंड भी तभी से विद्यमान हैं. जब फूले हुए ग्रेनाईट के पिंडों की ऊपरी सतह धरती के सिकुड़ने से धरातल के बाहर प्रकट हुई तो उन पर सहज रूप से दरारें पड़ गईं…’
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खस देश |
पैकों (खसों) की पुरखिन हिडिम्बा
खसों का समाज हिमालय के तटवर्ती क्षेत्रों में रहने वाला, स्त्री-पुरुष की सहभागिता से निर्मित, कृषि और पशुपालक समाज था, शायद इसलिए भी उनका टकराव दूसरी जातियों के साथ नहीं हुआ. कृषि कर्म भौतिक उत्पादन से सीधे जुड़ा होने के कारण भी आर्यों की पहली जरूरत थी, इसलिए अपनी ही दुनिया तक सीमित रहना आर्यों की मजबूरी थी. एक और कारण यह भी था कि आर्य ज्यादातर गंगा के तटवर्ती मैदानी क्षेत्रों में बसे जिस कारण भी उनकी पहाड़ों में रहने वाले खसों से सीधे टकराव की स्थिति नहीं बनी.
मगर आर्यों के लिए सबसे बड़ी चुनौती बनीं खस स्त्रियाँ. खस एक स्त्री प्रधान समाज था जिन्होंने कृषि और सामाजिक संगठन के आधार पर एक मजबूत तंत्र बुना था. यही कारण था कि आर्यों ने जब देखा कि उन्हें वश में कर सकना मुश्किल है, उन्होंने स्त्रियों का दैवीकरण करना शुरू कर दिया. प्रकृति के बीच अंकुरित समाज होने के कारण प्रकृति को स्त्री तत्व के साथ जोड़ना आसान था. यहीं से प्रकृति और पुरुष तत्वों की परिकल्पना सामने आई, जिनके सहभाव के बिना सृष्टि का विस्तार संभव नहीं था.
आर्यों-खसों का ज्ञात इतिहास देखें तो उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती के रूप में आई हिडिम्बा. आर्य जब उसे पराजित नहीं कर पाए तो कभी उसे पिशाचिनी कहा गया, कभी राक्षसी और कभी दैत्य. आर्यों के सबसे ताकतवर पुरुष भीमसेन को हिडिम्बा ने जब पराजित किया तो उसे अपने साथ विवाह करने के लिए विवश किया. हिडिम्बा के इस विराट रूप को अपदस्त करने के लिए आर्यों ने देवी दुर्गा का मिथक रचा और उससे तमाम ‘असुरों’ का वध करवाया. लेकिन अनेक कोशिशों के बावजूद पर्वत-पुत्री हिडिम्बा की छवि को आर्य अधिक नुकसान नहीं पहुँचा पाए. वह आज भी प्रमुख पहाड़ी स्थानों पर घने जंगलों के बीच अपने वीर पुत्र घटोत्कच के साथ पूजी जाती है. इसके बावजूद इतना तो आर्यों ने कहलवा ही दिया कि अगर भीमसेन का अंश उसके अन्दर नहीं होता तो वह ‘राक्षसी’ आज तक पूजी जाने योग्य कैसे होती. शायद यही कारण है कि उत्तर भारत की अखिल भारतीय छवि वाली तमाम देवियों के बीच हिडिम्बा एकमात्र ‘देवी’ है जिसने खुद को पुजवाने के लिए आर्यों को विवश किया.
