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Home » भाष्य : रामपुर बाग़ की प्रेम कहानी (वीरेन डंगवाल) : सदाशिव श्रोत्रिय

भाष्य : रामपुर बाग़ की प्रेम कहानी (वीरेन डंगवाल) : सदाशिव श्रोत्रिय

(Photo by Rohit Umrav) वीरेन डंगवाल की सम्पूर्ण कविताएँ, ‘कविता वीरेन’ के ‘असंकलित और नयी कविताएँ’ खंड में एक कविता है ‘रामपुर बाग़ की प्रेम कहानी.’ यह कविता कहानी है पर्यावरण विनाश और उसमें विनष्ट हो रही संवेदना की. शायद यह पहली ऐसी कविता है जिसमें किसी उजाड़ बाग के भटके नर वानर और उसके […]

by arun dev
December 22, 2018
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(Photo by Rohit Umrav)



वीरेन डंगवाल की सम्पूर्ण कविताएँ, ‘कविता वीरेन’ के ‘असंकलित और नयी कविताएँ’ खंड में एक कविता है ‘रामपुर बाग़ की प्रेम कहानी.’

यह कविता कहानी है पर्यावरण विनाश और उसमें विनष्ट हो रही संवेदना की. शायद यह पहली ऐसी कविता है जिसमें किसी उजाड़ बाग के भटके नर वानर और उसके एक स्त्री-प्रेम को इतने  मार्मिक और माकूल ढंग से उभारा गया है. वीरेन की कुछ अच्छी कविताओं में निश्चित रूप से यह कविता है.

वरिष्ठ लेखक सदाशिव श्रोत्रिय का पिछले कुछ महीनों से या कह लीजिये जब से यह महत्वपूर्ण संग्रह \’नवारुण\’ ने छापा है कवि वीरेन से आत्मीय और सृजनात्मक संवाद चल रहा है. वीरेन पर यह उनका तीसरा लेख है (दोनों लेखों के लिंक नीचे दे रहा हूँ).

एक भावक किस तरह से कविता के पास जाता है और उसकी परतें खोलता है उसका उदाहरण यह भाष्य है. ख़ास आपके लिए. 

______________________



रामपुर बाग़ की प्रेम कहानी : वीरेन डंगवाल


यह कोई रूपक नहीं
न निजंधर न कूटकथा न मनोकाव्य
न व्यंग्य न परिहास
न समाजेतिहास न नृतत्वशास्त्र
यह ये सब कुछ है थोड़ा बहुत
और सबसे बढ़ कर थोड़ा दिमागी ख़लल शायद
जैसा कि हर प्रेम कहानी होती ही है


कभी यहाँ एक नवाब का विशालकाय घना बाग़ था
आम-अमरुद-जामुन और कटहल का
यह पचासेक साल पहले की बात है
गणतंत्र बन चुका था
लेकिन राजे नवाब ज़िमींदार वगैरह भी थे ही


फिर पेड़ कटे
कोठियां बनने लगीं पहले थोड़ी भव्य
फिर क्रमश: आलीशानतर
कालोनी बनी जिसका नाम स्वत: पड़ा
या रखा गया
रामपुर हाता और कालांतर में रामपुर गार्डन
अलबत्ता बाग़ रहा नहीं
मगर बंदरों को
संकरी सड़कों और हर मेल की
कारों-मोटर साइकिलों-स्कूटरों से गची पड़ी
कुछ सजावटी पेड़ों के अलावा वृक्षहीन
इस कालोनी से
अभी भी बहुत लगाव है
यह शायद उनकी जातीय स्मृति हो
विध्वंस और विस्थापन के विरुद्ध
उनका सामूहिक क्षोभ !
उनके झुंड यहां बराबर छापे मारते रहते हैं


कोठियों की छतें उनके क्रीड़ांगण हैं
टेलीफोन-केबल के तार
आम की लचकदार टहनियों की तरह उनके झूले
वे घरों से डबलरोटियां फल और कपड़े उठा ले जाते हैं
घुड़कते हैं हाउसकोट काफ़्तान पहनीं
अधेड़ गिरस्थिनों और उनकी युवा बहुओं को
जिनके पतिजन तो गए
अपनी दूकानों-दफ़्तर-कारखा‌नों को
और औलादें व्यस्त
स्कूल-टीवी-मोबाइल में
उनमें कोई दिलचस्पी नहीं बंदरों को
उनकी मांओं में शायद है


