राकेश बिहारी ने समकालीन कथा-साहित्य पर अपने स्तंभ ‘भूमंडलोत्तर कहानी’ की शुरुआत लगभग चार वर्ष पूर्व समालोचन पर की थी. आज इसकी २१ वीं कड़ी योगिता यादव की कहानी ‘गलते पते की चिट्ठियाँ’ पर आधारित है.
यह स्तम्भ अब पूरा होने को है और जल्दी ही ये आलेख पुस्तकाकार प्रकाशित होंगे. २१ वीं सदी की हिंदी कथा-आलोचना में इसका अपना महत्व है. कथा की सभी प्रवृत्तियों का प्रतिनिधित्व यहाँ हुआ है. राकेश बिहारी ने इस आलोचना उपक्रम में कुछ प्रयोग भी किये हैं, कभी पाठक के पत्र के माध्यम से तो कभी खुद कथा का कोई पात्र ही कथा की विवेचना करता है.
‘प्रेम के नाम एक पत्र जो प्रेम-पत्र नहीं है’ में राकेश बिहारी कहानी की नायिका द्वारा संपादक को लिखे पत्र के माध्यम से इस कथा की विवेचना करते हैं.
भूमंडलोत्तर कहानी – 21
प्रेम के नाम एक पत्र जो प्रेम-पत्र नहीं है
(संदर्भ: योगिता यादव की कहानी ‘गलत पते की चिट्ठियाँ’)
राकेश बिहारी
आदरणीय प्रेम भारद्वाज जी,
नमस्कार!
ई मेल के जमाने में एक अजनबी फ़ीमेल का पत्र पाकर कहीं चौंक तो नहीं गए आप?
मेरा इरादा आपको परेशान करने का नहीं है, अलबत्ता मैं खुद ही थोड़ी परेशान या कहिए हैरान हूँ. आपके सामने मैं किसी पहेली की तरह नहीं उपस्थित होना चाहती. अतः पहले अपना परिचय ही दे दूँ- मैं मंजरी! व्यवसाय प्रबंधन में स्नातकोत्तर यानी एमबीए! आपने नहीं पहचाना न? अरे, मैं मंजरी, कनक कपूर की पत्नी! वही, जो उस दिन कबीर के साथ बस स्टॉप पर खड़ी थी. ओह! आप तो बिलकुल ही नहीं पहचान रहे मुझे. दरअसल मेरी परेशानी का सबब भी यही है कि आप मुझे नहीं पहचानते या कहूँ कि मुझे भुला दिया है आपने. 5 नवंबर 2016 की उस शाम जब `हंस’ के साहित्योत्सव में आप त्रिवेणी सभागार के मंच पर विराजमान थे, आपकी निगाहों के सामने आखिरी पंक्ति में मैं भी बैठी थी,बहुत उम्मीद के साथ कि आपकी नज़र मुझ पर जरूर जाएगी. जब तक आप मंचासीन थे आपकी नजरे इनायत को तरसती रही, पर आपको मेरी सुध नहीं आनी थी तो नहीं ही आई. प्लीज आप मेरी बातों से परेशान मत होइए, मैं कुछ और बताती हूँ आपको अपने बारे में ताकि आप मुझे ठीक-ठीक पहचान सकें.
आप योगिता यादव को तो जानते हैं न? वही योगिता जो कहानियाँ लिखती हैं. याद कीजिये, हंस के उस साहित्योत्सव के ठीक एक महीना पहले यानी अक्तूबर 2016 की पाखी में आपने उनकी एक कहानी प्रकाशित की थी- ‘गलत पते की चिट्ठियाँ’. वह मेरी ही कहानी तो थी- मैं यानी सांदली रानी जो खाती सुनार का थी और गाती कुम्हार का थी. सांदली यानी मैं, यानी मंजरी! सुनार यानी कनक कपूर यानी मेरे पति… और कुम्हार यानी कबीर, मेरा दोस्त! जानते हैं, प्रेम जी, जब योगिता जी ने मुझे रचना शुरू किया था, मैं डरी हुयी थी कि कहीं हमेशा से बुने जाते रहे प्रेम त्रिकोण में न फंसा दी जाऊँ, कि मेरे भीतर का नवोन्मेष किसी घिसे-पिटे फार्मूले की भेंट न चढ़ जाये. हालांकि मैं वही स्त्री हूँ जो जाने कब से पितृसत्ता का शिकार रही है … पर मैंने जिस तरह अपने आप को पुनराविष्कृत करने की कोशिश की थी, उसमें एक नयापन था.