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चम्पावत से करीब तीन-चार किलोमीटर दूर उत्तरवाहिनी नदी गंडक के किनारे एक गाँव है ‘फुंगर’. फुंगर से गंडक नदी की ओर जाते हुए दक्षिणी छोर पर पहाड़ी के मध्य में घटोत्कच का मंदिर पड़ता है जो चारों ओर से लोहे के गंडासों, बघनखों और घंटियों से घिरा हुआ है. मंदिर के अन्दर कोई मूर्ति नहीं है मगर चारों ओर लटके लोहे के उपकरणों को देखते ही वीरता और भीषणता का सहज अहसास हो जाता है. मंदिर के अन्दर मध्य में धूनी का भ्रम देता एक आयताकार कुंड है जिसके तल पर घटोत्कच का निवास माना जाता है. संभवतः यह एक लम्बी सुरंग है. सदियों से मान्यता है कि कुंड में कितना ही जल या दूध चढ़ाया जाये, वह भरता नहीं है. ऐसी मान्यता है कि अकाल और अनावृष्टि के वक़्त इलाके के लोग कुंड में दूध चढ़ाते हैं. कुंड जब दूध से भर जाता है, घटोत्कच की प्यास बुझ जाती है और आकाश में वृष्टि तथा धरती पर फसलें लहलहाने लगती हैं. घटोत्कच के मंदिर से लगभग एक किलोमीटर नीचे नदी तट पर हिडिंबा का मंदिर है जो एक गुफा की शक्ल में है. माना जाता है कि गहरी गुफा में निवास करने वाली अदृश्य हिडिम्बा इलाके के लोगों की रात-दिन रक्षा करती है.
यहाँ नमूने के तौर पर ऐसी ही खस (पैक) औरतों से जुड़े कुछ प्रसंग प्रस्तुत हैं :
पैकों की संतान धौनी और मौनी भाइयों की कथा
काली कुमाऊँ के पश्चिम में खिलपित्ती पट्टी, उत्तर में रेगडूबान, उत्तर के पूर्व की ओर प्रवाहित सरयू नदी, दक्षिण में तल्ला देश और एकदम पूर्व में काली नदी के बीच का क्षेत्र गुमदेश पट्टी का है. चंद राजाओं के समय इस इलाके का अत्यधिक सैनिक महत्व था. प्रत्येक चंद राजा के लिए अपनी शक्ति और सामर्थ्य के प्रदर्शन के लिए डोटी (नेपाल) पर आक्रमण ही प्राथमिकता होती थी. इसलिए इस पूरे क्षेत्र में निवास करने वाले लोगों का बड़ा महत्व था. जनसंख्या और प्रभाव दोनों दृष्टियों से यहाँ धौनी सबसे आगे थे. इन लोगों में प्रचलित ‘भाग’ (किम्वदंती) के अनुसार ये लोग उत्तर भारत के किसी ऐतिहासिक नगर से आकर पहले पिथौरागढ़-टनकपुर मार्ग पर ‘धौन’ नामक स्थान पर रुके. इनके पूर्वज दो भाई थे. दोनों भाई राजा के पास आते-जाते रहते थे. एक दिन एक ‘मौन’ (मधुमक्खी) का झुण्ड उड़ रहा था. बड़े भाई ने राजा से कहा, ये मेरा है. राजा को इस पर आश्चर्य हुआ. उसने पूछा ये कैसे संभव है. बड़े भाई ने एक मौन के पैर में धागा बांध दिया. सायंकाल वह मौन उसके पास आ गया. राजा को वह दिखाया गया. राजा उसकी सच्चाई पर प्रसन्न हुआ. तब से छोटा भाई ‘धौन’ में रहने के कारण ‘धौनी’ और बड़ा भाई ‘मौनी’ कहलाने लगा. धौनियों के पूर्वज काली-कुमाऊँ के सबसे विश्वस्त क्षत्रियों के गाँव ‘सिलंग’ में बसे. चंद राजाओं ने उन्हें पूर्वी सीमा की देखरेख करने का दायित्व सौंपा और वे वहीँ अपनी गढ़ी बनाकर रहने लगे. मौनी को कुमाऊँ के पश्चिमी क्षेत्र का महत्वपूर्ण गढ़पति बनाया गया जिन्हें दयित्व सौंपकर राजा निश्चिन्त रहता था. कहावत ही है, ‘पूर्वो को धौनी, पश्चिमो को मौनी’ अर्थात चंद राज्य के पूर्व का खंभा धौनी और पश्चिम का मौनी है.