अपने छोटे छोटे मोटे हाथों में
एक साबूत डबलरोटी थामे
तिमंजिले के छज्जे से कुछ यों घूर रहा है
वह बलिष्ठ बंदर श्रीमती चड्ढा को
कि उनकी कनपटी गर्म और कान लाल हो आए हैं


रमण की उन कल्पनाओं के रहस्य
केवल ऊटपटांग रास्तों पर चलने वाले कवियों को पता है
या फिर उस मोटे बंदर को
अपने टोले पर जिसका वर्चस्व असंदिग्ध है
लेकिन जिसका हृदय
इन दिनों एक मानुसी के लिए धड़कने लगा है
और श्रीमती चड्ढा ?
इधर मंगलवार को प्रसाद चढ़ाते समय
पता नहीं क्यों उनकी आंखें पूरा पहाड़ हथेली पर उठाए हनुमानजी के
चरणों से ऊपर ही नहीं उठ पातीं


रात का खटका
‘खटाक’ से गिरता है
जैसे पिंजरे का द्वार .
अंधेरे में छत से आती है
एक प्रार्थनाभरी करुण कूंक


नगरनिगम ने बुलवाया है कहीं बाहर से
बंदर पकड़ने वाला पेशेवर दस्ता
जिसकी फ़ीस है एक सौ सत्तर रुपये फी बंदर
बैचेनी से करवट बदलतीं श्रीमती चड्ढा
चोर निगाहों से देखती हैं
नशे और नींद में धुत्त अपने पति को
जिसकी लार एक हज़ार रुपया कीमत के
नफ़ीस तकिये को सतत भिगो रही है


और ऊपर एक वानर यूथ पति
नवाब रामपुर के बाग़ का मूल अधिवासी
पूर्ण चंद्रमा जैसे टीवी डिश पर
अपना शीश टिकाये
अंधकार में आंसू भरे नेत्रों से
ताक रहा है तारों को
ढूंढता उन्हीं में
आम का वह भव्य दरख़्त
अपने कुनबे का छीन लिया गया आशियाना
जिसकी शाखों पर केलि करते थे
उसके पुरखे-पुरखिनें
अब तो हज़ारों रातें बीत चुकीं
ठंडे सीमंट से पेट सटा कर सोते हुए
बीत चुकीं लू-लपट से तपतीं
हज़ारों प्यास-ख़ुश्क दोपहरें
गर्म पानी से भरी पानी की टंकियों से जूझते
कुत्तों-पत्थरों और हुलकारती
हिंसक आवाज़ों से
कूदते भागते गए जाने कितने
सूखे विस्थापित दिन
लेकिन टांड पर मार कर बतौर चेतावनी टांगी गयी
सहजातियों की लाशें
भयाक्रांत करने के बावजूद
मंद नहीं कर पातीं
उस पुराने सपने का सम्म्मोहन 


यूथपति एक प्रौढ़ वानर संकल्प लेता है :
फिर से यहीं बनाएंगे
अपना वह बाग़
फिर से प्यार करेंगे
पेड़ों की घनी-भारी डालों पर
सब विजातियों को भगा देंगे
बस एक उसी मानुसी को छोड़ कर
जिसकी वसंत में आम के नए पत्तों जैसे हरे परिधान में देखी
                                     करुणामय छवि
हृदय से उतरती नहीं
जो गोया उस पुराने भव्य आम्रवृक्ष
का ही कमनीय प्रतिरूप है


न कोई रूपक, न निजंधर
न व्यंग्य न समाजेतिहास
थोड़ा दिमाग़ी ख़लल, बस, शायद.