मेरे भीतर का वह नयापन अपनी सार्वजनिक स्वीकृति के लिए छटपटा रहा था कि उन्हीं दिनो मुझे ‘हंस’ द्वारा आयोजित किए जाने वाले उस साहित्योत्सव के बारे में पता चला. दरअसल कबीर ने उस दिन जो किताब मुझे पढ़ने को दी थी, उसी में हंस के उस आयोजन का आमंत्रण पत्र रखा हुआ था, मुझे नहीं मालूम कि किताब के पन्नों के बीच उस आमन्त्रण पत्र का रखा जाना अनायास था या कि कबीर ने मुझे जानकारी देने के लिए उसे वहाँ जानबूझ कर रख छोड़ा था.
‘कहानी का समकाल : नयेपन की पहचान’– इस सत्र के आगे वक्ताओं की सूची में आपका नाम देखते ही मैंने उस कार्यक्रम में जाना तय कर लिया था. त्रिवेणी सभागार में उस दिन कबीर मेरी बगल की कुर्सी पर बैठा था, पर मेरी निगाहें आप पर जमी थीं. नयेपन की तलाश में जुटे वक्ताओं के शब्दों में मैं अपने जैसी स्त्रियों की बातें भी सुनना चाहती थी पर वे जाने किस दुनिया की बातें करने में तल्लीन थे. चूंकि एक महीना पहले ही आपने मेरी कहानी को अपनी पत्रिका में स्थान दिया था, मुझे यकीन था कि आपको मेरी याद जरूर आएगी. लेकिन अपने भीतर के नयेपन को पहचाने जाने की मेरी बेचैनी तब एक गहरी उदासी में बदल गई जब आपने भी अपने वक्तव्य में मुझ जैसी आज की सांदली रानियों का कोई जिक्र तक नहीं किया.
आप एक खास किस्म की ओजपूर्ण वाणी में कुछ भी नया नहीं कह पाने के लिए समकालीन कहानी को कोस रहे थे और मैं लगातार यह सोच रही थी कि आपने क्या सोच कर मेरी कहानी प्रकाशित की होगी…मुझे ‘पाखी’ के पन्नों पर उतारने का निर्णय करते हुये मेरे भीतर करवट लेते नयेपन पर आपकी नज़र गई भी थी या नहीं? या फिर मेरी सर्जिका योगिता यादव जी के लेखकीय जीवनवृत्त ने ही तो आपको उस निर्णय तक नहीं पहुंचा दिया था?
मेरी उदासी, बेचैनी और यह आशंका तब से मेरे भीतर जड़ जमाए बैठी हुई है. कभी सोचती हूँ कि ‘पाखी परिचर्चा’ के बहाने ही आपसे मिल कर अपनी जिज्ञासाओं का समाधान कर आऊँ, पर यह सोच कर संकोचवश ठहर जाती हूं कि कुछ खास विद्वानों और विदूषियों के लिए आरक्षित उस सभा की धवल आभा मुझ आम स्त्री के आ पहुँचने से कहीं धूसर तो न हो जाएगी? पर मेरी बेचैनी है कि लगातार बनी हुई है, इसीलिए आज आपको यह पत्र लिखने बैठ गई. मुझे इस बात का पूरा-पूरा इल्म है कि एक संपादक का समय कितना कीमती होता है, इसलिए मन ही मन मैं उन सभी लेखक-लेखिकाओं के आगे क्षमाप्रार्थी हूँ जिनकी रचनाएँ मुझ नाचीज़ की चिट्ठी पढे जाने के कारण आपके कर कमलों तक किंचित विलंब से पहुंचेंगी.