भागा धौन्यानि : खसों की पुरखिन
धौनी लोगों की एक पुरखिन ‘भागा धौन्यानि’ के नाम से कुमाऊँ की कुछ लोक कथाओं में चर्चित है. उसके वीरतापूर्ण कृत्यों और शारीरिक बल से सम्बंधित गाथाओं को धान इत्यादि की गुड़ाई के समय ‘गुड़ोल’ गीतों में लोगों को उत्साहित करने के लिए गया जाता था. धौन के वर्तमान बस अड्डे के पास चार-पांच कुंतल भारी ग्रेनाईट की चपटी और एक आयताकार शिला पत्थरों के चबूतरे पर स्थापित है. इस पर प्रायः घसियारिनें अपनी दराती घिसकर उनकी धार तेज किया करती थीं. इसे ‘भागा धोन्यानिको उध्युनो’ (भागा धोन्यानी का दराती की धार तेज करने का पत्थर) कहा जाता है. कहते हैं कि वह इतनी शक्तिशाली थी कि इतने भारी ‘उध्यूने’ को, जो उसके लिए एक मामूली पत्थर का टुकड़ा मात्र था, अपनी घाघरी (लहंगे) के फेटे में लपेटकर घास काटने जाया करती थी.
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एक धौनी ने अपनी बेटी फुंगर के बोरा से ब्याह दी. फुंगर का बोरा अपनी ससुराल सिलंग में प्रायः आया करता था और जब भी ससुराल आता, अपनी पत्नी को ताने देता रहता, ‘गरखा जै ऊनो, करड़ा-चूंल खै ऊनो, पुरानो करकिल्लो खै ऊनो’. (अर्थात ‘गरखा’ (मामूली भरण-पोषण वाली जमीन) हो आऊंगा, लाल चावल का भात और पुराने करबिल्ले का साग खा आऊंगा). ऐसा कहकर वह अपनी पत्नी को जतलाना चाहता था कि तुम्हारे मायके वालों का खाना-पीना बहुत घटिया किस्म का है. रोज-रोज के इन तानों से उसकी पत्नी तंग आ चुकी थी. उसने अपने मायके वालों को सन्देश भिजवाया कि ‘अगर ‘आप लोगों’ ने मेरे पति को उसकी हरकतों के लिए मुंहतोड़ जवाब नहीं दिया तो मैं चमलदेव के झूले से लटककर आत्महत्या कर दूँगी.’ इस पर दोनों कुलों में शत्रुता हो गयी. फुंगर के बोरा को जब पता चला कि धौनी लोग उसकी हरकतों से चिढ़े हुए हैं, वह अपने दल-बल के साथ धौनियों की ‘धाड़’ (लूटपाट) करने के इरादे से चढ़ आया. धौनियों के चारों धड़े बोरा का सामना करने के लिए तैयार हुए. सबसे आगे सिलंग के धौनी, उसके बाद बसकूनी, नौढुंगा और चौपता के धौनी लोग एकत्र होकर ओल्का फरस्यां नामक स्थान पर आ गए. इनकी सहायता के लिए किमसौन का दांग (दल) भी आ पहुँचा. यहाँ पर बोरा को पराजित कर उसके सिर के बाल मूंड दिये गए और उसे बंदी बना लिया गया. छह माह तक वह बंदी रहा. उसके बाद उसकी पत्नी ने सन्देश भिजवाया कि ‘यह धाड़ तो साले-भिना का मजाक था, अब सिर के बाल उग आए होंगे, वापस चले आओ.’ बोरा वापस तो चला आया पर वह अपमान का बदला लेना नहीं भूला. उसने धौनियों के लिए माल (तराई-भाबर) से आने वाला नमक रोक दिया. नमक न मिलने से धौनी लोग परेशान हो गए. धौनियों ने पुनः अपने योद्धा तैयार किये और बेलखेत (लध्यों और क्वेराला गाड़ का संगम-स्थल) में बोरा के योद्धाओं को पुनः पराजित कर दिया.
गुमदेश का धौनी पहुंचा तल्ला सालम होते हुए दुनिया भर के लोगों के दिल में तल्ला सालम में जेंती से तीन किलोमीटर ढलान पर पनार नदी के किनारे एक सूखा-सा गाँव है ल्वाली, जहाँ भारतीय क्रिकेट के मिथक बन चुके कप्तान महेंद्र सिंह धौनी के पूर्वज गुमदेश के शिलंग से आकर बसे. ल्वाली को देखकर कतई नहीं लगता कि इस सूखी आबोहवा के बीच किसी पैक के मन में यहाँ बसने और भरण-पोषण का लालच पैदा हो सकता है.