वीरेन की कविता रामपुर बाग़ की प्रेम कहानी
प्रकृति   और   प्रेम                        

सदाशिव श्रोत्रिय


किसी कविता का विषय या उसका कच्चा मसाला तो कुछ भी हो सकता है पर कविता में जो बात महत्वपूर्ण है वह यह है कि उस विषय  या कच्चे मसाले का उपयोग करते हुए कोई कवि वास्तव में किसी नए प्रकार के काव्यात्मक अनुभव का सृजन कर पाता है या नहीं.
वीरेन डंगवाल की कविता रामपुर बाग़ की प्रेम कहानी  (कविता वीरेन, पृष्ठ 410) को पढ़ते हुए मुझे महसूस हुआ कि पर्यावरण विनाश जैसे विषय पर लिखा तो कई लोगों ने है पर  इस कवि ने अपनी अनूठी  रचनात्मकता और विशिष्ट कल्पना द्वारा इस विषय से संबंधित कच्ची सामग्री का उपयोग करते  हुए जिस कविता की रचना की वह अपने आप में अद्भुत है. कवि स्वयं कविता के इस रूप को किसी विशेष नाम से अभिहित करने में थोड़ी कठिनाई महसूस करता है :

यह कोई रूपक नहीं
न निजंधर न कूटकथा न मनोकाव्य
न व्यंग्य न परिहास
न समाजेतिहास न नृतत्वशास्त्र
यह ये सब कुछ है थोड़ा बहुत
और सबसे बढ़ कर थोड़ा दिमागी ख़लल शायद
जैसा कि हर प्रेम कहानी होती ही है


इसके बाद कवि बताता है कि स्वतंत्रत –प्राप्ति के बाद किस तरह रामपुर बाग़ नाम का एक नवाब का आम-अमरूद-जामुन और कटहल का एक विशालकाय घना बाग़ रामपुर हाता और फिर रामपुर गार्डन नाम की एक कोलोनी में तब्दील हो गया :

….पेड़ कटे
कोठियां बनने लगीं पहले थोड़ी भव्य
फिर क्रमश: आलीशानतर
कालोनी बनी जिसका नाम स्वत: पड़ा
या रखा गया
रामपुर हाता और कालांतर में रामपुर गार्डन

इस परिवर्तन ने इस क्षेत्र की प्राकृतिक शोभा और इसके निवासी वानरों को जिस गहराई से प्रभावित किया उसे यह कवि थोड़ी नृतत्वशास्त्रीय भाषा का प्रयोग करते हुए बयान करता है :

अलबत्ता बाग़ रहा नहीं
मगर बंदरों को
संकरी सड़कों और हर मेल की
कारों-मोटर साइकिलों-स्कूटरों से गची पड़ी
कुछ सजावटी पेड़ों के अलावा वृक्षहीन
इस कालोनी से
अभी भी बहुत लगाव है
यह शायद उनकी जातीय स्मृति हो
विध्वंस और विस्थापन के विरुद्ध
उनका सामूहिक क्षोभ !
उनके झुंड यहां बराबर छापे मारते रहते हैं



इसके बाद कवि इस नई कोलोनी में इन वानरों की चपल क्रीड़ाओं का रोचक वर्णन करता है जिनमें स्त्रियों के साथ उनके विशिष्ट-घनिष्ठ  संबंध खास तौर से वर्णित हैं :

कोठियों की छतें उनके क्रीड़ांगण हैं
टेलीफोन-केबल के तार
आम की लचकदार टहनियों की तरह उनके झूले
वे घरों से डबलरोटियां फल और कपड़े उठा ले जाते हैं
घुड़कते हैं हाउसकोट काफ़्तान पहनीं
अधेड़ गिरस्थिनों और उनकी युवा बहुओं को
जिनके पतिजन तो गए
अपनी दूकानों-दफ़्तर-कारखा‌नों को
और औलादें व्यस्त
स्कूल-टीवी-मोबाइल में
उनमें कोई दिलचस्पी नहीं बंदरों को
उनकी मांओं में शायद है


दृष्टव्य है कि इन पंक्तियों में कवि किस तरह आज के जीवन में घर-परिवार की निरंतर घटती जाती भूमिका पर टिप्पणी करता है और उस जीवन दृष्टि के क्षय की ओर पाठक का ध्यान आकर्षित जिसमें प्रकृति के अन्य पशु-पक्षियों की भी बराबर भागीदारी थी.  इस बिंदु से यह कहानी किसी कूटकथा या निजंधर (myth/legend) का सा रूप भी लेने लगती है जिसमें किसी स्त्री और वानर के बीच प्रेम-सम्बंध असम्भव नहीं होता :