जबसे आपने मेरी कहानी प्रकाशित की है, मैं तभी से आप से मिलना चाहती थी. मिलकर आपसे बताना चाहती थी कि किसी स्त्री के लिए अपने भीतर बसे कस्तूरीगंध को खोज लेना कितना सुखद और प्रीतिकर होता है. यह भी कि एक स्त्री खुद को न पहचाने जाने की बेचैनी से उत्पन्न त्रासदी के आस्वाद को ग्रहण करते हुये किन दारुण मनःस्थितियों से गुजरती है. अपनी सर्जिका योगिता जी के बाद मुझे इसके लिए सबसे ज्यादा उपयुक्त आप ही लगे.
तभी आपको यह खत लिख रही हूँ. घर–परिवार और समाज के हाशिये पर निर्वासित जीवन जीने को मजबूर मुझ जैसी स्त्रियाँ खुद को नए सिरे से खोज लेने की खुशी और आप जैसों द्वारा नहीं पहचाने जाने की पीड़ा से उपजी छटपटाहट के दो पाटों के बीच किस बेचैनी से अपनी सांसों का हिसाब रखती हैं, हो सके तो कभी ठहरकर इस बावत भी सोचिएगा.
उन दिनों जब योगिता जी कहानी की तलाश में लगभग हर शाम अपने दफ्तर से निकलते हुये मेरे घर तक आ जाया करती थीं, मैं उनसे खूब-खूब बतिआती थी. मैंने उन्हें बताया था कि शादी के बाद नौकरी छोड़ कर घर-बार सम्हालने के कनक के प्रस्ताव को स्वीकार लेना मेरे लिए बहुत सहज नहीं था. पर कुछ तो ससुराल वालों का लिहाज तो कुछ नए घर की जिम्मेवारियों के प्रति मेरे भीतर ठूंस-ठूंस कर भरे गए सिखावनों का दबाव, मैंने भारी मन से अपनी एमबीए की डिग्री ड्राअर के हवाले कर अपने पढे-लिखे हाथों में व्यंजनों की रेसिपी बुक्स थाम ली थी.
अपने भाइयों और साथी पुरुष-मित्रों की तरह छह अंकीय तन्ख्वाह वाली नौकरी का सपना सँजोने वाली मेरी आँखें तब अक्सर ही अकेले में रो-रो कर सूज जाया करती थीं. पता नहीं योगिता जी उन बातों को भूल गईं या फिर मेरी उन बातों ने उन्हें प्रभावित ही नहीं क्या, उन्होंने कहानी लिखते हुये मेरी उस तकलीफ और बेचैनी का जिक्र तक नहीं किया. पर उसके बाद मेरे जीवन में जो कुछ बीता उन्होंने उसे बहुत बारीकी से महसूस किया है.
कुछ प्रसंग तो कहानी में इस खूबसूरती के साथ दर्ज हैं कि मैं खुद भी उन्हें उस तरह नहीं बता सकूँ. सच कहूँ तो उस कहानी को पढ़ने के बाद ही मैंने ठीक-ठीक यह समझा कि मेरे भीतर जो टूट कर बन-बिखर रहा था उसके अर्थ कितने गहरे और बहुपरतीय हैं. चाहे हम लाख सोच-विचार कर कोई निर्णय करें पर अपने किए की हर परत और उसकी नियति से हम खुद भी अनभिज्ञ होते हैं. कबीर जिस तरह मेरे जीवन में दाखिल हुआ, मुझे डर था कि कोई उसे ठीक उसी तरह समझ पाएगा. जाने क्यों मुझे लगता है कि योगिता जी की जगह कोई पुरुष होता तो शायद ही इस बात को समझ पाता. कनक के कनाडा जाने के बाद जब से कबीर मेरे जीवन में आया है, मैं जैसे खुद की यात्रा पर निकल पड़ी हूँ. थोड़ी सी असावधानी मेरी कहानी को एक विवाहेतर संबंध की समान्य कहानी में बदल सकती थी. मुझे खुशी है कि योगिता जी ने मेरी बारीक मनःस्थितियों को समझा और ऐसा नहीं होने दिया.