लेकिन यह हालत तो पैकों के इस गाँव की आज है. चंद राजा के ज़माने में ल्वाली का धौनी और निरई का बोरा राजा के सबसे विश्वस्त थोकदार माने जाते थे. ल्वाली के पड़ौसी गाँव डोल के सबसे निचले छोर पर एक छोटे-से स्रोत के रूप में फूटने वाली पनार नदी जो आगे चलकर अल्मोड़ा, चम्पावत और पिथौरागढ़ जिलों के बीच बहने वाली सबसे बड़ी नदी बन जाती है, के ठीक स्रोत पर बसे इस गाँव के आसपास पैदा होने वाली बासमती की चर्चा पुराने ज़माने से ही राजा की खास रसोई में सुनाई देती थी. नदी किनारे पुराने थोकदारों की भैंसों के रेवड़ रहते थे; सारा इलाका दूध-घी और मास (उड़द)-गडेरी के ताकतवर खाद्यान्नों से भरा रहता. इस इलाके में पैदा होने वाली मास की दाल इतनी सख्त और पौष्टिक होती थी कि पैक लोग अपने घरों के लिए पत्थरों की चिनाई में इसके पेस्ट का इस्तेमाल सीमेंट की तरह किया करते थे. सैकड़ों बरस पहले निर्मित पैकों के घरों के खंडहर आज भी इलाके में मौजूद हैं, इन विशालकाय घरों में चिने गए पत्थरों के कोने वक्त की मार की वजह से भले कहीं-कहीं टूट गए हों, मास की दाल से जोड़ी गयी भारी-भरकम शिलाओं की चिनाई आज भी ज्यों-की-त्यों अपनी जगह खड़ी है. (इस पोस्ट में मैंने तीन सदी से पहले के बने अपने पुरखे पैकों के घर ‘पारै कुड़ि’ (दूर का पुराना घर) का जो चित्र दिया है, वह पैकों के अकल्पनीय स्थापत्य का गवाह है. यह फोटो मेरे बचपन के दिनों का है.)
क्रिकेट की दुनिया में प्रवेश करते ही जब महेंद्र सिंह धौनी 2005 में श्रीलंका के खिलाफ 183 और पाकिस्तान के खिलाफ 148 रन बनाने के बाद दुनिया भर के खेल-प्रेमियों के दिल में बस गया था, उसी क्षण ल्वाली गाँव के लोगों को इस बात का भरोसा हो गया था कि यह चमत्कार कोई पैक-पुत्र ही कर सकता है. बाद में जब उसने एक-दिवसीय सिरीज में 7 पायदान पर बल्लेबाजी करते हुए कई शतक लगाये और कप्तान के रूप में अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट में सबसे अधिक 6 शतक बनाये, लोगों का यह विश्वास गहरा होता चला गया. यही नहीं, यह विश्वास ल्वाली गाँव के साथ पूरे देश और दुनिया के मन में बसता चला गया… धौनी के चमत्कार का सबसे बड़ा नमूना था, सातवें पायदान पर बल्लेबाजी करते हुए अंतर्राष्ट्रीय एक-दिवसीय मैच में शतक लगाना. दुनिया भर के खेल प्रेमी उस वक़्त दंग रह गए जब उसने अंतर्राष्ट्रीय टेस्ट मैचों में 4,000 रन बनाये और किसी भारतीय कप्तान द्वारा अंतर्राष्ट्रीय टेस्ट मैच में 224 रन का उच्चतम स्कोर प्राप्त किया.
कहानी कहाँ से शुरू हुई थी, कहाँ पहुँच गई! बड़े भाई ने सुबह के बिछुड़े मौन (मधुमक्खी) को शाम को अपने पास बुलाकर राजा के द्वारा प्रदान की गयी ‘मौनी’ उपाधि पाई तो छोटे भाई को धौन में रहने के कारण धौनी की. इस सारे प्रकरण से हटकर ल्वाली के पैक महेंद्र सिंह ने जो चमत्कार कर दिखाया, उसे सुनकर तो सिर्फ हतप्रभ हुआ जा सकता है. सच यह भी है कि इस तरह का चमत्कार एक पैक ही कर सकता है.
(क्रमश:)
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