अपने छोटे छोटे मोटे हाथों में
एक साबूत डबलरोटी थामे
तिमंजिले के छज्जे से कुछ यों घूर रहा है
वह बलिष्ठ बंदर श्रीमती चड्ढा को
कि उनकी कनपटी गर्म और कान लाल हो आए हैं


यहां कवि  एक बंदर और एक मानुषी के सम्बंधों  की चर्चा करते हुए उस करुणा मिश्रित प्रेम के वर्णन को भी ले आता है जो हर संवेदनशील इंसान को न केवल उन पशु-पक्षियों बल्कि उन आदिवासियों की व्यथा को समझने में और उनसे प्रेम करने में समर्थ बनाता है जिनसे उनका वह परम्परिक परिवेश छीना जा रहा है जो उनके जीवन का एकमात्र सम्बल था :

रमण की उन कल्पनाओं के रहस्य
केवल ऊटपटांग रास्तों पर चलने वाले कवियों को पता है
या फिर उस मोटे बंदर को
अपने टोले पर जिसका वर्चस्व असंदिग्ध है
लेकिन जिसका हृदय
इन दिनों एक मानुसी के लिए धड़कने लगा है
और श्रीमती चड्ढा ?
इधर मंगलवार को प्रसाद चढ़ाते समय
पता नहीं क्यों उनकी आंखें पूरा पहाड़ हथेली पर उठाए हनुमानजी के
चरणों से ऊपर ही नहीं उठ पातीं

पाठक यहां निश्चय ही यह प्रश्न कर सकता है कि श्रीमती चड्ढा के मन में इस वानर यूथपति के प्रति कभी जो सहानुभूति का भाव उत्पन्न हुआ होगा वह क्या अब उसके प्रति शारीरिक आकर्षण की सीमा तक जा पहुंचा है. कहीं ऐसा तो नहीं कि जो साबूत डबलरोटी यह वानर अपने हाथों में थामे है वह उसके द्वारा चुराई गई न होकर श्रीमती चड्ढा की ही दी हुई हो ? जो लोग कुत्ता-बिल्ली-गाय –बंदर आदि जानवर पालते हैं वे उनकी आंखों में कभी कभी दिखाई देने वाली उस चमक से भी वाकिफ़ होते हैं जो उनके मनुष्य और पशु होने के भेद को भुला उन्हें एक गहरी आत्मीयता के बंधन में बांध देती है.  (गीता के सुपरिचित श्लोक “विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि. शुनि चैव श्वपाके च पंडिता: समदर्शिन: ॥” का रचयिता भी क्या विभिन्न जीवों की आंखों में दिखाई देने वाली इस आत्मीय चमक से परिचित था ?)

पर एक स्त्री और वानर के बीच प्रेमसम्बंध का विषय एक आधुनिक कवि के लिए भी एक बड़ी चुनौती बन कर आता है. उसके लिए श्रीमती चड्ढा का इस वानर को अपने पति से भी अधिक चाहने लगना बताना ज़रूरी है. कवि अपने इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए  उन क्रूरताओं का वर्णन ले आता है जो पशु-पक्षियों के साथ अपने पिछले मैत्री-सम्बंधों को भुला आज मानव उनके प्रति करने लगा है. वह नगरनिगम द्वारा कहीं बाहर से बुलवाए गए बंदर पकड़ने वाले एक पेशेवर दस्ते का ज़िक्र करता है  जो  रात के समय किसी बड़े पिंजरे में बंदर पकड़ता है और जिसकी  आवाज़  सुनकर अपने पति की बगल में लेटी श्रीमती चड्ढा को अपने शराबी पति से घिन आने लगती है :

रात का खटका
‘खटाक’ से गिरता है
जैसे पिंजरे का द्वार .
अंधेरे में छत से आती है
एक प्रार्थनाभरी करुण कूंक