स्वयं के पुनर्संधान और इस क्रम में की गई अपनी अभिक्रियाओ में निहित नयेपन के दावे को सुन आप मुझ पर हंस तो नहीं रहे हैं न प्रेमजी! आप शायद यही सोच रहे होंगे कि मेरी कहानी में कुछ भी नया नहीं है – हमेशा की तरह चूल्हे चौके में झोंक दी जानेवाली एक पढ़ी लिखी स्त्री, घर से दूर अर्थोपार्जन के लिए गया पति, हर पल उसकी हर एक हरकतों पर वैसे ही नज़र रखना, घर से बाहर एक पुरुष से मित्रता, पति का बढ़ता शक और इन सबके बीच एक से अधिक तबाह होती ज़िंदगियाँ… हाँ, आपने बिलकुल ठीक सोचा, यह सब मेरी कहानी में भी मौजूद है.
मेरे एमबीए होने के बावजूद मुझे रसोई और घर की चहारदीवारी में कैद कर मेरा पति कनक कपूर बड़े पैकेज की नौकरी के लिए खुद कनाडा चला गया. यहाँ बच्चों की ज़िम्मेदारी, सास ससुर की सेवा और देवर, जो भाई की अनुपस्थिति में उसकी गाड़ी और मेरी साड़ी पर एक-सी नज़र रखता है, की लोलुप नज़रों से बचते-बचाते मैं हर कदम अपने होने और न होने के बीच खुद को एक सार्वजनिक आपूर्ति केंद्र में बदलता देखने को अभिशप्त रही.
ऐसे में कबीर जैसे सौम्य व्यक्ति का मेरी तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ाना मेरे लिए एक ऐसे रोशनदान का खुलना है जिसकी झिर्रियों से झर रही रोशनी में मैं खुद से दूर हो चले या कि कर दिये गए उस आत्म को तलाश सकती हूँ जिसका होना मेरे अस्तित्व की पहचान है.
जानते हैं, एक शाम योगिता जी ने मुझसे पूछा था कि मैं कनक से मुक्त क्यों नहीं हो जाती? कबीर के साथ नई ज़िंदगी शुरू कर अपने स्थगित जीवन को फिर से क्यों नहीं जीना शुरू कर देती हूँ? कि मुझे खुद पर खुद का दावा करने के लिए फिर एक पुरुष के कांधे की ही जरूरत क्यों है? हो सकता है ये प्रश्न आपके भीतर भी सर उठा रहे हों. योगिता जी से कही अपनी बात मैं आपके लिए भी दुहराना चाहती हूँ. विवाह संस्था और पितृसत्ता के अंतर्संबंधों को मैंने भली भांति पहचान लिया है. गोकि कबीर मेरे प्रति पर्याप्त सदाशय है, इसकी कोई गारंटी नहीं कि कल को वह कनक में नहीं बदल जाएगा. वैसे भी जो कबीर अपनी पत्नी की उपस्थिति में मुझे पहचान भी नहीं सकता वह मेरे साथ नया जीवन शुरू कर पाएगा यह मैं कैसे सोच सकती हूँ?
मैं जानती हूँ कि इस वक्त आप कबीर की पत्नी अस्मिता के सख्त और शक्की व्यवहार के आलोक में मेरी आशंकाओं को बेबुनियाद या बेजा समझ रहे होंगे. मैं जानती हूँ कि कबीर एक सौम्य इंसान है, मेरे लिए सदाशयी भी. पर अस्मिता के लिए भी वह ठीक ऐसा ही होगा मैं पूरे यकीन के साथ नहीं कह सकती. कनक को ही देखिये न मेरे साथ जिस तरह पेश आता है कनाडा में पाकिस्तान मूल की अपनी स्त्री सहकर्मी के साथ तो उसका यही व्यवहार नहीं होता होगा न? इसलिए कल को यदि मुझे यह पता चले कि अस्मिता के मन के किसी कोने में एक मंजरी भी रहती है तो मुझे आश्चर्य नहीं होगा.
