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समालोचन

Home » मंगलाचार : अनामिका शर्मा

मंगलाचार : अनामिका शर्मा

पेंटिग :emma-uber एक बिलकुल नई पीढ़ी, हिंदी कविता को अपने तरीके से लिखती हुई.  भाव, भाषा और शिल्प में अलग. अनामिका की कविताएँ पढ़ें और अपनी राय भी दें. अनामिका शर्मा की कविताएँ                        जिंदगी डीफ्रोस्ट आजकल जिंदगी डीफ्रोस्ट नहीं होतीबर्फ जमी रहती है गर्मियों […]

by arun dev
April 16, 2016
in Uncategorized
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पेंटिग :emma-uber









एक बिलकुल नई पीढ़ी, हिंदी कविता को अपने तरीके से लिखती हुई.  भाव, भाषा और शिल्प में अलग.

अनामिका की कविताएँ पढ़ें और अपनी राय भी दें.





अनामिका शर्मा की कविताएँ                       



जिंदगी डीफ्रोस्ट

आजकल
जिंदगी डीफ्रोस्ट नहीं होती
बर्फ जमी रहती है

गर्मियों की उस शाम
जो छोटा सा सपना देखा था
फिर फ़्रिज के किसी कोने में रख दिया था
पिघल जाने के डर से
फ्रीज़र में उस जगह
ढेर बन गया है धीरे –धीरे
रेफ्रीजेरेटेड सपनों की
स्नो- बॉल्स का

सुना है उत्तरी ध्रुव पर
बर्फ के घर बनाते हैं
चलो वहीँ चलते हैं
आइस-कोटेड सपनों का
एक घर हम भी बना लेंगे
जिसके आँगन में खेलेंगे
हमारे अजन्मे बच्चे.


बैकलॉग

मैंने कहा
“तुमसे प्यार है”
उसने इस बात को
सबसे आखिरी पन्ने पर लिखा
जैसे लिखता  था डेडलाइनस
ऑफिस के नोटपैड पर
याद रखने के भुलावे
और असल में
भूल जाने के लिए
मिलते रहे हम
ऑफिशियल मीट्स जैसे
प्यार आता रहा
जाता रहा
इन्स्टालमेन्टस में

कई बार सोचा
कोई रि-सेट बटन हो
तो उसे दबाकर
सब कुछ एक बार फिर से शुरू करें
पर ये जो ज़िन्दगी ऑफिस है न
इसका बैकलॉग कभी ख़तम नहीं होता


लड़की की पोनी

लड़की ने पोनी बनायीं
कसकर बाँध लिया सपनों को
झटक दी डैंड्रफ की तरह
बेवजह बातें
कि जिंदगी भी तो
रूटीन है एक बिगड़ा सा
ब्रेकअप-पैचअप
पैचअप-ब्रेकअप
के ठीक पहले
और ठीक बाद
जो भी होता है
वही तो अफ़ेयर है
जिंदगी से !

लड़की का वास्ता
“लिव इन दा मोमेंट” से कभी नहीं पड़ा
उसके लिए जीना लीनियर इक्वेशन है
जैसे रोज़ सुबह उठना
सलीके से फोर्मल्स पहनना
और चले जाना ऑफिस
शाम तक घूमते रहना
जैसे पृथ्वी घूमती है
अपनी ही धुरी पर

स्कूल में पढाया था
आकाश में बहुत सी पृथ्वियां हैं
बहुत सी पृथ्वियों के बहुत से चंद्रमा
लड़की भूगोल से बेखबर
भीड़ भरे बरिस्ता की
कार्नर सीट पैर बैठी है
अकेले बैठने वाले अक्सर
अपने आप से बातें करते हैं.

लडकियां

पंद्रह की उम्र में
उछल कर चलना चाहती हैं वो
चौराहों पर
बिना स्टैनिंग की परवाह के
जवान होती लडकियां
लहरा देना चाहती हैं
दुपट्टों को हवा में
एंड्रोजन की बारिश में भीगने के लिए
तभी थमा दी जातीं हैं उन्हें
कायदे की दो अलग किताबें
‘फॉर मेन’ और ‘एक्सक्लुसिवेली फॉर वीमन’
जिन पर लिखने वाले ने
अपना नाम कहीं नहीं लिखा
कौन है वो..??
धर्म? ग्रन्थ? या ईश्वर?
वो जो डरता है
की महीने के पांच दिन ब्लीड करके भी
बिना किसी करवाचौथ या अहोई अष्टमी के सहारे
सारी उम्र सर्वाइव करने वाली
बला ही तो होगी कोई..!!
और इसीलिए उनका आना भी
वर्जित होता है उसके तथाकथित ठिकानों पर
छोटी बच्चियां डर से बड़ी हो जाती हैं
और फिर बना दिया जाता है
जबरन उन नारियों का
सो- कॉल्ड उत्तराधिकारी
थैंकलेस जॉब..??
नहीं…!!
वो सीता नहीं बनेगीं
न उन्हें राम चाहिए
और तभी कदम रखेगी दोबारा
जब धर्मों के आंगनों का सेनेटाईजेशन होगा
मेन्स्ट्रूअल ब्लड से…!!

लड़की, फ्रेम और यादें

वो लड़की कहती थी
तस्वीरें लेने से लम्हें ज़िन्दा नहीं रहते,
उस ज़िन्दादिली के साथ
यादें फ्रेम हो जाती हैं
खुलकर जी नहीं पातीं.
हँसती हुई बड़ी-बड़ी आँखों से
रोती थी छिप-छिप कर
वो लड़की कहती थी
कैसे गल़त हूँ मैं?
जो किसी और से तुम्हें माँगा है
मैनें भी तो अपना हिस्सा बाँटा है.
अकेले में पहनती थी कभी साड़ी
सिंदूर लगा माथे पर
खामोशी से खुद को देखती जाती थी.
वो लड़की अक्सर यूँ ही
कल्पना के आईने पर
उतारी बिंदिया लगाती थी,
वो लड़की कहती थी
तस्वीरों में मत कैद करो
मेरी तरह मेरे लम्हों को
मुझे तो न दे सके
इन्हें तो आजादी दो.
सिलती थी चादर
भावनाओं की कतरनों से
और ओढ़कर उसे मिलनें आती थी,
इस तरह लड़ती-झगड़ती खुद से
हँसती हुई सिसकियों में
वो लड़की जीती जाती थी.
_________
अनामिका शर्मा
6 अक्टूबर  1991, शाहजहांपुर.
लगभग 1 साल तक अलग-अलग एम्.एन.सीज़ में काम, फिर 1.5 साल फोटो रिसर्चर. अब स्वतंत्र लेखन

anamika.poems@gmail.com

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