नगरनिगम ने बुलवाया है कहीं बाहर से
बंदर पकड़ने वाला पेशेवर दस्ता
जिसकी फ़ीस है एक सौ सत्तर रुपये फी बंदर
बैचेनी से करवट बदलतीं.श्रीमती चड्ढा
चोर निगाहों से देखती हैं
नशे और नींद में धुत्त अपने पति को
जिसकी लार एक हज़ार रुपया कीमत के
नफ़ीस तकिये को सतत भिगो रही है


पर कवि का काम इतने से भी चलने वाला नहीं है. उसके लिए  आवश्यक है कि वह अब इस बंदर के मन-शरीर में प्रवेश करके उसके दृष्टिकोण से भी इस बदलाव को दिखाए. और यह तभी सम्भव है जब यह कहानी किसी लोककथा सा रूप ले ले. वीरेन डंगवाल परकाय-प्रवेश की अपनी अद्भुत क्षमता से इस कविता में आगे जो लिखते हैं वह कम रोचक नहीं है :

और ऊपर एक वानर यूथ पति
नवाब रामपुर के बाग़ का मूल अधिवासी
पूर्ण चंद्रमा जैसे टीवी डिश पर
अपना शीश टिकाये
अंधकार में आंसू भरे नेत्रों से
ताक रहा है तारों को
ढूंढता उन्हीं में
आम का वह भव्य दरख़्त
अपने कुनबे का छीन लिया गया आशियाना
जिसकी शाखों पर केलि करते थे
उसके पुरखे-पुरखिनें
अब तो हज़ारों रातें बीत चुकीं
ठंडे सीमंट से पेट सटा कर सोते हुए
बीत चुकीं लू-लपट से तपतीं
हज़ारों प्यास-ख़ुश्क दोपहरें
गर्म पानी से भरी पानी की टंकियों से जूझते
कुत्तों-पत्थरों और हुलकारती
हिंसक आवाज़ों से
कूदते भागते गए जाने कितने
सूखे विस्थापित दिन


हम देख सकते हैं कि इस क्षेत्र के प्राकृतिक पर्यावरण का विनाश इसके मूल निवासियों के जीवन लिए किस तरह की अप्रत्याशित चुनौतियां लेकर आया है. विकास के नाम पर पशु-पक्षियों या आदिवासियों पर ढाए जा रहे इस तरह के जुल्म को या तो कोई कवि समझ सकता है या उसका सहृदय उस फिल्म-निर्माता जैसा कोई व्यक्ति जिसने भारतीय बंदरों पर  डिस्कवरी चैनल पर दिखाई गई एक लम्बी डोक्यूमेंटरी फिल्म बनाई थी. वीरेन जी अपनी कहानी को आगे बढाते हुए लिखते हैं:

लेकिन टांड पर मार कर बतौर चेतावनी टांगी गयी
सहजातियों की लाशें
भयाक्रांत करने के बावजूद
मंद नहीं कर पातीं
उस पुराने सपने का सम्म्मोहन 

यूथपति एक प्रौढ़ वानर संकल्प लेता है :
फिर से यहीं बनाएंगे
अपना वह बाग़
फिर से प्यार करेंगे
पेड़ों की घनी-भारी डालों पर
सब विजातियों को भगा देंगे
बस एक उसी मानुसी को छोड़ कर
जिसकी वसंत में आम के नए पत्तों जैसे हरे परिधान में देखी करुणामय छवि
हृदय से उतरती नहीं
जो गोया उस पुराने भव्य आम्रवृक्ष
का ही कमनीय प्रतिरूप है

अपनी कहानी की इन अंतिम पंक्तियों में कवि अपने पाठकों को शायद यह भी सुझाना चाहता है कि प्राकृतिक पर्यावरण के विनाश के बाद उसकी पुनर्प्राप्ति की सम्भावना भी उतनी ही क्षीण और दुर्बल है जितनी इस प्रौढ़ वानर के उपर्युक्त संकल्प की पूर्ति की.

_____________

5/126 गो वि हा बो कोलोनी,
सेक्टर 14,उदयपुर -313001, राजस्थान.
मोबाइल -8290479063  


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