जानते हैं प्रेमजी, एमबीए की पढ़ाई के दौरान हमने मैकग्रेगर की मोटिवेशन थियरि पढ़ी थी. प्रख्यात मैनेजमेंट गुरु मैकग्रेगर ने बताया था कि अपने अधीनस्थ कर्मचारियों को मोटिवेट करने के लिए एक प्रबन्धक दो तरह की मान्यताओं के अनुसार काम करता है. उन्हीं दो मान्यताओं को मैनेजमेंट साइंस में ‘थियरि एक्स’ और ‘थियरि वाई’ के नाम से जाना जाता है.
‘थियरि एक्स’ में विश्वास करने वाले मैनेजर जहां अपने कर्मचारियों के प्रति नकारात्मक सोच रखते हैं वहीं ‘थियरि वाई’ की मान्यताओं में विश्वास रखने वाले मैनेजर अपने कर्मचारियों के बारे में सकारात्मक मान्यताएँ रखते हैं. मैं सोचती हूँ कि यदि इसी तर्ज पर पुरुषों का वर्गीकरण किया जाय तो पति जहाँ अपनी पत्नी के साथ ‘थियरि एक्स’ की मान्यताओं के अनुरूप व्यवहार करते नज़र आएंगे वहीं, प्रेमी या पुरुष-दोस्त अपनी प्रेमिका या महिला-मित्र के साथ ‘थियरि वाई’ की मान्यताओं के अनुरूप व्यवहार करते मिलेंगे.
मैनेजमेंट के सिद्धान्त का उद्धरण देख कर आप किसी नकारात्मक मान्यताओं या पूर्वाग्रहों से तो नहीं घिर गए, प्रेम जी? मैनेजमेंट को ज्ञान के अनुशासन की तरह नहीं देख सकने के कारण अमूमन हमारी भाषा के लेखक-संपादक मैनेजमेंट शब्द सुनते ही बिदक जाते हैं, इसीलिए पूछ लिया. अब मेरी सृजनहार योगिता जी को ही देखिये न, एमबीए में मेरे दाखिले की बात बताते हुये उन्होंने क्या कहा है –
“जागीरों के खो जाने के बाद भी जो शासन करते रहना चाहते थे, उनके लिए नया कोर्स शुरू हो गया था एमबीए, सो होनहार इस लड़की को परिवार ने एमबीए करा दिया.”
मैं नहीं जानती कि मेरी कहानी को प्रकाशित करने से पूर्व मुझसे रूबरू होते हुये आपने यह सोचा भी था या नहीं, पर आपको नहीं लगता कि एमबीए जैसे आधुनिक व्यावसायिक पाठयक्रमों के बारे में ऐसी राय एक खास तरह के पूर्वाग्रह का ही नतीजा है? अपनी संतानों को मेडिकल, इंजीनियरिंग, एमबीए या किसी अन्य पाठ्यक्रमों में दाखिला दिलाते माता-पिता और अभिभावक क्या इस तरह की जाति-ग्रंथि से संचालित होते हैं कि किसी कोर्स विशेष को इस तरह लांछित किया जाय?
क्या यह सच नहीं कि बड़े-छोटे व्यावसायिक-गैरव्यावसायिक संस्थानों में जहां मुझ जैसे एमबीए डिग्रीधारी अच्छी ख़ासी संख्या में पाये जाते हैं, वहाँ एक नए तरह का सर्वहारा वर्ग विकसित हो रहा है, जिस पर एक अतिरिक्त संवेदनशीलता के साथ ध्यान दिये जाने की जरूरत है? यदि हाँ, तो मेरी कहानी से गुजरते हुये आपने योगिता जी से इस बाबत कोई चर्चा क्यों नहीं की? कहीं आप भी वर्गबोध और वर्गीय चेतना की जरूरी अवधारणा को उसी तंग नजरिए से तो नहीं देखते जो मैनेजमेंट साइंस को अस्पृश्य मानते हुये उसे ज्ञान के अनुशासन के रूप में भी स्वीकार नहीं करना चाहता है? उम्मीद करती हूँ कि हमेशा की तरह कारपोरेट और मैनेजमेंट जैसे शब्द भर की उपस्थिति से ही चिढ़ जाने के बजाय आप इन प्रश्नों के आलोक में मुझ जैस नए सर्वहाराओं की स्थिति पर भी विचार करने की उदारता दिखाएंगे. हाँ, तो फिर अपनी कहानी पर लौटती हूँ.
तलाक और पुनर्विवाह की संभावनाओं पर सोचना मुझे खुद को नए सिरे से उसी यातना चक्र के हवाले कर देना लगने लगा है. इस दौरान बच्चों को जिस संताप से गुजरना होता है वह भी कोई नई बात तो है नहीं. इसलिए मैंने यह तह किया है कि अपने बच्चों के साथ इसी जमीन पर खड़ी रहते हुये मैं अपने होने का दावा करूंगी. अपने भीतर बसी चंदन की उस खुशबू का संधान करूंगी जिसका अहसास मुझे एक खास तरह की चेतना से भर देता है. और हाँ, ऐसा करने सेमुझे अब कोई रोक नहीं सकता. मैं आपको यह भी स्पष्ट कर दूँ कि यह विवाह संस्था को बनाए रखने की कोई विकल्पहीन मजबूरी नहीं, बल्कि विवाह संस्था के भीतर अपने हिस्से की जमीन का नए सिरे से दावा है जिसे पितृसत्ता ने कब से अतिक्रमित कर हम सांदली रानियों को `किसी का खाने` और `किसी का गाने` की बाइनरी में कैद कर रखा है.
कनक ने कभी मुझे ‘टैब’ इसलिए लाकर दिया था कि नए-नए व्यंजनों की पाक-प्रविधि सीखकर उसकी और उसके परिवार की सेवा कर सकूँ. आज उसी ‘टैब’ का पासवर्ड उसके आहतपुरुष अहम को हर कदम असुरक्षित कर रहा है. खुद को पुनराविष्कृत कर लेने की मेरी खुशी उसे चैन से बैठने नहीं दे रही. आज अपने हाथ से मोबाइल ले लेने पर उसने मुझे चांटा भले मारा हो लेकिन मैं जानती हूँ कि मेरे सहज लौटते आत्मविश्वास को देख वह बेतरह विचलित है.
मुझे यह विश्वास है कि आज न कल उसे मेरी निजता और अस्मिता के दावे को स्वीकार करना ही होगा. यह सच है कि कनक ने जिन किताबों की दुनिया से मुझे दूर कर दिया था ‘टैब’ ने मेरी वह दुनिया मुझे नए सिरे से लौटा दी है. किताबें निःसन्देह हमारी रूह को आज़ाद करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती हैं,पर मैं किताबों को अपने लिए किसी ओट की तरह नहीं इस्तेमाल करना चाहती. मैंने योगिता जी से साफ-साफ बताया था कि मोबाइल और टैब ने मेरे लिए मेरे हिस्से की जमीन और आसमान दोनों का दरवाजा खोल दिया है और मेरी दुनिया सिर्फ किताबों से विनिर्मित नहीं होती. इसमें मेरे दोस्त, मेरी अभिरुचियाँ, पसंद-नापसंद, हंसी–रुदन, सपने–कामनाएँ, खूबियाँ–खामियां… सब उसी हक और बराबरी के साथ शामिल हैं जैसे वे अब तक पुरुषों के जीवन में शामिल रही हैं. मैं यह भी स्पष्ट कर दूँ कि बेशक कबीर मेरा अब दोस्त है, पर अब वह मेरा अकेला दोस्त नहीं, जिनके साथ व्हाट्सएप और मेसेंजर पर मैं संपर्क में रहती हूँ.
मुझे अछा लगता यदि योगिता जीने मोबाइल और टैब पर मेरी इस बृहत्तर दुनिया के बारे में भी बताया होता जो अपने हिस्से की हवा और धूप सिर्फ ज्ञान और आदर्श के वृक्षों से ही हासिल नहीं करती. ग्राहय और वर्जित के चयन का नैतिकताबोध मैंने खुद अर्जित किया है.
खुद को पुनराविष्कृत करने के इस दावे को आप इस नैतिकताबोध का उद्घोष भी कह सकते हैं. बहुत दूर तक साथ देने के बावजूद, पितृसत्ता से अर्जित यह योगिताजी का शुचिताबोध ही है, जो मेरी पवित्रता को अक्षुण्ण साबित करने के लिए मोबाइल और टैब पर मेरे किताब पढे जाने को ही गहराई से रेखांकित करती है. मैं अपना भला-बुरा खुद समझसकती हूँ, इसलिए मुझे मेरे सर्जक की थोपी हुई आचार संहिता भी स्वीकार्य नहीं है. मेरे भीतर की यह आवाज़ ही वह नवोन्मेष है जिसे मैंने अपनी अस्मिता के साथ पुनराविष्कृत और हासिल किया है.
पिछले कुछ दिनों में मैंने गौर किया है कि आप अपने फेसबुक पोस्ट और पाखी के संपादकीय में कथालोचना की दुर्दशा को लेकर खासा चिंतित दिखाई दे रहे हैं. आपकी इन चिंताओं में आलोचना के नये उपकरणों की तलाश की मांग भी शामिल है. हालांकि आलोचना के नए उपकरण की मांग कोई नई बात नहीं है, हर पीढ़ी का लेखक अपने समय की आलोचना से यही मांग करता रहा है. लेकिन हमेशा से रेखांकित की जाती रही इस जरूरत को ‘पहली बार’ कहे जाने के भ्रम के साथ किसी जुमले की तरह पुनः-पुनः दुहराते हये क्या कभी आपने यह सोचा है कि आलोचना के नए उपकरण किसी दूसरी दुनिया या आलोचना पुस्तकों से नहीं आयात किये जाते हैं, बल्कि उनके संधान के लिए पाठक/आलोचक/संपादक को रचना में ही धंसना होता है?
सिर्फ भाषा के कौतुक और शिल्प के चमत्कार तक ही नयेपन के तलाश को परिसीमित कर देने वाली दृष्टि सही अर्थों में नयेपन को रेखांकित कर सकें इसके लिए उन्हें मुझ जैसे आज के कथा-चरित्रों के भीतर की नई आहटों को महसूस करना होगा.
रचना के भीतर का नयापन अपने समय की समीक्षा के लिए नए उपकरण और शब्दावली का पता खुद दे देता है, बशर्ते पाठक-आलोचक अपने पूर्वनिर्धारित निष्कर्षों के घेरे से बाहर निकल कर उस नयेपन को पहचानने की कोशिश करें. क्या आपसे उम्मीद करूँ कि मुझ जैसों के जीवन-व्यवहारों में व्याप्त नयेपन पर आप नए सिरे से सोचेंगे?
आप एक पारखी संपादक व साहित्य की दुनिया के अनुभवी नागरिक हैं और मैं एमबीए डिग्रीधारी एक आम स्त्री, जिसे साहित्य की परंपरा का भी कोई बोध नहीं. इसलिए यदि मेरी किसी बात से आपको ठेस पहुंची हो तो मुझे इसका खेद है.
आपका बहुत समय लिया, अब इजाजत चाहती हूँ.
धन्यवाद और शुभकामनाओं सहित
मंजरी
पुनश्च: हाँ, यह पत्र आपको सिर्फ पढ़ने के लिए भेज रही हूँ, ‘पाखी’ में प्रकाशित करने के लिए नहीं.______